सेहत-फिटनेस
एफएओ के मुताबिक एंटीबायोटिक सहित एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का लम्बे समय से इस्तेमाल किया जा रहा है और उनका गलत इस्तेमाल भी हो रहा है
दुनिया में बेहतर से बेहतर दवाएं उपलब्ध होने के बावजूद विभिन्न संक्रमण से लोगों, पशुओं और पौधों की मौत हो रही है, क्योंकि सूक्ष्मजीवीरोधी प्रतिरोधक क्षमता (एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस) बढ़ती जा रही है। विश्व एंटीमाइक्रोबियल जागरूकता सप्ताह के मौके संयुक्त राष्ट्र की खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ओर से जारी एक बयान में यह बात कही है।
एफएओ के मुताबिक एंटीबायोटिक सहित एंटीमाइक्रोबियल दवाओं का लम्बे समय से इस्तेमाल किया जा रहा है और उनका गलत इस्तेमाल भी हो रहा है, जिससे सूक्ष्मजीवीरोधी प्रतिरोधक क्षमता का तेजी से फैलाव हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार बैक्टीरिया संक्रमणों की रोकथाम और उनका उपचार करने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। इन्हें एंटीमाइक्रोबियल के तहत ही शामिल किया जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी का कहना है कि इंसान व जानवरों की बजाय बैक्टीरिया में सूक्ष्मजीवीरोधी प्रतिरोधक (एएमआर) क्षमता विकसित हुई है और वे बैक्टीरिया लोगों व जानवरों को संक्रमित कर सकते हैं। ऐसे बैक्टीरिया से होने वाले संक्रमण पर काबू पाना और उपचार करना अन्य बैक्टीरिया की तुलना में मुश्किल होता है।
एफएओ का कहना है कि अगर इस समस्या से नहीं निपटा गया तो एएमआर के कारण करोड़ों लोग चरम गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का शिकार हो सकते हैं।
डब्ल्यूएचओ का कहना है कि एएमआर की वजह से सामान्य संक्रमण का इलाज भी मुश्किल हो जाता है और बीमारी के फैलने, उसके गंभीर रूप धारण करने या मौत होने का खतरा बढ़ जाता है।
बैक्टीरिया, वायरस, फफूंद या परजीवी में समय के साथ आने वाले बदलाव और दवाओं का उन पर असर न होने की वजह से सूक्ष्मजीवीरोधी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। यह वैश्विक स्वास्थ्य और विकास के लिए एक बड़ा बनता जा रहा है। इंसान, पशुओं और खेती में दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल और स्वच्छ पानी व साफ-सफाई की कमी से दुनिया भर में एएमआर का जोखिम बढ़ा है।
एफएओ के मुताबिक एएमआर नियामकों और निरीक्षण की कमी के कारण एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है और डॉक्टरी नुस्खे के बिना और ऑनलाइन बिक्री के कारण खराब गुणवत्ता व फर्जी उत्पादों का भी इस्तेमाल बढ़ रहा है।
यूएन की स्वास्थ्य एजेंसी ने एएमआर को उन 10 सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरों की सूची में शामिल किया है, जो मानवता के समक्ष चुनौती के रूप में मौजूद हैं। इससे वैश्विक स्वास्थ्य, विकास, सतत विकास लक्ष्यों और अर्थव्यवस्था पर खासा असर पड़ने की आशंका है।
संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों ने आगाह किया है कि अगर एएमआर पर काबू नहीं किया गया तो अगली महामारी बैक्टीरिया के कारण हमारे सामने आ सकती है, जो ज्यादा घातक होगी और जिसके इलाज में दवाएं काम नहीं आएंगी। ‘विश्व एंटीमाइक्रोबियल जागरूकता सप्ताह’ के जरिये आम लोगों, स्वास्थ्यकर्मियों और नीतिनिर्धारकों में एएमआर की चुनौती और उसका मुकाबला करने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपायों के प्रति जागरूकता फैलाई जा रही है।
क्या आप जानते हैं?
- दवा-प्रतिरोधक बीमारियों के कारण हर वर्ष कम से कम सात लाख लोगों की मौत होती है।
- अगले 10 सालों में बढ़ती जनसंख्या और इंसानी जरूरतों को पूरा करने के लिए पशुओं में एंटीमाइक्रोबियल का इस्तेमाल दोगुना होने के आसार हैं।
- इन 10 वर्षों में लगभग ढाई करोड़ लोग एएमआर के कारण चरम गरीबी का शिकार हो सकते हैं। (downtoearth.org.in)
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और अमेरिका की संस्था सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की एक नई रिपोर्ट में दावा किया गया है कि वर्ष 2019 में खसरा बीमारी के कारण दो लाख से ज्यादा मौतें हुई, जबकि पिछले 23 साल में सबसे अधिक मामले सामने आए।
इस रिपोर्ट के मुताबिक एक दशक में वैक्सीन की पर्याप्त पहुंच न होने के कारण खसरा के मामलों में वृद्धि हुई। वर्ष 2016 में खसरा के कारण होने वाली मौतों में रिकॉर्ड गिरावट देखने को मिली थी, लेकिन 2019 में उसकी तुलना में 50 फीसदी की वृद्धि हुई है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में खसरा के साढ़े आठ लाख से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं।
हालांकि इस वर्ष 2020 में कम मामले देखने को मिले हैं, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण वैक्सीन के प्रयासों को झटका लगा है।
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनीसेफ) की कार्यकारी निदेशक हेनरीएटा फोर ने आगाह किया है कि कोरोनावायरस संकट से पहले दुनिया खसरे के संकट से जूझ रही थी और यह अभी टला नहीं है।
खसरा की पूरी तरह रोकथाम की जा सकती है लेकिन इसके लिए समय रहते 95 फीसदी बच्चों को खसरा वैक्सीन की दो खुराकें बच्चों को दी जानी चाहिए।
पहली खुराक एमसीवी1 की कवरेज में विश्व भर में पिछले एक दशक से ज्यादा समय से रूकावट आई है और अब यह 84-85 फीसदी तक सीमित है।
रिपोर्ट बताती है कि एमसीवी2 की कवरेज में वृद्धि हो रही है, लेकिन यह अभी 71 प्रतिशत तक ही सम्भव हो पाई है।
एक रिपोर्ट में कहा गया था कि पिछले कुछ समय के दौरान कांगो लोकतान्त्रिक गणराज्य, मैडागास्कर, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, जॉर्जिया, समोआ, यूक्रेन, उत्तर मैसेडोनिया सहित अन्य देशों में बड़ी संख्या में खसरा के मामले सामने आये हैं।
गौरतलब है कि बीते सप्ताह यूनीसेफ और डब्ल्यूएचओ ने खसरा और पोलियो के बढ़ते मामलों को कम करने के लिए एक साझा अपील जारी की थी। जिसमें कहा गया था कि अगले तीन साल में 25 करोड़ डॉलर की धनराशि की जरूरत होगी, ताकि खसरा के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता की कमियों को दूर किया जा सके।(https://www.downtoearth.org.in/hindistory)
भारत के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय का कहना है कि कोरोना महामारी के दौरान इस बीमारी से पीड़ित 30 फ़ीसद लोग अवसाद या डिप्रेशन का शिकार हुए हैं.
