विचार/लेख
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के लिए खरीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को देने के लिए 30 जून तक का समय दिया जाए।
एसबीआई ने इस प्रक्रिया को ‘काफी समय लेने’ वाला काम बताते हुए समय की मांग की है। 30 जून तक देश में लोकसभा चुनाव पूरे हो जाएंगे।
बीते महीने सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जो इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने वाला अकेला अधिकृत बैंक है, उसे निर्देश दिया था कि वह छह मार्च 2024 तक 12 अप्रैल, 2019 से लेकर अब तक खऱीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को दे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड को अज्ञात रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को आर्थिक मदद से उसके बदले में कुछ और प्रबंध करने की व्यवस्था को बढ़ावा मिल सकता है।
चुनाव आयोग को ये जानकारी 31 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर जारी करनी थी।
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है।
यह एक वचन पत्र की तरह है, जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खऱीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है।
मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था।
एसबीआई ने क्या कहा?
सोमवार को एसबीआई ने इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका डाली है।
एसबीआई ने कहा कि वह अदालत के निर्देशों का ‘पूरी तरह से पालन करने करना चाहता है। हालांकि, डेटा को डिकोड करना और इसके लिए तय की गई समय सीमा के साथ कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां हैं’ इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों की पहचान छुपाने के लिए कड़े उपायों का पालन किया गया है। अब इसके डोनर और उन्होंने कितने का इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदा है, इस जानकारी का मिलान करना एक जटिल प्रक्रिया है।’
बैंक ने कहा कि दो जनवरी, 2018 को इसे लेकर ‘अधिसूचना जारी की गई थी।’ यह अधिसूचना केंद्र सरकार की ओर से साल 2018 में तैयार की गई इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना पर थी। इसके क्लॉज 7 (4) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि अधिकृत बैंक हर सूरत में इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदार की जानकारी को गोपनीय रखे।
अगर कोई अदालत इसकी जानकारी को मांगती है या जांच एजेंसियां किसी आपराधिक मामले में इस जानकारी को मांगती है, तभी खऱीदार की पहचान साझा की जा सकती है।
बैंक ने अपनी याचिका में कहा है, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदारों की पहचान को गोपनीय रखने के लिए बैंक ने बॉन्ड कि बिक्री और इसे भुनाने के लिए एक विस्तृत प्रकिया तैयार की है जो बैंक की देशभर में फैली 29 अधिकृत शाखाओं में फॉलो की जाती है।’
एसबीआई ने कहा, ‘हमारी एसओपी के सेक्शन 7.1.2 में साफ़ कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदने वाले की केवाईसी जानकारी को सीबीएस (कोर बैंकिंग सिस्टम) में ना डाला जाए। ऐसे में ब्रांच में जो इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए हैं, उनका कोई सेंट्रल डेटा एक जगह पर नहीं है। जैसे खऱीदार का का नाम, बॉन्ड खरीदने की तारीख, जारी करने की शाखा, बॉन्ड की कीमत और बॉन्ड की संख्या। ये डेटा किसी सेंट्रल सिस्टम में नहीं हैं। ’
‘बॉन्ड खरीदने वालों की पहचान गोपनीय ही रहे यह सुनिश्चित करने के लिए बॉन्ड जारी करने से संबंधित डेटा और बॉन्ड को भुनाने से संबंधित डेटा दोनों को को दो अलग-अलग जगहों में रखा गया है और कोई सेंट्रल डेटाबेस नहीं रखा गया।’
सभी खरीदारों की जानकारी को जिन ब्रांच से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए वहां एक सीलबंद कवर में रखा गया। फिर इन सीलबंद कवर को एसीबीआई की मुख्य शाखा जो कि मुंबई में है, वहाँ दिया गया।’
कोई सेंट्रल डेटा नहीं
एसबीआई ने कहा, ‘हर राजनीतिक दल को 29 अधिकृत शाखाओं में से किसी में एक में अकाउंट बनाए रखना ज़रूरी था। केवल इसी अकाउंट में उस पार्टी को मिले इलेक्टोरल बॉन्ड जमा किये जा सकते थे और भुनाये जा सकते थे। भुनाने के समय मूल बॉन्ड, पे-इन स्लिप को एक सीलबंद कवर में एसबीआई मुंबई मुख्य शाखा को भेजा जाता था।
‘ऐसे में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जानकारी के दोनों सेट एक दूसरे से अलग-अलग स्टोर किए जा रहे थे। अब उनका मिलान करना एक ऐसा काम होगा जिसके लिए काफ़ी समय की ज़रूरत होगी। बॉन्ड खरीदने वाला कौन है, ये जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हर बॉन्ड के जारी होने की तारीख़ को को डोनर के खऱीदने की तारीख़ से मिलाना होगा।’
‘ये एक जगह की जानकारी होगी। यानी बॉन्ड जारी हुआ और किसने खऱीदा इसकी जानकारी होगी। फिर जानकारी का दूसरा सेट आएगा, जहाँ ये बॉन्ड राजनीति दल ने अपने अधिकृत खाते में भुनाया होगा। फिर हमें खरीदे गए बॉन्ड की जानकारी भुनाए गए बॉन्ड की जानकारी से मिलाना होगा।’
एसबीआई ने समय बढ़ाने के पक्ष में दलील देते हुए कहा, ‘हर जगह से जानकारी प्राप्त करना और एक जगह की जानकारी को दूसरे जगह से मिलाने की प्रक्रिया एक समय लेने वाली प्रक्रिया होगी। जानकारियां अगल-अलग जगहों पर स्टोर की गई हैं।’
‘कुछ जानकारी जैसे बॉन्ड की संख्या आदि को डिजि़टल रूप से स्टोर किया गया है जबकि अन्य विवरण जैसे खऱीदार का नाम, केवाईसी आदि को फि़जिकल रूप में स्टोर किया गया है। ऐसा करने के पीछे हमारा उद्देश्य था कि योजना के तहत किसी भी तरह से बॉन्ड खऱीदने वालों की पहचान ज़ाहिर ना हो।’
बैंक ने कहा है कि 22,217 इलेक्टोरल बॉन्ड को राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए खरीदा गया।
बैंक ने बताया, ‘हर चरण के अंत में भुनाए गए बॉन्ड को सीलबंद लिफाफे में अधिकृत शाखाओं की ओर से मुंबई मुख्य शाखा में जमा किया जाता था। चूंकि डेटा के दो अलग-अलग सेट हैं, ऐसे में हमें 44,434 जानकारियों के सेट डिकोट करना होगा, मिलाना होगा और उनकी तुलना करनी होगी।’
एसबीआई ने कहा, ‘इसलिए यह अदालत से दरख़्वास्त करते हैं कि 15।02।2024 के फ़ैसले में तय की गई तीन सप्ताह की समय-सीमा पूरी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी और हमें आदेश पालन करने के लिए और वक़्त दिया जाए।’
एसबीआई की ओर ये दाखिल की गई इस याचिका में जून तक का समय मांगने की कुछ लोग आलोचना कर रहे हैं। उनका तर्क है कि देश में आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए ऐसा किया जा रहा है।
‘चुनाव से पहले भ्रष्टाचार छुपाने की कोशिश’
आरटीआई कार्यकर्ता अंजली भारद्वाज ने इसे लेकर एक्स पर लिखा, ‘बॉन्ड खरीदने और इसे भुनाने की जानकारी दोनों एसबीआई के मुंबई ब्रांच में सीलबंद लिफाफे में हैं ये बात एसबीआई का हलफऩामा कह रहा है तो फिर क्यों बैंक ये जानकारी तुरंत जारी नहीं कर देता। 22, 217 बॉन्ड की के खऱीदार और भुनाने की जानकारी मिलाने के लिए चार महीने का समय चाहिए, बकवास है ये।’
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि एसबीआई का डोनर्स की जानकारी देने के लिए चुनाव बाद का समय मांगना, चुनाव ये पहले ‘मोदी के असली चेहरे को छुपाने की अंतिम कोशिश है।’
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘नरेंद्र मोदी ने ‘चंदे के धंधे’ को छिपाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का सच जानना देशवासियों का हक है, तब एसबीआई क्यों चाहता है कि चुनाव से पहले यह जानकारी सार्वजनिक न हो पाए?’
राहुल ने कहा,‘एक क्लिक पर निकाली जा सकने वाली जानकारी के लिए 30 जून तक का समय मांगना बताता है कि दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी दाल ही काली है। देश की हर स्वतंत्र संस्था ‘मोडानी परिवार’ बन कर उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने में लगी है। चुनाव से पहले मोदी के ‘असली चेहरे’ को छिपाने का यह ‘अंतिम प्रयास’ है।’
सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने एसबीआई की याचिका पर निराशा ज़ाहिर करते हुए एक्स पर लिखा, ‘ये न्याय का मज़ाक होगा। क्या एसबीआई इसलिए और समय मांग रहा है ताकि लोकसभा चुनाव में बीजोपी और मोदी को बचा सके।’
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई पत्रकारों ने पड़ताल की थी, जिसमें बताया था कि एसबीआई के इन इलेक्टोरल बॉन्ड पर एक सीक्रेट नंबर होता है, जिसके ज़रिए इन्हें ट्रेस किया जा सकता है।
सीताराम येचुरी ने इस रिपोर्ट का लिंक शेयर करते हुए एक्स पर लिखा, ‘जब ऐसी बात है तो एसबीआई और वक़्त की मांग क्यों कर रहा है।
ये तो सत्तारूढ़ दल बीजेपी के राजनीतिक भ्रष्टाचार का बचाव करने की स्पष्ट कोशिश लग रही है।’
सुप्रीम कोर्ट के चर्चित और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इस पर कहा, ‘जैसा कि अपेक्षित था, मोदी सरकार ने स्टेट बैंक के माध्यम से एक आवेदन दायर कर इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदारों की जानकारी देने के लिए चुनाव के बाद तक का समय मांगा है। अगर ये जानकारी अभी आ गई तो कई सारे रिश्वत देने वाले और उन्हें दिए जाने वाले फ़ायदे सबके सामने आ जाएंगे।’
रिटॉयर्ड कॉमडोर लोकेश बत्रा जाने माने आरटीआई कार्यकर्ता हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड की पार्दर्शिता के लिए उन्होंने लगातार काम किया है।
बैंक की इस याचिका पर उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘2017-2018 में एसबीआई ने बॉन्ड की बिक्री और रिडंप्शन को मैनेज करने के लिए एक कस्टमाइज़ तकनीक स्थापित की थी।
अप्रैल 2019 से जनवरी-2024 तक: बेची गई इलेक्टोरल बॉन्ड की कुल संख्याकेवल 22217।
एसबीआई के लिए बेचे गए 22217 बॉन्ड की जानकारी देना मुश्किल नहीं होना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
आभा शुक्ला
आज कल थोड़ा नींद कम आती है मुझे बीमार होने के बाद से तो जब नींद नहीं आती रात बिरात तो फेसबुक खोल लेती हूँ। रात में 12 बजे के बाद फेसबुक भी महिलाओं के लिए सेफ नहीं रह गया है। लोग भाग कर इनबॉक्स में आते हैं। देर रात तक जागने का कारण पूछते हैं। बता दो कि नींद नहीं आ रही तो और बातें करने की कोशिश करते हैं।
फिर कुछ तो नया पत्ता फेंकते हैं। कहते हैं आभा जी मैं फेसबुक कम चलाता हूँ। क्या आपसे WhatsApp पर बात हो पाएगी।
कुछ इनके भी बाप होते हैं। मैसेज इगनोर करो तो कॉल करने लगते हैं मैसेंजर पर। कल एक को इसी हरकत की वजह से ब्लॉक किया है।
पहले ये था कि देर रात बाहर रहती है मतलब चरित्र खराब है पर अब तो लगता है कि धारणा ये हो गई है कि देर रात तक ऑनलाइन रहती है मतलब चरित्र खराब है।
बताओ और कितना विकास चाहिए।
वैसे कहना ये था हमको कि जिस स्कूल में आप पढ़ रहे हैं हम उसके हेडमास्टर हैं। तो हमसे पैंतरे चलने की कोशिश मत किया करिये। फिर हम आपको लाइन में लेंगे आपका एसएस लगाएंगे। आपकी बारात निकालेंगे। आपको अच्छा नहीं लगेगा। अरे तो लल्ला काहे करते वो ये काम।
हम 1 बजे या 2 बजे ऑनलाइन क्यों हैं ये पूछने का हक हम अपनी माँ के अलावा किसी को नहीं देते और कभी-कभी तो उनको भी नहीं, फिर आप किस खेत के करेला हैं।
इसलिये ये सब मत किया करिये
हमसे जो इज्जत मिल रही है उसकी कद्र करिये क्योंकि हमारी नजर से आदमी बहुत जल्दी उतरता है।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के लिए खरीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को देने के लिए 30 जून तक का समय दिया जाए।
एसबीआई ने इस प्रक्रिया को ‘काफी समय लेने’ वाला काम बताते हुए समय की मांग की है। 30 जून तक देश में लोकसभा चुनाव पूरे हो जाएंगे।
बीते महीने सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया था और स्टेट बैंक ऑफ इंडिया जो इलेक्टोरल बॉन्ड बेचने वाला अकेला अधिकृत बैंक है, उसे निर्देश दिया था कि वह छह मार्च 2024 तक 12 अप्रैल, 2019 से लेकर अब तक खऱीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड की जानकारी चुनाव आयोग को दे।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इलेक्टोरल बॉन्ड को अज्ञात रखना सूचना के अधिकार और अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि राजनीतिक पार्टियों को आर्थिक मदद से उसके बदले में कुछ और प्रबंध करने की व्यवस्था को बढ़ावा मिल सकता है।
चुनाव आयोग को ये जानकारी 31 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर जारी करनी थी।
इलेक्टोरल बॉन्ड राजनीतिक दलों को चंदा देने का एक वित्तीय ज़रिया है।
यह एक वचन पत्र की तरह है, जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खऱीद सकता है और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीक़े से दान कर सकता है।
मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की घोषणा 2017 में की थी। इस योजना को सरकार ने 29 जनवरी 2018 को क़ानूनन लागू कर दिया था।
एसबीआई ने क्या कहा?
सोमवार को एसबीआई ने इसी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका डाली है।
एसबीआई ने कहा कि वह अदालत के निर्देशों का ‘पूरी तरह से पालन करने करना चाहता है। हालांकि, डेटा को डिकोड करना और इसके लिए तय की गई समय सीमा के साथ कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां हैं’ इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वालों की पहचान छुपाने के लिए कड़े उपायों का पालन किया गया है। अब इसके डोनर और उन्होंने कितने का इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदा है, इस जानकारी का मिलान करना एक जटिल प्रक्रिया है।’
बैंक ने कहा कि दो जनवरी, 2018 को इसे लेकर ‘अधिसूचना जारी की गई थी।’ यह अधिसूचना केंद्र सरकार की ओर से साल 2018 में तैयार की गई इलेक्टोरल बॉन्ड की योजना पर थी। इसके क्लॉज 7 (4) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि अधिकृत बैंक हर सूरत में इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदार की जानकारी को गोपनीय रखे।
अगर कोई अदालत इसकी जानकारी को मांगती है या जांच एजेंसियां किसी आपराधिक मामले में इस जानकारी को मांगती है, तभी खऱीदार की पहचान साझा की जा सकती है।
बैंक ने अपनी याचिका में कहा है, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदारों की पहचान को गोपनीय रखने के लिए बैंक ने बॉन्ड कि बिक्री और इसे भुनाने के लिए एक विस्तृत प्रकिया तैयार की है जो बैंक की देशभर में फैली 29 अधिकृत शाखाओं में फॉलो की जाती है।’
एसबीआई ने कहा, ‘हमारी एसओपी के सेक्शन 7.1.2 में साफ़ कहा गया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदने वाले की केवाईसी जानकारी को सीबीएस (कोर बैंकिंग सिस्टम) में ना डाला जाए। ऐसे में ब्रांच में जो इलेक्टोरल बॉन्ड बेचे गए हैं, उनका कोई सेंट्रल डेटा एक जगह पर नहीं है। जैसे खऱीदार का का नाम, बॉन्ड खरीदने की तारीख, जारी करने की शाखा, बॉन्ड की कीमत और बॉन्ड की संख्या। ये डेटा किसी सेंट्रल सिस्टम में नहीं हैं। ’
‘बॉन्ड खरीदने वालों की पहचान गोपनीय ही रहे यह सुनिश्चित करने के लिए बॉन्ड जारी करने से संबंधित डेटा और बॉन्ड को भुनाने से संबंधित डेटा दोनों को को दो अलग-अलग जगहों में रखा गया है और कोई सेंट्रल डेटाबेस नहीं रखा गया।’
सभी खरीदारों की जानकारी को जिन ब्रांच से इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए वहां एक सीलबंद कवर में रखा गया। फिर इन सीलबंद कवर को एसीबीआई की मुख्य शाखा जो कि मुंबई में है, वहाँ दिया गया।’
कोई सेंट्रल डेटा नहीं
एसबीआई ने कहा, ‘हर राजनीतिक दल को 29 अधिकृत शाखाओं में से किसी में एक में अकाउंट बनाए रखना ज़रूरी था। केवल इसी अकाउंट में उस पार्टी को मिले इलेक्टोरल बॉन्ड जमा किये जा सकते थे और भुनाये जा सकते थे। भुनाने के समय मूल बॉन्ड, पे-इन स्लिप को एक सीलबंद कवर में एसबीआई मुंबई मुख्य शाखा को भेजा जाता था।
‘ऐसे में यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि जानकारी के दोनों सेट एक दूसरे से अलग-अलग स्टोर किए जा रहे थे। अब उनका मिलान करना एक ऐसा काम होगा जिसके लिए काफ़ी समय की ज़रूरत होगी। बॉन्ड खरीदने वाला कौन है, ये जानकारी उपलब्ध कराने के लिए हर बॉन्ड के जारी होने की तारीख़ को को डोनर के खऱीदने की तारीख़ से मिलाना होगा।’
‘ये एक जगह की जानकारी होगी। यानी बॉन्ड जारी हुआ और किसने खऱीदा इसकी जानकारी होगी। फिर जानकारी का दूसरा सेट आएगा, जहाँ ये बॉन्ड राजनीति दल ने अपने अधिकृत खाते में भुनाया होगा। फिर हमें खरीदे गए बॉन्ड की जानकारी भुनाए गए बॉन्ड की जानकारी से मिलाना होगा।’
एसबीआई ने समय बढ़ाने के पक्ष में दलील देते हुए कहा, ‘हर जगह से जानकारी प्राप्त करना और एक जगह की जानकारी को दूसरे जगह से मिलाने की प्रक्रिया एक समय लेने वाली प्रक्रिया होगी। जानकारियां अगल-अलग जगहों पर स्टोर की गई हैं।’
‘कुछ जानकारी जैसे बॉन्ड की संख्या आदि को डिजि़टल रूप से स्टोर किया गया है जबकि अन्य विवरण जैसे खऱीदार का नाम, केवाईसी आदि को फि़जिकल रूप में स्टोर किया गया है। ऐसा करने के पीछे हमारा उद्देश्य था कि योजना के तहत किसी भी तरह से बॉन्ड खऱीदने वालों की पहचान ज़ाहिर ना हो।’
बैंक ने कहा है कि 22,217 इलेक्टोरल बॉन्ड को राजनीतिक दलों को चंदा देने के लिए खरीदा गया।
बैंक ने बताया, ‘हर चरण के अंत में भुनाए गए बॉन्ड को सीलबंद लिफाफे में अधिकृत शाखाओं की ओर से मुंबई मुख्य शाखा में जमा किया जाता था। चूंकि डेटा के दो अलग-अलग सेट हैं, ऐसे में हमें 44,434 जानकारियों के सेट डिकोट करना होगा, मिलाना होगा और उनकी तुलना करनी होगी।’
एसबीआई ने कहा, ‘इसलिए यह अदालत से दरख़्वास्त करते हैं कि 15।02।2024 के फ़ैसले में तय की गई तीन सप्ताह की समय-सीमा पूरी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी और हमें आदेश पालन करने के लिए और वक़्त दिया जाए।’
एसबीआई की ओर ये दाखिल की गई इस याचिका में जून तक का समय मांगने की कुछ लोग आलोचना कर रहे हैं। उनका तर्क है कि देश में आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए ऐसा किया जा रहा है।
‘चुनाव से पहले भ्रष्टाचार छुपाने की कोशिश’
आरटीआई कार्यकर्ता अंजली भारद्वाज ने इसे लेकर एक्स पर लिखा, ‘बॉन्ड खरीदने और इसे भुनाने की जानकारी दोनों एसबीआई के मुंबई ब्रांच में सीलबंद लिफाफे में हैं ये बात एसबीआई का हलफऩामा कह रहा है तो फिर क्यों बैंक ये जानकारी तुरंत जारी नहीं कर देता। 22, 217 बॉन्ड की के खऱीदार और भुनाने की जानकारी मिलाने के लिए चार महीने का समय चाहिए, बकवास है ये।’
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि एसबीआई का डोनर्स की जानकारी देने के लिए चुनाव बाद का समय मांगना, चुनाव ये पहले ‘मोदी के असली चेहरे को छुपाने की अंतिम कोशिश है।’
उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘नरेंद्र मोदी ने ‘चंदे के धंधे’ को छिपाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का सच जानना देशवासियों का हक है, तब एसबीआई क्यों चाहता है कि चुनाव से पहले यह जानकारी सार्वजनिक न हो पाए?’
