संपादकीय
तेलंगाना से कुछ अजीब सी खबर आई है, आन्ध्रप्रदेश और इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज रह चुके एक रिटायर्ड व्यक्ति से दो लोग अपने को आरएसएस का बताकर मिले, और केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा दिलाने के नाम पर उनसे मोटी रकम वसूली। भूतपूर्व जज के अलावा उनके परिवार से भी अमरीका में नौकरी दिलाने का झांसा दिया, और इसके एवज में भाजपा के लिए चुनावी बांड के जरिए चंदा लेने की बात कहते हुए ढाई करोड़ रूपए ठग लिए। अब तक कम पढ़े-लिखे लोग या टेक्नॉलॉजी को न समझने वाले लोग फोन पर आने वाले ओटीपी को देने की गलती कर बैठते थे, लेकिन यह बिल्कुल अलग किस्म का मामला है जिसमें हाईकोर्ट के जज रह चुके व्यक्ति ने इस तरह करोड़ों रूपए गंवा दिए, और यह मान लिया कि भाजपा के चुनावी बांड खरीदने से उसे केन्द्र सरकार में बड़ा ओहदा मिल जाएगा। जाहिर है कि भाजपा की तरफ से ऐसा कोई धोखा नहीं दिया गया है, और आरएसएस का भी इसमें नाम ही लिया गया है, लेकिन बाजार में भ्रष्टाचार को लेकर लोगों के मन में कितना भरोसा है यह इससे साबित होता है। हमारे आसपास तकरीबन हर हफ्ते एक-दो ऐसी गिरफ्तारियां होती हैं जिनमें लोग नौकरी लगाने का वायदा करके वसूली करते हैं जो कि किसी असली संभावना को लेकर नहीं होती, पूरी तरह से ठगी होती है। लेकिन हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज अगर ऐसी लंबी-चौड़ी और करोड़ों की ठगी के शिकार हुए हैं, तो उससे ऐसा लगता है कि सरकारों में व्यापक भ्रष्टाचार होने की साख काफी फैली हुई है, अब अगर जनधारणा ऐसी है, तो लोगों को सोचना चाहिए कि भारत की सरकारी व्यवस्था की साख दूर-दूर तक गड़बड़ है। फिर यह भी है कि मामूली सरकारी नौकरियों से परे मनोनयन से भरे जाने वाले बड़े-बड़े और ऊंचे ओहदे भी भ्रष्टाचार के शिकार हैं। दूसरी बात यह भी है कि यहां पर किसी की नियुक्ति रिश्वत लेकर हो या बिना रिश्वत के, इन जगहों पर बैठकर भी कमाई की मोटी गुंजाइश जरूर होगी, तभी लोग इसके लिए करोड़ों रूपए देने को तैयार हैं।
अब हम इस एक घटना से परे देखें, तो राज्यों में जगह-जगह कमाऊ कुर्सियों पर अफसरों की तैनाती मोटी रिश्वत से होती है, और वहां जाते ही अफसर अपने पूंजीनिवेश को वसूलना शुरू कर देते हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में यह आम चर्चा रही कि किसने, किस अफसर को, कितने करोड़ देकर कौन सी कुर्सी पाई। इसके बाद यह भी चर्चा आम रहती है कि किस कुर्सी की कितनी कमाई रहती है। यह भी लोगों को दिखता है कि कौन-कौन से अफसर किस-किस जगह पर कितनी जमीन-जायदाद खरीदते हैं। अगर जमीनों के दलालों से समझा जाए, तो वे एक-एक अफसर की हर जमीन को गिना सकते हैं, जो कि उनके इलाके में ली गई है, या पहले से है। हर पटवारी को पता होता है कि किस साहब ने उसे बुलाकर किन जमीनों के बारे में बात की है, किनके कागज निकलवाए हैं। इसका पता अगर नहीं होता है, तो भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले, अनुपातहीन संपत्ति पकडऩे वाले उन विभागों को ही नहीं पता होता है जो इसी काम की रोटी खाते हैं। सत्ता पर पार्टियां आती-जाती रहती हैं, नेता भी बदलते रहते हैं, लेकिन अफसर औसतन पांच-छह सरकारों के कार्यकाल तक बने रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अवैध कमाई की उनकी जानकारी नेताओं के मुकाबले खासी अधिक रहती है, और फिर यह भी रहता है कि अधिकतर फाइलों पर दस्तखत अफसरों के ही होते हैं, इसलिए मंत्री या नेता बिना तो भ्रष्टाचार हो सकता है, लेकिन अफसर बिना भ्रष्टाचार नहीं हो सकता। आन्ध्र के इस ताजा पूंजीनिवेश को देखते हुए देश और प्रदेशों की सरकारों को यह सोचना चाहिए कि अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में, और जिम्मेदारी के अपने-अपने दायरों में क्या वे भी इस भ्रष्ट व्यवस्था को कुछ कम कर सकते हैं? या फिर सत्ता पर आने के लिए एक बड़ी प्रेरणा यह भ्रष्टाचार ही रहता है, और लोग मेहनत और खर्च से चुनाव जीतकर सत्ता पर आते इसीलिए हैं कि कमाया जा सके। छत्तीसगढ़ में अभी पिछली कांग्रेस सरकार के जाने के बाद, और भाजपा सरकार के आने पर पिछले लोगों के कई किस्म के भ्रष्टाचार सामने आ रहे हैं। इसलिए यह भी लगता है कि जिन लोगों के मंत्री बनने की संभावना रहती है, वे अंधाधुंध चुनावी-निवेश करके जीतने की कोशिश करते हैं, ताकि लागत के पेड़ से सैकड़ों गुना अधिक फल पाए जा सकें।
अब भ्रष्टाचार के खिलाफ जिस न्यायपालिका से थोड़ी-बहुत उम्मीद बंधती है, उसमें संवैधानिक-अदालत, हाईकोर्ट के जज रहे हुए आदमी को भी जब करोड़ों का पूंजीनिवेश सुहा रहा है, तो फिर आम लोगों से क्या उम्मीद की जा सकती है। दिक्कत एक है कि भ्रष्टाचार के मामले पकड़ाते बहुत हैं, उनमें से अदालत तक बहुत कम पहुंच पाते हैं, और सजा तो शायद ही किसी को मिलती है। आज देश में जांच के सबसे अधिक अधिकार जिस एजेंसी, ईडी के पास हैं, उस एजेंसी का भी सजा दिलवाने का रिकॉर्ड बड़ा ही कमजोर है। यह महज कुछ फीसदी तक सीमित है। इसलिए अधिकतर लोग यह मानते हैं कि ईडी के मामलों में गिरफ्तार लोग जमानत के पहले जितने वक्त जेल में रहते हैं, बस वही मानो उनकी सजा रहती है। जब सबसे अधिक अधिकारों वाली एजेंसी का यह हाल है, तो बाकी एजेंसियों का सजा दिलवाने का, या भ्रष्टाचार पकडऩे का रिकॉर्ड तो और भी खराब होना ही है। राज्यों की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां सिर्फ पटवारी या बहुत छोटे-छोटे सबइंजीनियर जैसे लोगों को पकड़ती है, और जिन मगरमच्छों की जानकारी हर किसी को रहती है, वे खुले घूमते रहते हैं, रिटायर होने के बाद भी तरह-तरह का दूसरा पुनर्वास पाते हैं, और कमाई करते रहते हैं। देश और प्रदेशों में जितने तरह के संवैधानिक आयोग बने हैं, उनकी वजह से अब सिर्फ दीनहीन अफसर और जज ही रिटायर होने के बाद बिना काम रहते हैं, बाकी तमाम लोग कोई न कोई सहूलियत और/या कमाई की कुर्सी पा जाते हैं। तेलंगाना के रिटायर्ड जज साहब ने ऐसा ही पूंजीनिवेश किया था, लेकिन ढाई करोड़ की ठगी से हासिल कुछ नहीं हुआ।
देश में भ्रष्टाचार कम होना चाहिए यह कहना तो आसान है, लेकिन भ्रष्टाचार को कम करने की नीयत किसी की दिखती नहीं है। और तो और इसे उजागर करने की जिम्मेदारी लोकतंत्र के जिस स्वघोषित चौथे स्तंभ की मानी जाती है, वह खुद भी तरह-तरह के भ्रष्टाचार का हिस्सेदार हो जाता है। ऐसे में इस देश को गहरे गड्ढे की तरफ जाना है, और वह जा रहा है। ताकतवर लोग चाहे लोकतंत्र के किसी भी स्तंभ के हों, वे गिरोहबंदी करके एक माफिया चला रहे हैं, और चुनाव एक माफिया की जगह दूसरे माफिया को कुछ बरसों की लीज देता है।
राज्यसभा के चुनावों में कई जगहों पर कांग्रेस विधायकों ने भाजपा उम्मीदवारों के लिए वोट डाले। उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के आधा दर्जन से अधिक विधायक भाजपा की तरफ गए। दूसरी तरफ कर्नाटक में भाजपा के एक विधायक ने सत्तारूढ़ कांग्रेस के समर्थन में क्रॉस वोटिंग की, और एक विधायक ने वोट नहीं डाला। इसके साथ-साथ पिछले दिनों झारखंड में सत्तारूढ़ गठबंधन में शामिल कांग्रेस के विधायकों ने बगावती तेवर दिखाए थे, और उन्हें शांत करने के लिए दिल्ली भी बुलाया गया था। अभी सुनाई पड़ रहा है कि हिमाचल में राज्यसभा चुनाव के मतदान से आधा दर्जन कांग्रेस विधायक गायब थे, और वहां पर मौजूदा कांग्रेस मुख्यमंत्री को बदलने की मांग भी हो रही है। कुल मिलाकर देश में गिने-चुने राज्यों में सरकार चला रही, या गठबंधन में भागीदार कांग्रेस पार्टी में बड़े पैमाने पर फूट पड़ रही है, या बगावत हो रही है। और जहां जिस पार्टी में कोई बगावत हो रही है, विधायक या सांसद धोखा दे रहे हैं, पूरी जिंदगी कांग्रेसी कटोरे से मलाई चाटने वाले आज पार्टी को लात मारकर बाहर जा रहे हैं, तो वे सबके सब सिर्फ भाजपा की तरफ जा रहे हैं। यह बात जाहिर है कि इन तमाम लोगों को देश में भाजपा का, और भाजपा में ही अपना भविष्य दिख रहा है। हो सकता है कि इनमें से कई लोग ईडी या आईटी, या सीबीआई और राज्य की भाजपा सरकार की जांच से घिरे हुए हों, लेकिन उससे परे के लोग भी रहस्यमय वजहों से कांग्रेस में काया छोड़ अपनी आत्मा संग कहीं और मंडराते दिख रहे हैं, और फिर बाद में उस नश्वर काया को भी उठाकर ले जा रहे हैं।
भाजपा के सिद्धांतों के खासे खिलाफ रहने वाले दल, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के लोग, एनसीपी, और राजद के लोग जब भाजपा जाते हैं, तो एक बात साफ हो जाती है कि भारतीय राजनीति में, खासकर चुनावी, और सत्ता-संभावनाओं के खेल में सिद्धांतों का बोझ ढोना अब खत्म हो गया है। अब लोग पुराने वक्त की तरह पेटी-बिस्तरा उठाकर सफर नहीं करते, अब छोटे से, और वह भी पहियों वाले, सूटकेस को लेकर हवाई सफर का वक्त आ चुका है। और सहूलियत का ऐसा फैशन सबसे पहले राजनीति में ही शुरू होता है। आज अंतरात्मा की आवाज मानो सत्ता के ब्लूटूथ से नियंत्रित हो रही है, और लोग हवा के झोंकों की तरह कहीं भी आ-जा रहे हैं। भारतीय राजनीति में यह एक बिल्कुल ही अनोखा दौर है जिसमें अपने बेहतर भविष्य की संभावना, या अपने खतरनाक भविष्य की आशंका को देखते हुए लोग पल भर में फैसले ले रहे हैं। जिस तरह किसी ब्यूटी पार्लर में वैक्सिंग की पट्टी चमड़ी से रोओं को पल भर में अलग कर देती है, उसी तरह आज लोग पार्टी-प्रतिबद्धता से पल भर में अलग हो जा रहे हैं। यह भारतीय राजनीति का वैक्सिंग-काल चल रहा है, और वैक्सिंग का यह काम धीरे-धीरे नहीं होता है, एक झटके से होता है। एक झटके से दूसरी-तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी, जिनके बाप-दादा भी इस पार्टी की सहूलियतों के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी बड़े हुए थे, उनकी दौलत की विरासत थामे हुए, और राजनीतिक विरासत को छिटकते हुए लोग कांग्रेस को छोड़ रहे हैं। यह रफ्तार इतनी अधिक है कि देश को कांग्रेसमुक्त करने के संकल्प वाली भाजपा आज खुद बहुत हद तक कांग्रेसयुक्त हो गई है, और उसके अपने पुराने निष्ठावान लोग कई जगहों पर कल कांग्रेस से भाजपा में आए लोगों के कार्यक्रमों में दरी बिछा रहे हैं।
भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ लोगों को निराश कर सकता है, लेकिन सत्ता पर काबिज और उसके आदी हो चुके नेताओं को अगर देखें तो उनकी आत्मा का परकाया प्रवेश उसी रफ्तार से होता है, जिस रफ्तार से सत्तारूढ़ पार्टी का विस्तार हो रहा है, वह मजबूत हो रही है, और उसका अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ध्वज लिए हुए जितनी दूर तक जा रहा है। ऐसी राजनीति के अंगने में सिद्धांत, नैतिकता, पीढिय़ों के अहसान की जगह भी कहां है? और ऐसा भी नहीं है कि दूसरी बहुत सी पार्टियां ऐसे ही किस्म के दल-बदल से परहेज करते आई हों। जिसकी गांठ में जितने नोट लिपटे होते हैं, वे राजनीति की मंडी में उतनी ही खरीददारी कर पाते हैं, आज कई किस्म की करेंसी, और कई किस्म के हथियार भाजपा के पास हैं, इसलिए वह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी खरीददार है। ऐसा भी नहीं कि दूसरी पार्टियों का बस चले तो वे इस ग्रेट इंडियन शॉपिंग फेस्टिवल से कोई परहेज करें।
अब यह तो भारतीय राजनीति के लोगों के सोचने की बात है कि सिद्धांतों पर कितना दांव लगाया जाए? जब मतदाताओं के एक बहुत बड़े, शायद सबसे बड़े हिस्से से नैतिकता और सिद्धांतों की संवेदनशीलता और समझ खत्म हो चुकी हैं, तो फिर इस बोझ को लादे हुए कोई चुनाव प्रचार क्यों करे? राजनीति में कामयाबी और सत्ता की ताकत ही सब कुछ है। इसी से तमाम पुराने जुर्म और कुकर्म ढोए जा सकते हैं, इसी मौके पर समझदारी न दिखाने से लोगों के इतिहास की कब्र फाडक़र उनके दफन-जुर्म निकल भी सकते हैं। ऐसे में हर नए दल-बदल के साथ दल-बदल शब्द की गंदगी धुलती चली जा रही है। अब दल-बदल अछूत या बुरा शब्द नहीं रह गया है, अब वह उसी तरह एक जीवनशैली बन गया है, जिस तरह कई बड़े अदालती मामलों में हिन्दुत्व को एक जीवनशैली साबित किया जाता है, कि वह धर्म नहीं है, जीवनशैली है, वे ऑफ लाईफ है।
भारतीय राजनीति तमाम किस्म की नैतिकता, और परंपराओं के बोझ से मुक्त अब उन्मुक्त नृत्य कर रही है, जो कि कुली की तरह लदे बोझ के साथ मुमकिन नहीं था। भारत की बाकी तमाम पार्टियों को यह समझना होगा कि बाजार और कारोबार के जो नियम रहते हैं कि पैसा पैसे को खींचता है, कुछ वैसे ही नियम अब भारतीय राजनीति के हो गए हैं कि ताकत ताकत को खींचती है। जिस तरह बड़े शहरों में एक अकेले खंभे पर बहुत बड़े-बड़े होर्डिंग लगे रहते हैं, और जिन्हें यूनीपोल कहा जाता है, भारतीय राजनीति अब वैसी ही यूनीपोलर होते दिख रही है, और भाजपा बहुत हद तक अकेली पार्टी बनने की राह पर बढ़ रही है। वैसे तो राजनीति में बहुत से ऐसे पल आते हैं जब उसके मुद्दे रातों-रात बदल जाते हैं, लेकिन फिलहाल तो सिर्फ भाजपा विरोधी रहे नेताओं की अंतरात्मा की आवाज ही बदल रही है। यह सिलसिला तब तक थमते नहीं दिखता है, जब तक भाजपा की जीत का सफर धीमा न पड़े, और आज ऐसे कोई आसार दिख नहीं रहे हैं। लोग अब कौमार्य खोने से अधिक आसानी से आत्मा खो रहे हैं, और आने वाले दिन और अधिक उत्तेजक रहने का आसार दिख रहा है।
पाकिस्तान में पिछले एक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज पंजाब प्रांत की मुख्यमंत्री चुनी गई हैं। वे पाकिस्तान के किसी भी प्रदेश में सीएम बनने वाली पहली महिला हैं। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान की एक खबर बताती है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल गांधी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे, और वहां की छात्राओं के साथ उनकी बातचीत हुई। जाहिर है कि किसी जागरूक विश्वविद्यालय की अल्पसंख्यक वर्ग की छात्राओं को जब बात करने का मौका मिलेगा, तो वे महिलाओं के हक को लेकर कई तरह के सवाल करेंगी। राहुल देश के प्रमुख नेताओं से एक पीढ़ी कम उम्र के भी हैं, और इसलिए युवा पीढ़ी के साथ उनकी बातचीत कुछ अधिक स्वाभाविक होती है। छात्राओं ने उनसे पूछा कि अगर वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो महिलाओं के हिजाब पहनने के मुद्दे पर उनकी क्या राय रहेगी? राहुल ने कहा कि महिलाएं क्या पहनती हैं ये उनका हक है, उन्हें क्या पहनना है या क्या नहीं पहनना है ये उनका फैसला है। उन्होंने कहा कि उन्हें यह नहीं लगता कि किसी और को यह तय करना चाहिए कि महिलाएं क्या पहनें। इसके साथ-साथ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर जब राहुल से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि राजनीति और कारोबार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से नहीं दिखता है, इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को सोचना होगा कि वे ज्यादा से ज्यादा महिला उम्मीदवारों को मौका दें, देश के राजनीतिक ढांचे से महिलाओं को जोडऩा होगा। राहुल का कहना था कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की फिर भी राजनीति में मौजूदगी दिखती है, वे प्रधान या पार्षद के स्तर तक पहुंच जाती हैं, लेकिन इससे ऊपर जब विधायक या सांसद बनने की बारी आती है तो महिलाएं बहुत कम दिखती हैं, ऐसे में महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा।
राहुल की कही हुई बातें तो अच्छी हैं, लेकिन देश की राजनीति में महिलाओं को हक देने की बातें ही होती रहती हैं। हम दो प्रमुख पार्टियों की बात करें, तो कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता पर रहते हुए भी महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं करवा पाई थी। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने यह कानून तो बनवा दिया, लेकिन उसके साथ इतनी सारी शर्तें जुड़ी हुई हैं कि 2029 का आम चुनाव भी शायद महिला आरक्षण के बिना होगा। कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा के चुनाव में प्रियंका गांधी की लीडरशिप में, लडक़ी हूं लड़ सकती हूं का नारा लगाया था। और अपनी घोषणा के मुताबिक 40 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार भी बनाए थे। लेकिन यह बात पहले से तय थी कि उंगलियों पर गिने जाने लायक ही जीत कांग्रेस पार्टी की होगी, इसलिए कांग्रेस की उस घोषणा का नारे से अधिक कोई मतलब नहीं था। दूसरी तरफ यूपी चुनाव के तुरंत बाद देश में जहां-जहां भी चुनाव हुए, कांग्रेस को और किसी प्रदेश में लडऩे लायक लड़कियां दिखी ही नहीं, और कहीं वे 40 फीसदी सीटों की चर्चा भी नहीं हुई। हमारा ख्याल है कि महिलाओं को टिकट देने में कांग्रेस 20 फीसदी के आसपास ही थम गई थी। महिला आरक्षण लागू होने के पहले भी कोई पार्टी अगर चाहे तो वह खुद होकर सौ फीसदी सीटें भी महिला उम्मीदवारों को दे सकती है, लेकिन कांग्रेस ने न 40 फीसदी सीटें दीं, न 33 फीसदी। भाजपा ने भी महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने के बाद भी एक सैद्धांतिक ईमानदारी के आधार पर भी ऐसा नहीं किया।
अब राहुल ने स्थानीय राजनीति में महिलाओं के दिखने की जो बात कही है, वह सही है। छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से राज्य हैं जहां पंचायतों में 50 फीसदी सीटें महिला पंच-सरपंच के लिए आरक्षित हैं। मतलब यह कि वहां जाति का आरक्षण होने के अलावा महिला आरक्षण भी लागू होता है। ऐसे दोहरे आरक्षण के बाद भी छोटे-छोटे गांव में भी हर पार्टी को उम्मीदवार बनाने लायक महिला मिल जाती हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर महिला उम्मीदवार न मिलने का रोना रोया जाता है? एक विधानसभा के भीतर सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और सैकड़ों पार्षद हो सकती हैं, फिर इनके बीच से तो आसानी से महिला उम्मीदवार हर पार्टी को मिल सकती है। राहुल गांधी पूरे देश में जिस किस्म की सही राजनीति का झंडा लेकर घूम रहे हैं, क्या यह सही राजनीति नहीं होती कि आने वाले आम चुनाव में कांग्रेस 40 या 33 फीसदी महिला आरक्षण अपनी टिकटों पर ही लागू करती? राहुल ने महिला आरक्षण विधेयक चर्चा के दौरान मोदी सरकार से कहा भी था कि इस विधेयक को जनगणना के बाद के डी-लिमिटेशन से जोडक़र नहीं रखना चाहिए, और अगले दिन से तुरंत ही लागू कर देना चाहिए। ऐसी सलाह देने वाले राहुल की पार्टी के सामने आज भी यह मौका है कि महिला आरक्षण लागू होने के पहले ही उनकी पार्टी एक तिहाई सीटों पर आरक्षण लागू करे। अगर कोई सिद्धांत है, तो उसका कानून बनकर सामने आना जरूरी हो, ऐसा तो नहीं है।
हमारी कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों से, और इनके गठबंधनों से यह उम्मीद है कि वे आम चुनाव 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दें। अगर कोई एक पार्टी ऐसी पहल करती है, तो देश की आधी मतदाताओं के बीच उसकी तस्वीर बेहतर बनेगी कि कानून पर अमल का दिन आने के पहले ही उस पार्टी ने महिलाओं को यह हक दिया है। और इससे पार्टी को एक तजुर्बा भी होगा कि एक तिहाई महिलाओं के साथ चुनाव कैसे लड़ा और जीता जा सकता है। देश के लोकतंत्र को कानून की तंग सीमाओं से ऊपर निकलना भी सीखना चाहिए। जनता के बीच से भी राजनीतिक दलों के लिए ऐसी मांग होनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन के एक विश्वविद्यालय में पढ़ा रहीं भारतीय मूल की कश्मीरी पंडित प्रो.निताशा कौल को कर्नाटक सरकार ने एक कार्यक्रम में बुलाया, और उन्हें बेंगलुरू एयरपोर्ट पर इमिग्रेशन अफसरों ने बताया कि दिल्ली से हुक्म मिला है कि उन्हें भारत में घुसने न दिया जाए। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने केन्द्र सरकार तक कोशिश भी की, लेकिन बात नहीं बनी, और अगली सुबह निताशा कौल को वापिस ब्रिटेन भेज दिया गया। केन्द्र सरकार के इमिग्रेशन अफसरों ने एयरलाईंस को कहा कि इन्हें भारत में घुसने की इजाजत नहीं है। निताशा कौल कर्नाटक सरकार द्वारा आयोजित, ‘संविधान और राष्ट्रीय एकता अधिवेशन’ में शामिल होने आई थीं, वे इस कार्यक्रम में वक्ता भी नहीं थीं। वे वेस्टमिंस्टर यूनिवर्सिटी में राजनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाती हैं। जैसा कि उनके नाम से जाहिर है वे कश्मीरी पंडित हैं, उस समुदाय की हैं जो कि कश्मीर से बेदखल किया गया था, और उनके भारत के राष्ट्रविरोधी होने की कोई वजह नहीं है। उन पर आरएसएस विरोधी होने की तोहमत है, अफसर बेंगलुरू एयरपोर्ट पर 24 घंटे उनकी हिरासत के दौरान बार-बार यही बात पूछते रहे। उनका कहना है कि उन्हें कभी भारत सरकार की तरफ से कोई नोटिस नहीं मिला था।
यह नौबत भयानक है। देश में बहुत से लोग आरएसएस के आलोचक हो सकते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि लोग मोदी, राहुल, या किसी और नेता के भी आलोचक हो सकते हैं। देश के भीतर अलग-अलग पार्टियों और संगठनों को लेकर कई तरह की बहस चलते रहती है, और न सिर्फ आरएसएस बल्कि बहुत से दूसरे संगठन भी आलोचना के निशाने पर रहते हैं, और यही तो लोकतंत्र है कि लोग सैद्धांतिक और वैचारिक आधार पर अपनी बात कानूनी दायरे में रख सकें। भारतीय मूल की ब्रिटेन में पढ़ा रहीं एक प्रोफेसर की बातों को लेकर सरकार को इतना संवेदनशील क्यों होना चाहिए, खासकर तब जब वह भारतीय मूल की हैं, कश्मीरी पंडित हैं, और राजनीति शास्त्र पढ़ाती हैं। पश्चिम के उदार राजनीतिक माहौल में किसी प्राध्यापक या किसी आम व्यक्ति से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे लोकतंत्र के दायरे में आलोचना करने से कतराएं। और भारत में भी ऐसा माहौल पहले नहीं रहा कि लोग आलोचना न करें। देश का इतिहास अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं के चलते हुए कई तरह की आलोचनाओं से भरा रहा। हैरानी की बात यह है कि देश की एक प्रदेश सरकार, फिर चाहे वह कांग्रेस की ही क्यों न हो, अगर उसमें संविधान और राष्ट्रीय एकता पर कार्यक्रम हो रहा है, और भारतीय मूल की एक प्राध्यापक को सरकार ने विदेश से आमंत्रित किया है, तो उसे इस तरह से वापिस भेज देना एक घोर अलोकतांत्रिक बात है। हमारा यह भी ख्याल है कि केन्द्र सरकार के स्तर पर जिस किसी ने यह फैसला लिया होगा, इससे केन्द्र सरकार का ही बड़ा नुकसान होगा। आरएसएस की आलोचक यह प्रोफेसर यहां चाहे जो बोल जाती, अब इस तरह से उन्हें वापिस भेजने का नतीजा यह होगा कि दुनिया भर के पढ़े-लिखे लोगों के बीच संघ की आलोचना को लेकर एक नई उत्सुकता पैदा होगी, और बाकी दुनिया में तो विचारों पर इस तरह की सेंसरशिप है नहीं, इसलिए ब्रिटेन से परे भी बहुत सी देशों में निताशा कौल की लिखी और कही बातें गूंजेंगी। आज हिन्दुस्तान में जरूर असहमति एक अवांछित संतान की तरह हो गई है, लेकिन बाकी दुनिया के सभ्य और विकसित लोकतंत्रों में ऐसा नहीं है। वहां की राजनीतिक व्यवस्था असहमति के बीच मजबूत होते चलती है, और लोकतंत्र की मजबूती में विपक्ष की असहमति का बड़ा योगदान रहता है। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को हिन्दुस्तान में इस तरह खारिज करके यह देश अपनी जमीन पर ही खुद ही अपने को विश्वगुरू करार दे सकता है, लेकिन कोई भी विकसित लोकतंत्र भारत को ऐसा कोई तमगा नहीं देगा। लोकतांत्रिक दुनिया के लिए असहमति को लेकर बर्दाश्त का एक महत्व रहता है। और अगर हिन्दुस्तान में एक भारतवंशी की असहमति से इस कदर परहेज किया गया है, तो फिर विदेशी विचारकों की भारत की आलोचना की गुंजाइश ही कहां रहेगी?