स्वास्थ्य मंत्रालय ने कोरोना महामारी की वजह से तनाव के बढ़ते मामलों को देखते हुए दिशानिर्देश जारी किए हैं. दिशानिर्देश कई शोध रिपोर्ट के आधार पर तैयार किए गए हैं.
कोरोना वायरस महामारी ने दुनिया भर में लोगों की मानसिक स्थिति पर गहरा असर डाला है.
इस बीमारी ने स्वास्थ्य सेवाओं पर ज़बरदस्त दबाव तो डाला ही है साथ ही मेंटल हेल्थ केयर व्यवस्था के सामने गंभीर चुनौतियां पेश की हैं.
स्वास्थ्य मंत्रालय और मेंटल हेल्थ इंस्ट्टीयूट ऑफ़ न्यूरोसाइंस की गाइडलाइन्स ने कोविड महामारी में मानसिक रूप से प्रभावित होने वाले लोगों के तीन समूहों का ज़िक्र किया है .
पहले समूह में वो लोग है जों कोरोना-19 से पीड़ित हुए हैं. इसके मुताबिक़ जो मरीज़ कोविड-19 से संक्रमित हुए थे उन्हें मानसिक दिक्क़तें आ सकती हैं. कोविड से पीड़ित होने वालों में 30 फ़ीसद लोगों में अवसाद या डिप्रेशन और 96 प्रतिशत में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसआर्डर (PTSD) जैसी समस्या देखी जा रही है, और ये समस्या बढ़ भी सकती है.
दूसरे समूह में वो मरीज़ हैं जो पहले से ही मानसिक रोग से पीड़ित हैं या थे. इनमें कोविड की वजह से वे पुरानी स्थिति में लौट सकते हैं. इतना ही नहीं इस समूह के मरीज़ों की स्थिति और ख़राब होने के साथ-साथ वे नई मानसिक समस्या से भी ग्रसित हो सकते हैं.
तीसरा समूह आम लोगों का है. आम लोग अलग-अलग तरह की मानसिक समस्या जैसे तनाव, चिंता, नींद की कमी, हैल्यूस्लेशन या अजीब ख्याल आना जिनका सच्चाई से कोई वास्ता न हो जैसी समस्याएं झेल रहे हैं. इस समूह के लोगों में आत्महत्या तक के ख्याल भी आ रहे हैं.
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान दिल्ली (एम्स) में मनोचिकित्सक श्रीनिवास राजकुमार कहते हैं कि ये शोध काफ़ी चिंताजनक है क्योंकि आम मानसिक बीमारियों के मुक़ाबले ये आंकड़ा कहीं ज्यादा हैं. लेकिन शोध के लिए आंकड़े कहां से लिए गए हैं, वो स्पष्ट नहीं है. वो कहते है कि एम्स कोविड ट्रामा सेंटर में काफ़ी बंदोबस्त किए गए हैं जहां मनोचिकित्सक लागातार मरीज़ों से बातचीत कर रहे हैं और जैसी शोध में बातें आई हैं वैसी ही समस्याएं अस्पताल में भर्ती मरीज़ के साथ भी हैं.
उनके अनुसार,''कोविड के मरीज़ों में असुरक्षा की भावना रहती है कि वे अपने परिवार के पास लौट पाएंगे या नहीं. नींद नहीं आने की शिकायत भी आम है. वहीं ये भी देखा गया है जो मरीज़ ठीक होकर जा चुके हैं वे डिप्रेशन, एंग्जाइटी और पैनिक एटैक की समस्याओं के साथ हमारे पास वापस आ रहे है. वे कहते हैं कि नींद में उन्हें लगता है कि वे आईसीयू में हैं और बीप की आवाज़े सुन रहे हैं या लोगों से घिरे हुए हैं. ऐसी समस्या लेकर आने वालों की उम्र 20- 40 के बीच है. ऐसे में जहां ज़रूरत हैं, वहां दवाईयां दे रहे है और इनका इलाज कर रहे हैं''.
दिल्ली की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. पूजाशिवम जेटली का कहना है कि कोविड के दौरान लोगों का मानसिक स्वास्थ्य एक चिंता का विषय है और उनके पास क़रीब 50-60 प्रतिशत ऐसे मामले आ रहे हैं जहां लोग अकेलापन, एंगज़ाइटी, मूड में उतार-चढ़ाव और एकाग्रता की कमी महसूस कर रहे हैं.
वे कहती हैं कि कोविड की वजह से अनिश्चितता का माहौल है. रोज़ नए आंकडे आते हैं, नए मामले सामने आ रहे है और अभी तक इसका कोई पुख़्ता इलाज सामने नहीं आया है, तो लोगों के मन में दहशत बैठी हुई है.
उनके अनुसार, ''लोगों की रोज़ की ज़िंदगी में बदलाव आया है, उसका असर भी मानसिक सेहत पर पड़ा है. लोगों की नौकरियां चली गईं हैं, अस्थिरता का माहौल है, वर्क फ्रॉम होम की वजह से घर में अलग तरह की डिमांड बढ़ गई है जिसमें बच्चों, बुज़ुर्गों की देखरेख करने के साथ-साथ घर संभालना शामिल है. लोग आपस में मिल नहीं पा रहे हैं, बाहर जाकर रिलेक्स करने या मनोरंजन के ज़रिए बंद हो गए हैं, हालांकि अब अनलॉक हुआ है चीज़ें खुली हैं लेकिन फिर भी लोगों में डर है और ऐसे में मेंटल हेल्थ डिसऑर्डर के लिए एक माहौल बन रहा है.''
