विचार/लेख
साल 2017 में तंत्रिका विज्ञानी और युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की क्लायमेट एक्शन युनिट के निदेशक क्रिस डी मेयर ने वैज्ञानिकों, वित्त पेशेवरों और नीति निर्माताओं के साथ एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया था। उन्होंने इन क्षेत्रों से आए लोगों को समूह में बांटा – प्रत्येक समूह में छह व्यक्ति। फिर उन्हें जोखिम और अनिश्चितिता से सम्बंधित उनके व्यक्तिगत और व्यावसायिक अनुभवों के आधार पर कुछ प्रश्न और गतिविधियां करने को दीं। पाया गया कि लोग इस बात को लेकर आपस में एकमत और सहमत नहीं हो सके थे कि ‘जोखिम और अनिश्चितता’ क्या है। और तो और, इतने छोटे समूह में भी लोगों के परस्पर विरोधी और कट्टर मत थे।
इस नतीजे से डी मेयर को यह बात तुरंत समझ में आई कि क्यों जलवायु सम्मेलनों, समितियों वगैरह में सहभागी पेशेवर अक्सर एक-दूसरे की कही बातों को गलत समझते हैं। ऐसा इसलिए है कि बुनियादी शब्दों पर भी लोगों की अवधारणाएं या समझ बहुत भिन्न होती हैं। इसलिए कई बार हम किसी शब्द के माध्यम से जो कहना या समझाना चाहते हैं, ज़रूरी नहीं है कि सामने वाले को वही समझ आ रहा हो। जैसे शब्द ‘विकास’ के बारे में लोगों की समझ भिन्न हो सकती है, किसी के लिए विकास का मतलब अच्छी सडक़ें, जगमगाता शहर, बुलेट ट्रेन हो सकती है, वहीं किसी और के लिए लिए विकास का मतलब स्वच्छ पेयजल, अच्छी स्वास्थ्य सुविधा हो सकती है। और समझ में इसी भिन्नता के चलते जलवायु वैज्ञानिक अपने संदेश को अन्य लोगों तक पहुंचाने और उन्हें जागरूक करने में इतनी जद्दोजहद का सामना करते हैं, और बड़े वित्तीय संगठन प्राय: जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम आंकते हैं।
अध्ययन यह भी बताता है कि इस तरह के वैचारिक मतभेद या फर्क हर जगह सामने आते हैं, लेकिन आम तौर पर लोग इन विविधताओं से बेखबर होते हैं। तंत्रिका विज्ञान के अध्ययन दर्शाते हैं कि ये फर्क इस बात पर आधारित होते हैं कि किसी चीज़ या शब्द के बारे में हमारे विचार या अवधारणाएं किस प्रकार निर्मित हुई हैं, और हमारे ऊपर किस तरह के राजनीतिक, भावनात्मक और चरित्रगत असर हुए हैं। जीवन भर के अनुभवों, हमारे कामों या विश्वासों से बनी सोच को बदलना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर होता है।
लेकिन दो तरीके इसमें मदद कर सकते हैं: एक, लोगों को इस बारे में सचेत बनाना कि हमारे अर्थ और उनकी समझ में फर्क है; दूसरा, उन्हें नई भाषा चुनने के लिए प्रोत्साहित करना जो अवधारणात्मक बोझ से मुक्त हो।
‘अवधारणा’ शब्द को परिभाषित करना भी कठिन है। मोटे तौर पर अवधारणा का मतलब है किसी शब्द को सुनते, पढ़ते, या उपयोग करते समय हमारे मन में उभरने वाले उसके विभिन्न गुण, उदाहरण और सम्बंध और ये काफी अलग-अलग हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, ‘पक्षी’ की अवधारणा में शामिल हो सकते हैं कि पंख, उडऩा, घोंसले बनाना, गोरैया। ये शब्दकोश में दी गई परिभाषाओं से भिन्न होती हैं, जो अडिग और विशिष्ट होती हैं जिन्हें आम तौर पर सीखना होता है। (स्रोत फीचर्स)
रूचिर गर्ग
जिंदगियां बचाने के लिया अंग दान करने वालों का ओडिशा में राजकीय समान के साथ अंतिम संस्कार किया जाएगा।
अंग दान जिंदगियां बचाने के लिए तो बेहद जरूरी है ही लेकिन यह समाज में वैज्ञानिक नजरिए के प्रसार की दिशा में भी महत्वपूर्ण कदम होता है।
चिकित्सा के क्षेत्र में नए अनुसंधानों से लेकर चिकित्सा विद्यार्थियों की पढ़ाई तक के लिए मृत व्यक्ति का शरीर बड़ी जरूरत होती है।
दुर्भाग्य से रीति-रिवाजों की जकडऩ आमतौर पर परिवारों को ऐसा फैसला करने से रोकती है। फिर भी अब इस दिशा में जागरूकता बढ़ी है और ओडिशा सरकार का यह फैसला ऐसी जकडऩ के मुकाबले भी लोगों को अंगदान,शरीर दान के लिए निश्चित ही प्रोत्साहित करेगा।
अंगदान को प्रोत्साहित करने के लिए ओडिशा सरकार पहले भी महत्वपूर्ण कदम उठा चुकी है।
यह खबर आज ऐसे मौके पर आई है जब रायपुर के वरिष्ठ सीपीएम नेता और एलआईसी की कर्मचारी यूनियन के राष्ट्रीय नेता बिश्वनाथ सान्याल जी के नौजवान बेटे विप्लव सान्याल की देह आज ही रायपुर के डॉक्टर भीमराव अंबेडकर शासकीय मेडिकल कॉलेज को सौंपी जाएगी।
विप्लव मेरा बहुत करीबी बच्चा था। उसे अपनी आंखों के सामने बड़ा होता देखा है। लंदन में एक भारतीय कंपनी में नौकरी करते हुए पिछले दिनों उसकी अत्यंत दुर्भाग्यजनक मृत्यु हो गई थी।इस नौजवान की असमय मृत्यु ने झकझोर कर रख दिया। विप्लव जिसे प्यार से बाबू पुकारते थे बस थोड़ी देर में विमान से रायपुर पहुंचेगा और फिर चिकित्सा विज्ञान की राह रोशन करने में मददगार अंतिम सफर पर निकल पड़ेगा।
मैंने भी बहुत पहले ही तय किया है कि मृत्यु के बाद मुझे डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा जाए।
मध्य प्रदेश खनिज निगम के पूर्व एमडी रहे मेरे श्वसुर स्मृति शेष विनय पाठक ने मृत्यु पूर्व ही यह इच्छा व्यक्त कर दी थी और परिवार ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उनकी देह डॉक्टर अंबेडकर मेडिकल कॉलेज को सौंपा था। उनकी आंखें भी तभी किसी के काम आ गईं थीं।
हमारे संपादक सुनील कुमार जी के पिता की भी देह इसी मेडिकल कॉलेज को दान की गई थी।
देहदान, अंगदान जीवन के ऋण से भी उबरने का मौका है।
मानवता भी जिंदाबाद होगी।
प्रिय बाबू को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।
फैसल मोहम्मद अली
सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को ‘अवैध’ बता दिया है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बाद अब सवाल यह उठ रहा है कि राजनीतिक चंदे को लेकर भविष्य में कौन सी ऐसी व्यवस्था लागू हो जिसकी पारदर्शिता पर सवाल खड़े न हों?
सवाल ये भी है कि गुरुवार को देश की सबसे ऊंची अदालत के निर्णय के बाद राजनीतिक दलों की फंडिग आगे किस तरह से होगी और क्या बॉन्ड्स को असंवैधानिक मात्र कऱार देने से सबकुछ बिल्कुल ठीक हो जाएगा?
सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की खंडपीठ ने केंद्र की मोदी सरकार के साल 2018 में लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को ग़ैर-क़ानूनी कऱार दिया है क्योंकि इसके तहत चंदा देने वाले की पहचान गुप्त रखी जा सकती थी।
सरकार की स्कीम को अदालत में चैलेंज करने वालों का कहना था कि इसमें काला धन को सफ़ेद किए जाने से लेकर, किसी काम को किए जाने के समझौते के तहत बड़ी कंपनियों या व्यक्तियों से चंदा लिया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने इन दलीलों को सही माना और ये भी कहा कि चंदा देने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम न बताने का क़ानून सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम के तहत स्टेट बैंक इंडिया साल भर में चार बार इलेक्टोरल बॉन्ड्स इश्यू करता था।
इसे कोई भी व्यक्ति/कंपनी बैंक से खऱीदकर किसी राजनीतिक दल को चंदे के तौर पर दे सकता था।
इस बॉन्ड को पंद्रह दिनों के भीतर कैश कराना होता था।
आम चुनावों के समय या साल में इस स्कीम को तीस दिनों के लिए फिर से लागू किया जा सकता था– यानी इसकी खऱीद-बिक्री हो सकती थी।
अदालत द्वारा इस स्कीम को असंवैधानिक कऱार देने के निर्णय के बाद अब आगे क्या होगा और भविष्य में राजनीतिक चंदों को लेकर कौन सी बेहतर व्यवस्था लागू हो जैसे प्रश्न सामने आ रहे हैं।
स्टेट फंडिग
चंदे और उसकी पारदर्शिता पर जानकार चुनाव के ख़र्च के लिए सरकार द्वारा सभी दलों को पैसे दिए जाने से लेकर, आयकर क़ानून में बदलाव और अधिक छूट, कॉरपोरेट फंडिग का ट्रस्ट (इलेक्टोरल ट्रस्ट) के ज़रिए बंटवारा और चुनाव ख़र्च की सीमा तय करने जैसे सुझाव दे रहे हैं।
हालांकि कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के डायरेक्टर और आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक कहते हैं कि सबसे पहले तो मुल्क में इसी बात को लेकर व्यापक बहस होनी चाहिए कि क्या कॉरपोरेट्स को राजनीतिक दलों को चंदा देने का अधिकार होना चाहिए?
वेंकटेश नायक इसके लिए ब्राज़ील का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इस लातिन अमेरिकी देश के चुनावी क़ानून में राजनीतिक दल कॉरपोरेट्स से चंदा नहीं ले सकते हैं।
माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने बीबीसी से बातचीत में स्टेट फंडिग का समर्थन किया। उनके अनुसार पारदर्शिता और लेवल प्लेइंग फ़ील्ड (समान अवसर) भी होगी।
उनका कहना था कि ये स्कैंडेनिविया और जर्मनी जैसे मुल्कों में लागू है।
भूटान में भी राजनीतिक दलों का चुनावी ख़र्च स्टेट देता है।
हालांकि पंजीकृत दल के सदस्य एक सीमा तक अपनी ओर से धन पार्टी को दे सकते हैं।
चुनाव में पारदर्शिता लाने के मुहिम पर काम करने वाली संस्था एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के जगदीप छोकर कहते हैं कि इसमें ज़रूरत होगी इस बात को जानने की पिछले चुनाव में किसी दल न कितना पैसा ख़र्च किया है, लेकिन क्या राजनीतिक दल अपने ख़र्च का सही लेखा-जोखा देने के लिए तैयार होंगे?
छोकर कहते हैं, ‘इसमें ये भी तय करना होगा कि राजनीतिक दल सरकार से ख़र्च लेने के बाद किसी दूसरी जगह या व्यक्ति से भी चंदा न लेता रहे।’
आयकर में अधिक छूट
सुप्रीम कोर्ट में इलेक्टोरल बॉन्ड्स के मामले पर याचिका दाख़िल करने वाले वकील शादां फऱासत कहते हैं कि राजनीतिक दलों कों चंदा देने पर कंपनियों को आयकर में जिस तरह की छूट मिलती है उसकी सीमा बढ़ाकर इसमें पारदर्शिता लाई जा सकती है।
आयकर क़ानून 1961 में किसी कंपनी को राजनीतिक दल को चंदा देने के बदले 80त्रत्रष्ट नियम के तहत छूट मिलती है।
हालांकि ये साफ़ किया गया है कि इसके लिए वही राजनीतिक दल योग्य हो सकते हैं जो पंजीकृत हों। इसके साथ ही चंदे में दी गई राशि चेक में होनी चाहिए।
इस नियम को लाने का मुख्य ध्येय ही था कि इससे राजनीतिक चंदा देने के मामले में पारदर्शिता आएगी और भ्रष्टाचार पर लगाम रहेगी।
सीताराम येचुरी कहते हैं कि कॉरपोरेट का चंदा देने का अर्थ ही रहा है कि इसके बदले में उन्हें कुछ चाहिए ,उसमें जो पारदर्शिता थी उसे ख़त्म कर दिया गया था।
ट्रस्ट के माध्यम से फंडिग
सूचना और भोजन के अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली अंजलि भारद्वाज का कहना है कि सीधे-सीधे 'क्विड प्रो क्यो' पर (कुछ पाने के एवज़ में कुछ देना) लगाम के लिए एक तरह का ट्रस्ट क़ायम हो सकता है जिसमें बहुत सारी कंपनियां या व्यक्ति धन दान करें और इसे राजनीतिक दलों में बांटा जाए।
ये व्यवस्था पहले भी काम करती रही है।
जानकार कहते हैं कि इसका फ़ायदा ये है कि इसमें ट्रस्ट को ये बताना होता है कि उसने किस दल को कितना चंदा दिया।
इलेक्टोरल बॉन्ड में चंदा देने वाले का नाम गुप्त होता था, जिससे लेन-देन का अधिक ख़तरा होता था बल्कि इस तरह से कोई भी व्यक्ति देश या विदेश से किसी राजनीतिक दल को चंदा दे सकता था और उसके बदले लाभ ले सकता था।
हिंदू बिजऩेसलाइन' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत की सबसे बड़ी इलेक्टोरल ट्रस्ट प्रूडेंट इलेक्टोरल ट्रस्ट ने अपने फंड का 71 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी को दिया था।
अख़बार के मुताबिक़ बॉन्ड्स के बाज़ार में आ जाने के बावजूद ट्रस्ट में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है।
पिछले दस सालों में इसमें 360 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ है।
ट्रस्ट का आइडिया साल 2013 में यूपीए सरकार के समय आया था।
इसके तहत कंपनियां ट्रस्ट क़ायम कर सकती थीं और जिसमें कोई व्यक्ति या कंपनी दान दे सकती थीं।
सारे चंदे डिजिटल मोड में ही हों
अंजलि भारद्वाज कहती हैं कि जब सब्ज़ी और रिक्शेवालों तक को यूपीआई से पेमेंट किया जा रहा है तो राजनीतिक दलों को पैसा कैश में क्यों?
सूचना और भोजन अधिकार कार्यकर्ता
कमोडोर लोकेश बतरा जो इस क्षेत्र में सालों से काम कर रहे हैं कहते हैं कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया भी यही चाहती थी कि सारे पेमेंट्स चेक या ड्राफ्ट से हों।
लोकेश बतरा कहते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स के तहत ज़्यादातर चंदा देने वाले बेहद अमीर लोग थे या कंपनियां।
चुनाव ख़र्च की सीमा तय हो
अमेरिका में रह रहे बतरा ने बीबीसी से फ़ोन पर कहा कि चुनाव में पारदर्शिता लाने का एक तरीक़ा होगा राजनीतिक दल के ख़र्च की सीमा तय करना और उसका सख़्ती से पालन।
एडीआर के जगदीप छोकर का तो मानना है कि राजनीतिक दलों के दस पैसे का चंदा भी अगर मिलें तो उसको देने वाले का नाम बताया जाना चाहिए।
अभी के नियमों के तहत बीस हज़ार रुपये से कम चंदा देने वालों का नाम बताने की राजनीतिक दलों को ज़रूरत नहीं है, जिसका नतीजा ये होता है कि ख़ुद को गऱीब बताने वाले राजनीतिक दलों को पास हर साल 400-600 करोड़ रुपये का चंदा इक_ा होता है, मगर वो किसी चंदे की रक़म को बीस हज़ार तक भी नहीं दिखाते।
वेंकटेश नायक कहते हैं कि कुछ देशों में इस तरह की व्यवस्था है कि वहां कोई व्यक्ति कितना चंदा दे सकता है इसके लिए सीमा निर्धारित की गई है। भारत में भी वैसी ही सीमा निर्धारित की जानी चाहिए। (bbc.com/hindi)
हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए Òcrib (पालना)’ और Òball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।
शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढऩे, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।
फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर संबंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से संबंधित हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोडिय़ों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।
मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीजों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीजों को दर्शा सकता है।
हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।
इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें छूने-पकडऩे, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
दीपाली अग्रवाल
बसंत की अलामत है और सूर्य की गर्मी दिन में तेज है परंतु सर्दी शाम को अपने अब भी होने का एहसास करवाती है। मेट्रो से बाहर निकलकर पुस्तक मेले में जा रही हूं। फोन पॉकेट में रखा है, रास्ता इतना लंबा है कि मुझे वो बीते साल याद आ गया जब इसी तरह अकेले मैं पुस्तक मेले जाया करती थी, फक़ऱ् बस इतना कि तब फोन जेब में नहीं रहता था। कितने ही साल बीते होंगे कि वो मेरा दोस्त मुझे बताता जाता था कि परवीन शाकिर की खुश्बू खोजना या साहिर की तल्खियां, जावेद अख्तर की किताब हो तो मेरे लिए भी लाना, मंटो के दस्तावेज नहीं मिल रहे बंबई में तो तुम मेले से लेना, क्या वहां कृष्णचंदर की कहानियां भी मिलेंगी? अंतरिक्ष विज्ञान की किताबें मिलें तो लेनी ही हैं। उन दिनों कई किताबें खऱीदती थी और महसूस करती कि साहित्य की ड्योढ़ी पर एक कदम और भीतर रखा है। रोज़ मेले जाती और अचरज से भरती कि मैं क्या नया लिखूंगी इन तमाम के बीच। यही सब सोचते हुए ध्यान गया कि सूरज बहुत तेज़ है, जैकेट उतारना पड़ा। फोन निकाला, मिस्ड कॉल थी, दोस्त स्टॉल पर इंतजार कर रहे हैं। दूरी अब भी बहुत है।
याद आया कि कुछ साल पहले तक कोई ऐसा चेहरा दिल्ली में नहीं था जिसके साथ मेले जाती। जो दोस्त थे उन्हें साहित्य उतना रास नहीं था और मुझे इतना भी नहीं मालूम था कि हर प्रकाशक हर किताब नहीं रखता और ना ही उनके काम करने का तरीका ही मालूम था। जैसे किसी छोटे शहर में किताब वालों की दुकानें होती हैं जिन पर कई किताबें मिलती हैं और जो किताब चाहिए वो अगले हफ्ते तक मंगवा देते हैं। कहां से मंगवाते हैं, ये तो कभी सोचा ही नहीं। पुस्तक मेला पहले ऐसे ही बुकस्टोर का मेला लगता था, जहां कहीं भी जाकर कोई भी किताब पूछी-खरीदी जा सकती है। किताब मेले घूमने के शऊर तो देरी से ही आए हैं। अब दोस्त भी हैं, इंतजार करते, साथ घूमते, मिलते, बातें करते।
इतना कुछ सोचते हॉल के भीतर आई तो पहले ही मुशायरे की आवाज सुनाई दी, बहुत देर ठहरी रही। लोग वाह-वाह कर रहे थे। फिर दोस्तों के पास पहुंची लेकिन मेले अकेले ही घूमना तय किया। शुरू की स्टॉल से आखिरी तक। शुरू में वही जहां दो सौ रूपये की हर किताब मिलती है लेकिन जो चाहिए वही नहीं मिलती। पास ही एक स्टोर पर बहुत हैवी जिल्द की किताबें थीं- रसोई से संबंधित लेकिन अंग्रेजी में, लेकिन इसलिए कि खाना बनाने का मजा जो हिंदी में है वो अंग्रेज़ी में नहीं है। जब तक छौंक, तडक़ा, हींग, लाल होने तक भूने जैसा कुछ न पता चले तो खाने का मज़ा ही नहीं आएगा। आगे हार्पर कॉलिंस है - लगभग अस्सी साल के बुजुर्ग अपनी पोती के साथ काउंटर पर खड़े हैं। एक लेखक मिले जिन्हें एक-दो पॉडकास्ट में मैंने देखा है, लोग उन्हें घेरे हुए हैं। वे इतना धीरे बोल रहे हैं कि कुछ समझ नहीं आ रहा। लेकिन इस भीड़ में तो जाने का मन नहीं है।
लोग हर साल कहते हैं कि अंग्रेजी किताबें पढऩे वालों की संख्या हिंदी वालों से बहुत अधिक है। पता नहीं कितना सच है, किताबों की बिक्री ही शायद इस बात की तस्दीक करे। पेंग्विन में किताबें देखते हुए फिर मंजुल पहुंची, यहां हिंदी की भी किताबें हैं। सेल्फ-हेल्प बुक्स जो सबसे ज़्यादा बिकती हैं, लोग इन्हीं किताबों में अपने अमीर होने के तरीके, एंग्जाइटी और डिप्रेशन के इलाज खोजते हैं, आदतों को बदलने के गुर जानते हैं।
दिल्ली में सडक़ के पास बैठने वाले किताब वाले सबसे ज़्यादा यही किताबें अपने पास रखते हैं। यहां रूमी की किताब भी है, उनकी कविताओं की किताब, एक सुंदर कवर के साथ जैसा उनकी कविताओं का रंग है ठीक वैसी ही। ऐसी ही सुंदर कवर वाली किताबें हैं इकतारा के पास। मैं अब हॉल दो में हूं, इतनी देर अंग्रेजी की किताब देखने के बाद जब हिंदी की ओर लौटी तो लगा कि अपने शहर लौट आई हूं। दैहिक रूप से भाषा में लौटना क्या होता है, इसका पता चला।
यहीं मेरे सामने कंधे पर हाथ रखे कपल जा रहे हैं, पुस्तक प्रेमी साथी मिलना घर में लाइब्रेरी बनाने जैसा है। अब एक छोटी बच्ची मेरे सामने बैठी है, मैंने उसे कुछ कविताएं सुनाने को कहा, उसने स्कूल में याद की कुछ पोएम्स सुनाईं। रात के आठ बजे हैं और मेले से निकलने का समय है। मंडी हाउस में दोस्तों का मिलना तय हुआ है। मेरे हाथ में कुछ किताबें हैं। बाहर फिर से सर्दी है, जैकेट पहनकर फोन उसकी जेब में रखा। हॉल से गेट की दूरी बहुत है।
केंद्र सरकार और किसानों के बीच गुरुवार देर रात तक चली बैठक भी बेनतीजा रही।
यह बैठक चंडीगढ़ में रात करीब डेढ़ बजे तक चली।
इस बैठक में पंजाब के मुख्यंत्री भगवंत मान के साथ केंद्र सरकार की तरफ से केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल, अर्जुन मुंडा और नित्यानंद राय शामिल हुए।
इससे पहले आठ और 12 फरवरी को किसानों और सरकार के बीच बातचीत हुई थी, जिसका भी कोई नतीजा नहीं निकला था।
किसानों ने अपनी मांगों से पीछे हटने से इंकार कर दिया था। वहीं सरकार का कहना था कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ‘हड़बड़ी में’ कोई क़ानून नहीं बनाना चाहती।
गुरुवार देर रात तक चली बैठक में मध्यस्थों ने एमएसपी समेत किसानों की दूसरी मांगों पर भी चर्चा की, लेकिन कोई सहमति नहीं बन सकी।
सरकार और किसानों के बीच चौथे दौर की बैठक को लेकर सहमति बनी है। इसके लिए रविवार का दिन तय किया गया है।
गुरुवार को सरकार और किसान प्रतिनिधियों के बीच बैठक शाम को पांच बजे होनी थी। किसान समय से पहुंच गए थे लेकिन केंद्रीय मंत्री रात आठ बजे यहां पहुंच पाए, जिसके चलते बैठक ख़त्म होने में समय लगा।
किसानों की मांगों में कर्ज माफी, नवंबर 2020 से दिसंबर 2021 के बीच दिल्ली में चले किसानों के विरोध प्रदर्शन के दौरान मारे गए लोगों के परिवार में किसी एक के लिए नौकरी, लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन के दौरान घायल हुए किसानों के लिए मुआवज़े की व्यवस्था और किसानों के खिलाफ दर्ज मामले वापिस लेना शामिल है।
बैठक के बाद किसने क्या कहा?
