विचार/लेख
-सौतिक बिस्वास
बीते सप्ताह की एक सुबह सैंकड़ों की संख्या में युवा देश के उत्तरी राज्य हरियाणा में एक यूनिवर्सिटी कैंपस के सामने एकत्र हुए।
कड़ाके की ठंड में ख़ुद को गर्म कपड़ों और कंबल में लपेटे ये युवा भारत के बाहर नौकरी करने की तलाश में यहाँ जमा हुए थे। ये युवा अपने घर से दोपहर का खाना लेकर निकले थे, जो उनकी पीठ पर मौजूद बैकपैक में रखा था। ये सभी युवा भारत से दूर इसराइल में प्लास्टरिंग, स्टील फिक्सिंग या टाइल लगाने जैसे कंस्ट्रक्शन के काम के लिए प्रैक्टिकल परीक्षा देने के लिए आए थे।
युनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूरी कर चुके रंजीत कुमार एक योग्यता प्राप्त टीचर हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई पक्की नौकरी नहीं मिल सकी। उन्होंने कभी पेन्टर, तो कभी स्टील फिक्सर, कभी मज़दूर, कभी गाडिय़ों के वर्कशॉप में बतौर तकनीशियन तो कभी ग़ैर-सरकारी संगठन में बतौर सर्वेयर काम किया है। उनके लिए ये ऐसा मौक़ा है, जिसे वो हाथ से जाने नहीं दे सकते।
31 साल के रंजीत कुमार के पास दो-दो डिग्रियां हैं और वो ‘डीज़ल मकैनिक’ के तौर पर काम करने के लिए सरकार की तरफ़ से कराए जाने वाले ‘ट्रेड टेस्ट’ को पास कर चुके हैं, लेकिन वो रोज़ का 700 रुपये से अधिक कभी कमा नहीं सके हैं।
वहीं इसके मुक़ाबले इसराइल में नौकरी करने पर उन्हें हर महीने 1,37,000 रुपये की (1,648 डॉलर) तनख़्वाह के साथ-साथ रहने का ठिकाना भी मिलेगा और मेडिकल सुविधाएं मिलेंगी।
रंजीत कुमार का पासपोर्ट बीते साल ही बना है। सात सदस्यों वाले अपने परिवार की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए के वो इसराइल जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर नौकरी करने के लिए तैयार हैं। वो कहते हैं, ‘यहां पर कोई सुरक्षित नौकरी नहीं है। चीज़ों की क़ीमतें बढ़ रही हैं। नौ साल पहले मैंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई ख़त्म की थी लेकिन अब तक आर्थिक तौर पर स्थायित्व नहीं हासिल कर सका हूं।’
रोजग़ार की कमी से परेशान हैं युवा
अधिकारियों के हवाले से मिल रही ख़बरों के अनुसार, इसराइल चीन और भारत से कऱीब 70 हज़ार युवाओं को अपने यहां कंस्ट्रक्शन सेक्टर में नौकरी देना चाहता है।
बीते साल सात अक्तूबर को हुए हमास के हमले के बाद से ये सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, इसराइल ने अपने यहां आकर काम करने वाले फ़लस्तीनियों पर पाबंदी लगा दी है, जिससे वहां कामग़ारों की भारी कमी हो गई है। हमास के हमले से पहले तक कऱीब 80,000 फ़लस्तीनी इस सेक्टर में काम कर रहे थे।
कहा जा रहा है कि भारत से कऱीब 10,000 कामग़ारों को नौकरी पर रखा जाने वाला है। इसके लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में युवाओं से नौकरी की दरख़्वास्त ली जा रही है।
हरियाणा के रोहतक शहर में मौजूद महर्षि दयानंद युनिवर्सिटी में इसके लिए टेस्ट का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से कई हज़ार युवा शामिल हुए। (दिल्ली में मौजूद इसराइली दूतावास ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।)