हालांकि सरकार ने मानसिक स्थिति से निपटने के लिए कई दिशानिर्देश जारी किए जिनमें कहा गया है कि कोरोना के मरीज़ों के इलाज करने वाले अस्पतालों में एक मनोचिकित्सक शारीरिक रूप से या टेलीफ़ोन के ज़रिए कंसल्टेंसी के लिए मौजूद रहेगा. एनजीओ जो मेडिकल के क्षेत्र में काम कर रहे हैं, उनसे मदद ली जाएगी. कोविड का कोई मरीज़ अगर मानसिक रोगी है तो उसे भर्ती होने के 24 घंटे के भीतर मनोचित्सिक देखेगा.
डॉ. श्रीनिवास राजकुमार कहते हैं कि सरकार ने दिशानिर्देश तो जारी किए हैं लेकिन जैसे पूरी दुनिया में अब केवल मनोचिकित्सकों पर निर्भरता को छोड़ कर दूसरे डॉक्टरों को भी मेंटल हेल्थ केयर के मामलों से निपटने के प्रशिक्षण दिए जा रहे हैं, वैसे ही प्रशिक्षण अब भारत में डॉक्टरों को दिए जाने की ज़रूरत हैं.
वो कहते हैं कि भारत में मेंटल हेल्थ से जुड़े क़ानून है लेकिन अब इस क्षेत्र में निवेश करने की ज़रूरत है क्योंकि मनोरोगियों से निपटने के लिए मनोचिकित्सकों की संख्या पर्याप्त नहीं है.
डॉ पूजाशिवम जेटली कहती है कि जिस तरह से कोविड के दौरान लोगों में डिप्रेशन या एंगजाइटी के मामले आ रहे हैं, इससे भविष्य में भयावह स्थिति बन सकती है. क़दम नहीं उठाए गए तो ऐसे मामले बढ़ेंगे ही क्योंकि लोग इसे एक समस्या के तौर पर समझ नहीं पा रहे हैं और मदद भी नहीं ले रहे हैं.
वे मानती है कि सरकार के साथ-साथ सोसायटी एक बड़ी भूमिका निभा सकती है. यहां समुदाय के लोग अपनी दिक्क़तें साझा कर सकते हैं क्योंकि ये सिर्फ़ किसी व्यक्ति या परिवार की समस्या नहीं है बल्कि कई लोग ऐसी ही समस्याओं से जुझ रहे हैं. एक दूसरे से समाधान पर चर्चा करना मददगार साबित हो सकता है.(https://www.bbc.com/hindi)
विश्व गर्भ निरोधक दिवस
लखनऊ, 26 सितम्बर (आईएएनएस)| छोटे और सुखी परिवार के लिए लोगों में परिवार नियोजन के प्रति रुझान बढ़ रहा है। अनचाहे गर्भ के जोखिम से महिलाओं को उबारने के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और स्वास्थ्य विभाग का परिवार कल्याण कार्यक्रमों को जन-जन तक पहुंचाने पर पूरा जोर है। स्थायी और अस्थायी गर्भनिरोधक साधनों की मौजूदगी के बाद भी अनचाहे गर्भधारण की यह स्थिति किसी भी ²ष्टिकोण से उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि इसके चलते कई महिलाएं असुरक्षित गर्भपात का रास्ता चुनती हैं जो बहुत ही जोखिम भरा होता है। महिलाओं को इन्हीं जोखिमों से बचाने के लिए हर साल 26 सितंबर को विश्व गर्भनिरोधक दिवस मनाया जाता है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन-उत्तर प्रदेश के अपर मिशन निदेशक हीरा लाल का कहना है कि गर्भ निरोधक साधनों को अपनाकर जहां महिलाओं के स्वास्थ्य को बेहतर बनाया जा सकता है वहीं मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को भी कम किया जा सकता है।
उन्होंने बताया कि गर्भ निरोधक साधनों के प्रति जागरूकता बढ़ाना तथा युवा दम्पति को यौन और प्रजनन स्वास्थ्य पर सूचित विकल्प देकर अपने परिवार के प्रति निर्णय लेने में सक्षम बनाना है। नवविवाहित को पहले बच्चे की योजना शादी के कम से कम दो साल बाद बनानी चाहिए ताकि इस दौरान पति-पत्नी एक दूसरे को अच्छे से समझ सकें और बच्चे के बेहतर लालन-पालन के लिए कुछ पूंजी भी जुटा लें। इसके अलावा मातृ एवं शिशु के बेहतर स्वास्थ्य के लिहाज से भी दो बच्चों के जन्म के बीच कम से कम तीन साल का अंतर अवश्य रखना चाहिए।
प्रदेष में तिमाही गर्भनिरोधक इंजेक्शन अंतरा और गर्भनिरोधक गोली छाया की बढ़ती डिमांड को देखते हुए घर के नजदीक बने हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर तक इसकी सुविधा को मुहैया कराया जा रहा है । 'नई पहल' परिवार नियोजन किट आशा कार्यकर्ताओं द्वारा नव विवाहित जोड़ों को मिशन परिवार विकास के अंतर्गत लिए गए 57 जिलों में उपलब्ध कराई जा रही है । गर्भ निरोधक साधन कंडोम की लगातार उपलब्धता बनाए रखने के लिए सभी जिलों के चयनित स्थानों पर कंडोम बॉक्स लगाए गए हैं।
प्रदेश के 13 जिलों में एक अक्टूबर से 31 अक्टूबर तक 'दो गज की दूरी, मास्क और परिवार नियोजन है जरूरी' अभियान चलाया जाएगा। यह अभियान आगरा, अलीगढ़, एटा, इटावा, फतेहपुर, फिरोजाबाद, हाथरस, कानपुर नगर, कानपुर देहात, मैनपुरी, मथुरा, रायबरेली और रामपुर जिले में चलाया जाएगा।
कोविड-19 के चलते बड़ी संख्या में प्रवासी कामगारों की घर वापसी से भी अनचाहे गर्भधारण की स्थिति को भांपते हुए क्वेरेंटाइन सेंटर से घर जाते समय प्रवासी कामगारों को गर्भ निरोधक सामग्री प्रदान की गई।
पिछले तीन साल के आंकड़ों पर नजर डाली जाए तो गर्भ निरोधक साधनों को अपनाने वालों की तादाद हर साल बढ़ रही थी किन्तु 2020-21 सत्र की शुरुआत ही कोविड के दौरान हुई, जिससे इन आंकड़ों का नीचे आना स्वाभाविक था किन्तु अब स्थिति को सामान्य बनाने की भरसक कोशिश की जा रही है । पुरुष नसबंदी वर्ष 2017-18 में 3,884, वर्ष 2018-19 में 3,914 और 2019-20 में 5,773 हुई ।