बैठक खत्म होने के बाद मंत्री अर्जुन मुंडा ने कहा, ‘दोनों पक्षों के बीच अच्छे माहौल में सकारात्मक चर्चा हुई है। किसान संगठनों ने जिस विषयों पर ध्यान आकर्षित किया है, उसे संज्ञान में लेते हुए हमने बैठक की अगली तारीख तय की है।’
‘रविवार शाम छह बजे हम इस चर्चा को आगे जारी रखेंगे। हमें उम्मीद है कि हम सब मिलकतर शांतिपूर्ण तरीके से इस मुश्किल का हल निकालेंगे।’
सरकार के साथ बैठक खत्म होने के बाद किसान मजदूर मोर्चा के संयोजक सरवन सिंह पंढेर ने कहा, ‘उन्होंने कहा कि हमें समय चाहिए क्योंकि हम हवा में बातचीत नहीं करना चाहते। उनकी कोई कांफ्रेंस है और फिर उन्हें मंत्रिमंडल से बात करनी है। एमएसपी का कानून, लागत का डेढ़ गुना और कर्जमाफी जैसी हमारी मांगों पर लंबी चर्चा चली है।’
‘लेकिन सोशल मीडिया पन्ने बंद करना या इंटरनेट बंद करना कोई तरीका नहीं हुआ। ड्रोन हम पर आंसू गैस के गोले बसरा रहे हैं। हमने उस पर भी अपनी बात दमदार तरीके से की है। हम नहीं चाहते कि इतना बलप्रयोग हो। हम कौन से पाकिस्तान के रहने वाले हैं? हम आपके देश के किसान हैं। लगता है कि इधर भी बॉर्डर है, उधर भी बॉर्डर है।’
‘हम चाहते हैं कि बातचीत से हल निकल जाए, हम टकराव नहीं चाहते लेकिन दिल्ली की तरफ कूच करने की योजना तो अपनी जगह है। इस पर हम शुक्रवार को अपने साथियों के साथ भी विचार विमर्श करेंगे।’
किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल ने मीडिया से कहा, ‘रविवार को अगली बैठक होगी। तब तक आंदोलन शांतिपूर्वक तरीके से चलेगा। हम अपनी तरफ से कोई छेड़छाड़ नहीं करेंगे, उधर से भी हम पर गोले नहीं चलाए जाएंगे।’
‘बैठकों का दौर शुरू हो गया है तो हम आगे नहीं बढ़ेंगे, बैठक शुरू होने के बाद हम आगे बढ़ेंगे तो फिर बैठक कैसे होगी। इसलिए हम रुकेंगे और रविवार तक का इंतज़ार करेंगे। उसके बाद ही देखेंगे क्या करना है।’
शंभू सीमा पर डटे रहे किसान
किसानों के साथ बातचीत से पहले गुरुवार को पंजाब-हरियाणा सीमा पर किसानों के पुलिस के बैरिकेड तोडक़र दिल्ली की तरफ मार्च करने की कोशिशों को रोक दिया था।
दिल्ली कूच करने वाले किसान गुरुवार को तीसरे दिन भी पंजाब-हरियाणा की शंभू सीमा पर डटे रहे। हालांकि पिछले दो दिनों की तुलना में तीसरा दिन शांत रहा।
किसानों से एक सीमा रेखा खींचकर दिनभर बैठक की। उन्होंने पहले ही घोषणा की हुई थी कि चंडीगढ़ में सरकार और किसान संगठनों के साथ होने वाली बातचीत का कोई नतीजा आने तक वो कोई कदम नहीं उठाएंगे।
शंभू सीमा पर मौजूद बीबीसी संवाददाता अभिनव गोयल ने बताया कि वहां दिन भर और खबर लिखे जाने तक शांति बनी।
उन्होंने बताया कि हरियाणा पुलिस ने किसानों को जहां रोक रखा है, उससे कऱीब 100 मीटर पहले ही किसानों ने गुरुवार सुबह एक रस्सी से बरियर बना दिया। उनका कहना था कि आज वो इससे आगे नहीं बढ़ेंगे।
किसानों ने सुरक्षाबलों से कहा, ‘आप हम पर आंसू गैस के गोले मत छोडि़ए आज हम यहां से आगे नहीं बढ़ेंगे।’
हालांकि पिछले दोनों दिन इस जगह पर किसानों और सुरक्षाबलों के बीच जमकर तनातनी हुई। सुरक्षाबलों ने किसानों को निशाना बनाकर जमकर आंसू गैसे के गोले दागे थे और रबर की गोलियां चलाई थीं।
गुरुवार को शंभू सीमा पर दिन में पूरी तरह से शांति रही। सुरक्षाबलों की तरफ से आंसू गैस के गोले नहीं छोड़े गए, लेकिन रात 10 बजे के आसपास सुरक्षाबलों एक-दो गोले हरियाणा की तरफ से छोड़े।
बीबीसी संवाददाता अभिनव गोयल ने बताया कि शंभू बॉर्डर पर किसानों की गाडिय़ों की कऱीब साढ़े तीन किलोमीटर लंबी लाइन लगी है। इस सडक़ पर गाडिय़ों की दो-तीन कतारें लगी हैं।
यहां प्रदर्शन में शामिल युवाओं ने पंजाबी गायक सिद्धू मूसेवाला के झंडे और पोस्टर लगाए हुए हैं।
किसानों ने एक गाड़ी पर अस्थायी मंच भी बना लिया है जिसके सामने 200 से 300 किसान दिन भर डटे रहे। इस दौरान किसानों और किसान नेताओं ने मंच पर से अपनी बात रखी।
पिछले दो दिनों में सुरक्षाबलों ने किसानों पर आंसू गैस के जो गोले चलाए हैं, किसानों ने उनके खाली डिब्बों को यादगार के तौर पर अपने पास रख लिया है।
यहां किसान लंगर चला रहे हैं और मिल-जुलकर खाना खा रहे हैं। एक संगठन ने भी यहां अपना लंगर लगाया है।
सुरक्षाबलों की कार्रवाई में घायल लोगों के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था भी की गई है।
सीमा पर मौजूद किसानों और किसान नेताओं का सारा ध्यान चंडीगढ़ में चल रही बैठक पर लगा था जो आधी रात के बाद भी चलती रही।
इस बैठक के नतीजे के आधार पर ही ये तय होना था कि किसानों को आगे दिल्ली की ओर कूच करना है या वापस लौट जाना है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि उसके तहत आने वाले 37 किसान समूह कि शुक्रवार को देशव्यापी हड़ताल करेंगे जिससे ‘गांवों में कामकाज ठप’ हो जाएगा।
वहीं भारतीय किसान यूनियन और दूसरे किसान संगठनों ने कहा है कि वो इसका समर्थन करेंगे और राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे लाइनों और मुख्य सडक़ों को बंद करेंगे।
किसानों की ओर से स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए भी कहा गया है। (bbc.com/hindi)
जगदीश्वर चतुर्वेदी
सवाल यह है प्रेमी युगल प्रेम के अलावा क्या करते हैं ? प्रेम का जितना महत्व है उससे ज्यादा प्रेमेतर कार्य-व्यापार का महत्व है।प्रेम में निवेश वही कर सकता है जो सामाजिक उत्पादन भी करता हो, प्रेम सामाजिक होता है, व्यक्तिगत नहीं। प्रेम के सामाजिक भाव में निवेश के लिए सामाजिक उत्पादन अथवा सामाजिक क्षमता बढ़ाने की जरूरत होती है।
प्रेम में जिसका सामाजिक उत्पादन ज्यादा होगा उसका ही वर्चस्व होगा। प्रेम करने वालों को सामाजिक तौर पर सक्षम,सक्रिय,उत्पादक होना चाहिए। सक्षम का प्रेम सामाजिक तौर पर उत्पादक होता है। ऐसा प्रेम परंपरागत दायरों को तोडक़र आगे चला जाता है।
पुरानी नायिकाएं प्रेम करती थीं, और उसके अलावा उनकी कोई भूमिका नहीं होती थी। प्रेम तब ही पुख्ता बनता है, अतिक्रमण करता है जब उसमें सामाजिक निवेश बढ़ाते हैं। व्यक्ति को सामाजिक उत्पादक बनाते हैं। प्रेम में सामाजिक निवेश बढ़ाने का अर्थ है प्रेम करने वाले की सामाजिक भूमिकाओं का विस्तार और विकास।
प्रेम पैदा करता है, पैदा करने के लिए निवेश जरूरी है, आप निवेश तब ही कर पाएंगे जब पैदा करेंगे। प्रेम में उत्पादन तब ही होता है जब व्यक्ति सामाजिक तौर पर उत्पादन करे। सामाजिक उत्पादन के अभाव में प्रेम बचता नहीं है, प्रेम सूख जाता है। संवेदना और भावों के स्तर पर प्रेम में निवेश तब ही गाढ़ा बनता है जब आप सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से उत्पादक की भूमिका अदा करें ।
प्रेम के जिस रूप से हम परिचित हैं उसमें समर्पण को हमने महान बनाया है। यह प्रेम की पुंसवादी धारणा है। प्रेम को समर्पण नहीं शिरकत की जरूरत होती है। प्रेम पाने का नहीं देने का नाम है। समर्पण और लेने के भाव पर टिका प्रेम इकतरफा होता है। इसमें शोषण का भाव है। यह प्रेम की मालिक और गुलाम वाली अवस्था है। इसमें शोषक-शोषित का संबंध निहित है।
प्रेम का मतलब करियर बना देना, रोजगार दिला देना,व्यापार करा देना नहीं है। बल्कि ये तो ध्यान हटाने वाली रणनीतियां हैं,प्रेम से पलायन करने वाली चालबाजियां हैं। प्रेम गहना,करियर, आत्मनिर्भरता आदि नहीं है।
प्रेम सहयोग भी नहीं है। प्रेम सामाजिक संबंध है, उसे सामाजिक तौर पर कहा जाना चाहिए, जिया जाना चाहिए। प्रेम संपर्क है, संवाद है और संवेदनात्मक शिरकत है। प्रेम में शेयरिंग केन्द्रीय तत्व प्रमुख है। इसी अर्थ में प्रेम साझा होता है,एकाकी नहीं होता। सामाजिक होता है ,व्यक्तिगत नहीं होता।
प्रेम का संबंध दो प्राणियों से नहीं है बल्कि इसका संबंध इन दो के सामाजिक अस्तित्व से है। प्रेम को देह सुख के रूप में सिर्फ देखने में असुविधा हो सकती है। प्रेम का मार्ग देह से गुजरता जरूर है किंतु प्रेम को मन की अथाह गहराइयों में जाकर ही शांति मिलती है, प्रेमी युगल इस गहराई में कितना जाना चाहते हैं उस पर प्रेम का समूचा कार्य -व्यापार टिका है। प्रेम का तन और मन से गहरा संबंध है, इसके बावजूद भी प्रेम का गहरा संबंध तब ही बनता है जब आप इसे व्यक्त करें, इसका प्रदर्शन करें। प्रेम बगैर प्रदर्शन के स्वीकृति नहीं पाता। प्रेम में स्टैंड लेना जरूरी है।
राजकुमार मेहरा
अभी गुजरे ्यद्बह्यह्य ष्ठड्ड4 के उपलक्ष्य में, मैं आपका परिचय करीब 440 वर्ष पुरानी एक कविता से कराने जा रहा हूँ जिसकी रचना केशव ने की थी। आचार्य केशवदास का जन्म 1555 ईस्वी में ओरछा में हुआ था। वे रीतिकाल की कवि-त्रयी के एक प्रमुख स्तंभ हैं। इन्होंने ब्रज भाषा में रचना की।
यद्यपि ये संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे तथापि उनकी भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है जिसमें बुन्देली, अवधी और अरबी-फारसी शब्दों का समावेश है।
इन्होंने अपनी रचना के एक छंद में नायक-नायिका के बीच प्रेम और चुंबन का बड़े ही दिलचस्प अंदाज में चित्रण किया है ।
नायिका साफ-साफ (और चतुराई से भी) अपने प्रेमी से कह रही है-
मैं तुम्हारी सभी गलतियों को बर्दाश्त कर लूंगी, पर तुमने पान खिलाकर, मेरे अमृत जैसे होठों का रसपान किया है, इसके लिए माफ नहीं करूंगी । अगर तुम चाहते हो कि मेरा तुम्हारा संबंध ठीक बना रहे, तो इसके लिए यही शर्त है कि तुम भी अपना मुख मुझे चूमने दो, नहीं तो मैं जाकर तुम्हारी शिकायत कर दूंगी ।
सवैये का सौन्दर्य देखिये:
तोरितनी टकटोरि कपोलनि, जारिरहे कर त्यों न रहौंगी।
पान खवाइ सुधाधर प्याइकै, पांइ गयो तस हौ न गहौंगी।
केसव चूक सबै सहिहौं, मुख चूमि चलै यह पै न सहौंगी।
कै मुख चुमन दै फिरि मोहि कि आपनि धाय से जाय कहौंगी।
चूंकि रस्मे दुनिया भी है, मौका भी है, दस्तूर भी है... तो मैं भी इस शुभ अवसर पर अपनी सभी अतीत, वर्तमान और भविष्य की प्रेमिकाओं को सादर अनंत स्नेहसिक्त आलिंगन, चुम्बन व शुभाकांक्षा प्रेषित करता हूं।
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
पंडित जटाशंकर अपना माथा पकडक़र बैठ गए। खिन्न होकर बोले, ‘ये पांच बार ‘तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ’ लिखने वाली लडक़ी कौन है जो हमारी बहू बनना चाह रही है?’
‘अपने पड़ोसी गप्पू कसेर की लडक़ी है।’
‘हे प्रभु भोलेनाथ, रक्षा करो। कैसे संकट में पड़ गया मैं? मेरी रक्षा करो। मैं पहले से जानता था कि सिनेमा देख-देख कर हमारा लडक़ा कोई गुल खिलाएगा। एक दिन छत में मैंने उसे गाना बजाते देखा था तब ही मुझे सावधान हो जाना था। मुझे यह अनुमान नहीं था कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर यह मूर्ख लडक़ा किसी कसेरन बहू को घर लाने की बात सोचेगा?’
‘पर ये विवाह कैसे होगा? नीची जाति की बहू आ गई तो हमारी दोनों बेटियों को कौन ब्राह्मण परिवार अपने घर की बहू बनाएगा?'
‘वह तो है। कैसे अपना मुंह दिखाऊंगा मैं समाज को? प्रभु, कोई राह दिखाओ।' पंडित जटाशंकर की आँखों से टप-टप आंसू बहने लगे। कुछ देर में जटाशंकर शांत हुए तो बोले, ‘आने दो कृपा को घर में, हड्डी-पसली तोडक़र उसके इश्क का भूत उतारता हूँ।’
‘तनिक समझदारी और शांति से काम लो जी। बात अगर बिगड़ी तो और बिगड़ जाएगी। चि_ी में पढ़े नहीं क्या? दोनों एक-दूसरे के लिए जहर खाकर मरने को उतारू हैं! अपना एक अकेला लडक़ा है, कुछ कर लिया तो?’
‘तो उसकी आरती उतारूँ? मोहल्ले में प्रसाद बंटवा दूं?’
‘कुछ दिन चुप रहो, कोई रास्ता अवश्य निकलेगा। भोलेनाथ अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं, वे कुछ करेंगे। मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, तुम कृपा से कुछ न कहना।’
‘कुछ न कहना, तुम्हारी इसी छूट ने लडक़े को नष्ट किया है, अब फिर कह रही हो, कुछ न कहना।’
‘तुम अभी गुस्से में हो। बैठे तुम्हारे लिए नींबू का शरबत बनाती हूँ, पी लो, फिर बाद में देखेंगे।’ पंडिताइन बोली।
पंडित जटाशंकर के जिगरी दोस्त थे, अनोखेलाल, जिनकी कोतवाली रोड पर कपड़े की दूकान थी। शाम के समय दोनों की बैठक होती, सप्ताह में छ: दिन अनोखे लाल की दूकान में और मंगलवार को पंडित जटाशंकर के घर में। समाज और राजनीति की चर्चा होती, घर-परिवार की बात होती। आज गुरूवार है, बैठक ज़ारी है लेकिन पंडित जटाशंकर चुप-चुप से बैठे हैं। अनोखेलाल ने पूछा, ‘आज मुंह में दही जमाये बैठे हो पंडित?’
‘क्या बताऊँ? तुमसे मेरा कुछ भी छुपा नहीं है लेकिन बात ऐसी है कि बताने की हिम्मत नहीं हो रही है।’ जटाशंकर बोले।
‘अरे, हमसे कैसी पर्देदारी? क्या हुआ महाराज?’
‘लडक़ा गलती कर बैठा है, पड़ोस की एक लडक़ी के चक्कर में फंस गया है।’
‘लडक़ा कितने साल का हो गया है?’
‘अठारह का हो गया है।’
‘तो ब्याह कर दो उसका, इसमें समस्या क्या है?’
‘कसेर की लडक़ी है, भैया अनोखेलाल।’
‘अरे बाप रे!’
‘वही तो बात है। मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है।’
‘रुको, मुझे सोचने दो।’
‘सोचो यार, कुछ सोचो और मुझे इस संकट से उबारो।’
‘ठीक है, मंगल को मेरी दूकान बंद रहती है, उस दिन फुर्सत रहती है। तब तक कोई उपाय सोचता हूँ। तुम चिंता न करो। और हाँ, लडक़े को कुछ न कहना, मैं घर आकर उससे बात करूंगा।’ अनोखेलाल ने पंडित जी को आश्वस्त किया। (क्रमश:)
(उपन्यास ‘मद्धम मद्धम’ का एक अंश)
विनीत खरे
ऐसे वक़्त जब लोकसभा चुनाव की घोषणा होने में कुछ ही हफ़्ते रह गए हैं, पूर्व कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने आने वाले राज्यसभा चुनाव के लिए राजस्थान से अपना नामांकन पत्र दाखिल किया है।
साल 2004 से सोनिया गांधी लोकसभा में रायबरेली का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
ये फ़ैसला ऐसे वक़्त आया है जब पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर हैं और इस यात्रा की टाइमिंग को लेकर आलोचना हो रही है, ओपिनियन पोल्स में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार तीसरी बार लोकसभा चुनाव में जीत की भविष्यवाणी की जा रही है, एक के बाद एक कांग्रेस नेताओं का पार्टी छोडऩा जारी है और विपक्षी इंडिया अलायंस की पार्टियों के बीच सीटों पर तालमेल को लेकर सवाल उठ रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन ने सोनिया गांधी के फ़ैसले को ‘एक युग का अंत’ बताया, और कहा कि ये फ़ैसला कांग्रेस और विपक्ष के लिए ‘नुक़सान’ है।
वो कहती हैं, ‘न सिफऱ् कांग्रेस, बल्कि विपक्ष के लिए भी सोनिया गांधी का लोकसभा में रहना हौसला बढ़ाने वाला था। वो विपक्ष की ओर से अपनी बात रखती थीं। ये फ़ैसला उन्हें सीधी चुनावी राजनीति से ऐसे वक़्त दूर ले जाएगा जब कांग्रेस का पतन हो रहा है।’
तो रायबरेली से चुनाव मैदान में कौन?