अभी अधिक दिन नहीं हुए हैं भारत सरकार ने पिछले 22 बरस से हिन्दुस्तान में काम कर रही एक फ्रांसीसी पत्रकार को उस दिन भारत छोडऩे का आदेश दिया जब दो दिन बाद फ्रांस के राष्ट्रपति भारत के गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि होकर पहुंच रहे थे। इस फ्रांसीसी पत्रकार की शादी भी एक भारतीय से हुई है, और उसने हिन्दुस्तान पर बड़ी गंभीर रिपोर्टिंग की है। जाहिर है कि किसी भी गंभीर और पेशेवर पत्रकार के लिखे में कई लोगों की आलोचना भी होगी। इसे भारत सरकार की तरफ से दिए गए नोटिस में यह कहा गया कि उसकी रिपोर्टिंग आलोचना से भरी और खराब नीयत की रहती है। कहा गया कि उसका काम भारत के राष्ट्रीय हितों के खिलाफ है। हमारा ख्याल है कि उस महिला पत्रकार के लिखे हुए से भारत का जितना नुकसान हो सकता था, उससे कहीं अधिक नुकसान उसे देश से निकालने पर हुआ है, और इतिहास में ऐसी बातें गंभीरता से दर्ज होती हैं।
असहमति के बीच ही लोकतंत्र का विकास होता है, और जब असहमति रह नहीं जाती, तो फिर खुद सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार को जनभावना समझ नहीं आती, और ऐसी कई मिसालें रही हैं कि जनता की नब्ज से हाथ हट जाने पर सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान होता है। देश और कई प्रदेशों की सरकारों का तजुर्बा यही है कि जब मीडिया और दूसरे लोगों को दबाकर सच पर चर्चा नहीं होने दी जाती, तो उसके बाद सत्तारूढ़ पार्टी अपनी खुशफहमी में रहती है, और कब पांवोंतले से जमीन खिसकना शुरू होती है, उसे पता भी नहीं लगता। आज भारत में मोदी सरकार और उनकी पार्टी भाजपा जिस हद तक कामयाब हैं, उसमें यह बात लोगों को फिजूल लग सकती है, लेकिन जब वक्त नाजुक आता है, और छोटा-छोटा समर्थन भी जरूरी होता है, तब दबाई गई असहमति का नुकसान सामने आता है। जिन दो मामलों को हमने गिनाया है, इन दोनों ही महिलाओं को लेकर पूरी दुनिया के लोकतंत्रों में चर्चा होगी, और इससे सबसे बड़ा नुकसान भारत के विश्वगुरू बनने की खुशफहमी का होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी प्रदेश में सरकार बदलने से पिछली सरकार के वक्त के कामकाज अगर खुर्दबीन तले आते हैं, तो उससे लोकतंत्र का भला ही होता है। राजनीति में जो लोग अपने भ्रष्टाचार को छुपाना चाहते हैं, वे किसी दूसरी पार्टी की सरकार की कार्रवाई को विच-हंटिंग करार देते हुए उसे बदनीयत की बुरी बात साबित करने लगते हैं। लेकिन हकीकत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी बदलने से पिछली सरकार के भ्रष्टाचार की जांच मुमकिन हो पाती है। और इन दिनों छत्तीसगढ़ में ऐसा ही देखने मिल रहा है। किस तरह राज्य सरकार की बंधुआ मजदूर सरीखी राजधानी की म्युनिसिपल विभागीय मंत्री की चाकरी में लगी रहती है, यह देखना भी हक्का-बक्का करता है। राजधानी रायपुर में म्युनिसिपल-मंत्री रहे शिव डहरिया के रिहायशी इलाके में सामुदायिक भवन पर उनकी बीवी ने अपने एक तथाकथित समाजसेवी संगठन के नाम पर कब्जा कर लिया, और उसके बाद जिस अंदाज में म्युनिसिपल ने वह सामुदायिक भवन इस संगठन को न सिर्फ आबंटित कर दिया, बल्कि इस पर करोड़ों रूपए खर्च भी कर दिए। अब जब इसका भांडा फूटा है, तो पता लग रहा है कि मंत्री-पत्नी के कब्जे के दो बरस बाद म्युनिसिपल ने इसे आबंटित करने का प्रस्ताव पास किया। इस तरह यह भी साबित होता है कि जिन स्थानीय संस्थाओं को अलग से अधिकार मिलते हैं, वे भी राज्य शासन से सैकड़ों करोड़ रूपए पाने के लिए मंत्री-मुख्यमंत्री की मर्जी से कुछ भी करने को तैयार रहती हैं। यह मामला इसलिए भयानक है कि एक निजी संगठन के कब्जे के बाद म्युनिसिपल ने वहां पर क्या-क्या खर्च नहीं किया। और जो भवन समाज के काम आना था, वह इस तरह लोगों के उपयोग के बाहर कर दिया गया। भूतपूर्व मंत्री शिव डहरिया ने अपना बंगला खाली करते हुए वहां के सामानों को जिस तरह उखाडक़र अपना बताकर ले जाने का काम किया था, उससे भी सरकारी संपत्ति की ढेर बर्बादी हुई थी। सामान हो सकता है उनका खुद का हो, लेकिन सरकारी बंगले को तोडफ़ोड़ करके उस सामान को निकालने का उनको क्या हक था? और चाहे कोई भी मंत्री या अफसर रहे, उन्हें सरकारी संपत्ति से खिलवाड़ करने पर जुर्माने और सजा के लिए तैयार भी रहना चाहिए।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने कई बार इस बात को लिखा है कि मंत्रियों और बड़े अफसरों के बंगलों पर उनके विभागों की तरफ से, या किसी ठेकेदार या सप्लायर की तरफ से बहुत से निर्माण कराए जाते हैं, जो कि सरकारी रिकॉर्ड में नहीं रहते। हो सकता है कि सरकारी फाइलें किसी दूसरी जगह वह खर्च बताएं, लेकिन ऐसे बहुत से खर्च होते बंगलों पर हैं। सरकारी की मंजूरी से परे के कोई भी खर्च किसी सरकारी संपत्ति पर कैसे करवाए जा सकते? और हक्का-बक्का करने वाली बात यह है कि मंत्री और अफसर बंगलों पर करवाए गए ऐसे अवैध निर्माण को अपना योगदान गिनाते हैं, और बताते हैं कि वे जहां-जहां रहे, हर बंगले में कुछ न कुछ जोडक़र निकले। सरकार अगर एक ऑडिट करा ले कि बंगले का मूल ढांचा क्या था, और बाद में वहां जुडऩे वाले काम किस मद से कराए गए, तो शायद यह समझ आएगा कि जादू या चमत्कार से बिना घोषित सरकारी खर्च के ये सब काम हुए हैं। यह सिलसिला सरकार में पूरी तरह से मंजूर हो चुके भ्रष्टाचार का एक तौर-तरीका है, और इसका बोझ कुल मिलाकर जनता पर ही पड़ता है। कुछ अफसरों का हाल तो यह है कि उन्होंने राजधानी के पास भिलाई में भिलाई स्टील प्लांट से बंगले ले लिए हैं, क्योंकि वहां स्कूल-कॉलेज बेहतर हैं। और बीएसपी से अस्थाई रूप से आबंटित ऐसे बंगलों में भी उन्होंने करोड़ों के काम करवाए हैं, जो कि जाहिर तौर पर किसी न किसी तरह के भ्रष्टाचार का ही नतीजा हैं।
भारत और इसके प्रदेशों में इस किस्म की सरकारी बर्बादी, और सार्वजनिक जगहों का बेजा इस्तेमाल सत्ता अपना विशेषाधिकार मानकर चलती है। सरकारी भवनों को कितनी आसानी से लोग अपनी संस्था या अपने कारोबार के लिए आबंटित करवा लेते हैं, और फिर उस पर सरकार का ही खर्च करवाते रहते हैं, यह देखना भयानक है। हमारा ख्याल है कि नगरीय प्रशासन मंत्री रहे शिव डहरिया की पत्नी को जिस तरह से एक सरकारी संपत्ति देने के बाद भी उस पर लगातार म्युनिसिपल की मोटी रकमें खर्च हुई हैं, उसके खिलाफ आर्थिक अपराध का जुर्म दर्ज होना चाहिए, और मंत्री से सपत्नीक उसकी वसूली भी होनी चाहिए, और इस पूरे मामले में जितने अफसर शामिल हैं, उनके खिलाफ भी मुकदमा चलना चाहिए। राजनीतिक शिष्टाचार के नाम पर पिछली सरकारों के जुर्म माफ कर देने का हक किसी भी अगली सरकार को नहीं रहता। नई सत्तारूढ़ पार्टी चाहे तो अपने पार्टी संगठन से किसी को कुछ भी दे दे, लेकिन सरकार को नुकसान पहुंचाने वाले, भ्रष्टाचार करने वाले, जनता के हक छीनने वाले काम माफ कर देने का हक किसी सरकार को नहीं रहता। ऐसा होते दिखे तो किसी जनसंगठन को अदालत तक जाना चाहिए, और वहां की दखल से जुर्म दर्ज करवाना चाहिए। सरकारी खजाने की शक्ल में जनता का जो पैसा रहता है, उसके बेजा इस्तेमाल के खिलाफ कार्रवाई करवाने का हक जनता को रहना चाहिए।
आज सुबह से छत्तीसगढ़ में शराब घोटाले से जुड़े हुए छापे पड़ रहे हैं। राज्य की आर्थिक अपराध जांच एजेंसी यह कार्रवाई ईडी की लिखवाई गई एक एफआईआर के आधार पर कर रही है। इसमें पिछले पांच बरस प्रदेश में सबसे ताकतवर रहे कई अफसरों और शराब कारखानेदारों की भी जांच शुरू हुई है। इनमें से पिछले एक मुख्य सचिव तो राज्य बनने के बाद से आज तक लगातार सिर्फ ताकत की कुर्सियों पर रहे हैं, और उनके खिलाफ अगर ईडी, आईटी ने जांच में गलत काम पाए हैं, तो यह अंदाज लगाना आसान है कि सत्ता के अपने दो दशक में ऐसे अफसरों ने क्या नहीं किया होगा? कोई भी नई सरकार संविधान की शपथ लेकर काम संभालती है। हमारा ख्याल है कि कोई भी आर्थिक अपराध, भ्रष्टाचार, या दूसरे किस्म का जुर्म सामने आने पर सरकार को उस पर अनिवार्य रूप से कार्रवाई करनी चाहिए, वरना यह संविधान की शपथ के खिलाफ काम होगा। देश के कुछ राज्य लगभग परंपरागत रूप से हर पांच बरस में सत्ता पलट देते हैं, और ऐसे में पिछली सरकारों के जुर्म उजागर होने, उस पर कार्रवाई होने की संभावना बढ़ भी जाती है। अगर जनता ही इतनी जागरूक हो जाए कि सत्ता के भ्रष्टाचार देखते हुए भ्रष्ट कार्यकाल के बाद सत्तारूढ़ पार्टी को हटा ही दे, तो भी भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी मजबूती से नहीं जम पाएंगी, जैसी कि वे दस-पन्द्रह बरसों के शासनकाल में जम जाती हैं। देश में प्रशासनिक अधिकारी तैयार करने वाली मसूरी प्रशासन अकादमी को भी चाहिए कि वह कई राज्यों के ऐसे कामकाज का अध्ययन करवाकर उन्हें मिसाल की तौर पर प्रशिक्षणार्थी अफसरों को पढ़ाए, कि काम कैसे-कैसे नहीं होना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोग बात-बात में इंसानियत का तकाजा देते हैं। ऐसा, मानो कि इंसानियत कोई बहुत बड़ी चीज हो। और हकीकत यह है कि इंसान जैसी हरकतें करते हैं, वैसी तो जानवरों में सबसे बुरे ठहराए जाने वाले, सांप, बिच्छू, और कुत्ते भी नहीं करते। इन प्राणियों को लेकर गालियां बहुत बनती हैं, लेकिन सच तो यह है कि वे अपने प्राकृतिक तौर-तरीकों के खिलाफ जाकर कुछ भी नहीं करते। कई प्राणी तो ऐसे भी हैं जिनमें नर-मादा के जोड़े बन जाते हैं, और वे जिंदगी भर एक-दूसरे के वफादार बने रहते हैं, यह बात इंसानों में तो बिल्कुल ही नहीं दिखती है। ऐसे इंसानों को लेकर आए दिन यह खबर आती है कि किस तरह परिवार के भीतर ही एक-दूसरे को मार डाला गया, बलात्कार किया गया, या धोखा दिया गया। ऐसे हर मौके पर हमको यही लगता है कि इंसान ऐसी हरकतों के लिए जिस एक काल्पनिक हैवान पर तोहमत धर देते हैं, वे असल जिंदगी में तो होते नहीं हैं, इंसान अपने भीतर के बुरे काम करने वाली सोच को ही हैवान नाम दे देते हैं, ताकि उसकी अपनी तथाकथित इंसानियत की साख बनी रहे।
अब इतनी भूमिका बांधने के बाद आज की खबर यह है कि छत्तीसगढ़ आदिवासी इलाके बस्तर में एक नाती ने अपनी 70 साल की नानी की उम्र बहुत कम बताते हुए उसका फर्जी आयु प्रमाणपत्र बनवाया, और उसे मटन शॉप की मालकिन बताते हुए उसका एक करोड़ रूपए का बीमा करवा दिया। इस फर्जीवाड़े में एलआईसी का एजेंट भी शामिल हो गया। इसके बाद नाती नानी को संपेरों के डेरे में लेकर गया, और एक संपेरे से सौदा करके 30 हजार रूपए में नानी को डंसवा दिया। फिर घर लाकर सांप के काटने से जहर फैलने की बात कहते हुए उसने हल्ला मचाया, अस्पताल में डॉक्टर ने जहर का असर देखकर सांप के काटने से हुई मौत वजह लिखी, और कुछ वक्त में बीमा दावा किया गया तो एलआईसी से एक करोड़ रूपए मिल गए। इसके बाद यह नौजवान जिस अंधाधुंध तरीके से खर्च करने लगा, उससे पुलिस को शक हुआ, पुलिस को कोई शिकायत भी मिली, और अब इस कत्ल का भांडाफोड़ करके सबको गिरफ्तार किया गया है।
मां, नानी, और मौसी को लेकर जाने कितने तरह की कहानियां चलती हैं। लोग यह भी मानते हैं कि मां-बाप अपने बच्चों को जितना प्यार करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा प्यार दादा-दादी, या नाना-नानी करते हैं। ऐसे में महज मोटी रकम कमाने की नीयत से अपनी नानी को ऐसी साजिश के तहत ऐसे भयानक तरीके से मारकर कोई बीमा दावा ले ले, ऐसा अभी तक सुना नहीं गया था। दूसरी तरफ आज ही की एक खबर है कि जयपुर में एक बैंक में लूट हुई तो वहां कैशियर ने एक लुटेरे को पकड़ लिया। दूसरा लुटेरा अपने साथी को छुड़ाने लगा, तो कैशियर ने दोनों को जकड़ लिया, इस पर एक लुटेरे ने कैशियर के पेट में तीन गोलियां दाग दीं, इसके बावजूद कैशियर ने एक लुटेरे को नहीं छोड़ा, और गोली की आवाज से आसपास से आए लोगों ने इस लुटेरे को पकड़ लिया। एक ही दिन की ये दो खबरों बताती हैं कि किस तरह कोई अपनी जिंदगी को खतरे में डालकर अपने बैंक को बचा रहा है, और किस तरह कोई दूसरा अपनी नानी का ऐसा भयानक कत्ल करके उसका झूठा बीमा दावा पा रहा है। इंसानों की गलत हरकतों के लिए जानवरों की मिसाल देने वाले लोगों को ऐसा एक भी जानवर ढूंढकर बताना चाहिए जो कमाई करने के लिए अपनी नानी या दादी का ऐसा कत्ल करते हों।
आज ऐसा लगता है कि तथाकथित इंसानियत एक ऐसी फर्जी धारणा के अलावा और कुछ नहीं है जिसे कि इंसानों ने एक नाजायज इज्जत पाने के मकसद से गढ़ा है। हर इंसान के भीतर तथाकथित इंसानियत, और काल्पनिक हैवानियत, दोनों बराबरी से कायम रहते हैं, और अलग-अलग वक्त पर ये दोनों उस पर हावी होते हैं, कभी-कभी इंसानियत, और अधिक वक्त हैवानियत। यह भी समझने की जरूरत है कि अगर परिवार और समाज का दबाव नहीं रहता, देश का कानून नहीं रहता, पुलिस और अदालतें नहीं रहतीं, तो लोग जाने और क्या-क्या नहीं करते? हर दिन कहीं न कहीं से ऐसी खबर आती है कि परिवार के भीतर ही बाप ने बेटी से, या भाई ने बहन से बलात्कार किया। यह तब हो रहा है जब हर किसी को मालूम है कि ऐसे मामलों के पुलिस तक पहुंचने पर गिरफ्तारी और सजा की गारंटी सरीखी रहती है, फिर भी कुछ देर के मजे के लिए लोग परिवार के भीतर वर्जित संबंधों में भी ऐसे जुर्म करते हैं। आज की ही एक खबर हरियाणा से आई है, जहां पर एक महिला का पति से तलाक हो गया, और उनके दो बच्चे महिला के पास ही रहते थे। महिला का किसी और से प्रेमसंबंध था, और वह उससे शादी करना चाहती थी। इस महिला ने अपने दोनों बच्चों का कत्ल करने के बाद इनकी लाशें खेतों में डाल दी, और पुलिस में शिकायत की कि उसके भूतपूर्व पति ने दोनों बच्चों को मार डाला है। जांच पर पता लगा कि कातिल वही मां थी। अब मां की महानता की कहानियां खत्म होने का भी नाम नहीं लेती हैं। ऐसे में महज प्रेमी से शादी करने के लिए मां अपने दोनों बच्चों को काटकर फेंक दे, इसकी तोहमत उसके भीतर की इंसानियत पर लगाई जाए, या किसी और की हैवानियत पर?