इस रेस में रंजीत कुमार अकेले नहीं है, उनके साथ कतार में लगकर अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले हज़ारों युवा भारत के विशाल और अस्थायी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, जहाँ उन्हें बिना औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट और सुविधाओं के काम करना पड़ता है।
रंजीत की ही तरह इनमें से कइयों के पास कॉलेज की डिग्री है लेकिन वो अपने लिए एक स्थायी नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर युवा कंस्ट्रक्शन सेक्टर में रोजग़ार जैसे अनौपचारिक काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें महीने में 15-20 दिनों के काम के बदले 700 रुपये मिलते हैं। हर युवा अपने साथ अपना रेज़्यूमे लेकर आए हैं। इनमें से एक युवा ने हमें बताया कि ‘मैं अपनी टीम के साथ तालमेल बैठाकर काम करता हूं।’
‘नोटबंदी और कोरोना महामारी की दोहरी मार’
इनमें से कई युवा अपनी कमाई बढ़ाने के लिए एक वक़्त में दो या दो से ज़्यादा काम करते हैं।
कई अपनी आर्थिक परेशानियों के लिए साल 2016 में मोदी सरकार की लगाई नोटबंदी और फिर 2020 में कोरोना महामारी को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन को जि़म्मेदार मानते हैं।
कई युवा सरकारी परीक्षाओं में प्रश्नपत्र लीक होने की भी शिकायत करते हैं। कई कहते हैं कि उन्होंने अवैध तरीके से अमेरिका या कनाडा जाने के लिए एजेंटों को पैसे देने की कोशिश भी की, लेकिन इसके लिए पैसे जमा नहीं कर पाए। वो कहते हैं कि इन सभी वजहों से वो विदेश जाकर कोई सुरक्षित और अधिक कमाई वाली नौकरी करना चाहते हैं और इसके लिए ‘वार ज़ोन में भी काम करने को तैयार हैं।’
संजय वर्मा ने साल 2014 में ग्रैजुएशन किया जिसके बाद उन्होंने टेक्नीकल एजुकेशन में डिप्लोमा किया। बीते छह सालों से वो पुलिस, अर्धसैनिक बल और रेलवे में सरकारी नौकरी के लिए कोशिशें कर रहे हैं और दर्जनों परीक्षाएं दे चुके हैं। वो कहते हैं, ‘नौकरियां कम हैं और मांग उससे 20 गुना अधिक।’ वो कहते हैं कि 2017 में एक एजेंट ने उन्हें इटली में खेत में काम करने के लिए 600 यूरो प्रति महीने की नौकरी का वादा किया था, लेकिन इसके लिए वो 1,40,000 रुपये की व्यवस्था नहीं कर पाए।
नोटबंदी और कोरोना लॉकडाउन की तरफ इशारा करते हुए प्रभात सिंह चौहान कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक दो झटके लगे और उनकी माली हालत अस्थिर हो गई।
35 साल के प्रभात राजस्थान से हैं और इमर्जेंसी एंबुलेंस चलाने वाले ड्राइवर के रूप में काम करते हैं। रोज़ाना 12 घंटों के काम के लिए उन्हें 8,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं।
वो कहते हैं कि उन्होंने अपने गांव में कंस्ट्रक्शन से जुड़े ठेके लेने शुरू किए और किराए पर चलाने के लिए छह कार खरीदीं।
कई अन्य युवाओं की तरह प्रभात सिंह ने भी हाई स्कूल ख़त्म करने के बाद से ही कमाई के ज़रिए तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने स्कूल में अख़बार बेचे और महीने में 300 रुपये तक की कमाई की। अपनी मां की मौत के बाद उन्होंने कपड़ों की एक दुकान में काम किया। जब उन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने मोबाइल रिपेयरिंग की पढ़ाई की। वो कहते हैं ‘इससे कुछ ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ।’