अख़बार हिंदुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक विनोद शर्मा कहते हैं, ‘उनकी उम्र 77 साल की है। वो सीधे चुनाव से ख़ुद को दूर कर रही हैं, ऐसे वक़्त जब उनकी तबीयत ठीक नहीं है। रायबरेली जीतना आसान नहीं है और इसके लिए उन्हें कैंपेन में ज़ोर लगाना पड़ता, इसलिए बेहतर है कि ये काम किसी युवा पर छोड़ दिया जाए।’
याद रहे कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार है।
मीडिया कयासों की मानें तो सोनिया गांधी की जगह उनकी बेटी और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली से कांग्रेस उम्मीदवार हो सकती हैं, हालांकि पार्टी की ओर से इस बारे में अभी कुछ नहीं कहा गया है।
वरिष्ठ पत्रकार जावेद अंसारी कहते हैं, ‘मुझे साफ़ याद है कि 1999 में जब पहली बार सोनिया गांधी ने अमेठी से चुनाव लड़ा था तो ये प्रियंका ही थीं जिन्होंने चुनाव का सारा कामकाज संभाला था। तो संभावना यही है कि हम चुनावी राजनीति में प्रियंका गांधी की शुरुआत देख सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि प्रियंका को कोई समस्या होगी। आम लोगों के साथ उनका जुड़ाव है, उनका लोगों से बातचीत करने का तरीका ज़बरदस्त है और वो उस इलाके में काफ़ी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपने भाई और मां के लिए कई चुनावों में काफ़ी कैंपेन किया है।’
‘राजनीति से रिटायर नहीं हो रही’
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफ़ेसर और राजनीतिक विश्लेषक ज़ोया हसन कहती हैं, ‘उन्हें पार्टी के लिए जो करना था वो किया। उन्होंने कांग्रेस को पुनर्जीवित किया, वो कांग्रेस को सत्ता में लेकर आईं, उन्होंने गठबंधन बनाया, वो 20 साल कांग्रेस प्रमुख रहीं। उन्होंने सालों पार्टी को एकजुट रखा, अब वो परिवार के सदस्यों और दूसरे लोगों के लिए जगह छोड़ रही हैं, और उन्हें ये फ़ैसला लेने का हक़ है कि क्या वो अगला चुनाव लडऩा चाहती हैं या नहीं।’
वो कहती हैं, ‘मुझे नहीं लगता है कि वो कोई राजनीतिक सिग्नल दे रही हैं। वो राजनीति से रिटायर नहीं हो रही हैं। वो शायद पार्टी की ऐक्टिव लीडरशिप की भूमिका छोड़ रही हैं लेकिन वो पार्टी को एकजुट रखने वाली महत्वपूर्ण नेता रहेंगी।’
सोनिया गांधी के राज्यसभा से नामांकन भरने पर भाजपा नेता अमित मालवीय ने ट्वीट किया, ‘अमेठी में कांग्रेस की करारी हार के बाद अगला नंबर रायबरेली का है। सोनिया गांधी का राज्य सभा से (नामांकन भरने का) फ़ैसला करना मंडरा रही हार की स्वीकारोक्ति है। गांधी परिवार ने अपने माने जाने वाले गढ़ों को छोड़ दिया है। समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को 11 सीट देने के बावजूद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत पाएगी।’
वरिष्ठ पत्रकार सुषमा रामचंद्रन इससे सहमत नहीं हैं कि अगर सोनिया गांधी फिर रायबरेली से चुनाव लड़तीं तो हार जातीं वहीं ज़ोया हसन मानती हैं कि कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में स्थिति बहुत खऱाब है।
वो कहती हैं, ‘कांग्रेस के लिए रायबरेली एकमात्र सीट थी जो पार्टी को मिल रही थी। मुझे नहीं लगता कि उनका रायबरेली से हटना किसी मंडराती हार का संकेत है। वो वहां से अगर जीत भी जातीं तो उससे कांग्रेस को मदद नहीं मिलती। पूर्व के दो, तीन चुनाव में उनकी जीत से कांग्रेस को मदद नहीं मिली है।’
राजस्थान से नामांकन भरने में क्या है संदेश?
सोनिया गांधी पहली बार अमेठी से 1999 में सांसद बनीं। ये वही सीट है जहां से कभी उनके पति राजीव गांधी चुनाव लड़ते थे। साल 2004 में उन्होंने रायबरेली का रुख़ किया और अमेठी सीट से राहुल गांधी ने चुनाव लड़ा।
राज्य सभा के रास्ते संसद पहुंचने वाली सोनिया नेहरू-गांधी परिवार की दूसरी सदस्य होंगी।
उनकी सास और पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी साल 1964 से 1967 तक राज्यसभा की सदस्य थीं। बाद में उन्होंने रायबरेली से चुनाव लड़ा।
आज के कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को लें तो पार्टी अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद मल्लिकार्जुन खडग़े कर्नाटक से हैं, जबकि राहुल गांधी केरल के वायनाड से सांसद हैं।
राजस्थान से सोनिया गांधी के राज्यसभा आने की वजह पर विनोद शर्मा कहते हैं, ‘ये सीट मनमोहन सिंह खाली कर रहे हैं। वो एक वरिष्ठ नेता हैं और सोनिया गांधी उनकी जगह ले रही हैं। इसलिए ये उम्र और व्यवहारिक राजनीति दोनों का मिश्रण है। और ये एक उत्तर भारतीय राज्य है। कांग्रेस के ज़्यादातर नेता जैसे खडग़े, राहुल गांधी, केसी वेणुगोपाल दक्षिण से हैं। सोनिया गांधी हिमाचल प्रदेश से भी चुनी जा सकती थीं लेकिन उन्होंने राजस्थान को चुना।’
साल 2019 के लोकसभा चुनावों को याद करें तो उत्तर भारत में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खऱाब रहा था।
राहुल गांधी अमेठी का चुनाव हार गए थे। उन्हें भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री स्मृति इरानी ने हराया था।
कई महत्वपूर्ण राज्य जैसे दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि में कांग्रेस खाता तक नहीं खोल पाई थी।
ऐसे में माना जा रहा है कि राजस्थान से सोनिया गांधी के राज्यसभा जाने से कांग्रेस ये संदेश देना चाह रही है कि उत्तर भारत को उसने छोड़ा नहीं है।
‘कांग्रेस के लिए अच्छा फ़ैसला नहीं’
यहां जानकार ये भी याद दिलाते हैं कि जब मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री थे तब भी वो राज्यसभा के सदस्य थे और आज भी भाजपा के कई वरिष्ठ नेता राज्यसभा से सांसद हैं लेकिन पत्रकार सुषमा रामचंद्रन की मानें तो सोनिया गांधी का ये फ़ैसला कांग्रेस के लिए अच्छा फैसला नहीं है।
वो कहती हैं, ‘ये सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने विपक्षी नेताओं की ओर हाथ बढ़ाया और उन्हें साथ लेकर आईं। राहुल गांधी की वो पहुंच नहीं है। सोनिया गांधी की तरह वो क्षेत्रीय नेताओं को एक बैनर के नीचे नहीं ला पाए हैं।’
‘सोनिया गांधी को भी समस्याएं आईं लेकिन राहुल गांधी के मुक़ाबले विपक्षी नेताओं के बीच उनकी लोकप्रियता कहीं ज़्यादा थी। ये सोनिया गांधी ही थीं जिन्होंने यूपीए की सरकारों को चलाया। राहुल गांधी ऐसा नहीं कर पाए हैं।’
लंबा कार्यकाल
सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद पर रहते रोजग़ार गारंटी योजना, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, सूचना का अधिकार जैसे फ़ैसले लिए गए।
उनके अध्यक्ष रहते, देश में पहली बार महिला राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल और लोकसभा की पहली दलित महिला अध्यक्ष मीरा कुमार बनाई गईं।
महिलाओं के आरक्षण का बिल भी उनके कार्यकाल में पेश हुआ। उन्होंने दो गठबंधन सरकार बनाने में कामयाबी पाई।
यूपीए-1 और 2 के दौरान उन्हें बहुत ताक़तवार माना जाता था और आरोप लगते थे कि असली सत्ता उन्हीं के पास थी।
इस वजह के अलावा विभिन्न कथित भ्रष्टाचार के मामलों को साल 2014 में यूपीए सरकार के अंत का कारण माना जाता है।
सामाजिक और राजनीतिक विज्ञानी ज़ोया हसन कहती हैं, ‘यह कांग्रेस में एक युग का अंत है। सोनिया गांधी 25 साल अपनी पार्टी में शीर्ष पर रहने के बाद लोकसभा से हट रही हैं। यह पार्टी में शीर्ष नेतृत्व में हो रही एक पीढ़ी के बदलाव का संकेत है।’
वो कहती हैं, ‘उनका भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय स्थान है, यह ग़ैर भारतीय मूल का होने की वजह से और भी अहम है। यह हाल के राजनीतिक इतिहास के एक सबसे असाधारण करियर में से है।’ (bbc.com/hindi)
जगदीश्वर चतुर्वेदी
प्रेम महाकाव्य है।सभ्यता है। आम तौर पर निजी प्रेम बताने में लोग डरते हैं।मैं नहीं डरता।प्रेम करता हूँ तो बताता भी हूँ।जिससे करता हूँ उससे कहता भी हूँ।प्रेम का मतलब शरीर भोग नहीं है।आमतौर पर लोग प्रेम माने सेक्स के ही लेते हैं, ऐसे लोगों के लिए सेक्स ख़त्म तो प्रेम ख़त्म।सेक्स को प्रेम की पहली और आखऱिी सीढ़ी मानने वाले लोग प्रेम को नहीं जानते,बल्कि वे प्रेम के बारे में डिस-इन्फॉर्मेशन फैलाते हैं। दुख पाते हैं।
प्रेम तात्कालिक नहीं बल्कि दीर्घकालिक होता है।उसे आप कभी भूलते नहीं हैं। प्रेम कभी एक से नहीं होता, बल्कि मनुष्य अपने जीवन में अनेक लोगों से प्रेम करता है।प्रेम का अर्थ सिफऱ् प्रेमिका बनाना नहीं है।प्रेमिका बनाते ही प्रेम ख़त्म हो जाता है।प्रेम के लिए व्यक्ति के रुप में देखना सीखें,व्यक्ति की तरह आचरण करें।व्यक्ति की तरह आचरण करना अभी अधिकांश लोग सीख ही नहीं पाए हैं।प्रेमिका-प्रेमी के रुप में न देखकर व्यक्ति के रुप में एक-दूसरे को देखें।
प्रेमिका -प्रेमी तो बंधन है। जबकि प्रेम को बंधन नहीं चाहिए,उसे सिफऱ् प्रेम चाहिए।हमारे समाज में प्रेम पर खुलकर बातें करने से शिक्षित लोग संकोच करते हैं।अपने संकोच पर विभिन्न कि़स्म के पर्दे डाले रखते हैं।प्रेम को पर्दों की नहीं प्रेम की जरुरत है।अभिव्यक्ति की जरुरत है।जो अभिव्यक्त न किया जा सके, वह प्रेम नहीं है।निस्संकोच जीना, अभिव्यक्ति के लिए सभ्यता के बेहतर आयाम विकसित करना प्रेम है। प्रेम माने कलह या संपत्ति प्रेम नहीं है।
प्रेम में जब दाखिल होते हैं तो जीवन में सभ्यता का एक नया पाठ्यक्रम शुरु होता है।प्रेम माने सभ्यता का विकास है।प्रेम शुरु जरुर शारीरिक आकर्षण से होता है लेकिन वह सिफऱ् शरीर तक बंधा नहीं है।प्रेम का प्रवाह सभ्यता के विकास को जन्म देता है।प्रेम में कुछ लोग जीवनभर के लिए बंध जाते हैं.बंध जाना, शादी करना एक काम है।
लेकिन प्रेम का यह दायरा बाँध देता है।प्रेम को दायरे पसंद नहीं है।प्रेम कोई काम नहीं है कि कर लिया जाए, वरना उम्र निकल जाएगी।प्रेम की कोई उम्र नहीं होती।हर व्यक्ति एक से अधिक व्यक्तियों से प्रेम करता है।व्यक्ति कभी एक से प्रेम करके जि़ंदा नहीं रह सकता।
प्रेम अनुभूति है।वह सामाजिक, पारिवारिक या शारीरिक बंधन नहीं है।प्रेम को अनुभूति का अंग बनाने से सभ्यता के नए जीवन मूल्य जीवन में दाखिल होते हैं।प्रेम पुराने जीवन मूल्यों को त्यागने के लिए मजबूर करता है।पुराने जीवन मूल्यों से लड़े बग़ैर किया गया प्रेम बड़ा दुखदाई होता है।आमतौर पर प्रेम करने वाले पुराने जीवन मूल्यों से बंधे रहते हैं और प्रेम करते हैं।
प्रेम को जीने का अर्थ है बंधनों से मुक्ति,पुराने मूल्यों ,आदतों और संस्कारों से मुक्ति।प्रेम में मुक्ति या स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण तत्व है।प्रेम बंधन मुक्त करता है,स्वतंत्रता का मूल्य पैदा करता है।प्रेम में शक-संदेह के लिए कोई जगह नहीं है।जो लोग प्रेम करते हुए एक-दूसरे पर शक-संदेह करते हैं,वे असल में प्रेम के ख़िलाफ़ काम कर रहे होते हैं।
प्रेम सभ्यता है,अनुभूति है और स्वतंत्रता है।उसमें बंधन ,शक-संदेह ,रिश्तेदारी आदि नहीं आते। रिश्तेदारियाँ हमें बंधनों में बांधती हैं।प्रेम हमें रिश्तेदारियों के बाहर एक नए सामाजिक संसार में ले जाता है।जिसमें देने का भाव प्रमुख है, पाने का भाव प्रमुख नहीं है।जो दे नहीं सकता, वह पा नहीं सकता।यही वह बुनियादी परिप्रेक्ष्य है जिसे लेकर मैं आज तक प्रेम करता रहा हूँ।
प्रेम कभी ठंडा नहीं होता।प्रेम कभी बूढ़ा नहीं होता।प्रेम में अपार ऊर्जा है।प्रेम का अर्थ बुद्धिहरण ,विवेकहीनता या अंधानुकरण नहीं है।प्रेम की सत्ता का आधार है व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वतंत्र अस्मिता।प्रेम तब ही सार्थक होता है जब वह सभ्य, अनुभूति प्रवण और मन को बंधन मुक्त करे।प्रेम एक घटना मात्र नहीं है बल्कि वह तो एकदम नया सिस्टम है,नई व्यवस्था है जिसे व्यक्ति अपने अंदर विकसित करता है।
प्रेम की व्यवस्था का विकास करने के लिए पुराने सिस्टम के बाहर निकलना,उसके लिए संघर्ष करना, नए बंधन रहित सभ्य जीवन मूल्यों को सचेत रुप से अर्जित करना बुनियादी शर्त है।प्रेम को पुराने सामाजिक ढाँचे में फिट करके, पुराने सामाजिक मूल्यों में थेगड़ी लगाकर नहीं जी सकते। प्रेम के विकास के लिए पुराने का अंत करना बेहद जरुरी है।पुराने संबंध बंधन में बांधते हैं।प्रेम तो बंधन मानता ही नहीं है।
आमतौर पर प्रेम करते समय व्यक्ति व्यापारी की तरह मुनाफे-नुकसान का हिसाब लगाता है, क्या लाभ होगा,क्या नुक़सान होगा।क्या मिलेगा, क्या जाएगा, इन सब पर ध्यान देता है, सोचने का यह तरीक़ा प्रेम विरोधी है।प्रेम करते समय इस तरह की व्यापारिक बुद्धि से बचना चाहिए।प्रेम करना संपत्ति -शोहरत पाना नहीं है।प्रेम तो इन सबके दायरे के बाहर ले जाता है। जो लोग संपत्ति-शोहरत-ओहदा देखकर प्रेम करते है वे प्रेम का सौदा करते हैं।प्रेम सौदा नहीं है।ओहदा -शोहरत और सौदा ये तीनों चीजें प्रेम का अंत कर देती हैं।प्रेम करने लिए पुराने सिस्टम से स्वयं को निकालना बेहद जरुरी है।पुराने सिस्टम में रहकर ,उसके जीवन मूल्यों को जीकर प्रेम नहीं मिलता,सिर्फ बेजान शरीर मिलता है।
डॉ. संजय शुक्ला
राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी ‘एनटीए’ द्वारा जेईई - मेन्स का रिजल्ट घोषित करने के बाद देश के कोचिंग तीर्थ ‘कोटा’ से दर्दनाक खबर आई कि वहां छत्तीसगढ़ के सूरजपुर के 16 वर्षीय छात्र शुभ चौधरी ने हॉस्टल के पंखे से लटक कर अपनी जान दे दी। अलबत्ता कोचिंग हब कोटा में मेडिकल और इंजीनियरिंग के दाखिले की तैयारी कर रहे स्टूडेंट्स द्वारा खुदकुशी की यह पहली घटना नहीं है बल्कि इस साल बीते डेढ़ महीने में चार छात्रों ने पढ़ाई या प्रतिस्पर्धा के दबाव अथवा अन्य वजहों से खुदकुशी कर ली है। आंकड़ों के मुताबिक कातिल कोटा में बीते साल 2023 में 29 छात्रों ने मौत को गले लगा लिया था। गौरतलब है कि राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग हब के रूप में है जहां देश के विभिन्न हिस्सों के छात्र अपने अभिभावकों के सपनों को पूरा करने क?ई अरमान लिए मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले की तैयारी के लिए इस शहर में आते हैं।
कोटा शहर में मेडिकल और इंजीनियरिंग में दाखिले की तैयारी के लिए बड़े-बड़े कोचिंग इंस्टीट्यूट हैं जो देश भर में अखबारी विज्ञापनों और होर्डिंग इश्तेहारों जरिए इन कॉलेजों में सौ फीसदी दाखिले की गारंटी देकर अभिभावकों और बच्चों को सपने बेचते हैं। विज्ञापनों का मायाजाल इतना कि माता-पिता अपने बच्चों की क्षमता और अभिरुचि जाने बिना ही उन पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ लादकर इस अनजान शहर में भेज देते हैं जहां की भीड़ में हजारों बच्चों की पहचान सिर्फ एक उपभोक्ता की होती है। अलबत्ता कोटा में बच्चों के खुदकुशी के बढ़ते मामलों पर देश के शिक्षाविद और समाजशास्त्री सभी चिंतित हैं जिन्होंने बीते साल सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इन हादसों के लिए कोचिंग संस्थानों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्याओं के लिए कोचिंग सेंटर्स नहीं बल्कि अभिभावकों के दबाव को जिम्मेदार ठहराया था।अदालत ने कहा था कि माता-पिता अपने बच्चों से उनकी क्षमता से ज्यादा उम्मीद लगा लेते हैं फलस्वरूप बच्चे प्रतिस्पर्धा के दबाव में आत्मघाती कदम उठा रहे हैं। अदालत ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर भी टिप्पणी किया था।
बहरहाल कोटा शहर में बच्चों के आत्महत्या के मामलों पर गौर करें तो पुलिसिया आंकड़ों के मुताबिक बीते दस सालों में कोचिंग लेने वाले लगभग 150 से ज्यादा छात्रों ने खुदकुशी की है। गुजरे साल 2023 में 29 छात्रों ने आत्महत्या की जो बीते 8 सालों के दौरान सर्वाधिक है। कोटा पुलिस के अनुसार साल 2015 में 17, साल 2016 में 16,साल 2017 में 7, साल 2018 में 20 तथा 2019 में 8 छात्रों द्वारा खुदकुशी के मामले दर्ज किए गए थे। बहरहाल यह आंकड़े अपने माता -पिता के ‘स्टेटस टैग’ बरकरार रखने के जद्दोजहद में जान देने वाले उन बच्चों के अभिभावकों के लिए नसीहत है जो अपनी अपेक्षाओं और जिद्द का जबरिया बोझ बच्चों पर लाद रहे हैं। भारत युवा राष्ट्र है जहां युवाओं की आबादी पूरी दुनिया में सर्वाधिक है लेकिन विचलित करने वाली बात यह कि इस जनसंख्या का बड़ा हिस्सा निराशा और अवसाद से ग्रस्त होकर खुदकुशी के लिए विवश हो रहा है। दुखद यह कि उस भारत की तस्वीर है जिसके युवा पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 'एनसीआरबी' के अनुसार देश में आत्महत्या के कुल मामलों में 40 फीसदी संख्या 18 से 35 साल के युवाओं की है। अलबत्ता छात्रों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं केवल कोटा शहर में ही नहीं हो रही है बल्कि देश के अनेक आईआईटी, मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी ऐसी घटनाएं लगातार हो रही है।जानकारी के मुताबिक बीते आठ बरसों में आईआईटी जैसे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षा संस्थानों में 35 छात्रों ने आत्महत्या की है।एनसीआरबी के रिपोर्ट के मुताबिक छात्रों की आत्महत्या का आंकड़ा 2021से हर साल 13 हजार के उपर बना हुआ है और यह 4 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। साल 2017 से 2021के बीच छात्रों आत्महत्या के मामले में 32 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है।अपनी मेहनत, काबिलियत और कठिन इम्तिहान के जरिए इन संस्थानों में दाखिला लेने वाले प्रतिभाएं जिनके सामने देश और विदेश में आकर्षक नौकरियों की कतार है वे जिंदगी का जंग क्यों हार रहे हैं ? इस सवाल का हल सरकार और समाज को ढूंढना ही होगा। आखिरकार यह देश के सबसे बड़े वर्कफोर्स से जुड़ा मसला है।
छात्रों द्वारा किए जा रहे खुदकुशी के आंकड़े सिर्फ एक संख्या भर नहीं है बल्कि यह इकलौते संतान वाले परिवारों के लिए दुख का पहाड़ है। मनोविज्ञानियों की मानें तो अनावश्यक प्रतिस्पर्धा के दौर में अधिकांश छात्र अवसाद और कुंठा से घिर रहे हैं। अभिभावकों की इच्छा पर कोचिंग फैक्ट्री में दाखिला लेने वाले छात्र भावनात्मक सहयोग और संवाद के अभाव में मौत को गले लगा रहे हैं। अलबत्ता हाल के बरसों में बेरोजगार युवाओं के भी खुदकुशी के आंकड़े बढ़े हैं। छात्रों द्वारा किए जा रहे आत्महत्या के कारणों पर गौर करें तो इसके लिए मुख्य रूप से गलाकाट प्रतिस्पर्धा, बच्चों से अभिभावकों की बढ़ती अपेक्षा,शिक्षा में असमानता, भाषा की अड़चन, संसाधनों की कमी, सिलेबस का बोझ, फैकल्टी के साथ संवाद में कमी, मनोविज्ञानियों की अनुपलब्धता,जातिगत व लैंगिक भेदभाव और आर्थिक व सामाजिक विषमता, बेरोजगारी , पारिवारिक समस्या और नशाखोरी जैसी परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। गौरतलब है कि बीते दो दशक के दौरान प्रोफेशनल कोर्सेज में गलाकाट प्रतिस्पर्धा बढ़ी है वहीं महानगरों से लेकर छोटे शहरों में इन कोर्सेज में प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थान भी बड़ी संख्या में खुले हैं। भारत में कोचिंग अब एक उद्योग का स्वरूप ले चुका है जिसका बाजार लगभग साढ़े पांच लाख करोड़ का है।
राजस्थान के कोटा शहर की पहचान पूरे देश में कोचिंग राजधानी के तौर पर है जहां विभिन्न हिस्सों से छात्र मेडिकल और इंजीनियरिंग कोर्सेज में दाखिला का अरमान लेकर यहां आते हैं। आंकड़ों के मुताबिक कोटा के विभिन्न संस्थानों में रिकॉर्ड दो लाख छात्र नामांकित हैं और दाखिला परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच विचारणीय है कि कुछ अभिभावक अपने ‘स्टेटस टैग’ बरकरार रखने और कुछ अपने बच्चों को यह टैग हासिल करवाने के लिए यहां की भीड़ में छोड़ जाते हैं। विडंबना है कि अभिभावक अपने बच्चों की प्रतिभा और अभिरूचियों की आंकलन की जगह अपनी अपेक्षाओं को उनके उपर लाद रहे हैं। जबरिया अपेक्षाओं का बोझ लादे बच्चे अनजान शहर और परिवेश में अपने आपको ढाल नहीं पा रहे हैं फलस्वरूप परीक्षा में असफल होने और पालकों के अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाने के के डर और आत्मग्लानि में बच्चे अवसाद ग्रस्त होकर खुदकुशी कर रहे है। बेहतर होगा कि अभिभावक अपने बच्चों को पर्याप्त समय दें तथा अपनी अपेक्षाएं लादने के बजाय बच्चे के हुनर और योग्यता को प्रोत्साहित करें।
मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक आत्महत्या के लिए अवसाद यानि डिप्रेशन सबसे बड़ा कारण है। सामान्य तौर पर खुद मनोरोगी और अभिभावक या परिजन मानसिक रोग के लक्षणों और कारणों से अनजान रहता है। पढऩे वाले बच्चों के मामले में अभिभावकों की जवाबदेही है कि वे अपने बच्चों में अवसाद के लक्षण को तुरंत पहचानें और मनोरोग विशेषज्ञों से परामर्श लें। आमतौर पर अवसाद के मुख्य लक्षण बार- बार गुस्सा या दुखी होकर रोना, झूठ बोलना, अपराध बोध, असंतुष्टि, पारिवारिक और सामाजिक गतिविधियों में अरूचि, अनिद्रा या बहुत नींद आना, बेचैनी,वजन घटना या बढऩा, एकाग्रता का आभाव, अकेले रहना और बार-बार खुदकुशी के बारे में ख्याल आना है। अवसाद के उपचार में काउंसिलिंग, पारिवारिक और भावनात्मक लगाव, खेल और मनोरंजन गतिविधियों में शामिल होना, मादक पदार्थों का त्याग और व्यायाम, योग, ध्यान और प्रार्थना जैसे उपाय कारगर हैं।
छात्रों में बढ़ रहे खुदकुशी के मामलों पर कोचिंग संस्थानों को भी बहुत ज्यादा सजग और संवेदनशील होने की आवश्यकता है। सरकार को इन संस्थानों में अनिवार्य रूप से काउंसलर्स की उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए जरूरी उपाय सुनिश्चित करना चाहिए।
इसके अलावा संस्थान की जवाबदेही है कि वे बच्चों के साथ निरंतर संवाद करे और जिन बच्चों में अवसाद के लक्षण मिल रहे हैं उनके संबंध में अतिरिक्त सावधानी बरतते हुए अभिभावकों को सूचित करें। प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जिंदगी का जंग हारने के पीछे एक अहम कारण हमारी स्कूली शिक्षा भी है जिस पर सरकार को गंभीरता पूर्वक विचार करना होगा। देश में शिक्षा में व्यापक असमानता है जो अमीरी और गरीबी के बीच बंटी हुई है। एक ओर बदहाल सरकारी स्कूल हैं जहां शिक्षा से संबंधित मानव संसाधन और बुनियादी सुविधाओं का आभाव ह वहीं दूसरी ओर साधन संपन्न पांच सितारा निजी स्कूल हैं जहां के बच्चे आज की प्रतिस्पर्धा के लिए पहले से ही तैयार हैं। सरकार और समाज को शिक्षा के इस असमानता को दूर करना चाहिए ताकि आर्थिक तंगी के चलते गरीब बच्चों के मेधा का क्षरण न हो। किसी भी राष्ट्र और समाज के लिए उसकी सबसे बड़ी पूंजी ‘छात्र’ होते हैं जिस पर उसका वर्तमान और भविष्य निर्भर होता है। अभिभावकों और परिवार की जवाबदेही है कि वह देश के इस भविष्य के साथ निरंतर संवाद स्थापित करे और उनके समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनें ताकि कोई भी छात्र जिंदगी का जंग न हारे।
किसान नेताओं और सरकार के बीच बातचीत के जरिए समाधान निकालने की कोशिशें सफल नहीं हुई हैं।
सरकार के मंत्रियों से बातचीत के बाद किसान नेताओं ने 13 फऱवरी यानी आज दिल्ली कूच करने की बात दोहराई है।
किसान संगठनों को मनाने के लिए सोमवार देर रात चंडीगढ़ में सरकार के कई मंत्रियों और किसान नेताओं के बीच बैठक हुई।
ये बैठक काफ़ी देर तक चली मगर किसानों को मनाने में सरकार विफल रही।
ऐसे में किसानों के दिल्ली आने के एलान को देखते हुए दिल्ली से सटी सीमा पर बैरिकेटिंग लगाई गई है।
केंद्र सरकार के मंत्रियों ने क्या बताया?