इस मुद्दे पर हम इसलिए लिख रहे हैं कि इंसानियत का तकाजा और हवाला दे-देकर लोग जिस तरह और जिस कदर दूसरों का भरोसा जीतते हैं, और फिर उसी भरोसे को हथियार बनाकर लोगों को धोखा देते हैं, उससे सावधान रहने की जरूरत है। हालांकि यह बात कहते हुए हमें खुद ही यह लगता है कि कोई महिला अपने नाती से भला कैसे यह आशंका रख सकती है कि वह उसे मार डालेगा, लेकिन असल जिंदगी को देखें तो ऐसी बहुत सी घटनाएं हो रही हैं जिनमें लोग मां-बाप को भी मार डाल रहे हैं। इसलिए समाज को रिश्तों की बुनियाद पर बने हुए भरोसे का बहुत अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए। लोगों को इंसानी फितरत के खतरों को भी याद रखना चाहिए कि अपने आपको बड़ा शुभचिंतक बताने वाले लोग भी कैसे खतरनाक साबित हो सकते हैं। परिवार के बीच भी लोगों को वर्जित संबंधों को लेकर, संपत्ति को लेकर, विरासत को लेकर सावधान रहना चाहिए, क्योंकि परिवार का ढांचा दिखने में मजबूत लगता है, लेकिन वह उतना ही कमजोर होता है जितने कमजोर उसके सदस्य होते हैं। निराशा की ऐसी तस्वीर के बीच चलते-चलते हम जयपुर के उस बैंक कैशियर को भी याद करना चाहते हैं बैंक को लुटेरों से बचाने के लिए पेट में गोलियां खा लीं, फिर भी लुटेरे को नहीं छोड़ा। लेकिन भले इंसानों से न खतरा रहता, न बचने की जरूरत रहती, दूसरी तरफ गलत काम करने वाले बुरे इंसान भी अच्छा सा मुखौटा लगाकर ही रहते हैं, और यह मुखौटा उनके किसी बड़े जुर्म के बाद ही उतरता है। इसलिए हर किसी से सावधान रहने में ही समझदारी है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर के एक नर्सिंग कॉलेज का मामला सामने आया है जिसमें वहां के एक प्राध्यापक ने एक छात्रा को पास करने के लिए 30 हजार रूपए मांगे, या अपने साथ सेक्स की मांग की। छात्रा की शिकायत पर इस प्राध्यापक को गिरफ्तार किया गया है। नर्सिंग कॉलेज में अमूमन लड़कियां ही पढ़ती हैं, और ये आमतौर पर गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की रहती हैं। न सिर्फ नर्सिंग की पढ़ाई के दौरान, बल्कि बाद में भी अस्पतालों में नौकरी करते हुए उन्हें विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, और शोषण के खिलाफ अपने आपको तैयार भी रखना पड़ता है। इस प्राध्यापक की इतनी हिम्मत थी कि उसने इस छात्रा को वॉट्सऐप पर संदेश भेजकर सेक्स की शर्त रखी, जबकि आज जगह-जगह इस तरह के मामलों में सजा होने की खबरें भी आती रहती हैं। इस तरह की चैट के सुबूत के साथ जब छात्रा ने पुलिस को रिपोर्ट की, तो इस प्राध्यापक को गिरफ्तार किया गया। इस प्रोफेसर ने छात्रा को लिखा है कि पास होना है तो हर विषय के 30 हजार रूपए लगेंगे, या ब्वॉयफ्रेंड के साथ जो करती हो वो करना पड़ेगा। उसने यह भी लिखा कि अपनी कोई ऑटफोटो भेजो, तब मानूंगा कि तुम तैयार हो। छात्रा ने ऐसी तस्वीरें भेजने से मना किया तो प्राध्यापक ने उसे फेल करने की धमकी दी। समाचार बताते हैं कि पहले भी इस प्राध्यापक की ऐसी मांग से परेशान एक छात्रा पढ़ाई छोडक़र जा चुकी है। यह बड़ा बेहूदा सा संयोग है कि इसी शहर से अभी एक दूसरी खबर आई है कि किस तरह यहां का एक डॉक्टर 13 बरस की उम्र से एक लडक़ी से रेप करते आ रहा है, और 14 बरस से यह सिलसिला चल रहा है। लडक़ी की शादी हो गई तो उसके बाद भी वह यह सिलसिला चलाते रहा। अब लडक़ी ने अपना आरोप साबित करने के लिए अपने बच्चे के डीएनए टेस्ट का आवेदन दिया है। और हाईकोर्ट ने उसकी याचिका मंजूर करते हुए उसके बच्चे और आरोपी डॉक्टर दोनों का डीएनए करवाने की बात कही है।
ऐसा एक दिन नहीं गुजर रहा है कि कहीं न कहीं से इस तरह के यौन शोषण की शिकायत न आए। जब कोई प्राध्यापक, खेल प्रशिक्षक, रिसर्च गाईड, या डॉक्टर धमकी देकर इस तरह बलात्कार करे, तो यह एक अलग दर्जे का जुर्म हो जाता है। बलात्कार पर सजा का जो दायरा रहता है, उसमें इस तरह के मामलों में अधिकतम संभव सजा दी जानी चाहिए। अपनी छात्रा को, मरीज या प्रशिक्षणार्थी खिलाड़ी को, या शोध छात्रा को सेक्स का शिकार बनाना आम बलात्कार के मुकाबले अधिक संगीन जुर्म है, क्योंकि बलात्कार की शिकार लड़कियां विरोध करने पर अपने जीवन का बहुत बड़ा नुकसान झेलने को मजबूर रहती हैं। इसलिए मातहत कर्मचारी के साथ भी इस तरह का शोषण अधिक गंभीर सजा के लायक होना चाहिए। सरकारी और निजी संस्थानों में मातहत के यौन शोषण को एक किस्म का हक मान लिया जाता है, और समर्पण न करने पर उन्हें तरह-तरह से सताया जाता है। कहने के लिए संस्थानों और दफ्तरों में यौन शोषण रोकने के लिए कमेटियां बनाने का नियम है, लेकिन न तो ऐसी कमेटियां रहतीं, और न ही कमेटियों की हमदर्दी महिलाओं के साथ रहती है। हम असल जिंदगी की बातचीत में देखते हैं कि जब किसी लडक़ी या महिला के चाल-चलन के खिलाफ ओछी बातें की जाती हैं, तो इसमें न सिर्फ मर्द दिलचस्पी लेते हैं, बल्कि कई मामलों में कई महिलाएं भी महिला के चरित्र के खिलाफ बोलने लगती हैं। हमने अभी सोशल मीडिया पर लिखा भी था कि चरित्र को लेकर महिला पर चलाया गया पहला पत्थर किसी महिला के हाथ से चला हुआ भी हो सकता है।
न सिर्फ हिन्दुस्तान, बल्कि दुनिया के अधिकतर देशों में मर्दो के शोषण की शिकार लड़कियों और महिलाओं को ऐसे शोषण में हिस्सेदार मान लिया जाता है। हिन्दुस्तान में तो बलात्कार के पीछे लड़कियों और महिलाओं के शाम को अकेले निकलने से लेकर उनकी जींस तक को जिम्मेदार मान लिया जाता है, और किसी एक नेता ने तो सौ कदम आगे बढक़र नूडल्स खाने को बलात्कार के लिए जिम्मेदार बताया था। देश के एक मुख्यमंत्री ने यह कहा था कि महिलाओं के बदन में इतनी अधिक ऊर्जा होती है कि उसे काबू करने के लिए एक मर्द जरूरी होता है। इस देश में मनुस्मृति जैसे ग्रंथ हैं जो कि महिला को पहले पिता के अधीन रहने को कहते हैं, फिर पति, और फिर पुत्र की सुरक्षा में रहने को कहा जाता है। यह पूरा सिलसिला महिलाओं को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने का है, और इसी सोच-समझ के साथ जो मर्द बड़े होते हैं, उन्हें इतनी साधारण समझ भी नहीं रह जाती कि सेक्स की मांग वाले उनके चैट उन्हें जेल ले जाने और सजा दिलवाने के लिए काफी होते हैं।
मातहत लोगों के शोषण की कहानी सिर्फ औपचारिक गुरू-शिष्या सरीखे मामलों में नहीं हैं, बल्कि आसाराम नाम के एक पाखंडी और स्वघोषित संत पर भी वह लागू होती है जिसने कि अपने एक भक्त परिवार की नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था जो कि आसाराम की ही एक स्कूल में पढ़ती थी, और वहां के छात्रावास में रहती थी। किसी भी तरह से अपने मातहत या अपने काबू की लडक़ी या महिला के साथ बलात्कार हिन्दुस्तान में बहुत आम जुर्म हैं। ऐसा लगता है कि पुरूषों के एक बड़े हिस्से के दिमाग में पूरे ही वक्त सेक्स-शोषण छाया रहता है, और पहला मौका मिलते ही वह बाहर निकलने लगता है। कानून कड़े जरूर हैं, लेकिन पुलिस की जांच और अदालती प्रक्रिया इतनी महिलाविरोधी है कि बलात्कार के मामलों में महिला को इंसाफ मिलने के पहले कई और बलात्कार मिल जाने का खतरा रहता है। दो-चार दिन पहले की ही एक अलग खबर है कि बलात्कार के एक मामले में जुर्म की शिकार महिला को अदालत के चेम्बर में बुलाकर वहां जज ने ही उसका यौन शोषण करने की कोशिश की। त्रिपुरा के इस मामले में दुष्कर्म पीडि़ता ने बताया कि जब वह बयान देने गई, तो जज ने उसके साथ छेडख़ानी की। इस शिकायत पर जिला जज की अध्यक्षता में तीन लोगों की जांच कमेटी बनाई गई है। और यह मामला तो एक महिला की हिम्मत की वजह से सामने आया हुआ दिख रहा है, कितनी ऐसी महिलाएं होंगी जो कि मर्दों की इस दुनिया से इस तरह लड़ते हुए थक न जाती हों।
हमारा ख्याल है कि मौजूदा नियम-कानून रहते हुए भी शिकायत, जांच, और सुनवाई का सिलसिला महिलाविरोधी है, और महज कानून कड़े करने से कुछ नहीं होगा, समाज के नजरिए को भी बदलना पड़ेगा, और जांच एजेंसियों से लेकर अदालत तक एक अधिक संवेदनशील इंतजाम भी करना पड़ेगा, वरना इस लोकतंत्र में महिला की शिकायत का क्या हाल है, यह तो हमने आधा दर्जन महिला पहलवानों की यौन शोषण की शिकायतों पर देख लिया है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट की दखल नहीं हुई, तब तक पुलिस ने एफआईआर तक नहीं लिखी थी। और जब देश के मुख्य न्यायाधीश पर यौन शोषण का आरोप उन्हीं की एक मातहत ने लगाया था, तो यह मुख्य न्यायाधीश ही इस मामले की सुनवाई में जजों की बेंच का मुखिया बनकर बैठ गया था। महाभारत और रामायण काल से इस देश की संस्कृति का रूख जिस तरह महिलाविरोधी है, वह अब तक जारी है, और जाने कितनी सदियों तक ऐसा ही चलेगा।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार गई, और भाजपा की सरकार आई तो उसके बाद से लगातार बहुत से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं जिनमें पिछली सरकार की गड़बडिय़ों की जानकारी है। कुछ विधानसभा में, तो कुछ विधानसभा के बाहर, और कुछ अखबारों में। ऐसा भी नहीं कि सारी गड़बडिय़ां राज्य सरकार या मंत्रिमंडल की सहमति या अनदेखी से हुई हों, बहुत सी गड़बडिय़ां नीचे के स्तर पर अफसरों ने की हैं, बिना जरूरत करोड़ों का निर्माण कराया गया, करोड़ों की खरीदी की गई, और मानो किसी कुर्सी पर बैठे अफसर को सरकार को कोई जवाब ही नहीं देना है, लोगों ने लूटपाट के अंदाज में भ्रष्टाचार किया। प्रदेश के कुछ जिम्मेदार अखबारों में लगातार छपने वाली ऐसी रिपोर्ट देखें, तो लगता है कि सरकारें मुजरिमों के अंदाज में काम करती हैं, और अगर उसी पार्टी की सरकार दुबारा आ जाए, तो ये गड़बडिय़ां दबी भी रह जाती हैं। या तो पांच-पांच बरस में सरकार बदलती रहे, तो भ्रष्टाचार कुछ काबू में हो सकता है, लेकिन सिर्फ सरकार पलटने से ही भ्रष्टाचार थम नहीं सकता।
किसी भी सरकार में हो रहे भ्रष्टाचार की जानकारी बहुत से लोगों को रहती है, मंत्री और अफसर को तो रहती ही है, नीचे के अफसरों और कर्मचारियों को भी इसका पता होता है। लेकिन नियमों या राजनीतिक दबाव में बंधे हुए लोग इसकी जानकारी बाहर नहीं दे पाते हैं। कुछ आरटीआई एक्टिविस्ट जानकारी निकलवाते हैं, लेकिन हासिल ऐसी जानकारी का इस्तेमाल बड़ा संदिग्ध रहता है कि वह जनहित में होता है, या एक्टिविस्ट के निजी हित में। अगर सरकारों से जानकारी निकलवाने का काम तेजी से हो सके, और उसके आधार पर शिकायत आने पर सरकार खुद तेजी से काम कर सके, या एसीबी-ईओडब्ल्यू जैसी सरकारी जांच एजेंसी इनमें जांच कर सके, तो कई भ्रष्ट लोग जेल जा सकते हैं, और उनकी मिसाल देखते हुए बाकी लोग कुछ सुधर भी सकते हैं। लेकिन दिक्कत यह है कि एसीबी-ईओडब्ल्यू में भ्रष्टाचार के जिन मामलों की जांच पूरी हो जाती है, भूले-भटके इक्का-दुक्का मामलों में सरकार से मुकदमा चलाने की इजाजत भी मिल जाती है, उनमें भी मुकदमे चलाए नहीं जाते। सरकार की हालत यह है कि राजधानी रायपुर के सबसे बड़े अवैध कब्जे और अवैध निर्माण के खिलाफ बरसों तक मुकदमा लडक़र रायपुर म्युनिसिपल ने हाईकोर्ट से मामला जीता, इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कोई याचिका नहीं हुई, लेकिन शायद दस बरस हो चुके हैं म्युनिसिपल ने कब्जा तोडऩे की जहमत नहीं उठाई, जबकि मामला हाईकोर्ट जाने के पहले म्युनिसिपल ने प्रदेश के बाहर से विस्फोटक विशेषज्ञों को बुला लिया था ताकि बड़ी-बड़ी अवैध इमारतों को विस्फोट से गिराया जा सके। जाहिर है कि कार्रवाई न करने के पीछे मोटा लेन-देन रहता है, और इसीलिए अपने जीते मुकदमे के बाद भी अवैध साबित हो चुके कब्जे और निर्माण को छुआ नहीं जाता।
अखबारों में रोज दर्जनों ऐसी रिपोर्ट छपती हैं जिनमें गैरजरूरी निर्माण करवाना, गैरजरूरी सामान खरीदना साबित होता है। खरीदे गए सामान का इस्तेमाल नहीं करना, और उसका पड़े-पड़े खराब हो जाना सरकार में आम बात है। किसी भी पार्टी की सरकार रहे, ऐसा चलते ही रहता है। खबरों से ही दिख जाता है कि किस परले दर्जे का भ्रष्टाचार हुआ है, कई मामलों में विधानसभा में सवाल उठते हैं, बहुत से मामलों को सीएजी की ऑडिट रिपोर्ट में उजागर किया जाता है, लेकिन सरकारें आमतौर पर बिना संवेदना के रहती हैं, और झिझक भी खत्म हो जाती है। फिर जब सरकारों को यह लगता है कि पिछली सरकार या अपनी खुद की सरकार के किए हुए भ्रष्टाचार पर चुनिंदा कार्रवाई ही करनी है, तो फिर भ्रष्टाचार में एक नया आयाम जुड़ जाता है, और प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों को साधने की कोशिश हो जाती है, अफसर तो स्थाई रहते हैं, और वे सधे-सधाए रहते हैं।
हम एसीबी-ईओडब्ल्यू जैसी एजेंसी के काम को देखकर हैरान होते हैं कि अगर वह रोज प्रदेश के अखबार ही देखकर प्रारंभिक जांच शुरू करे, तो ही हर दिन उसके हाथ बहुत से नए मामले लग सकते हैं, लेकिन राजनीतिक प्राथमिकताओं से ही ऐसी एजेंसियां काम करती हैं। जब जो पार्टी सत्ता में हैं, उसके निशाने पर जो भ्रष्टाचार हैं, सिर्फ उन्हीं पर कार्रवाई होती है, और उजागर हो चुके भ्रष्टाचार के बाकी मामले अनदेखे रह जाते हैं। हमारा ख्याल है कि जनता के बीच के कुछ ऐसे संगठन रहने चाहिए जो कि भ्रष्टाचार के मामले उठने पर, उनकी और जानकारी जुटाकर उन्हें एक तर्कसंगत और न्यायसंगत अंत तक पहुंचाने का काम करें। यह सिलसिला अखबारों या आरटीआई एक्टिविस्ट लोगों से शुरू होता है, और जनसंगठनों को इन्हें आगे ले जाना चाहिए। कुछ भ्रष्टाचार तो इतने बड़े होते हैं कि कोई हाईकोर्ट भी उन्हें सुनकर उनमें दखल दे सकते हैं। जनता के बीच के लोगों को ऐसी सारी संभावनाओं को टटोल लेना चाहिए, क्योंकि पैसा तो जनता का ही है जो कि भ्रष्ट लोग लूट-खा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में अभी-अभी विधानसभा का पहला बड़ा सत्र शुरू हुआ है, और उसमें सत्तारूढ़ भाजपा विधायक सवाल कर रहे हैं, और सत्तारूढ़ भाजपा मंत्री जवाब दे रहे हैं, और इनमें से तकरीबन तमाम मामले पिछली कांग्रेस सरकार के समय के हैं। आज सवाल पूछने में सबसे सक्रिय विधायक भाजपा के ही हैं, क्योंकि इस सरकार को तो आए हुए ही दो-तीन महीने हुए हैं, जितनी गड़बडिय़ां हैं, वे सब पिछली सरकार के वक्त की हैं। आगे भी मीडिया से विधायकों को, और विधायकों के पूछे सवालों से मीडिया को मामले को आगे बढ़ाना चाहिए। अगर भ्रष्टाचार का लगातार भांडफोड़ होगा, तो हो सकता है कि कुछ को जेल जाते देखकर बाकी लोग सहमेंगे, और चोरी-डकैती घटेगी।
देश में इतनी संवैधानिक संस्थाओं के रहने के बाद भी अगर उजागर हुआ भ्रष्टाचार भी बिना सजा पाए रह जाए, तो वह लोकतंत्र के लिए एक बड़ी शर्मिंदगी की बात ही होती है।
पश्चिम बंगाल के उत्तरी 24 परगना जिले के संदेशखाली में जिस तरह के व्यापक हिंसा के आरोप सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के नेताओं पर लग रहे हैं, वे अपने आपमें सरकार को बड़े विवाद में फंसा चुके हैं। ऐसे में जब राज्य के मुख्य विपक्षी दल भाजपा के बड़े नेता संदेशखाली जाने पहुंचे, तो वहां पुलिस ने बाकी दूसरे लोगों की तरह इस जत्थे को भी रोक दिया। रोके जा रहे इन लोगों में से किसी एक ने वहां मौजूद एक सिक्ख आईपीएस अफसर को खालिस्तानी कहा। इससे बहुत बुरी तरह आहत इस अफसर ने इस पूरे जत्थे को कहा कि उन्होंने पगड़ी पहनी है, इसलिए उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर उन्हें खालिस्तानी कहा जा रहा है। उन्होंने भाजपा नेताओं से कहा कि उनके पुलिस होने के बारे में उनको जो कहना है कहें, लेकिन उनके धर्म पर ऐसी टिप्पणी न करें कि धार्मिक पगड़ी की वजह से उन्हें खालिस्तानी कहा जा रहा है। इस बात से बंगाल की पुलिस भी आहत है कि बिना किसी हिंसक कार्रवाई के सिर्फ लोगों को रोकने से उसके एक सीनियर अफसर के धर्म को लेकर उसे देशद्रोही कहा जा रहा है। वहां की पुलिस शायद इस पर जुर्म भी दर्ज कर रही है, और मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी इस पर बड़ी नाराजगी जताते हुए इस वीडियो को दुबारा पोस्ट किया है। सिक्खों में उनके सबसे बड़े धार्मिक प्रतीक, सिर पर बांधी जाने वाली पगड़ी को लेकर बड़ी संवेदनशीलता रहती है, और दुनिया के शायद हर देश में सिक्खों को पगड़ी के लिए हर किस्म की कानूनी रियायत भी मिलती है। देश भर में कई शहरों में सिक्ख संगठनों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन किए हैं, और इस मामले पर आगे भी पुलिस कार्रवाई बढ़ सकती है।
एक तरफ तो देश में धर्म को लेकर बड़ा उन्माद फैला हुआ है, और उसने किसी सिक्ख पर इस तरह की बात कहना, सिक्खों के बहुत से पुराने जख्मों को फिर से रगड़ देता है। ऑपरेशन ब्लूस्टार के पहले से जिस तरह पंजाब में भिंडरावाले के आतंकी स्वर्ण मंदिर से निकलकर घूम-घूमकर गैरसिक्खों की हत्या करते थे, उसे लोग भूले नहीं हैं। लेकिन इसे सिक्ख समाज की मंजूरी नहीं थी, यह सिर्फ समाज के भीतर के सबसे दबंग और हथियारबंद लोगों की मनमानी थी, जिसके खिलाफ बोलने की हिम्मत और ताकत उस वक्त की किसी की नहीं थी। उस वक्त भी देश भर में सिक्खों को आतंकवादी, टेररिस्ट, खालिस्तानी, या खाडक़ू जैसे कई नामों से बुलाया जाता था, और ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में ऐसा माहौल था कि सिक्खविरोधी दंगे भडक़ाना आसान था, और उनमें से एक आरोपी कमलनाथ को तीन दिन पहले भाजपा में लेने की पूरी तैयारी भी सुनाई पड़ रही थी, बाद में शायद इन्हीं दंगों के दाग की वजह से भाजपा उन्हें पचा नहीं पाई। दो बरस पहले के किसान आंदोलन के दौरान भी किसान नेताओं पर नक्सली, पाकिस्तानी, खालिस्तानी होने के बहुत से आरोप भाजपा नेताओं ने लगाए गए थे, और बाद में इन आरोपों की वजह से उनकी फजीहत भी हुई थी। अब फिर भाजपा के जत्थे में से किसी की तरफ से एक सिक्ख अफसर को खालिस्तानी कहना कुछ महंगा पड़ेगा।
भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं की सिक्खों से किसी टकराव की कोई वजह नहीं दिखती, बल्कि पंजाब में शुरू से ही सिक्ख धर्म की राजनीति पर चलते हुए अकाली दल के साथ भाजपा की बड़ी लंबी भागीदारी रही। ऐसे में कैमरों के सामने एक सिक्ख आईपीएस अफसर को खालिस्तानी कहना एक राष्ट्रीय शर्मिंदगी की बात है। यह बात मुस्लिमों को तो कहना आम हो चुका है, और हर आम और खास मुसलमान को पाकिस्तान भेजने के फतवे हर गली-मोहल्ले में तैरते ही रहते हैं। लेकिन सिक्खों के खिलाफ इस तरह की टिप्पणी भाजपा नेताओं के जत्थे के लापरवाह बर्ताव को बताती है जो कि गए तो तृणमूल कांग्रेस का विरोध करने के लिए थे, लेकिन देश भर के सिक्खों में अपने खिलाफ एक नाराजगी खड़ी कर आए हैं। अभी तक किसी ने इस वीडियो को गढ़ा हुआ नहीं कहा है, इसलिए यह माना जाना चाहिए कि यह वीडियो सही है। और इसमें सिक्ख अफसर जिस बुरी तरह आहत दिख रहे हैं, उससे भी ऐसा लगता है कि भारत में किसी को धर्म के आधार पर नीचा दिखाना भी आसान है, और लोग इसे एक आम गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं।
पश्चिम बंगाल की पुलिस इस नस्लीय और साम्प्रदायिक टिप्पणी के खिलाफ रिपोर्ट शायद दर्ज कर चुकी है, और इस वीडियो की जांच करना भी मुश्किल नहीं है कि यह बिना छेडख़ानी का है, या छेडख़ानी से बनाया गया है। इसकी बारीक जांच होनी चाहिए, और दूसरे सुबूतों के साथ मिलकर ऐसा आरोप लगाने वाले लोगों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। देश में साम्प्रदायिक तनाव वैसे भी कम नहीं है, उसमें इस तरह का पेट्रोल छिडक़ना ठीक नहीं है। यह खालिस्तानी टिप्पणी सुप्रीम कोर्ट के इस बरस कई बार दिए गए एक हुक्म के तहत भी जुर्म है जिसमें अदालत ने हर नफरती बात पर एफआईआर करने की जिम्मेदारी स्थानीय पुलिस पर डाली है। बंगाल पुलिस को ऐसा करने में कोई राजनीतिक असुविधा भी नहीं होगी क्योंकि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी भाजपा से टकराव लेते चल रही हैं। लेकिन सभी राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि उनका ऐसा बर्ताव दूसरे राजनीतिक दलों के अराजक नेता-कार्यकर्ता के लिए एक अलग चुनौती लेकर आता है। देश को इस नौबत से बचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश में लगातार कुछ दिन कांग्रेस नेता कमलनाथ के अपने बेटे के साथ भाजपा में जाने की खबरें छाई रहीं, अटकलें लगती रहीं, सांसद बेटे नकुलनाथ ने अपने सोशल मीडिया पेज पर से कांग्रेस का जिक्र भी हटा दिया, और बाप-बेटे के कई समर्थकों ने भी यही किया। इन खबरों से पार्टी की बदहाली की बात फैलती रही, और अब जाकर तीन-चार दिनों की चुप्पी के बाद यह कहा गया कि वे और उनके बेटे पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसी चर्चा थी कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की बुरी शिकस्त के बाद प्रदेश में कांग्रेस के जागीरदार बने हुए कमलनाथ से प्रदेश अध्यक्ष पद छोडऩे कहा गया था, लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। नतीजा यह था कि पार्टी ने एक नौजवान को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। इसके बाद कमलनाथ इंतजार कर रहे थे कि उन्हें पार्टी राज्यसभा भेजेगी, लेकिन राज्यसभा में भी कांग्रेस ने लोकसभा के लगातार चार चुनाव हारने वाले एक दूसरे नेता को भेजने का रहस्यमय फैसला किया। इसी के बाद पार्टी से जाहिर तौर पर खफा कमलनाथ ने बेटे सहित पार्टी छोडऩे का यह माहौल बनाया था। ऐसा देश भर में जगह-जगह हो रहा है। और भाजपा के कांग्रेसमुक्त भारत का नारा कांग्रेसयुक्त भाजपा में तब्दील हो चुका है, अभी किसी ने महाराष्ट्र से भाजपा के राज्यसभा उम्मीदवारों की लिस्ट पोस्ट की है जिसमें कांग्रेस से आयातित नेता भरे हुए हैं। भाजपा के कुछ जानकार बताते हैं कि पार्टी में कुछ लोग कांग्रेस में थोक में आयात के खिलाफ, कुछ दूसरे लोगों का यह भी मानना था कि पार्टी के बुनियादी एजेंडा को पूरा करने के लिए ऐसा करना जरूरी है, क्योंकि महज अपने दम पर उसमें जाने कितने बरस लगेंगे। इसलिए कांग्रेस से भाजपा में आने को तैयार तकरीबन हर बड़े नेता को लाया जा रहा है। यह एक अलग बात है कि कमलनाथ को लेकर भाजपा के कई नेताओं में कुछ अधिक ही विरोध था कि उनका नाम 1984 के सिक्ख विरोधी दंगों में इस तरह आया हुआ है कि उससे पार्टी का बड़ा नुकसान होगा, और पार्टी 1984 के मुद्दे को खो बैठेगी, इसलिए शायद कमलनाथ ने भाजपा में जाने का इरादा नहीं छोड़ा है, भाजपा ने उन्हें लेने का इरादा छोड़ दिया है।