महिला नसबंदी वर्ष 2017-18 में 25,8182, वर्ष 2018-19 में 281955 और 2019-20 में 295650 हुई । इसी तरह वर्ष 2017-18 में 300035, वर्ष 2018-19 में 30,52,50 और 2019-20 में 35,87,64 महिलाओं ने पीपीआईयूसीडी की सेवा ली । वर्ष 2017-18 में 23,217, वर्ष 2018-19 में 16,13,65 और 2019-20 में 34,45,32 महिलाओं ने अंतरा इंजेक्शन को चुना।
लखनऊ , 21 सितम्बर (आईएएनएस)| विश्व अल्जाइमर दिवस 21 सितंबर को मनाया जाता है। यह बीमारी एक उम्र के बाद लोगों में होने लगती है, जिसमें लोग चीजों को याद नहीं रख पाते हैं। हेल्दी लाइफ स्टाइल और नशे से दूरी जैसे एहतियात बरतकर अल्जाइमर और डिमेंशिया से बचा जा सकता है। उम्र बढ़ने के साथ ही तमाम तरह की बीमारियां हमारे शरीर को निशाना बनाना शुरू कर देती हैं। इन्हीं में से एक प्रमुख बीमारी बुढ़ापे में भूलने की आदतों (अल्जाइमर्स-डिमेंशिया) की है। ऐसे बुजुगोर्ं की तादाद बढ़ रही है। इसीलिए इस बीमारी की जद में आने से बचाने के लिए हर साल 21 सितम्बर को विश्व अल्जाइमर्स-डिमेंशिया दिवस मनाया जाता है। इसका उद्देश्य जागरूकता लाना है ताकि घर-परिवार की शोभा बढ़ाने वाले बुजुगोर्ं को इस बीमारी से बचाकर उनके जीवन में खुशियां लायी जा सके।
किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सा विभाग के एडिशनल प्रोफेसर डॉ. आदर्श त्रिपाठी का कहना है कि बुजुगोर्ं को डिमेंशिया से बचाने के लिए जरूरी है कि परिवार के सभी सदस्य उनके प्रति अपनापन रखें। अकेलापन न महसूस होने दें, समय निकालकर उनसे बातें करें, उनकी बातों को नजरंदाज न करें बल्कि उनको ध्यान से सुनें। ऐसे कुछ उपाय करें कि उनका मन व्यस्त रहे, उनकी मनपसंद की चीजों का ख्याल रखें। निर्धारित समय पर उनके सोने-जागने, नाश्ता व भोजन की व्यवस्था का ध्यान रखें।
अमूमन 65 साल की उम्र के बाद लोगों में यह बीमारी देखने को मिलती है। वृद्घावस्था में मस्तिष्क के ऊ तकों को नुकसान पहुंचने के कारण ये बीमारी होती है। मस्तिष्क में प्रोटीन की संरचना में गड़बड़ी होने के कारण इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। ये एक मस्तिष्क से जुड़ी बीमारी है, जिसमें व्यक्ति धीरे-धीरे अपनी याददाश्त खोने लगता है। इस बीमारी में व्यक्ति छोटी से छोटी बात को भी याद नहीं रख पाता है। जब यह बीमारी अत्यधिक बढ़ जाती है तो व्यक्ति को लोगों के चेहरे तक याद नहीं रहते हैं। अभी तक इस बीमारी का कोई सटीक इलाज नहीं मिला है।
डाक्टर ने बताया कि इस भूलने की बीमारी पर नियंत्रण पाने के लिए जरूरी है कि शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के साथ ही मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ रखें। नकारात्मक विचारों को मन पर प्रभावी न होने दें और सकारात्मक विचारों से मन को प्रसन्न बनाएं। पसंद का संगीत सुनने, गाना गाने, खाना बनाने, बागवानी करने, खेलकूद आदि जिसमें सबसे अधिक रुचि हो, उसमें मन लगायें तो यह बीमारी नहीं घेर सकती।
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय और अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली की तरफ से अभी हाल ही में जारी एक एडवाइजरी में कहा गया है कि वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में करीब 16 करोड़ बुजुर्ग (60 साल के ऊ पर) हैं । इनमें से 60 से 69 साल के करीब 8़ 8 करोड़, 70 से 79 साल के करीब 6़ 4 करोड़, दूसरों पर आश्रित 80 साल के करीब 2़ 8 करोड़ और 18 लाख बुजुर्ग ऐसे हैं, जिनका अपना कोई घर नहीं है या कोई देखभाल करने वाला नहीं है।
न्यूयॉर्क, 20 सितंबर (आईएएनएस)| अमेरिकी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि कैंसर के लिए किए जाने वाले कुछ उपचारों से रोगियों के कोविड-19 संक्रमित होने पर मृत्यु की आशंका बढ़ सकती है। यूरोपियन सोसाइटी फॉर मेडिकल ऑन्कोलॉजी वर्चुअल कांग्रेस 2020 में सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा पेश किए गए अध्ययन में कैंसर के ऐसे तरीकों के बारे में बताया गया जो रोगी के कोरोनावायरस संक्रमित होने पर उस पर नकारात्मक असर डाल सकते हैं।
यूसी कॉलेज ऑफ मेडिसिन में हेमटोलॉजी ऑन्कोलॉजी विभाग में मेडिसिन के एसोसिएट प्रोफेसर त्रिशा वाइज-ड्रेपर ने कहा, "ऐसे मरीज के अस्पताल में भर्ती होने की आशंका 40 प्रतिशत तक होती है। साथ ही उनमें गंभीर श्वसन बीमारी होने और मृत्यु की आशंका होती है।"
कोविड -19 और कैंसर के संबंध पर किए गए पिछले अध्ययन में टीम ने पाया था कि उम्र, लिंग, धूम्रपान करने और सक्रिय कैंसर सहित अन्य स्वास्थ्य स्थितियों में मृत्यु की आशंका बढ़ा देती हैं।
ड्रेपर ने आगे कहा, "अब हमने 3,000 से अधिक मरीजों के बीच एंटी-कैंसर ट्रीटमेंट के समय और कोविड-19 संबंधित जटिलताओं के बीच संबंध की जांच की थी। इसमें विशेष तौर पर एंटी-सीडी 20 मोनोक्लोनल एंटीबॉडी प्राप्त करने वालों की मृत्यु की आशंका अधिक थी, जो आमतौर पर कुछ लिम्फोमा में सामान्य बी कोशिकाओं को समाप्त करने के लिए उपयोग किया जाता है।"