सरकार की तरफ़ से बातचीत में खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्री पीयूष गोयल, कृषि मंत्री अर्जुन मुंडा और गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय शामिल रहे।
बैठक के बाद अर्जुन मुंडा ने बताया, ''किसान संगठनों के साथ बातचीत बहुत गंभीरतापूर्वक हुई। सरकार हमेशा चाहती है कि बातचीत के माध्यम से हर समस्या का समाधान निकालना चाहिए। इसी उद्देश्य के साथ हम यहाँ आएं। भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर हम आए।’
मुंडा ने कहा, ‘ऐसे सभी विषयों पर चर्चा हुई, जहाँ हम सहमति तक पहुँचे। लेकिन कुछ ऐसे विषय रहे, जिनको लेकर हमने कहा था कि इसके बहुत सारे ऐसे जुड़े हुए मामले हैं, जिस पर हमें अस्थायी समाधान निकालने के लिए कमिटी बनाने की ज़रूरत है और उसमें हम उसमें अपनी बातें रखें, स्थायी समाधान निकालें।’
मुंडा बोले, ‘हम ऐसा मानते हैं कि किसी भी समस्या का समाधान बातचीत के ज़रिए निकाला जा सकता है। हम आशान्वित हैं कि हम इसका समाधान मिलकर निकालने में सफल रहेंगे। ऐसी कोशिश करेंगे कि देश के किसान और जनमानस के हितों की रक्षा हो। हम अभी भी आशान्वित हैं कि किसान संगठन बातचीत करें। कुछ ऐसे पक्ष हैं, जिन पर आगामी दिनों में समाधान निकालने की कोशिश करेंगे। हम अभी भी बातचीत करना चाहते हैं।’
किसान नेताओं ने क्या बताया?
संयुक्त किसान मोर्चा के संयोजक जगजीत सिंह धालीवाल ने कहा, ‘बैठक बहुत लंबी चली है। बहुत चर्चा हुई। एक-एक मांग पर चर्चा हुई। मैं स्पष्ट कर दूं कि ये मांगें नहीं थीं। ये अलग-अलग समय पर सरकार के हमसे किए वादे थे। उनके ऊपर सरकार सहमति बनाने की बजाय ऐसा करती है कि इसके ऊपर कमिटी बनाएंगे। पहले भी एमएसपी की गारंटी देने की बात कही गई थी। इसके अलावा स्वामीनाथन कमिटी की रिपोर्ट जो काफ़ी चर्चा के बाद बनी हुई है। उसको लागू करना है।’
धालीवाल ने दावा किया, ‘कर्ज मुक्ति की जब बात आती है तो सरकार उस पर गंभीर नहीं है। लेकिन कॉर्पोरेट का साढ़े 14 लाख करोड़ सरकार ने माफ़ किया है।’
दिल्ली कूच करने के सवाल पर धालीवाल कहते हैं, ‘सारे बैठकर चर्चा करेंगे। मेरी राय है कि कल हम 10 बजे आगे बढ़ेंगे।’
किसान मज़दूर मोर्चा के समन्वयक एसएस पंढेर ने कहा, ''हां हम 10 बजे दिल्ली की ओर जाएंगे। सरकार के पास कोई प्रस्ताव नहीं है। वो सिफऱ् समय निकालना चाहती है। हम लोगों ने पूरी कोशिश की है कि हमारे पक्ष में कोई फ़ैसला आए। पर बैठक में हमें ऐसा कुछ लगा नहीं।''
पंढेर बोले-जब सरकार बुलाएगी तो हम जाएंगे। अब बैठक में कुछ दें या ना दें, ये उनकी मजऱ्ी है। हमने सरकार का भाव देख लिया है। हमें नहीं लगता कि सरकार हमारी मांगों को लेकर गंभीर है।
उन्होंने कहा, ‘हम किसी किस्म का टकराव नहीं चाहते। हम चाहते थे कि सरकार किसी मुद्दे पर हमें कुछ दे दे तो हम आंदोलन के बारे में सोचें। सरकार के मन में खोट है, वो हमारा आंदोलन बस टाइम पास करवाना चाहती है। देना कुछ नहीं चाहती। सरकार ने जो प्रस्ताव दिए, हम उन पर चर्चा करेंगे। पर हमें मजबूरन 10 बजे आंदोलन आगे बढ़ाना होगा।’
टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में 32 किसान संगठनों ने एकजुट होकर प्रदर्शन किया था, अब 50 किसान संगठन एकजुट हैं।
किसान मजदूर संघर्ष कमिटी के नेता सुखविंदर सिंह साभरा ने आंदोलन में शामिल संगठनों के बारे में जानकारी दी।
साभरा ने बताया, ‘पूरे उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पश्चिम और पूर्वी भारत से 200 से ज्यादा संगठन दिल्ली की तरफ कूच करेंगे। ये आंदोलन जो अधूरा छोडक़र आए थे, उसको पूरा कराने के लिए दिल्ली की तरफ बढ़ेंगे।’
किसानों की मांग क्या है?
एमएसपी खरीद की गारंटी दें, नोटिफिकेशन जारी करें
स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट लागू करें
किसानों की लागत खर्चे पर 50 फीसदी मुनाफा दिया जाए
किसानों के कर्ज माफ किए जाएं
किसान आंदोलन के दौरान जो केस दर्ज किए गए थे, वो वापस लिए जाएं
मनरेगा में 200 दिन काम देने और दिहाड़ी 700 रुपये करें
सुरक्षा के इंतज़ाम
किसानों के राजधानी आने के एलान को देखते हुए पंजाब, हरियाणा और दिल्ली की सीमा पर बड़ी संख्या में बैरिकेटिंग लगाई गई है।
दिल्ली की ओर आती मुख्य सडक़ों पर भी कंटेनर, बसों और क्रेन रखी गई हैं।
कुछ जगहों पर सीमेंट की बैरिकेटिंग लगाई गई हैं। 2020 में हुए किसान आंदोलन में भी ऐसी बैरिकेटिंग देखने को मिली थी।
दिल्ली पुलिस ने एक महीने के लिए धारा 144 लगा दी है।
पुलिस ने कहा है प्रदर्शनकारी ट्रैक्टर ट्रॉली का इस्तेमाल कर सकते हैं जिससे अन्य वाहन चालकों को असुविधा हो सकती है। इसके देखते हुए नई दिल्ली में ट्रैक्टरों के चलने पर बैन लगा दिया गया है।
इसके अलावा दिल्ली पुलिस ने कुछ बातों पर रोक लगाई है।
सडक़ जाम करने, रास्ता रोकने और रैली करने पर रोक।
ट्रैक्टर ट्रॉली के घुसने पर रोक।
लाठी डंडों और हथियार से भरे वाहनों पर रोक।
ईंट, पत्थर, एसिड, पेट्रोल जमा करने पर प्रतिबंध।
दिल्ली की सभी सीमाओं पर सुरक्षा जांच अनिवार्य भडक़ाऊ नारे और पोस्टर लगाने पर रोक।
बगैर अनुमति के लाउडस्पीकर का इस्तेमाल प्रतिबंधित।
ड्यूटी पर जा रहे सरकार कर्मचारियों को प्रतिबंधों से छूट। (bbc.com/hindi)
अपूर्व गर्ग
पुस्तक मेले की चमक-धमक के बीच मुझे याद आते हैं वे लोग जो रद्दी का बड़ा स्टॉक आते ही मेरे पापा को सूचित करते और उनके घरों या ठिकाने से पापा को मिलतीं दुर्लभ पुस्तकें जो देश की किसी दुकान या बाज़ार में उपलब्ध न होतीं।
पुस्तक मेले-दुकानों से ही नहीं इन कबाड़ी के काम करने वाले सज्जनों के सहयोग से भी हमारी लाइब्रेरी समृद्ध हुई।
हिंदी-अंग्रेजी साहित्य , इतिहास से लेकर धर्मशास्त्र, नाटक , कविताएं-शायरी ,होम्योपैथी तक की दुर्लभ पुस्तकें इनसे मिली।
ऐसी पुस्तकें किसी एक दिन रद्दी का कारोबार करने वाले या पुरानी पुस्तकों को दरियागंजी तरीके से बेचने वाले के पास जाने से नहीं मिलतीं।
अनुभव ये रहा नियमित उनसे मिलते रहिये, उनके ग्राहक ही नहीं दोस्त बनिये फिर देखिये वो आपकी पसंद का कैसे ख़्याल रखते हैं।
दरअसल, बहुत से पुस्तक प्रेमियों के गुजर जाने के बाद उनके परिवार के लोग रद्दी के हवाले करते हैं । बहुत से लोग खरीदते हैं पढ़ते हैं और कुछ समय बाद बेचते हैं ।
बंद होते पुस्तकालयों या जगह की कमी की वजह से पुस्तकालयों और घरों की पुरानी पुस्तकें मिलेंगी ।
बहुत पहले एक सज्जन ने एक बार अपने दादाजी की लाइब्रेरी को तौल के हिसाब से तो नहीं पर एक चौथाई दामों में इन्ही कबाड़ी के माध्यम से ख़बर भिजवा कर बेचीं ।ख़ास बात ये कि इनमें ढेर सारी किताबें आज़ादी से पहले प्रकाशित हुई थीं ।
अगर ‘कबाड़’ का काम करने वाले उन सज्जन से निकटता न होती तो न जाने ये असाधारण फूल आज किस बगिया में होते!
‘क्रड्डह्म्द्गह्यह्ल’और असाधारण पुस्तकें चाहिए तो इस बाजार में भी कंधे पर थैला लटकाकर मूंगफली खाते अच्छा समय निकाल कर जाइये।
हो सकता है आपको भी ढेर दिलचस्प रेयर पुस्तकें मिलें!
डॉ. आर.के. पालीवाल
चुनावी वर्ष में वर्तमान केन्द्र सरकार भारी बहुमत हासिल करने के लिए चारों तरफ नए नए मोर्चे खोल रही है। इसी कड़ी में उसने पहले आनन फानन में शंकराचार्यों के विरोध को दरकिनार करते हुए अधूरे राम मंदिर में मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर पूरे देश में हिंदुत्व का माहौल बनाने की कोशिश की जिसमें गांवों, कस्बों और शहरों के हर मुहल्ले में दिवाली जैसा जश्न का माहौल बनाया। अब सरकार ने भारत रत्न का खजाना खोल दिया है। 2014 से 2023 तक नौ साल के कार्यकाल में वर्तमान सरकार ने मात्र पांच लोगों, मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेई, भूपेन हजारिका, प्रणव मुखर्जी और नानाज़ी देशमुख को भारत रत्न दिया था।
इधर पिछ्ले एक महीने में ही पांच भारत रत्न घोषित हो गए हैं। इसकी शुरुआत जनवरी में बिहार के लोकप्रिय जन नेता कर्पूरी ठाकुर से हुई थी और फऱवरी के नौ दिन में तड़ातड चार और भारत रत्न घोषित हो गए हैं जिनमें लाल कृष्ण आडवाणी को कुछ दिन पहले भारत रत्न मिला है और नौ फऱवरी को एक साथ तीन विभूतियों , चौधरी चरण सिंह, नरसिम्हा राव और डॉ एम एस स्वामीनाथन को भारत रत्न से नवाजा गया है।
लोकसभा चुनाव की पूर्व संध्या पर एक साथ इतने ज्यादा भारत रत्न घोषित करने से एक तरफ इस सर्वोच्च पुरस्कार की गरिमा पर भी प्रश्न चिन्ह उभरा है, और दूसरी तरफ़ राजनीतिज्ञों को ही अधिकांश भारत रत्न देने से यह संदेश जाता है जैसे यही एक श्रेणी देश के लिए सबसे ज्यादा सेवा देती है। जहां तक पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव को भारत रत्न देने का सवाल है वह उतना ही विवादित है जितना लाल कृष्ण आडवाणी को दिया गया भारत रत्न। नरसिंह राव का प्रधानमन्त्री के तौर पर कार्यकाल तरह तरह के संवैधानिक और आपराधिक विवादों से घिरा रहा है। उनके समय में सरकार बनाने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों की खरीद फरोख्त से संसद की गरिमा तार तार हुई थी। यूरिया घोटाले में उनके पुत्र और उनके प्रिंसिपल सेक्रेटरी के पुत्र पर मुकदमा दर्ज हुआ था। खुद नरसिंह राव पर भी चंद्रा स्वामी के माध्यम से गंभीर आरोप लगे थे। ऐसे में उन्हें अचानक भारत रत्न दिए जाने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता।
जिस तरह से पिछ्ले पंद्रह दिन में अचानक भारत रत्न घोषित करने की बौछार सी हुई है उससे यह तो साफ है कि इसके पीछे लोकसभा चुनाव की गणित ही मुख्य कारक है। वैसे भी प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी की ऐसी छवि बन गई है कि वे हर समय चुनावी मोड़ में रहते हैं। ऐसे में जब केंद्रीय सत्ता पर सवार होने के लिए जरुरी लोकसभा चुनाव एकदम सर पर आ गए हैं तब प्रधानमंत्री की विभिन्न वर्गों को साधने के लिए राजनीतिक सक्रियता का शिखर पर होना उनकी रणनीति का लाजिमी हिस्सा लगता है। जब चारों तरफ लोकसभा चुनाव की तैयारियों की ही चर्चा है तब भारत रत्नों की अचानक बेमौसम बरसात को इस नजरिए से ही देखा जाएगा। लालकृष्ण आडवाणी को भारत रत्न देने से जहां भारतीय जनता पार्टी के अंदर नाराज और सत्ता से दूर चल रहा एक खेमा शांत हो सकता है, वहीं नरसिंह राव को पुरस्कृत कर एक तरफ तेलगुभाषी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को खुश करने के साथ साथ सरकार यह भी दिखाना चाहती है कि हम विरोधी दलों के नेताओं के लिए भी मेहरबान हैं।
साथ ही यह कांग्रेस को कटघरे मे खड़े करने जैसा भी है कि उसने अपने पूर्व प्रधानमंत्री को वह इज्जत नहीं बख्शी जो उन्हें वर्तमान केंद्र सरकार दे रही है। इस कड़ी में यदि निकट भविष्य में डॉ मनमोहन सिंह को भी भारत रत्न देने की घोषणा हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा। जिस तरह बिहार की बडी आबादी को खुश करने के लिए केंद्र सरकार को कर्पूरी ठाकुर की याद आई है वैसा ही किसान आंदोलन से परेशान सरकार को प्रमुख किसान नेता चौधरी चरण सिंह की याद आई है। देखना यह है कि भारत रत्न की बौछार से सरकार को चुनाव में कितना लाभ मिलता है!