कऱीब पांच से सात तक उनके नसीब ने उनका साथ दिया और उन्होंने अच्छी कमाई की। एक तरफ वो खुद एंबुलेंस चलाते थे और गांव में कंस्ट्रक्शन का काम ठेके पर लेते थे तो दूसरी तरफ़ उनकी टैक्सियां किराए पर चल रही थीं। लेकिन 2016 से पहले ये सिलसिला भी ख़त्म हो गया। वो कहते हैं, ‘2020 के लॉकडाउन ने मुझे तबाह कर दिया। मुझे अपनी कारें बेचनी पड़ी क्योंकि मैं उनकी किस्त नहीं दे पाया। अब मैं एक बार फिर एंबुलेंस चला रहा हूं और गांव में ठेके पर काम ले रहा हूं।’
‘युद्ध से डर नहीं लगता’
हरियाणा के रहने वाले 40 साल के राम अवतार टाइल लगाने के काम करते हैं। उनहें इसका 20 साल का तजुर्बा है। वो लगातार बढ़ रही महंगाई के बीच कमाई में उस तरह से इज़ाफा न होने से परेशान हैं। वो कहते हैं कि उनके लिए बच्चों की पढ़ाई पूरी करवा पाना बड़ी चुनौती बन गया है। उनकी बेटी विज्ञान में ग्रैजुएशन कर रही है जबकि बेटा चार्टर्ड अकाउंटेन्ट बनना चाहता है।
उन्होंने दुबई, इटली, कनाडा जैसे मुल्कों में काम करने के मौक़े तलाश किए लेकिन इसके लिए एजेंट बड़ी फीस मांगते हैं जो दे पाना उनके लिए असंभव है। वो कहते हैं खाना और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के साथ-साथ घर का किराया और कोचिंग का खर्च जुटाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। वो कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि इसराइल में युद्ध चल रहा है। मैं मौत से नहीं डरता। हम यहां भी मर सकते हैं।’
इन सबके बीच हर्ष जाट जैसे उम्मीदों से भरे कुछ युवा भी हैं। 28 साल के हर्ष ने 2018 में ह्यूमैनिटीज़ में डिग्री हासिल की थी। शुरुआत में उन्होंने एक मकैनिक के तौर पर कार फैक्ट्री में काम किया जिसके बाद दो साल तक वो पुलिस गाड़ी में ड्राइवर के तौर पर काम करते रहे। वो कहते हैं ‘नशे में डूबे लोगों के इमर्जेंसी फ़ोन लाइन के इस्तेमाल से’ वो थक गए और उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद हर्ष ने गुडग़ांव के संपन्न इलाक़े में एक पब में बतौर बाउंसर काम किया, जहां उन्हें हर महीने 40,000 रुपये मिलते थे। वो कहते हैं, ‘इस तरह के काम में वो दो साल बाद आपको निकाल फेंकते हैं और ये नौकरियां सुरक्षित नहीं हैं।’
अब हर्ष जाट बेरोजग़ार हैं अपने परिवार के आठ एकड़ की ज़मीन पर खेती का काम करते हैं। वो कहते हैं ‘आज के वक्त में खेती का काम कोई नहीं करना चाहता।’ वो कहते हैं उन्होंने क्लर्क और पुलिसकर्मी जैसी सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। वो बताते हैं कि उनके गांव के कुछ युवाओं ने अवैध तरीक़े से अमेरिका और कनाडा जाने के लिए एजेंटों को 60 लाख रुपये तक दिए हैं। ये लोग अब विदेश से भारत में अपने घर पैसे भेज रहे हैं और महंगी गाडिय़ां खरीदने में उनकी मदद कर रहे हैं।
हर्ष कहते हैं, ‘मैं भी विदेश जाना चाहता हूं और अच्छी कमाई वाली नौकरी करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि कल को मेरे बच्चे मुझसे ये सवाल करें कि हमारे पड़ोसियों के पास जब अच्छी गाडिय़ां और एसयूवी हैं तो हमारे पास क्यों नहीं है?