राहुल ने कहा,‘एक क्लिक पर निकाली जा सकने वाली जानकारी के लिए 30 जून तक का समय मांगना बताता है कि दाल में कुछ काला नहीं है, पूरी दाल ही काली है। देश की हर स्वतंत्र संस्था ‘मोडानी परिवार’ बन कर उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने में लगी है। चुनाव से पहले मोदी के ‘असली चेहरे’ को छिपाने का यह ‘अंतिम प्रयास’ है।’
सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने एसबीआई की याचिका पर निराशा ज़ाहिर करते हुए एक्स पर लिखा, ‘ये न्याय का मज़ाक होगा। क्या एसबीआई इसलिए और समय मांग रहा है ताकि लोकसभा चुनाव में बीजोपी और मोदी को बचा सके।’
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर कई पत्रकारों ने पड़ताल की थी, जिसमें बताया था कि एसबीआई के इन इलेक्टोरल बॉन्ड पर एक सीक्रेट नंबर होता है, जिसके ज़रिए इन्हें ट्रेस किया जा सकता है।
सीताराम येचुरी ने इस रिपोर्ट का लिंक शेयर करते हुए एक्स पर लिखा, ‘जब ऐसी बात है तो एसबीआई और वक़्त की मांग क्यों कर रहा है।
ये तो सत्तारूढ़ दल बीजेपी के राजनीतिक भ्रष्टाचार का बचाव करने की स्पष्ट कोशिश लग रही है।’
सुप्रीम कोर्ट के चर्चित और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने इस पर कहा, ‘जैसा कि अपेक्षित था, मोदी सरकार ने स्टेट बैंक के माध्यम से एक आवेदन दायर कर इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदारों की जानकारी देने के लिए चुनाव के बाद तक का समय मांगा है। अगर ये जानकारी अभी आ गई तो कई सारे रिश्वत देने वाले और उन्हें दिए जाने वाले फ़ायदे सबके सामने आ जाएंगे।’
रिटॉयर्ड कॉमडोर लोकेश बत्रा जाने माने आरटीआई कार्यकर्ता हैं, इलेक्टोरल बॉन्ड की पार्दर्शिता के लिए उन्होंने लगातार काम किया है।
बैंक की इस याचिका पर उन्होंने एक्स पर लिखा, ‘2017-2018 में एसबीआई ने बॉन्ड की बिक्री और रिडंप्शन को मैनेज करने के लिए एक कस्टमाइज़ तकनीक स्थापित की थी।
अप्रैल 2019 से जनवरी-2024 तक: बेची गई इलेक्टोरल बॉन्ड की कुल संख्याकेवल 22217।
एसबीआई के लिए बेचे गए 22217 बॉन्ड की जानकारी देना मुश्किल नहीं होना चाहिए।’ (bbc.com/hindi)
मध्य प्रदेश के भोपाल से लोकसभा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बीजेपी ने इस बार टिकट नहीं दिया है।
बीजेपी ने पिछले हफ़्ते शनिवार को लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी की थी। इनमें मध्य प्रदेश की कुल 29 लोकसभा सीटों में से 24 सीटों के उम्मीदवारों की घोषणा भी की गई थी।
इन 24 सीटों में भोपाल लोकसभा सीट भी शामिल है लेकिन यहाँ की मौजूदा सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर की जगह बीजेपी ने भोपाल के पूर्व मेयर आलोक शर्मा को उम्मीदवार बनाया है। भोपाल से टिकट कटने पर प्रज्ञा सिंह ठाकुर से रविवार को पत्रकारों ने पूछा कि गोडसे को लेकर विवादित बयान के कारण पीएम मोदी ने कहा था कि वह मन से कभी माफ नहीं कर पाएंगे। क्या इस वजह से उन्हें टिकट नहीं मिला?
टिकट कटने पर प्रज्ञा ठाकुर का बयान
इस सवाल के जवाब में प्रज्ञा ठाकुर ने कहा, ‘मैंने कभी विवादित बयान नहीं दिया। जो कहा, सत्य कहा। राजनीति में रहकर अगर सत्य कहना गलत है तो मुझे लगता है कि सत्य कहने की आदत डाल लेनी चाहिए। जो सत्य हो उससे समाज को अवगत कराना चाहिए।’
प्रज्ञा ठाकुर ने कहा, ‘मीडिया वाले विवादित बयान कहते थे लेकिन जनता इसे सच मानती है। हमारी जानता ने हमेशा मुझे सच कहा। विरोधियों के लिए यह हथियार बना। कहीं अगर हमारे मानदंडों से अलग कोई शब्द हो गया है तो माननीय प्रधानमंत्री जी को यह कहना पड़ा कि मन से माफ नहीं करेंगे। उसके लिए मैं पहले ही क्षमा मांग चुकी थी।’
‘किसी के मन को ठेस पहुँचाने का मेरा कोई विचार नहीं रहता। प्रधानमंत्री मोदी जी के मन को कष्ट हुआ था, इसलिए उन्हें कहना पड़ा कि मन से माफ नहीं कर पाएंगे। मेरा इस प्रकार का कोई भाव नहीं था कि उनके मन को कष्ट पहुँचाऊं। उसके बाद मैंने कभी कष्ट पहुँचाया भी नहीं।’
प्रज्ञा ठाकुर ने कहा, ‘टिकट नहीं देने का निर्णय संगठन का है और उसका निर्णय सर्वोपरि होता है। हमारे यहाँ संगठन ही अहम होता है। उसका निर्णय सहज स्वीकार्य होता है। आलोक शर्मा को मेरा आशीर्वाद और शुभकामनाएं हैं। मैंने 2019 में भी टिकट नहीं मांगा था लेकिन तब भी संगठन का ही फ़ैसला था कि मैं चुनाव लड़ूँ।’
पीएम मोदी ने क्या कहा था?
नाथूराम गोडसे पर प्रज्ञा ठाकुर के इस बयान को लेकर पीएम मोदी से मई 2019 में सवाल पूछा गया था तब उन्होंने कहा था, ''गांधी जी या गोडसे के संबंध में जो भी बातें कही गई हैं, वे भयंकर खऱाब हैं। हर प्रकार से घृणा के लायक हैं। सभ्य समाज में इस तरह की भाषा नहीं चलती है। इस प्रकार की सोच नहीं चल सकती है। इसलिए ऐसा करने वालों को 100 बार आगे सोचना पड़ेगा। दूसरा, उन्होंने माफी मांग ली अलग बात है। लेकिन मैं अपने मन से माफ नहीं कर पाऊंगा। मन से कभी माफ़ नहीं कर पाऊंगा।’
2019 में प्रज्ञा ठाकुर ने भोपाल से दिग्विजय सिंह को तीन लाख से ज़्यादा वोटों से हराया था।
इस सीट पर 2019 में मुकाबला काफी दिलचस्प रहा था क्योंकि एक तरफ राज्य की कांग्रेस सरकार में दो बार मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह थे और दूसरी तरह प्रज्ञा ठाकुर उस सीट से जो बीते 30 सालों से बीजेपी का गढ़ रही।
मध्य प्रदेश लोकसभा सीटों की संख्या के मामले में छठा सबसे बड़ा राज्य है। 29 सीटों में 10 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए रिज़र्व हैं। 19 सीटें सामान्य हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने मध्य प्रदेश की 29 में 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी।
जब संसद में गोडसे को बताया था देशभक्त
सासंद बनने के बाद प्रज्ञा ठाकुर अपने कामों से ज़्यादा अपने बयानों के कारण चर्चा में रहीं।
लोकसभा में जब स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (संशोधन) विधेयक पर बहस हो रही थी तो डीएमके सांसद ए राजा ने नाथूराम गोडसे के एक बयान का जिक्र किया ये बताने के लिए कि आखऱि गोडसे ने गांधी को क्यों मारा। इस बहस को बीच में रोकते हुए प्रज्ञा ठाकुर ने कहा था, ‘आप एक देशभक्त का इस तरह उदाहरण नहीं दे सकते।’
इस बयान के बाद बीजेपी ने डैमेज कंट्रोल करना शुरू किया था। प्रज्ञा ठाकुर को रक्षा पर सलाहकार समिति से हटा दिया था। 2019 में संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान संसदीय दल की बैठक में भाग लेने से भी प्रज्ञा ठाकुर को रोक दिया गया था।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने प्रज्ञा ठाकुर के बयान से पार्टी को अलग करते हुए लोकसभा में कहा था,‘नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहा जाना तो दूर अगर उन्हें देशभक्त माने भी जाने के बारे में कोई सोच रहा है तो इस सोच की हमारी पार्टी पूरी तरह निंदा करती है।’ उनके बयान को संसद के रिकॉर्ड से हटा दिया गया। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने लोकसभा में इस मुद्दे को उठाया और प्रज्ञा ठाकुर पर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने उस समय एक्स पर लिखा, ‘आतंकवादी प्रज्ञा ने आतंकवादी गोडसे को देशभक्त बताया। ये भारतीय संसद के इतिहास में एक दुखद दिन है।’
प्रज्ञा ठाकुर गोडसे को लेकर दिए गए अपने बयानों के अलावा अपने मेडिकल दावों को लेकर भी आचोलनाओं से घिर चुकी हैं।
हेटस्पीच और हिंदुओं को हथियार रखने की सलाह
कोविड-19 की दूसरी लहर के समय प्रज्ञा ठाकुर ने कहा था कि 'गोमूत्र पीने से कोरोना से बचा जा सकता है और ये फेफड़ों को भी संक्रमण से बचाता है।'
प्रज्ञा ठाकुर ने कहा था, ‘गोमूत्र अर्क फेफड़ों के संक्रमण से दूर रखता है। मैं स्वास्थ्य संबंधी परेशानी झेल रही हूं लेकिन हर दिन ‘गोमूत्र अर्क’ लेती हूँ। इसके बाद मुझे कोरोनो वायरस के लिए कोई दवा देने की जरूरत नहीं। मैं कोरोनोवायरस संक्रमित नही होऊंगी।’
सांसद रहते हुए प्रज्ञा ठाकुर पर हेट स्पीच देने के भी आरोप लगे। दिसंबर 2022 में प्रज्ञा ठाकुर के बयान से तब विवाद मच गया जब उन्होंने कहा कि हिंदुओं को अपनी रक्षा के लिए हथियार रखने चाहिए।
उन्होंन एक भाषण में कहा, ‘अपने घरों में हथियार रखें और कुछ नहीं तो कम से कम सब्जिय़ां काटने वाले चाकू तो तेज़ रखिए।।।पता नहीं कब क्या स्थिति आ जाए।।।आत्मरक्षा का अधिकार हर किसी को है। यदि कोई हमारे घर में घुसकर हम पर हमला करता है तो उसका मुँहतोड़ जवाब देना हमारा अधिकार है।’
इस बयान को लेकर प्रज्ञा ठाकुर के ख़िलाफ़ पुलिस ने शिकायत दर्ज की। इस एफ़आईआर में भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए (धर्म और नस्ल के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 295 ए (जानबूझकर किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को अपमानित करना) की धारा लगाई गई।
मालेगाँव धमाका (2008) की स्पेशल प्रॉसिक्युटर रोहिणी सालियन ने 2015 में आरोप लगाया था कि इस हमले के अभियुक्तों को लेकर नरमी बरतने के लिए उन पर दबाव बनाया गया।
रोहिणी ने एनआईए के एसपी सुहास वर्के पर यह आरोप लगाया था। रोहिणी ने कहा था कि ऐसा केस को कमज़ोर बनाने के लिए किया गया ताकि सभी अभियुक्त बरी हो जाएं। इस ब्लास्ट में भोपाल से बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी अभियुक्त हैं।
रोहिणी ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में कहा था, ‘एनडीए सरकार आने के बाद मेरे पास एनआईए के अधिकारियों का फ़ोन आया। जिन मामलों की जांच चल रही थी उनमें हिन्दू अतिवादियों पर आरोप थे। मुझसे कहा गया वो बात करना चाहते हैं। एनआईए के उस अधिकारी ने कहा कि ऊपर से इस मामले में नरमी बरतने के लिए कहा गया है।’
2016 में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा का नाम आरोपपत्र में शामिल नहीं करते हुए क्लीन चिट दे दी थी। 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को ज़मानत दी। इसी साल इस मामले के मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली।
विवादित बयानों के अलावा बतौर सांसद अगर प्रज्ञा ठाकुर का परफॉर्मेंस देखें तो वो बहुत सक्रिय नहीं थीं। पीआरएस लेजिस्लेटिव की रिपोर्ट के अनुसार, इनकी लोकसभा में उपस्थिति 66 फ़ीसदी रही जो देश को औसत 79 फ़ीसदी से 13 फ़ीसदी कम है।
बतौर सासंद प्रज्ञा ठाकुर ने 19 बहसों के हिस्सा लिया। उन्होंने कोई निजी सदस्य बिल भी पेश नहीं किया।
उन्होंने सासंद रहते हुए सिफऱ् 36 सवाल संसद में पूछे जबकि सांसदों के सवालों राष्ट्रीय औसत 210 सवालों का है। (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
वर्तमान केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय से विगत कुछ वर्षों में वैसे तो एक के बाद एक कई झटके मिले हैं लेकिन हाल ही में सबसे बड़ा झटका केंद्र सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक ठहराने से लगा है। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के संभल में कल्कि मंदिर की आधारशिला रखते हुए प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय पर अप्रत्यक्ष रुप से तीखा कटाक्ष किया है कि आजकल ऐसा माहौल है कि यदि सुदामा का भगवान कृष्ण को चावल की पोटली देते वीडियो आ जाए तो किसी की पी आई एल पर सर्वोच्च न्यायालय इसे भ्रष्टाचार का मामला बता सकता है। इस हल्के बयान में सर्वोच्च न्यायालय को घसीटने का कोई औचित्य नहीं है।दरअसल वर्तमान केन्द्र सरकार को कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन में इक_ा हुआ समूचा विपक्ष तो कोई खास चुनौती नहीं दे पा रहा है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पर दिया फैसला परेशानी में डालने वाला साबित हो सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे हैं भारतीय जनता पार्टी पूरे जोरशोर से अपने गठबंधन के लिए चार सौ सीटों के आंकड़े के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इलेक्टोरल बॉन्ड योजना भी सरकार की ऐसी ही योजना है जिसके माध्यम से भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष से बहुत ज्यादा चुनावी फंड जुटाया है। सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने लगभग पांच साल बाद यह फैसला सुनाया है कि केन्द्र सरकार द्वारा शुरु की गई इलेक्टोरल बॉन्ड योजना असंवैधानिक है। विपक्षी दलों के साथ साथ बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं और प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा इस योजना का विरोध किया जा रहा था जबकि भारतीय जनता पार्टी और उसकी केन्द्र सरकार इस योजना को ऐतिहासिक बताकर खुद अपनी पीठ थपथपा रही थी। हालांकि केन्द्र सरकार इस योजना को चुनाव प्रक्रिया में काले धन के उपयोग को रोकने का कारगर उपाय बता रही थी और यह तर्क दे रही थी कि कंपनियों द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड चैक द्वारा खरीदे जाएंगे इसलिए चुनाव में काले धन का लेन देन कम हो जाएगा। विपक्ष और योजना के विरोध में खड़े लोग सबसे ज्यादा इस योजना की अपारदर्शिता और सत्ताधारी दल द्वारा दुरुपयोग की संभावना से चिंतित थे। उनका मानना था कि इस योजना में दानदाता कंपनियों के नाम गुप्त रहने से सरकार कंपनियों को अपने ही दल को ज्यादा चंदा देने के लिए बाध्य कर सकती है और उन्हें जांच एजेंसियों से डरा धमकाकर अवैध वसूली भी कर सकती है और नई नीतियों द्वारा उन्हें लाभ पहुंचाने का लालच देकर भी धन वसूली कर सकती है जो एक तरह से घूसखोरी की श्रेणी में आता है। इसके अलावा केंद्र में सत्ताधारी दल दानदाता कंपनियों पर यह दबाव भी डाल सकता है कि वे विरोधी दलों को चंदा न दें।
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के दुरुपयोग के बारे में जिस तरह की संभावनाएं सर्वोच्च न्यायालय के सामने लंबित याचिकाओं में बताई गई थी सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें सही माना है। इसका एक दस्तावेजी प्रमाण यह भी है कि इस योजना के आने के बाद से कंपनियों द्वारा लगभग साठ प्रतिशत दान अकेले भारतीय जनता पार्टी को ही दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना है कि दानदाताओं के नाम गुप्त रखना जनता से सूचना छिपाना है जबकि चुनावी प्रक्रिया और उसमें भी राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा पूर्णत: पारदर्शी होना चाहिए। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को निर्देशित किया है कि वह तय समय सीमा में इन बॉन्ड की पूरी जानकारी केन्द्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराए ताकि केंद्रीय चुनाव आयोग इस जानकारी को जनता को उपलब्ध करा सके। हालांकि कुछ प्रबुद्ध जन यह चिंता जता रहे हैं कि केंद्र सरकार इस फैसले को निष्क्रिय करने के लिए अध्यादेश ला सकती है। यदि ऐसा हुआ तो चुनावी वर्ष में विपक्ष इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को घेर सकता है। सरकार के लिए यह फैसला निश्चित रूप से नुकसान दायक है।प्रधानमंत्री के बयान को इस परिपेक्ष्य में भी देखने की आवश्यकता है।
डॉ. आर.के. पालीवाल
वर्तमान केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय से विगत कुछ वर्षों में वैसे तो एक के बाद एक कई झटके मिले हैं लेकिन हाल ही में सबसे बड़ा झटका केंद्र सरकार की इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को असंवैधानिक ठहराने से लगा है। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के संभल में कल्कि मंदिर की आधारशिला रखते हुए प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में सर्वोच्च न्यायालय पर अप्रत्यक्ष रुप से तीखा कटाक्ष किया है कि आजकल ऐसा माहौल है कि यदि सुदामा का भगवान कृष्ण को चावल की पोटली देते वीडियो आ जाए तो किसी की पी आई एल पर सर्वोच्च न्यायालय इसे भ्रष्टाचार का मामला बता सकता है। इस हल्के बयान में सर्वोच्च न्यायालय को घसीटने का कोई औचित्य नहीं है।दरअसल वर्तमान केन्द्र सरकार को कांग्रेस सहित इंडिया गठबंधन में इक_ा हुआ समूचा विपक्ष तो कोई खास चुनौती नहीं दे पा रहा है लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड योजना पर दिया फैसला परेशानी में डालने वाला साबित हो सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव जैसे जैसे नजदीक आते जा रहे हैं भारतीय जनता पार्टी पूरे जोरशोर से अपने गठबंधन के लिए चार सौ सीटों के आंकड़े के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इलेक्टोरल बॉन्ड योजना भी सरकार की ऐसी ही योजना है जिसके माध्यम से भारतीय जनता पार्टी ने विपक्ष से बहुत ज्यादा चुनावी फंड जुटाया है। सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने लगभग पांच साल बाद यह फैसला सुनाया है कि केन्द्र सरकार द्वारा शुरु की गई इलेक्टोरल बॉन्ड योजना असंवैधानिक है। विपक्षी दलों के साथ साथ बहुत सी समाजसेवी संस्थाओं और प्रबुद्ध नागरिकों द्वारा इस योजना का विरोध किया जा रहा था जबकि भारतीय जनता पार्टी और उसकी केन्द्र सरकार इस योजना को ऐतिहासिक बताकर खुद अपनी पीठ थपथपा रही थी। हालांकि केन्द्र सरकार इस योजना को चुनाव प्रक्रिया में काले धन के उपयोग को रोकने का कारगर उपाय बता रही थी और यह तर्क दे रही थी कि कंपनियों द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड चैक द्वारा खरीदे जाएंगे इसलिए चुनाव में काले धन का लेन देन कम हो जाएगा। विपक्ष और योजना के विरोध में खड़े लोग सबसे ज्यादा इस योजना की अपारदर्शिता और सत्ताधारी दल द्वारा दुरुपयोग की संभावना से चिंतित थे। उनका मानना था कि इस योजना में दानदाता कंपनियों के नाम गुप्त रहने से सरकार कंपनियों को अपने ही दल को ज्यादा चंदा देने के लिए बाध्य कर सकती है और उन्हें जांच एजेंसियों से डरा धमकाकर अवैध वसूली भी कर सकती है और नई नीतियों द्वारा उन्हें लाभ पहुंचाने का लालच देकर भी धन वसूली कर सकती है जो एक तरह से घूसखोरी की श्रेणी में आता है। इसके अलावा केंद्र में सत्ताधारी दल दानदाता कंपनियों पर यह दबाव भी डाल सकता है कि वे विरोधी दलों को चंदा न दें।
इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के दुरुपयोग के बारे में जिस तरह की संभावनाएं सर्वोच्च न्यायालय के सामने लंबित याचिकाओं में बताई गई थी सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें सही माना है। इसका एक दस्तावेजी प्रमाण यह भी है कि इस योजना के आने के बाद से कंपनियों द्वारा लगभग साठ प्रतिशत दान अकेले भारतीय जनता पार्टी को ही दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी माना है कि दानदाताओं के नाम गुप्त रखना जनता से सूचना छिपाना है जबकि चुनावी प्रक्रिया और उसमें भी राजनीतिक दलों को मिलने वाला चंदा पूर्णत: पारदर्शी होना चाहिए। यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को निर्देशित किया है कि वह तय समय सीमा में इन बॉन्ड की पूरी जानकारी केन्द्रीय चुनाव आयोग को उपलब्ध कराए ताकि केंद्रीय चुनाव आयोग इस जानकारी को जनता को उपलब्ध करा सके। हालांकि कुछ प्रबुद्ध जन यह चिंता जता रहे हैं कि केंद्र सरकार इस फैसले को निष्क्रिय करने के लिए अध्यादेश ला सकती है। यदि ऐसा हुआ तो चुनावी वर्ष में विपक्ष इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी को घेर सकता है। सरकार के लिए यह फैसला निश्चित रूप से नुकसान दायक है।प्रधानमंत्री के बयान को इस परिपेक्ष्य में भी देखने की आवश्यकता है।
-डॉ. आर.के. पालीवाल
दिल्ली के मुख्यमंत्री और पूर्व आई आर एस अधिकारी अरविंद केजरीवाल और प्रवर्तन निदेशालय के बीच चूहा बिल्ली जैसा खेल चल रहा है। प्रवर्तन निदेशालय ने हाल में दिल्ली की शराब नीति के मामले में उन्हें आठवीं बार समन जारी किया है। अरविंद केजरीवाल सात बार प्रवर्तन निदेशालय के समन को अवैध बताकर समन की अवहेलना कर चुके हैं। अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी और विपक्षी दल प्रवर्तन निदेशालय के समन को राजनीतिक कारणों से विपक्ष को परेशान करने की भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र सरकार की अलोकतांत्रिक तानाशाही बता रहे हैं तो भाजपा और प्रवर्तन निदेशालय इसे जरूरी कानूनी कार्रवाई का सामान्य हिस्सा बता रहे हैं।
जहां तक राजनीति का प्रश्न है इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्रीय जांच एजेंसी जब तक स्वतंत्र रुप से कार्य करने में सक्षम नहीं होंगी तब तक उन पर यह आरोप लगाया जाता रहेगा कि वे केन्द्र सरकार के दबाव में काम करती हैं। यह आंकड़ों से भी प्रमाणित होता है। एक तरफ विपक्षी दलों के सासंद,मंत्री, उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री प्रवर्तन निदेशालय ने गिरफ्तार किए हैं और कई पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है और दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी की किसी राज्य सरकार के मंत्रियों पर भी प्रवर्तन निदेशालय द्वारा गिरफ्तारी की कार्यवाही नहीं हुई है चाहें उन पर कितने ही गम्भीर आरोप क्यों न लगे हैं। यहां तक कि जिन नेताओं पर खुद भाजपा संगीन आरोप लगाती थी जब से वे केन्द्र सरकार और भाजपा की शरण में आए हैं उनकी तरफ भी केन्द्रीय जांच एजेंसियों की नजर उठनी बंद हो गई है।
अरविंद केजरीवाल के लिए हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय का वह फैसला मुसीबत खड़ी कर सकता है जिसमें न्यायालय ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय के समन का अनुपालन किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय तमिलनाडु के आई ए एस अधिकारियों के मामले में आया है जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले में प्रवर्तन निदेशालय ने समन जारी किए थे। तमिलनाडु सरकार इन अधिकारियों के बचाव में हाई कोर्ट आई थी जिसने समन पर स्टे दे दिया था। प्रवर्तन निदेशालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय के आदेश को निरस्त कर प्रवर्तन निदेशालय के पक्ष मे निर्णय किया है।
अभी कुछ दिन पहले चंडीगढ़ मेयर चुनाव में सर्वोच्च न्यायालय ने आम आदमी पार्टी के पक्ष मे निर्णय देते हुए चुनाव के प्रभारी रिटर्निंग अधिकारी पर कड़ी कार्यवाही करने का निर्देश दिया था। अरविंद केजरीवाल ने सर्वोच्च न्यायालय के इस आदेश की भूरि भूरि प्रशंसा की थी।अब उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के प्रवर्तन निदेशालय के मामले में दिए निर्णय का भी वैसा ही सम्मान करते हुए प्रवर्तन निदेशालय के समन का अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। अरविंद केजरीवाल खुद को शिक्षित नेता मानते हैं। उनसे आम आदमी से भी ज्यादा कानूनी नोटिस के अनुपालन की उम्मीद की जाती है।
समन से बचने की कोशिश करने से उनकी ईमानदार नेता की छवि से ज्यादा साहसी नेता की छवि को नुकसान होगा। पंजाब विधानसभा के चुनाव में उन्होंने सरदार भगत सिंह की फोटो का सबसे ज्यादा उपयोग किया था। अब उन्हें सरदार भगत सिंह सरीखी बहादुरी का परिचय देते हुए सीना तान कर प्रवर्तन निदेशालय के सामने उपस्थित होना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस मामले में उनके दो प्रमुख साथी काफी समय से जेल में बंद हैं और जब तक अरविंद केजरीवाल के बयान कलमबद्ध नहीं होंगे उनका मामला भी लंबित रहेगा और उन्हें जमानत मिलना आसान नहीं होगा। अरविंद केजरीवाल को अपने गठबंधन के अन्य साथियों, हेमंत सोरेन आदि से भी यह सीख लेनी चाहिए कि जांच एजेंसियों से सहयोग करें।
यदि एजेंसी अपने अधिकार का दुरुपयोग करती हैं तो वे और आम आदमी पार्टी सर्वोच्च न्यायालय जाने में पूर्ण सक्षम हैं।
छोटू सिंह रावत
बच्चों के स्वास्थ्य एवं पोषण की स्थिति को सुधारने के लिए सरकार कई सालों से प्रयासरत है. बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य का बेहतर विकास हो इसके लिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारों ने अपने अपने स्तर से कई तरह की योजनाएं चला रखी हैं. इसके अतिरिक्त कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी इस दिशा में सक्रिय रूप से काम कर रही हैं. इन सबका उद्देश्य गरीब और वंचित मज़दूरों और उनके परिवारों को समाज की मुख्यधारा से जोडऩा है. लेकिन इतने प्रयासों के बावजूद भी सबसे अधिक असंगठित क्षेत्रों में काम करने वाले प्रवासी मज़दूर और इनके बच्चे सरकारी सेवाओं से वंचित नजऱ आते हैं. जिन्हें इससे जोडऩे के लिए कई गैर सरकारी संस्थाएं प्रमुख भूमिका निभा रही हैं. देश के अन्य राज्यों की तरह राजस्थान में भी यह स्थिति स्पष्ट नजऱ आती है।
राजस्थान के अजमेर और भीलवाड़ा सहित पूरे राज्य में लगभग 3500 से अधिक ईट भट्टे संचालित हैं. जिन पर छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, मध्यप्रदेश और राजस्थान के ही सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों से लगभग 1 लाख श्रमिक प्रति वर्ष काम की तलाश में आते हैं. यह मज़दूर 8 से 9 माह तक परिवार सहित इन ईंट भट्टों पर काम करने के लिए आते हैं. इनमें बड़ी संख्या महिलाओं, किशोरियों और बच्चों की होती है. जहां सुविधाएं नाममात्र की होती है. वहीं बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए भी कोई सुविधा नहीं होती है. लेकिन इसके बावजूद आर्थिक तंगी मजदूरों को परिवार सहित इन क्षेत्रों में काम करने पर मजबूर कर देता है। यहां काम करने वाले अधिकतर मजदूर चूंकि अन्य राज्यों के प्रवासी होते हैं, ऐसे में वह सरकार की किसी भी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। जिसका प्रभाव काम करने वाली महिलाओं और उनके बच्चों के सर्वांगीण विकास पर पड़ता है।
इस संबंध में सेंटर फॉर लेबर रिसर्च एंड एक्शन, अजमेर की जिला समन्वयक आशा वर्मा बताती हैं कि "ईट भट्टो पर लाखों प्रवासी श्रमिक और उनके बच्चे हैं, जिन्हें स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभाग की सेवाएं मिलनी चाहिए, लेकिन जमीनी स्तर पर ऐसा नहीं होता है। 0 से 5 साल के बच्चों में पोषण की स्थिति देखें तो सबसे ज्यादा समस्या भी इन प्रवासी श्रमिकों के बच्चों में है। जिनमें सही समय पर टीकाकरण, खानपान और पोषणयुक्त आहार नहीं मिलने के कारण कुपोषण दर ज्यादा बढऩे का खतरा रहता है। वहीं ईट भट्टो पर महिलाओं और किशोरियों की स्वास्थ्य स्थिति देखें तो यह भी चिंताजनक स्थिति में नजर आता है, क्योंकि इन जगहों पर इनके लिए शौचालय और स्नानघर की उचित व्यवस्था नहीं होती है। ऐसे में खुले में शौच इसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त माहवारी के समय सेनेटरी नैपकिन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने के कारण भी यह महिलाएं और किशोरियां कई प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं से जूझती रहती हैं।’
आशा वर्मा के अनुसार इन प्रवासी मजदूरों के बच्चों और महिलाओं में स्वास्थ्य की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए संस्था पिछले तीन साल से अजमेर और भीलवाड़ा क्षेत्र के 20 ईट भट्टो पर बालवाड़ी केन्द्र संचालित कर रही है, जिसमें 0 से 6 साल के 620 बच्चों को नामांकित किया गया है। जिन्हें सूखा व गर्म पोषाहार दिया जा रहा है।
जो बच्चे कुपोषण की श्रेणी में आते हैं उन्हें न केवल कुपोषण उपचार केंद्र में दिखाया जाता है बल्कि संस्था की ओर से उनके साथ विशेष काम किया जाता है। उन्होंने बताया कि पिछले तीन सालों में परिवार के साथ ईट भट्टो पर रहने वाले कुपोषित बच्चों की स्थिति देखें तो इसमें काफी सुधार आया है। अब तक करीब 100 से ज्यादा बच्चों को इन बालवाड़ी केंद्र के माध्यम से कुपोषण से मुक्त स्वस्थ शिशु बनाया गया है। इसके अतिरिक्त समय समय पर उन बच्चों और गर्भवती महिलाओं का सम्पूर्ण टीकाकरण करवाने में भी पहल की गई है। इसके अतिरिक्त इन बालवाड़ी केंद्रों पर बच्चों के साथ लर्निंग गतिविधियां भी की जाती हैं ताकि उनमें शिक्षा के प्रति लगन बनी रहे। इसके लिए हर माह बच्चो की ग्रोथ मॉनिटरिंग भी की जाती है।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या ईट भट्टों पर काम करने वाले प्रवासी मजदूरों के बच्चों पर शिक्षा का अधिकार कानून लागू नहीं होता है? हालांकि सरकार का हमेशा प्रयास रहता है कि बच्चों की शिक्षा की स्थिति में सुधार हो. इसके लिए सरकार हमेशा नई नई योजनाएं भी लेकर आती है, ताकि कोई भी बच्चा शिक्षा से छूटे नहीं. इसके लिए देश में शिक्षा का अधिकार कानून भी लागू किया गया. लेकिन इसके बावजूद अधिकतर प्रवासी मजदूरों के बच्चे इस अधिकार से वंचित रह जाते हैं। आशा वर्मा के अनुसार इस दिशा में काम कर रही सीएलआरए और उसकी जैसी अन्य गैर सरकारी संस्थाएं इस इसमें बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। जिनकी ओर से हर साल शिक्षा विभाग को इन बच्चों को स्थानीय स्कूल से जोडऩे के लिए सूची उपलब्ध करवाई जाती है।
हालांकि अभी तक इन बच्चो का शिक्षा से जुड़ाव हो इसके लिए विभाग की ओर से कोई ढांचा तैयार नही हुआ है। यही कारण है कि यह प्रवासी बच्चे पढऩे और खेलने कूदने की उम्र में माता-पिता के साथ दिहाड़ी मजदूर बन रहे हैं। आशा वर्मा के अनुसार इन प्रवासी बच्चों के पास कोई दस्तावेज नहीं होने और अपने गृह नगर से बीच में ही स्कूल छोडक़र पलायन करने के कारण कार्यस्थल के आसपास के सरकारी स्कूल उन्हें प्रवेश देने में आनाकानी करते हैं। जबकि शिक्षा का अधिकार कानून में बिना किसी दस्तावेज के सभी बच्चो का स्कूल में प्रवेश होने की बात कही गई है. लेकिन जागरूकता की कमी के कारण यह सरकारी स्कूल उन्हें बिना दस्तावेज़ के प्रवेश देने से इंकार कर देते हैं। यह शिक्षा का अधिकार कानून का सरासर उल्लंघन है।
आशा वर्मा बताती हैं कि ने बताया कि तीन सालों में अजमेर और भीलवाड़ा जिला के 20 ईट भट्टो पर करीब 1800 प्रवासी बच्चे इस प्रकार के बालवाड़ी केंद्रों पर नामांकित हुए हैं. जो एक बड़ी उपलब्धि है. वास्तव में, राजस्थान में किसी भी ईट भट्टे पर सरकार की ओर से आंगनबाड़ी केन्द्र नहीं होने के कारण लाखों बच्चों का बाल्यावस्था में जो विकास होना चाहिए इन मूलभूत अधिकारों से यह सभी प्रवासी बच्चे वंचित रह जाते हैं. जिससे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित हो जाता है. ऐसे में सरकार को इस प्रकार की नीति, योजनाएं और ढांचा तैयार करनी चाहिए जिससे प्रवास होने वाले बच्चे भी शिक्षा जैसे मूल अधिकार से वंचित न हो सकें. (चरखा फीचर)
विनीत खरे
राजनीतिक रणनीतिकार और जन सुराज अभियान के संयोजक प्रशांत किशोर ने कहा है कि बीजेपी ये चाहती है कि लोग ये मान लें कि 2024 के चुनाव के बाद आगे कुछ नहीं।
बीबीसी के साथ ख़ास बातचीत में प्रशांत किशोर ने विपक्ष की रणनीति पर सवाल उठाए और कहा कि इस लोकसभा चुनाव को ‘डू ऑर डाई’ कहना विपक्ष की सबसे बड़ी राजनीतिक भूल है।
प्रशांत किशोर ने कहा, ‘विपक्ष दूसरी बड़ी ग़लती कर रहा है। ये बहुत बड़ी रणनीतिक ग़लती है जिसे विपक्ष कर रहा है। कोई अगर ये कह रहा है कि इसके बाद कुछ नहीं होगा। ये तो बीजेपी चाहती है कि आप और हम ये मान लें कि 2024 के चुनाव के बाद आगे कुछ भी नहीं। जैसे ये पहला और आखऱिी चुनाव हो और एक बार अगर जनता ने बीजेपी के पक्ष में जनादेश दे दिया, तो कोई सवाल मत करो।’
उन्होंने कहा कि 2024 में कोई जीते या कोई हारे। इसका मतलब ये नहीं कि देश में विपक्ष नहीं रहेगा, असहमति नहीं रहेगी। इस देश की समस्याएँ नहीं रहेंगी। देश में आंदोलन नहीं होने चाहिए या देश में प्रयास नहीं होने चाहिए, जो बीजेपी से इत्तेफाक नहीं रखते।
उन्होंने कहा, ‘अगर विपक्ष ये कह रहा है। उनको लग रहा है कि वे लोगों को डरा रहे हैं ताकि हम कहेंगे कि 2024 के बाद कुछ नहीं बचेगा, इसलिए वोट दो हमें। मुझे लग रहा है कि वे बहुत बड़ा टेक्निकल ब्लंडर कर रहे हैं। उन्हें ये नहीं कहना चाहिए। ये सच्चाई भी नहीं है।’
प्रशांत किशोर ने कहा कि अगर वे उनकी जगह होते, तो ये कहते कि 2024 में लड़ेंगे, पूरी ताक़त से लड़ेंगे, लेकिन अगर 2024 में जीत नहीं भी हुई, तो इसके बाद भी समय आएगा।
उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहकर एजेंडा सेट कर दिया है कि अबकी बार 400 पार। वो कहते हैं कि अब बात बीजेपी की हार-जीत की नहीं हो रही है, बल्कि इस बात की चर्चा है कि 400 सीटें आएँगी या नहीं।
लोकसभा चुनाव और विपक्षी एकता की कोशिश
ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव में कुछ ही समय रह गया है, तब विपक्ष की तैयारियां कैसी हैं और विपक्ष कहाँ खड़ा है?
इस सवाल के जवाब में प्रशांत किशोर कहते हैं कि विपक्ष ने बहुत देर कर दी है।
वो अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि इसकी तैयारियां कई साल से की जा रही थीं। यह बात सबको पता थी कि इसका उद्घाटन चुनाव से कुछ महीने पहले हो जाएगा।
उन्होंने कहा कि इसी तरह से यह सबको पता है कि 2024 के अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होंगे। ऐसे में विपक्ष का ‘इंडिया’ गठबंधन जो चुनाव से कुछ महीने पहले बना है, क्या वह गठबंधन दो-तीन साल पहले नहीं बन सकता था।
वो कहते हैं कि विपक्षी दलों को गठबंधन करने से किसने रोका था।
प्रशांत किशोर ने कहा, ‘वो तीन साल पहले भी किसानों का मुद्दा उठा सकते थे, दो-तीन साल पहले ही वो सीट शेयरिंग कर सकते थे। तीन साल पहले ही गठबंधन का नाम ‘इंडिया’ रख दिया होता। अगर तीन साल पहले ही इंडिया गठबंधन बन गया होता तो उसको लेकर लोगों की समझ आज ज़्यादा होती।’
बिहार में बदलाव की आस
बाद में बीबीसी के साथ बातचीत में प्रशांत किशोर ने कहा कि लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष जो एकता की कोशिशें करता दिख रहा है, वह दो-तीन साल पहले होनी चाहिए थी।
उन्होंने पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बेहतर प्रदर्शन की भी उम्मीद जताई है।
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई थी।
बिहार के बारे में प्रशांत किशोर ने कहा कि अब वे बिहार में वो करना चाहते हैं, जिससे बिहार के लोगों की जि़ंदगी बदले, न कि केवल यहाँ की सत्ता बदले।
उन्होंने कहा कि आज तक मिले अनुभव के आधार पर उन्हें लगाता है कि महात्मा गांधी का रास्ता आज सबसे अधिक प्रासंगिक है।
उन्होंने कहा, ‘जब समाज में जाकर जन चेतना को नहीं बदला जाता है, तब तक किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद बेमानी है।’
प्रशांत किशोर ने कहा कि जब यात्रा की योजना बनाई गई तो उन्होंने तय किया कि वे लोगों को यह नहीं बताएंगे कि किसको वोट दें और किसको नहीं। वे लोगों को यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि वोट किस बात के लिए देना चाहिए।
भारत में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता
प्रशांत किशोर ने कहा कि किसी दूसरे कालखंड की तुलना में आज के समय में महात्मा गांधी की प्रासंगिकता ज़्यादा है।
उन्होंने कहा कि आज शहरी भारत में यह धारणा बनाने की कोशिश की जा रही है कि महात्मा गांधी की प्रासंगिकता नहीं रह गई है या उनको मानने वालों की संख्या कम हो गई है।
प्रशांत किशोर ने कहा, ‘2018-19 के दौरान मैंने देश के कऱीब 2,500 कॉलेजों में एक सर्वेक्षण करवाया था। सर्वे के परिणाम से पता चला कि महात्मा गांधी आज भी इस देश में सबसे अधिक पसंद किए जाने वाले सामाजिक-राजनीतिक व्यक्तित्व हैं।’
अगले कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में 'जन सुराज' की भूमिका के सवाल पर प्रशांत किशोर ने कहा कि अभी वे जनता को जागरूक करने की भूमिका में बने रहेंगे।
उन्होंने कहा कि उन्होंने बिहार की जनता से वादा किया है कि पहले वे पूरे बिहार की पदयात्रा करेंगे, उसके बाद अधिवेशन-सम्मेलन कर उसमें चर्चा करेंगे कि वे लोग दल बना रहे हैं, तभी जाकर दल बनेगा।
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दल बनाने के सवाल पर वो कहते हैं कि उन्होंने लोकसभा या विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर यात्रा नहीं शुरू की है।
लेकिन उन्होंने बिहार के अगले विधानसभा चुनाव से पहले ‘जन सुराज’ यात्रा पूरी होने और नया राजनीतिक दल बन जाने की उम्मीद जताई।
कौन दे रहा है ‘जन सुराज’ यात्रा का ख़र्चा?