चैतन्य नागर
बरसों पहले, मोबाइल फ़ोन आने के बाद, जब मैं किसी नर्सिंग होम के बाहर दवा कंपनियों के नुमाइंदों को बैग उठाये, प्रतीक्षारत देखता था, नवजात शिशुओं के लिए टीके वगैरह लेकर, तो सोचता था कि किसी दिन मोबाइल कंपनियाँ भी अपने सेल्स प्रतिनिधियों को ऐसे ही नर्सिंग होम के बाहर तैनात कर देगी और वे बचपन से ही, मोबाइल फोंस की लाइफ टाइम वैलिडिटी वगैरह जैसी स्कीमें लेकर तैयार रहेंगे। बाद में मैंने कल्पना की कि यह भी तो हो सकता है कि ऐसे चिप बन जाएँ कि मोबाइल फोन की कोई उपयोगिता ही न रहे और चिप बनाने वाली कंपनियां अलग अलग स्कीमों के साथ बच्चे के जन्म के समय ही उनके मस्तिष्क में चिप्स डालने के फायदे बताएं और फिर मोबाइल फ़ोन भी निरर्थक हो जाएँ।
अब मुझे लगता है कि मैं हमेशा से बहुत कल्पनाशील रहा हूँ। हाल ही में 29 जनवरी को एलॉन मस्क द्वारा पोस्ट किए गए एक ट्वीट के अनुसार उनकी कंपनी न्यूरालिंक ने किसी व्यक्ति में ‘ब्रेन-रीडिंग’ डिवाइस (मस्तिष्क को पढने वाला चिप) प्रत्यारोपित किया है। शारीरिक रूप से असमर्थ लोग, लकवाग्रस्त लोग इस चिप की मदद से सिर्फ सोच कर ही अपने कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर सकेंगे। ‘चल मेरे कम्प्यूटर’, वे सोचेंगे। और कम्प्यूटर चालू हो जायेगा! यह तो है इस चिप का घोषित मकसद। पर हकीकत क्या है ?
बीसीआई (ब्रेन टू कम्प्यूटर इंटरफ़ेस) चिप मस्तिष्क की गतिविधि को रिकॉर्ड और डिकोड करता है। नयूरालिंक ऐसा ही चिप है। ब्रेन में लगे चिप से इसका सीधा संबंध कंप्यूटर से हो जाता है। इसका घोषित उद्देश्य गंभीर पक्षाघात से पीडि़त व्यक्ति को सिफ्र विचार के माध्यम से कंप्यूटर, कृत्रिम अंग, व्हीलचेयर या अन्य उपकरण को नियंत्रित करने की सक्षमता प्रदान करना है। पर ऐसे कई काम हैं जिसके लिए इसका उपयोग किया जा सकता है। ज़ाहिर है अभी इसकी घोषणा नहीं की जा सकती। न्यूरालिंक के अलावा ऐसे ही कुछ अन्य चिप्स पर काम चल रहा है और पहले ही लोगों पर इनका परीक्षण किया जा चुका है।
न्यूरो टेक्नोलॉजी शोधकर्ता न्यूरालिंक के मानव परीक्षण को लेकर उत्साहित तो हैं, पर सतर्क भी हैं। नीदरलैंड में यूनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर यूट्रेक्ट के एक न्यूरोसाइंटिस्ट और अंतरराष्ट्रीय बीसीआई सोसायटी के अध्यक्ष मारिस्का वैनस्टीनसेल ने कहा है, ‘मुझे यह उम्मीद है कि वे साबित कर देंगे कि यह सुरक्षित है। और यह मस्तिष्क के संकेतों को मापने में प्रभावी है अल्पकालिक और दीर्घकालिक तौर पर भी।
अभी भी विस्तृत जानकारी उपलब्ध न होने से निराशा बनी हुई है। मस्क के ट्वीट के अलावा इस बात की कोई पुष्टि नहीं हुई है कि परीक्षण शुरू हो गया है। परीक्षण पर सार्वजनिक जानकारी का मुख्य स्रोत एक अध्ययन विवरणिका है जो लोगों को इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रित करती है। ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के न्यूरोइंजीनियर टिम डेनिसन कहते हैं कि इसमें विस्तृत जानकारी का अभाव है जैसे कि प्रत्यारोपण कहां किया जा रहा है और परीक्षण के सटीक परिणामों का आकलन कैसे किया जाएगा। कई लोगों ने आरोप लगाए हैं कि न्यूरालिंक के परीक्षण के समय करीब नौ बंदरों की मौत हुई है। यह गलत और अनैतिक है।
परीक्षण क्लिनिकलट्रायल्स.जीओवी पर पंजीकृत नहीं है, जो यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ का एक ऑनलाइन भंडार है। कई विश्वविद्यालयों के लिए आवश्यक है कि शोधकर्ता अध्ययन प्रतिभागियों के नामांकन से पहले इस प्रकार के भंडार में किसी परीक्षण और उसके प्रोटोकॉल को पंजीकृत करें।
इसके अतिरिक्त, कई चिकित्सा पत्रिकाएँ ऐसे पंजीकरण को परिणामों के प्रकाशन की शर्तें निर्धारित करती हैं। ये नैदानिक परीक्षणों के लिए स्वेच्छा से काम करने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए डिजाइन किए गए सिद्धांतों को ध्यान में रखते हैं। न्यूरालिंक ने, जिसका मुख्यालय फ्ऱेमोंट, कैलिफोर्निया में है, ‘नेचर’ पत्रिका के अनुरोध का जवाब नहीं दिया कि उसने साइट के साथ परीक्षण पंजीकृत क्यों नहीं किया है। ‘नेचर’ यह जांच कर रही है कि न्यूरालिंक के प्रत्यारोपण अन्य बीसीआई प्रौद्योगिकियों की तुलना में कैसे काम करते हैं; यह परीक्षण बीसीआई और शोधकर्ताओं की चिंताओं को कैसे संबोधित करेगा।
एक बड़ा सवाल यह भी है कि चिप अन्य बीसीआई से किस प्रकार भिन्न है? साल्ट लेक सिटी, यूटा में ब्लैकरॉक न्यूरोटेक की तरह न्यूरालिंक भी व्यक्तिगत न्यूरॉन्स की गतिविधि को ध्यान में रखता है। इसके लिए मस्तिष्क में प्रवेश करने वाले इलेक्ट्रोड की आवश्यकता होती है। अन्य कंपनियां ऐसे इलेक्ट्रोड विकसित कर रही हैं जो मस्तिष्क की सतह पर बैठते हैं जिनमें से कुछ बाद में आसानी से हटाए जा सकते हैं। यूरॉन्स द्वारा उत्पादित औसत संकेतों को रिकॉर्ड करने के लिए।
सिंक्रोन सिस्टम की तरह न्यूरालिंक पूरी तरह से प्रत्यारोपित और वायरलेस है। यह बीसीआई के लिए पहला मामला है जो व्यक्तिगत न्यूरॉन्स से रिकॉर्ड करता है। पहले ऐसी प्रणालियों को खोपड़ी में एक पोर्ट के माध्यम से कंप्यूटर से भौतिक रूप से जोड़ा जाता था। इससे संक्रमण का खतरा पैदा होता है और इसका उपयोग सीमित हो जाता है।
कंपनी के अध्ययन विवरणिका के अनुसार, न्यूरालिंक चिप में 64 लचीले पॉलिमर धागे हैं, जो मस्तिष्क गतिविधि को रिकॉर्ड करने के लिए 1,024 साइटें प्रदान करते हैं। यह ब्लैकरॉक न्यूरोटेक के बीसीआई से काफी आगे है, जो मनुष्यों में लंबे समय तक प्रत्यारोपित किया जाने वाला एकमात्र अन्य न्यूरॉन रिकॉर्डिंग सिस्टम है। इसलिए न्यूरालिंक डिवाइस मस्तिष्क-मशीन संचार की बैंडविड्थ को बढ़ा सकता है---हालांकि कुछ उपयोगकर्ताओं ने कई ब्लैकरॉक डिवाइस लगाए हैं। न्यूरालिंक अपने धागों के लचीलेपन का दावा करता है और कहता है कि वह उन्हें मस्तिष्क में डालने के लिए वह एक रोबोट भी विकसित कर रहा है। डेनिसन का कहना है कि यह सब बहुत रोमांचक है। अब यह देखना है कि सुरक्षा, सिग्नल गुणवत्ता और टिकाऊपन के मामले में कौन सबसे अच्छा प्रदर्शन करता है। वे कहते हैं, ‘हम सभी को मरीजों की भलाई के लिए लंबी योजना बनाने की जरूरत है।’
न्यूरालिंक मानव परीक्षण से वैज्ञानिक क्या सीखेंगे? न्यूरालिंक ने अपने परीक्षण के लक्ष्यों के बारे में बहुत कम जानकारी जारी की है और साक्षात्कार के लिए नेचर के अनुरोध का जवाब नहीं दिया है। लेकिन विशेषज्ञों को उम्मीद है कि इस स्तर पर सुरक्षा सर्वोपरि होगी। डेनिसन कहते हैं, इसमें डिवाइस के तत्काल प्रभाव का निरीक्षण करना शामिल है -‘कोई स्ट्रोक नहीं, कोई रक्तस्राव नहीं, कोई वाहिका क्षति नहीं, ऐसा कुछ भी।’
न्यूरालिंक के अध्ययन विवरणिका में कहा गया है कि स्वयंसेवकों पर पांच साल तक नजऱ रखी जाएगी। यह यह भी इंगित करता है कि परीक्षण डिवाइस की कार्यक्षमता का आकलन करेगा, स्वयंसेवक कंप्यूटर को नियंत्रित करने और अनुभव पर प्रतिक्रिया देने के लिए सप्ताह में कम से कम दो बार इसका उपयोग करेंगे।
वैनस्टीनसेल यह जानना चाहेंगे कि क्या समय के साथ पता लगाए गए न्यूरोनल संकेतों की गुणवत्ता कम हो जाती है, जो मौजूदा उपकरणों में आम है। वह कहती हैं, ‘आप आरोपण के बाद आसानी से इलेक्ट्रोड नहीं बदल पाएंगे।’ ‘अगर, अब से एक महीने में, वे सुंदर डिकोडिंग परिणाम प्रदर्शित करते हैं। लेकिन मैं दीर्घकालिक परिणाम देखना चाहूँगा।’ डेनिसन यह जानने के लिए भी उत्सुक हैं कि गैर-प्रयोगशाला सेटिंग्स में उपयोग किया जा सकने वाला वायरलेस सिस्टम कैसा प्रदर्शन करता है।
न्यूरालिंक बीसीआई के बारे में वैज्ञानिकों की क्या चिंताएँ हैं? अब जबकि मानव परीक्षण शुरू हो गया है, स्वयंसेवकों की सुरक्षा और भलाई एक अहम सवाल है। परीक्षण को अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) द्वारा अनुमोदित किया गया था, जिसने न्यूरालिंक के पहले के आवेदन को खारिज कर दिया था। लेकिन कुछ शोधकर्ता इस बात से परेशान हैं कि परीक्षण क्लिनिकल ट्रायल.जीओवी पर सूचीबद्ध नहीं है। डेनिसन कहते हैं, ‘मेरी धारणा यह होगी कि एफडीए और न्यूरालिंक कुछ हद तक नियमों का पालन कर रहे हैं।’ ‘लेकिन हमारे पास प्रोटोकॉल नहीं है। इसलिए हम यह नहीं जानते।’
कोलंबस, ओहियो में स्थित बीसीआई पायनियर्स कोएलिशन के सह-संस्थापक इयान बर्कहार्ट एक गोताखोरी दुर्घटना में गर्दन टूटने के बाद लकवाग्रस्त हो गए थे और उन्होंने अपने मस्तिष्क में ब्लैकरॉक ऐरे को प्रत्यारोपित करके ।.5 साल बिताए। वह इस बात से उत्साहित है कि न्यूरालिंक क्या हासिल कर सकता है। लेकिन, उनका कहना है, ‘हर कोई इस पर अटकलें लगाए, इसके बजाय बेहतर है कि वे कितनी जानकारी जारी कर रहे हैं। विशेषकर उन रोगियों के लिए जो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए इस प्रकार की तकनीक का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
बड़ा सवाल यह भी है कि जब मानव मस्तिष्क सिर्फ कुछ सोचकर कम्प्यूटर का इस्तेमाल कर सकेगा तो फिर क्या कम्प्यूटर भी उसका इस्तेमाल नहीं कर पायेगा? सी हालत में क्या बड़े उद्योगपति और राजनेता अपने फायदे के लिए व्यक्ति के दिमाग का उपयोग अपने फायदे के लिए नहीं करेंगे? अभी भी सोशल मीडिया का उपयोग करके राजनेता यह अंदाजा लगा लेते हैं कि उनकी लाइक्स और डिसलाइक्स उनके रुझानों को किस हद तक दर्शाती हैं। क्या आपको लगता है कि दुनिया का सबसे अमीर इंसान एलॉन मस्क अपने न्यूरालिंक का उपयोग सिर्फ परोपकार के लिए करेगा? अपने व्यावसायिक फायदे को भूल जायेगा? यह बहुत बड़ी गलती होगी। इस तरह की किसी भी चिप का उपयोग आगे चल कर राजनीतिक दल और उद्योगपति अपने वोट्स जीतने और अपने सामान को अधिक से अधिक लोगों को बेचने के लिए करेंगे। इस बात पर यदि किसी को जऱा सा भी संदेह है तो वे अक्षम्य होने की हद तक मासूम, अज्ञानी और मूर्ख है। किसी के मस्तिष्क में चिप लगाकर उसे अपने नियंत्रण में रखना सिर्फ और सिर्फ राजनेताओं और उद्योगपतियों के लिए फायदेमंद हो सकता है। कैसे? इस सवाल को आपकी समझ और कल्पनाशीलता पर छोड़ा जा रहा है।
शुमाइला जाफरी
काफी अनिश्चितता, राजनीतिक नौटंकी, लंबी कानूनी लड़ाई और हिंसक घटनाओं के बाद आखिरकार पाकिस्तान में अगली सरकार बनने वाली है।
इमरान ख़ान की तहरीक-ए-इंसाफ़ समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव परिणामों में सबसे आगे रहे हैं। उसके बाद पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) हैं।
बैठकों और राय-मशविरे का दौर जारी है। सरकार गठन के लिए आपसी बातचीत शुरू करने से पहले पीएमएल (एन) और पीपीपी ने छोटे दलों से संपर्क शुरू कर दिया है।
नेशनल असेंबली की 265 सीटों में बहुमत के लिए किसी राजनीतिक दल को 133 सीटें जीतने की जरूरत होती है। इतनी सीटें किसी भी दल को नहीं मिली हैं।
ऐसे में एक बात साफ है कि मुख्यधारा के दलों का एक गठबंधन बनेगा। इन दलों को मिली सीटों के आधार पर सत्ता में उनको हिस्सा दिया जाएगा।
‘किंग मेकर’ की भूमिका
बहुत से विश्लेषक नवाज शरीफ को पाकिस्तान का अगला प्रधानमंत्री बता रहे हैं। लेकिन अन्य लोगों का मानना है कि यह इतना आसान नहीं होगा।
उनका मानना है कि पीपीपी उपाध्यक्ष आसिफ़ अली जरदारी शरीफ को प्रधानमंत्री पद पर समर्थन देने से पहले अपनी ताकत का इस्तेमाल सौदेबाजी के लिए करेंगे। वो ‘किंग मेकर’ की भूमिका में हैं।
बड़ा सवाल पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के समर्थन से चुनाव जीते निर्दलीय उम्मीदवारों को लेकर हैं। ये उम्मीदवार इमरान खान को मिले जनसमर्थन की बदौलत जीते हैं।
क्या वे इमरान खान के प्रति वफ़ादार बने रहेंगे या अन्य दलों से सौदेबाजी कर पाला बदलकर सत्ता पक्ष के साथ हो लेंगे।
नवाज शरीफ ने लाहौर में विजयी भाषण दिया। इसमें उन्होंने कहा कि अन्य दलों के साथ-साथ वो निर्दलियों के जनादेश का भी सम्मान करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने क्या प्रतिक्रिया दी है?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि निर्दलियों को मिली ऐतिहासिक जीत से खरीद-फरोख्त की आशंका पहले से अधिक बढ़ गई है।
पीटीआई के समर्थन से जीते उम्मीदवारों के लिए किसी दूसरे दल में जाने से रोकने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। लेकिन अगर उन्होंने इमरान खान का साथ छोड़ा तो उनका राजनीतिक करियर भी खतरे में पड़ सकता है।
पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ ने भी जीत का दावा किया है।
सोशल मीडिया पर जारी इमरान खान के एआई आधारित संदेश में कहा गया है, ‘मतदान कर आपने असली आजादी की नींव डाली है। मैं 2024 का चुनाव जीतने के लिए आपको शुभकामनाएं देता हूं।’
अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन समेत अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने चुनाव प्रक्रिया पर चिंता जताई है। उन्होंने अनियमितताओं की खबरों और धांधली के आरोपों की जांच कराने की मांग की है।
अमेरिकी विदेश विभाग की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि चुनाव में शांतिपूर्ण सभाएं करने और अभिव्यक्ति की आजादी पर अनुचित पाबंदियां शामिल थीं।
यूरोपीय संघ की ओर से जारी बयान में सबके लिए समान अवसर की कमी का उल्लेख किया गया है।
इससे कुछ राजनेता चुनाव लडऩे से वंचित रह गए और सभाएं करने की आजादी, अभिव्यक्ति की आजादी प्रभावित हुई और इंटरनेट तक लोगों की पहुंच नहीं हो पाई।
ब्रिटेन के विदेश मंत्री डेविड कैमरन ने सोशल मीडिया प्लेटफार्म ‘एक्स’ पर लिखा कि ब्रिटेन चुनाव में सामूहिकता और निष्पक्षता को लेकर पैदा हुई गंभीर चिंताओं को समझता है।
उन्होंने पाकिस्तानी अधिकारियों से अनुरोध किया कि वो सूचनाओं तक पहुंच जैसे बुनियादी मानवाधिकार और कानून का शासन बहाल करें।
हालांकि, इन सभी संस्थाओं ने पाकिस्तान की अगली सरकार के साथ समान लक्ष्यों की दिशा में मिलकर काम करने का भी संकेत दिया है।
राजनीतिक विश्लेषक सज्जाद मीर का मानना है कि अगली सरकार की वैधानिकता पर गंभीर सवाल के बाद भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय परिणामों को स्वीकार करेगा और अगली सरकार के साथ काम करने को तैयार होगा।
वो कहते हैं, ‘जब वे पहले अफगानिस्तान और हाल ही में बांग्लादेश के चुनाव परिणाम को स्वीकार कर सकते हैं- निष्पक्षता और समान अवसर को लेकर आपत्तियों के बाद भी तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अगली सरकार के साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं होगी।’
पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने कुछ देशों और संगठनों की नकारात्मक प्रतिक्रियाओं पर कहा है कि इनमें इस बात की अनदेखी की गई है कि प्रायोजित चरमपंथ की चुनौतियों के बीच पाकिस्तान ने आम चुनाव शांतिपूर्ण और सफलतापूर्वक संपन्न कराए हैं।
अगली सरकार की चुनौतियां क्या होंगी?