लेकिन हम इस घटना से केवल आज की बात शुरूआत कर रहे हैं, और एक अधिक व्यापक चर्चा करना चाहते हैं। देश भर में जगह-जगह देखने में आ रहा है कि निर्वाचित नेता अपने संगी-साथियों को लेकर थोक में दूसरे दल में चले जाते हैं, और दो तिहाई लोगों के दल-बदल पर कोई कानून भी लागू नहीं होता, इसलिए अब कई जगहों पर खरीददारी दर्जन के भाव से थोक में होती है। दल-बदल कानून को बनाया तो दल-बदल रोकने के हिसाब से था, लेकिन अब थोक में दल-बदल को छूट मिलने की वजह से खरीददारी थोक में होने लगी है। यह कानून ही लोकतंत्र का कत्ल करने में लग गया है। हमारा मानना है कि किसी भी सांसद या विधायक के दल-बदल करने पर न सिर्फ उसकी सदस्यता तुरंत खत्म हो जानी चाहिए, बल्कि उसके अगला चुनाव लडऩे पर भी रोक लगनी चाहिए। एक बार अगर ऐसी व्यवस्था हो गई, तो हमारा ख्याल है कि दल-बदल का कारोबार ही थम जाएगा। आज देश में पैसों की ताकत, या जांच एजेंसियों के बाहुबल से इस रफ्तार से दल-बदल हो रहा है कि किसी की आत्मा का कोई भरोसा नहीं रह गया है कि वह कब और कितने में बिकेगी। लेकिन इस गंदगी का खत्म किया जाना जरूरी है।
लोकतंत्र को एक वक्त गौरवशाली परंपराओं की व्यवस्था माना जाता था, लेकिन अब भारत में दल-बदल मुजरिम गिरोहों के धंधे की तरह हो गया है, और पार्टियों में विभाजन चल रहा है, लोग सत्ता का सुख पाने के लिए थोक में दूसरी जगहों पर जा रहे हैं जहां से पूरी जिंदगी उनका सैद्धांतिक विरोध रहते आया है। हमारा ख्याल है कि जनता के चुने हुए लोगों को अगर अपनी आत्मा ही बेचनी है, तो उन्हें अगले एक-दो चुनाव तक चुनाव से परे रखा जाना चाहिए। आज न सिर्फ सांसदों और विधायकों में, बल्कि पार्षदों और पंच-सरपंचों में जिस बड़े पैमाने पर दल-बदल हो रहा है, उसने लोकतंत्र का सम्मान पूरी तरह खत्म कर दिया है। जनता किसी उम्मीदवार को जब पार्टी के निशान पर वोट देती है, तो यह माना जाना चाहिए कि वे नेता उस कार्यकाल में अपने वोटरों और पार्टी को धोखा नहीं देंगे। फिर इस्तीफे देश पर एक निहायत गैरजरूरी चुनाव का बोझ भी लाद देते हैं, वह भी ठीक बात नहीं है।
अभी लोकसभा चुनाव एकदम सामने हैं, पता नहीं हमारी कही हुई इस बात को सुनने वाले कोई हैं, या मंडी के शोरगुल में समझदारी और ईमानदारी की कोई भी बात अनसुनी कर देना आसान है। लेकिन जनता के बीच के लोगों को और जनसंगठनों को ऐसा वैचारिक आंदोलन छेडऩा चाहिए जिससे देश में आगे जाकर ऐसा कानून बन सके जो कि पांच बरस से अधिक लंबी अपात्रता लाद सके। दूसरी बात यह भी कि अगर सरकारें ऐसा कानून नहीं बनाती हैं, तो लोकतंत्र के हित में किसी को सुप्रीम कोर्ट तक जाना चाहिए, और इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि वहां से ऐसे दल-बदल के बाद अगला चुनाव लडऩे पर भी रोक लगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में इन दिनों लगातार इतनी बुरी रफ्तार से परिवार के लोगों की हत्या और आत्महत्या का मामला चल रहा है कि उससे दिल दहल रहा है। सरगुजा में अंबिकापुर के एक स्कूल की 8वीं कक्षा की छात्रा ने कल खुदकुशी कर ली, उसे शायद कोई लडक़ा लगातार परेशान कर रहा था। इसी स्कूल की 6वीं की एक छात्रा ने एक पखवाड़े पहले खुदकुशी कर ली थी, जिसे शिक्षिका से शिकायत थी। बीती शाम राजधानी रायपुर शहर में एक पति ने पत्नी का कत्ल करने के बाद फांसी लगा ली। कल ही छत्तीसगढ़ में ही एक महिला अपने बच्चे के साथ पटरी पर कूद गई, उसकी मौत हो गई, और बच्चे की जान बच गई है। कल ही उस बच्चे का जन्मदिन बताया जा रहा है। लेकिन ये खबरें एक प्रदेश की भी पूरी खबरें नहीं हैं, ऐसे दर्जनों मामले कल एक दिन में हुए हैं, और इससे अधिक मामले इसके एक दिन पहले हुए थे। चूंकि यह सिलसिला लगातार चल रहा है, इसलिए सरकार और समाज को इसकी फिक्र करनी चाहिए। यह बात साफ है कि पारिवारिक तनाव जानलेवा और आत्मघाती हो रहे हैं, और ये एक दिन में खड़े नहीं होते। लंबे समय से चलते हुए तनाव इतने हिंसक होते हैं। इसका मतलब है कि लोगों के भीतर तनाव, कुंठा, अवसाद, और हिंसा इन घटनाओं के मुकाबले सैकड़ों गुना अधिक लोगों में भरी हुई हैं। सरकार को चाहिए कि बड़े पैमाने पर मनोवैज्ञानिक परामर्श के पाठ्यक्रम शुरू करे, और स्कूल-कॉलेज से लेकर समाज तक इनकी सेवाएं उपलब्ध कराए। आज जो गिने-चुने लोग परामर्शदाता और मनोचिकित्सक हैं, उनकी फीस ही एक बार की हजारों रूपए है। जाहिर है कि बहुत गिने-चुने लोग ही इतना खर्च उठा सकते हैं। इसलिए सरकार को ही दखल देनी होगी, और बड़ी संख्या में परामर्शदाता तैयार करने होंगे जो कि सरकारी अस्पतालों की तरह लोगों को उपलब्ध रहें, और स्कूल-कॉलेज में भी दूसरे शिक्षकों की तरह उनकी तैनाती हो सके। जो समाज इतने तनाव में जी रहा है, जाहिर है कि उसकी उत्पादकता भी कम रहती है, और वह खुशहाल भी कभी नहीं रह सकता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पाकिस्तान के चुनावों में यह बात खुलकर जाहिर हो चुकी है कि वहां फौज की दखल से चुनावी नतीजे बदल दिए गए हैं, और जिस जगह फौज जिस उम्मीदवार या पार्टी को जितने वोटों से जिताना चाहती थी, उसी हिसाब से नतीजे बदल-बदलकर घोषित किए गए हैं। अभी दो-चार दिन पहले करांची से विधायक घोषित किए गए एक नेता, हाफिज नईम उर रहमान ने तुरंत ही इस्तीफा दे दिया, और कहा कि उनकी सीट पर जीत इमरान की पार्टी के उम्मीदवार की हुई थी, लेकिन चुनाव अफसर ने नतीजे बदलकर उन्हें जीता हुआ घोषित कर दिया। उन्होंने ऐसी जीत मंजूर करने से मना कर दिया और यह उजागर भी कर दिया कि यह फौज के तय किए गए नतीजे हैं। अब रावलपिंडी के कमिश्नर ने चुनाव में धांधली के आरोप लगाए हैं, और कहा है कि मुख्य चुनाव आयुक्त और मुख्य न्यायाधीश भी इस धांधली में शामिल हैं। उन्होंने मीडिया के सामने खुलकर कहा कि वे चैन से गुजरना चाहते हैं, और इस तरह की जिंदगी जीना नहीं चाहते जो उनके साथ हो रहा है। उन्होंने कहा कि उनके डिविजन के 13 उम्मीदवार 70-70 हजार वोट पाकर जीते थे, उन्हें हारा हुआ घोषित किया गया। उन्होंने कहा कि उन्हें यह सब बर्दाश्त नहीं है, इसलिए उन्होंने अपने ओहदे, नौकरी, और हर चीज से इस्तीफा दे दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने जो किया है वह इतना बड़ा जुर्म है कि उन्हें उसकी कड़ी सजा मिलनी चाहिए, और वे खुद को पुलिस के हवाले कर देंगे। यह पूरी नौबत देखते हुए जेल में बंद इमरान खान की पार्टी ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त से इस्तीफे की मांग की है, और देश भर में प्रदर्शन शुरू किया है।
पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में फौज की दखल से, अदालतों की मेहरबानी से, और चुनाव आयोग के साजिश में मिल जाने से सारे चुनाव धांधली के शिकार हुए हैं, और फौज की पसंद की दो पार्टियों से परे बाकी तमाम लोगों ने इस धांधली के खिलाफ बयान दिए हैं, या प्रदर्शन कर रहे हैं। यह पूरा सिलसिला पाकिस्तान को एक बुरी तरह नाकामयाब जम्हूरियत साबित कर रहा है। यह देश 1947 के बाद से कई बार फौजी तानाशाही झेल चुका है, एक प्रधानमंत्री को फौजी हुकूमत फांसी पर भी चढ़ा चुकी है, और देश में होने वाली तमाम राजनीतिक साजिशों के पीछे फौज खुलकर सामने रहती है। इस तरह निर्वाचित और लोकतांत्रिक ताकतों का आना और जाना फौज तय करती है, पाकिस्तान के पांच बरस पहले के प्रधानमंत्री इमरान खान फौज की मदद से सत्ता पर आए थे, और फौज से मतभेद हो जाने पर उन्हें संसद में अविश्वास प्रस्ताव से हटा दिया गया, उनके खिलाफ दर्जन भर जुर्म दर्ज कर लिए गए, दो मामलों में उन्हें लंबी कैद भी सुना दी गई, और उनकी पार्टी की मान्यता खत्म कर दी गई, चुनाव चिन्ह जब्त कर लिया गया। लेकिन जनता इस पूरे सिलसिले को इतनी अच्छी तरह समझती है कि अभी जब चुनाव हुए तो नेता जेल में, चुनाव चिन्ह गायब, फिर भी पार्टी के उम्मीदवारों ने निर्दलीय लडक़र इतनी सीटों पर जीत हासिल की कि फौज की आंखें फटी की फटी रह गईं, और जनता ने यह साबित कर दिया कि उसने जितने उत्साह से निकलकर वोट डाला था, उससे फौजी मनमानी और दखल के खिलाफ जनता की नाराजगी साबित हो गई। अब वहां एक माहौल यह बन रहा है कि फौज अपनी औकात समझकर या तो फौजी हुकूमत शुरू कर दे, या फिर अपनी बैरकों में लौटकर लोकतंत्र को खड़ा होने का एक मौका दे।
पाकिस्तान की हालत चीन और अमरीका के बीच फंसे हुए भारत के एक ऐसे पड़ोसी की है जिसका दीवाला निकल चुका है, लेकिन जिसकी फौजी अहमियत की वजह से दुनिया की महाशक्तियां उसे अनदेखा नहीं कर रही हैं। चीन और अमरीका इन दोनों की फौजी दिलचस्पी उसमें है, और इन दोनों देशों को अपने-अपने भले के लिए पाकिस्तान के घरेलू मामलों में भी दखल देना सूझता है कि वहां के मामलात में फौजी दखल इन महाशक्तियों के शिकंजे को किस तरह प्रभावित करेगी। अमरीका जैसे देश के सामने एक फिक्र यह भी रहती है कि जिस अफगानिस्तान को वह बीस बरस के बाद छोडक़र निकला है, वह पाकिस्तान से लगा हुआ ही है, और तालिबान से निपटने के लिए, उन्हें काबू में रखने के लिए पाकिस्तान से कुछ रिश्ते तो रखना मजबूरी भी है। इस तरह की कई अंतरराष्ट्रीय मजबूरियां चीन-अमरीका, या भारत जैसे देशों के सामने है, और ये तमाम देश यह भी देखते हैं कि पाकिस्तान में फौज का दखल बेहतर रहेगा, या उनके देश के लिए पाकिस्तानी फौज बैरकों में बेहतर रहेगी?
कुल मिलाकर पाकिस्तान की जनता ने इस चुनाव में नवाज शरीफ और बिलावल भुट्टो की पार्टियों को जिस हद तक खारिज किया, और इमरान के बिना निशान के निर्दलीय लड़ रहे उम्मीदवारों को जिस तरह जिताया, उससे जनता ने फौज के खिलाफ अपनी ताकत दिखा दी है। अभी ऐसा लगता है कि फौजी हेडक्वार्टर में बैठकर पाकिस्तान की अगली सरकार तय की जा रही है, और वहां ऐसी चर्चाएं हैं कि फौज चेतावनी दे रही है कि या तो उसके कहे मुताबिक दो बड़ी पार्टियां मिलकर सरकार चलाएं, या फिर फौज खुद ही सत्ता संभाल ले। कुछ लोगों को पाकिस्तान की यह बदहाली अच्छी लग सकती है, लेकिन एक अस्थिर लोकतंत्र, या असफल लोकतंत्र के पड़ोसी भी कभी चैन की नींद नहीं सो सकते। सबको यह याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान बुरी तरह से फौज, धर्मान्ध कट्टरपंथियों, और आतंकियों के कब्जे का देश है, और इसके पास परमाणु हथियार भी है। इस तरह की कमजोर व्यवस्था इतने मजबूत हथियार का कभी गैरजिम्मेदारी से इस्तेमाल करके एक परमाणु जंग भी छेड़ सकती है। जहां लोकतांत्रिक ताकतें फौज की कठपुतली बनकर ही जिंदा रह पा रही हैं, वैसे देश में परमाणु हथियारों को लेकर भी कोई गैरजिम्मेदारी सामने आ सकती है। इसलिए पाकिस्तान के घरेलू बदहाल पर अड़ोस-पड़ोस किसी को भी अधिक खुश नहीं होना चाहिए। अभी यह देश अंतरराष्ट्रीय कर्ज में जिस बुरी तरह डूबा हुआ है, उसमें भी राजनीतिक सरकार की विश्वसनीयता नहीं बन पाएगी, और अंतरराष्ट्रीय साहूकार-संगठन पता नहीं पाकिस्तान में किसी सरकार की संभावना खड़ी कर पाएंगे या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी के राज वाले पश्चिम बंगाल में एक नया बखेड़ा खड़ा हो गया है। यहां विश्व हिन्दू परिषद कलकत्ता हाईकोर्ट की एक बैंच पहुंच गई है, और उसने सिलीगुड़ी सफारी पार्क में रखे गए एक शेर और शेरनी के नामों से अपनी धार्मिक भावनाएं आहत होना बताया है। अभी त्रिपुरा के सिपाहीजाला जूलॉजिकल पार्क से आठ जानवर बंगाल लाए गए थे, जिसमें यह जोड़ा भी था, और इनके नाम अकबर और सीता हैं। विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि त्रिपुरा से यहां आने के बाद उनको ये नाम दिए गए हैं। बंगाल के अफसरों और मंत्री-विधायक का कहना है कि यहां उनको कोई नाम नहीं दिए गए हैं और हो सकता है कि त्रिपुरा में उनके रहते हुए ही वहां उनका यह नाम रखा गया हो। बंगाल के वनमंत्री ने कहा कि अभी 12 फरवरी को ये 8 जानवर लाए गए हैं, और औपचारिक रूप से मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी इनके नाम रखेंगी। उल्लेखनीय है कि जिस त्रिपुरा से इन्हें लाया गया है वहां पर अभी भाजपा की सरकार है, और बंगाल में भाजपा प्रमुख विपक्षी दल है जो कि सत्ता में आने की संभावनाएं रखता है, और वहां पर तृणमूल कांग्रेस के साथ उसके सांप-नेवले जैसे संबंध हैं। दोनों ही पार्टियों के बीच परले दर्जे की कटुता है, और दोनों एक-दूसरे पर हमले का कोई भी मौका नहीं छोड़ते।
अब हम कुछ देर के लिए तृणमूल या भाजपा सरकारों के बीच फर्क को अलग रखकर यह बात करें कि जानवरों के नाम किस तरह के रखे जाने चाहिए? भारत जैसे देश में जहां पर धर्म अब खेती से भी बड़ा कारोबार हो चुका है, और एक वक्त का कृषि प्रधान देश आज धर्म प्रधान देश बन चुका है, वहां पर जानवरों के, दुकानों और जगहों के, और तो और अपने बच्चों के नाम कैसे रखे जाएं, यह एक धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, और धार्मिक कट्टरता का मुद्दा बड़ी आसानी से बन जाता है। इतिहास और उसके पहले की धर्म कथाओं में सीता नाम का पहला या सबसे चर्चित जिक्र रामकथा में राम की पत्नी सीता की ही है। हो सकता है कि किसी वक्त हिन्दुस्तान में सीता और गीता जैसे नाम वाली फिल्म भी बन गई हो, जिसे लेकर कोई बखेड़ा खड़ा न हुआ हो, लेकिन अब आज के हिन्दुस्तान में यह मुमकिन नहीं है। धार्मिक भावनाओं के कोई तर्क नहीं होते हैं, वे किसी तथ्य पर टिकी नहीं रहती हैं, किसी भी देश और काल के मुताबिक धार्मिक भावनाएं अलग-अलग शक्ल लेती हैं, और इन दिनों का हिन्दुस्तान अपनी भावनाओं को बदन के चमड़ी के भी ऊपर रखकर चलता है। किसी की धार्मिक भावना आहत होने के लिए किसी बात का उनके दिल तक पहुंचना जरूरी नहीं होता, उनकी चमड़ी भी आहत हो सकती है। ऐसे हिन्दुस्तान में चिडिय़ाघर या जंगल के किसी प्राणी का नाम सीता रखना अपने आपमें बेदिमागी का काम है। न सिर्फ सीता बल्कि हजारों किस्म के धार्मिक नाम ऐसे हो सकते हैं जिनमें से कोई भी नाम किसी जानवर को देने पर एक दंगा हो सकता है। फिर यह बात भी समझना जरूरी है कि इस देश में सिर्फ हिन्दू भावनाओं के फटाफट आहत हो जाने की तोहमत भी जायज नहीं होगी। देश के किसी भी धर्म से जुड़े हुए धार्मिक चरित्र का नाम किसी जानवर को दे देने पर बखेड़ा खड़ा हो सकता है, और दंगों में जानें जा सकती हैं। आज जिस तरह से हिन्दुस्तान राममय हो गया है, वैसे माहौल में सीता महज एक नाम नहीं है, वह राम की पत्नी भी है जिनका जिक्र पूरी रामकथा में बिखरा हुआ है। अगर यह पूरा बखेड़ा झूठा नहीं है, और अगर त्रिपुरा या बंगाल सरकार में किसी ने शेरनी का नाम सीता रखा था, तो वह अपने आपमें गलत फैसला था, और अकबर नाम के किसी शेर के साथ उसका जोड़ा बनाए बिना भी उसका नाम सीता रखा जाना बेदिमागी का काम था।
जब देश में लोगों की धार्मिक भावनाएं एक पैर पर खड़े होकर आहत होने के लिए तैयार रहती हैं, तो बाकी लोगों को अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता का कोई दावा नहीं करना चाहिए जिससे सिवाय नुकसान कुछ हासिल न हों। अभी पिछले पखवाड़े ही हमने पुणे विश्वविद्यालय के एक नाटक के बारे में लिखा था कि वहां रामलीला करने वाले कलाकार मंच के पीछे कैसा बर्ताव करते हैं, इस कथानक पर एक नाटक लिखा गया था, और उसे मंच पर खेला गया था। इसमें सीता का किरदार करने वाला नौजवान सिगरेट पी रहा था, और गंदी जुबान बोल रहा था। वैसे तो इस नाटक की कहानी यही थी कि रामलीला करने वाले कलाकार मंच के पीछे कैसा बेझिझक बर्ताव करते हैं, लेकिन जब यह कहानी मंच पर खेली गई, तो धार्मिक भावनाएं आहत होने की रिपोर्ट लिखाई गई, और पांच छात्रों सहित विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार किया गया। उस वक्त भी हमने यह बात लिखी थी कि हिन्दुस्तान में आज धार्मिक भावनाएं बारूद के ढेर पर बैठी हुई हैं, और ऐसे में समझदारी तो यही है कि अभिव्यक्ति की किसी स्वतंत्रता के तहत धार्मिक मुद्दों को न छुआ जाए। आज कला की आजादी का दावा करने का वक्त नहीं है, आज धर्म पर किसी गंभीर व्याख्या और विश्लेषण का भी वक्त नहीं है, और खतरा झेलकर ही वैसा किया जा सकता है। अदालतों का रूख भी धार्मिक भावनाओं का हिमायती दिख रहा है, ऐसे में हर किसी को अपनी खाल बचाकर चलना चाहिए। दस-बीस बरस पहले तक जितने हास्य और व्यंग्य धार्मिक किरदारों को लेकर खप जाते थे, आज उसका वक्त नहीं रह गया है। और ऐसा करने पर कट्टर धर्मान्धता को तो आगे आने का मौका मिलता ही है, ऐसी धार्मिक एकजुटता साम्प्रदायिक होने का खतरा भी खड़ा करती है। धर्म के नाम पर बोलने, लिखने, और कलात्मक आजादी लेने वाले लोग किसी मासूमियत का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि देश में आज हवा का रूख दिखाने वाला कपड़ा सारे वक्त फडफड़़ाते रहता है। आज सबको मालूम है कि कौन सी बातों को लेकर एक गैरजरूरी बवाल खड़ा हो सकता है, इसलिए धार्मिक चरित्रों के नाम के ऐसे इस्तेमाल की बेवकूफी नहीं करना चाहिए। हिन्दुस्तान का कोई भी धर्म अपने धर्म से जुड़े नामों को जानवरों को देना भी पसंद नहीं करेगा, और किसी दूसरे धर्म के नाम वाले जानवर के साथ अपने धर्म के नाम वाले जानवर का जोड़ा बनाना तो और भी बर्दाश्त नहीं करेगा।
हिन्दुस्तान जैसे देश में नामों की कोई कमी तो है नहीं कि धर्मोन्माद और साम्प्रदायिकता खड़ा करने का खतरा लेकर भी धार्मिक नाम रखे जाएं। और बात महज जानवरों के नाम की नहीं है, किसी शराबखाने या किसी गोश्त के दुकान का नाम भी किसी धार्मिक चरित्र के नाम पर रखना दंगा खड़ा कर सकता है। धर्म से थोड़े दूर से ही गले मिलना चाहिए।
महाराष्ट्र में निजी स्कूलों को सरकार से शिक्षा के अधिकार योजना के तहत दाखिल गरीब बच्चों की फीस के करीब ढाई हजार करोड़ रूपए लेने हैं। ऐसा बकाया आगे और न बढ़े इसका राज्य सरकार ने एक रास्ता निकाल लिया है, अब सरकारी या सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों के एक किलोमीटर के दायरे में आने वाली निजी स्कूलों को ऐसे दाखिले नहीं देने पड़ेंगे। गरीब बच्चों के ऐसे दाखिले की फीस सरकार देश भर में देते आई है, और महाराष्ट्र ने अब इससे बचने का रास्ता निकाल लिया है। एक अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक इससे अब निजी और अंग्रेजी माध्यम की स्कूलों में पढऩे के गरीब बच्चों के मौके खत्म हो जाएंगे, और सरकार अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से बच जाएगी। अभी तक के नियमों के मुताबिक देश भर में अल्पसंख्यकों के स्कूलों और धार्मिक शिक्षा देने वाले स्कूलों के अलावा बाकी सभी को पहली कक्षा से दाखिले पर 25 फीसदी सीटें कमजोर बच्चों के लिए रखनी पड़ती थीं, अब नए नियमों से ऐसी स्कूलें बहुत कम रह जाएंगीं। खासकर शहरों में तो निजी स्कूलों के एक किलोमीटर के दायरे में कोई न कोई सरकारी या सहायता प्राप्त स्कूल तो रहती ही है, इसलिए ऐसी जगहों पर बच्चों का निजी स्कूल में पढऩे का सपना अब खत्म सरीखा रहेगा।
जब सांसद और विधायक, और स्थानीय संस्थाओं के जनप्रतिनिधि संपन्न तबकों से आने लगते हैं, तो फिर विपन्न तबकों की जरूरतों की समझ उनमें खत्म हो जाती है। ऐसा ही एक मामला छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर का है जहां बहुत सी कॉलोनियों में कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित जमीनें खाली पड़ी हैं क्योंकि सरकार ने इन पर गरीबों के लिए मकान नहीं बनाए हैं, और अब अफसर यह तय कर रहे हैं कि इन खाली जमीनों को कब्जे से बचाने के लिए खेल मैदान बना दिया जाए। एक नियम के तहत इस राज्य में बिल्डर्स और कॉलोनाइजर्स को कॉलोनी की 15 फीसदी जमीन गरीबों के मकान के लिए म्युनिसिपल को देनी पड़ती है, लेकिन गरीब किसी की प्राथमिकता नहीं रहते इसलिए ऐसी जमीनों पर मकान बनाए नहीं गए। इस योजना के पीछे यह तर्क था कि कॉलोनियों में रहने वाले अपेक्षाकृत संपन्न परिवारों में घरेलू कामकाज के लिए जिस तबके के लोगों की जरूरत पड़ती है, उनके लिए जमीनें उसी कॉलोनी के किसी हिस्से में छोड़ दी जाए। ऐसी 15 फीसदी जमीन कॉलोनियां सबसे उपेक्षित और खराब हिस्से में छोड़ते आई है लेकिन म्युनिसिपल और बाकी सरकारी विभाग हैं कि उस पर भी मकान नहीं बनाए गए, जबकि केन्द्र और राज्य सरकार की कई आवास योजनाओं की चर्चा होते रहती है। अब अगर वहां मैदान बना दिया जाता है, और खेलना शुरू हो जाता है, तो इसके बाद वहां जब कभी, और अगर, गरीबों के लिए मकान बनाना शुरू होगा, तो उसका विरोध होने लगेगा।
गरीबों के हक खत्म करते हुए सरकारों को कुछ भी नहीं लगता। अगर किसी इलाके में किसी बड़े नेता का आना तय है, तो उसके आने के रास्ते पर से सभी किस्म के खोमचे-ठेलेवालों, और फुटपाथ पर बैठकर काम करने वालों को एक-दो दिन हटा दिया जाता है। ये सारे लोग रोज कमाने-खाने वाले रहते हैं, इनका एक दिन का नुकसान अगले दिन पूरा नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि सरकार को अगर सुरक्षा की वजह से किसी का रोजगार बंद करना है, तो उसे उसकी भरपाई देनी चाहिए। लेकिन असंगठित गरीबों की बात उठाने वाले नेता अब सफेद शेर सरीखे दुर्लभ हो गए हैं, और अफसरों में तो गरीबों के प्रति संवेदनशीलता रहती नहीं है। ऐसे में अखबारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे गरीबों के मुद्दों को उठाएं, लेकिन वे बिल्डरों और कॉलोनाइजरों के इश्तहारों के अहसानतले इतने दबे रहते हैं कि गरीबों का हक कुचला जाए, तो वे चीयर लीडर्स की तरह खुशी से नाचने लगते हैं। अखबारों से परे के मीडिया को लेकर सामाजिक सरोकार की किसी तरह की उम्मीद हमारी रहती नहीं है। यह एक बहुत ही विचित्र नौबत रहती है जब अखबारों से उम्मीद सरोकार की की जाती है, लेकिन उनका अपना अस्तित्व कारोबारी इश्तहारों पर टिका रहता है। ऐसे में सरोकार की बात करना उनके लिए आत्मघाती हो सकता है, और भला आज के कारोबार के वक्त में कौन अपने पांव पर कुल्हाड़ी और पेट पर लात मारना चाहेंगे?