कोविड-19 डायग्नोस होने से पहले के एक साल में एंडोक्राइन थेरेपी को छोड़ दें तो कैंसर का ट्रीटमेंट नहीं ले रहे रोगियों की तुलना में सक्रिय कैंसर उपचार ले रहे रोगियों की मृत्यु संख्या अधिक रही।
उन्होंने कहा, "यह उन रोगियों के लिए अच्छी खबर नहीं है जो कैंसर से लड़ रहे हैं। इसके अलावा भी कैंसर के रोगियों में किसी भी स्थिति या कारण के चलते मृत्यु की आशंका सामान्य आबादी की तुलना में अधिक है। इसमें वो लोग शामिल हैं, जिनका पिछले साल इलाज नहीं चल रहा था।"
लेखकों ने कहा कि उन्हें इस विषय पर और अधिक शोध करने की जरूरत है क्योंकि वे रोगियों के समूह पर महामारी के प्रभाव की जांच करना जारी रखना चाहते हैं।
हाल ही में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की पैथॉलॉजिस्ट निस्सी वर्की ने बताया कि मनुष्य जिन घातक रोगों (जैसे टाइफॉइड, हैज़ा, गलसुआ, काली खांसी, गनोरिया वगैरह) से पीड़ित होता है, वे कपियों और अन्य स्तनधारी जीवों को नहीं होती। हमारी कोशिका में घुसने के लिए ये रोगाणु शर्करा अणुओं (सियालिक एसिड) का उपयोग करते हैं। और यह देखा गया है कि कपियों का सियालिक एसिड मनुष्यों से भिन्न होता है।
और अब वर्की और उनकी टीम ने आधुनिक मानव जीनोम और हमारे विलुप्त सम्बंधियों - निएंडरथल और डेनिसोवन्स - के डीएनए का विश्लेषण कर पता लगाया है कि लगभग 6 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों की प्रतिरक्षा कोशिकाओं में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि जेनेटिक परिवर्तनों ने तब सियालिक एसिड का इस्तेमाल करने वाले रोगजनकों से सुरक्षा दी थी, लेकिन साथ ही नई दुर्बलताओं को भी जन्म दिया था। जिस सियालिक एसिड की मदद से आज रोगजनक हमें बीमार करते हैं किसी समय यही सियालिक एसिड हमें रोगों से सुरक्षा देता था।
चूंकि सियालिक एसिड कोशिकाओं की ऊपरी सतह पर लाखों की संख्या में होते हैं इसलिए हमलावर रोगजनकों से इनका सामना सबसे पहले होता है। मानव कोशिकाओं पर Neu5Ac सियालिक एसिड का आवरण होता है जबकि वानरों और अन्य स्तनधारियों में Neu5Gc सियालिक एसिड होता है।
कई आणविक घड़ी विधियों से पता चला है कि कोई 20 लाख साल पहले गुणसूत्र-6 के CMAH जीन में हुए उत्परिवर्तन ने हमारे पूर्वजों में Neu5Gc बनना असंभव कर दिया था। और उनमें Neu5Ac अधिक बनने लगा था। इस परिवर्तन से कुछ रोगों के प्रति सुरक्षा विकसित हुई। लेकिन अगले कुछ लाख सालों में Neu5Ac कई अन्य रोगजनकों के लिए मानव कोशिका में प्रवेश करने का साधन बना गया।
सिग्लेक्स (यानी सियालिक एसिड-बाइंडिंग इम्यूनोग्लोबुलिन-टाइप लेक्टिन) सियालिक एसिड की जांच करते हैं। यदि सिग्लेक्स द्वारा सियालिक एसिड क्षतिग्रस्त या गायब पाया जाता है तो वे प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय होने संकेत देते हैं। यदि सियालिक एसिड सामान्य दिखाई देता है तो सिग्लेक्स प्रतिरक्षा तंत्र को अपने ही ऊतकों पर हमला करने से रोक देते हैं।
शोधकर्ताओं को मनुष्यों, निएंडरथल और डेनिसोवन्स के गुणसूत्र-19 के CD33 जीन में 13 सिग्लेक्स कोड में से 8 सिग्लेक्स के जीनोमिक डीएनए में परिवर्तन दिखे। यह परिवर्तन केवल सिग्लेक जीन में दिखे निकटवर्ती अन्य जीन में नहीं। इससे लगता है कि प्राकृतिक चयन इन परिवर्तनों के पक्ष में था, संभवत: इसलिए क्योंकि तब वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने में मदद करते थे जो Neu5Gc को निशाना बनाते थे। लेकिन जो सिग्लेक्स रोगजनकों से बचाते हैं, वे अन्य बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार भी हो सकते हैं। परिवर्तित सिग्लेक्स में से कुछ सूजन और अस्थमा जैसे ऑटोइम्यून विकार से जुड़े हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह शोध व्यापक वैकासिक सिद्धांतों को रेखांकित करता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक चयन हमेशा इष्टतम समाधान के लिए नहीं होता, क्योंकि इष्टतम समाधान हर समय बदलता रहता है। जो परिवर्तन आज के लिए बेहतर हैं, हो सकता है वे आने वाले समय के लिए सही साबित ना हों।(स्रोत फीचर्स)
पीरियड्स के दिनों में न केवल पेट में ब्लोटिंग, कमर दर्द और मूड खराब होता है, बल्कि कई लड़कियों के चेहरे पर मुंहासे भी निकल आते हैं। अगर तथ्य की बात करें, तो 65 प्रतिशत लड़कियों को पीरियड्स के दिनों में सबसे ज्यादा पिंपल्स निकलते हैं। इस दौरान निकलने वाले मुंहासे सिस्टिक एक्ने होते हैं, जो लाल रंग के और दर्द भरे होते हैं।
इन पांच दिनों में आपकी स्किन को थोड़ी देखरेख और केयर की जरूरत होती है। महिलाओं के शरीर में हॉर्मोनल बदलाव के कारण स्किन में जो भी दिक्कतें आती हैं, उसे कैसे ठीक करना है, आइए जानते हैं इस बारे में...