‘जन सुराज’ यात्रा को लेकर उठ रहे सवालों के जवाब में प्रशांत किशोर कहते हैं कि सवाल तो उठते रहेंगे, जिनका काम सवाल उठाना है, वे सवाल उठाते रहेंगे। उनका काम अपने काम को ईमानदारी और शुद्धता से करना है।
प्रशांत किशोर ने कहा, ‘यात्रा के दौरान मैं लोगों से कहता हूँ कि आप यह मत देखिए कि प्रशांत किशोर क्या कह रहे हैं, आप यह देखिए कि मैं कर क्या रहा हूं। आप मेरे काम को अपने अनुभव की कसौटी पर कसिए, ठीक लगे तो मुझसे जुडि़ए।’
प्रशांत किशोर कहते हैं कि उनके पास केवल एक ही फ़ॉर्मूला है कि लोगों को संगठित कैसे किया जाए और लोगों को संगठित कर एक राजनीतिक दल कैसे बनाया जाए। अगर राजनीतिक दल बन जाए तो उसे चुनाव कैसे लड़ाया जाए और उसे जिताया कैसे जाए।
‘जन सुराज’ यात्रा के पैसे के स्रोत के सवाल पर प्रशांत किशोर कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में उन्होंने कई राज्यों में कई लोगों और कई राजनीतिक दलों को चुनाव जीताने में मदद की है। लेकिन उन्हें कोई राजनीतिक दल पैसा नहीं दे रहा है।
उन्होंने कहा, ‘जन सुराज यात्रा के लिए पैसा वे लोग दे रहे हैं जिनके चुनाव में मैंने मदद की है। ऐसे लोग साधन संपन्न हैं और वही लोग यात्रा के लिए पैसे दे रहे हैं। इन लोगों को मुझ पर भरोसा है कि अगर प्रशांत किशोर ये प्रयास कर रहे हैं तो इससे जरूर कुछ अच्छा निकल सकता है। इसलिए वो मेरी मदद कर रहे हैं।’
क्या तेजस्वी यादव बिहार के यूथ आइकन हैं
राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव के उभार और यूथ आइकन बताए जाने के सवाल पर प्रशांत किशोर कहते हैं कि लोकतंत्र में काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती है।
वो कहते हैं कि आरजेडी के 15 साल के जंगलराज को जिन लोगों ने देखा है, वो लोग आरजेडी या उससे जुड़े लोगों को फ्रंट सीट पर बैठे हुए देखना नहीं चाहते हैं।
इलेक्टोरल बॉन्ड पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का चुनाव पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
इस सवाल पर उन्होंने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि इसका चुनाव पर कोई असर होगा। इससे गाँव-देहात के लोगों का मतदान प्रभावित नहीं होगा।
बंगाल में संदेशखाली के मुद्दे से किसे होगा फायदा
पश्चिम बंगाल में संदेशखाली के मुद्दे पर सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी में मचे घमासान के सवाल पर प्रशांत किशोर ने कहा कि इस तरह के मुद्दे सही हैं या गलत हैं, यह तो जाँच का विषय है, लेकिन जब यह मुद्दा जनता के बीच में आता है तो सत्ताधारी दल को उसका नुकसान उठाना पड़ता है।
उन्होंने कहा, ‘यह कहना कि पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी कमज़ोर हो गई है, यह ठीक नहीं है। विधानसभा चुनाव में बीजेपी को तृणमूल ने बहुत मेहनत करके हराया था।’
‘अगर उस तरह की मेहनत लोकसभा चुनाव में नहीं की गई तो बीजेपी के लिए चुनाव परिणाम करीब-करीब 2019 के जैसे या उससे बेहतर भी आ सकते हैं।’
उनका कहना है कि 2021 के विधानसभा चुनाव के बाद से पश्चिम बंगाल में बीजेपी के समर्थन में बढोतरी हुई है। ऐसे में अगर तृणमूल को अपने आधार को बचाना है, तो उसे बहुत कड़ी मेहनत करनी होगी।
आम लोगों में कैसी है प्रशांत किशोर की छवि
बिहार में जन सुराज अभियान शुरू करने वाले प्रशांत किशोर पिछले करीब डेढ़ साल से राज्य में पदयात्रा पर हैं और वो अभी तक 14 जिलों की यात्रा कर चुके हैं।
बीबीसी के साथ बातचीत में प्रशांत किशोर ने लोकसभा चुनाव, बीजेपी, राम मंदिर, तेजस्वी यादव और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी सरकार को लेकर भी अपनी राय ज़ाहिर की।
जब बिहार के सहरसा जि़ले के गाँव देहद में बीबीसी की टीम उनसे मिलने पहुँची, तो रास्ते में जगह-जगह पर प्रशांत किशोर की तस्वीर लगे स्वागत द्वार बने थे।
सडक़ के दोनों ओर की दुकानों, खंभों पर कई जगह जन सुराज के पीले झंडे और जय श्रीराम के झंडे साथ दिखे।
क्या आप प्रशांत किशोर को जानते हैं, नाम सुना है, या उन्हें देखा है? इस सवाल कुछ लोगों ने कहा कि वो प्रशांत किशोर के बारे में नहीं जानते और एक बार उन्हें सुनने के बाद उनके बारे में मन बनाएँगे। कुछ ने कहा कि उन्होंने प्रशांत किशोर के वीडियो देखे हैं।
प्रशांत किशोर ने गाँव वालों से कऱीब आधे घंटे बात की। वहीं खड़े ज़हूर आलम ने कहा कि वो प्रशांत किशोर को मोबाइल पर सुनते रहे हैं और प्रशांत किशोर ने कई अच्छी बातें कीं।
रंजीत कुमार सिंह ने कहा कि प्रशांत अच्छी बातें जनता तक पहुंचा रहे हैं।
बड़ी संख्या में महिलाएँ भी प्रशांत किशोर को सुनने आईं हुई थीं। प्रशांत लोगों से अपनी बात रखने को कहते, उनसे सवाल पूछते।
एक जगह उन्होंने कहा, ‘जनता का राज अगर चाहिए तो इसका एक ही रास्ता है। अगली बार वोट नेता का चेहरा देखकर नहीं, अपने बच्चों का चेहरा देखकर दीजिए।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन
कॉफी शब्द कहां से आया? कॉफी इथियोपिया से आई थी, जहां के लोग इसे कहवा कहते थे। स्वर्गीय डॉ. के. टी. अचया ने वर्ष 1998 में ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी से प्रकाशित अपनी पुस्तक ए हिस्टोरिकल डिक्शनरी ऑफ इंडियन फूड में लिखा है कि कॉफी के बीज अरब व्यापारियों द्वारा कुलीन वर्ग के उपयोग के लिए भारत लाए गए थे। अरबी लोगों ने दक्षिण भारत और श्रीलंका में कॉफी के बागान लगाए। और सूफी बाबा बुदान ने कर्नाटक के चिकमगलुर के पास कॉफी के पौधे उगाए।
1830 की शुरुआत में, शुरुआती ब्रिटिश आगंतुकों ने दो प्रकार की कॉफी के कॉफी बागान लगाए – अच्छी ऊंची जगहों पर कॉफी अरेबिका के, और निचले इलाकों में कॉफी रोबस्टा के बागान। (चूंकि युरोप में कहवे का कारोबार अरब व्यापारी करते थे इसलिए अरेबिका नाम पड़ा; और रोबस्टा, क्योंकि पश्चिम अफ्रीका की यह किस्म रोगों के प्रति अधिक प्रतिरोधी है)। जैसा कि मैंने कॉफी पर अपने पूर्व लेखों में लिखा था, कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है, खासकर जब इसे गर्म दूध के साथ मिला कर पीया जाता है। कई अमेरिकी लोग बिना दूध वाली (ब्लैक) कॉफी पीते हैं।
तमिलनाडु के कुंभकोणम शहर के कॉफी के शौकीन बाशिंदे अपनी कॉफी को कुंभकोणम डिग्री कॉफी कहते हैं। उनका दावा है कि उसके स्वाद का कोई मुकाबला नहीं है। वे आगे कहते हैं कि यह कॉफी विशुद्ध अरेबिका कॉफी है और इसमें चिकरी पाउडर नहीं मिला होता है, जो आम तौर पर डिपार्टमेंटल स्टोर या कॉफी शॉप पर मिलने वाले कॉफी पाउडर या कॉफी के बीजों में होता है। इसी तरह, सिकंदराबाद की जिस कॉफी शॉप से मैं कॉफी खरीदता हूं वहां शुद्ध अरेबिका कॉफी पावडर के साथ-साथ चिकरी मिश्रित अरेबिका कॉफी पीने वालों के लिए चिकरी मिश्रित कॉफी पावडर भी मिलता है।
लेकिन चिकरी है क्या? यह भी कॉफी की एक किस्म है, और भारत चिकरी का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। हमारे देश में यह सुदूर पूर्वी राज्यों (असम, मेघालय, सिक्किम) में उगाई जाती है। वहीं कुछ लोगों का ऐसा दावा है कि पोषण के मामले में चिकरी अरेबिका से बेहतर हो सकती है, क्योंकि इसमें कैफीन की मात्रा कम होती है। कैफीन एक अणु है जो केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है, हालांकि इस सम्बंध में अब तक कोई निर्णायक प्रमाण नहीं मिले हैं।
आंध्र प्रदेश अराकू घाटी के पहाड़ी क्षेत्रों में उगाई जाने वाली अपनी विशेष कॉफी के लिए प्रसिद्ध है। अराकू कॉफी के बारे में दावा है कि यह न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी उपलब्ध सबसे अच्छी कॉफी है। यह शुद्ध अरेबिका कॉफी है। बहुत अच्छी किस्म की अरेबिका तमिलनाडु की शेवरॉय पहाडिय़ों और कर्नाटक के मंजराबाद किले के आसपास के इलाकों में भी उगाई जाती है। भारत भर के बड़े शहरों में कई युवा स्टारबक्स की कॉफी खरीदते हैं और पीते हैं, और कैफे कॉफी डे (सीसीडी) से भी। स्टारबक्स सिर्फ शुद्ध अरेबिका कॉफी का उपयोग करता है, जबकि सीसीडी के बारे में स्पष्ट नहीं है कि वे शुद्ध अरेबिका का उपयोग करते हैं या मिश्रण का।
कॉफी की इन विभिन्न प्रमुख किस्मों को लेकर इतना शोर क्यों है? जवाब इतालवी आनुवंशिकीविद डॉ. मिशेल मॉर्गन्टे द्वारा किए गए हालिया आनुवंशिकी अध्ययन (नेचर कम्युनिकेशंस जनवरी 2024) से मिलता है जो बताता है कि कॉफी की कई कृष्य किस्में बेहतर स्वाद दे सकती हैं। दी हिंदू ने हाल में संक्षेप में अपने विज्ञान पृष्ठ पर यह बात बताई है और बीबीसी न्यूज़ के अनुसार कॉफी अरेबिका में आनुवंशिक परिवर्तन बेहतर महक दे सकते हैं। तो वक्त आ गया है कि भारतीय आनुवंशिकीविद भारतीय कॉफियों के जीन्स अनुक्रमित करके देखें। (स्रोत फीचर्स)
डॉ. परिवेश मिश्रा
(संयोग है कि आज श्री दिग्विजय सिंह का जन्मदिन है। चार साल में एक बार आता है। उन्हें बधाई। )
कभी कभी छोटी बातें भी बड़े सामाजिक परिवर्तन का कारण बन जाती हैं। शर्त बस इतनी है कि बात को आगे बढ़ाने वाले लोग मिलते रहें। जैसे हमें मिले।
सारंगढ़ से उत्तर दिशा में महानदी के किनारे जेवरा नाम का एक छोटा गाँव में जब हम पहुँचे तो सौ डेढ़ सौ युवा दम्पत्तियों का एक समूह बच्चों को गोद में लिए खड़ा था। मेरी पत्नी मेनका देवी और मैं वहाँ बच्चों का टीकाकरण करने पहुँचे थे। राजीव गांधी और सैम पित्रोदा के शुरू किये कोल्ड-चेन आधारित टीकाकरण मिशन में कुछ समय बाकी था। वहाँ हमें अनेक लोगों के गले में टेबल-टेनिस से लेकर टेनिस बॉल के आकार की गांठें लटकी दिखीं। गिनने पर ऐसे लोगों की संख्या 18 निकली।
जब हम दोनों ने मेडिकल कॉलेज से शिक्षा पूरी की हम आदर्शवाद के बादलों में तैर रहे थे। मेरी पीढ़ी का यह वह दौर था जब बीस से तीस वर्ष की आयु में यदि कोई युवा थोड़ा विद्रोही, स्थापित व्यवस्था से प्रश्न करने वाला, थोड़ा क्रांतिकारी टाईप विचार न रखे, न व्यवहार करे तो लोग उसे असामान्य मानने लगते थे।
उस दौर में नये बने डॉक्टर के सामने अधिक विकल्प नहीं होते थे। नर्सिंग होम और निजि बड़े अस्पतालों का चलन राजीव गांधी से शुरू होकर नरसिंह राव तथा मनमोहन सिंह के काल में बढ़ा, तब नहीं था। भोपाल में मेडिकल कॉलेज होस्टल के पास ही राज्य के स्वास्थ्य विभाग का दफ्तर था। सादे कागज पर आवेदन छोड़ आने के हफ्ता-दस दिन में नियुक्ति पत्र हाथ में आ जाता था। यह अलग बात है कि गूगल-पूर्व के उस काल में उसके बाद नियुक्ति पत्र हाथों में लिये युवा डॉक्टर पता करते घूमता था कि नियुक्ति वाला गांव नक्शे में कहां है। अधिकांश प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिजली और सडक़ विहीन स्थानों पर थे। रेडियोलॉजी विभाग में मेरे साथ एम.डी. कर रहे डॉ. समीर हूमड मनासा के रहने वाले थे। मनासा मध्यप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर नीमच के पास है। एक दिन समीर ने अपना नियुक्ति लिफ़ाफ़ा खोला और पूछा था- यह कुडुमकेला कहां होता है? मैंने बताया यह मध्यप्रदेश की पूर्वी सीमा पर रायगढ़ और धर्मजयगढ़ के बीच है। समीर का अगला प्रश्न था- कितनी दूर है? जब बताया कुडुमकेला में मनासा की अपेक्षा सूरज चालीस मिनट पहले उदय होता है तो देर तक सोने के आदी समीर का चेहरा उतर गया था।
मेनका देवी और मैंने सामाजिक चिकित्सा के क्षेत्र वाले जिस रास्ते पर चलने का निर्णय लिया था वह बहुत अधिक चला हुआ नहीं था। इस राह में हमें लेप्रसी, टीबी, फ़ायलेरियेसिस जैसी स्थितियां इफरात में मिलने जा रही थीं। लेकिन इनसे दो-चार होने का कोई मॉडल सामने नहीं था जिसके अनुसरण पर विचार किया जा सके। मुरलीधर देवीदास आमटे को बाबा आमटे के नाम से जाना जाता था। उन्होंने लेप्रसी पर बहुत काम किया था। वे बहुत बड़ी हस्ती थे। वे स्वाभाविक रोल मॉडल हो सकते थे। किन्तु हम न तो अपने कार्यक्षेत्र को लेप्रसी में सीमित रखना चाहते थे न ही अपने भूगोल को आश्रम के भीतर।
जब हम जेवरा गाँव से वापस आये तो एक नया अध्याय हमारे कामों में जुड़ गया। गले में गांठ (घेंघा या गॉयटर) को आयोडीन की कमी से शरीर में होने वाले दुष्प्रभावों के समूह में रखा जाता है। इसके अलावा नवजात शिशुओं की बढ़ी हुई मृत्यु दर, मृत शिशु के बाहर आने की दर, शारीरिक और मानसिक विकलांगताएं, मंदबुद्धि आदि भी इस समूह में आते हैं।
प्राकृतिक आयोडीन मिट्टी की सबसे ऊपरी सतह में पाया जाता है और जहां पानी का बहाव तेज होता है वहां इसकी कमी अधिक होती है। हमारे जि़ले के उत्तरी क्षेत्रों में पहाड़ी इलाका होने के कारण बहाव तेज होना ही था। अब यह इलाका जशपुर के नाम से एक अलग जिला बन चुका है। उन दिनों युवा होनहार अफसरों को एडिशनल कलेक्टर का पद दे कर यहां का प्रशासनिक मुखिया बनाया जाता था। सात विशाल विकास खण्डों वाला यह बड़ा इलाका था। यदि युवा अधिकारी प्रतिभाशाली और कल्पनाशील हो तथा कुछ नया करने का जज़्बा रखता हो तो उसे ऐसा करने के लिए पूरा अवसर यहाँ प्राप्त होता था।
उन दिनों यहां श्री मनोज श्रीवास्तव पदस्थ थे। हाल में वे मध्यप्रदेश के अतिरिक्त मुख्य सचिव के पद से रिटायर हुए। उन्होने इस समस्या को समझा और निदान ढूंढऩे में हमारी मदद की। नमक ऐसी वस्तु थी जिसका सेवन सब करते हैं। किन्तु आयोडीन वाले नमक की उपलब्धता और खपत दोनों बहुत कम थे। उन दिनों की प्रचलित प्रथा के अनुसार कस्बों से व्यापारी अपनी सायकिल में लटके झोलों में ढेले वाला नमक लेकर वन के अंदर गाँवों तक पहुंचते और आदिवासियों से बदले में वनोपज लेकर वापस आ जाते थे। आमतौर पर यह वह नमक होता जो घोड़ों आदि पशुओं के लिये बाज़ार में आता था। मनोज जी ने एक प्रयोग का सुझाव दिया। उन दिनों जवाहर रोजग़ार योजना के नाम से एक कार्यक्रम चलता था जिसमें ग्रामीणों को काम के बदले पारिश्रमिक के रूप में चावल और नगद दिया जाता था। सुझाव था इस कार्यक्रम के माध्यम से आयोडीन वाला नमक आदिवासियों तक पहुँचाने का। मनोज जी के सुझाव पर अमल हुआ।
बाहर से बड़े पैकिंग में आयोडाईज्ड नमक बुलाया गया। खुले नमक से आयोडीन का क्षरण हो जाता है इसलिए इलाके की सारी आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का सहयोग लेकर नमक को प्लास्टिक के छोटे-छोटे पैकेट्स में बांटा और मोमबत्ती की लौ की सहायता से सील किया गया। नमक के पैकेट्स के ढेर बन गये। जवाहर रोजग़ार योजना के भुगतान के साथ नमक का वितरण शुरू हुआ। आमतौर पर परिवार के एक से अधिक सदस्य मज़दूरी करते थे। देखते देखते ग्रामीणों और आदिवासियों के घरों में इतने पैकेट्स इक_ा हो गये कि वनोपज से अदला-बदली कर ढेले वाला नमक लेने का कारण समाप्त हो गया। उसके बाद कोई औपचारिक सर्वे तो नहीं हुआ किन्तु उस इलाके में पदस्थ डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों से जानकारी मिली कि परिवर्तन दिखाई देना शुरू हो गया था।
इस दौरान मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन गये थे। 1995 में उनके मंत्रीमंडल के एक साथी मोहनलाल चौधरी की मृत्य हो गयी। वे सारंगढ़ से लगे हुए सरायपाली क्षेत्र से विधायक थे। मृत्य के कारण उपचुनाव घोषित हुआ और उम्मीदवार के चयन के सिलसिले में दिग्विजय सिंह जी का आगमन हुआ। सरायपाली का रास्ता सारंगढ़ होकर जाता था सो भोजन के लिए वे गिरिविलास में रुके। उस दौरान हुई बातचीत में मेनका जी ने उनके साथ जेवरा से लेकर जशपुर तक के अपने अनुभव साझा किये। मुझसे उन्होंने इस विषय पर इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक के द्वारा किये गये रिसर्च की रिपोर्ट्स लीं। सारंगढ़ से सरायपाली के बीच का रास्ता उन दिनों बेहद खराब था। सो रास्ते में दस्तावेजों का अध्ययन करने के लिए उन्हे कुछ अतिरिक्त समय भी मिला। लौटते समय वे एक बार फिऱ रुके और जो शंकाएं थीं उनका निराकरण किया।
मुख्यमंत्री के भोपाल वापस पहुंचने के कुछ ही दिनों के भीतर दो बाते हुईं - उन्होने अपनी सरकार के लिए पांच मिशनों की घोषणा की। आयोडीन की कमी से होने वाली स्थितियों पर नियंत्रण उनमें एक था। दूसरा निर्णय था मध्यप्रदेश में बिना आयोडीन के खुले नमक की बिक्री पर पूरी तरह रोक।
खुले नमक की बिक्री पर रोक की घोषणा का सभी ने खुले दिल से स्वागत किया हो ऐसा नहीं था। इसका विरोध करने वाले एक बड़े वर्ग का मानना रहा कि यह निर्णय आयोडीन नमक बेचने वाली बड़ी कम्पनियों के दबाव में या उन्हे उपकृत करने के लिए लिया गया था।
जो भी हो, इसका दूसरा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है। न मनोज श्रीवास्तव अपने पद पर रहे न दिग्विजय सिंह। लेकिन यह सच है कि आज छत्तीसगढ में (और शायद मध्यप्रदेश और अन्य स्थानों में भी) गले में गांठ लिये लोग दिखाई नहीं देते। कम से कम उतनी आसानी और उतनी संख्या में तो कतई नहीं जितने हमें जेवरा में दिखाई दिये थे। पीढ़ी दर पीढ़ी होने वाली विकलांगताएं अब नजर नहीं आतीं। अब बाजार में खुला नमक भी बिकता नजर नहीं आता।
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
विज्ञान अंतिम ज्ञान नहीं होता, यह सतत परिवर्तनशील प्रक्रिया है। कल जो ज्ञात था, आज अतीत है; जो आज ज्ञात है, कल अतीत हो जाएगा। विज्ञान परम ज्ञान नहीं है, यह सही है कि हम इसके माध्यम से ज्ञान के समीप पहुँच सकते हैं। विज्ञान ने हर युग में मनुष्यता को बेहतर मनुष्य बनने में मदद की, उन तकनीकों का अन्वेषण किया जिनसे मनुष्य के जीवन को सुविधाजनक बनाया जा सके। दो पैरों से चलने वाला मनुष्य, बैलगाड़ी, सायकिल, मोटर सायकिल, कार और वायुयान की गति से बढ़ता हुआ राकेट पर सवार होकर उडऩे लगा। ऊपरी तौर पर ऐसा लगता है कि मनुष्य विज्ञान के साथ-साथ आगे बढ़ रहा है लेकिन ऐसा नहीं है, विज्ञान के तेज कदमों के साथ चलना मनुष्य के वश की बात नहीं है। मनुष्य जब तक विज्ञान की तकनीक को समझने और अंगीकार करने की कोशिश करता है, तब तक विज्ञान बहुत आगे बढ़ जाता है। इन दोनों के बीच फासला लगातार बढ़ रहा है। जितना फासला बढ़ रहा है उतना विज्ञान मनुष्यता पर हावी होता जा रहा है, विज्ञान मालिक बन गया है और मनुष्य उसका गुलाम।
अपने देश के सन्दर्भ में देखें तो हमारी गति विकसित देशों के मुकाबले बहुत धीमी है क्योंकि हमारी भारतीयता किसी भी परिवर्तन को आहिस्ता-आहिस्ता अपनाती है। परिवर्तन को स्वीकारने की हिचकिचाहट हमें बार-बार रोकती है और यह संकोच हमें आगे बढऩे के बजाय कदमताल करने के लिए बाध्य कर देता है। हमारी रफ़्तार इतनी धीमी है कि जिस युग में हमारे पूर्वज कपड़े पहना करते थे तब शेष विश्व निर्वस्त्र घूमता था, उनको सभ्य होने में कितना अधिक समय लगा जबकि इस बीच विज्ञान की मदद से शेष विश्व हमसे आगे बढ़ गया और हम दुनिया को बढ़ते हुए आश्चर्य से खड़े निहार रहे हैं।
हमारा देश तकनीक-विहीन नहीं था। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में वस्त्र उत्पादन में अकेले हमारा योगदान विश्व के कुल उत्पादन का एक चौथाई था। मलमल का कपड़ा हमारी उन्नत तकनीक का ज्वलंत उदाहरण है। वास्तु निर्माण में हमारी वैज्ञानिकता का दुनिया लोहा मानती है। धातु के अस्त्र-शस्त्र और काष्ठ कला के निर्माण में हमारे कारीगर अतुलनीय रहे हैं। किन्तु आज की दौड़ती-भागती दुनिया में हम अगर पिछड़े हुए हैं तो भारतीयता की धीमी गति के कारण। विज्ञान ने अपनी खोज को छुपा कर नहीं रखा बल्कि उसे सार्वजनिक किया ताकि विज्ञान के प्रयास सबके काम आ सकें जबकि हमारे देश में कई गुणवंत अपने ज्ञान और उपलब्धियों को आपने सीने में छुपाए चिता में भस्म हो गए। अपनी विधा को रहस्य के दायरे में रखने की इस भूल के कारण हमारी वैज्ञानिक उपलब्धियां पनप नहीं सकी।
विज्ञान अपनी तकनीक का प्रयोग सामाजिक परिवर्तन के लिए करता है। इस परिवर्तन का लाभ उठाने के लिए हमें उसकी गति से अपनी गति मिलानी पड़ेगी। हमारे शिक्षित समाज को आधुनिक तकनीक का लाभ उठाना नहीं आता। वे पुरानी परंपरा और आधुनिक खोज का ऐसा विचित्र घालमेल करते है कि उस विधा के मूल आविष्कारक को यदि पता लग जाए तो उसको अपने आविष्कार पर अफ़सोस होने लगेगा। उन्नत तकनीक समाज को उन्नति की राह दिखाती है लेकिन भारतीय जनमानस को उसका सकारात्मक उपयोग कम समझ आता है, नकारात्मक अधिक। वज़ह यह है कि वे अपनी दुनिया को ही दुनिया मानते हैं और उसी दुनिया में खुश रहते हैं। संचार तकनीक इसका मौजूं नमूना है। संचार तकनीक ने पूरे विश्व को हमारी मु_ी में समेट दिया है। संदेशों का आना-जाना त्वरित हो गया है। आपसी संवादों के आदान-प्रदान, उद्योग, व्यापार, प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में इस तकनीक के कारण बहुत मदद मिली है, होने वाले निरर्थक विलम्ब में कमी आई है लेकिन इसने मानवीय सरोकार को चिंताजनक स्तर तक कम कर दिया है। मानवीय संबंधों के मामले में हम अवनति की और अग्रसर हैं। मोबाइल ने हमें एकाकी बना दिया है, सब अपने-अपने में मस्त हैं। दु:ख की बात यह है कि जो विज्ञान मानवता के कल्याण के लिए नित नयी खोज कर रहा है वह हमारे समाज में मनुष्यता को कमजोर कर रहा है।
विगत कुछ वर्षों में विज्ञान और तकनीक ने हमारे समाज को बदलने में अग्रणी भूमिका निभाई है। हमारे रहन-सहन और सोच पर इसका व्यापक असर हुआ है। भौगोलिक दूरियां कम हुई हैं लेकिन आपसी दूरियां बढ़ गयी हैं। इसकी शुरुआत धीमी हुई लेकिन अब उसने गति पकड़ ली है। मनुष्य उसकी पकड़ में आ चुका है। अब यह मनुष्य के मानवीय मूल्यों को कुचलने की खल भूमिका में उतर आई है। मददगार ने तानाशाह की शैली अपना ली है और वह मनुष्य को वैसा बदलने के लिए मजबूर कर रहा है, जैसा वह चाहता है। अब विज्ञान की तकनीक मनुष्य को ऐसा मनुष्य बना रही है जिसमें मनुष्यता की भावना न हो, केवल हाड़-मांस का शरीर हो। समस्या यह है कि उस बलशाली का हम क्या करें जो हम पर इस कदर हावी हो चुका है। उसका शरीर प्रति-पल बलिष्ठ हो रहा है और उसके सामने मानवता कमजोर पड़ती जा रही है। संभवत: यह मुकाबला एक-तरफ़ा हो गया है, अब कोई चुनौती शेष नहीं रही, मनुष्यता मुकाबला हार चुकी है।
एक हालिया अध्ययन के अनुसार दुनिया भर के लोगों ने वैज्ञानिकों पर भरोसा व्यक्त किया है, लेकिन वे अनुसंधान में सरकारों के हस्तक्षेप को लेकर चिंतित भी हैं। यह निष्कर्ष वैश्विक संचार संस्थान एडेलमैन द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट ट्रस्ट बैरोमीटर का है जिसके लिए मेक्सिको से लेकर जापान तक 28 देशों के 32,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया गया था।
सर्वेक्षण के 74 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने नवाचारों और नई प्रौद्योगिकियों सम्बंधित सही जानकारी प्रदान करने के लिए वैज्ञानिकों पर विश्वास जताया है। इतने ही प्रतिशत लोगों ने चाहा है कि वैज्ञानिक इन नवाचारों को पेश करने में स्वयं आगे आएं। इसके विपरीत, सही जानकारी देने के संदर्भ में लोगों ने पत्रकारों और सरकारी नेताओं पर क्रमश: 47 प्रतिशत और 45 प्रतिशत ही भरोसा जताया है।
हालांकि, अध्ययन में 53 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने देश में विज्ञान के राजनीतिकरण की बात कही है, जो राजनेताओं के हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है। विश्व स्तर पर 59 प्रतिशत का मानना है कि सरकारें और अनुसंधान वित्तपोषक एजेंसियां वैज्ञानिक प्रयासों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। ये आंकड़े भारत में 70 प्रतिशत और चीन में 75 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। इसके अतिरिक्त, लगभग 60 प्रतिशत लोगों का मानना है कि सरकारों में उभरते नवाचारों के नियमन की क्षमता का अभाव है।
यह भरोसा वैज्ञानिकों के लिए एक अवसर के साथ चुनौती भी है। इस विश्वास के दम पर वैज्ञानिक प्रयास कर सकते हैं कि सरकारी नीतियां प्रमाण-आधारित बनें। इसके साथ ही वे सरकारी हस्तक्षेप और नियामक शक्तियों पर लोगों के अविश्वास सम्बंधी चिंताओं को भी संबोधित कर सकते हैं। सवाल यह उठता है कि सार्वजनिक हितों को ध्यान में रखते हुए, नीतियों की दिशा सुनिश्चित करने के लिए वैज्ञानिक सरकारों के साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं?