वो कहते हैं, ‘मैं युद्ध ने नहीं डरता।’
भारत में रोजग़ार की तस्वीर
भारत में रोजग़ार के अवसर को लेकर तस्वीर मिलीजुली दिखती है। पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (पीएलएफ़एस) में बरोजग़ारी को लेकर जो आंकड़े दिए गए हैं वो बेरोजग़ारी में कमी दिखाते हैं। जहां साल 2017-18 में बोरोजग़ारी दर 6 फ़ीसदी थी, वहीं 2021-22 में 4 फ़ीसदी थी।
डेवेलपमेन्ट इकोनॉमिस्ट और बाथ यूनिवर्सिटी में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर संतोष महरोत्रा कहते हैं कि ??अवैतनिक काम को भी सरकारी डेटा में शामिल करने की वजह से ऐसा दिखता है। वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि नौकरियां नहीं आ रही हैं। मामला ये है कि एक तरफ औपचारिक सेक्टर में नौकरियां बढ़ नहीं रहीं तो दूसरी तरफ नौकरी की तलाश कर रहे युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।’
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार बेरोजग़ारी कम तो हो रही है लेकिन ये अभी भी काफी ज़्यादा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में आए ठहराव के बाद 2004 में अर्थव्यवस्था में रेगुलर वेतन या वेतनभोगी कामग़ारों की हिस्सेदारी बढऩे लगी। 2004 में ये पुरुषों के लिए 18 से 25 फ़ीसदी तक हुई और महिलाओं में 10 से 25 फ़ीसदी तक। लेकिन 2019 के बाद से, ‘विकास मंदी और महामारी’ के कारण रेलुलर वेतन वाली नौकरियों में कमी आई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के बाद देश के 15 फ़ीसदी से अधिक ग्रैजुएट और 25 साल से कम उम्र के 42 फ़ीसदी ग्रैजुएट्स के पास नौकरियां नहीं हैं।
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में लेबर इकोनॉमिस्ट रोज़ा अब्राहम कहती हैं, ‘ये वो तबका है जिसे अधिक कमाई चाहिए और ये छोटे-मोटे अस्थायी काम करने में दिलचस्पी नहीं रखता। यही वो समूह है अधिक कमाई और नौकरी में स्थायित्व की उम्मीद में जान का जोखिम लेने के लिए (इसराइल जाने के लिए) तैयार है।
इन युवाओं में से एक हैं उत्तर प्रदेश के अंकित उपाध्याय। वो कहते हैं कि उन्होंने एक एजेंट को पैसे दिए, अपना वीज़ा बनवाया और कुवैत जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर आठ साल काम किया।
वो कहते हैं क महामारी ने उनकी नौकरी छीन ली। वो कहते हैं, ‘मुझे किसी बात की डर नहीं है। मैं इसराइल में काम करने के लिए तैयार हूं। वहां मौजूद ख़तरों से मुझे फर्क नहीं पड़ता। देश के भीतर भी नौकरियों में सुरक्षा नहीं है।’ (bbc.com/hindi)
-शमाइल जाफरी
तीर्थ सिंह मेघवार सिंध के उमरकोट में अपने समर्थकों के एक छोटे दल के साथ डिप्टी कमिश्नर के दफ़्तर में पहुंचते हैं। उनके समर्थक उनके लिए नारे लगा रहे हैं।
ये लोग फॉर्म भरते हैं और फिर अंदर अपना चुनाव चिह्न लेने चले जाते हैं। नोटिस बोर्ड पर चुनाव चिन्ह लगे हुए हैं। तीर्थ सिंह अपनी मर्जी से स्लेट चुनाव चिह्न ले लेते हैं।
तीर्थ सिंह हिंदू हैं और आठ फऱवरी को पाकिस्तान में हो रहे आम चुनाव में उमरकोट से एक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े हैं।
उमरकोट भारतीय सीमा से लगभग 60 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंध का एक छोटा सा शहर है।
पाकिस्तान का दक्षिणी प्रांत सिंध देश के ज्यादातर हिंदुओं का ठिकाना है। मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में इस्लामी अतिवाद के उभार के बावजूद सिंध ने अपने ऐतिहासिक हिंदू खासियतों और परंपराओं को बचा रखा है।
उमरकोट का नाम पहले अमरकोट हुआ करता था। इसका नाम एक स्थानीय हिंदू राजा पर रखा गया था।
11वीं सदी में बने अमरकोट किले में ही 1542 में मुगल बादशाह अकबर का जन्म हुआ था।
शहर का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। लेकिन एक चीज़ की वजह से इस शहर की अपनी अलग पहचान है। उमरकोट में आज भी हिंदू बहुसंख्यक हैं।
स्थानीय लोगों का दावा है कि बँटवारे के वक्त यहां की 80 फीसदी आबादी हिंदू थी। हालांकि हिंदुओं में सबसे ज्यादा अमीर ठाकुर बिरादरी के लोग धीरे-धीरे भारत चले गए।
लेकिन अनुसूचित जाति के लोगों के पास इतने संसाधन नहीं थे वो यहां से कहीं जा सके। लिहाजा वो यहीं रह गए। यहां रहने वाले हिंदुओं में 90 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं।