पीरियड्स के समय क्यों निलकते हैं मुंहासे
पीरियड्स आने के कुछ दिन पहले चेहरे पर मुंहासे निकलने शुरू हो जाते हैं। इन्हें हार्मोनल या फिर मेनस्ट्रुअल एक्ने कहते हैं। वे महिलाएं जिनको सालभर एक्ने की समस्या बनी रहती है, उन्हें पीरियड्स के दिनों में और ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है। हमारे शरीर में हॉर्मोन लेवल बढ़ता-घटता रहता है, लेकिन पीरियड्स के दिनों में एस्ट्रोजन कम हो जाता है और टेस्टोस्टेरोन बढ़ जाता है। टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन पुरुषों में ज्यादा होता है। इसके बढ़ने की वजह से स्किन पोर्स में सीबम बनाने वाली ग्रंथि में सीबम ज्यादा मात्रा में बनने लगता है, जिसकी वजह से मुंहासे बढ़ जाते हैं।
पिंपल या ऐक्ने
पीरियड्स के दिनों में स्किन ज्यादा ऑयल बनाने लगती है। वहीं, कई लड़कियों की स्किन रूखी और डल हो जाती है। इस दौरान निकलने वाले पिंपल्स और सिस्ट कुछ के लिए काफी दर्दनाक हो सकते हैं, लेकिन इससे निपटने के लिए दिन में कम से कम दो बार गरम पानी से चेहरे को धोएं। इससे आपको दर्द से छुटकारा मिलेगा। साथ ही पोर्स में जमे बैक्टीरिया को मारने के लिए बेन्जोयल पेरोक्साइड नाम की क्रीम लगाना न भूलें।
चेहरे को करें क्लीनअप
इन दिनों अपनी स्किन को साफ-सुथरा रखना चाहिए। अगर आपके पोर्स की गंदगी निकल जाएगी तो एक्ने की समस्या अपने आप ही सुलझ जाएगी। इस काम में क्लीनअप आपकी मदद कर सकता है। क्लीनअप से नाक, माथे और ठोढ़ी पर जमे ब्लैक हेड्स और व्हाइट हेड्स भी साफ हो जाते हैं। इससे स्किन न केवल साफ होती है बल्कि चेहरे पर ग्लो भी आता है।
मेकअप से बनाएं दूरी
पीरियड्स के दिनों में स्किन ज्यादा सीबम बनाती है, जिससे स्किन चिपचिपी दिखाई देती है। अगर आप नियमित मेकअप लगाती हैं, तो पीरियड्स में दिक्कत बढ़ सकती है। क्योंकि मेकअप पोर्स को ब्लॉक करता है जिससे स्किन पर पिंपल्स की प्रॉब्लम बढ़ सकती है।
डायट और पानी
इन दिनों कम ग्लाइसेमिक इंडेक्स वाले खाद्य पदार्थों का ही सेवन करें, जिससे हार्मोनल एक्ने को कम करने में मदद मिल सके। अपने आहार में मीठी चीजें, सफेद ब्रेड, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ आदि को दूर रखें। हो सके तो ओमेगा-3 फैटी एसिड, विटमिन-ई और एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरी चीजों का सेवन करें। यह न सिर्फ त्वचा को ब्रेकआउट से बचाएंगे, बल्कि उसे ग्लोइंग बनाए रखेंगे। साथ ही दिन में कम से कम दो लीटर पानी जरूर पिएं।
स्किन को रखें हाइड्रेट
इस दौरान हमारी स्किन काफी ड्राय हो जाती है, इसलिए शहद इस काम में आपकी मदद कर सकता है। यह न केवल मुंहासों के लक्षणों को कम करता है, बल्कि स्किन को भी हाइड्रेट रखता है। इसमें प्राकृतिक एंटीसेप्टिक गुण होते हैं जो आपकी त्वचा में चमक पैदा करते हैं। (navbharattimes.indiatimes.com)
दुनियाभर में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी है
एक नए शोध से पता चला है कि यदि शैशव अवस्था में बच्चे के शरीर में आयरन की कमी हो तो वो भविष्य में टीकों के प्रभाव को कम कर सकती है। यह जानकारी ईटीएच ज्यूरिख द्वारा किये शोध में सामने आई है। यह शोध जर्नल फ्रंटियर्स इन इम्म्युनोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक टीकाकरण कार्यक्रम में तेजी आई है और यह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा बच्चों तक पहुंच रहा है। इसके बावजूद अब भी हर साल करीब 15 लाख बच्चे उन बीमारियों के कारण मर जाते हैं जिनके टीके उपलब्ध हैं। इनमें से ज्यादातर मौतें कम आय वाले देशों में ही होती हैं। लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि आखिर क्यों टीकाकरण के बावजूद इन गरीब देशों के बच्चे इन बीमारियों का शिकार बन जाते हैं। यह एक बड़ी चिंता का विषय है कि आखिर क्यों इन देशों में टीकाकरण सफल नहीं हो पा रहा है। एक ही तरह की वैक्सीन होने के बावजूद इन देशों में टीके क्यों प्रभावी नहीं होते?