कई विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को काफी महत्वपूर्ण बताते हैं जो कोविड-19 महामारी और कृत्रिम बुद्धि के उदय जैसी चुनौतियों से निपटने के लिए विज्ञान और नवाचार पर वैश्विक फोकस के साथ मेल खाती है। हालिया समय में दुनिया भर की सरकारें क्लस्टरिंग विश्वविद्यालयों से लेकर उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने और नवीन परियोजनाओं के लिए वित्तीय सहायता की सुविधा प्रदान करने की विभिन्न रणनीतियों की तलाश कर रही हैं। एक हालिया प्रस्ताव में चिकित्सा विज्ञान में एआई की बड़ी भूमिका की वकालत की गई है लेकिन नियामक सुधारों को भी आवश्यक बताया है।
गौरतलब है कि इस पूरे मामले में सामाजिक विज्ञान एक ऐसे उपकरण के रूप में उभरा है जिसका उपयोग नहीं किया गया है। यूके एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज़ की एक रिपोर्ट में डैटा वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, नैतिकताविदों, कानूनी विद्वानों और समाजशास्त्रियों की विशेषज्ञता की चर्चा करते हुए नीति निर्माण में सामाजिक विज्ञान को जोडऩे पर ज़ोर दिया गया है। इन क्षेत्रों के पेशेवर लोग नई प्रौद्योगिकियों, आर्थिक मॉडलों और नियामक ढांचे की ताकत और सीमाओं का आकलन कर सकते हैं और उनमें निहित अनिश्चितताओं को भी संबोधित कर सकते हैं।
यदि लोगों को लगता है कि विज्ञान का राजनीतिकरण हो चुका है और सरकारें बहुत अधिक हस्तक्षेप कर रही हैं, तो यह सिर्फ विज्ञान के लिए नहीं बल्कि समाज के लिए भी समस्या है क्योंकि इससे लोगों के इस विश्वास में कमी आ सकती है कि सरकारें इन नवाचारों के लाभ उन तक पहुंचाएंगी और संभावित नुकसानों से बचाएंगी। ऐसे में वैज्ञानिकों को नवाचार के बारे में विश्वसनीय स्रोत बनने के अवसर का लाभ उठाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
-स्मिता
बिरिंदा से मेरी मुलाकात बहुत भीड़ भाड़ और हलचल के बीच हुई थी। एक स्त्री का दूसरी स्त्री से मिलना बहुत सहज घटना है लेकिन एक प्रेमिल संबंध का बन जाना उस मुलाकात को थोड़ा सा विशिष्ट जरूर बना जाता है।
गीत चतुर्वेदी की एक किताब के टर्म में पोएटिक ऑफ फैमिलियराइजेशन या पॉलिटिक्स ऑफ फैमिलियराइजेशन का उल्लेख आता है । जिसका अर्थ होता है किसी जानी पहचानी सी बात को इस तरह से पेश किया जाए कि वह एकदम अनजानी सी लगे।
तो यह मुलाकात भी बिलकुल इस तरह से चलती है जैसे बहुत अनोखी , अनजान सी डगर में अस्पर्शी हैं।
हम बातों बातों में आपस में गोतियारिन बन गए थे। बिरिंदा ने भरी महफिल के बीच में मेरा हाथ पकड़ा और अपने साथ ले गईं। उनकी परंपरा के अनुसार हमें साथ खाना खाकर अपना धर्म निभाहना था।
मुझे उसका हाथ उतना ही पाक और सुंदर लगा जैसे मैंने 10 दिन पहले ही उत्तराखंड के एक कस्बे सहसपुर में देखा था। वह परदानशीन नवविवाहिता थी जो अपना बुरका चेहरे से थोड़ा सा हटा कर एक दुकान में आती है और बड़े इत्मीनान से उखडू बैठकर अपने हाथों से सड़ी पहाड़ी आलू वाली टोकनी से अच्छे अच्छे आलू चुनती है।
उसकी खूबसूरत आंखें और हाथ तो कम से कम इस काम के लिए नहीं बने थे लेकिन वह अपने राशन के लिए दिए महीने के पैसे से कुछ बचाना चाहती हो। शायद उसकी जुगनू सी चमकती आंखें बचे हुए रेजगारी के पैसे से अपने मियां के लिए इत्र या गुलाब के फूल खरीदने के लिए खरचना चाह रही थी।
बिरिंदा भी उसी औरत की तरह अपने और मेरे कांटो से भरे जीवन में कुछ जंगली बुरांश के फूल टांक देना चाहती थी ।
हम साथ में गरम भात के साथ आलू के करारे भुजिया खा रहे थे। जिसका करारापन गोवा के कतली मछली के रवा फिश सा था।
मयाली पहाड़ के नीचे की झील उसका स्थाई ठिकाना है । और उसकी पास के बने पहाड़ में बसे खडसा गांव में उसका घर। वह मुझे अपने गांव और घर ले जाने को उत्सुक है।
मैं उसकी आंखों में देखते हुए उसकी जिंदगी की कहानी में घुस जाती हूं। पति, बेटा बहु से इतर उसका घर संसार यहां के पानी, नदियों, जंगल और पहाड़ों में है।
उसका प्रेम स्थिर और नि:शब्द है हमारे बीच पसरे हुए मौन में भी उसके खुरदुरे हाथ का दबाव अपनी उष्णता के साथ बना हुआ है। जिसने बाहर की दुनिया नहीं देखी है मानो मेरी आंखों के माध्यम से ही सारे संसार की थाह लेना चाहती हैं।
उसके बच्चे आए हुए मेहमानों के प्लास्टिक के बोतल और पॉलिथीन उठाते हैं। मैं उसके एवज में पैसे देना चाहती हूं। लेकिन गोतियारो से पैसे नहीं लिया जाता है । सिर्फ प्रेम दिया जाता है।
मैं उसके गांव जाकर सरई पेड़ों से रिसते झांझ का पानी पीना चाहती हूं। दुबारा अपने मिलने के उस वायदे को पूरा करना चाहती हूं। जब गर्मी के किसी दिन वह सरला पेड़ के पत्ते तोड़ कर लाएगी, उसे उबालकर और सुखाकर मेरे लिए डूबू भात पकाएगी।
उसके गीत अब भी मेरे कानों में रस घोल रहें है। उसकी भात के पसिया की महक और उससे निकलता धुंआ उस परदानशीन के इत्र की महक में घुलमिल जाता है।
सारे संसार की स्त्रियों का प्रेम उस जंगली ठोढ़ीन के प्रेम की तरह निर्दोष है। गांव के लोग बिरिंदा को ठोढ़ी गांव के मायके होने के कारण कभी कभी इस नाम से भी पुकारते है । जैसे मुझे मयालीन कहा जाता है।
-शुमाइला जाफरी
इमरान खान के नेतृत्व वाली पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ की ओर से विरोध और बॉयकॉट के बीच नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज को पंजाब सूबे की मुख्यमंत्री के रूप में चुन लिया गया है। मरियम नवाज साल 2011 से लगातार राजनीति में सक्रिय हैं। लेकिन 8 फरवरी को हुए चुनाव में वह पहली बार पाकिस्तानी संसद नेशनल असेंबली की सदस्य बनी हैं। मरियम नवाज़ पाकिस्तान में मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने वाली पहली महिला बन गई हैं।
मरियम नवाज को पाकिस्तान की सबसे अहम लेकिन विवादित महिला राजनेता के रूप में देखा जाता है। उनकी पार्टी में लोग उनकी हिम्मत और शानदार शख़्सियत के मुरीद हैं। लेकिन इमरान खान के समर्थकों के बीच उन्हें भ्रष्ट परिवारवादी राजनीति के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
राजनीति की डगर पर कैसे बढ़ीं
मरियम नवाज़ पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की पहली संतान हैं। वे लाहौर में पली-बढ़ी हैं और उनकी शादी सेना के अधिकारी रह चुके एक शख्स से हुई, जो 90 के दशक में उनके पिता के प्रधानमंत्री रहते हुए उनके (नवाज शरीफ के) एडीसी थे। शरीफ परिवार पारंपरिक और रूढि़वादी स्वभाव का है। ऐसे में उनसे राजनीति में भाग लेने की उम्मीद नहीं की गई थी और न ही इसके लिए उन्हें तैयार किया गया था।
मरियम के पिता नवाज़ शरीफ़ का पूर्व सेनाध्यक्ष परवेज मुशर्रफ ने अक्टूबर 1999 में जब तख्तापलट करके उन्हें कैद में डाला, तब तक वे लो प्रोफाइल रहकर अपने दो बच्चों की परवरिश कर रही थीं। उस वक्त उनके परिवार के बाकी मर्द भी नजरबंद कर दिए गए थे। वैसे हालात में मरियम अपनी मां के साथ पहली बार सार्वजनिक तौर पर सामने आईं। लोगों के सामने आकर उन्होंने जनरल मुशर्रफ को खुली चुनौती दी और अपने पिता का समर्थन किया। कुछ महीने बाद सऊदी अरब के किंग की मदद से मरियम और उनकी मां ने जनरल मुशर्रफ के साथ एक डील की। इस डील के तहत नवाज शरीफ जेल से रिहा हुए और दिसंबर 2000 में सपरिवार सऊदी अरब निर्वासित हो गए। उसके बाद साल 2007 में नवाज़ शरीफ़ पाकिस्तान लौटे। परिवार के करीबी सूत्रों का कहना है कि निर्वासन के दौरान मरियम ने राजनीति में उतरने के लिए ख़ुद को तैयार करना शुरू किया।
राजनीतिक पारी और बढ़ता कद
पाकिस्तान की राजनीति में मरियम नवाज़ की शुरुआत साल 2011 में हुई जब उन्होंने अपने चाचा शहबाज शरीफ के लिए समर्थन जुटाने को महिला शिक्षण संस्थानों का दौरा किया।
शहबाज़ तब पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री थे। साल 2013 में उन्होंने सोशल मीडिया का महत्व समझा। ये वो दौर था जब इमरान खान की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) युवा मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की कोशिश कर रही थी। इसके जवाब में मरियम नवाज़ ने पीएमएल-एन के सोशल मीडिया सेल की शुरुआत की। उनकी इस पहल ने पीएमएल-एन को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई। नतीजा ये हुआ कि उनके पिता एक बार फिर सत्ता में लौटे और तीसरी बार प्रधानमंत्री बन पाए। हालांकि, साल 2013 में खुद उन्होंने किसी सीट से चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन बाद में उनके पिता ने उन्हें यूथ डेवेलपमेंट प्रोग्राम का अध्यक्ष नियुक्त किया। उनकी नियुक्ति को अदालत में चुनौती दी गई, जिसके बाद उन्हें वो पद छोडऩा पड़ा।
लेकिन वे पीएम हाउस से ‘स्ट्रैटेजिक मीडिया कम्युनिकेशन सेल’ चलाती रहीं।
साल 2013 से 2017 के बीच नवाज़ शरीफ़ की सरकार पर असर को लेकर मरियम नवाज़ की आलोचना होती रही। तब उन्हें देश का असली प्रधानमंत्री भी कहा जाता था। साल 2016 में लीक हुए पनामा पेपर्स में मरियम और उनके भाई-बहनों के नाम सामने आए। उसमें इन सब पर ऑफशोर (विदेशी) कंपनियों से अघोषित संबंध रखने का आरोप लगाया गया।
दावा किया गया कि इन लोगों की ब्रिटेन में संपत्ति है। हालांकि, इस आरोप का शरीफ परिवार ने जोरदार तरीके से खंडन किया।
कैसे बनीं पाकिस्तान की अहम नेता
इमरान खान इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले गए और नवाज शरीफ को 2017 में सत्ता से हटा दिया गया। मरियम और उनके पिता को चुनाव लडऩे से रोक दिया गया। मरियम नवाज को जेल भी भेजा गया, बाद में उन्हें जमानत मिल गई। लेकिन इसी दौरान मरियम नवाज़ ख़ुद को पाकिस्तान की एक प्रमुख नेता के तौर पर स्थापित करने में सफल हो गईं। जमानत पर रिहा होने के बाद उन्होंने एक जोरदार अभियान चलाते हुए इमरान ख़ान और सेना पर अपने परिवार के खिलाफ जबरदस्ती और सांठगांठ करने के आरोप लगाए। उन्होंने पीएमएल-एन के समर्थकों को एकजुट किया और ‘वोट को इज्जत दो’ जैसा लोकप्रिय नारा दिया।
मरियम सांसद का चुनाव तो नहीं लड़ीं, लेकिन उनके आक्रामक चुनाव प्रचार के बूते पीएमएल-एन 2018 के आम चुनावों में देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर जरूर उभरी। उन्होंने अपने सजायाफ्ता पिता को मेडिकल ग्राउंड पर जेल से रिहा करने का सफलतापूर्वक अभियान भी चलाया। अदालत ने नवाज शरीफ को ब्रिटेन जाने की अनुमति दी। बाद में नवाज शरीफ पाकिस्तान लौट आए। मरियम नवाज, इमरान खान की सबसे कठोर आलोचक रही हैं।
वंशवाद और भ्रम
राजनीतिक विश्लेषक और लेखक जाहिद हुसैन का मानना है कि पीएमएल-एन के अपने स्टैंडर्ड के अनुसार भी चीफ ऑर्गनाइजर के तौर पर मरियम नवाज की नियुक्ति ‘भाई-भतीजावाद का सबसे खऱाब उदाहरण’ रहा। उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, ‘इस फैसले से पीएमएल-एन ने एक बार फिर साबित किया कि वह जमीनी हकीकत से बिल्कुल दूर है।’ ‘पाकिस्तान और वहां की राजनीति अब बदल गई है। इमरान खान ने जो कुछ भी किया उससे लोग असहमत हो सकते हैं, लेकिन एक बात तो साफ है कि उन्होंने भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के खिलाफ एक प्रभावी नैरेटिव तैयार किया है। युवाओं के बीच यह नैरेटिव खासा लोकप्रिय है। लेकिन ऐसा लगता है कि पीएमएल-एन अभी भी माहौल को नहीं समझ सकी है।’ फिलहाल पार्टी के सभी शीर्ष पदों पर शरीफ परिवार का कब्जा है। नवाज शरीफ अब भी पीएमएल-एन के असली बॉस हैं।
जाहिद हुसैन कहते हैं कि मरियम अब व्यावहारिक तौर पर अपने पिता के बाद पार्टी की दूसरी सबसे ताकतवर शख्स बन गई हैं। उनका मानना है कि मरियम नवाज एक अच्छी वक्ता हैं, वे भीड़ को भी खींचती हैं, लेकिन पार्टी के ही कई नेता उनके बढ़ते कद से खुश नहीं दिखते। जाहिद हुसैन कहते हैं, ‘पार्टी के कई लोगों का मानना है कि बेहतर क्षमता वाले कई नेताओं को कभी चेहरा बनने और नेतृत्व करने का मौक़ा नहीं दिया गया।’ ‘उन्हें अपने पिता की लाडली के रूप में देखा जाता है। पार्टी के कई ऐसे सीनियर नेता हैं, जिनका संघर्ष कहीं अधिक उथल-पुथल वाला रहा, लेकिन नेतृत्व के लिए उन पर भरोसा नहीं किया जाता।’
बेनजीर भुट्टो से तुलना
पीएमएल-एन के कई समर्थक मरियम नवाज की तुलना देश की पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो से कर रहे हैं। बेनजीर भुट्टो को सिर्फ पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में साहस के प्रतीक के रूप में देखा जाता है। वे मुस्लिम देशों की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं। उनके पिता जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से हटाने के बाद उनके परिवार को काफी अत्याचारों का सामना करना पड़ा था। उसके बाद तत्कालीन तानाशाह शासक जनरल जिय़ा-उल हक ने उन्हें फांसी दे दी थी। इसलिए बेनजीर भुट्टो के घोर आलोचक भी उनके निजी और राजनीतिक संघर्ष का सम्मान करते हैं।
मरियम नवाज खुद कई मौक़ों पर बेनज़ीर भुट्टो को आदर के साथ याद कर चुकी हैं। साल 2021 में उनकी पुण्यतिथि पर उनके गृहनगर लडक़ाना में एक सभा में मरियम ने कहा था कि कई मायनों में उनका ‘संघर्ष मोहतरमा बेनजीर भुट्टो जैसा ही है।’ उन्होंने उस समय कहा था, ‘कई मायनों में मुझे लगता है कि बेनजीर भुट्टो के साथ मेरी राजनीतिक समानता है। वे न केवल देश की सभी महिलाओं का गौरव थीं, बल्कि उनकी कहानी पिता और बेटी के बीच गहरे संबंध और प्यार की अविस्मरणीय गाथा भी थी।’ ‘मरते दम तक वे अपने पिता का केस लड़ती रहीं। यदि जरूरत पड़ी तो पाकिस्तान को जोडऩे और उसका विकास करने की अपने पिता की सोच के लिए मैं अपनी जान देने से भी पीछे नहीं हटूंगी।’ हालांकि, उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि प्रेरणा और समानता होने के बाद भी उनका रास्ता बेनजीर भुट्टो से अलग है। पाकिस्तान की राजनीतिक विश्लेषक मुनिजे जहांगीर इस बात से सहमत हैं। उनका मानना है कि कई मामलों में मरियम को बेनजीर भुट्टो की तरह चुनौतियां भले झेलनी पड़ी हों, लेकिन कई मायनों में वे भुट्टो से बेहतर दशा में भी हैं।
मरियम के पिता, उनके भाई और परिवार उनके पीछे खड़े हैं, लेकिन बेनजीर के मामले में ऐसा बिल्कुल नहीं था। मुनिजे का ये भी कहना है कि 70 के दशक में जब जुल्फिकार अली भुट्टो को सत्ता से बेदखल कर दिया गया, तब अमेरिका ने खुलकर तानाशाह शासक जनरल जिय़ा उल हक़ का पक्ष लिया था। उस समय मानवाधिकार समूहों की जागरूकता और आपसी संपर्क भी आज की तरह का नहीं था। आज सोशल मीडिया का जमाना है, जहां मरियम नवाज अपनी आवाज उठाती रहती हैं। बेनजीर के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं थी। इस बारे में राजनीतिक समीक्षक जाहिद हुसैन, बेनजीर भुट्टो को बहुत ऊँचा मानते हैं। उनका तर्क है कि बेनज़ीर भुट्टो और मरियम नवाज़ के बीच न तो कोई तुलना है और न ही हो सकती है।
पाकिस्तान में लोकतंत्र की बहाली के लिए जिय़ा उल हक के शासनकाल में उन्हें जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, बतौर राजनेता उनकी क्षमता और उनकी मानसिकता का मरियम नवाज से कोई मुकाबला ही नहीं है। जाहिद हुसैन के अनुसार, ‘मरियम नवाज को विशेषाधिकार और खास परिवार के होने का लाभ मिला है। बेनजीर भुट्टो की राजनीति में शामिल होने की कोई योजना नहीं थी। वे मुश्किल से अपनी पढ़ाई ही कर पाईं थी कि उनके पिता की मौत हो गई। उनके भाई भी उत्पीडऩ के डर से देश छोडऩे के लिए मजबूर हो गए थे।’ (bbc.com/hindi)
डॉ. आर.के. पालीवाल
नीतीश कुमार हमारे दौर की भारतीय राजनीति के ऐसे नेता बन गए हैं जिनकी छवि का ग्राफ लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकलकर जिस तरह से धीरे-धीरे राजनीति के अर्श के आसपास पहुंच गया था उसी तरह वह धीरे-धीरे गिरते हुए राजनीति के वर्तमान फर्श पर आ गया है। कभी समाजवादी विचारधारा का ऊंचा झंडा उठाते हुए वे भ्रष्टाचार, परिवार वाद और सांप्रदायिकता से उचित दूरी बरतते थे। इस वजह से उन्हें न केवल बिहार और पूरे देश की जनता का प्यार और विश्वास मिला बल्कि वे गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री पद के सर्वाधिक उचित उम्मीदवार भी दिखने लगे थे। सुशासन बाबू के नाम से बनी उनकी प्रशासनिक छवि एक ऐसे काबिल नेता के रुप में बन गई थी जिसमें प्रशासनिक क्षमता भी थी, जो अपने समकालीन नेताओं से भी अच्छा समन्वय कर लेता है और परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से भी मुक्त है।