उमरकोट में बड़ी हिंदू आबादी लेकिन राजनीतिक ताकत नहीं
तीर्थ मेघवार भी उनमें से एक है। तीर्थ कहते हैं कि यहाँ अनुसूचित जाति के हिंदुओं की काफ़ी बड़ी आबादी है लेकिन देेश के राजनीति में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इसके लिए वो धनी ऊंची जातियों के लोगों को जि़म्मेदार ठहराते हैं।
तीर्थ सिंह कहते हैं, ‘‘सत्ता हासिल करके ही हम इस व्यवस्था में बदलाव ला सकते हैं। इसीलिए हम चुनाव लड़ रहे हैं। इस असंतुलन को ख़त्म करने और अपने समुदाय को प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए हम मैदान में उतर रहे हैं।’’
वो कहते हैं, ‘पिछले कई सालों से प्रमुख राजनीतिक पार्टियां हमारी रिजर्व सीटें ऊंची जाति के बड़े जमींदारों, कारोबारियों और सेठों को बेचती आ रही हैं। इससे हमारी राजनीतिक ताकत खत्म हो रही है। हमें इसका प्रतिरोध करना ही होगा। तभी हम ख़ुद को सामाजिक तौर पर ऊपर उठा सकते हैं।’’
पहले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचन मंडल हुआ करते थे लेकिन साल 2000 में पूर्व सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ ने अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने के लिए ये व्यवस्था खत्म कर दी।
अल्पसंख्यकों के लिए अब भी राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों में सीटें रिजर्व हैं लेकिन वे दूसरे अन्य नागरिकों की तरह देश के किसी भी हिस्से से चुनाव लड़ सकते हैं।
हालांकि उमरकोट के हिंदू समुदाय के लोगों को लगता है कि संयुक्त निर्वाचन मंडल ने उनकी राजनीतिक ताक़त कम की है।
ये पहली बार नहीं है जब अनुसूचित जाति का कोई हिंदू स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहा है।
2013 से अनुसूचित जाति के कई उम्मीदवार चुनाव में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। हालांकि वो जीत से दूर ही रहे हैं।
ऊंची जातियों के हिंदुओं का दबदबा
इस समुदाय से आने वाले कार्यकर्ता शिवराम सुथार कहते हैं,‘‘इसकी वजह पैसा है लेकिन ये भरोसे की भी बात है।’’
शिवराम बताते हैं अनुसूचित जाति के उम्मीदवार अमूमन चुनाव के कुछ दिन पहले मैदान छोड़ देते हैं। इससे उनके समर्थक हताश हो जाते हैं।
शिवराम कहते हैं, ‘‘इसलिए स्थानीय हिंदू आबादी के लोग भी उन भर भरोसा करने को तैयार नहीं होते। इसके बजाय वो उन मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देते हैं, जिनके बारे में वो ये सोचते हैं कि वे ज्यादातर ताक़तवर हैं और उनका काम करवा सकते हैं।’’
हालांकि उमरकोट की समस्याएं गिनाते हुए शिवराम कहते हैं कि यहाँ हिंदू और मुसलमानों दोनों की समस्याएं एक जैसी हैं
वो कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि अलग धर्म की वजह से हमें मुश्किल हो रही है। दरअसल आपकी आर्थिक स्थिति क्या है, इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है। गरीबों की समस्या एक जैसी है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाएं तक उनकी पहुंच काफ़ी कम है। उनके पास सामाजिक सुविधाएं और आगे बढऩे के सीमित अवसर हैं। गरीब हिंदू है या मुसलमान इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके सामने एक जैसी समस्याएं हैं।’’
पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और हिंदू उम्मीदवार
लाल चंद वकील हैं। वो एमक्यूएम पाकिस्तान के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। यहां पार्टी की ओर से खड़े किए गए अनुसूचित जाति के तीन उम्मीदवारों में से वो एक हैं।
उन्होंंने बीबीसी से कहा पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने उमरकोट में सामान्य सीट पर कभी भी किसी हिंदू उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया। जबकि शहर की आबादी में 52 फीसदी हिंदू हैं।
लाल चंद कहते हैं, ‘‘मुख्यधारा की पार्टियों ने हमें हमारे हक़ से वंचित रखा है। वो सिर्फ पूंजीपतियों और जमींदारों को बढ़ावा देते हैं। मैं इस बात का बहुत आभारी हूं कि एमक्यूएम पाकिस्तान ने हमारे समुदाय पर भरोसा जताया है।’’