अभी तक तकरीबन मुफ्त में हासिल सोशल मीडिया पर इन मुद्दों को तल्खी के साथ उठाना चाहिए, लेकिन वहां भी बहुत से लोगों का ऐसा कहना है कि उनकी सरकार या कारोबार विरोधी बातें उनके दोस्तों को भी नहीं दिखतीं। हो सकता है कि दुनिया का एक सबसे बड़ा कारोबार बन चुके फेसबुक और इंस्टाग्राम के मालिक यह तय कर चुके हों कि गरीबों की दुखभरी बातों को दिखाकर भला कब तक लोगों को वहां बांधा रखा जा सकेगा, इसलिए चकाचौंध की दूसरी बातों को अधिक दिखाने का हुक्म उनके कम्प्यूटरों को मिला हुआ होगा, और इस तरह गरीबों के सरोकार वहां भी पीछे धकेले जाते होंगे। फिर भी हम कम से कम इस मोर्चे पर बहुत निराश नहीं हैं क्योंकि लोगों को अपनी न्यायसंगत और तर्कसंगत बातों को लिखकर या बोलकर अधिक से अधिक लोगों तक भेजना चाहिए, अधिक से अधिक जगहों पर पोस्ट करना चाहिए, और अब तक इस पर न सीधी रोक है, न इसे सौ फीसदी रोका जा रहा है।
पहले कुछ सामाजिक संगठन ऐसे रहते थे जो गरीबों के अलग-अलग तबकों के हक को लेकर लड़ते थे। धीरे-धीरे सामाजिक आंदोलन खत्म हो रहे हैं, और उनकी जगह धार्मिक आंदोलन ले चुके हैं। अब जनसंगठनों के रास्ते भी ऐसे मुद्दे उठना मुमकिन नहीं दिखता है। और गरीब तबकों के बीच के सोशल मीडिया के जानकार लोगों को अपनी लड़ाई खुद ही लडऩी पड़ेगी, और कुछ मुद्दों पर तो जनहित याचिकाएं लेकर बड़ी अदालत तक जाने का काम भी वंचित समुदायों से आए हुए कुछ नौजवान वकील कर सकते हैं। दुनिया के कई विकसित देशों में बड़े-बड़े वकील भी गरीबों के मामले, या जनहित के मामले मुफ्त में लड़ते हैं, यहां भी कुछ संवेदनशील वकीलों को अपना कुछ वक्त जनहित के मुद्दों के लिए देना चाहिए, और हो सकता है कि अदालतों के रास्ते मिले हुक्म सरकारों को मानने पड़ें। फिलहाल तो हर शहर में अपने गरीबों के मुद्दों को उठाने वाले लोगों को कुछ कल्पनाशीलता से काम लेना चाहिए, और सोशल मीडिया, अखबार, और समाजसेवी वकीलों तक अपनी बात लेकर जाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के किसान संगठन एक बार फिर केन्द्र सरकार से टकराव के लिए सडक़ों पर उतरे हुए हैं, और फिलहाल उनका सबसे बड़ा जत्था पंजाब से दिल्ली की तरफ बढ़ रहा है जहां बीच में हरियाणा है, और हरियाणा की सरहद पर केन्द्र और राज्य दोनों जगह सत्तारूढ़ भाजपा की सरकार ने उन्हें रोकने के हर मुमकिन, असाधारण, और अभूतपूर्व इंतजाम किए हैं। लोगों को याद होगा कि दो साल पहले जब लंबा चला किसान आंदोलन खत्म हुआ था, उस वक्त मोदी सरकार को एक शिकस्त झेलनी पड़ी थी, और संसद में पास करवाए गए तीन किसान कानूनों को वापिस लेना पड़ा था। इसके अलावा भी किसान संगठनों के साथ कई किस्म के वायदे हुए थे, जिनके बारे में आज इन संगठनों का कहना है कि सरकार ने वे पूरे नहीं किए हैं। इनमें से एक बड़ा मुद्दा सभी किस्म की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का है, और सरकार का कहना है कि अगर एमएसपी की गारंटी दी जाएगी, तो केन्द्र सरकार के 17 लाख करोड़ इसी में चले जाएंगे, और देश में दूसरे जरूरी कामों के लिए रकम नहीं बचेगी। किसानों का कहना है कि सरकार ने यह वायदा किया था, जिसे पूरा करना चाहिए। केन्द्र के कुछ मंत्री किसान संगठनों से बातचीत के दो दौर कर चुके हैं, और उनके मुताबिक इतवार की शाम फिर बातचीत होगी। दूसरी तरफ भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर निकले हुए कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से वायदा किया है कि कांग्रेस सत्ता पर आती है, तो वह कानून बनाकर एमएसपी लागू करेगी। यह समझने की जरूरत है कि हिन्दुस्तान की 60 फीसदी आबादी खेती से जुड़ी हुई है, और किसानों के मुद्दे बहुत मायने रखते हैं, ऐसे में लोकसभा चुनाव के बस दो-तीन महीने पहले का यह आंदोलन देश भर में एक अलग किस्म की चुनावी चुनौती भी रहेगा, और कमजोर हो चुके इंडिया-गठबंधन को हो सकता है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य, एमएसपी के मुद्दे पर एक नई जिंदगी मिल जाए। लेकिन किसान संगठन राजनीति से परे हैं, और इसी बात में पिछली बार उनके आंदोलन को इतना लंबा चलने, और आधी जीत हासिल करने में मदद की थी।
अब यहां पर परेशान करने वाली कुछ बातें हैं, जो कि हैरान कर रही हैं। किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए हरियाणा के पहले ही उन्हें रोका जा रहा है, और चारों तरफ की पुख्ता साबित हो चुकी खबरें बताती हैं कि पैरामिलिट्री लगाकर, फौजी अंदाज के अड़ंगे सडक़ों पर लगाकर किसानों को रोका गया है। इसके साथ-साथ किसानों पर पानी की बौछार से उन्हें रोकने तक की बात तो समझ आती है, लेकिन ड्रोन से किसानों पर आंसू गैस के गोले गिराना एक अकल्पनीय काम है, और हिन्दुस्तान के इतिहास में आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। ड्रोन के बारे में तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंच और माईक से कहा था कि उन्हें जहां के काम का हाल देखना होता है, और वे वहां जा नहीं पाते, तो वे ड्रोन भेजकर वहां का हाल देख लेते हैं, या वहां की रिपोर्ट बुलवा लेते हैं। ऐसे प्रधानमंत्री की सरकारें निहत्थे किसानों पर ड्रोन से आंसू गैस के गोले गिरा रही है! और अंतरराष्ट्रीय मीडिया कल से इन खबरों से भरा हुआ है कि ऐसे ड्रोन से मुकाबला करने के लिए किसान पतंगें उड़ा रहे हैं ताकि ऊपर आए ड्रोन उसमें फंस सकें! मंगलवार तक की ही खबर बताती है कि किसानों पर 45 सौ से ज्यादा गोले गिराए जा चुके थे। खबरें और तस्वीरें बताती हैं कि किसानों पर प्लास्टिक की गोलियां दागी जा रही हैं, और ऐसे हमलों से बचाव के लिए, किसान तरह-तरह के देसी जुगाड़ कर रहे हैं। सडक़ों पर कांक्रीट के ब्लॉक रख दिए गए हैं, सडक़ों पर कीलें ठोंक दी गई हैं ताकि किसानों के ट्रैक्टर ट्रॉली के चक्के पंचर हो जाएं। यह नौबत देखकर एक पुरानी फिल्म का एक गाना याद आता है- ये लड़ाई है दिए की, और तूफान की..।
सामने खड़े आम चुनाव से परे भी मोदी सरकार को यह सोचना चाहिए कि पिछले आंदोलन के दौरान किसानों को नक्सली, पाकिस्तानी और खालिस्तानी कहने से उनकी साख तो खराब नहीं हुई थी, लेकिन ऐसे भाजपा नेताओं की वजह से पार्टी की साख जरूर खराब हुई थी, और किसानों को हमदर्दी मिली थी। इस वजह से ही देश भर में किसानों के समर्थन में जो माहौल बना था उसके दबाव में मोदी सरकार को अपने तीनों किसान कानून वापिस लेने पड़े थे, और साथ में कई किस्म के वायदे करने पड़े थे जो कि पूरे न होने पर अब आंदोलन फिर शुरू हो रहा है। ऐसा लगता है कि उत्तर भारत के प्रदेशों में ठंड का मौसम गुजरने के बाद शुरू यह आंदोलन फसल और मौसम दोनों को देखते हुए तय किया गया है, और लोकसभा के चुनाव का वक्त तो है ही। अभी देश के कुछ किसान संगठन आंदोलन में शामिल नहीं हुए हैं, लेकिन जैसे-जैसे यह आंदोलन आगे बढ़ेगा, जैसे-जैसे पैरामिलिट्री इसे रोकने में प्लास्टिक की गोलियां दागना जारी रखेंगी, वैसे-वैसे राजनीतिक दलों और बाकी किसान संगठनों पर भी आंदोलन के समर्थन का दबाव बनेगा। हरियाणा की भाजपा सरकार के इलाके में किसानों को आगे बढऩे से रोकने के लिए जितने किस्म के तरीके इस्तेमाल किए जा रहे हैं, उनसे देश-विदेश सभी जगह यह हैरानी हो रही है कि सरकार अपने ही देश के किसानों के साथ कितनी सख्ती का इस्तेमाल कर रही है, और दो बरस पहले के वायदों को अब तक पूरा क्यों नहीं किया गया था?
पंजाब से शुरू हुए, और फिर बाकी तमाम राज्यों के किसानों के समर्थन से पिछली बार चले आंदोलन ने देश के किसान आंदोलन इतिहास की तस्वीर बदल दी थी। अभी यह सिलसिला अस्थिर है, और बातचीत का दौर भी जारी है, और ड्रोन से आंसू गैस के गोले गिराने का भी। इस बीच कुछ खबरें यह बताती हैं कि देश में एमएसपी बढ़ाने की सिफारिश वाली डॉ.एम.एस.स्वामिनाथन की रिपोर्ट भारत सरकार के कृषि मंत्रालय की वेबसाइट से हटा दी गई है। अभी-अभी स्वामिनाथन को भारतरत्न की घोषणा हुई है, अभी-अभी उत्तर भारत के एक सबसे बड़े किसान राजनेता, भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भी भारतरत्न देने की घोषणा हुई है, लेकिन ऐसा लगता है कि किसानों और किसानी से जुड़े हुए लोगों को दिए जा रहे ऐसे भारतरत्न के प्रतीकों से आज की किसानी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं, और सरकार को रत्न बांटने से परे भी कुछ करना पड़ेगा।
अभी हम किसानों की मांगों का कोई विश्लेषण यहां पर इसलिए नहीं कर रहे हैं कि हम एक व्यापक और समग्र तस्वीर सामने रखना चाहते हैं। लोगों को एक नजर में यह दिखना चाहिए कि किसान आंदोलन की आज क्या स्थिति है। आने वाले दिनों में हम यहां पर मांगों को लेकर, और उन पर सरकार के रूख को लेकर फिर लिखेंगे। इतवार की शाम इन दोनों के बीच होने वाली बैठक के बाद कुछ बातें साफ होंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने अभी-अभी दिए एक फैसले में भारत में लागू चुनावी बांड योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इस पर रोक लगा दी है। कुछ महीने पहले से इस मामले की सुनवाई पूरी करके फैसला सुरक्षित रखा गया था, और आज अभी कुछ देर पहले पांच जजों की एक संविधानपीठ ने इस योजना में रखे गए गोपनीयता के प्रावधान को सूचना के अधिकार का उल्लंघन माना, योजना को असंवैधानिक करार देते हुए इसके इस मौजूदा रूख को रद्द कर दिया है। इसके साथ ही अदालत ने पिछले पांच सालों में राजनीतिक दलों को मिले चंदे का हिसाब-किताब भी मांग लिया है। अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह 13 अप्रैल तक चुनावी बांड खरीदने वाले, और राजनीतिक दलों को देने के बारे में सारी जानकारी वेबसाइट पर साझा करे। इस फैसले के बाद अब जनता को यह पता होगा कि किसने किस पार्टी की फंडिंग की है। इस योजना के तहत कोई व्यक्ति या कंपनी स्टेट बैंक जाकर चुनावी बांड खरीद सकते थे, और बैंक ऐसे खरीददारों की जानकारी गोपनीय रखता था। फिर ये बांड लोग या कंपनियां अपने पसंदीदा राजनीतिक दल को दे देते थे।
चुनावी बांड की यह योजना 2017 में वित्त अधिनियम में किए गए संशोधनों के बाद मुमकिन हुई थी। इसके खिलाफ लगातार यह बात कही जा रही थी कि इस योजना से उद्योगपति या दूसरे कारोबारी अपनी किसी कागजी या फर्जी कंपनी के नाम से भी बांड खरीदकर पसंदीदा पार्टी को दे सकते थे। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स और सीपीएम की एक डॉ.जया ठाकुर, इन दोनों ने चुनावी बांड के साथ रखे गए गोपनीयता के प्रावधान को मतदाताओं के सूचना के अधिकार के खिलाफ माना था, और कहा था कि इसकी वजह से लोग फर्जी कंपनियों के रास्ते भी चंदा दे रहे हैं। सरकार ने इस याचिका का यह कहते हुए विरोध किया था कि बांड की वजह से राजनीति में कालाधन आना थम गया है, और दानदाताओं की शिनाख्त छुपाना इसलिए जरूरी है कि वे किसी राजनीतिक दल के नाराजगी का शिकार न हो। पांच जजों की बेंच ने सुनवाई के दौरान सरकार को फटकार लगाई थी कि क्या यह राजनीतिक दलों को रिश्वत देने को पहनाया गया कानूनी जामा नहीं है? जजों ने कहा था कि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए यह तो मुमकिन है कि वह बांड खरीदने वालों की जानकारी पा सके, लेकिन विपक्ष को ऐसी जानकारी नहीं मिल सकती। अदालत ने चुनाव आयोग को भी यह हुक्म दिया था कि वह राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के रास्ते मिले चंदों का हिसाब एक सीलबंद लिफाफे में अदालत में जमा करे।
यह बड़ा दिलचस्प मामला इसलिए भी है कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले कई फैसले ऐसे आए थे जो कि सत्ता को सुहाने वाले थे। हो सकता है कि वे तमाम फैसले पूरी तरह से सही रहे हों, लेकिन एक जनधारणा यह बन रही थी कि अदालत में भी सब कुछ सरकार की मर्जी का हो रहा है। ऐसे में देश की सबसे बड़ी, और सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा को पिछले बरसों में मिले सबसे अधिक चुनावी चंदे का हिसाब भी शायद इस फैसले से अदालत के सामने आएगा, और पहली नजर में ऐसा लगता है कि दानदाताओं के नाम जनता के सामने भी रखे जाएंगे। वैसे भी देश में जब सूचना का अधिकार लागू है, तो योजना का यह गोपनीयता वाला हिस्सा पूरी तरह से उसके खिलाफ ही था, और ऐसा लगता है कि इसके खत्म होने से राजानीतिक दलों के बीच मुकाबले में गैरबराबरी थोड़ी तो कम होगी। मुख्य न्यायाधीश बी.वी.चन्द्रचूड़ ने कहा है कि इस याचिका पर दो अलग-अलग फैसले जरूर लिखे गए हैं, लेकिन दोनों फैसले सर्वसम्मत हैं, सभी जज इस बात पर एक हैं। जस्टिस चन्द्रचूड़ ने कहा कि हमने से दो जजों ने, मैंने और जस्टिस संजीव खन्ना ने फैसले अलग-अलग लिखे हैं, हमारे तर्कों में थोड़ा फर्क है, लेकिन दोनों फैसले एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। अदालत ने इस फैसले में यह भी कहा है कि चुनावी बांड के रास्ते दान देने वाले लोगों का खुलासा होना चाहिए क्योंकि कंपनियां इनके एवज में कुछ पाने के मकसद से ही ऐसा दान या चंदा देती हैं। अदालत ने कहा कि कालेधन पर रोक लगाने के उद्देश्य से सूचना के अधिकार को कुचलना ठीक नहीं है, चुनावी बांड आरटीआई के साथ-साथ अभिव्यक्ति की आजादी का उल्लंघन है।
हम अपने विचारों के इस कॉलम में फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तर्क और उसकी भावना को लिखना पर्याप्त समझ रहे हैं, क्योंकि हम मोटेतौर पर उससे सहमत हैं। और जिन विचारों से सहमत हैं, उन पर दुहराव वाली कोई टिप्पणी करना नहीं चाहते। फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि नीजता के मौलिक अधिकार में एक नागरिक की राजनीतिक गोपनीयता, और राजनीतिक संबद्धता का अधिकार शामिल है। इस योजना से किसी नागरिक की राजनीतिक संबद्धता पता लगाकर उसे परेशान किया जा सकता है, और उसके वैचारिक झुकाव को मालूम किया जा सकता है।
देश में बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों और कानून के जानकारों का लंबे समय से यह मानना था कि चुनावी बांड की यह योजना फर्जी कंपनियों के रास्ते कालाधन लाने और पाने का एक जरिया थी, और उसका सबसे बड़ा फायदा सत्तारूढ़ पार्टी को मिल रहा था। 13 अप्रैल तक चुनाव आयोग को जानकारी वेबसाइट पर डालने का निर्देश बड़ा अटपटा लग रहा है। यह जानकारी तो स्टेट बैंक या चुनाव आयोग के कम्प्यूटरों पर हैं, और इसे जुटाने में यह वेबसाइट पर डालने में इतना समय लगने की कोई बात नहीं है। दूसरी तरफ पिछले आम चुनाव के मतदान 11 अप्रैल से 19 मई के बीच हुए थे। अब तकरीबन इन्हीं तारीखों पर चुनाव होते हैं, तो चुनाव प्रक्रिया के बीच ऐसी संवेदनशील जानकारी ठीक नहीं है। बेहतर तो यह होता कि चुनाव आयोग अगले एक-दो हफ्ते में ही इस जानकारी को उजागर करवा देता, ताकि मतदाताओं को जो देखना रहे वो उसे देख लेते। मतदान के बीच यह ठीक नहीं होगा। फिलहाल पांच जजों की संविधानपीठ के इस फैसले के खिलाफ सरकार की तरफ से आसानी से कोई पुनर्विचार याचिका भी नहीं लगाई जा सकेगी, क्योंकि उसे मंजूर करने का मतलब इसी मुद्दे पर सात या उससे अधिक जजों की बेंच बनानी पड़ेगी, जो कि इस सर्वसम्मत फैसले के बाद मुमकिन नहीं दिख रही है। लोगों को याद होगा कि खोजी पत्रकारों की एक संस्था, द रिपोटर््र्स कलेक्टिव ने 2019 में ही यह रिपोर्ट सामने रखी थी कि चुनावी बांड के नाम पर ऐसा गोपनीय फंड बनाकर मोदी सरकार ने आरबीआई की चेतावनी को खारिज कर दिया था, और इस बांड योजना के बहुत से पहलुओं पर सरकार ने संसद से तथ्य छुपाए थे, और दबाव डालकर अपनी मर्जी के कई काम करवाए थे। अब देखना यह है कि इस फैसले के बाद लोकसभा मतदान के पहले दानदाताओं और उनकी पसंदीदा पार्टियों के नाम चुनाव प्रभावित करेंगे, या सरकार, चुनाव आयोग, और स्टेट बैंक इन्हें उजागर करने में देर का कोई रास्ता सोच पाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने समय सीमा तय करते हुए मतदान की संभावित तारीखों की अनदेखी की है, जो कि ठीक नहीं है। याचिकाकर्ता अदालत से यह अपील भी कर सकते हैं कि कम्प्यूटरों के इस जमाने में तैयार जानकारी वेबसाइट पर डालने के लिए दो महीने का वक्त देना सही नहीं है। देखते हैं आगे क्या होता है।
देश की संसदीय प्रक्रिया का विश्वसनीय विश्लेषण करने वाली एक जानी-मानी संस्था पीआरएसइंडिया ने अभी ये आंकड़े सामने रखे हैं कि 17वीं लोकसभा, जिसका कि कार्यकाल अभी खत्म होने को है। इसमें सांसदों की मौजूदगी कैसी रही, और उन्होंने कितने सवाल पूछे। इस विश्लेषण को एक नजर देखें तो यह दिखता है कि इन पांच बरसों में लोकसभा ने 274 दिन काम किया जो कि भारतीय इतिहास की तमाम लोकसभाओं में से सबसे कम दिन का था। सभी सांसदों को मिला लें तो लोकसभा में हाजिरी 79 फीसदी थी, इनमें मंत्री और लोकसभा अध्यक्ष शामिल नहीं हैं, जिनकी मौजूदगी गिनी नहीं जाती है। इस 17वीं लोकसभा में 10 फीसदी सांसद ऐसे थे जिनकी हाजिरी 60 फीसदी से कम थी। अलग-अलग राज्यों के सांसदों के पूछे गए कुल सवालों को देखें, तो सबसे ऊपर महाराष्ट्र है, उसके बाद आन्ध्र, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु, झारखंड, कर्नाटक, ओडिशा, और गुजरात का नंबर रहा। राजनीतिक दलों में सबसे ज्यादा सवाल पूछने वाली पार्टी एनसीपी रही, फिर शिवसेना, डीएमके, वाईएसआर कांग्रेस, बीआरएस, कांग्रेस, बीजू जनता दल, भाजपा, जेडीयू, और बसपा का नंबर रहा।
लेकिन इसी विश्लेषण की जानकारी के मुताबिक तृणमूल कांग्रेस के बंगाल से निर्वाचित सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, और पंजाब के गुरदासपुर से भाजपा के सांसद सनी देओल पांच साल में लोकसभा की किसी बहस में नहीं आए। इनके अलावा भाजपा के पांच और सांसद, तृणमूल के एक, बसपा के एक सांसद ऐसे रहे जो लोकसभा की किसी बहस या चर्चा में शामिल नहीं हुए। एक दिलचस्प जानकारी यह है कि छत्तीसगढ़ के भाजपा सांसद मोहन मंडावी और इसी पार्टी के अजमेर के सांसद भागीरथ चौधरी ने पांच बरसों में सदन की एक भी बैठक नहीं छोड़ी, वे तमाम 274 दिन मौजूद रहे।
अब सवाल यह उठता है कि राज्यसभा में जहां कि लोगों को मनोनीत किया जाता है वहां तो पार्टियां कई लेखकों, पत्रकारों, खिलाडिय़ों, फिल्मी सितारों को चुनावी फायदे के हिसाब से मनोनीत कर देती हैं। राष्ट्रपति की तरफ से भी राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत किया जाता है जो कि राष्ट्रपति का महज दस्तखत होता है, और फैसला तो केन्द्र सरकार का ही रहता है। ऐसे में सोचने लायक बात यह है कि निर्वाचित लोगों के सदन, लोकसभा में भी अगर ऐसे लोग चुनाव लडक़र और जीतकर पहुंचने लगें, जिनकी सदन की कार्रवाई में कोई दिलचस्पी नहीं है, तो उनकी लोकसभा सीट के लाखों मतदाताओं का तो संसदीय प्रक्रिया में कोई प्रतिनिधित्व रह ही नहीं जाता। जबकि पूरे देश के निर्वाचित प्रतिनिधियों को मिलाकर ही लोकसभा बनती है, और ऐसी उम्मीद की जाती है कि अपने मतदाताओं से लगातार संपर्क में रहने वाले सांसदों की कही बातों में उनके मतदाताओं का रूख भी कहीं न कहीं दिखेगा, और उनके चुनाव क्षेत्र के मुद्दे भी सदन की बहस में आ सकेंगे। इसीलिए हिन्दुस्तान का कोई भी हिस्सा संसद के निर्वाचन से बाहर नहीं रखा गया है। ऐसे में 9 सांसदों ने किसी भी बहस में अगर मुंह भी नहीं खोला है, तो सवाल यह उठता है कि संसद को इनकी जरूरत क्या है, और क्या ये अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं का हक नहीं मार रहे हैं? पार्टियों की दिक्कत यह है कि उसे सदन में हर सांसद तेज-तर्रार नहीं चाहिए, और कई ऐसे नेता चाहिए जो अपनी सीट पर जीत सकें, और बाकी सीटों पर भी कुछ-कुछ असर डाल सकें। यह नौबत सदन के हिसाब से तो ठीक नहीं है, लेकिन यह पार्टियों की चुनावी राजनीति को माकूल बैठती है। और फिल्मी सितारों जैसे मशहूर लोगों का एक अलग इस्तेमाल पार्टी कर लेती है, और फिर संसद या विधानसभा जैसे सदनों में संख्या बढ़ाने के लिए भी ये काम आते हैं।