हाल ही में नौवीं बार मुख्यमंत्री बनकर उन्होंने सबसे ज्यादा बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड भी बना लिया। संभवत: यह बिहार ही नहीं किसी भी सूबे के मुख्यमंत्री के लिए भी रिकॉर्ड हो लेकिन उन्होंने बार बार गठबंधन का पाला बदलने से अपनी विश्वसनीयता लगभग शून्य कर ली है। बिहार तक सीमित अपने छोटे से दल के संगठन और बिहार की सत्ता को जैसे-तैसे अपने कब्जे में रखकर नीतीश कुमार ने विगत कुछ वर्षों में संविधान के लोकतांत्रिक मूल्यों और परंपराओं का भी मजाक बनाकर रख दिया है और विचारधारा को भी तिलांजलि दे दी है। राजनीतिक लाभ के लिए बार बार इधर से उधर पलटी मारने के लिए समकालीन मीडिया उन्हें तरह तरह के नकारात्मक विशेषणों से नवाज रहा है। वे हमारे समय के कार्टूनिष्टों के प्रिय विषय बन गए हैं। किसी भी संवेदनशील और नैतिकता एवं सिद्धांतों में विश्वास करने वाले नागरिक के लिए नीतीश कुमार का बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी से चिपके रहना आश्चर्यजनक है। भारतीय राजनीति में आया राम गया राम संस्कृति नई नहीं है लेकिन सत्ता के लिए जिस तरह गठबंधन परिर्वतन का उपयोग नीतीश कुमार कर रहे हैं वह अकल्पनीय है। वे धुर विरोधी गठबंधन इंडिया और एन डी ए में इतनी सहजता से आवाजाही कर चुके हैं जैसे इन दोनों में कोई फर्क ही नहीं है। किसी हद तक यह सही भी है। इंडिया और एन डी ए गठबंधन के कुछ अन्य घटक दल भी इधर से उधर लुढक़नी मार चुके हैं लेकिन नीतीश कुमार का मामला थोड़ा अलग है। नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मुखर विरोधी बनकर एनडीए से निकले थे। वहां से निकलकर उन्होंने इंडिया गठबंधन बनाने में सबसे ज्यादा मुखरता दिखाई थी। यह उम्मीद की जा रही थी कि वे इंडिया गठबंधन के संयोजक बन सकते हैं और भविष्य में डावांडोल लोकसभा में वैसे ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंच सकते हैं जैसे वे बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी के नेता होकर भी बार बार मुख्यमंत्री बने हैं।
आजादी के बाद काफी समय तक बिहार प्रशासनिक दृष्टि से सबसे बेहतर राज्यों में शामिल रहा है। आपातकाल के विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से ही सबसे ज्यादा योगदान हुआ था।कालांतर में लालू प्रसाद यादव और बाद में नीतीश कुमार के दौर में बिहार निरंतर पिछड़ता चला गया। नीतीश कुमार से बिहार को बहुत उम्मीद थी लेकिन अब उनका जादू लोगों के सिर से उतर चुका है। एन डी ए गठबंधन में शामिल होने से संभव है कि बिहार सरकार को केंद्र से ज्यादा फंड आदि की सुविधाएं मिल जाएं लेकिन लोगों के दिमाग में उनकी छवि दागदार हुई है जिसका खामियाजा लोकसभा चुनाव में उन्हें और उनके दल को झेलना पड़ सकता है।
शिल्पा शर्मा
हमेशा से उन लोगों में से रही हूं, जो मार्केट में आई नई चीज़ को (घर से संबंधित, जैसे- साबुन, टूथपेस्ट, शैम्पू, बिस्किट्स, नमकीन, चीज वगैरह) एक बार आजमाकर जरूर देखती हूं। वह चीज पसंद न भी आए तो भी उसे पूरा इस्तेमाल में लाती ही हूं। रोजाना उपयोग में आने वाली ऐसी चीजों के इतर भी अब मार्केट में बहुत कुछ मिलता है, जिसे अक्सर हम सभी बेवजह ले लिया करते हैं।
इन दिनों बतौर परिवार हमने रूटीन में लगने वाली केमिकल बेस्ड चीज़ों के साथ-साथ ऐसा अतिरिक्त कन्ज़्म्प्शन भी बहुत कम कर दिया है। केमिकल बेस्ड चीजें इसलिए कम इस्तेमाल करती हूं कि अंतत: ये पानी या जमीन में जाती हैं और उसे पोल्यूट करती हैं, जैसे- कपड़े धोने का डिटर्जेंट, साबुन, शैम्पू आदि। कोशिश रहती है कि इनका इस्तेमाल जरूरत से कम ही रखा जाए। हम लोग, जो धूप और धूल में काम नहीं करते, सोचकर देखें तो उन्हें इन चीजों के ज्यादा इस्तेमाल की जरूरत ही नहीं है। खासतौर पर हम कपड़े धोने के बाद उसमें ख़ुशबू लाने के लिए जो केमिकल उपयोग में लाते हैं, उसकी कतई जरूरत नहीं होती यदि हम कपड़े धूप में सुखाते हों। ये केमिकल हम केवल बाजार/विज्ञापनों के दबाव में खरीदते हैं।
वैसे भी आप ध्यान दें तो पाएंगे कि जब आप किसी केमिकल से कोई चीज साफ करते हैं तो दूसरी चीज को गंदा कर रहे होते हैं, मसलन- वह कपड़ा, जिससे आप साफ कर रहे हैं, पहले वह गंदा होगा फिर उस कपड़े को साफ करने के लिए केमिकल, जिससे धरती पर प्रदूषण बढ़ेगा। अत: बहुत सोचने पर लगता है कि इस तरह के पलूशन को कम करने समाधान चीज़ों का कम या मितव्ययी इस्तेमाल ही है।
बाजार से अतिरिक्त खरीदारी (साथ ही सामान्य खरीदारी भी) में जो बात इन दिनों सबसे ज्यादा तकलीफ पहुंचाती है, वो है सामान की पैकेजिंग। हर चीज एक प्लास्टिक में, फिर ऊपर से दूसरे प्लास्टिक में या फिर प्लास्टिक कोटेड गत्ते में पैक्ड मिलती है। इन चीजों का कन्सम्प्शन कम करने के बाद भी, दिन में रोजाना आठ-दस पॉलीथिन कोटेड गत्ते या पॉलिथीन मेरे घर से डस्टबिन में जाते हैं, वह भी बहुत दुखी कर देते हैं मुझे।
सब्ज़ी लेने अपना झोला लेकर जाते हुए कम से कम चार वर्ष तो हो ही चुके हैं। पर वहां केवल इक्का-दुक्का मेरे जैसे झोलाछाप लोगों को ही आते देखा है। जिस दुकान से मैं सब्जी लेती हूं, बातों ही बातों में वहां काम करने वाले एक लडक़े ने बताया कि कई परिवार ऐसे हैं, जो हर सब्जी को अलग पॉलिथीन में भेजने को कहते हैं और यदि न भेजो तो इस बात की धमकी देते हैं कि तुम्हारे यहां से सब्ज़ी ही नहीं लेंगे।
हम सभी अपने जीवन की उहापोह में डूबे हैं, सभी को बहुतेरे काम हैं, लेकिन क्या हमारे अपने बच्चों के भविष्य के लिए भी हम ऐसे छोटे-छोटे कदम नहीं उठा सकते, जो इस धरा को उनके रहने लायक छोड़ दें? यह भी सच है कि दूसरों को कहने से पहले हमें खुद को सुधारना होगा। हमारी ओर से इसकी कोशिश जारी है, अब आपकी भी बारी है।
क्कस्: आप लोगों के पास धरती/पानी को कम प्रदूषित करने वाले कोई और उपाय हों तो शेयर करें, ताकि हम सब इस नेक काम के सहभागी बनें। अंतत: परिवर्तन हमसे ही तो शुरू होगा, है ना?
उसने सेंटर फ्रेश मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा कि- खाएंगी मैडम। मैंने एक उठा ली। वो कैब ड्राइवर बहुत कम उम्र का लडक़ा था। जब मैं फोन पर बात कर रही थी तो उसने जाना कि व्यक्तिगत मुद्दा है तो गाने चला दिए ताकि मुझे बात करने में असुविधा न हो यानी गाने की उस डिस्टर्बेंस से मैं निश्चिंत रहूं कि वह मेरी बात नहीं सुन रहा होगा। फोन रखते ही उसने भी गाने बंद कर दिए। सामने शिवाजी की मूर्ति थी, मैंने पूछा कि क्या वो मराठी है। उसने सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि वो अहिल्याबाई होल्कर का वंशज है। वह आगरा का था। मैंने कहा कि आगरा में भी मराठी हैं? मुझे तो लगा कि एमपी और महाराष्ट्र में ही हैं और उसने उंगली हवा में घुमाते हुए कहा कि पूरे देश में सब जगह मराठी हैं।
फिर उसने पूछा कि क्या वो गाने चला दे, मैंने स्वीकृति दी। वो साथ-साथ गा रहा था लेकिन संभले हुए ढंग से नहीं, किसी टीनएजर की तरह जोर-जोर से। फिर लगातार उसके पास फोन आने लगे। वह इतनी तेज़ बात कर रहा था कि गाने की आवाज से बहुत फर्क नहीं पड़ा। उसकी बातों से लगा कि उसकी प्रेमिका है जो नाराज है लेकिन वह घर की बात करने लगा तो लगा कि शायद पत्नी है लेकिन फिर उसने संबोधित किया कि बेटू मम्मी। तब तो लगा कि शायद मां होगी जिससे बहुत लाड़ करता होगा। मुझे इतनी जिज्ञासा हुई कि पूछ बैठी कि वो प्रेमिका थी, पत्नी या मां। वह पूछने लगा कि मुझे क्या महसूस हुआ तो मैंने कहा कि जिस तरह से बातचीत हुई, मुझे तो समझ नहीं आता।
तब उसने बताया कि वह पत्नी है और उसके बेटे का नाम बेटू है तो वह उसे बेटू की मम्मी की जगह बेटू मम्मी कह रहा था। वह लगातार झगड़ रहे थे लेकिन जो हंसी उसके चेहरे पर थी, उससे तय था कि मामला गंभीर नहीं था, चुहल थी। मेरे पूछे सवाल के बारे में वो अपनी पत्नी को बताने लगा। फोन रखकर फिर बोला कि गर्लफ्रेंड वाले शौक़ हमने नहीं पाले, इतनी तो मैं किसी की नहीं सुनता लेकिन एक लडक़ी अपने मां-बाप, भाई-बहन, घर-परिवार सब कुछ छोडक़र आई है तो इसकी सुनूंगा। तब मैं एक ही समय पर उसकी बात से सहमत थी और असहमत भी। वह पत्नी का इतना सम्मान करता है यह एक सुंदर बात है और लेकिन प्रेम में अपने साथी को दिए विशेषण (गर्लफ्रेंड) के लिए यह बात तो ठीक नहीं है।
मुझे न जाने क्यूं लेकिन उनकी वो नोंक-झोंक अच्छी लगी कि जीवन में कितने रिश्तों के रंग इसी तरह खिलते हैं, खिले रहते हैं। मुझे मेरी जगह पर उतारकर जब वो गाड़ी मोडऩे लगा तो ध्यान आया कि उसने मेरे चेहरे पर गंभीरता देखकर कहा था कि सेंटरफ्रेश खाने से मूड अच्छा होता है। मूड अच्छा हो गया था। जीवन ऊर्जा किस तरह से काम करती है, मैं रोज महसूस करने की कोशिश करती हूं। चूंकि सेंटरफ्रेश तो गाड़ी में ही छूट गई थी।
विष्णु नारायण
बिहार की राजधानी पटना से लगभग 180 किलोमीटर की दूरी पर एक गाँव है बड्डी। कैमूर पहाडिय़ों के तराई इलाक़े में बसा यह गाँव रोहतास जि़ले में आता है।
आज यह गाँव और इस गाँव की कंकरीली सी पिच पर खेल की शुरुआत करने वाले ‘आकाश दीप’ एकदम से सुर्खियों में आ गए हैं।
रांची में इंग्लैंड के ख़िलाफ़ खेलते हुए डेब्यू टेस्ट में उनका प्रदर्शन ‘ड्रीम डेब्यू’ जैसा है।
उन्होंने इंग्लिश क्रिकेट टीम के टॉप ऑर्डर को शुरुआती ओवर में ही चलता कर दिया। पहले ही दिन तीन विकेट झटक लिए। हालाँकि आकाश के लिए यह सफऱ कोई बहुत आसान सफऱ नहीं रहा।
यह कहानी ‘बड्डी’ जैसे गांव से निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जलवे बिखेरने की है। जहां खेल के लिए न मूलभूत सुविधाएँ दिखाई देती हैं, और न ही माहौल, वहाँ से निकले हैं आकाश दीप।
यहाँ कहावतें कही-सुनी जाती हैं कि ‘खेलोगे-कूदोगे तो बनोगे खऱाब, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब।’
आकाश दीप के पिताजी भी पारंपरिक पिता ही थे, शिक्षक पिता चाहते थे कि बेटा पढ़ लिख कर नौकरी करे। लेकिन आकाश दीप को क्रिकेटर बनना था तो पलायन करके बंगाल पहुंच गए।
आकाश भी रणजी मैच बिहार के बजाय पश्चिम बंगाल के लिए खेले। जैसे ‘मुकेश कुमार’ बिहार के बजाय किन्हीं और राज्यों से रणजी खेले, और वहाँ से स्पॉट होने के बाद से आईपीएल में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलुरु के साथ जुड़े।
हालाँकि वे इस बीच चर्चा में तब ही आए जब राहुल द्रविड़ ने उन्हें भारत और इंग्लैंड के खिलाफ खेलने के लिए टेस्ट कैप थमाया, और उन्होंने भी मौक़े को भुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
‘बल्लेबाजी करते हुए गेंदबाजी की तरफ मुड़ गया’
आकाश की खेल यात्रा पर उनके भाई सरीखे साथी नितिन कहते हैं, ‘आकाश और मैं बचपने से ही साथ खेला करते थे। दोनों एक-दूसरे के खिलाफ टीमों में खेला करते। आज भले ही उसके गेंदबाजी के चर्चे हैं लेकिन गाँव-देहात में खेलते हुए सभी बल्लेबाजी ही चाहते हैं। वो भी बल्लेबाज ही था लेकिन गेंदबाजी भी बहुत तेज़ किया करता था। उसने तो एक ओवर में 6 छक्के तक मारे हैं। गाँव में तो हमने सिर्फ कैनवस की ही गेंद से खेला और जहां-तहां जाकर कैनवस के ही टूर्नामेंट खेले।’
नितिन याद करते हैं, ‘मुझे याद आता है कि कैनवस से खेलते हुए हम अक्सर सोचा करते कि एक दिन भारत के लिए खेलना है। कई बार इसको लेकर हंसी-ठिठोली भी होती। हालाँकि समय बीतने के साथ हमारी राहें जुदा हो गईं लेकिन वो शरीर के साथ-साथ मानसिक तौर पर भी मज़बूत था।’
‘पिता और भाई के निधन के बावजूद वह डिगा नहीं। बीच में कोविड भी आया लेकिन वो लगा रहा। आज पूरे जिला-जवार को उस पर गर्व है। आकाश उदाहरण है कि तमाम अभावों के बावजूद कैसे प्रतिभा निखर ही जाती है।’
‘आकाश के नाम पर मुफ़्त मिला भोजन’
आकाश के खेल और प्रदर्शन पर उनके साथ बल्ला भांजने वाले उनके भतीजे (किशन) बीबीसी से कहते हैं, ‘एक बार हमारे गाँव (बड्डी) की टीम झारखंड के गढ़वा जि़ले में मैच खेलने गई थी। मैं भी टीम का हिस्सा था। मैच खेलने के बाद हम किसी होटल में खाने पहुँचे तो होटलवाले ने पैसा लेने से इनकार कर दिया।’
‘वजह पूछने पर पता चला कि वो चाचा (आकाश दीप) के खेल के दीवाने हैं। हमें भी अच्छा लगा कि लोग अब इतनी दूर-दूर तक हमें जानने लगे हैं, लेकिन वो तो चाचा का जलवा था।’’
पिता चाहते थे फौज में चला जाए आकाश
आकाश दीप के बड़े पिताजी रामाशीष सिंह बताते हैं, ‘मेरा बेटा (नितिन) और आकाश पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद साथ ही किया करते। आकाश शारीरिक तौर पर मजबूत था तो उसके पिताजी (रामजी सिंह), जो कि ख़ुद भी शिक्षक रहे वो भी शारीरिक शिक्षक थे।’
‘वो चाहते थे कि बेटा फ़ौज वग़ैरह में नौकरी ले ले, लेकिन वो तो क्रिकेट को लेकर जुनूनी था। उसी दिशा में लगा रहा और आज तो उसका खेल सबके सामने है। पूरे गाँव-जवार में ख़ुशी है।’
तीनों विकेट किए पिता को समर्पित
राँची टेस्ट के पहले दिन के खेल के बाद आकाश दीप ने मीडियाकर्मियों से कहा कि 2015 में उन्होंने पिता और भाई को खो दिया। आज अगर पिता जीवित होते तो न जाने कितने खुश होते, तीनों विकेट और प्रदर्शन उन्हें समर्पित हैं।
उन्होंने कहा कि इंग्लिश टीम के ख़िलाफ़ ऐसा प्रदर्शन उत्साहित करने के साथ ही बड़ी जि़म्मेदारी का एहसास भी है। वे प्रयास करेंगे कि देश के लिए और भी बेहतर करते रहें।
आकाश की गेंदबाजी देखकर भतीजियां आर्या और आरूही गाँव लौटी हैं। आर्या कहती हैं, ‘चाचा बहुत मेहनती हैं। उनसे सीखा जा सकता है कि लाख मुश्किल आने के बाद भी कैसे फोकस नहीं लूज़ करना है। हमसे हमेशा कहते हैं कि दुनिया बहुत बड़ी है और अगर दुनिया देखनी है तो पढ़ाई-लिखाई करनी होगी। किसी भी काम में बेहतरीन होना होगा।’
वहीं आकाश दीप के हालिया प्रदर्शन और तीन विकेट झटकने के बाद मन में उपज रहे भाव पर वो कहती हैं, ‘मैच से पहले और बाद में भी हमारी बातें हुईं। जब नो बॉल पर विकेट नहीं मिल सका तो हमें भी निराशा हुई लेकिन मैच के बाद तो सबकी नजऱें हम पर थीं। लगा कि हम लोग सेलेब्रिटी हो गए हैं। ’
आरूही कहती हैं, ‘स्कूल और परीक्षा की वजह से लौटना पड़ा नहीं तो हम पाँचों दिन वहाँ रुकते, लेकिन हम चाचा को कह आए हैं कि 2 विकेट और लेना है। आज अगर दादाजी जीवित होते तो न जाने कितने खुश होते। उनका सपना था कि चाचा देश के लिए खेलें। चाचा और गाँव का नाम चारों तरफ़ हो रहा। चाचा को गाँव-घर बहुत प्रिय है। चाहे वो जहां चले जाएँ लेकिन गाँव जरूर लौटते हैं।’
जिस राज्य की क्रिकेट टीम दशकों से रणजी ट्रॉफ़ी खेलने से वंचित रही हो, जहां एक भी विश्वस्तरीय तो क्या कहें घरेलू स्तर का मैदान न हो। उस राज्य में किसी एक खिलाड़ी का शिखर तक पहुँचना आसान तो नहीं ही है। (bbc.com/hindi)
- दिलीप कुमार शर्मा
असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम, 1935 को अब समाप्त कर दिया गया है। असम कैबिनेट ने शुक्रवार को इस अधिनियम को निरस्त करने की मंज़ूरी दे दी है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा कि इस कदम से सरकार को राज्य में बाल विवाह रोकने में मदद मिलेगी।
मुख्यमंत्री सरमा ने लिखा, ‘असम कैबिनेट ने 23 फऱवरी को सदियों पुराने असम मुस्लिम विवाह और तलाक़ पंजीकरण अधिनियम को निरस्त करने का एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया है।’ ‘इस अधिनियम में विवाह पंजीकरण की अनुमति देने वाले प्रावधान शामिल थे, भले ही दूल्हा और दुल्हन 18 और 21 वर्ष की कानूनी उम्र तक नहीं पहुंचे हों, जैसा कि कानून द्वारा आवश्यक है। यह कदम असम में बाल विवाह पर रोक लगाने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम है।’
कैबिनेट के इस फैसले की जानकारी देते हुए असम सरकार के मंत्री जयंत मल्ला बरूआ ने मीडिया के समक्ष कहा, ‘असम मुस्लिम विवाह और तलाक पंजीकरण अधिनियम 1935 - जिसके आधार पर 94 मुस्लिम रजिस्ट्रार (सरकारी काजी) अब भी राज्य में मुस्लिम विवाहों का पंजीकरण और तलाक कर रहे थे- को निरस्त कर दिया गया है।’
‘कैबिनेट की आज हुई बैठक में इस एक्ट को हटा दिया है जिसके परिणामस्वरूप आज के बाद इस कानून के जरिए मुस्लिम विवाह पंजीकरण या तलाक का पंजीकरण नहीं हो सकेगा। हमारे पास एक विशेष विवाह अधिनियम है, इसलिए हम चाहते हैं कि सभी विवाह विशेष विवाह अधिनियम के तहत हों।’
सरकार का मकसद ध्रुवीकरण की राजनीति?