राजनीतिक विश्लेषक डॉक्टर हसन रिज़वी का मानना है कि अगर नवाज शरीफ की पार्टी सरकार बना भी लेती है तो, जिसकी अधिक संभावना है, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती गठबंधन के सहयोगियों को एकजुट रखने की होगी।
वो कहते हैं, ‘यह पीडीएम जैसी गठबंधन वाली सरकार होगी, सभी लोगों को खुश रखना काफी कठिन होगा, खासकर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी अधिक हिस्सेदारी मांगेगी। ऐसे में गठबंधन के सहयोगियों को एकजुट रखना और आर्थिक मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन करना काफी चुनौतीपूर्ण होगा।’
वो कहते हैं, ‘पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ समर्थित उम्मीदवारों के साथ अगली सरकार के संबंधों की प्रकृति भी काफी महत्वपूर्ण होगी। उन्होंने केंद्र के साथ-साथ पंजाब में भी भारी संख्या में जीत दर्ज की है। अगर संबंध तनावपूर्ण बने रहे, जैसा कि फिलहाल लग रहा है, ऐसे में अगर पीटीआई समर्थित उम्मीदवार एकजुट रहे तो वे अगली सरकार के जीवन को नरक बना देंगे।’
वहीं राजनीतिक विश्लेषक रसूल बख्श रईस का मानना है कि जनता के सामने अपनी वैधता साबित करना अगली सरकार की सबसे बड़ी चुनौती होगी।
रसूल बख्श रईस कहते हैं, ‘लोग जानते हैं कि पीएमएल (एन) और पीपीपी ने किस तरह से बहुमत जुटाया है। वो यह भी जानते हैं कि पीटीआई को बाकी के सभी दलों से अधिक सीटें मिली हैं। लोग यह भी जानते हैं कि चुनाव से पहले और चुनाव के बाद बड़े पैमाने पर धांधली हुई है। इसलिए अगली सरकार के लिए लोगों और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अपनी विश्वसनीयता बनाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होगी।’
राजनीतिक विश्लेषकों में इस बात पर आम सहमति है कि अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार अगली सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण और अत्यधिक चुनौती वाला काम होगा।
वरिष्ठ पत्रकार अहमद वलीद कहते हैं कि लोग सरकार से तंग आ चुके हैं। उनका बिल तेजी से बढ़ रहा है। महंगाई आसमान छू रही है। लोगों का जीवन-यापन कठिन हो गया है। ऐसे में लोगों को तत्काल और पर्याप्त मदद की ज़रूरत है।
वो कहते हैं, ‘लोग पहले से ही हताश हैं। लोगों ने पीटीआई को वोट देकर पीएमएल (एन) के नेतृत्व वाली पीडीएम सरकार के खिलाफ अपना ग़ुस्सा जताया है। यदि अगली सरकार उन्हें किसी प्रकार की राहत देने के लिए कठिन लेकिन सही विकल्प चुनने की जगह वह गठबंधन सहयोगियों को खुश करने के लिए लोकलुभावन फैसले लेती है तो, पीएमएल (एन) इतनी तेज़ी से अलोकप्रिय होगी, जिसकी उसने कल्पना नहीं की होगी। यह किसी के लिए गुलाब की सेज की तरह नहीं होगी। जो लोग सत्ता संभालेंगे, उन्हें तेज़ी से काम भी करना होगा।’
इमरान ख़ान के लिए चुनाव परिणामों के क्या मायने हैं।
सज्जाद मीर कहते हैं कि अगली सरकार की बड़ी प्राथमिकता लोगों, राजनेताओं और संस्थाओं में सद्भावना लानी होगी।
वो कहते हैं, ‘पिछले कुछ सालों में देश में इतना गहरा ध्रुवीकरण हुआ है कि परिवार ही आपस में लड़ रहे हैं। नई सरकार को एकजुटता लानी होगी। सरकार को अन्य दलों और ताक़तों के साथ मिलकर एक नया सामाजिक-राजनीतिक समझौता करना होगा।’
राजनीति विज्ञानी डॉक्टर हसन असकरी का मानना है कि इमरान खान अभी जेल में ही रहेंगे। लेकिन चुनाव ने उन्हें राजनीतिक तौर पर ताकतवर बनाया है। चुनाव ने उनके समर्थन और लोकप्रियता को और मजबूत किया है।
वो कहते हैं, ‘अब वो विधानसभाओं में ताक़तवर आवाज़ होंगे। पीटीआई अब एक प्रभावी और सच्चे विपक्ष की भूमिका निभाने की स्थिति में है। उनके पास सरकार को अक्षम बनाने के लिए जरूरी संख्या है। इमरान खान को अभी भी मुकदमों का सामना करना पड़ेगा। वे कानून के जरिए ही बाहर आ सकते हैं। अब उनसे निपटने के लिए संकीर्ण कानूनी रुख अपनाया जाएगा। लेकिन चुनाव ने उन्हें देश में सबसे बड़े और सबसे लोकप्रिय राजनेता के रूप में स्थापित कर दिया है।’
वहीं, रसूल बख्श रईस की राय में इन नतीजों की वजह से इमरान खान अपने राजनीतिक और गैर राजनीतिक विरोधियों के लिए और बड़ा खतरा बन गए हैं।
वो कहते हैं, ‘पिछली बार के चुनाव में मिली उनकी जीत सेना के समर्थन के आरोपों से धूमिल हुई थी। उन पर सेना के समर्थन से सत्ता हासिल करने का आरोप लगाया गया था। लेकिन इन नतीजों के साथ जहां उन्हें सेना और अन्य सभी राजनीतिक ताकतों ने परेशान किया और सताया, वे जनसमर्थन से जिस तरह से उभरे हैं, उसने उन्हें और अधिक खतरनाक बना दिया है।’
वो कहते हैं कि मतदाताओं ने उन लोगों को भी नकार दिया, जिन्होंने 9 मई के बाद इमरान खान को धोखा दिया और निष्ठा बदलकर अलग-अलग समूह बना लिए, ऐसे अधिकांश उम्मीदवार चुनाव हार गए हैं।’
रईस का यह भी मानना है कि अगली सरकार इतनी कमजोर होगी कि वह सेना के समर्थन के बिना सरकार नहीं चला पाएगी।
अंत में वो कहते हैं, ‘इसका मतलब यह हुआ कि सेना की कृपा पाने के लिए नवाज़ शरीफ़ को उसके आदेश का पालन करना पड़ेगा। इससे उनकी बची-खुची विश्वसनीयता भी खत्म हो जाएगी।’ (bbc.com/hindi)
विजेन्द्र अजनबी
वर्ष 2024 का बजट कल छत्तीसगढ़ विधानसभा मे वित्त मंत्री श्री ओपी चौधरी द्वारा पेश किया गया, जिसकी भाषा और संकेतक केंद्र के बजट जैसे थे। बजट में इस वर्ष के लिए छत्तीसगढ़ की वित्तीय प्रबंध का जो खाका खींचा गया, उसे 10 स्तंभों पर आधारित बताया जा रहा है। उसमे से एक स्तम्भ प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंध का है, जिसके अधिकतम दोहन को उसका आधार बताया जा रहा है।
वित्त मंत्री के कथनानुसार, प्राकृतिक संसाधनों का सुनियोजित दोहन करते हुए, उसमे से प्राप्त लाभों का छत्तीसगढ़ के लोगों के बीच न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित किया जायेगा। एक और स्तम्भ की बजट में चर्चा की गई, जिसे ‘ बस्तर और सरगुजा का फोकस’ कहा गया है। उसमे बस्तर मे वनोपज आधारित उद्योग लगाने, और सरगुजा में उद्यानिकी और मछली पालन पर जोर देने के लिए बजटीय प्रावधान की बात कही गई है। पर, पूरे बजट दस्तावेज में कहीं भी वन-निर्भर समुदायों के अधिकार या वनाधिकार कानून का जिक्र नहीं है, और न ही वनोपज पर समुदाय की मालिकी पर सहमति। जंगल से राजस्व बटोरने की मंशा से बजट में ईको टूरिजम, एग्रो फोरेस्ट्री और वनोपज प्रसंस्करण उद्योग लगाने के लिए आबंटन की बात हो रही है।
जंगल निर्भर समुदायों के लिए गरिमापूर्ण जीवन यापन के लिए लघु वनोपजो से आजीविका प्राप्त करना सबसे बड़ी जरुरत है। वनोपजों में भी सबसे ज्यादा आय देने वाला उपाय, तेंदू पत्ता तोड़ाई है, जो पूरी तरह से वनविभाग के नियंत्रण में संचालित होता है। इस बजट में पत्ता तोड़ाई की दर 4500 रुपये मानक बोरा से बढ़ाकर 5500 रु करना स्वागत योग्य है। पर करीब 7 लाख संग्राहकों के लिए, इसमें से 35 करोड़ रु की चप्पलें खरीद का प्रावधान हो, तो यह गरिमापूर्ण आजीविका के खिलाफ दिखता है। जरूरी तो यह है, कि उन ग्रामसभाओं को इतना सक्षम बनाया जाए कि वे महाराष्ट्र की तर्ज पर अपने वनोपज से अर्जित आय को अपनी भलाई के लिए खर्च कर सके।
वाणिज्यिक वृक्षारोपण का बढ़ावा देने के लिए पिछली सरकार ने मुख्यमंत्री वृक्ष संपदा योजना शुरू की गई थी, और जिसके लिए 100 करोड़ का प्रावधान रखा गया था। अब इस बजट मे, उसे किसान वृक्ष मित्र योजना कहा जा रहा है, जिसके लिए 60 करोड़ का प्रावधान है। छत्तीसगढ़ मे निजी भूमि या गैर-वनभूमि पर प्लांटेशन की जरूरत को इसलिए महसूस किया जा रहा है, ताकि वनों का उद्योग व खनन के लिए विचलन सहूलियत से किया जा सके और उसके बदले के वृक्षारोपण की भरपाई की जा सके। यह सर्वमान्य तथ्य है कि प्राकृतिक जंगलों का स्थान ऐग्रो फॉरेस्ट्री के तहत लगाए गए व्यावसायिक उपयोग के पेड़ नहीं ले सकते। इसलिए, बेहतर है कि जंगल प्रबंधन के लिए और राशि का प्रावधान किया जाता जिसे ग्रामसभा के जरिए वानिकी प्रबंधन मे उपयोग किया जाता। पिछले बजट में वनाधिकार कानून के बेहतर क्रियान्वयन के लिए वन अधिकार समितियों के सशक्तिकरण के लिए 5 करोड़ का प्रावधान रखा गया था। अच्छा होता, यदि उसे जारी रखते हुए, बल्कि, बढ़ाते हुए, वनाधिकार कानून सम्मत सामुदायिक वन प्रबंधन समितियों को सक्षम बनाने का प्रावधान होता।
इस बजट में, हालांकि 240 करोड़, जंगलों के प्राकृतिक पुनरुत्पादन (नेचुरल रिजेनरेशन) के लिए रखे गए हैं, जिसे वन विभाग की कार्ययोजना के तहत किया जाता है। जहां, पुनरुत्पादन के लिए कटाई-छंटाई के नाम पर धड़ल्ले से पेड़ गिराए जाते हैं, और जिसका विरोध, अधिकार प्राप्त ग्रामसभाएं करती आ रही है। जरूरी है, कि, ऐसे मद के बजट के कार्य ग्रामसभा की सहमति या उनके जरिए कराए जाए।
इस बजट में कैम्पा के तहत 1000 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है, जो मूलत: क्षतिपूर्ति वनीकरण के लिए होता है, पर, प्रदेश मे कैंपा मद मे आधिक्य निधि के चलते ज्यादातर खर्चे अभी भी गैर टिकाऊ वृक्षारोपण, फेन्सिंग, जंगल सफारी जैसे चमकीले मदों खर्च हो जाता है। अच्छा होता कि, कैम्पा की राशि से जंगल संरक्षण व सुरक्षा कर रहे समुदायों के कामों को जोड़ा जाता।
जंगल के अलावा, उद्यानिकी एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमे सीमांत समुदाय और छोटे किसानों के लिए बहुत काम किए जाने की जरूरत है। उद्यानिकी का लाभ अब तक बड़े किसान और खेती मे पूंजी लगाने वाले ही लेते रहे है। पिछले साल बजट में कृषकों को उद्यानिकी फसलों की गुणवत्तापूर्ण पौध दिलाने के लिए हाइटेक नर्सरी और छुईखदान में पान अनुसंधान केंद्र की स्थापना का प्रावधान किया गया था। अब इस बजट मे 14 विकसखंडों में नई नर्सरी के प्रावधान है, साथ ही, सूरजपुर और रायगढ़ में दो नए उद्यानिकी व वानिकी महाविद्यालय शुरू करने की घोषणा एक अच्छा कदम हो सकता है। लेकिन पिछली सरकार में, राजधानी से लगे सांकरा में उद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय की स्थापना होने के बाद उसे दृढ़ता से एक स्तरीय संस्थान बनाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में जंगलों के उचित प्रबंधन, विशेषकर जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को देखते हुए एक जन-आधारित वन संरक्षण-संवर्धन और प्रबंधन के लिए एक विशेष शिक्षा केंद्र का होना बहुत जरूरी है। ये देखने वाली बात होगी कि क्या इस नज़रिए से वानिकी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों को और उसके शिक्षण व्यवस्था को बदला जाता है।
सहकारिता के क्षेत्र में 100 कृषि सहकारी समितियों के लिए 26 करोड़ रु रखे गए है, जिसमें गोदाम का निर्माण होगा। हालांकि, मंडी व्यवस्था को कमजोर करने के बाद यह गोदाम कितने काम के होंगे, ये सोचने की बात है। ज़रूरी तो ये भी है कि छोटे आकार के गोदाम, उन ग्राम पंचायतों में भी बनाए जाएं जहाँ अच्छी मात्रा में वन उपज संकलन होता है। ऐसे गोदामों का प्रबंधन गांव की वन प्रबंधन समितियों को सौंपा जाना चाहिए।
इस बार मनरेगा में रु 2788 करोड़ का प्रावधान थोड़ी राहत देने वाली बात है, लेकिन जितने श्रम आधारित काम की गुंजाइश मनरेगा में है, 12,000 ग्राम पंचायतों के लिए यह काफी कम लगता है।
जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव को देखते हुए वन संरक्षण एवं संवर्धन की गतिविधियों को भी मनरेगा के जरिये कवर किए जाने की जरूरत है, जिसमें कम से कम 150 दिन मानव श्रम की जरूरत पड़ेगी।
इस लिहाज से ये प्रावधान नाकाफी लगता है। बजट में ग्राम पंचायत क्षेत्रों में नए शासकीय भवनों में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम की स्थापना के लिए 50 करोड़ रु रखे गए है। जल संरक्षण और भूमिगत जलस्तर बचाने को बजटीय प्राथमिकता मे लाने यह जरूरी था। आखिर, बजट सरकारी एक्शन की नियत का दस्तावेज ही है। पिछले बजट में, छत्तीसगढ़ में राज्य आर्द्रभूमि प्राधिकरण की स्थापना की बात आई थी, आद्रभूमि संरक्षण, भूमिगत जल संरक्षण जितना महत्वपूर्ण है। जलदोहन मे सौर आधारित पंपों के नियंत्रण की बहुत जरूरत है। इस बार उसके लिए आबंटन 600 से बढ़ाकर 670 करोड़ कर दिया गया है, और पंपों के ऊर्जिकरण के लिए 200 करोड़ रुपए और रखे गए हैं।
महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ग्राम पंचायतों में अलग से महिला सदन बनाने का प्रावधान इस बजट में किया गया है। महिलाओं के मेल जोल, बैठकों के लिए अलग सुरक्षित स्थल बनाना, एक अच्छा कदम हो सकता है। परन्तु भवन निर्माण के लिए महज 50 करोड़ रुपये 12 हजार ग्राम पंचायतों के लिए अपर्याप्त है।
छतीसगढ़ वनाधिकार मंच, रायपुर
पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ स्वघोषित निर्वासन से पिछले साल ही देश लौटे हैं।
आठ फऱवरी को हुए चुनाव के बाद वो देश के अगले प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शरीफ़ को सबसे आगे बताया जा रहा था लेकिन शुरुआती नतीजे उनके पक्ष में नहीं दिख रहे हैं।
नवाज़ शरीफ़ पिछले तीन दशकों के दौरान भले ही पाकिस्तान की राजनीति पर हावी रहे हों लेकिन बावजूद इसके कम लोग ही सत्ता के शीर्ष पर उनकी वापसी के कयास लगा पाए होंगे।
उनका पिछला कार्यकाल भ्रष्टाचार के आरोप में दोषी कऱार दिए जाने के बाद समाप्त हो गया था और उससे पिछली बार सैन्य तख़्तापलट में उन्हें सत्ता से हटा दिया गया था।
फिर भी नवाज़ शरीफ़ एक और सफल वापसी करते हुए दिखाई दे रहे हैं, जो एक ऐसे व्यक्ति के लिए किसी नाटकीय बदलाव से कम नहीं है, जिसे अब तक पाकिस्तान की ताक़तवर सेना के प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखा जाता रहा है।
हालांकि चुनाव से ठीक पहले बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा है कि वो पाकिस्तान की सेना के विरोधी नहीं है।
विल्सन सेंटर थिंक टैंक के दक्षिण एशिया मामलों के निदेशक माइकल कूगलमैन कहते हैं, ‘नवाज़ शरीफ़ अगला प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में इसलिए नहीं है कि वो लोकप्रिय नेता हैं। निश्चित रूप से लोकप्रिय नहीं हैं- बल्कि उन्होंने अपने पत्ते सही तरीक़े से खेले हैं।’
नवाज़ शरीफ़ के कट्टर प्रतिद्वंद्वी और सेना के प्रिय रहे पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान इस समय जेल में हैं। इमरान ख़ान की लोकप्रिय तहरीक़-ए-इंसाफ़ पार्टी पर देश भर में प्रतिबंध लगाए गए हैं।
नवाज़ शरीफ़ की कहानी क्या है?
ये कहा जा सकता है कि नवाज़ शरीफ़ वापसी के बादशाह हैं। वो निश्चित रूप से पहले भी ऐसा कर चुके हैं।
दूसरे कार्यकाल में 1999 में उन्हें सैन्य तख़्तापलट में सत्ता से हटा दिया गया था लेकिन 2013 के आम चुनावों में उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में फिर से वापसी की। एक शानदार जीत के बाद वो रिकॉर्ड तीसरी बार प्रधानमंत्री बने थे।
ये देश के लिए एक ऐतिहासिक पल भी था। 1947 में पाकिस्तान के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद से पहली बार हुआ था जब एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के बाद दूसरी चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार सत्ता में आई हो।
लेकिन नवाज़ शरीफ़ का पिछला कार्यकाल उतार-चढ़ाव भरा रहा। शुरुआत में विपक्ष ने छह महीनों तक राजधानी इस्लामाबाद को घेरे रखा।
ये घेराव भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत की जांच पर जाकर समाप्त हुआ और अंतत: मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहाँ 2017 में नवाज़ शरीफ़ को अयोग्य घोषित कर दिया गया।
इसके कुछ दिन बाद ही नवाज़ शरीफ़ ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
जुलाई 2018 में पाकिस्तान की एक अदालत ने नवाज़ शरीफ़ को भ्रष्टाचार का दोषी पाया और उन्हें दस साल की सज़ा सुनाई गई। लेकिन दो महीने बाद ही अदालत के अंतिम फ़ैसला आने तक सज़ा को निलंबित करने के बाद उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
लेकिन दिसंबर 2018 में एक बार फिर उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज दिया गया।
इस बार उन्हें सात साल की सज़ा हुई। ये भ्रष्टाचार का मामला सऊदी अरब में उनके परिवार की स्टील मिल के मालिकाना हक़ से जुड़ा था।
इसके बाद नवाज़ शरीफ़ ने अपनी सेहत का हवाला देते हुए ब्रिटेन में इलाज कराने के लिए ज़मानत मांगी।
2019 में नवाज़ शरीफ़ को इलाज कराने के लिए ज़मानत मिल गई और वो लंदन चले गए।
यहाँ चार साल तक वो एक लग्जऱी फ्लैट में निर्वासन में रहे। नवाज़ शरीफ़ पिछले साल अक्तूबर में पाकिस्तान लौटे।
भले ही वो देश से बाहर रहे, लेकिन अपनी ग़ैर-मौजूदगी के बावजूद वो देश के अहम राजनेता बने रहे। पाकिस्तान की राजनीति में वो पिछले 35 सालों से सक्रिय रहे हैं।
शुरुआती दौर
नवाज़ शरीफ़ का जन्म लाहौर के एक प्रमुख औद्योगिक घराने में साल 1949 में हुआ था। शहरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने राजनीति में अपने शुरुआती क़दम रखे।
पाकिस्तान पर 1977 से 1988 तक शासन करने वाले जनरल जिय़ा उल हक़ के कऱीबी रहे शरीफ़ को पाकिस्तान के बाहर 1998 में देश के पहले परमाणु परीक्षण का आदेश देने के लिए जाना जाता है।
नवाज़ शरीफ़ राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार जनरल जिय़ा उल हक़ के मार्शल लॉ लागू करने के शुरुआती दिनों में चर्चा में आए। वो पहले पंजाब प्रांत के वित्त मंत्री बने फिर 1985 से 1990 तक मुख्यमंत्री रहे।
विश्लेषक याद करते हैं कि उस दौर में नवाज़ शरीफ़ ख़ास तौर पर प्रभावशाली राजनेता नहीं थे, हालांकि वो ये भी मानते हैं कि इसके बावजूद शरीफ़ ने अपने आप को एक क़ाबिल प्रशासक के रूप में पेश किया।
नवाज़ शरीफ़ पहली बार साल 1990 में प्रधानमंत्री बने लेकिन 1993 में उन्हें निलंबित कर दिया गया। तब विपक्ष की नेता रहीं बेनज़ीर भुट्टो के लिए सरकार बनाने का रास्ता साफ़ हुआ और वे देश की प्रधानमंत्री बनीं।
नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान के प्रमुख औद्योगिक समूह इत्तेफ़ाक ग्रुप के मालिक हैं और देश के सबसे अमीर लोगों में गिने जाते हैं। उनका समूह स्टील का कारोबार करता है।
सैन्य तख़्तापलट
नवाज़ शरीफ़ 1997 में आसानी से बहुमत प्राप्त करके फिर से देश के प्रधानमंत्री बने। इस कार्यकाल में नवाज़ शरीफ़ एक शक्तिशाली नेता के रूप में सामने आए। सेना को छोडक़र देश के बाक़ी संस्थानों पर उनकी पकड़ दिखी।
फिर, संसद में विपक्ष से निराश होकर, उन्होंने एक संवैधानिक संशोधन पारित करने की कोशिश की, जिससे उन्हें शरिया क़ानून लागू करने में सक्षम बनाया जा सके।
उन्होंने अन्य सत्ता केंद्रों का भी सामना किया– उनके समर्थकों की भीड़ ने सुप्रीम कोर्ट में तोडफ़ोड़ की और उन्होंने पाकिस्तान की शक्तिशाली सेना पर लगाम लगाने की कोशिश की।
लेकिन साल 1999 में सेना के शक्तिशाली जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने नवाज़ शरीफ़ की सरकार का तख़्तापलट कर दिया। इससे एक बार फिर ये साबित हुआ कि देश में सेना के प्रभाव कम करने की कोशिशों का क्या अंजाम हो सकता है।
शरीफ़ को गिरफ्तार कर लिया गया, उन्हें जेल भेज दिया गया और अंतत: आतंकवाद और हाइजैकिंग के आरोप में उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुना दी गई। उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में भी दोषी कऱार दिया गया और उन पर राजनीतिक गतिविधियों से आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया।
लेकिन, कथित रूप से सऊदी अरब की मध्यस्थता में हुए एक समझौते के बाद उन्हें और उनके परिवार के लोगों को जेल नहीं भेजा गया।
शरीफ़ और उनके परिवार के 40 लोगों को सऊदी अरब निर्वासित कर दिया गया। उन्हें दस साल तक सऊदी में निर्वासित जीवन बिताना था।
उस समय इस्लामाबाद में बीबीसी की संवाददाता रहीं ओवेन बेनेट जोंस याद करती हैं कि जब शरीफ़ को सत्ता से हटाया गया था तब बहुत से पाकिस्तानी लोगों ने राहत की सांस ली थी और शरीफ़ को एक भ्रष्ट, अक्षम और सत्ता का भूखा राजनेता बताया गया था।
भ्रष्टाचार के आरोप
राजनीतिक बीहड़ में शरीफ़ का पहला वनवास साल 2007 में सेना के साथ हुए एक समझौते के बाद समाप्त हुआ।
नवाज़ शरीफ़ वापस पाकिस्तान लौटे और विपक्ष में रहते हुए सब्र के साथ अपना वक़्त काटते रहे।
2008 के चुनाव में उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज़ पार्टी को लगभग एक चौथाई सीटें हासिल हुईं।
हालांकि, ये अनुमान लगाए जा रहे थे कि 2013 का चुनाव वो जीत लेंगे, लेकिन जिस बहुमत के साथ उन्होंने सत्ता में वापसी की उससे राजनीतिक विश्लेषक भी हैरान रह गए।
पाकिस्तान के पूर्व क्रिकेट कप्तान इमरान ख़ान की पार्टी ने पूरे जोश के साथ ये चुनाव लड़ा था लेकिन इमरान नवाज़ शरीफ़ को कोई ख़ास टक्कर नहीं दे सके थे।
इमरान ख़ान की पार्टी ने राजनीतिक रूप से अहम पंजाब प्रांत में नवाज़ की पार्टी को इन चुनावों में टक्कर दी थी।
हालांकि, साल 2013 में सत्ता संभालते ही नवाज़ शरीफ़ को पाकिस्तान की पीटीआई पार्टी से कड़े जनवविरोध का सामना करना पड़ा।
पीटीआई ने उन पर चुनावों में धांधली के आरोप लगाए और पार्टी के कार्यकर्ताओं ने राजधानी इस्लामाबाद को घेर लिया।
ऐसे आरोप भी लगे कि राजधानी की घेराबंदी पाकिस्तान की कुख़्यात ख़ुफिय़ा एजेंसी आईएसएआई के कुछ शीर्ष अधिकारियों के इशारे पर की गई। ये घेराबंदी कऱीब छह महीनों तक चली।
विश्लेषक ये मानते हैं कि पाकिस्तान का सैन्य प्रतिष्ठान नवाज़ शरीफ़ पर भारत के साथ कारोबारी रिश्तों को और न बढ़ाने के लिए दबाव बनाना चाहता था।
पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान भारत और पाकिस्तान के कारोबारी रिश्तों को बेहतर करने की प्रक्रिया शुरू हुई थी।
अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान नवाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान को एशिया का टाइगर बनाने का वादा किया था।
उन्होंने नया इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित करने और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त न करने की नीति पर चलने का वादा किया था।
लेकिन समस्याएं बढ़ती ही गईं और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की एकमात्र सुर्खी रहा चीन के निवेश वाला 56 अरब डॉलर का चीन पाकिस्तान इकोनॉमिक कारिडोर (सीपेक) भी विवादों में फँस गया।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कमज़ोर होती गई और अब तक इस प्रोजेक्ट के कुछ ही हिस्से पूरे हो सके हैं।
2016 में पनामा पेपर लीक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के लिए नए ख़तरे लेकर आया। उन पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच सुप्रीम कोर्ट ने शुरू कर दी।
ये आरोप सेंट्रल लंदन के एक पॉश इलाक़े में उनके परिवार के अपार्टमेंट के स्वामित्व से जुड़े हुए थे।
इन संपत्तियों को खऱीदने के लिए जिस पैसे का इस्तेमाल हुआ था उस पर सवाल उठे। मनी ट्रेल की जांच शुरू हुई और नवाज़ इसमें फंसते चले गए।
नवाज़ शरीफ़ ने सभी आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताते हुए ख़ारिज कर दिया। हालांकि 6 जुलाई 2018 को पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें भ्रष्टाचार का दोषी कऱार दिया और उनकी ग़ैरमौजूदगी में उन्हें दस साल जेल की सज़ा सुना दी गई।
जब इस सज़ा का एलान हुआ, नवाज़ शरीफ़ लंदन में अपनी बीमार पत्नी के पास थे। शरीफ़ की बेटी मरियम नवाज़ और दामाद को भी सज़ा सुनाई गई।
और फिर आया मौका...