एनीमिया से पीड़ित हैं 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाएं
वैज्ञानिकों के अनुसार इसके पीछे की एक बड़ी वजह शिशुओं में आयरन की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में 5 वर्ष से कम उम्र के करीब 42 फीसदी बच्चे और 40 फीसदी गर्भवती महिलाओं में आयरन की कमी है और वो एनीमिया से पीड़ित हैं। इसके पीछे की वजह उनके खाने में आयरन की कमी है। यदि भारत के आंकड़ों पर गौर करें तो नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के अनुसार देश में 5 वर्ष से कम आयु के 58 फीसदी से ज्यादा बच्चे एनीमिया से ग्रस्त हैं। जबकि दूसरी और 15 से 49 वर्ष की करीब 53 फीसद महिलाओं में खून की कमी है।
क्या कहता है अध्ययन
हाल ही में किए दो अध्ययनों से यह बात साबित हो गई है कि बचपन में आयरन की कमी भविष्य में वैक्सीन के प्रभाव को कम कर सकती है। इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने पहले शोध में केन्या के बच्चों पर अध्ययन किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार स्विट्ज़रलैंड में जो बच्चे जन्म लेते हैं उनके शरीर में पर्याप्त मात्रा में आयरन होता है जो आमतौर पर उनके जीवन के पहले 6 महीनों के लिए पर्याप्त होता है। वहीं दूसरी ओर केन्या, भारत, और अन्य पिछड़े देशों में जन्में शिशुओं में आयरन की कमी होती है। विशेषरूप से जिन बच्चों की माताओं में आयरन की कमी होती है, उनके बच्चे भी आयरन की कमी के साथ पैदा होते हैं। साथ ही उन बच्चों का वजन भी कम होता है। इस वजह से उनमें संक्रमण और खूनी दस्त जैसी समस्याएं होती हैं। इस कारण उनके शरीर में मौजूद आयरन भंडार दो से तीन महीनों में ख़त्म हो जाता है।
शोध से पता चला है कि जिन बच्चों के शरीर में खून की कमी थी, उनके कई टीकाकरण के बावजूद डिप्थीरिया, न्यूमोकोकी और अन्य बीमारियों से ग्रस्त होने की सम्भावना अधिक थी, क्योंकिं उनके शरीर में इन बीमारियों के प्रति रोग प्रतिरोधक क्षमता कम विकसित थी। इनमें गैर एनेमिक शिशुओं की तुलना में बीमारियों का जोखिम दोगुना था। इस शोध में आधे से भी अधिक बच्चे 10 सप्ताह की उम्र में एनीमिया से पीड़ित थे। वहीं 24 सप्ताह तक, 90 फीसदी से अधिक हीमोग्लोबिन और रेड सेल्स की कमी का शिकार थे।
रोगाणुओं से निपटने में ज्यादा सक्षम था आयरन सप्लीमेंट पाने वाले बच्चों का शरीर
दूसरे अध्ययन में शोधकर्ताओं ने रोजाना चार महीने तक छह माह के 127 शिशुओं को सूक्ष्म पोषक तत्वों वाला एक पाउडर दिया। 85 बच्चों के पाउडर में आयरन था, बाकि 42 बच्चों को आयरन सप्लीमेंट नहीं दिया गया। जब बच्चों को 9 माह की आयु में खसरे का टीका लगाया गया तो जिन बच्चों को आयरन दिया गया था, उनके शरीर में रोगाणुओं के खिलाफ ज्यादा प्रतिरक्षा विकसित हुई। 12 महीने की उम्र में इन बच्चों का शरीर ने केवल खसरे के रोगाणुओं से बेहतर तरीके से लड़ने में सक्षम था, बल्कि उनके शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली रोगाणुओं को बेहतर ढंग से समझने के भी काबिल थी।
डब्ल्यूएचओ भी आहार में आयरन की पर्याप्त मात्रा लेने की सलाह देता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसको अपनाना महत्वपूर्ण है, क्योंकि छोटे बच्चों के शरीर में मौजूद पर्याप्त मात्रा में आयरन से टीकाकरण कार्यक्रम में भी सफलता मिलेगी। साथ ही इसकी मदद से 15 लाख से भी ज्यादा बच्चों की जिंदगी बचाई जा सकेगी, जिनकी जान हर साल उन बीमारियों से चली जाती है जिन्हें टीकाकरण की मदद से रोका जा सकता है। (downtoearth.org.in)
इंडियन जर्नल ऑफ ट्यूबरक्लोसिस में प्रकाशित अध्ययन में कहा गया है कि कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन से 2020 में भारत में दो लाख अतिरिक्त क्षय रोग (टीबी) के मामले सामने आएंगे। इसके साथ ही टीबी से लगभग 87,000 से अधिक मौतों की आशंका जताई गई है।
भारत ने 2025 तक टीबी के मामलों को 80 प्रतिशत और इससे होने वाली मौतों को 90 प्रतिशत तक कम करने का महत्वाकांक्षी सतत विकास लक्ष्य रखा है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए भारत को युद्ध स्तर पर काम करने की जरूरत होगी। एक शोध इसमें मददगार साबित हो सकता है।
दरअसल, वैज्ञानिकों ने एक ऐसा विषाणु खोजा है जो टीबी के जीवाणु (बैक्टीरिया) के जीवित रहने के लिए आवश्यक प्रोटीन का उत्पादन करने ओर बैक्टीरिया द्वारा अमीनो एसिड के उपयोग पर रोक लगा सकता है।
डरहम विश्वविद्यालय, यूके के नेतृत्व में शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम, टूलूज, फ्रांस में मॉलिक्यूलर माइक्रोबायोलॉजी और जेनेटिक्स/ सेंटर इंटीग्रेटिव बायोलॉजी की प्रयोगशाला ने टीबी के लिए दवाओं को विकसित करने के लिए इस विष (विषाणु) का फायदा उठाने का लक्ष्य रखा है।
क्षयरोग दुनिया की सबसे घातक संक्रामक बीमारियों में से एक है। इससे हर साल लगभग 15 लाख मौतें होती हैं जबकि अधिकांश मामलों को उचित उपचार करके ठीक किया जा सकता है। अब एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी संक्रमणों की संख्या लगातार बढ़ रही है।
यह संक्रमित व्यक्ति की खांसी या छींक से निकली छोटी बूंदों में सांस लेने से फैलता है और यह मुख्य रूप से फेफड़ों को प्रभावित करता है। हालांकि यह ग्रंथियों, हड्डियों और तंत्रिका तंत्र सहित शरीर के किसी भी हिस्से को प्रभावित कर सकता है। यह शोध साइंस एडवांसेज नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
टीबी का कारण बनने वाले कीटाणु, वातावरण में तनाव के अनुकूल होने में मदद करने के लिए विषाक्त पदार्थों का उत्पादन करते हैं। इन विषाक्त पदार्थों को आमतौर पर एक ऐन्टिडोट द्वारा ठीक किया जाता है, लेकिन जब वे सक्रिय होते हैं तो वे संभावित रूप से बैक्टीरिया के विकास को धीमा कर सकते हैं और यहां तक कि संक्रमित कोशिका भी नष्ट हो सकती है।