कुछ ऐसी ही नौबत राज्यसभा में मनोनीत होने वाले रविशंकर जैसे शास्त्रीय संगीतकार, और सचिन तेंदुलकर जैसे क्रिकेट खिलाड़ी के साथ भी रहती है, और इनमें से बहुत से लोग सजावट का सामान बने रहते हैं, अपने-अपने काम के दायरे में उनकी बड़ी-बड़ी उपलब्धियों का सम्मान होते रहता है, लेकिन वे देश की संसद में कुछ भी जोड़ नहीं पाते, लोकतंत्र को उनसे कुछ भी नहीं मिलता। इनका योगदान मैदान पर या संगीत सभागृह में तो रहता है, लेकिन क्या भारत की संसद को, खासकर राज्यसभा को सम्मान का मंच बना देना ठीक है? संसद के दोनों ही सदनों में, और राज्यों में विधानसभा या विधान परिषदों में देश-प्रदेश की बहुत जरूरी बातों पर चर्चा होती है, जनहित के मुद्दे उठाए जाते हैं, सरकारों को घेरा जाता है, और समय-समय पर यहां नए कानून भी बनते हैं। एक तो सभी सदनों की कार्रवाई सिकुड़ती जा रही है, उनके काम के दिन घट रहे हैं, सदनों में जनता से जुड़े हुए लोग घट रहे हैं, और पार्टियां अतिसंपन्न लोगों को उम्मीदवार बनाकर सदन पहुंचने की बेहतर संभावनाएं तलाशने लगी हैं। कुल मिलाकर देश की आबादी के सबसे बड़े हिस्से की समझ रखने वाले, उन तबकों या इलाकों से आने वाले, जमीन से जुड़े हुए लोग सभी सदनों में घटते चल रहे हैं। अरबपतियों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों की जिंदगी की तकलीफों को समझें, और उनकी भलाई के मुद्दे सदनों में उठाएं। धीरे-धीरे बहुत सी पार्टियों के बहुत से लोग जमीन से जुड़े हुए नहीं रह गए हैं, लेकिन उनके तरह-तरह के उपयोग को देखते हुए उन्हें चुनाव लड़ाया जाता है, या राज्यसभा में मनोनीत किया जाता है। यह लोकतंत्र का एक बड़ा नुकसान है जिसकी बुनियादी जरूरत सबसे जरूरतमंद लोगों के मुद्दों का उठना रहना चाहिए, लेकिन इनकी समझ रखने वाले लोग कम, सदनों का समय कम, पार्टियों की दिलचस्पी कम, और सदनों में बहस कम। कुल मिलाकर देश की आधी गरीब आबादी की जगह इस लोकतंत्र में राशन दुकान की कतार में ही रह गई है, जहां से उसे कुछ किलो अनाज हर महीने दे दिया जाता है।
हम आज की यह बात दो फिल्मी सितारों तक सीमित रखना नहीं चाहते, बल्कि यह सवाल खड़ा करना चाहते हैं कि पार्टियां उम्मीदवारी या मनोनयन में ऐसे लोगों को बढ़ाती चल रही हैं जो जनता से जुड़े हुए नहीं हैं, तो ऐसे लोकतंत्र का आखिर क्या होगा? सांसद अपनी सहूलियतों की वजह से भी आम जनता की तकलीफों के रूबरू कई बार नहीं हो पाते। पीआरएस संस्था के ही दूसरे कुछ विश्लेषण बतलाते हैं कि किस तरह संसद और विधानसभाओं में करोड़पतियों की मौजूदगी लगातार बढ़ती जा रही है। इस लोकतंत्र में समाज के उस आखिरी व्यक्ति की पहचान रखने वाले लोग ही देश की सबसे बड़ी पंचायत से घटते चल रहे हैं, और राज्यों की विधानसभाओं का हाल भी कुछ ऐसा ही चल रहा है। इस बारे में सोचकर देखें।
फ्रांस से एक दिलचस्प खबर आई है कि वहां के एक गांव में स्मार्टफोन के लिए लोगों का बावलापन घटाने के लिए लोगों से रायशुमारी की, और 54 फीसदी लोगों ने स्मार्टफोन पर रोक लगाने की हिमायत की। अब वहां की म्युनिसिपल ने तय किया है कि अगर मां-बाप अपने बच्चों को 15 साल की उम्र के पहले स्मार्टफोन न देने पर हामी भरेंगे तो बच्चों को सिर्फ कॉल करने वाला एक साधारण फोन तोहफे में दिया जाएगा। इसी खबर में बताया गया है कि फ्रांस के राष्ट्रपति ने कुछ विशेषज्ञों से परामर्श चाहा है कि बच्चों का स्क्रीन टाईम कैसे घटाया जाए। आज बाकी विकसित और संपन्न दुनिया के साथ-साथ फ्रांस में भी स्मार्टफोन का अधिक इस्तेमाल लोगों की फिक्र बढ़ा रहा है। समाज में लोगों का आपस में बातचीत करना कम होते जा रहा है, और तमाम लोग अपने-अपने फोन पर जुटे रहते हैं। यह नौबत सिर्फ विकसित देशों की नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे देश में गरीबों की इतनी आबादी होने के बावजूद सस्ता डेटा पैक एक सबसे बड़ा समाचार रहता है, और अधिकतर लोग अपने इंटरनेट पैकेज के लिए सबसे सस्ता तलाशते रहते हैं। सार्वजनिक जगहों पर हालत यह है कि जिन बाग-बगीचों या तालाब किनारे लोगों को कुदरत का मजा लेने बैठना चाहिए, या आपस में बात करते बैठना चाहिए, वहां पर कमअक्ल स्थानीय संस्थाएं मुफ्त का इंटरनेट उपलब्ध कराती हैं, और लोग कुछ देर के लिए भी चैन से एक-दूसरे के साथ नहीं बैठ पाते।
भारत में आज हाल यह है कि लोगों ने मानो अपने मोबाइल फोन से शादी ही कर ली है। और सच तो यह है कि शादीशुदा जोड़े भी एक-दूसरे में इस तरह डूबे नहीं रहते, जिस तरह लोग हिन्दुस्तान में दुपहिया चलाते हुए भी सिर और कंधे के बीच मोबाइल दबाकर बात करते दिखते हैं। सार्वजनिक जगहों पर लोग इतना चीख-चीखकर बात करते हैं, कि आसपास के दूसरे लोगों का जीना हराम हो जाता है। घरों के बीच हाल यह है कि हर कोई अपने-अपने फोन या लैपटॉप पर, या अलग-अलग टीवी स्क्रीन के सामने जुटे रहते हैं, और एक साथ खाने के मौके भी मोबाइल फोन से दब चुके हैं। चूंकि घर के सभी बड़े लोग अपनी-अपनी स्क्रीन पर जुटे हुए हैं, इसलिए छोटे बच्चे भी किसी तरह का फोन या टीवी जुटाकर उस पर काम करना सीख लेते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि टीवी का नाम एक वक्त जिस किसी ने भी इडियट बॉक्स रखा था, सही ही रखा था।
जिन लोगों को इस गंभीर बीमारी की गंभीरता समझ नहीं आ रही है, उन्हें यह बतला देना ठीक होगा कि आज अधिकतर लोग अपने फोन या कम्प्यूटर पर बार-बार सिर्फ यही देखते रहते हैं कि उनसे कुछ छूट तो नहीं जा रहा है, किसी खबर या संदेश के आए हुए कुछ मिनट गुजर तो नहीं चुके हैं? मानो कुछ मिनट देर से देखने पर कोई ट्रेन छूटने वाली है। यह बार-बार देखने का सिलसिला कुल मिलाकर यही देखने का साबित होता है कि पिछली बार देखने के बाद से अब तक कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं आया है। लोग स्मार्टफोन और कम्प्यूटरों पर सोशल मीडिया को पूरे ही वक्त देखते रहने की आदत के शिकार होकर बीमार सरीखे हो गए हैं। अंग्रेजी में इसके लिए 2004 से एक शब्द इस्तेमाल हो रहा है, फोमो, इसका मतलब है फीयर ऑफ मिसिंग आऊट। इसे मानसिक विशेषज्ञों ने बखान किया है कि लोग आजकल इस तनाव में रहते हैं कि वे सोशल मीडिया पर कोई ऐसी चीज छोड़ तो नहीं दे रहे हैं, जो कि दूसरे लोग देख रहे हैं, या वे दूसरों का लिखा या पोस्ट किया कुछ ऐसा तो नहीं अनदेखा कर रहे हैं, जिसे कि देखना चाहिए। इसके साथ-साथ यह फोमो बर्ताव लोगों को सोशल मीडिया पर लगातार एक-दूसरे से संपर्क करने के लिए भी मजबूर करते रहता है। इसे एक मानसिक बीमारी न सही, एक मानसिक समस्या मान लिया गया है, और इससे छुटकारा दिलाने के लिए विशेषज्ञ तरह-तरह के परामर्श का इस्तेमाल कर रहे हैं।
दुनिया के कई संपन्न लेकिन अधिक समझदार देशों से ऐसी तस्वीरें आती हैं जिनमें किसी कैफे के बाहर लगा हुआ ऐसा ब्लैकबोर्ड या नोटिस दिखता है जो कहता है कि यहां पर वाईफाई नहीं है, यह सोचें कि आप वाईफाई के पहले के जमाने में जी रहे हैं, और अपने साथ के लोगों के साथ का आनंद उठाएं। कुछ गिने-चुने ऐसे रेस्त्रां भी दिखते हैं जहां पर खाने की मेज पर इकट्ठा लोगों के मोबाइल ले लिए जाते हैं, और उन्हें इसके एवज में बिल में कुछ रियायत दी जाती है। नौजवानों के कुछ ऐसे समूह भी दिखते हैं जो अपने फोन इकट्ठा करके रख देते हैं, और जो फोन सबसे पहले उठाए उस पर भुगतान करने का जिम्मा आता है। ऐसी बहुत सी तरकीबों को जगह-जगह ईजाद किया जा रहा है कि लोगों का स्क्रीन टाईम घटे। कुछ समझदार लोगों ने अपने दिन के कुछ घंटे तय कर रखे हैं कि जब वे कोई भी डिजिटल उपकरण नहीं देखेंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति बच्चों के स्क्रीन टाईम पर सीमा लगाने के लिए भी लोगों से राय मांग रहे हैं। एक मोबाइल फोन ने, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के साथ मिलकर, और वॉट्सऐप जैसी मैसेंजर सर्विसों के साथ मिलकर लोगों की असल जिंदगी से सामाजिकता को घटा दिया है, और एक आभासी दुनिया को ही उनके लिए सब कुछ बना दिया है। शायद यह भी एक वजह है कि जापान में बहुत से लोग अपने घरों में कैद रह जाते हैं, और सोशल मीडिया पर चुनिंदा लोगों के साथ संबंध रखते हुए वे असल जिंदगी में किसी से भी संबंध रखना मुश्किल या नामुमकिन पाने लगते हैं, और शादी से कतराने लगे हैं, देश की आबादी गिरने लगी है, और डिजिटल उपकरण इस नौबत की एक वजह बताए जा रहे हैं।
हिन्दुस्तान में अभी इस बात पर कोई चर्चा भी सुनाई नहीं पड़ रही है कि बच्चों के स्क्रीन टाईम को कम किया जाना चाहिए। जबकि टीवी और दूसरे उपकरण बनाने वाली कंपनियां कुछ मामूली इंतजाम करके ऐसी सीमा तय कर सकती हैं कि बच्चों के देखे जा रहे कार्यक्रम हर दिन के लिए तय वक्त के बाद बंद हो जाएं। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि पहले टीवी लोगों को जितना इडियट बनाता था, आज स्मार्टफोन, और लैपटॉप या टैबलेट उन बच्चों के हाथों में और अधिक आत्मघाती होते जा रहे हैं। जिन मां-बाप को इसके खतरे समझ नहीं आते, उन्हें जानना चाहिए कि बच्चों को सुनाई गई कहानियां उनकी कल्पना को सबसे अधिक उडऩे का मौका देती हैं, वे पंछी, पहाड़, तितली, परी, शेर, या नदी इन सबके रूप-रंग अपनी कल्पना से तय करते हैं, और इससे उनकी कल्पना शक्ति बढ़ती है। दूसरी तरफ जब कहानियों के साथ रंगीन तस्वीरें आने लगती हैं, तो आकार और रंग की कल्पना की उनकी अपनी संभावना खत्म होने लगती हैं, और जब वीडियो पर ऐसी चीजें आने लगती हैं, तो उनका दिमाग पैर पसारकर बैठ जाता है, और सिर्फ परोसी गई चीजों का आंख-कान के रास्ते मजा लेने लगता है।
हमने कई जगह इस बात को लिखा भी है कि बच्चों को बर्बाद होने से बचाने के लिए उन्हें बैटरी या बिजली से चलने वाले उपकरणों, बाजार के डिब्बा या पैकेटबंद खाने-पीने, और धर्म से दूर रखना चाहिए। अब धर्म को लेकर बहस लंबी हो सकती है, इसलिए हम आज के इस मुख्य मुद्दे को पटरी से उतारना नहीं चाहते। खानपान की समझदारी इसी में है कि बच्चों को अधिक से अधिक घर का बना हुआ ही खिलाया जाए। लेकिन बच्चों से लेकर बड़ों तक सबके लिए आज फोन और कम्प्यूटर जैसे जरूरी औजार, अपने गैरजरूरी और बेदिमाग इस्तेमाल से बर्बादी का सामान भी बन गए हैं। हथौड़ी का एक इस्तेमाल होता है, लेकिन कोई हथौड़ी से अपने ही सिर को ठकठकाने की लत का शिकार हो जाए, तो इसमें उस औजार की गलती नहीं रहती है, उसके इस्तेमाल की इंसानी गलती रहती है। लोगों को अपने, अपने परिवार के लोगों के डिजिटल इस्तेमाल को घटाने के बारे में सोचना चाहिए, और कम से कम इसके गैरजरूरी हिस्से को तो खत्म करना ही चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ की नकारात्मक खबरों के बीच जब कभी कोई अच्छी खबर दिखती है, तो वह मन मोह लेती है। राजस्थान में बीकानेर से सीकर के बीच रशीदपुर खोरी नाम का एक रेलवे स्टेशन है, और वहां से कमाई न होने की वजह से 2005 में रेलवे ने वहां ट्रेन रोकना बंद कर दिया था क्योंकि उसे घाटा हो रहा है। यह स्टेशन आज से सौ बरस पहले, अंग्रेजों के वक्त 1923 में जयपुर-चुरू रेललाईन पर बनाया गया था, और आसपास के कई गांवों के लिए यही एक रेल-संपर्क था। गांव के लोगों ने काफी कोशिश की, और रेल अफसरों ने बातचीत और समझौते में यह शर्त रखी कि साल में कुछ लाख रूपए की टिकटें खरीदे जाने पर ही ट्रेन रूकना शुरू होगा, और रेलवे ने यह भी कहा कि वह वहां कोई कर्मचारी तैनात नहीं कर पाएगा। गांव के लोगों ने आपस में बात की, और यह तय किया कि चाहे जो करना पड़े, ट्रेन का स्टेशन बंद नहीं होने दिया जाएगा। लोगों ने मिलकर स्टेशन का पूरा काम संभाल लिया, आम लोगों के बीच से ही कोई स्टेशन मास्टर की तरह काम करने लगा, तो कोई टिकट बेचने का। लोग साफ-सफाई भी खुद करने लगे, और अलग-अलग कई खबरें बताती हैं कि रेलवे के दिए गए टिकट बिक्री के टारगेट को पूरा करने के लिए वहां से चढऩे वाले हर मुसाफिर पांच-दस टिकटें खरीदकर चढ़ते थे, ताकि ट्रेन रूकना बंद न हो जाए। धीरे-धीरे इस गांव का स्टेशन इतना कामयाब हो गया कि लोगों को घाटा खत्म हो गया, और बड़ी कामयाबी से रशीदपुर खोरी एक स्टेशन की तरह चल रहा है, और शायद यह हिन्दुस्तान का अकेला ऐसा स्टेशन है जो बिना किसी रेलवे कर्मचारी के सिर्फ गांव के लोग चला रहे हैं। कामयाबी की यह कहानी इतनी आगे बढ़ी है कि इस गांव के लोग अपने स्टेशन को लोकप्रिय बनाने के लिए आसपास के गांवों में जाकर पर्चे भी बांटते हैं, और उन्हें यहां से सफर करने पर कुछ रियायत भी देने की बात करते हैं।
समाज की सफलता की यह एक ऐसी अजीब कहानी है जो कि हमने इसके पहले कभी सुनी नहीं थी। भला एशिया का यह सबसे बड़ा उद्योग जो कि रोजाना कई करोड़ मुसाफिरों को ढोता है, इस तरह एक गांव के लोगों के भरोसे एक स्टेशन चला रहा है!! इस स्टेशन पर देश के अलग-अलग बहुत से अखबारों ने पिछले बरसों में लगातार रिपोर्टिंग की है, और उन्हीं सबकी जानकारियों को परखकर हम इस पर लिख रहे हैं। दुनिया में कई जगहों पर सामुदायिक प्रोजेक्ट की बात होती है, लोग एक साथ मिलकर कहीं खेती का प्रयोग करते हैं, तो कहीं किसी आध्यात्मिक गुरू के मातहत एक पूरे संप्रदाय की आबादी एक जगह एक परिवार की तरह रहती है, और सारे सदस्य समुदाय के सभी बच्चों के प्रति जवाबदेह रहते हैं। आर्थिक प्रयोग भी कई गांवों में ऐसे हुए हैं जहां पर लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर भरोसे और सद्भाव से कारोबार भी कर लेते हैं। देश का सबसे बड़ा दूध उद्योग अमूल नाम का एक सहकारी आंदोलन है, और उसमें कोई सरकारी दखल नहीं है, उसकी कमाई वहीं भीतर रह जाती है। इसी तरह देश भर में फैले हुए इंडियन कॉफी हाऊस नाम का संगठन है जो कि उसी के कर्मचारियों का बनाया हुआ है, और मजदूर या कामगार संगठन ने देश का एक सबसे भरोसेमंद और कामयाब कारोबार भी खड़ा कर लिया है। आज विधानसभाओं से लेकर संसद तक, और मंत्रालयों से लेकर दूसरी सार्वजनिक जगहों तक लोग बेफिक्र होकर बिना किसी टेंडर के इंडियन कॉफी हाऊस को जगह दे देते हैं, और बिना किसी मुकाबले के यह संगठन साधारण दाम पर अच्छा और भरोसेमंद खाना परोसता है। इसके हर कर्मचारी इस कारोबार के शेयर होल्डर हैं, और इसके आगे बढऩे की रफ्तार देश के सबसे काबिल कारोबारियों को भी हीनभावना में डाल सकती है।
हम फिर से राजस्थान के इस रेलवे स्टेशन पर लौटें, तो यह गांव के आम लोगों की सामाजिक एकता का सुबूत तो है ही, किस तरह से इन लोगों ने एक कारोबारी मॉडल भी तैयार किया वह देखना हैरान करता है, और हमें पूरा भरोसा है कि देश के किसी न किसी प्रबंधन-संस्थान ने इस मॉडल पर रिसर्च किया होगा। एक तरफ जहां केन्द्र सरकार के संगठन अपने ही ढांचे के खर्चतले दबकर दम तोड़ रहे हैं, वहां गांव के लोगों ने बिना लागत के ऐसा हौसला दिखाया, और उन्होंने तब यह कर दिखाया जब न किसी स्थानीय नेता ने उनका साथ दिया, और न ही मीडिया ने उनकी बात सुनी। रेलवे के साथ लिखित समझौते के तहत लाखों रूपए साल के भुगतान की गारंटी देकर उन्होंने एक किस्म से अपने और आसपास के गांवों के लिए एक सहूलियत खरीदी, और उसे कामयाब कर दिखाया! एक खबर यह भी बता रही है कि पन्द्रह बरस कामयाबी से इस रेलवे स्टेशन को चलाने के बाद अब जब यह कामयाब हो गया है, तो रेलवे ने इसे अपने हाथ ले लिया है, और इसे छोटी लाईन से बड़ी लाईन भी कर दिया है। जो भी हो, जिसे असफल मानकर एशिया के सबसे बड़े उद्योग, भारतीय रेल ने छोड़ दिया था, उसे एक गांव ने पटरी पर ला दिया जो कि एक ऐतिहासिक मिसाल है।
कुछ छोटी-मोटी खबरों के अलावा इस पर अधिक पढऩे नहीं मिला है। जरूरत यह है कि देश के स्कूल-कॉलेज में छात्र-छात्राओं को पाठ्यपुस्तकों के तहत या उससे बाहर ऐसे मॉडल पढ़ाने चाहिए, और हो सके तो इन पर फिल्में बनाकर दिखाना भी चाहिए। इससे लोगों का अपने-आपमें भरोसा लौटेगा, और समाज अपनी ताकत का अहसास भी करेगा। समाज की सामूहिक शक्ति अगर एक गांव में ऐसी क्रांति ला सकती है, तो इससे बाकी लोगों को भी अपने-अपने इलाके, अपने समुदाय और समूह, अपने धर्म और अपनी जाति के बारे में सोचना चाहिए कि वे क्या नहीं कर सकते? हम यहां पर अपनी एक पसंदीदा मिसाल को एक बार फिर लिखना चाहेंगे, दुनिया में कहीं भी किसी तरह की आपदा आती है, तो उनमें से बहुत सी जगहों पर सिक्खों के संगठन काम करते दिखते हैं। वे न सिर्फ पैसा खर्च करते हैं, बल्कि वे कहीं बाढ़ में डूबकर, तो कहीं जख्मियों को उठाकर, खाना पहुंचाकर जिंदगियां बचाते हैं। अब एक धर्म में ऐसी कौन सी खूबी है कि उसके लोग दुनिया में किसी का भी धर्म पूछे बिना, और आमतौर पर गैरसिक्खों की ही मदद करते दिखते हैं, जात-धरम किसी को नहीं देखते। यह भी ऐसे वक्त जबकि हिन्दुस्तान के ही कुछ धर्म इस बात में लगे रहते हैं कि किस तरह उनकी ताकत का एक कतरा भी किसी दूसरे धर्म के काम न आ जाए, वे खुलेआम यह लिखते दिखते हैं कि सिर्फ अपने धर्म के लोगों से ही सामान खरीदें, उन्हीं को नौकरी पर रखें, उन्हीं को मदद करें। ऐसी धार्मिक दकियानूसी हवा के बीच सिक्खों के संगठन बिना किसी का धर्म पूछे जुट जाते हैं।
हम राजस्थान के इस गांव की बात करते-करते धर्म की ताकत और उसके इस्तेमाल पर इसलिए आ रहे हैं कि न सिर्फ भारत में, बल्कि दुनिया के तकरीबन तमाम देशों में धर्म एक हकीकत है, और वह एक बहुत बड़ी ताकत भी है। इसलिए अगर रशीदपुर खोरी गांव वालों की तरह किसी धर्म के लोगों की एकता अगर समाज के काम आ सके, तो वह तस्वीर को कितना बदल सकती है! समाज की ताकत को समझकर, और उसका इस्तेमाल करके एक बेहतर कल की तरफ बढ़ा जा सकता है। कोई इलाका, किसी आध्यात्मिक संगठन या संप्रदाय के लोग, या किसी धर्म और जाति के लोग, किसी मजदूर या कर्मचारी संगठन के सदस्य ऐसी सामूहिक ताकत के बारे में सोच सकते हंै, वे एक स्टेशन चला सकते हैं, वे अमूल बना सकते हैं, और वे इंडियन कॉफी हाऊस जैसा बेताज बादशाह खड़ा कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ की खबर है कि एक महिला ने अपने शराबी पति की प्रताडऩा से तंग आकर उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया। पन्द्रह बरस पहले यह प्रेमविवाह हुआ था, इनका 14 बरस का एक बेटा भी था, और जब यह नशा इस महिला के बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो उसने पति को इस तरह से निपटा दिया। जांच और पूछताछ में पता चला कि 44 बरस की थकी हुई पत्नी खुद ही पेट्रोल पंप पर जाकर पेट्रोल खरीद लाई, और फिर सोए हुए पति पर पेट्रोल छिडक़कर आग लगा दी। यह बात सुनने में भयानक लग सकती है, लेकिन नशेड़ी जीवनसाथी से प्रताडि़त आदमी या औरत के लिए रोज की प्रताडऩा इससे कम भयानक नहीं रहती है। आमतौर पर इस दर्जे का नशा करने वाले लोग गरीब या मध्यमवर्गीय रहते हैं, और नशे की उनकी आदत परिवार की कमर भी तोड़ देती है। बहुत से ऐसे गरीब परिवार हैं जहां पर राशन के रियायती चावल को भी घर से ले जाकर, बेचकर लोग शराब पी लेते हैं, और फिर उसके बाद चाहे उनके बच्चों के भूखे मरने की ही नौबत क्यों न आ जाए। हाल के महीनों में ही कई ऐसी घटनाएं सुनाई पड़ी हैं जिनमें बेटे के नशे से परेशान, और पैसे न देने पर उसकी हिंसा झेलने वाले मां-बाप ने उसे मार डाला, या बाप की नशे की आदत से थके हुए बच्चों ने उसे मार डाला। यह बात समझने की जरूरत है कि इनमें से अधिकतर लोगों को यह पता रहा होगा कि कत्ल करने की सजा कैद होती है, और बचना शायद आसान भी नहीं रहता है। इसके बावजूद लोगों ने अगर अपने ही सबसे करीबी लोगों के ऐसे कत्ल किए हैं, तो यह जाहिर है कि अपने घर की खुली जिंदगी से उन्हें उस पल जेल की कैद बेहतर लगी होगी, जब उन्होंने ऐसा कत्ल किया होगा। मतलब यह कि शराबी घरवालों की प्रताडऩा का बर्दाश्त जब जवाब दे जाता है, तो वह कातिल हो जाता है।
अब किया क्या जाए? भारत जैसे देश में जहां राज्यों के बीच सरहदें न कटीले तारों से घिरी हुई हैं, न दीवारे हैं। ऐसे में किसी एक प्रदेश में नशाबंदी शायद आसान या मुमकिन भी नहीं है। आज देश में गुजरात, बिहार, और मिजोरम शायद पूरी तरह नशाबंदी लागू किए हुए हैं, लेकिन जो खबरें आती हैं, वे बताती हैं कि कम से कम गुजरात और बिहार में तो बाजारभाव देने पर हर किस्म की दारू घर पहुंचकर मिलती है, और दारूबंदी के नाम पर, उसे लागू करते हुए सरकार का पूरा अमला ही भ्रष्ट हो गया है। शराबबंदी से गैरकानूनी शराब का इतना बड़ा बाजार खड़ा हो जाता है कि वह पुलिस और दीगर संबंधित अमले को गले-गले तक भ्रष्ट कर देता है। यह कमाई एक बार मुंह लगती है, तो फिर वहां शराब से परे कई दूसरे किस्म के नशे भी चलने लगते हैं, और सरकारी अमला संगठित गिरोह की तरह काम करने लगता है, तरह-तरह के माफिया पनप जाते हैं। दुनिया के और कई देशों का इतिहास बताता है कि जहां कहीं शराबबंदी की गई, उन देशों में बड़े-बड़े माफिया पनप गए, और एक बार सरकार के खिलाफ, कानून के खिलाफ एक कारोबार करना शुरू हुआ, तो फिर वे ऐसे हर किस्म के कारोबार को करने लगे। इसलिए किसी देश में शराबबंदी को टुकड़ों में करना शायद आसान नहीं है, और अभी तकरीबन तमाम हिन्दुस्तान में शराब खुली रहने पर भी जितने किस्म के खतरनाक नशे दुनिया भर से इस देश में आते हैं, वे शराब के मुकाबले अधिक खतरनाक रहते हैं।