वो कहते हैं, ‘यहां भील, कोली, मेघवार मल्ही और योगी जैसी जातियों के लोग बड़े जमींदारों के खेतों में काम करते हैं। लिहाजा जमींदार उन्हें जिस उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहते हैं, उन्हें ही वोट देना पड़ता है। ऊंची जाति के हिंदू हमारा दर्द नहीं समझते हैं। वो सत्ता में बैठे लोगों के साथ हैं। जबकि हम जैसे बहुसंख्यक हिंदू नाइंसाफ़ी के शिकार हो रहे हैं।’’
लाल ने बीबीसी से कहा कि ज्यादातर राजनीतिक दलों को पता है कि राजनीति महंगा कारोबार है। इसलिए वो ऐसे उम्मीदवारों पर दांव नहीं लगाना चाहते, जिनकी जीत की संभावना कम हो। हालांकि कामगारों में से अब ज्यादा से ज्यादा लोग आगे आ रहे हैं। लेकिन फिर भी असेंबली (संसद) पहुंचने की उनकी संभावना बहुत ही कम है।
इमरान खान की पार्टी और हिंदू उम्मीजवाक
इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबली के लिए उमरकोट में मल्ही समुदाय को दो धनी भाइयों को मैदान में उतारा है।
चूंकि पार्टी को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लडऩे से रोक दिया गया है। लिहाजा वो अब स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरेंगे।
पार्टी के उम्मीदवार लेखराज मल्ही ने बीबीसी को बताया कि सरकार जिस तरह से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेतृत्व और उम्मीदवारों को जिस तरह से निशाना बना रही है, उसी तरह से उनके परिवार को भी परेशान किया जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘‘हमारे घरों पर छापे मारे गए। हम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के केस ठोके गए। मेरे बड़े भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन तमाम धमकियों और बदला लेने की कार्रवाई के बावजूद हम इमरान ख़ान की विचारधारा के साथ खड़े हैं। वही उमरकोट को पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की गिरफ्त से बाहर निकाल सकते हैं।’’
लेकिन विशेषज्ञों को नहीं लगता है कि निकट भविष्य में ऐसा होने जा रहा है। उनका मानना है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पंजाब और उत्तर पश्चिमी प्रांत खैबर पख़्तूनख़्वा तक ही सीमित है। वो अभी तक सिंध में सेंध नहीं लगा पाई है।
इसके बावजूद अनुसूचित जातियों के हिंदुओं का चुनाव में उतरना एक बदलाव का प्रतीक तो है ही। (bbc.com/hindi)
-अजीत द्विवेदी
दस साल पहले 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार लोकसभा चुनाव में जाने वाली थी तब उसने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया था। अभी 2024 के चुनाव में जाने की तैयारी कर रही नरेंद्र मोदी की सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया है। इससे दोनों पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक समझ का फर्क पता चलता है। वैसे अपने दस साल के कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने सिर्फ तीन लोगों को भारत रत्न दिया और उनमें से कोई भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं था। इसके उलट नरेंद्र मोदी ने अपने दस साल में सात लोगों को भारत रत्न दिया, जिसमें से सिर्फ एक भूपेन हजारिका अराजनीतिक व्यक्ति थे।
बाकी छह लोग हार्डकोर राजनीति से जुड़े हैं। इससे भी दोनों सरकारों की कार्यशैली के फर्क का पता चलता है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती की पूर्व संध्या पर उनको भारत रत्न देने का ऐलान हुआ। ऐसा नहीं हुआ कि सिर्फ घोषणा कर दी गई और बात आई-गई हो गई। हिंदी और अंग्रेजी के सभी अखबारों में प्रधानमंत्री मोदी का लेख छपा, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चल रही है। उन्होंने उनके बेटे रामनाथ ठाकुर से फोन पर बात की और उनको बधाई दी। उसके बाद सारे मंत्री और पूरा प्रचार तंत्र इसमें जुट गया कि कैसे मोदी ने अत्यंत पिछड़े समुदाय के सबसे बड़े नेता को सबसे बड़ा सम्मान दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र सरकार का फैसला लोकसभा चुनाव और अत्यंत पिछड़ी जाति की राजनीति को ध्यान में रख कर किया गया है। अन्यथा जब अटल बिहारी वाजपेयी या प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिया जा रहा था उसी समय