असम सरकार के इस अधिनियम को निरस्त करने के निर्णय को मुसलमान समुदाय के कुछ लोग ध्रुवीकरण की राजनीति से जोडक़र देख रहे हैं।
गौहाटी हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील और कांग्रेस नेता हाफिज रशीद अहमद चौधरी का कहना है कि मुस्लिम कानून को रद्द करने के पीछे सरकार का मकसद ध्रुवीकरण की राजनीति करना है। वो कहते हैं, ‘इस अधिनियम को निरस्त करने को लेकर सरकार ने जो दलील दी है उससे पता चलता है कि उनका इरादा नेक नहीं है । अगर सरकार को लग रहा था कि इस अधिनियम का दुरुपयोग हो रहा है तो वो इसमें संशोधन कर सकती थी । सरकारी काज़ी के काम पर कड़ी निगरानी व्यवस्था लागू कर सकती थी।’
‘अगर इस क़ानून की आड़ में किसी तरह का बाल विवाह हो रहा था तो सरकारी काज़ी के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए थी । उनके लाइसेंस को रद्द करना था। सरकार के पास अगर इस क़ानून के तहत बाल विवाह होने के आंकड़े है तो उसे सार्वजनिक करना था। सरकार मुस्लिम कानून को ख़त्म करेगी तो मुसलमान आवाज उठाएगा और वो इसका ध्रुवीकरण करेगी।’
कांग्रेस नेता चौधरी कहते हैं, ‘सरकार के कुछ लोग कह रहे हैं कि यह ब्रिटिश जमाने का कानून है। इसमें विवाह और तलाक पंजीकरण को अनिवार्य नहीं रखा गया है । जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिनियम में पंजीकरण को कई साल पहले अनिवार्य कर दिया था। सरकार इतना बड़ा फैसला करती है तो उनके लोगों के पास इस बात की जानकारी होनी चाहिए।’
2011 की जनगणना के मुताबिक असम में 34 फीसदी आबादी मुसलमानों की है, जो राज्य की कुल जनसंख्या 3.12 करोड़ में से 1.06 करोड़ है।
राज्य में ख़ासकर बंगाली मूल के मुसलमानों को लेकर हो रही राजनीति को बारीकी से समझने वाले गुवाहाटी विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर अब्दुल मन्नान कहते हैं, ‘यह सरकार का राजनीति से प्रेरित कदम है। इस कानून को निरस्त करने के लिए बाल विवाह की जो दलील दी जा रही उसमें अब काफी हद तक कमी आई है।’ ‘अगर बाल विवाह के थोड़े बहुत मामले हैं भी तो सरकार की कार्रवाई एक समुदाय के खिलाफ रही है । जबकि जनजातियों में भी बाल विवाह के मामले हैं। लिहाजा इस सरकार का मकसद कुछ और है। यह केवल वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति है।’
कानून रद्द होने के बाद क्या होगा
यह कानून वर्तमान में मुस्लिम विवाह और तलाक के स्वैच्छिक पंजीकरण की सुविधा प्रदान करता है । इस कानून ने सरकार को मुस्लिम लोगों के विवाह और तलाक़ को पंजीकृत करने के लिए लाइसेंस प्रदान करने के लिए भी अधिकृत किया है । इस कानून के रद्द होने के बाद ऐसे लोग शादी और तलाक का रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाएंगे ।
असम सरकार ने कानून को निरस्त करने के बाद कहा कि जिला आयुक्त और जिला रजिस्ट्रार 94 मुस्लिम विवाह रजिस्ट्रारों द्वारा रखे गए पंजीकरण रिकॉर्ड को अपने कब्जे में ले लेंगे । सरकारी अधिनियम निरस्त होने के बाद मुस्लिम विवाह रजिस्ट्रारों (सरकारी काजी) को उनके पुनर्वास के लिए प्रत्येक को 2 लाख रुपए का एकमुश्त मुआवज़ा प्रदान करेगी । हालांकि कैबिनेट के इस फ़ैसले से सरकारी काज़ी बेहद खफ़़ा हैं ।
असम सरकार की तरफ से नियुक्त मुस्लिम विवाह-तलाक रजिस्ट्रार और सदर काज़ी मौलाना फखरुद्दीन अहमद पिछले 25 साल से सरकारी काजी के तौर पर काम कर रहे हैं । वो कहते हैं, ‘सरकार के इस कानून को रद्द करने के फैसले से काफी निराशा हुई है। बाल विवाह की जो बात कही जा रही है, हम विवाह पंजीयन के समय जन्म प्रमाण पत्र से लेकर उम्र से संबंधित सभी कागजातों की जांच करते हैं। कोई भी सरकारी काजी कम उम्र के दूल्हा-दुल्हन की शादी नहीं करवा सकता।’
‘ऐसा करने पर अन्य कानून के तहत उन्हें सज़ा हो सकती है । तीन तलाक की बात का भी कोई आधार नहीं है । काजी तलाक नहीं करवाते । पति-पत्नी एक दूसरे से तलाक लेते हैं ।’ ‘सरकार इस अधिनियम को रद्द करने की बजाए इसमें संशोधन कर सकती थी । ये बात भी बिल्कुल झूठी है कि इस कानून में विवाह-तलाक़ पंजीयन अनिवार्य नहीं है । सुप्रीम कोर्ट ने साल 2008 में जब इसे अनिवार्य करने के लिए राज्य सरकारों को कड़े निर्देश जारी किए तब इसे हमारी सरकार ने भी अनिवार्य कर दिया था।’
‘अब लोगों को विवाह पंजीयन वगैराह करने ज़्यादा तकलीफ होगी। क्योंकि काजी के समक्ष गांव से आए लोग भी खुलकर बात करते हैं लेकिन अब जिला आयुक्त कार्यालय जाना होगा जो अब पंजीयन करवाने की लंबी प्रक्रिया का हिस्सा होगा। लोगों को तकलीफ होगी। हम ऑल असम सरकारी काजी एसोसिएशन के तहत सरकार से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का अनुरोध करने वाले हैं।’
बीजेपी ने क्या कहा
असम की सत्तारूढ़ बीजेपी का कहना है कि मुस्लिम समाज में बाल विवाह, बहु विवाह जैसी कुरीतियों को रोकने के लिए सरकार ने यह क़दम उठाया है। असम प्रदेश बीजेपी के वरिष्ठ नेता प्रमोद स्वामी कहते हैं, ‘असम मुस्लिम विवाह और तलाक़ पंजीकरण अधिनियम अंग्रेजों के समय बनाया हुआ पुराना क़ानून था। इस कानून को रद्द करने से पहले हमारी सरकार ने हाई कोर्ट के एक रिटायर्ड जज के नेतृत्व में एक विशेष कमेटी बनाई थी। उस कमेटी की सिफारिशों के आधार पर ही यह निर्णय लिया गया है।’
बीजेपी नेता कहते हैं, ‘इस्लाम में एक मुस्लिम व्यक्ति की चार महिलाओं के साथ शादी करने जैसी कोई अनिवार्य परंपरा नहीं है । तीन तलाक के नाम पर मुस्लिम बहनों के स्वाभिमान के साथ खिलवाड़ किया गया, उन बहनों के संवैधानिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए सरकार ने यह निर्णय लिया है ।’ ‘जहां तक इस फैसले को राजनीतिक ध्रुवीकरण से जोड़ा जा रहा है तो वो पूरी तरह गलत है । सरकार का मकसद मुस्लिम बहनों के साथ हो रहे अन्याय को रोकना है। बाल विवाह और बहुविवाह को रोकने के लिए हमारी सरकार लगातार काम कर रही है। राजनीतिक मतभेद वाले लोगों को अपनी रूढि़वादी सोच से बाहर निकलने की ज़रूरत है।’
असम सरकार ने हाल ही में बाल विवाह के खिलाफ कार्रवाई करते हुए करीब 4 हजार लोगों को गिरफ्तार किया था।
असम के मुख्यमंत्री सरमा कई मौकों पर कहते रहे हैं कि असम सरकार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लाने की दिशा में काम कर रही है। इसके साथ ही बहुविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक विधेयक पर भी काम किया जा रहा है, जिससे इसे एक फौजदारी अपराध बनाया जा सके। (bbc.com/hindi)
प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल में उत्तर 24-परगना जि़ले के सुंदरबन इलाके में नदियों से घिरे संदेशखाली और तृणमूल कांग्रेस के बाहुबली नेता शाहजहां शेख़ का नाम हाल तक राज्य में भी ज़्यादा लोग नहीं जानते थे, लेकिन अब ये दोनों नाम राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में हैं।
संदेशखाली की घटना पर राजनीतिक विवाद चरम पर पहुंच गया है। टीएमसी नेताओं की कुख्यात तिकड़ी शाहजहां, शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार के अत्याचारों और कथित यौन उत्पीडऩ के ख़िलाफ़ महिलाओं ने बगावत कर दी है।
इसने लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी सरकार के साथ-साथ उनकी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को भी मुश्किल में डाल दिया है। हालांकि संदेशखाली के तीन कुख्यात नेताओं में से सबसे अधिक चर्चा टीएमसी नेता शाहजहां शेख़ की हो रही है।
आखिर कौन हैं यह शाहजहां शेख़ जो इतना कुछ करने के बावजूद कऱीब डेढ़ महीने से पुलिस और दूसरी क़ानूनी एजेंसियों की पकड़ में नहीं आ रहे?
शाहजहां के नाम की चर्चा कब शुरू हुई?
शाहजहां का नाम पहली बार बीती पांच जनवरी को उस समय सामने आया जब बंगाल के कथित राशन घोटाले की जांच कर रही ईडी की टीम तलाशी के लिए उनके घर पहुंची।
इसकी सूचना मिलते ही शाहजहां के सैकड़ों (महिलाओं समेत) समर्थकों ने ईडी की टीम और उनके साथ गए केंद्रीय बलों के साथ पत्रकारों को घेर लिया।
गांव वालों के हमले में ईडी के तीन अधिकारी घायल हो गए। उस दौरान शाहजहां अपने घर पर ही थे। लेकिन इस घटना के तुरंत बाद वह घर से फऱार हो गए। तब से अब तक उनका कोई पता नहीं चल सका है।
उस घटना के बाद से ईडी उन्हें समन भेजती रही। लेकिन वो कभी पेश नहीं हुए।
इसी दौरान उन्होंने अपने वकील के ज़रिए कलकत्ता हाईकोर्ट में अग्रिम ज़मानत का आवेदन भी दाखिल कर दिया। जिसमें कहा गया कि अगर ईडी उन्हें गिरफ़्तार नहीं करने का भरोसा दे तो वह उनके समक्ष पेश हो सकते हैं। फिलहाल उनकी इस याचिका पर कोई फ़ैसला नहीं हो सका है।
इस महीने की शुरुआत में अचानक गांव की दर्जनों महिलाएं शाहजहां और उनके दो शागिर्दों- शिव प्रसाद उफऱ् शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार के ख़िलाफ़ तमाम तरह के आरोप लगाते हुए उनकी गिरफ़्तारी की मांग को लेकर सडक़ों पर उतर आईं।
उन्होंने तृणमूल नेताओं के मुर्गी पालन केंद्रों और घरों में भी आग लगा दी।
इन महिलाओं ने शाहजहां शेख़ और उनके शागिर्दों के ख़िलाफ़ ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा करने के अलावा महिलाओं के यौन उत्पीडऩ और बलात्कार जैसे संगीन आरोप भी लगाए थे।
इलाके में परिस्थिति बिगड़ते देख कर भारी तादाद में पुलिस बल भेजा गया और धारा 144 लागू कर दी गई।
महिलाओं के आक्रोश को ध्यान में रखते हुए पुलिस ने पहले उत्तम सरदार और फिर शिबू हाजऱा को गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन शाहजहां अब तक फऱार है। उनके सीमा पार कर बांग्लादेश जाने की आशंका जताई जा रही है।
मछुआरे से राजनेता बनने की कहानी
यह जानकर हैरत हो सकती है कि बीते महीने से ही लगातार सुर्खियां बटोरने वाले शाहजहां शेख़ ने एक मछुआरे के तौर पर अपना करियर शुरू किया था।
संदेशखाली के लोग शाहजहां के इस सफऱ के गवाह रहे हैं। इलाके में यह कहानी हर ज़ुबान पर सुनने को मिल जाती है।
चार भाई-बहनों में सबसे बड़े 42 साल के शेख़ की दबंगई और सत्तारूढ़ पार्टी की ओर से मिले कथित संरक्षण के कारण ही इलाके में उसे भाई के नाम से जाना जाता है।
शेख़ ने बाद में ईंट भ_े में भी काम किया। ईंट भ_े में काम करने के दौरान साल 2004 में वह यूनियन का नेता बन गया।
स्थानीय लोगों का दावा है कि साल 2000 तक वह कभी बस कंडक्टर का काम करते थे तो कभी घर-घर घूमकर सब्ज़ी बेचते थे।
संदेशखाली इलाके में शाहजहां जब राजनीति का ककहरा सीख रहे थे, राज्य में बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली वाममोर्चा सरकार थी।
अपने कामकाज में सहूलियत के लिए उन्होंने दो साल बाद यानी वर्ष 2006 में सीपीएम का हाथ थाम लिया।
2011 में वाममोर्चा शासन ख़त्म होने के बाद अगले साल ही उन्होंने टीएमसी के राष्ट्रीय महासचिव मुकुल रॉय और उत्तर 24-परगना जि़ले के पार्टी अध्यक्ष ज्योतिप्रिय मल्लिक के ज़रिए तृणमूल कांग्रेस का दामन थाम लिया।
इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बीते पंचायत चुनाव में उनके नेतृत्व में मिली भारी जीत के बाद पार्टी ने शाहजहां को जि़ला परिषद का सदस्य बना दिया।
जानकार बताते हैं कि सीपीएम के पैरों तले लगातार खिसकती ज़मीन को ध्यान में रखते हुए साल 2008-09 से ही शाहजहां उससे दूरी बनाने लगे थे।
संदेशखाली के रहने वाले बिजन कुमार (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि शाहजहां राजनीति और सत्ता का रुख़ भांपने में माहिर हैं।
इलाक़े में दबंगई और तृणमूल का संरक्षण
संदेशखाली के एक सीपीएम नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि पार्टी में रहने तक शाहजहां का रवैया अपेक्षाकृत ठीक था। लेकिन तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने और जि़ले के नेताओं का वरदहस्त होने के बाद वह खुल कर खेलने लगे थे।
इलाके में चुनावी समीकरण का ध्यान रखते हुए शीर्ष नेताओं ने उन्हें इसकी छूट दे रखी थी।
वह बताते हैं कि शाहजहां का इलाके में इतना आतंक था कि किसी में भी उनके ख़िलाफ़ मुंह खोलने की हिम्मत नहीं थी।
जल्द ही शाहजहां संदेशखाली ब्लॉक नंबर- 1 के तृणमूल प्रमुख और फिर आगापुर सरबेडिय़ा ग्राम पंचायत के प्रमुख बन गए।
2023 के पंचायत चुनाव जीतने के बाद वह उत्तर 24-परगना जि़ला परिषद के सदस्य और मत्स्य और पशु संसाधन विभाग के प्रमुख था।
ईडी को जिस राशन घोटाले में शाहजहां की तलाश है, उसी मामले में पूर्व खाद्य मंत्री ज्योतिप्रिय मल्लिक भी जेल में हैं। लेकिन वह बीते महीने से ही फऱार हैं। शाहजहां को मल्लिक का बेहद कऱीबी माना जाता था।
यही वजह है कि उनके घर पहुंची ईडी की टीम पर स्थानीय लोगों ने एकजुट होकर हमला किया था।
स्थानीय लोग बताते हैं कि शाहजहां की दबंगई का डर दिखा कर उनके दोनों शागिर्द शिव प्रसाद उफऱ् शिबू हाजऱा और उत्तम सरदार गांव वालों पर अत्याचार करते थे।
बीजेपी का दावा
कोलकाता में भाजपा नेताओं का दावा है कि कि तीन साल पहले संदेशखाली के भांगीपाड़ा इलाके में टीएमसी और भाजपा के बीच हुई हिंसक झड़प में तीन लोगों की मौत के मामले में भी शाहजहां का नाम सामने आया था। लेकिन सत्ता पक्ष का संरक्षण होने के कारण उन पर कोई आंच नहीं आई।
वर्ष 2023 के पंचायत चुनाव के समय उनकी ओर से दायर हलफऩामे में बताया गया था कि उनके पास 17 गाडिय़ां और 14 एकड़ ज़मीन है। इनकी कीमत चार करोड़ बताई गई थी। इसके अलावा उनके पास ढाई करोड़ के सोने के ज़ेवर और और बैंक में 1।92 करोड़ की नकदी थी। उन्होंने अपनी सालाना आय 20 लाख रुपये बताई थी।
उनके ख़िलाफ़ सरकारी अधिकारियों के साथ मारपीट करने के भी आरोप हैं। उसकी इन गतिविधियों के कारण तृणमूल कांग्रेस के भीतर भी उस पर सवाल उठने लगे थे।
भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी दावा करते हैं, ‘शाहजहां के पास सैकड़ों मछली पालन केंद्र और ईंट भ_े के अलावा एक शॉपिंग कॉम्प्लेक्स भी है। उसने कोलकाता के पार्क सर्कस में करोड़ों की कीमत का मकान भी बनवाया है।’
भाजपा का आरोप है कि शाहजहां को पहले सीपीएम ने संरक्षण दिया और फिर तृणमूल कांग्रेस के शासनकाल में वह तेज़ी से फला-फूला। लेकिन सीपीएम का दावा है कि वाममोर्चा सरकार के समय शाहजहां एक मामूली व्यक्ति था।
प्रदेश सचिव मोहम्मद सलीम कहते हैं, ‘आपको उस समय कहीं शाहजहां का नाम सुनने को नहीं मिला होगा। तृणमूल कांग्रेस सरकार के संरक्षण में ही वह पला बढ़ा है और आज इस मुकाम तक पहुंच गया है।’
राजनीति में अपवाद नहीं
मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने अब तक शाहजहां शेख़ का नाम लेकर उस पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
यह मामला गरमाने के बाद उन्होंने विधानसभा में अपने बयान में कहा था, ‘संदेशखाली इलाका आरएसएस का गढ़ है। वहां इसी वजह से तमाम गड़बड़ी फैल रही है।। हालांकि उनका यह भी कहना था कि पुलिस इस मामले में कार्रवाई कर रही है और दोषियों को गिरफ़्तार किया जा रहा है’
फिलहाल तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां शेख पर ऑन द रिकॉर्ड कुछ भी कहने से कतरा रहे हैं। उनका कहना है कि अब इस मामले की जांच चल रही है। इसलिए इस पर कोई टिप्पणी करना उचित नहीं होगा।
तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता कुणाल घोष कहते हैं, ‘पुलिस तमाम आरोपों की जांच कर रही है। इस मामले में दोषियों को बख्शा नहीं जाएगा। संदेशखाली के दो नेताओं शिबू हाजरा और उत्तम सरदार को पहले ही गिरफ़्तार किया जा चुका है।’
संदेशखाली का दौरा करने वाले पुलिस महानिदेशक राजीव कुमार ने पत्रकारों से कहा, ‘तमाम आरोपों की गहन जांच की जा रही है। पुलिस ने दो अभियुक्तों को गिरफ़्तार कर लिया है। दोषियों को किसी भी सूरत में बख्शा नहीं जाएगा।’
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि शाहजहां शेख़ जैसे नेता राजनीति में अपवाद नहीं हैं।
राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी बदलती रहती है लेकिन शाहजहां जैसे लोग जस के तस रहते हैं।
राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर रहे सुकुमार सेन कहते हैं, ‘शाहजहां शेख़ जैसे नेता राजनीतिक दलों की ज़रूरत हैं। ऐसे लोग इलाके में संबंधित पार्टी के राजनीतिक हित साधते हैं और बदले में राजनीतिक दलों के नेता उनकी गतिविधियों की ओर से आंखें मूंदे रहते हैं।’ (bbc.com/hindi)
दिलनवाज पाशा
फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और अन्य मांगों को लेकर चल रहे किसानों के आंदोलन के मद्देनजऱ पंजाब और हरियाणा के कई इलाक़ों में इंटरनेट बंदी को करीब दस दिन हो गए हैं।
हजारों की संख्या में किसान हरियाणा-पंजाब के बीच शंभू बॉर्डर पर 13 फरवरी से जमा हैं और दिल्ली कूच की तैयारी कर रहे हैं। 21 फरवरी को खनौरी बॉर्डर पर एक किसान की कथित गोलीबारी में मौत के बाद किसान नेताओं ने दिल्ली कूच को दो दिन के लिए स्थगित कर दिया है।
इसे देखते हुए हरियाणा के सात जि़लों में 23 फऱवरी तक इंटरनेट पर प्रतिबंध को बढ़ा दिया है। ये प्रतिबंध राज्य सरकार ने लगाया है। इसमें अंबाला, कुरुक्षेत्र, कैथल, जींद, हिसार, फतेहाबाद और सिरसा शामिल है।
सरकार ने इंटरनेट पर प्रतिबंध के अपने आदेश में कहा है कि तनावपूर्ण हालात को देखते हुए और शांति बनाए रखने के लिए इंटरनेट पर पाबंदी लगाई गई है।
हरियाणा में इससे पहले 13, 15, 17 और 19 फऱवरी को इंटरनेट प्रतिबंध को आगे बढ़ाया गया था।
इसके अलावा केंद्र सरकार ने 16 फरवरी को एक आदेश जारी कर सात जिलों के 20 पुलिस थाना क्षेत्रों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई थी। यह पाबंदी पंजाब सरकार की तरफ से नहीं लगाई गई है।
सरकार ने कहा है कि ये क़दम अफ़वाहों को फैलने से रोकने और क़ानून व्यवस्था को क़ायम रखने के लिए उठाया गया है।
केंद्र और राज्य सरकार ने ये यह आदेश भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5 और दूरसंचार सेवाओं के अस्थायी निलंबन (सार्वजनिक आपातकालीन या सार्वजनिक सुरक्षा) नियम 2017 के नियम 2 के तहत जारी किया गया है।
समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ये गृह मंत्रालय के आदेश पर अस्थायी रूप से 177 सोशल मीडिया अकाउंट और वेब लिंक पर भी रोक लगाई है।
रिपोर्टों के मुताबिक़ किसान आंदोलन समाप्त होने के बाद ये अकाउंट फिर से चालू कर दिए जाएंगे।
भारत में कब-कब बंद हुआ इंटरनेट?