एक बार फिर परिवारों की तरफ लौटें, तो लगता है कि क्या परिवार, पड़ोस, समाज, और दोस्तों का ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है कि किसी के नशे में इतने डूब जाने पर भी आसपास के लोग उसे रोकने-टोकने, संभालने और बचाने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाते? नशे की ऐसी हालत तो परिवार से परे भी सबको दिखती होगी, लेकिन अगर बाकी लोग दखल नहीं दे पा रहे हैं, तो यह सामुदायिक जिम्मेदारी का पूरा ही असफल हो जाना बताता है। ऐसे में एक परिवार अपने ही एक सदस्य से जूझने के लिए अकेला रह जाता है, और बहुत से मौकों पर दोनों में से किसी एक तरफ से हिंसा होती है। यह हिंसा जब मरने-मारने पर आ जाती है, तब तो वह पुलिस के मार्फत लोगों को दिखती है, लेकिन संगीन जुर्म से नीचे की ऐसी हिंसा परिवार के बंद दरवाजे के भीतर लगातार चलती है, पूरे परिवार को बर्बाद करती है, और इसके खिलाफ कोई कानून भी नहीं है। यह सिलसिला बहुत निराश करता है क्योंकि यह गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की अर्थव्यवस्था को पूरा ही खत्म कर देता है, परिवार के कमाऊ, या काम करने के लायक किसी सदस्य को बेरोजगार या बेकार कर देता है, और बच्चों के सामने एक बहुत बुरी मिसाल पेश करता है। ऐसा खतरा दिखता है कि शराबियों के बच्चे हो सकता है कि आगे चलकर खुद भी शराबी हो जाएं क्योंकि नशे से उनकी हिचक देख-देखकर खत्म हो चुकी रहती है।
हम इस नौबत को सुधारने में सरकार की अधिक जिम्मेदारी नहीं देखते जो कि दारू के धंधे की वैध और अवैध कमाई को पसंद करती है। लेकिन जनता के बीच के लोगों को इस तरह का हस्तक्षेप करना चाहिए जो कि समाज के ही लोगों को दखल देने की जिम्मेदारी का अहसास कराए। आज भी इस दर्जे के एक शराबी के आसपास दर्जनों ऐसे परिचित और परिवार होंगे जो कि उसे रोकने की कोशिश करने का हक रखते होंगे। सामाजिक पहल बस इतनी करनी है कि ऐसा हक रखने वाले लोगों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराना है कि वे किसी को समझाकर, किसी का हाथ थामकर, डांटकर या रोककर अगर बर्बाद होने से रोक सकते हैं, तो उन्हें रोकना चाहिए। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेदारी बड़ी अमूर्त बातें लगती हैं जिनका कोई चेहरा नहीं है, लेकिन कानून की पौन सदी ने समाज के ढांचे को खत्म नहीं कर दिया है कि लोग एक-दूसरे से बात न कर सकें। अनगिनत ऐसी मिसालें हैं जिनमें लोगों ने एक-दूसरे को बचाते हुए जान भी दे दी है, यह एक अलग बात है कि एक-दूसरे की जान लेने की खबरें अधिक बनती हैं। समाज में इतना कुछ अच्छा भी होता है कि वह लोगों के एक-दूसरे के फिक्र किए बिना नहीं हो सकता था, परेशानी और मुसीबत में एक-दूसरे का साथ दिए बिना नहीं हो सकता था। इसलिए समाज को हर बात-बिनबात पर सरकार की तरफ देखना बंद करना चाहिए, पुलिस, कोर्ट, और जेल तो सबसे आखिरी इलाज होना चाहिए, इन सबकी नौबत आने का एक मतलब यह भी होता है कि समाज के लोग अपनी जिम्मेदारी से चूक गए हैं। समाज का ढांचा हजारों बरस से चले आ रहा है, उसके भीतर बहुत सी बुराईयां भी हैं, लेकिन उसकी बहुत सी अच्छी ताकतें भी रही हैं, और हमारा मानना है कि अपने आसपास इस किस्म के नशे और उससे उपजी हिंसा की नौबत को रोकने के लिए सभी को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ की विष्णु देव साय की भाजपा सरकार का पहला बजट आबादी के अधिक से अधिक हिस्से को किसी न किसी किस्म का फायदा देने वाला है। कुछ महीने पहले ही विधानसभा चुनाव के घोषणापत्र में भाजपा ने कई किस्म के वायदे किए थे, और फिर उन वायदों को देश भर के अलग-अलग राज्यों में मोदी की गारंटी के नाम से प्रचारित भी किया गया था। अब चूंकि कुछ महीने के भीतर लोकसभा का चुनाव है, और प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा ही पूरे देश में भाजपा के कमल निशान से ज्यादा दिखेगा, इसलिए भाजपा की ताजा-ताजा बनी राज्य सरकारों के लिए भी यह जरूरी था कि वे मोदी की गारंटी को अधिक से अधिक पूरा करें। इसी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के नौजवान वित्तमंत्री ओ.पी. चौधरी ने कुछ महीनों की मेहनत से ही राज्य के बजट का यह दस्तावेज तैयार किया है जो कि अधिक से अधिक आबादी को खुश करेगा। ऐसा माना जाना चाहिए कि ऐसा करते हुए राज्य के ढांचागत विकास के मद में कुछ कटौती हुई होगी, और सामने खड़े लोकसभा चुनाव के पहले मतदाताओं को खुश करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को कुछ महीने टाला गया है। इसमें कोई अटपटी बात नहीं है, और चुनावी लोकतंत्र में कोई भी पार्टी चुनाव के साल में बजट को लुभावना और लोकप्रिय बनाने की कोशिश करती ही है।
पिछले बरसों में प्रदेश में यह चलन था कि मुख्यमंत्री ही वित्तमंत्री भी होते थे, और वे ही बजट पेश करते थे। दस से अधिक बरस तक डॉ.रमन सिंह ने, और पांच बरस भूपेश बघेल ने यही किया। लेकिन विष्णु देव साय का यह फैसला सही था कि प्रदेश को एक पूर्णकालिक वित्तमंत्री मिलना ही चाहिए, क्योंकि बजट से परे भी साल भर वित्तमंत्री से हर विभाग का काम पड़ता है, और वित्तमंत्री के पास समय की कमी रहने पर पूरे प्रदेश का विकास धीमा हो जाता है। ऐसे में नौजवान, और मेहनती होने की साख वाले, कुछ बरस पहले ही आईएएस छोडक़र राजनीति में आए ओ.पी.चौधरी वित्त मंत्रालय की रोजाना की जरूरतों के साथ इंसाफ कर सकते हैं। फिलहाल कल उनके पेश किए हुए बजट की अगर बात करें, तो वह एक लोकप्रिय साबित होने वाला, और गरीब मतदाताओं को अधिक से अधिक फायदा देने वाला लुभावना बजट है।
इसके कुछ चुनिंदा मुद्दों पर बात करें, तो हमें सबसे अधिक असरदार फैसला लोगों को दो सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का है, चार सौ यूनिट तक की बिजली खपत पर आधी रकम माफ कर दी जाएगी। एक मोटा अंदाज यह है कि प्रदेश में घरेलू बिजली उपभोक्ताओं का आधे से अधिक हिस्सा दो सौ यूनिट से कम बिजली खपत वाला है, और इसके लिए यह एक बड़ी रियायत रहेगी। प्रदेश की तकरीबन तमाम आबादी के घरों तक बिजली पहुंची हुई है, इसलिए पूरे दो करोड़ वोटरों को यह फायदा मिलेगा। दिलचस्प बात यह भी है कि यह भाजपा के घोषणापत्र में नहीं था, और उससे बाहर जाकर पार्टी ने यह बड़ा फैसला किया है, हम इसे पार्टी का फैसला इसलिए लिख रहे हैं कि दूसरे राज्यों में भी भाजपा इस मद में रियायत दे रही है। इससे परे जो बड़े फायदे आम जनता तक पहुंचने वाले हैं, उनमें पिछले विधानसभा चुनाव की तस्वीर को बदलने वाली महतारी वंदन योजना है, जिसमें 21 बरस से ऊपर की हर गरीब और विवाहित महिला को एक हजार रूपए महीने मिलेंगे। इसके लिए बजट में तीन हजार करोड़ रूपए रखे गए हैं। प्रदेश में पिछली कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन कृषि मजदूर योजना शुरू की थी, उसे जारी रखते हुए इस सरकार ने उन्हें मिलने वाली रकम सात हजार रूपए साल से बढ़ाकर 10 हजार रूपए सालाना किया है। इसमें आठ लाख लोगों को फायदा होने का अनुमान है। तेंदूपत्ता संग्राहकों को अब तक चार हजार प्रति बोरा मिलता था, इसे बढ़ाकर पचपन सौ रूपए किया गया है, और इससे तेरह लाख लोगों को फायदा मिलने की उम्मीद है। इनमें से अधिकतर लोग आदिवासी इलाकों में हैं, जहां से विधानसभा चुनाव में भाजपा को बम्पर वोट मिले हैं, और अधिक से अधिक आदिवासी सीटें भाजपा के खाते में गई हैं। प्रदेश के बेघर लोगों के लिए 18 लाख प्रधानमंत्री आवास बनाने के लिए 8 हजार करोड़ से ज्यादा इस बजट में रखा गया है। लोगों को याद होगा कि भूपेश सरकार के समय उस समय के पंचायत मंत्री टी.एस.सिंहदेव ने राज्य सरकार द्वारा पीएम आवास के लिए राज्य का हिस्सा जारी न करने का लिखित विरोध करते हुए एक लंबी सार्वजनिक चिट्ठी के बाद यह मंत्रालय छोड़ दिया था। उस वक्त भी यह माना जा रहा था कि 18 लाख परिवारों को हुई निराशा चुनाव में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, और कांग्रेस को हुए कई तरह के नुकसान में से यह भी एक रहा।
वित्तमंत्री ओ.पी. चौधरी ने इसे ज्ञान का बजट कहा है, ज्ञान के अंग्रेजी अक्षरों को देखें, तो गरीब, युवा, अन्नदाता, और नारी, इन चार तबकों को फायदा पहुंचाने की प्राथमिकता इस बजट में दिखती है। चौधरी ने कलेक्टर रहते हुए रायपुर में नालंदा परिसर नाम से बहुत बड़ी लाइब्रेरी, और वाचनालय को बनाने का काम किया था, अब इस बजट में उन्होंने प्रदेश में 22 ऐसे नालंदा परिसर बनाने की घोषणा की है। इससे नौजवानों की जिंदगी पर पहले दिन से असर नहीं पड़ता, लेकिन आगे की पढ़ाई या नौकरी के मुकाबले की तैयारी में ऐसी लाइब्रेरी बहुत काम की रहती है, और नौजवान पीढ़ी के ज्ञान और समझ को बढ़ाने में इससे बड़ी मदद मिलेगी। एक जगह इतने नौजवानों के साथ उठने-बैठने से ही एक प्रतियोगी-वातावरण बनता है, और नौजवान आगे मुकाबलों के लिए तैयार होते हैं।
बजट की बहुत सी बातें खबरों में आ चुकी हैं, और उनमें से एक-एक पर हम यहां लिखना नहीं चाहते, मुमकिन भी नहीं है, लेकिन किसी पार्टी या सरकार में नया खून आने का जो फायदा मिलता है, वह छत्तीसगढ़ के वित्त विभाग को अभी मिल रहा है, और सरकार पांच बरस में बदल जाने से भी एक नई कल्पना की गुंजाइश निकलती है। बजट की बहुत सी कामयाबी इस पर भी रहेगी कि इस पर अमल करने वाले विभागों में कितनी ईमानदारी से काम होता है, और पैसों का कितना बेहतर इस्तेमाल होता है। पिछले बरसों में हमने देखा है कि राज्य के अफसर किस हद तक संगठित भ्रष्ट हो सकते हैं, सरकारी मशीनरी तो वैसी ही है, भाजपा सरकार को इसे ईमानदार बनाने, और बनाए रखने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ेगी। ऐसा होने पर ही अलग-अलग कामों के लिए रखा गया पैसा किसी काम आएगा, वरना पांच बरस बाद फिर दसियों हजार करोड़ के घोटालों की जांच की नौबत आ खड़ी होगी। प्रदेश की पिछली सरकार आज की विष्णु देव साय सरकार के सामने एक अच्छा सबक है, एक अच्छी मिसाल है कि काम कैसे-कैसे नहीं करना चाहिए। देखते हैं यह सरकार इस बजट के साथ कितनी ईमानदारी निभा पाती है।
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भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत छत्तीसगढ़ पहुंचे राहुल गांधी अपने साथ एक विवाद लेकर आए हैं, उन्होंने छत्तीसगढ़ में एक सभा में कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्म ओबीसी से तालुक रखने वाले परिवार में नहीं हुआ, और वे खुद को ओबीसी बताकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। राहुल ने दावा किया कि मोदी की जाति घांची को गुजरात की भाजपा सरकार ने सन् 2000 में ओबीसी में शामिल किया था। राहुल का कहना है कि इस तरह गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने अपनी जाति बदलकर ओबीसी कर ली। इसके जवाब में भाजपा की ओर से वह अधिसूचना पेश की गई जिसमें 27 अक्टूबर 1999 को, यानी मोदी के मुख्यमंत्री बनने के दो बरस पहले मोदी की जाति घांची को ओबीसी के रूप में मान्यता दी गई थी। भाजपा के केन्द्रीय मंत्रियों ने कहा कि राहुल गांधी का यह दावा झूठा है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने खुद की जाति को ओबीसी करवा दिया। उल्लेखनीय है कि गुजरात में घांची जाति को ओबीसी में शामिल करने की अधिसूचना एक सार्वजनिक दस्तावेज है, जिस पर 27 अक्टूबर 1999 की तारीख है, और इसी तरह मोदी का मुख्यमंत्री बनना भी एक सार्वजनिक जानकारी की बात है। तारीखें बताती हैं कि मोदी इस अधिसूचना के एक बरस बाद, 7 अक्टूबर 2001 को मुख्यमंत्री बने थे।
राहुल गांधी देश की एक लंबी यात्रा पर हैं, और भारत की राजनीति में उनसे यह उम्मीद की जा रही है कि वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ विपक्ष के संघर्ष की अगुवाई करते रहें। वे कांग्रेस या इंडिया-गठबंधन में किसी औपचारिक पद पर नहीं हैं, लेकिन सार्वजनिक बयानों से राजनीति करने के लिए ऐसे किसी पद की जरूरत होती भी नहीं है। फिर भी जब बात प्रधानमंत्री की हो जो कि बहुत ताकतवर हैं, और भाजपा की हो जो कि देश में आज सबसे अधिक जगहों पर काबिज, संसद में सबसे बड़ी मौजूदगी वाली पार्टी है, तो इन पर हमला लापरवाह नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी ने कुछ अरसा पहले कर्नाटक के एक चुनाव में मोदियों को लेकर दिए गए एक लापरवाह बयान पर अदालत को झेला है, और अब तक उनका मामला खत्म नहीं हुआ है, इस बीच कुछ अरसा के लिए उनकी संसद की सदस्यता जरूर खत्म कर दी गई थी, जो कि सुप्रीम कोर्ट की दखल से अभी वापिस कायम है। कुछ और जगहों पर भी उनके कुछ बयानों को लेकर मुकदमे चल रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में कई किस्म के विवादास्पद बयान भी लोग देते रहते हैं, लेकिन जब हम राहुल पर छाई हुई कानूनी दिक्कतों को देखते हैं, तो यह समझ आता है कि वे हर बार ऐसे गैरजरूरी बयान, या लापरवाह बयान से मुसीबत में फंसे हैं, जिसे दिए बिना उनकी राजनीति चल सकती थी। कम से कम कांग्रेस जितनी बड़ी पार्टी के इस सबसे बड़े नेता को इतनी सहूलियत तो हासिल थी कि मोदी की जाति कबसे ओबीसी करार दी गई है, उस तारीख को तो जांच लेते। हम अभी इंटरनेट पर इन दो तारीखों को देख रहे हैं, तो पांच मिनट में दोनों तारीखें दिख जा रही हैं। जब किसी की जन्म, जाति, और परिवार की बात हो, तो इस बात की प्रासंगिकता बड़ी सीमित है कि कब उस जाति का क्या कानूनी दर्जा था। पिछले करीब 25 बरस से नरेन्द्र मोदी की जाति को ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है, और 25 बरस पहले के उस सरकारी फैसले के और पहले से ऐसी सामाजिक स्थितियां रही होंगी कि घांची जाति ओबीसी में गिनी जानी चाहिए, तो आज उसे लेकर यह कहना कि प्रधानमंत्री का जन्म ओबीसी परिवार में नहीं हुआ, यह एक तकनीकी इतिहास जरूर हो सकता है, लेकिन यह बड़प्पन की बात नहीं हो सकती। यह बात उस वक्त तो प्रासंगिक हो सकती है जब मोदी की जाति को लेकर अदालत में कोई विवाद चल रहा हो, और वहां पर किसी एक तरफ से जाति और उसके इतिहास की तारीख सामने रखी जाए, लेकिन आज के एक राजनीतिक बयान में इस बात को चुनौती देने का मतलब नहीं दिखता कि मोदी का जन्म जब हुआ था तब उनकी जाति ओबीसी नहीं थी। जातियों की सामाजिक स्थितियां लंबे समय तक चलती हैं, और सरकारी और कानूनी कार्रवाई चलते-चलते उन्हें कोई दर्जा मिलने में बहुत वक्त भी लग जाता है। इसलिए करीब 25 बरस पहले ओबीसी घोषित हो चुकी जाति के मोदी आज अपने को ओबीसी कहते हैं, तो यह राजनीतिक विवाद कुरेदने का कोई अच्छा सामान नहीं है, और खासकर तब जबकि इसे लेकर कोई विवाद भी नहीं है, और राहुल गांधी एक ताजा विवाद खड़ा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि पिछले दो-तीन बरसों में राहुल गांधी की पार्टी की छत्तीसगढ़ सरकार के खिलाफ जितने किस्म के जुर्म दर्ज हुए हैं, जितने नेता-अफसर-माफिया अंदाज के सत्ता के पसंदीदा कारोबारी जेल गए हैं, उन सबको लेकर राहुल गांधी को जनता को एक जवाब देना चाहिए था। जिस तरह हजारों करोड़ रूपए की काली कमाई, और रंगदारी के मामले सामने आए हैं, बड़े-बड़े अफसर जेल में हैं, पार्टी के बड़े-बड़े पदाधिकारी फरार हैं, तो ऐसे में राहुल गांधी प्रदेश की जनता के प्रति एक साफगोई की जिम्मेदारी रखते हैं। पूरा प्रदेश जिस तरह के अपराधों की कहानियों से लदा हुआ है, राहुल की अपनी पार्टी जिस तरह इस राज्य को कानूनी खतरों में उलझा चुकी है, तत्कालीन कांग्रेस सरकार गले-गले तक जुर्म में डूबी दिख रही है, उसमें राहुल की जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ की जनता को जवाब देने की है, न कि गलत तारीखों के आधार पर मोदी से सवाल करने की है। यह राज्य कांग्रेस सरकार के वक्त के भ्रष्टाचार और जुर्म की खबरों से उबल रहा है, और चुनावी नतीजे बताते हैं कि बड़े नफे के घोषणापत्र को देखते हुए भी प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को किस तरह खारिज किया था, ऐसे में राहुल को अपनी पार्टी से भी जवाब लेना चाहिए। वह तो कुछ होते दिख नहीं रहा है, दूसरी तरफ वे प्रधानमंत्री पर बेबुनियाद तथ्यों को लेकर एक आरोप लगा रहे हैं, जिससे खुद उनकी छवि गंभीर बनने से रूकती है। कांग्रेस पार्टी के पता नहीं कौन से ऐसे सलाहकार हैं जो राहुल गांधी को इतना अधिक बोलने की सलाह दे रहे हैं, और राहुल हैं कि वे हर दिन बहुत सारा बोलने को अपनी जिम्मेदारी मान रहे हैं। इसी अधिक बोलने में उनसे कई तरह की चूक हो रही हैं, और उनकी कुछ गंभीर बातें किनारे हो जाती हैं, और उनकी चूक पहले पन्ने की खबरों में छाई रहती हैं।
छत्तीसगढ़ में राहुल का आना ऐसे वक्त हुआ है जब उनकी पार्टी और उसकी पिछली सरकार यहां भारत के इतिहास के सबसे अप्रिय आर्थिक अपराधों के विवादों से घिरी हुई है। ओबीसी कांग्रेस का पसंदीदा मुद्दा हो सकता है, लेकिन जनता का खजाना किसी भी राज्य का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रहता है। राहुल गांधी की ईमानदारी इसी में रहेगी कि वे अपनी पार्टी की सरकार के कामकाज के बारे में बोलें, और अगर पिछली भूपेश सरकार पर लगे सारे आरोप झूठे हैं, तो उनका तथ्यों के साथ खंडन करें। प्रधानमंत्री पर गलत तथ्यों से किया गया उनका हमला कांग्रेस या विपक्ष को किसी किनारे पर नहीं पहुंचा पाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में एक शांत पर्यटन स्थल रहते आया देश, इक्वाडोर अब दुनिया में नशे के कारोबार का एक बड़ा केन्द्र बन गया है। हालत यह है कि अभी वहां के राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया है, क्योंकि नशे के कारोबारी देश पर एक किस्म से कब्जा सा करने की तरफ बढ़ रहे हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले एक टीवी स्टूडियो से जीवंत प्रसारण के बीच बंदूकबाजों ने भीतर घुसकर एक टीवी पत्रकार का अपहरण कर लिया था, एक वकील को गोली मार दी थी, कहीं जेलों में कैदियों ने सुरक्षा कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट देखें तो अब कुछ जानकार लोग इक्वाडोर को योरप और अमरीका जाने वाले कोकेन का रास्ता बता रहे हैं। दरअसल, इक्वाडोर से लगे हुए कोलंबिया और पेरू जैसे देश कोकेन नाम के खतरनाक नशे को बनाने वाला कच्चा माल पैदा करते हैं। नशे के कारोबार में कमाई इतनी रहती है कि ये दुनिया के किसी भी देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को भाड़े पर पालने लगते हैं, जैसा कि भारत के पंजाब में बड़े पैमाने पर संगठित रूप से हो रहा है। पंजाब पाकिस्तान के रास्ते आने वाले नशे का ऐसा बुरा शिकार है कि वहां की पूरी की पूरी जवान पीढ़ी इसमें फंसकर रह गई है, और उड़ता पंजाब जैसी फिल्में बनाई जा रही हैं। जिस पंजाब को अपनी स्थानीय और विदेशों से आने वाली कमाई की वजह से देश का एक सबसे संपन्न राज्य होना था, वह राज्य नशे की गिरफ्त में आकर इस तरह खत्म हो रहा है कि वहां अधिकतर घरों में कोई न कोई नशे के शिकार दिख रहे हैं, और नशे की आदतों की वजह से वहां की आबादी का एक हिस्सा दूसरे कई किस्म की बीमारियों का भी शिकार होते चल रहा है।