शोध टीम को जो नया विष मिला है, जिसे मेनटी (MenT) कहा जाता है। यह टीबी के जीवाणु माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस द्वारा बना होता है।
शोधकर्ताओं ने मेनटी की एक अत्यंत विस्तृत 3-डी तस्वीर बनाई, जो आनुवांशिक और जैव रासायनिक आंकड़ों के साथ संयुक्त रूप से दिखाती है कि विष प्रोटीन के उत्पादन के लिए बैक्टीरिया द्वारा आवश्यक अमीनो एसिड के उपयोग को रोकता है। यदि यह अपने मेन-ए (Men A), एंटी-टॉक्सिन से बेअसर नहीं होता है, तो मेनटी माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस के विकास को रोक देता है, जिससे बैक्टीरिया मर जाते हैं।
बायोसाइंसेज विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और डरहम विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अध्ययनकर्ता टिम ब्लोवर ने कहा प्रभावी रूप से टीबी खुद को ही मेनटी नामक जहर देकर खुद के संक्रमण को समाप्त कर देता है।
शोधकर्ताओं ने कहा मेनटी की जबरन सक्रियता के माध्यम से या टॉक्सिन और इसके एंटी-टॉक्सिन मेन-ए के बीच संबंध को अस्थिर करके, हम उन बैक्टीरिया को मार सकते हैं जो टीबी का कारण बनते हैं।
मॉलिक्यूलर माइक्रोबायोलॉजी एंड जेनेटिक्स के शोध निदेशक और वरिष्ठ शोधकर्ता पियरे जिनेवक्स ने कहा कि हमारा शोध एक तंत्र की पहचान करता है जो प्रोटीन का उत्पादन करने के लिए (बैक्टीरिया) जीवाणु द्वारा आवश्यक अमीनो एसिड के उपयोग को रोककर टीबी या अन्य संक्रमण का इलाज कर सकता है। यह काम अगली पीढ़ी की दवाओं के लिए शोध और खोज के नए रास्ते भी खोलता है। (downtoearth.org.in)
रायपुर,15 जुलाई। कोरोना वायरस संक्रमण के साथ ही अब बारिश में डेंगू, टायफायड, मौसमी बुखार, मलेरिया और सर्दी-जुकाम के मामलों में तेजी से इजाफा हो रहा है। बच्चे और बड़ो के साथ ही बुजुर्गों की मुशिकलें बढ़ गईं हैं। ऐसे में अगर इन मौसमी बीमारियां की गिरफ्त में आ गए तो कोरोना से खतरा और भी बढ़ जाएगा। कोरोना वायरस व मौसमी बीमारियों से निपटने के लिए बारिश के मौसम में आने वाले फलों व सब्जियों का सेवन सेहत के लिए बेहद जरुरी है।
आयुर्वेदिक अस्पताल के पंचकर्म विभाग के एचओडी डॉ. रनजीप कुमार दास ने बताया इन बीमारियों से लड़ने में शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाने में मदद करेगी। ऐसे में जरूरी है कि हर उम्र के लोग शरीर की प्रतिरोधक क्षमता पर खासा ध्यान दें। ``खानपान और अच्छी दिनचर्या से ही हम अपने शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा सकते हैं।‘’
डॉ. दास का कहना है मौसमी फल, सब्जी, नींबू के अलावा रसोई में बहुत सी चीजें उपलब्ध हैं जिनकी मदद से हर कोई शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा सकता है। आयुर्वेदिक अस्पताल परिसर में कोरोना वायरस से बचाव और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढाने के लिए आयुष विभाग की ओर से काढा का वितरण किया जा रहा है। इसका लाभ प्रतिदिन ओपीडी में आने वाले मरीज व अन्य लोग सहित लगभग 300 लोग काढा का सेवन कर रहे हैं।
सीएमएचओ रायपुर डॉ.मीरा बघेल ने बताया, जिले के अस्पतालों में कोविड से पहले इस वर्ष जनवरी, फरवरी व मार्च में कुल ओपीडी 4.22 लाख दर्ज किया गया था जो औसत प्रति माह 1.40 लाख मरीजों थी। साल के पहले तिमाही रिपोर्ट के अनुसार हर दिन औसत 5,550 मरीज ओपीडी में स्वास्थ्य लाभ ले रहे थे। आयुष अस्पतालों में तीन महीने का ओपीडी 8,400 रहा, हर महीने 2800 मरीज पहुंच रहे थे जो कि प्रतिदिन औसत 107 मरीजों का रहा है।
लॉकडाउन के दौरान ओपीडी में गिरावट के साथ के साथ अप्रेल, मई व जून में जिले के स्वास्थ्य केंद्रों का कुल ओपीडी 3.14 लाख है। वहीं प्रतिमाह औसत 1.04 लाख मरीजों को ओपीडी में मरीज पहुंच रहे हैं । यानी प्रति दिन अस्पतालों में 4,000 मरीजों का इलाज चल रहा है जबकि आयुष के अस्पतलों का ओपीडी बीते तीन महीने में कोरोना की वजह से 4800 है। महीनेभर में 1600 मरीज और प्रतिदिन का औसत 61 मरीज आयुर्वेदिक अस्पतालों में चिकित्सा सेवा का लाभ ले रहे हैं। कोविड-19 की वजह से अस्पताल में नॉन-कोविड के मरीजों की संख्या कमी आयी थी जो अब अस्पतालों में मरीजों की तादात धीरे-धीरे बढ़ने लगी है।
डॉ. बघेल ने बताया कोरोना वायरस के लक्षण के बारे में जानकारी ही बचाव का सबसे बड़ा उपाय है। वायरस के लक्षण जैसे –बुखार आना, सिरदर्द, नाक बहना, जुकाम, सांस लेने में तकलीफ, खांसी, गले में खराश, और सीने में जकड़न होता है। कोरोना से बचाव के लिए संक्रमित व्यक्ति के निकट संपर्क से बचना, कई बार हाथों की साबुन से धुलाई, नाक-आंख-कांन व मुंह न छूना ज़रूरी है । संक्रमित सामग्रियों को छूने से बचना।
अधिक जानकारी के लिए शासकीय जिला अस्पताल से अथवा राज्य सर्वेलेंस इकाई के नंबर- 0771-2235091, 9713373165 या फिर टोल फ्री नंबर -104 से संपर्क कर सकते हैं।
सावधानी के लिए जरुरी उपाय-
- बाहर की खानपान की चीजों से बचें, यदि विषम परिस्थितियों में खाना पड़े तो ठंडी चीजों से परहेज करें।
-पैक्ड और बाहर फलों का जूस पीने के बजाय घर पर निकाल कर पीये। बेहतर होगा मौसमी फल खाए।
-घर या बाहर चाय और काफी का सेवन करें।
-गरम दूध में हल्दी डालकर पीएं, यदि अंडा खाते हैं तो इसे ले।
-अदरक, काली मिर्च, लोंग, दालचीनी, मुलेठी, तुलसी का काढ़ा दिन में दो बार पीएं।
-संतुलित भोजन ले जिसमें प्रोटीन की मात्रा हो अधिक हो, एक ग्राम प्रति किग्रा शरीर के वजन के अनुसार प्रोटीन लेनी चाहिए।
-विटामिन और मिनरल के लिए मौसमी फल और सब्जिया और ड्राईफ्रूट का सेवन करें।
-चना, मूंग, अरहर समेत सभी दाल खायें।
-अंकुरित चना, मूंग, सोयाबीन और मोठ ले सकते हैं।