नवाज़ के प्रतिद्वंद्वी इमरान ख़ान देश पर शासन कर रहे थे और शरीफ़ लंदन में अपना समय काट रहे थे।
लेकिन इमरान ख़ान का शासन भी उथल-पुथल भरा रहा और सेना के साथ उनके रिश्ते खऱाब होते चले गए।
साल 2022 में अविश्वास प्रस्ताव के बाद इमरान ख़ान को सत्ता से हटा दिया गया और नवाज़ शरीफ़ की पार्टी के एक बार फिर से सत्ता में आने का रास्ता साफ़ हो गया।
नवाज़ शरीफ़ के छोटे भाई शाहबाज़ शरीफ़ ने इस बार पार्टी का कमान संभाली।
इमरान ख़ान के पतन के बाद से ही नवाज़ शरीफ़ ने अपनी राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ा दीं और सत्ता में आने के प्रयास में लग गए।
नवाज़ शरीफ़ जोर शोर के साथ अक्तूबर 2022 में पाकिस्तान वापस लौटे और उसके बाद से उनके ख़िलाफ़ चल रहे लगभग सभी मुक़दमे समाप्त हो गए हैं और क़ानूनी चुनौतियां ख़त्म हो गई हैं।
ये बिडंबना ही है कि जिस सेना ने नवाज़ शरीफ़ का तख़्तापलट किया था, इस बार उसने ही उनका स्वागत किया।
यदि नवाज़ शरीफ़ की पार्टी चुनाव जीत लेती है तो सत्ता में उनका लौटना लगभग तय माना जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान के सभी लोग शरीफ़ को पसंद ही करते हैं।
नवाज़ शरीफ़ और उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ ख़ासी नाराजग़ी है क्योंकि पाकिस्तान के लोग उन्हें देश की खऱाब हालत का जि़म्मेदार मानते हैं।
भ्रष्टाचार के आरोपों से भी उनकी छवि दागदार रही है।
चैटम हाउस के एशिया पैसिफिक़ कार्यक्रम की एसोसिएट फैलो डॉ। फरज़ाना शेख़ कहती हैं, ‘वे चुनाव जीत रहे हैं लेकिन नवाज़ शरीफ़ की पार्टी के एक बार के रिकॉर्ड को छोड़ दें तो पाकिस्तान में कभी कोई पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में नहीं आई है।’
‘सभी संकेत उनके प्रधानमंत्री बनकर लौटने या फिर सबसे बड़ी पार्टी के नेता के रूप में उभरने के हैं। हालांकि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि सदन में उन्हें किस तरह का बहुमत मिलता है।’
क्या नवाज़ चौथी बार प्रधानमंत्री बनेंगे?
पाकिस्तान की राजनीति में ये उथल-पुथल भरा नाज़ुक वक़्त है और नवाज़ शरीफ़ ख़ुद को एक अनुभवी राजनेता के रूप में पेश कर रहे हैं। वे अपने तीन कार्यकालों का रिकॉर्ड दिखा रहे हैं। वे अर्थव्यवस्था को स्थिर करने और पाकिस्तान को सही दिशा में ले जाने का वादा कर रहे हैं।
माइकल कूगलमैन कहते हैं, ‘शरीफ़ के समर्थक ये उम्मीद करते हैं कि उनका स्थिरता लाने का वादा, अनुभव और भरोसेमंद नेतृत्व उन्हें वोट दिलाएगा। वे उम्मीद कर रहे हैं कि सेना भी नवाज़ शरीफ़ को लेकर सहज होगी या कम से कम उनकी पार्टी से सहज होगी।’
लेकिन विश्लेषक अब भी सावधान हैं। नवाज़ शरीफ़ को अभी कई चुनौतियों को पार करना हैं, सिफऱ् पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था ही संकट में नहीं हैं। आर्थिक संकट के लिए उनकी पार्टी को ही जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है। ये आम धारणा भी है कि चुनाव निष्पक्ष नहीं होंगे क्योंकि मुख्य विपक्षी इमरान ख़ान जेल में हैं।
डॉ. शेख़ कहती हैं, ‘वे संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि उनकी पार्टी जिसका नेतृत्व उनके भाई कर रहे हैं, पूर्व गठबंधन सरकार की वरिष्ठ सहयोगी है, सरकार को कई सख़्त आर्थिक नीतियां लागू करनी पड़ी हैं, जिनकी भारी क़ीमत चुकाई गई है।’
शेख कहती हैं, ‘देश जिस संकट में घिरा है, भले ही उसके लिए न सही लेकिन देश की आर्थिक हालत के लिए नवाज़ शरीफ़ और उनकी पार्टी को ही जि़म्मेदार माना जाता है। फिर पाकिस्तान में सेना भी है, जिसका पाकिस्तान के शासन में सबसे बड़ा दख़ल रहता है।’
विदेश में रहते हुए, नवाज़ शरीफ़ ने कई बार सेना के ख़िलाफ़ खुलकर बयान दिए हैं। ख़ास तौर पर उन्होंने आईएसआई के एक पूर्व प्रमुख और पूर्व सेना प्रमुख को देश की राजनीतिक अस्थिरता के लिए जि़म्मेदार ठहराया था। हालांकि इन जनरलों ने आरोपों को ख़ारिज किया था।
नवाज़ शरीफ़ ने देश की न्यायपालिका की भी सख़्त आलोचना की है और जजों पर मिलीभगत के आरोप लगाते हुए दावा किया है कि उन्हें फज़ऱ्ी मुक़दमों में फँसाया गया।
नवाज़ शरीफ़ का कहना है कि इसका नतीजा ये हुआ कि पाकिस्तान में लोकतंत्र कमज़ोर हुआ और इस वजह से देश का एक भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया।
पाकिस्तान की सेना ने कभी ये नहीं कहा कि वो नवाज़ शरीफ़ को पसंद करती है या फिर इमरान ख़ान को या देश के किसी अन्य राजनेता को।
पाकिस्तान की सेना का अधिकारिक बयान यही रहा है कि वह देश की राजनीति में दख़ल नहीं देती है।
हालांकि, विश्लेषक ये मानते हैं कि नवाज़ शरीफ़ ने पाकिस्तान वापसी को लेकर सेना के साथ समझौता किया होगा।
कूगलमैन कहते हैं, ‘ये एक तथ्य है कि पाकिस्तान लौटने के बाद से उन्हें बहुत अधिक क़ानूनी राहतें मिली हैं और इससे ये साबित होता है कि वो शक्तिशाली सेना के चहेते बन गए हैं। पाकिस्तान की न्यायपालिका पर सेना का भारी प्रभाव है।’
वे कहते हैं कि शरीफ़ की सफलता की ‘बड़ी बिडंबना’ ये है कि भले ही इस वक़्त वे सेना के कऱीब नजऱ आ रहे हों लेकिन वो हमेशा सेना से झगड़ा ही करते रहे हैं।
कूगलमैन कहते हैं, ‘अगर आप पाकिस्तान में एक राजनेता हैं और आपकी पीठ पर सेना का हाथ है तो आपकी चुनावी कामयाबी की संभावना अधिक होती है।’ (bbc.com)
-मोहम्मद हनीफ
करीब छह साल पहले मैंने पहली बार पंजाबी में ब्लॉग लिखा था। उस समय भी पाकिस्तान में चुनाव होने वाले थे। संपादकों ने मुझसे कहा कि चुनाव पर टिप्पणी कर दीजिए। मैंने कहा कि ये पहले चुनाव हैं, जिनमें किसी लंबे-चौड़े विश्लेषण की ज़रूरत नहीं है।
इमरान खान के लिए ज़मीन तैयार है और इमरान खान प्रधानमंत्री बन गए। उस समय नवाज शरीफ और उनकी बेटी मरियम नवाज शरीफ दोनों जेल में थे। चुनाव लडऩे से अयोग्य भी ठहराए जा चुके थे।
वर्दीधारियों ने इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाकर उनकी और अपनी ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए कुछ ऐसा माहौल तैयार किया था, जिसके लिए मिर्जा-साहिबा (मशहूर पंजाबी प्रेम कथा) की जट्टी ने दुआ की थी।
कुत्ती मरे फकीर दी जेहड़ी च्याँउ-च्याँउ नित करे,
हट्टी सड़े कराड़ दी जित्थे दीवा नित बले,
ते गलियाँ होण सुनियाँ विच्च मिजऱ्ा यार फिरे’
(कुत्ती मरे फक़ीर की, जो च्याँउ च्याँउ नित करे
दुकान जले कराड़ की जहां दीया नित जले
गलियां हो जाएं खाली और वहां मिजऱ्ा यार फिरे)
इमरान ख़ान पर आरोप क्या-क्या हैं?
अब फिर चुनाव हैं। हमारा मिर्जा यार इमरान ख़ान था, वह जेल में है।
इमरान ख़ान ना सिफऱ् जेल में हैं बल्कि उनके लिए कोर्ट भी अब जेल में ही लगती है। पहले से ही तीन साल की सजा काट रहे थे, फिर पिछले हफ्ते अदालत ने उन्हें बताया कि कोई साइफर नाम का सरकारी पत्र उन्होंने खो दिया है, 10 साल कि जेल और अगले दिन उस पर एक घड़ी चुराने और उसे बेचने का आरोप लगाया गया, और 14 साल की जेल और।
फिर कहा कि आपकी शादी भी ठीक नहीं हुई है, चलिए 7 साल और। ख़ान साहब के खिलाफ अभी भी 172 मुकदमे हैं।
जिस तेजी से न्याय हो रहा है, उससे लगता है कि चुनाव से पहले खान साहब को डेढ़ हजार साल की सजा-ए-कैद हो जाएगी।
लेकिन हमारे बुद्धिमान लोगों को सज़ा देने के अलावा और भी बहुत कुछ काम है। चुनाव सिर पर हैं, इसकी तैयारियां भी पूरी हो चुकी हैं। ख़ान का चुनाव चिन्ह ‘बल्ला’ छीन लिया गया है। पार्टी कि टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए हैं, लोगों को उठाया गया है, वेबसाइटें खोली गईं, बंद की गईं और फिर से खोली गई हैं।
माहौल ऐसा बना दिया गया है कि जिन लोगों ने ख़ान के आदमियों को वोट देना था, उनको या तो टिकट पर आदमी ही न मिले या वे आपने गम में घर बैठ कर गाने सुनते रहें, क्योंकि हमारे ख़ान ने प्रधानमंत्री ही नहीं बनना है तो फिर हम क्यों वोट दें। जिन लोगों ने यह पूरा माहौल बनाया है, उन्हें अब भी संदेह है कि लोग घर से बाहर निकल ही न आएं। उन्हें अपने प्रत्याशी के निशान की पर्ची मिल ही न जाए।
दुश्मन मरे को खुशी न करिए...
जिन लोगों को ख़ान ने जेल में डाला था, वे चुनाव लडऩे के लिए तैयार हैं। ख़ान के बारे में बाहर-बाहर से तो कहते हैं कि ‘दुश्मन मरे तां खुशी न करिए, सज्जना भी मर जाना’ (विख्यात पंजाबी सूफी शायर मियाँ मोहम्मद बख़्श के गीत का एक हिस्सा जिसका अर्थ है- दुश्मन मरे तो ख़ुशी न मनाएं, सज्जन भी मर जाएंगे) लेकिन साथ ही ठंडी-ठंडी नसीहतें भी देते हैं।
पाकिस्तान के पुराने राष्ट्रपति आसिफ अली जऱदारी साहब ने सबसे ज्यादा समय जेल में बिताया है। वे कहते हैं कि जेल राजनेताओं के लिए एक विश्वविद्यालय है। इमरान ख़ान को चाहिए कि वह जेल से कुछ सीख कर आएं।
हमारे चुनाव विश्लेषकों का भी कहना है कि करोड़ों युवा ऐसे हैं जिन्हें इस चुनाव में पहली बार वोट देना है। वे इस पुराने चक्कर में नहीं पडऩा चाहते। वे अपने स्मार्ट फोन, अन्य ऐप या व्हाट्सएप से रास्ता ढूंढ लेंगे।
वैसे ये युवा वोटर भी सोचते होंगे कि पाकिस्तान में या तो कोई आदतन अपराधी प्रधानमंत्री बन जाता है या फिर, पता नहीं कोई प्रधानमंत्री आदतन अपराधी बन जाता है।
एक बात जो उन्हें अभी तक समझ नहीं आई वो ये कि आप सोशल मीडिया पर चाहे कितने भी ट्रेंड करें या मीम्स बना लें, लेकिन यहां पाकिस्तान में एक पुराना ट्रेंड चल रहा है, जिसमें कहा जाता है, ‘डंडा पीर है विगडिय़ाँ तिगडिय़ाँ दा।’
यानी बिगड़े हुए लोगों का एक ही इलाज है - डंडा। चुनाव से पहले जो डंडा चलना था वो चल गया। बाकी चुनाव के दिन और उसके बाद भी जारी रहेगा।
किस प्रधानमंत्री के साथ होगा गुजारा
पिछले चुनाव से पहले एक बुद्धिमान व्यक्ति ने पूछा था, ‘मुझे समझ नहीं आता कि चुनाव में अपने आदमी को जिताने में इतनी परेशानी क्यों हो रही है? नवाज़ शरीफ को ले आयो, इमरान ख़ान को ले आयो, आप उनके साथ नहीं चल सकते। आपको वज़ीर-ए-आजम बना दें या हमें भी बना दें, फिर भी गुजारा नहीं होगा।’
इमरान ख़ान को प्यार करने वालों को एक बात याद रखनी चाहिए कि अगर अब उनके वो दिन नहीं रहे तो ये दिन भी नहीं रहेंगे।
(bbc.com/hindi)
-डॉ. आर.के. पालीवाल
(प्रधानमंत्री के नाम खुले पत्र के रुप में )
आदरणीय प्रधानमंत्री, भारत सरकार नरेंद्र मोदी जी आप अक्सर अपने नौ संकल्पों का जिक्र करते हैं जिनमें आप देश के तमाम नागरिकों का भी सहयोग चाहते हैं। आपके यह नौ संकल्प निसंदेह बहुत सुंदर हैं। इनके लिए पूरा देश आपका साथ देने के लिए तन मन धन से सहर्ष सहयोग के लिए तैयार भी हो सकता है क्योंकि इन सबका उद्देश्य पवित्र है और राष्ट्रहित में है।
यहां उन नौ संकल्पों का संक्षिप्त विवरण भी समीचीन होगा जिनका जिक्र अक्सर प्रधानमंत्री करते हैं, वे हैं 1. पानी की बूंद बूंद बचाकर जल सरंक्षण के प्रति जागरूकता लाना 2. सभी गांवों में डिजिटल लेनदेन की जागरूकता पैदा करना 3. स्वच्छता अभियान को हर जगह अधिकाधिक व्यापक बनाना 4. लोकल और मेड इन इंडिया वस्तुओं का ही उपयोग करने का प्रयास करना 5. प्राकृतिक खेती के प्रति जागरूकता बढ़ाना 6. भोजन में मिलेट्स का अधिक से अधिक उपयोग कर स्वस्थ रहना 7. फिटनेस के लिए योग और खेलकूद अपनाना 8. देश में ही पर्यटन कर भारत की विविध संस्कृति के दर्शन करना और 9. कम से कम एक गरीब परिवार को सहारा देने का प्रयास करना। क्योंकि उपरोक्त सभी नौ बिंदु नागरिकों के स्वास्थ, हमारे परिवेश के सौंदर्य, प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण और राष्ट्र के तेजी से आर्थिक विकास से संबंधित हैं इसलिए इनसे किसी व्यक्ति या किसी राजनीतिक दल का भी कोई विरोध नहीं हो सकता। हालांकि इन संकल्पों की पूर्ण आहुति तभी संभव है जब आप इसमें एक और अर्थात दसवां संकल्प और जोड़ देंगे। वह है सांप्रदायिक सौहार्द्र का संकल्प।
जब देश में कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से मणिपुर तक सांप्रदायिक सद्भाव का सरस वातावरण होगा, जब न किसी समुदाय विशेष के मन में श्रेष्ठता का अहंकार होगा और न किसी सम्प्रदाय के दिलोदिमाग में दूसरे संप्रदाय से भय की भावना होगी तभी सही अर्थ में सबका साथ सबका विकास का आपका खूबसूरत सपना और चुनावी सभाओं में गूंजने वाला बहुप्रचारित पूरा हो पाएगा। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि विगत कुछ वर्षों से देश में साम्प्रदायिक और सामाजिक सौहार्द्र कमजोर होता जा रहा है। यह राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर खतरे के निशान को छू रहा है। इसके लिए सबसे पहले आपको अपने विश्वसनीय वोट बैंक,हिंदुत्व वादी संगठनों के नेताओं और युवा कार्यकर्ताओं का विशेष रुप से आव्हान करना होगा जो जब तब अल्प संख्यक समुदाय को आतंकित करने में अपनी उर्जा जाया करते रहते हैं।
कोई माने या न माने लेकिन संविधान के अनुसार आप सब देशवासियों के प्रधानमंत्री हैं इसलिए आपकी जिमेदारी बनती है कि आप विशेष रूप से विपक्षी दलों और अपने विरोधियों का विश्वास जीतने के लिए ऐसे कदम उठाएं जिस तरह के प्रयास आपके अपने दल के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने उठाए थे और सबका दिल जीतने की हर संभव कोशिश की थी। वे इस प्रयास में काफी हद तक सफ़ल भी हुए थे। यही कारण है कि उन्हें पूरा देश उनके उदार और समावेशी दृष्टि के लिए शिद्दत से याद करता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जिनका जिक्र विशेष रूप से आप अक्सर अपने अंतरराष्ट्रीय संबोधनों में करते हैं वे भी सामाजिक और सांप्रदायिक सौहार्द के लिए अत्यंत चिंतित रहते थे और इसे उन्होंने अपने अठारह रचनात्मक कार्यों की सूची में काफी ऊपर रखा था।
अल्प संख्यक समुदाय और निचले पायदान पर बैठे नागरिकों को साथ लिए बगैर हम स्वस्थ, शिक्षित और समृद्ध भारत की कल्पना नहीं कर सकते। विश्व गुरु बनने के लिए हमें पहले अपने घर का हाल ठीक करना जरूरी है। आशा है आप अपने संकल्पों में सांप्रदायिक सौहार्द का संकल्प अवश्य जोड़ेंगे। ऐसा करने से निश्चित रूप से भारत तेजी से आर्थिक और सांस्कृतिक समृद्धि प्राप्त कर सकता है।
ध्रुव गुप्त
आज वैलेंटाइन बाबा का दूसरा दिन ‘प्रोपोज़ डे’ है। हमारे दौर में वैलेंटाइन डे या सप्ताह एक अजानी-सी चीज़ हुआ करती थी। हां, प्रेम की भावनाएं तब भी थीं, वे उबाल भी मारती थीं और यदाकदा प्रोपोज भी होती थीं। उन दिनों में प्रेम के अंदाज़ अलग और तेवर आज से बहुत ज़ुदा हुआ करते थे। इश्क़ का मतलब चाहे पता न हो, लेकिन ज़ांबाजी इतनी थी कि इश्क़ के प्रस्ताव तब स्याही से नहीं, खून से लिखे जाते थे। स्कूली दिनों में मैंने खून से तो नहीं, उससे मिलते-जुलते लाल स्याही से एक ख़त लिखकर अपनी एक सहपाठिनी को प्रोपोज़ किया था। ख़त 'ये मेरा प्रेमपत्र पढक़र तुम नाराज़ ना होना' से शुरू हुआ और उस दौर के सबसे धांसू शेर के साथ अंजाम तक पहुंचा - लिखता हूं ख़त खून से स्याही न समझना / मरता हूं तेरे नाम पे जिंदा न समझना। जैसा कि उन दिनों आमतौर पर होता था, ख़त घूम-फिरकर क्लास टीचर के हाथों में पहुंच गया। फिर प्रणय-निवेदन का जो अवदान मिला, वह था हथेली पर सौ-पचास छड़ी और क्लास रूम के बाहर स्कूल की आखिरी घंटी तक मुर्गा बनकर अपनी उस एकतरफा प्रेमिका और उसकी सहेलियों का भरपूर मनोरंजन। प्रेमिका ज्यादा 'कोमल-ह्रदय' थी सो चि_ी वाली बात घर तक भी पहुंचा दी गईं। फिर हुआ घर में भी इश्क़ का भूत झाडऩे का सिलसिला शुरू। उफ्फ़़ कैसी तो जालिम होती थीं हमारे ज़माने की प्रेमिकाएं ! ऐसी दुर्दशा करवाने के बाद हमदर्दी का मरहम लगाना तो दूर, ससुरी मुस्कुराती हुई बगल से ऐसे निकल जाती थीं कि उस दौर का दूसरा सबसे लोकप्रिय शेर जुबान पर आ जाता था- आकर हमारी कब्र पे तुमने जो मुस्कुरा दिया, बिजली चमक के गिर पड़ी सारा कफऩ जला दिया।उसके बाद स्कूल-कॉलेज में जिस जिसपर भी प्यार आया, वह अव्यक्त ही रहा। प्रणय-निवेदन का वैसा खूंखार प्रतिदान पाकर दोबारा प्रपोज करने का साहस कौन जुटा पाता है? अब हिम्मत आई तो है लेकिन तब जब अपना ज़माना बीत चुका है- सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया!