हम इक्वाडोर और पंजाब से होते हुए छत्तीसगढ़ जैसे राज्य पर आना चाहते हैं, और जिस तरह इक्वाडोर को योरप और अमरीका का नशे के ट्रांसपोर्ट का दरवाजा बताया जाता है, कुछ उसी तरह छत्तीसगढ़ देश के काफी हिस्सों के लिए नशे का दरवाजा बन गया है। ओडिशा की सरहद से लगे हुए छत्तीसगढ़ के कम से कम एक जिले में तो तकरीबन हर दिन गांजे की तस्करी पकड़ाती है, करोड़ों का सोना पकड़ाता है, करोड़ों की नगदी के साथ-साथ, अभी कुछ दिन पहले ही करोड़ों के नकली नोट भी पकड़ाए हैं। यह राज्य अवैध कारोबार से बाजार में आई नशा देने वाली दवा की गोलियों और शीशियों का अड्डा भी बन गया है। इस प्रदेश में कम से कम एक पुलिस अफसर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी तैनाती के हर जिले में नशे के खिलाफ पुलिस के सीमित साधनों में भी असीमित अभियान छेड़ा है, और कामयाबी पाई है। अभी राजधानी रायपुर में एसएसपी बनाए गए संतोष सिंह जिस जिले में रहे वहां उन्होंने नशे के कारोबार पर भी वार किया, और लोगों से नशा छुड़ाने की कोशिश भी की। एक किस्म से ऐसी कोशिश किसी अफसर के लिए नामुमकिन लग सकती है क्योंकि प्रदेश में शराब के नशे का कारोबार पूरे का पूरा सरकार ही करती है। लेकिन शराब के कम नुकसानदेह नशे के मुकाबले अवैध दवाईयों का नशा, और दूसरे किस्म के गैरकानूनी नशे अधिक खतरनाक हैं। इसलिए संतोष सिंह का यह अभियान सरकारी कारोबार से परे अवैध नशे के खिलाफ रहता है, और इसीलिए सरकार को भी इसमें कोई दिक्कत नहीं होती है।
दरअसल, नशे का बुरा असर जब तक समाज को ठीक से समझ में आता है तब तक समाज उसके शिकंजे में फंस चुका रहता है। शराब का सरकारी कारोबार तो सरकार की नजर में रहता है, हालांकि छत्तीसगढ़ में पिछली कांग्रेस सरकार के समय सत्ता के पसंदीदा मवालियों ने सरकार के साथ मिलकर जिस तरह से प्रदेश में हजारों करोड़ की अवैध शराब बनवाई थी, और सरकारी दुकानों से ही बेची थी, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में बेमिसाल संगठित अपराध रहा। वैसी अघोषित बिक्री को अगर छोड़ दें, तो आमतौर पर शराब की खपत सरकार की नजर में रहती है। लेकिन दूसरे किस्म के गैरकानूनी नशे की जानकारी भी सरकार को नहीं हो पाती है, और उसके असर का अंदाज लगना भी नामुमकिन रहता है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि जिस तरह एक अफसर अपने प्रभार के जिलों में लगातार ऐसा अभियान चलाता है, वैसा अभियान पूरे प्रदेश में चलाना चाहिए, और इससे छत्तीसगढ़ की अगली पीढ़ी नशे की गिरफ्त में आने से बचेगी। आज केन्द्र और राज्य सरकारों की बहुत सी योजनाओं की वजह से लोगों को बहुत अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं रह गई है, और नौजवानों में से कई ऐसे हैं जो मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हुए बैठे रह सकते हैं। ऐसी पीढ़ी अगर नशे की गिरफ्त में आ जाती है, तो वह बाकी जिंदगी भी कुछ काम करने के लायक नहीं रह जाएगी। इसलिए हर प्रदेश की यह जिम्मेदारी है कि वह कानूनी नशे की खपत भी घटाए, और गैरकानूनी नशे पर कड़ाई से रोक लगाए।
ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब छत्तीसगढ़ से होकर गुजरती हुई गांजे की गाडिय़ां न पकड़ाती हों। दूसरे प्रदेशों में भी जहां ये गाडिय़ां जाती हैं, वहां भी इनको पकड़ा तो जा ही सकता है, और छत्तीसगढ़ में अगर ये रोज ओडिशा से आ रही हैं, तो वहां के ढीले इंतजाम की वजह से ही वे इस राज्य तक पहुंच पाती हैं। नशे के कारोबार के खिलाफ देश में कानून बहुत कड़े हैं, और केन्द्र सरकार की एजेंसियां भी नशे के खिलाफ कार्रवाई करती हैं। इसके बाद भी इतने मामले पकड़ाना बड़े खतरे का संकेत है कि यह कारोबार सरकार के काबू से परे का है, और कल्पना से अधिक बड़ा है। दुनिया के बहुत से देश नशे के कारोबार पर जिंदा हैं, अफगानिस्तान जैसे देश की तालिबान सरकार वहां अफीम की खेती को बढ़ाकर किसी तरह घरेलू काम चला रही है, क्योंकि उसके पास कमाई का और कोई जरिया नहीं रह गया है। जब किसी देश-प्रदेश के लोगों का धंधा ही नशे का धंधा हो जाए, तो फिर वह एक बड़ा संगठित अपराध बन जाता है। हर राज्य अपने कुछ सबसे काबिल अफसरों को इस मोर्चे पर तैनात करना चाहिए, क्योंकि इसकी वजह से प्रदेश का भविष्य भी बचता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में सात जजों की एक संविधानपीठ ने इस बात पर विचार करना शुरू किया है कि क्या संपन्न पिछड़ी जातियों को आरक्षण के बाहर नहीं कर देना चाहिए? मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस पीठ में शामिल एक जज, जस्टिस विक्रमनाथ ने सामने खड़े वकीलों से सवाल किया कि जब ओबीसी की कुछ उपजातियों की संपन्नता बढ़ी है, वे बेहतर स्थिति में आई हैं, तो उन्हें आरक्षण से बाहर क्यों नहीं आना चाहिए? उन्होंने कहा कि ये संपन्न उपजातियां बाहर आकर आरक्षण के भीतर उन उपजातियों के लिए अधिक जगह बना सकती हैं जो कि अधिक हाशिए पर हैं, या बेहद पिछड़ी हुई हैं। एक दूसरे जज जस्टिस बी.आर.गवई ने कहा कि जब कोई आईएएस या आईपीएस बन जाते हैं, तो उनके बच्चे गांव में उन्हीं के बिरादरी के दूसरे लोगों की तरह दिक्कत नहीं झेलते, लेकिन ऐसे अफसर के परिवार को भी पीढिय़ों तक आरक्षण का लाभ मिलते रहता है। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट की ही एक पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति या जनजाति जैसे आरक्षित वर्ग एक जाति के हैं, और उन्हें उपजातियों में बांटना समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा। यह मामला ओबीसी के साथ-साथ अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षित तबकों की स्थिति पर भी विचार कर रहा है, और यह बहस केन्द्र के वकील के साथ-साथ राज्यों के वकीलों के बीच भी चलेगी।
सात जजों की संविधानपीठ एक बहुत बड़ा मामला होता है, ऐसा बहुत कम मामलों में होता है, और हम इसकी सुनवाई की शुरूआत में ही जजों के रूख सहित केन्द्र और राज्यों के तर्कों पर अधिक टिप्पणी करना नहीं चाहते, लेकिन इस मामले में हम बरसों से अपनी लिखी जा रही कुछ बातों को फिर से याद दिलाना जरूर चाहते हैं जो कि सामाजिक न्याय की नीयत से की गई आरक्षण की व्यवस्था में सुधार के लिए बहुत जरूरी हैं। आज देश में ओबीसी तबके के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू है जिसके तहत एक सीमा से अधिक कमाई या सामाजिक स्थिति वाले ओबीसी परिवार इस आरक्षण के लाभ से बाहर हो जाते हैं। लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति तबकों को इस क्रीमीलेयर से मुक्त रखा गया है, तर्क यह है कि ये तबके आर्थिक हैसियत से परे छुआछूत जैसी जाति व्यवस्था के भी शिकार हैं, और उसकी भरपाई संपन्न एसटी-एससी हो जाने से भी नहीं हो पाती।
हम इसी बात के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं कि एसटी-एससी तबकों में भी जो पीढ़ी आरक्षण का एक सीमा से ऊपर का फायदा पा चुकी है, उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए क्योंकि ताकत की जगह पर पहुंच चुके लोग अपनी संपन्नता से अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के मुकाबले तैयार करने की हालत में रहते हैं। लेकिन भारत में सरकारें इसके खिलाफ रही हैं, और 2019 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह अपील दाखिल की थी कि एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू नहीं करनी चाहिए। यह मामला इन तबकों को मिलने वाले बुनियादी आरक्षण को लेकर नहीं था बल्कि पदोन्नति के मामलों में अदालत का यह कहना था कि पदोन्नति के समय एसटी-एससी के भीतर भी क्रीमीलेयर का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट के इतने किस्म के फैसले हैं कि हम पूरी जटिलता में यहां जाना नहीं चाहते, लेकिन अभी चूंकि यह मामला फिर से उठा है, और सात जजों की संविधानपीठ इस पर सुनवाई कर रही है, इसलिए इस पर हमारे तर्क रखना जरूरी है।
हमारा ख्याल है कि क्रीमीलेयर के मामले में एसटी-एससी पर भी ओबीसी की तरह की शर्तें लागू होनी चाहिए, और एक सीमा से अधिक की संपन्नता, या सामाजिक ताकत की स्थिति को पैमाना बनाना चाहिए, ताकि आरक्षित वर्ग के भीतर एक शोषक वर्ग तैयार न हो सके। जब ताकतवर ओहदों तक पहुंचे हुए, और एक सीमा से अधिक संपन्न हो चुके आरक्षित लोगों की अगली पीढ़ी भी आरक्षण की पात्र मानी जाती है, तो यह बात साफ रहती है कि उस आरक्षित वर्ग के कमजोर लोग कभी भी इस मलाईदार तबके का मुकाबला नहीं कर सकते, और वे समान अवसर से उसी तरह वंचित रहते जाएंगे जिस तरह आरक्षित वर्ग अनारक्षित वर्गों के मुकाबले रहते थे, और जिस वजह से देश में आरक्षण की जरूरत आई थी। देश के दिग्गज वकील अभी सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से इस पर बहस करेंगे, और हो सकता है कि कुछ दूसरे तबकों की तरफ से भी वकील इसमें खड़े हों, लेकिन हम कानूनी बारीकियों में गए बिना इस मोटी बुनियादी समझ की बात करना चाहते हैं कि किसी भी परिवार को आरक्षण के लाभ की एक सीमा होनी चाहिए। इस सीमा तक फायदा उठा लेने के बाद लोगों को अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के साथ मुकाबले के लिए तैयार करना चाहिए, और आरक्षण का फायदा उन्हीं तबकों के अधिक कमजोर लोगों के लिए छोडऩा चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में दो जजों ने कल ठीक यही मुद्दा उठाया है, और हम बरसों से यही मांग करते आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि आरक्षित वर्गों से आरक्षण का फायदा पाकर संसद, विधानसभा, देश की नौकरशाही, और तमाम किस्म की दूसरी ताकत की जगहों पर जो लोग पहुंचे हैं, अगर क्रीमीलेयर उन पर लागू हो, तो सबसे पहले उन्हीं के बच्चे आरक्षण के फायदों से बाहर हो जाएंगे। यही वजह है कि जहां-जहां मुमकिन है, वहां-वहां आरक्षित तबकों से सत्ता पर पहुंचे लोग क्रीमीलेयर के खिलाफ काम करते हैं, और इसीलिए एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू ही नहीं हो सकी क्योंकि तमाम सांसद, विधायक, जज, बड़े अफसर, अपने ओहदों और अपनी तनख्वाह की वजह से अपने बच्चों के लिए आरक्षण का फायदा खो बैठेंगे, और यह एक वर्गहित की बात आ जाएगी जिसमें आरक्षित वर्ग के भीतर सामाजिक न्याय करने का मतलब फैसला करने वालों के लिए आत्मघाती हो जाएगा। यही वजह है कि देश में बार-बार आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों को भी उससे हटाया नहीं जा सक रहा है। और तो और अखबारों और बाकी मीडिया की ताकतवर कुर्सियों पर बैठे हुए लोग भी अपनी तनख्वाह की वजह से क्रीमीलेयर में भी ऊपर रहेंगे, और वे भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे आरक्षण के फायदे से बाहर हो जाएं। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को सामाजिक न्याय को एक व्यापक परिदृश्य में देखना चाहिए, और संविधान की अलग-अलग धाराओं की बारीकियों में उलझने के बजाय इस बुनियादी जरूरत को पूरा करना चाहिए कि किसी आरक्षित वर्ग के भीतर ऊपर के पांच-दस फीसदी लोग ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी फायदा न पाएं, बल्कि एक पीढ़ी फायदा पाने, और एक सीमा से ऊपर पहुंच जाने के बाद उन्हें आरक्षण के फायदों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। किसी भी तरह के अवसर किसी तबके की आबादी के मुकाबले बहुत ही कम रहते हैं, और इन तबकों के हित में है कि अधिक से अधिक लोगों तक ये अवसर पहुंचाए जाएं, और इसके लिए जरूरी है कि आरक्षित तबके पर से क्रीमीलेयर को हटाया जाए। हम इस तर्क को बिल्कुल बोगस मानते हैं कि एसटी-एससी तबके चूंकि सामाजिक भेदभाव के शिकार हैं, इसलिए इन तबकों के आरक्षण पर न तो क्रीमीलेयर लागू होनी चाहिए, और न ही इनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने पर रोक लगनी चाहिए। आरक्षण का फायदा पाई हुई पीढ़ी हटने के बाद ही दूसरे लोग मौका पा सकते हैं, और सामाजिक भेदभाव की बात तो इन दोनों पर एक बराबर लागू होती है, कमजोर एसटी-एससी सामाजिक भेदभाव से उबरे हुए तो नहीं हैं। देखना है सुप्रीम कोर्ट का कैसा फैसला आता है, यह फैसला सरकारी नौकरियों में अवसरों से परे भी देश के सामाजिक न्याय के लिए बड़ा ऐतिहासिक होगा।
उत्तराखंड विधानसभा इस वक्त राज्य का अपना यूनिफॉर्म सिविल कोड पास करने जा रही है। यह देश में आजादी के बाद किसी राज्य का पहला ही यूनिफॉर्म सिविल कोड होगा। आजादी के बहुत पहले गोवा पर काबिज पुर्तगालियों ने 1867 में वहां यूसीसी लागू किया था जो कि अभी तक चल रहा था। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उत्तराखंड में भाजपा ने इस बात को लेकर वायदा किया था, और इसके बाद बनी कमेटी ने 20 महीने काम करके 740 पेज का एक मसौदा तैयार किया है जो कि उत्तराखंड में लडक़े और लडक़ी के बीच विरासत में फर्क खत्म करता है, वैध और अवैध कही जाने वाली संतानों के बीच हक का फर्क खत्म करता है, जो तलाक के मामले में महिला को मौजूदा मुस्लिम विवाह कानून के कई तरह के प्रतिबंधों से मुक्त करता है। उत्तराखंड के इस प्रस्तावित विधेयक में सभी धर्मों की लड़कियों के विवाह की उम्र एक समान रखी गई है, इससे कुछ समुदायों में होने वाले बाल विवाह खत्म होंगे, और मुस्लिम धर्म में किशोरावस्था पहुंचते ही नाबालिग लडक़ी की शादी की छूट भी खत्म होगी। इसमें एक से अधिक जीवन-साथी बनाने पर भी रोक लगाई गई है, और साथ रहने वाले अविवाहित जोड़ों, लिव-इन-रिलेशनशिप, की घोषणा करना जरूरी किया गया है, जिसका रजिस्ट्रेशन भी होगा। फिलहाल हम उसके प्रावधानों पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि उत्तराखंड में पास होते ही यह विधेयक भाजपा शासन के दो और राज्यों, गुजरात और असम जाएगा, और वहां की सरकारें भी तकरीबन इसी किस्म का विधेयक बनाकर अपनी विधानसभाओं में रखेंगी। अभी की खबरें बताती हैं कि उत्तराखंड की करीब तीन फीसदी आदिवासी आबादी पर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं किया जाएगा।
फिलहाल हम यह भी मानकर चल रहे हैं कि इस विधेयक के पास हो जाने के बाद राज्यपाल से अनुमति की जो औपचारिकता है वह भी तुरंत पूरी हो जाएगी, और यह विधेयक राज्य में एक कानून बन जाएगा, लेकिन मुस्लिम विवाह कानून जैसे कुछ राष्ट्रीय स्तर के कानून हैं, और हो सकता है कि उनके प्रावधानों में उत्तराखंड के इस यूसीसी में छेडख़ानी के खिलाफ लोग सुप्रीम कोर्ट जाएं, और वहां पर फैसला कुछ अलग हो। ऐसे विवाह कानून से परे भी एक दूसरी बात जो हमें अटपटी लगती है वह लिव-इन-रिलेशनशिप वाले जोड़ों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन करना है, जो कि दोनों साथियों के परिवारों में बखेड़े की एक बड़ी वजह रहेगी, और विधेयक का यह प्रावधान हमारी समझ से परे है कि प्रशासन ऐसे आवेदनों की जानकारी दोनों जोड़ीदारों के परिवारों को देगा। अगर दोनों साथी बालिग नहीं हैं, तो वे वैसे भी साथ नहीं रह सकते, और अगर वे बालिग हैं तो उनके परिवारों को इसकी सूचना देना बालिगों की निजता का हनन होगा, और हमारा ख्याल है कि यह प्रावधान अदालत की कसौटी पर खड़ा नहीं रह पाएगा। दूसरी तरफ उत्तराखंड में विपक्ष की इस बात की गंभीरता को भी समझने की जरूरत है कि अब तक 740 पेज के इस मसौदे को सार्वजनिक नहीं किया गया है, विपक्ष के पास इसकी कॉपी भी नहीं है, और भाजपा सरकार इसे विधानसभा से आनन-फानन पास करवाना चाहती है। यह सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक है क्योंकि जन्म, मृत्यु, विरासत, विवाह, और बच्चों को गोद लेने जैसे बुनियादी और महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर जब इतने बड़े फेरबदल होने वाले हैं, तो उन पर ठंडे दिल से लंबी चर्चा होनी चाहिए, ताकि इससे जुड़े हुए तमाम नजरिए विधानसभा की कार्रवाई में दर्ज हो सकें, और कल के दिन सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के आने पर यह बात साफ रहे कि किस पार्टी या नेता ने इस पर क्या कहा था। सदनों में सत्ता के बहुमत से बिना चर्चा के भी ध्वनिमत से नया कानून बना देना एक फैशन सा हो गया है, लेकिन यह न सिर्फ लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ हैं, बल्कि यह अलोकतांत्रिक भी है। लोकतंत्र महज सत्ता बल का नाम नहीं होता है, लोकतंत्र सभी विचारों के बीच विचार-विमर्श और बहस का मंच होता है, और देश की संसद या राज्यों की विधानसभाओं को ऐसा ही रहने भी देना चाहिए।
एक बार फिर हम इस प्रस्तावित विधेयक के कुछ प्रावधानों पर लौटें जो कि खबरों में आए हैं, और हम यह नहीं कहते कि इनके बारीक खुलासे में कुछ दबी-छुपी बातें नहीं होंगी। लेकिन चूंकि आज पूरे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा छिड़ते रहती है, और कई राज्य इसकी तरफ बढ़ रहे हैं, इसलिए हम उत्तराखंड के इस विधेयक के प्रावधानों को मुद्दे मानकर उन पर चर्चा कर रहे हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड के भाजपा के बहुत पुराने चुनावी एजेंडे का हमला मोटेतौर पर मुस्लिम समुदाय पर माना जाता है, और इसका एक हिस्सा देशभर में तीन-तलाक पर लगी रोक की शक्ल में मोदी सरकार कानून बनाकर लागू भी कर चुकी है। देश भर में हजारों मामले इस कानून के आने के बाद उन मुस्लिम मर्दों के खिलाफ दर्ज हुए हैं जिन्होंने अपने बीवियों को एक साथ तीन बार तलाक कहकर उन्हें छोड़ दिया था। हमारा ऐसा मानना है कि यह कानून, और समान नागरिक संहिता के मुस्लिमों से संबंधित कई प्रावधान पहली नजर में मुस्लिमों के खिलाफ लग सकते हैं, लेकिन जब हम मुस्लिम समाज में महिलाओं के बारे में सोचेंगे, तो ये प्रावधान मुस्लिम महिला के हक के दिखते हैं। ट्रिपल तलाक का कानून बनते ही हमने उसकी तारीफ की थी कि इससे मुस्लिम मर्द की मनमानी खत्म होती है, और मुस्लिम महिला को न्यूनतम मानव अधिकार मिलते हैं। इस समान नागरिक संहिता से भी नाबालिग मुस्लिम लड़कियों की शादी गैरकानूनी हो जाएगी, जो कि एक सही फैसला होगा। इसके अलावा तलाक की प्रक्रिया के दौरान सिर्फ मुस्लिम महिला पर लादी गई कई किस्म की शर्तें भी इससे खत्म हो जाएंगी, वह भी औरत और मर्द की बराबरी का एक इंसाफ होगा। जहां तक बहुविवाह पर रोक की बात है, तो यह मुस्लिमों से परे हिन्दुओं और दूसरे धर्मों में भी प्रचलित है, और इस पर पूरी रोक भी मोटेतौर पर भारतीय महिला की बदहाली को कम करेगी जो कि आमतौर पर बहुविवाह का शिकार होती है। इसके प्रावधानों में लडक़े और लडक़ी, औरत और मर्द इन सबका संपत्ति में बराबरी का हक रखना, वैध, और कथित अवैध संतान का बराबरी का हक रखना भी एक सही फैसला है, जो कि एक किस्म से सुप्रीम कोर्ट अलग-अलग फैसलों में लागू कर ही चुका है। सभी के लिए शादी का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी किया जा रहा है, जो कि वैसे भी पूरे देश में लागू है, और किसी भी सरकारी कामकाज में ऐसे रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता सामने आती ही रहती है, इसे उत्तराखंड ने अपने यूनिफॉर्म सिविल कोड में जोडक़र शायद उन समुदायों पर दबाव बनाया है जो परंपरागत रूप से सरकारी विवाह-पंजीकरण नहीं करवाते हैं, इस प्रावधान में भी कोई खामी नहीं है।
देश में कई राजनीतिक दल मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक रिवाजों का सम्मान करने के लिए उन तमाम प्रथाओं का सम्मान करते आए हैं, जो कि उनके भीतर महिलाओं के साथ बहुत बुरी बेइंसाफी करते थे। किसी समुदाय के हक बचाने के नाम पर उसके भीतर के बेइंसाफ को पूरी तरह से औरत पर ही लाद दिया जाता है। ऐसे में ट्रिपल तलाक का कानून, या कि बालिग होने के पहले किसी भी धर्म की लडक़ी की शादी पर रोक, तलाक के मामले में महिला के साथ धार्मिक रिवाजों के नाम पर भेदभाव को खत्म करना कुछ लोगों को उस धर्म पर हमला लग सकता है, लेकिन उन धर्मों के भीतर की महिलाओं के नजरिए से देखें तो शायद पहली बार ऐसी महिलाओं को बराबरी के इंसान होने का दर्जा मिल रहा है।
अभी हमारी यह टिप्पणी किसी भी तरह से उत्तराखंड के इस प्रस्तावित कानून पर एक समग्र बात नहीं है, क्योंकि अभी इसके पूरे पहलू ही सामने नहीं हैं, लेकिन हम अब तक खबरों में आए पहलुओं पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि इन पर देश के तमाम सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि एक-एक करके कई भाजपा-राज्यों में यह स्थिति आएगी, इसलिए इससे सहमत और असहमत लोग अपने तर्कों और अपनी सोच के साथ तैयार रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)