भारत में इंटरनेट बंद होने पर नजऱ रखने वाली वेबसाइट ‘इंटरनेट शटडाउन’ के मुताबिक़ 2024 में अब तक 17 बार इंटरनेट बंद किया जा चुका है।
इंटरनेट शटडाउन पर 2012 के बाद से इंटरनेट बंद किए जाने की घटनाओं का रिकॉर्ड है। डाटा के मुताबिक़ अब तक कुल 805 बार भारत में अलग-अलग जगहों पर इंटरनेट बंद किया जा चुका है।
सर्वाधिक 433 बार जम्मू-कश्मीर में, इसके बाद 100 बार राजस्थान और फिर 45 बार मणिपुर में इंटरनेट बंदी हुई है। हरियाणा में 37 और उत्तर प्रदेश में 33 बार इंटरनेट बंद किया गया है जबकि बिहार में कुल 21 बार इंटरनेट बंद हुआ।
दक्षिण भारतीय राज्य केरल में कभी इंटरनेट बंद नहीं किया गया है जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में एक-एक बार इंटरनेट बंद हुआ।
अगर अवधि की बात की जाए तो सर्वाधिक 552 दिनों तक कश्मीर में इंटरनेट बंद रहा जबकि मणिपुर में 200 दिनों तक इंटरनेट बंद रहा है।
साल 2012 में सिफऱ् 3 बार इंटरनेट पर रोक लगी थी, 2013 में 5 बार, 2014 में 6 बार और 2015 में 14 बार इंटरनेट बंद किया गया। अब तक सर्वाधिक 136 बार 2018 में, 132 बार 2020 में और 109 बार 2019 में भारत में इंटरनेट बंद हुआ।
दुनिया में इंटरनेट बंद करने के मामले में भारत कहां हैं?
केंद्र सरकार ने आदेश जारी कर पंजाब में इंटरनेट पर पाबंदी लगाई है।
दुनियाभर में इंटरनेट पर प्रतिबंधों पर नजऱ रखने वाली संस्था एक्सेस नाऊ के मुताबिक़ साल 2022 में भारत में इंटरनेट बंद करने की 84 घटनाएं हुईं। ये विश्व में सबसे ज़्यादा थीं।
एक्सेस नाउ के मुताबिक़ दुनिया के 35 देशों में सरकारों ने कुल 187 बार इंटरनेट बंद किया। सर्वाधिक बार भारत में इंटरनेट बंद किया गया।
28 फऱवरी 2023 को जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 2016 के बाद से दुनियाभर में इंटरनेट बंद करने की 58 प्रतिशत घटनाएं भारत में हुई हैं।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदर्शन, संघर्ष, स्कूल परीक्षाओं और चुनावों जैसी घटनाओं के दौरान भारत में सर्वाधिक इंटरनेट बंद किया गया।
इसे सेंसरशिप में ‘अप्रत्याशित बढ़ोतरी’ कहा गया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सरकार ने इंटरनेट पर रोक का सामान्यीकरण किया है और केंद्रीय सरकार ने पारदर्शिता और जि़म्मेदारी तय करने का कोई रास्ता नहीं निकाला है।
क्या कहती है सरकार?
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी 2020 में अनुराधा भसीन बनाम भारत सरकार मामले में कहा था सीआरपीसी 144 के तहत दी गई शक्तियों का इस्तेमाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या किसी लोकतांत्रिक अधिकार के हनन के लिए नहीं किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इंटरनेट पर रोक के सभी आदेशों की फिर से समीक्षा करने के लिए भी कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में ये भी कहा था कि जो आदेश क़ानून के तहत नहीं है उन्हें तुरंत निष्प्रभावी किया जाए।
वहीं संचार और सूचना प्रौद्योगिकी पर संसद की स्टैंडिंग समिति के समक्ष भारत के गृह मंत्रालय और संचार विभाग ने कहा था कि ‘सार्वजनिक आपातकाल’ और ‘जनता की सुरक्षा’ ऐसे दो आधार है जिन पर इंटरनेट बंद करने का आदेश दिया जा सकता है।
समिति ने सरकार से पूछा था कि ‘पब्लिक इमरजेंसी’ और ‘पब्लिक सेफ़्टी’ के अलावा किन और कारणों से इंटरनेट कब-कब बंद किया गया। इसके जवाब में सरकार ने कहा था कि इंटरनेट शटडाउन को लेकर सरकार रिकॉर्ड नहीं रखती है।
भारतीय टेलीग्राफ़ एक्ट 1885 की धारा 5(2) के तहत पब्लिक सेफ़्टी और पब्लिक इमरजेंसी को लेकर पैमाने परिभाषित हैं।
हालांकि गृह मंत्रालय ने इनकी परिभाषा के बारे में पूछे गए सवाल पर समिति में कहा था, ‘ये शब्द टेलीग्राफ़ एक्ट में हैं जिसे संचार विभाग देखता है। इसलिए क़ानून की परिभाषा में उन्हें देखना होगा कि इसकी व्याख्या है या नहीं।’
क्या कहती है टेलीग्राफ़ एक्ट 1885 की धारा 5
इस धारा के तहत केंद्र या राज्य सरकार ‘लोक आपात’ या ‘लोक सुरक्षा’ यानी पब्लिक इमरजेंसी या ‘पब्लिक सेफ़्टी’ की स्थिति में संचार के माध्यमों को क़ब्ज़े में ले सकती है। यानी इंटरनेट जैसे संचार के साधनों पर रोक लगाई जा सकती है।
हालांकि, ये छूट भी दी गई है कि केंद्र या राज्य सरकार से मान्यता प्राप्त संवाददाताओं के संदेशों को तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक ये सिद्ध ना हो कि ये संदेश इस क़ानून के तहत प्रतिबंधित हैं।
भारत में प्रदर्शनों के दौरान इंटरनेट पर रोक लगाना सरकार का एक चलन बनता जा रहा है। उपलब्ध डाटा ये दर्शाता है कि भारत इंटरनेट पर रोक लगाने के मामले में सबसे आगे है।
सोशल मीडिया के दौर में इंटरनेट संवाददाताओं के लिए भी सूचनाएं भेजने के लिए ज़रूरी है। इंटरनेट पर पूर्ण प्रतिबंध की वजह से प्रेस रिपोर्टरों का काम भी बाधित हुआ है।
पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के अकाऊंट पर रोक
किसान आंदोलन के दौरान कई पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल पर रोक लगा दी गई है। पीटीआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ कम से कम 177 अकाउंट और वेब लिंक अस्थायी रूप से प्रतिबंधित किए गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता हंसराज मीणा का अकाउंट भी प्रतिबंधित किया गया है। बीबीसी से बातचीत करते हुए हंसराज मीणा इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन बताते हैं।
हंसराज मीणा के मुताबिक़, ‘उनके व्यक्तिगत और संगठन ट्राइबल आर्मी के एक्स प्रोफ़ाइल को सरकार ने भारत में प्रतिबंधित करवा दिया है।’
सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स की तरफ़ से हंसराज मीणा को बताया गया है कि ऐसा भारत सरकार के आदेश पर किया गया है।
मीणा कहते हैं, ‘मेरे जिन पोस्ट का हवाला दिया गया है वो किसी भी तरह से क़ानून का उल्लंघन नहीं करते हैं। मैंने बस अपने विचार रखे हैं। सरकार विचारों से भी डरने लगी है। सरकार नहीं चाहती कि हमारी आवाज़ लोगों तक पहुंचे, इसलिए हमारे अकाउंट बिना किसी ठोस कारण के बंद कर दिए गए हैं।’
हंसराज मीणा का संगठन ट्राइबल आर्मी भारत में आदिवासियों, दलितों और पिछड़े समुदायों के मुद्दे उठाता है। मीणा कहते हैं, ‘हमारी आवाज़ पहले से ही कमज़ोर है, मुख्यधारा की मीडिया में हमारे मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है। हम सोशल मीडिया के ज़रिए आवाज़ उठा रहे थे, अब वहां से भी हमें रोक दिया गया है।’
किसानों के मुद्दों पर लिखते रहे पत्रकार मनदीप पुनिया के व्यक्तिगत खाते और उनके ऑनलाइन समाचार प्लेटफॉर्म गांव सवेरा के अकाउंट भी प्रतिबंधित कर दिए गए हैं।
मनदीप पुनिया कहते हैं, ‘अकाउंट बंद करने से पहले मुझे किसी भी तरह की जानकारी नहीं दी गई है ना ही किसी तरह का कोई नोटिस दिया गया या ना ये बताया गया कि हमारा अकाउंट क्यों बंद किया जा रहा है। हम किसानों के बीच से रिपोर्ट कर रहे थे, हमारी आवाज़ दबाने के लिए हमारे अकाउंट बंद कर दिए गए।’
शंभू बॉर्डर पर मौजूद मनदीप पुनिया कहते हैं, ‘मैं एक पत्रकार हूं और आंदोलन की कवरेज कर रहा था लेकिन सरकार ने हमारे प्लेटफार्म बंद कर दिए हैं। अब हम सिफऱ् वीडियो बना रहे हैं, उन्हें कहीं पोस्ट नहीं कर पा रहे हैं। हम घटनाओं की लाइव रिपोर्टिंग नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने हमारा काम छीन लिया है।’
ऐसा ही कहना पंजाब के स्वतंत्र पत्रकार संदीप सिंह का भी है। बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं, ‘ट्विटर पर मेरा अकाउंट क्कहृङ्घ्र्रक्च नाम से है। 14 फरवरी को वैलेंटाइन वाले दिन पीएम मोदी ने मेरा अकाउंट बंद करवाकर मुझे गिफ्ट दिया है। अकाउंट बंद होने कारण मैं ग्राउंड से रिपोर्ट नहीं कर पा रहा हूं।’
यह पहली बार नहीं है जब संदीप सिंह के अकाउंट पर एक्स ने रोक लगाई है। इससे पहले पंजाब में अमृतपाल सिंह की गिरफ्तारी के वक्त भी ट्विटर अकाउंट को बंद कर दिया गया था।
वे कहते हैं, ‘साल 2021 में मेरे ट्विटर अकाउंट पर एक महीने के इंप्रेशन 4 करोड़ से ज्यादा थे, जो अब कुछ हजारों में रह गए हैं। अकाउंट पर रोक लगाने से पहले ट्विटर की तरफ से शैडो बैन लगाया गया। इसका मतलब ये है कि सर्च करने पर भी मेरा अकाउंट लोगों को नहीं मिलता था।’
संदीप कहते हैं, ‘सोशल मीडिया कंपनियां सरकार का भोंपू बन गई हैं। इन कंपनियों ने फ्री स्पीच का दावा किया था, लेकिन अब सब ध्वस्त हो गया है। जो लोग ट्विटर पर किसानों को लेकर फर्जी खबरें चला रहे हैं, उनके अकाउंट धडल्ले से चल रहे हैं, क्योंकि वे सरकार का एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं।’
अकाउंट्स को ब्लॉक करने पर एक्स ने क्या कहा
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स ने भारत सरकार के उस आदेश पर असहमति जताई है, जिसमें कहा गया कि ‘किसान प्रदर्शनों से जुड़ी पोस्ट करने वाले एक्स अकाउंट या पोस्ट को ब्लॉक किया जाए।’
एक्स के वैश्विक मामलों को देखने वाले अकाउंट ने भारत सरकार के इस आदेश को लेकर बयान जारी किया है।
उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘भारत सरकार ने आदेश जारी किया है, जिसमें एक्स के कुछ अकाउंट और पोस्टों पर कार्रवाई करने को कहा गया है। कहा गया है कि उन अकाउंट और पोस्ट को ब्लॉक किया जाए क्योंकि ये भारत के क़ानून के मुताबिक़ दंडनीय है।’
‘आदेश का पालन करते हुए हम इन अकाउंट और पोस्टों को केवल भारत में ही ब्लॉक करेंगे। हालांकि, हम इससे असहमत हैं और मानते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। ’
‘भारत सरकार के आदेश के ख़िलाफ़ हमारे रुख़ वाली एक रिट अपील अब भी पेंडिंग है। हमारी नीति के अनुसार, हमने इन अकाउंट्स के यूज़र्स को सूचना दे दी है। क़ानूनी वजहों से हम भारत सरकार का आदेश शेयर नहीं कर सकते, लेकिन हमारा मानना है कि इस आदेश को सार्वजनिक करना पारदर्शिता के लिहाज से सही है।’ (bbc.com/hindi)
रॉबर्ट ग्रीनॉल
एलेक्सी नवेलनी की पत्नी यूलिया नवेलनाया हमेशा लो-प्रोफाइल रहती हैं। वे अक्सर कहती हैं कि उनकी भूमिका एक पत्नी और माँ की है। लेकिन शुक्रवार को अपने पति की मौत के बाद उन्होंने न्याय के लिए एक भावुक अपील की है। वे रूस में राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विरुद्ध खड़े विपक्ष की एक प्रमुख हस्ती बनती दिख रही हैं।
अपनी गैर-राजनीतिक पृष्ठभूमि के बावजूद नवेलनाया अपने पति की एक मजबूत समर्थक रहीं। वर्ष 2020 में नवेलनी को इलाज के लिए रूस बाहर ले जाने में उन्होंने एक अहम भूमिका निभाई थी। तब नवेलनी नोविचोक नर्व एजेंट नामक ज़हर दिए जाने के बाद जिंदगी बचाने के लिए जूझ रहे थे।
नवेलनाया को रूसी विपक्ष की फस्र्ट लेडी भी कहा जाता है। एलेक्सी नवेलनी ने खुद कहा था कि वो रूसी सत्ता के खिलाफअपनी एकतरफा जंग बिना यूलिया नवेलनाया के नहीं लड़ सकते।
इन दोनों की लव स्टोरी और पारिवारिक जि़ंदगी, उनके समर्थकों के लिए प्रेरणा का स्रोत रही है। उनके दो बच्चे हैं।
तुर्की में पहली मुलाकात
यूलिया नवेलनाया का जन्म 1976 में मॉस्को में हुआ था। वे रूस के एक सम्मानित विज्ञानिक बोरिस अंब्रोसिमोव की बेटी हैं।
अर्थशास्त्र की पढ़ाई के बाद उन्होंने बैंकिंग में करियर चुना लेकिन जब पति एलेक्सी नवेलनी राजनीति की सीढिय़ां चढऩे लगे तो यूलिया ने अपने दो बच्चों की परवरिश को ही अपना जीवन बना लिया।
दोनों की मुलाकात 1998 में तुर्की में हुई थी। दोनों वहाँ छुट्टियां बनाने गए थे। उस समय दोनों को एलेक्सी के भविष्य के करियर के बारे में कोई अंदाजा नहीं था।
साल 2020 में रूसी साप्ताहिक पत्रिका सोबेसेदनिक को यूलिया ने बताया था, ‘मैंने किसी नामचीन वक़ील या विपक्षी नेता से विवाह नहीं किया था। मैंने तो एलेक्सी नाम के एक युवक से शादी की थी।’
ऐसा प्रतीत होता है कि यूलिया और एलेक्सी नवेलनी शुरू से ही एक जैसे राजनीतिक विचार रखते थे। दोनों ने 2000 के शुरूआती वर्षों में रूस की लिबरल पार्टी याबलोको की सदस्यता ली थी।
जहर देने की घटना और जर्मनी में इलाज
लेकिन साल 2020 में एलेक्सी को जहर दिए जाने तक यूलिया एक गुमनाम जि़ंदगी जी रही थीं। उसके बाद से उन्होंने सार्वजनिक रूप से सभाओं में शामिल होना और भाषण देना शुरू कर दिया। जब एलेक्सी साइबेरिया में बीमार पड़े थे तो यूलिया ने राष्ट्रपति पुतिन को सीधे एक पत्र लिखा था जिसमें उन्हें इलाज के लिए जर्मनी ले जाने देने की गुहार लगाई थी।
रूसी डॉक्युमेंट्री मेकर यूरी डड को यूलिया ने बताया था, ‘हर पल मेरे दिमाग में एक ही बात आती थी कि बस एलेक्सी को यहाँ से निकालना है।’
नवेलनी को इसके बाद एक जर्मन संस्था के सहयोग से रूस से बाहर जाने दिया गया था।
वहां कई महीनों तक चले उपचार के बाद यूलिया उनके साथ मॉस्को लौट आई थीं। लेकिन आते ही उन्हें एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया था। उसके बाद उनका सारा जीवन जेल में ही कटा है।
रूस में अमेरिकी राजदूत रह चुके माइकल मैकफॉल यूलिया को निडर व्यक्ति मानते हैं।
वे कहते हैं कि अब यूलिया पर सार्वजनिक जीवन में आकर, और अधिक अहम रोल अदा करने का दवाब होगा।
अमेरिकी नेटवर्क एनबीसी ने बातचीत में मैकफॉल ने कहा, ‘नवेलनी को यूलिया से बेहतर जीवन साथी नहीं मिल सकता था। वे एलेक्सी की तरह दृढ़ विश्वासी, बहादुर और निडर हैं।’
यूलिया ने हाल ही में कहा था कि वे बेलारूस के निर्वासित नेता की पत्नी स्वेतलाना की तरह राष्ट्रपति चुनाव लडऩे की इच्छुक नहीं हैं। स्वेतलाना तिखानोव्सकाया ने 2020 में अपने पति को जेल होने के बाद बेलारुस का राष्ट्रपति चुनाव लड़ा था।
ऐसा माना जाता है कि स्वेतलाना वो चुनाव जीत गई थीं लेकिन धांधली के बाद मौजूदा राष्ट्रपति अलेग्जेंडर लुकाशेंको को सत्ता मिल गई थी।
अपने पति की मौत के बाद यूलिया ने म्यूनिख़ से सोशल मीडिया पर अपने समर्थकों के लिए स्पीच दी है। इस भाषण से लगता है कि वो राजनीति में आने के बारे में अपने बयान बदल सकती हैं।
उन्होंने कहा, ‘हमें एक स्वतंत्र, शांतिपूर्ण और ख़ुशहाल रूस चाहिए। एक खूबसूरत रूस जिसका ख़्वाब मेरे पति ने देखा था।’
‘मैं आप लोगों के साथ मिलकर ऐसा ही देश बनाना चाहती हूँ। ऐसा देश जिसकी कल्पना एलेक्सी नवेलनी ने की थी।’
‘यही एक तरीका है। जितनी कुर्बानियां दी गई हैं वो बेकार नहीं होनी चाहिएं।’ (bbc.com/hindi)
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (रुरुरू) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।
वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।
दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।
यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।
फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।
फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह जि़म्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)
शैलेंद्र शुक्ला
वर्षों पूर्व समाज में वर्ण व्यवस्था थी, यह व्यवस्था व्यवसाय आधारित थी। कोई धोबी कहलाता, कोई नाई, कोई मछुआरा तो कोई माली। ऐसे अनेक संबोधन थे जो शनै: शनै: वर्ण से वर्ग में वर्गीकृत हो गये और ये कब जाति बन गये पता ही नहीं चला। इसकी भी उपजातियाँ होने लगीं। तेल घानी का काम करने वाले तेली साहू, साव व न जाने कितने प्रकार के उप जातियों में विभक्त हो गये।
राजनीतिक पार्टियों ने इन अलग-अलग वर्गों/जातियों से नेताओं का चयन कर अपनी पार्टी में शामिल करते हुए उस जाति विशेष का रहनुमा बनने का ढोंग रचा। समाज देखते ही देखते जाति व उपजातियों के आधार पर कई टुकड़ों में बंटता चला गया। राष्ट्रहित या भारतीयता जैसा कोई धर्म या समुदाय बचा ही नहीं।
दुनियाँ के विभिन्न हिस्सों में बसे भारतीय व विदेशी तथाकथित बुद्ध जीवियों ने ‘क्रिटिकल कास्ट थ्योरी’ गढ़ दी जैसा विदेशों में नस्लवाद चलता है। देश आज़ाद हुआ तो शोषित, वंचित व पिछड़ा वर्ग को विशेष लाभ देने की दृष्टि से आरक्षण प्रथा प्रारंभ कर दी गई। इस आरक्षण का लाभ जातिगत आधार पर मिलने लगा। जाति विशेष के लोग आरक्षण का लाभ लेकर बड़े-बड़े पदों पर आसीन होते गए, सम्पन्न होते चले गए किन्तु संविधान की परिभाषा के अनुसार शोषित, वंचित व पिछड़ों की श्रेणी में ही बने रहे। अब आरक्षण का लाभ उन परिवारों को अधिक से अधिक मिलने लगा जो वैसे तो सभी सुविधाओं से युक्त हैं लेकिन केवल जाति के आधार पर आरक्षित वर्ग से आते हैं। समाज में दूर दराज में बसे अधिकांश सुविधाओं से वास्तव में वंचित लोगों को पता ही नहीं कि देश में आरक्षण प्रथा अब भी लागू है।
जैसे महतारी वंदन योजना में 1000 रूपये महीना देने की घोषणा की गई लेकिन कुछ शर्तें जोड़ी गईं जैसे आयकरदाता न हो, शासकीय सेवा में न हो, आदि आदि। इसी प्रकार आरक्षण भी शर्तों के साथ दिया जाना चाहिए ।
सरकारें भी बदलती रहीं किन्तु किसी ने भी यह साहस नहीं दिखाया कि आरक्षण के लाभ से सम्पन्न हो चुके लोगों को अब इस श्रेणी से बाहर कर दिया जाय। आरक्षण को यथावत बनाए रखते हुए जरूरतमंद लोगों के लिए इसे लागू किया जाय। जरूरतमंद की परिभाषित करने की आवश्यकता है। आज के इस आधुनिक युग में कोई केवल जाति के आधार पर कैसे जरूरतमंद हो सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी, नासा, चिकित्सा, औद्योगिक, सभी क्षेत्रों में सभी जाति व वर्गों के लोग सभी छोटे-बड़े पदों पर कार्यरत हैं। हमारे अपने राज्य में कुर्मी, साहू, पटेल जैसी तथाकथित पिछड़ी जाति के लोग अपेक्षाकृत अधिक सम्पन्न व शिक्षित हैं।
अब देश को आवश्यकता है समाज के वास्तव में वंचित लोगों को आरक्षण का लाभ देकर उपर लाने की, उन्हें अवसर प्रदान करने की। केवल वोट के ख़ातिर आरक्षण की सूची में नई जातियों को शामिल करने से अवसर से वंचित लोगों के साथ अन्याय होगा। इसे उनके साथ शोषण कहा जायेगा।