बहरहाल मेरा जो हुआ सो हुआ, आप सभी मित्रों को ‘प्रपोज डे’ की शुभकामनाएं !
डॉ. आर.के. पालीवाल
पदम पुरस्कारों को लेकर राजनीति शुरु से ही होती रही है और इसीलिए इन पुरस्कारों पर जब तब खूब आरोप भी लगते रहे हैं। जब पुरस्कार देने के लिए कोई पारदर्शी और निष्पक्ष व्यवस्था नहीं होती तब उसके संदिग्ध होने की संभावना भी काफी बढ जाती है। इसमें भी जब पुरस्कार देने का अंतिम निर्णय सरकार नाम की संस्था के हाथ में रहता है तब तो उसकी विश्वसनीयता और भी कम हो जाती है, और जब सरकार किसी कट्टर वाम या दक्षिण विचारधारा की समर्थक होती है या धर्म, जाति , भाषा और क्षेत्रीयता को लेकर संकीर्ण सोच वाली होती है तब तो यही कहा जा सकता है कि पुरस्कारों का भगवान ही मालिक है। लाल कृष्ण आडवाणी को सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न की घोषणा भी इतनी अप्रत्याशित रही है कि इस पर कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया केवल आश्चर्य चकित होने की ही हो सकती है।
सामान्यत: पदम पुरस्कारों की घोषणा गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर की जाती है क्योंकि इस दिन ही देश का संविधान लागू हुआ था, इसलिए राष्ट्र के इस पवित्र दिन देश के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाले अदभुत प्रतिभा की धनी विशिष्ट विभूतियों को विशेष पुरस्कारों से सम्मानित किया जाना समीचीन है। जहां तक लालकृष्ण आडवानी का प्रश्न है 2015 में उनके जीवन और व्यक्तित्व का समग्र मूल्यांकन करते हुए उन्हें पद्म विभूषण के दूसरे सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
2015 के बाद भारतीय जनता पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में शामिल होने के अलावा देश के नागरिकों को राष्ट्र के प्रति उनकी किसी अन्य सेवा की कोई खबर नहीं है जिस वजह से सात वर्ष बाद उनके पदम विभूषण को अपग्रेड कर भारत रत्न किया गया है। सरकार 2015 में भी वही थी जो 2024 में है इसलिए यह प्रश्न उठता है कि सात वर्ष में ऐसा क्या हुआ जो आडवाणी का पुरस्कार अपग्रेड हुआ।प्रबल संभावना है कि देर सवेर यह मामला भी सर्वोच्च न्यायालय पहुंच सकता है और पहुंचना भी चाहिए क्योंकि भारत रत्न कोई पदम श्री की तरह थोक में दिया जाने वाला पुरस्कार नहीं है।
सरकार ने इसके पहले नानाजी देशमुख को भी भारत रत्न दिया था।उन थोड़ी अलग बात है। वे जनसंघ की स्थापना करने वाले नेताओं में अवश्य शरीक थे लेकिन अपने जीवन के उत्तरार्ध में वे अराजनीतिक होकर पूर्णत: व्यापक समाजसेवा को समर्पित हो गए थे। चित्रकूट के आसपास स्थित उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बहुतेरे गांवों में उनके प्रयास फलीभूत हुए हैं। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेई के भारत रत्न की भी राष्ट्रीय स्वीकार्यता थी।उनकी छवि भी कवि हृदय उद्दात व्यक्तिव की थी जिनका सम्मान उनके विरोधी भी करते थे। नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेई की तुलना में लाल कृष्ण आडवाणी का व्यक्तित्व काफी हल्का पड़ता है। विशेष रूप से उनकी रथयात्रा और उसके बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस में उनकी प्रमुख भूमिका उनकी जीवन यात्रा के दो ऐसे पड़ाव हैं जिनसे भारतीय जनता पार्टी तो दिल से कृतज्ञ हो सकती है लेकिन भारत का संविधान, नियम कानून और नागरिक उनके प्रति कृतज्ञ नहीं हो सकते।
भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा से जुड़े तीनों राजनीतिज्ञों को भारत रत्न इसी सरकार ने दिया है इसलिए इसका जोरदार विरोध भी स्वाभाविक है। कोई सरकार यदि पारदर्शी व्यवस्था के बजाय सिर्फ विचारधारा की वजह से सर्वोच्च पुरस्कार घोषित करेगी तो उसकी विवेचना और जरुरत पड़े तो कड़ी आलोचना होने की पूरी संभावना रहती है। बेहतर है सरकार खुद आगे आकर उन आलोचनाओं का तर्कपूर्ण उत्तर दे और यह स्पष्ट करे कि नौ साल बाद किस वजह से आडवाणी जी को प्रदत्त पुरस्कार अपग्रेड किया गया है!
जय सुशील
किसी कारण से पिछले दिनों द ग्रेट इंडियन किचन फिर से देख रहा था। दोबारा देखते हुए भी उतना ही गुस्सा आया जितना पहली बार आया था। हालांकि दूसरी बार में देखने पर फिल्म का दूसरा हिस्सा राजनीतिक लगा सबरीमाला के संदर्भ में लेकिन अच्छा ही था। इसी क्रम में तमिल लेखिका अंबई की दो कहानियां भी पढ़ीं। छोटी छोटी कहानियां-गिफ्ट्स और ए किचन इन द कार्नर ऑफ द हाउस।
इन तीनों कहानियों में रसोई केंद्र में है और रसोई है तो उसमें औरतें हैं उनकी कहानियां हैं। गिफ्ट्स में जहां एक महिला दिल्ली से जाती है और दो परिवारों से मिलती है किसी काम से और उनके घर की औरतों के साथ दिल्ली से आई महिला का इंटरैक्शन है वहीं किचन इन द कार्नर ऑफ द हाउस में राजस्थान के एक संयुक्त परिवार की छोटी सी कहानी है जहां घर बेहतरीन है लेकिन किचन किसी कोने में पड़ा है लेकिन वहां से खाना ऐसे बन बन कर आता है मानो कोई जिन्न खाना बना रहा हो। ये जिन्न कोई और नहीं घर की महिलाएं हैं जो यह मान कर चल रही हैं कि किचन की चाबी ही उनकी ताकत का चिन्ह है।
खास कर पुरूषों को या कहें कि दक्षिण एशियाई पुरुषों को मनुष्य बनाने का एक तरीका यह भी है कि उन्हें साल में ग्रेट इंडियन किचन जैसी फिल्म दिखाई जाए या ऐसी कहानियां पढऩे को दी जाएं।
मुझे बहुत अच्छे से याद है कि इसी फेसबुक पर एक बुजुर्ग पत्रकार ने सिल लोढ़े पर पिसी चटनी के स्वाद को लेकर कुछ कहा था जो जाहिर है कि चटनी औरतों को ही पीसना होता था। आज फिल्म देखते हुए यह ध्यान आया कि फिल्म का ससुर अपनी बहू से कहता है कि दोसे की चटनी क्या मिक्सी में बनाई है और बहू कहती हैं हां तो बुड्ढा चिढ़ जाता है।
इसी तरह यह बुढा ससुर चावल को कुकर में पकाने पर आपत्ति करता है। यह सब पढ़े लिखे लोग हैं। यह वो ससुर है जो अपने हाथ से टूथब्रश और पेस्ट तक नहीं लेता है। पत्नी या बहू उसे यह सब लाकर देते हैं जबकि वो सक्षम है। एक और दृश्य है जहां ससुर खड़ा है और सासु मां चप्पल लाकर देती है तो वो पहन कर बाहर जाते हैं।
यह दृश्य मेरी नजऱों के सामने आते ही मुझे अपने एक रिश्तेदार की याद आई जो बहुत पढ़े लिखे हैं इंटलेक्चुअल टाइप। उनको मैंने कई बार देखा है कि दफ्तर जाते हुए वो दरवाज़े के पास खड़े होते हैं और यूं मुंह बनाते हैं कि उन्हें पता नहीं कौन सा जूता पहनना है फिर बीवी निकाल कर देती है जूता। चूंकि उस रिश्तेदार से बातचीत होती नहीं वर्ना मैं उनको ये फिल्म भेजता कि इसे परिवार के साथ देखें।
मेरे एक और पुरुष रिश्तेदार थे जो हर रविवार को घोषणा करते कि वो खाना बनाएंगे और उसके बाद बहुत ही खराब खाना बनाकर सबको जबर्दस्ती खिलाते।
एक बार उन्होंने बिरयानी बनाई जिसमें चावल कच्चा ही रह गया था। चूंकि वो घर के मालिक थे तो सबने कहा बहुत बढिय़ा है। मैं दूर का रिश्तेदार था और मुझे बीमारी थी सच बोलने की तो मैंने बता दिया कि चावल कच्चे हैं और ये खाऊंगा नहीं क्योंकि इससे मेरे पेट में दर्द हो जाएगा। सारे घर का मुंह देखने लायक था।
बाद बाकी खाना पुरुष बनाता है तो किचन की हालत देखने वाली होती है। वो खाना बनाकर सफाई का जिम्मा औरत पर छोड़ देता है यह भी मैंने देखा है।
कहने का मतलब कुछ नहीं है। बस ये कि अगर आपके आसपास ऐसे लोग हैं तो चुपके से उन्हें ये फिल्म भेज दीजिए। यूट्यूब पर फ्री है और कहिए कि परिवार के साथ बैठकर ये फिल्म देखें आदि आदि आदि।
मैंने अपने कुछ दोस्तों की बीवियों को ये फिल्म भेजी थी और कहा कि पति के साथ बैठ कर देखना। उसके बाद से उन दोस्तों में से आधे लोगों ने हाल चाल पूछना छोड़ दिया। आदि आदि आदि।
कुंवारे पुरुष तो ज़रूर ये फिल्म देखें ताकि उन्हें पता चले कि शादी सिर्फ इसलिए नहीं की जाती कि एक नौकर मिल जाएगा घर में।
सौतिक बिश्वास
उत्तराखंड में एक नया बिल पारित होने के बाद अब वहाँ रहने वाले या रहने की योजना बना रहे लिव-इन जोड़ों को सरकार को अपने रिलेशनशिप के बारे में जानकारी देनी होगी।
उत्तराखंड विधानसभा ने इसी सप्ताह यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड (समान नागरिक संहिता या यूसीसी) को मंज़ूरी दी है।
इस नए बिल के एक अहम प्रावधान के अनुसार धर्म, लिंग और सेक्स को लेकर व्यक्ति की पसंद की परवाह किए बग़ैर राज्य के सभी निवासियों पर समान पर्सनल लॉ लागू होगा।
हालांकि कुछ आदिवासी समुदायों को इस बिल के दायरे से बाहर रखा गया है। बिल के इस एक प्रावधान ने इस पूरे बिल से अधिक ध्यान खींचा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी का वादा था कि वो एक समान क़ानून सभी पर लागू करेगी। मौजूदा वक़्त में उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार है।
भारत के अधिकतर हिस्सों में अब भी साथ में रह रहे अविवाहित जोड़ों को पसंद नहीं किया जाता। इस तरह के रिश्तों को आम तौर पर ‘लिव-इन’ रिलेशनशिप कहा जाता है।
बिल में क्या है?
इस नए बिल के तहत एक पुरुष और एक महिला जोड़े को पार्टनर्स कहा गया है।
नए बिल के अनुसार, इस तरह के जोड़ों को अपने लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को बयान देना होगा, जो इस मामले में तीस दिनों के भीतर जांच करेंगे।
जांच के दौरान ज़रूरी होने पर पार्टनर्स को 'और अधिक जानकारी या सबूत' पेश करने को कहा जा सकता है।
लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में दिए बयान को रजिस्ट्रार स्थानीय पुलिस के साथ साझा करेंगे और अगर जोड़े में किसी एक पार्टनर की उम्र 21 साल से कम हुई तो उनके अभिभावकों को भी सूचित किया जाएगा।
अगर जांच के बाद अधिकारी संतुष्ट हैं तो वो एक रजिस्टर में पूरी जानकारी दर्ज करेंगे और जोड़े को एक सर्टिफिक़ेट जारी करेंगे। ऐसा न होने पर पार्टनर्स को सर्टिफिक़ेट न जारी करने के कारणों के बरे में बताया जाएगा।
बिल के अनुसार, अगर जोड़े में एक पार्टनर शादीशुदा है या नाबालिग़ है या फिर रिश्ते के लिए ज़ोर-जबर्दस्ती या फिर धोखाधड़ी से सहमति ली गई है तो रजिस्ट्रार लिव-इन रिलेशनशिप की रजिस्ट्री करने से इनकार कर सकते हैं।
बिल में लिव-इन रिलेशनशिप को ख़त्म करने के बारे में प्रावधान किया गया है।
इसके अनुसार, रजिस्ट्रार के पास एक आवेदन देकर और दूसरे पार्टनर को इसकी एक प्रति देकर रिश्ते को ख़त्म किया जा सकता है। इसकी जानकारी भी पुलिस को दी जाएगी।
अगर पार्टनर लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को अपना बयान नहीं देते और रजिस्ट्रार को इस बारे में ‘शिकायत या जानकारी’ मिलती है तो वो इस बारे में पार्टनर्स को जानकारी सबमिट करने को कह सकता है। इसके लिए उन्हें 30 दिनों का वक़्त दिया जाएगा।
अधिकारियों को जानकारी दिए बग़ैर, अगर कोई जोड़ा एक महीने से अधिक वक़्त तक लिव-इन में रहता है तो इस मामले में उन्हें तीन महीनों की जेल, 10 हज़ार रुपये का जुर्माना या दोनों ही हो सकती है।
लिव-इन रिलेशनशिप के बारे में रजिस्ट्रार को ‘ग़लत जानकारी देने’ या फिर जानकारी छिपाने के मामले में पार्टनर्स को तीन महीनों की जेल, 10 हज़ार रुपये का जुर्माना या दोनों ही हो सकती है।
जानकार क्यों कर रहे हैं आलोचना?
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इस बिल के प्रस्तावित मसौदे की क़ानून के जानकार आलोचना कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की वरिष्ठ वकील रेबेका जॉन कहती हैं, ‘कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने ये फ़ैसला दिया था कि निजता एक मौलिक अधिकार है।’
‘दो वयस्कों के बीच सहमति से बने रिश्ते के मामले में राज्य को दखल नहीं देना चाहिए। इस प्रावधान को जो बात और ख़तरनाक बनाती है, वो ये है कि अपने रिश्ते को रजिस्टर न करने की सूरत में एक जोड़े को सज़ा भी झेलनी पड़ सकती है। ख़तरनाक प्रावधान है, जिसे हटाया जाना चाहिए।
मौजूदा वक्त में भारत में लिव-इन रिश्तों को साल 2005 के घरेलू हिंसा क़ानून के दायरे में रखा जाता है, जिसके अनुसार ‘घरेलू रिश्ते’ की परिभाषा दूसरे रिश्तों की तर्ज पर दो लोगों के बीच ऐसा रिश्ता है ‘जिसकी प्रकृति शादी के रिश्ते की तरह हो।’ भारत में काम की तलाश में युवा बड़ी संख्या में बड़े शहरों का रुख़ करते हैं। इनमें से कई पारंपरिक शादी और इससे जुड़ी व्यवस्था का विरोध करते हैं। ऐसे में यहाँ अविवाहित जोड़ों का साथ रहना इतना असमान्य भी नहीं है।
साल 2018 में एक लाख 60 हज़ार परिवारों पर हुए एक सर्वे में ये पाया गया कि 93 फ़ीसदी शादियां अरेंज्ड मैरिज हैं जबकि तीन फ़ीसदी लव मैरिज। हालांकि अलग-अलग सर्वे में शादी को लेकर अलग-अलग आँकड़े देखने को मिलते हैं।
मई 2018 में इनशॉर्टस ने इंटरनेट के ज़रिए एक लाख 40 हज़ार लोगों का सर्वे किया था।
इस सर्वे में शामिल होने वाले 80 फ़ीसदी लोगों की उम्र 18 से 35 के बीच थी।
सर्वे में पाया गया कि 80 फ़ीसदी लोगों का मानना है कि लिव-इन रिलेशनशिप को भारत में असामान्य माना जाता है, वहीं 47 फ़ीसदी का मानना था कि शादी में दोनों की सहमति होनी चाहिए। साल 2023 में लायन्सगेट प्ले ने 1000 भारतीयों के बीच एक सर्वे किया था, जिसमें ये पाया गया कि हर दो में से एक भारतीय को लगता है कि अपने पार्टनर को बेहतर समझने के लिए साथ रहना ज़रूरी है।
लिव-इन रिलेशनशिप में क्या शादी जैसी सुरक्षा मिल सकती है?
अदालतों का रुख़
बीते सालों में भारतीय अदालतों ने भी लिव-इन रिश्तों को नापसंद करते हुए टिप्पणियां दी हैं।
2012 में दिल्ली की एक अदालत ने लिव-इन रिलेशनशिप को ‘अनैतिक’ कहा और इस तरह के रिश्तों को ‘शहरी सनक’ और ‘पश्चिमी सभ्यता का बदनाम उत्पाद’ कहते हुए ख़ारिज कर दिया।
हालांकि इस तरह के रिश्तों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का रुख़ सकारात्मक रहा है। 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में साथ रहने के अविवाहित जोड़ों के अधिकार का समर्थन किया था।
ये मामला एक कलाकार खुशबू से जुड़ा था, जिसमें उन पर सार्वजनिक तौर पर शालीनता को ठेस पहुँचाने वाले बयान देने का आरोप था।
ख़ुशबू ने 2005 में विवाह पूर्व यौन संबंध को लेकर कहा था कि महानगरों की लड़कियां अब यौन इच्छाओं को दबाती नहीं हैं, इस बारे में उनके विचार खुले हुए हैं।
उन्होंने भी कहा था कि यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए और माता-पिता को इसकी शिक्षा देनी चाहिए।
खुशबू के सेक्स मुकदमे ख़त्म
लिव-इन रिश्ते नैतिक और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य-पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट
साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने संसद से कहा कि वो लिव-इन रिलेशनशिप में महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए क़ानून लागू करे। कोर्ट ने कहा कि सामाजिक तौर पर मान्यता न दिए जाने के बावजूद इस तरह के रिश्तों को ‘अपराध या पाप की तरह न देखा जाए।’
एक मामले की सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा कि इस तरह के रिश्तों में महिलाओं को घरेलू हिंसा क़ानून के तहत सुरक्षा मिली हुई है। इस क़ानून के तहत दी गई ‘घरेलू रिश्ते की परिभाषा के दायरे में लिव-इन रिलेशनशिप भी शामिल है।’
उत्तराखंड के क़ानून के अनुसार, लिव-इन रिलेशनशिप में रह रही महिला से पुरुष अलग हो जाता है तो वो अदालत से मदद और अपने भरणपोषण के लिए मदद मांग सकती है। इस तरह के रिश्तों से जन्मे बच्चे को भी क़ानूनी उत्तराधिकारी माना जाएगा।
कइयों को ये डर है कि उत्तराखंड में नया क़ानून लागू होने के बाद यहाँ साथ में रह रहे जोड़ों के मन में डर पैदा हो सकता है। उनके ख़िलाफ़ जानकारी देने के मामले बढ़ सकते हैं और जिन जोड़ों की रजिस्ट्री नहीं हुई है, उन्हें ‘किराए पर घर मिलना मुश्किल’ हो सकता है।
जानकारों का ये भी कहना है कि लिव-इन जोड़ों की गिनती करना और उनके मामले रजिस्टर करना भी मुश्किल हो सकता है, ख़ास कर तब जब 2011 से देश में जनगणना नहीं हुई है।