कर्पूरी ठाकुर को भी यह सम्मान मिल जाता। आखिर वे भारतीय राजनीति में अपना बेमिसाल योगदान देकर 1988 में ही इस दुनिया से चले गए थे। उनके जीवित रहते नहीं तो उनके जाने के बाद किसी भी समय उनको यह सम्मान दिया जा सकता था। लेकिन पहले किसी ने इसकी जरुरत नहीं समझी। उनके चेले भी सरकार में रहे लेकिन उनको भी नहीं लगा कि इस देश के सबसे मौलिक और साहसी सोच रखने वाले नेताओं में से एक कर्पूरी ठाकुर को सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने भी इस बारे में तब सोचा, जब बिहार में जाति गणना के आंकड़े आए और पता चला कि सबसे ज्यादा 36 फीसदी आबादी अति पिछड़ी जातियों की है। बिहार में जाति गणना के बाद अब आंध्र प्रदेश में भी जाति गणना शुरू हो गई है और देश के कई राज्यों में मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियां इसकी मांग कर रही हैं। नब्बे के दशक के बाद एक बार फिर जाति की भावना को राजनीतिक लाभ के लिए उभारा जा रहा है। राज्यों में गैर भाजपा सरकारें पिछड़ी जातियों की अनुमानित संख्या के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ा रही हैं। बिहार में ही आरक्षण की सीमा 75 फीसदी कर दी गई है। हिंदुत्व की राजनीति कर रही भाजपा आरक्षण बढ़ाने का फैसला अभी नहीं कर सकती है और न प्रत्यक्ष रूप से जाति की राजनीति में हाथ डाल सकती है। इसलिए उसने एक दूसरा रास्ता निकाला। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने वाले महानायक को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया। इस पर आगे बहुत राजनीति होनी है, प्रधानमंत्री मोदी ने लेख लिख कर इसकी शुरुआत कर दी है। उन्होंने अपने लेख में खुद को पिछड़ी जाति का बताते हुए कर्पूरी ठाकुर से जोड़ा है।
यह दुर्भाग्य है कि कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ आरक्षण और अति पिछड़ी जातियों की राजनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है। इस दायरे से बाहर उनके जीवन और राजनीति का विस्तार बहुत बड़ा था। आरक्षण की व्यवस्था तो समाज में बदलाव लाने के उनके प्रयासों का एक छोटा सा हिस्सा थी। उन्होंने सबसे पहले तो शिक्षा की जरुरत को समझा था और 1967 में जब उप मुख्यमंत्री बने थे तभी आठवीं तक की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को पूरी तरह से मुफ्त कर दिया था। उन्होंने एक नारा भी दिया था कि ‘पढ़ जाएगा तो बढ़ जाएगा’।
अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल रहे कर्पूरी ठाकुर को पता था कि बिहार में छात्रों के लिए अंग्रेजी कितनी दुरूह है और कैसे उनकी शिक्षा के रास्ते की बाधा है।
इसलिए उन्होंने एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त किया। इसके लिए उनकी बड़ी आलोचना हुई लेकिन उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होने के बाद उसमें फेल होने वाले भी मैट्रिक में पास होने लगे तो ऐसे छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वह कर्पूरी डिवीजन से पास हुआ है। कर्पूरी ठाकुर संभवत: पहले नेता थे, जिन्होंने सरकारी ठेकों में परोक्ष आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने बेरोजगार इंजीनियरों को ठेके में प्राथमिकता देने का नियम बनाया था। उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने और बंजर जमीन पर मालगुजारी नहीं लगाने का उनका फैसला भी बहुत साहसिक था।
उप मुख्यमंत्री बनने के तीन साल बाद वे मुख्यमंत्री बने थे लेकिन तब उनका कार्यकाल महज 163 दिन का था। वे दूसरी बार 1977 में मुख्यमंत्री बने तब पिछड़ी जातियों के लिए 26 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की। अनुसूचित जाति व जनजातियों को संविधान से आरक्षण मिलता था। लेकिन पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की पहली बार व्यवस्था कर्पूरी ठाकुर ने की। उसी समय उन्होंने पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण किया और अधिक आबादी वाले और अपेक्षाकृत ज्यादा गरीब अति पिछड़ी जातियों को ज्यादा आरक्षण दिया था। बाद में नीतीश कुमार ने कर्पूरी फॉर्मूले पर बिहार में आरक्षण दिया। हालांकि अभी तक केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की है।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के लिए तो पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाई है लेकिन पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण करने और अत्यंत पिछड़ों को आरक्षण का ज्यादा लाभ देने की पहल नहीं की गई है, जबकि सरकार के पास जस्टिस जी रोहिणी आयोग की रिपोर्ट लंबित है। फिर भी प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चलती है! बहरहाल, कर्पूरी पहले नेता था, जिन्होंने नौकरियों में महिलाओं और गरीब सवर्णों के लिए भी तीन-तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की। हालांकि आरक्षण पर उनकी क्रांतिकारी सोच के चलते उनको डेढ़ साल के बाद ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया और उनकी जगह रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने आरक्षण के सारे प्रयोगों को रोक दिया।
उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के नाते अपने फैसलों की वजह से जितना महत्व कर्पूरी ठाकुर का है उतना ही महत्व उनकी राजनीति का भी है। उन्होंने कांग्रेस और भारतीय जनसंघ से अलग हमेशा समाजवादी राजनीति की और उसके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाया। वे अपने जीवन में संपूर्ण ईमानदारी का पर्याय बने। जीवन भर पिछड़े, दलित और वंचितों के लिए काम किया और सही अर्थों में समाज के सबसे कमजोर तबके के मसीहा रहे। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना आदर्श मानने वाले कर्पूरी ठाकुर ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के समय यह नारा दिया था कि ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’।
सोचें, इस नारे के पांच दशक बाद राहुल गांधी ‘जितनी आबादी उतना हक का नारा’ देकर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। अपने आचरण, अपने विचार, अपनी राजनीति और अपने फैसलों से कर्पूरी ठाकुर ने देश की राजनीति में एक नया उजाला भर दिया था। वे बहुत कम समय तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन उतने समय में उन्होंने जो कुछ किया उसकी गूंज आज तक सुनाई दे रही है। दशकों तक मुख्यमंत्री रहा कोई भी नेता देश की राजनीति पर वैसी छाप नहीं छोड़ सका, जैसी कर्पूरी ने छोड़ी थी। उनको भारत रत्न दिया जाना एक समाजवादी योद्धा का सम्मान तो है ही साथ ही ईमानदार और समावेशी राजनीति का भी सम्मान है। (नया इंडिया)
थोडी समझदारी और सहयोग से काम किया जाए तो खेती आज भी रोजगार का बेहतरीन जरिया बन सकती है। उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में सक्रिय स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ ने इसी का प्रयास किया है। प्रस्तुत है, इस अनुभव पर भारत डोगरा का यह लेख। - संपादक
भारत डोगरा
सोना सहरिया एक आदिवासी महिला है जो तालबेहट ब्लाक के बम्होरा गांव में अपने छोटे स्तर की खेती-किसानी से संतोषजनक आजीविका प्राप्त कर रही है। खेत और किचन गार्डन में बहुत सी सब्जियां लगी हैं, नीबू और अमरूद के पेड़ लगे हैं, जैविक खाद तैयार हो रही है, पर यह स्थिति एक दशक पहले नहीं थी। उस समय सोना के पति इंदौर में प्रवासी मजदूर के रूप में ईंट भट्टों पर मजदूरी करते थे। उन दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरा दिन मेहनत कर पांच रुपए की ही आमदनी होती थी। खूब मेहनत करने के बावजूद न अपने लिए बचत कर पाते थे, न गांव में अपने घर के लिए।
जैसे ही उन्हें खबर मिली कि अब गांव में स्थिति सुधर रही है तो प्रवासी मजदूरी छोडक़र गांव वापस आ गए और नए सिरे से खेती जमाने के हिम्मत भरे प्रयास करने लगे। आज उसके परिणाम सामने आ चुके हैं - हरे खेत लहलहा रहे हैं, नींबू और अमरूद के पेड़ भी खड़े हैं। अपने लिए पर्याप्त खाद्य प्राप्त हो रहा है, कुछ बिक्री भी हो रहा है। आर्थिक स्थिति को वे संतोषजनक मान रहे हैं और भविष्य के लिए उम्मीद भी है।
सोना के खेत में सावां और कोदो जैसे मिलट या मोटे अनाज भी उगाए जा रहे हैं, ताकि इन पौष्टिक गुणों वाले, पर उपेक्षित मोटे अनाजों की वापसी हो सके। सोना ने बड़े बर्तन दिखाए जिनमें मोटे अनाजों के बीज संग्रहित किए जाएंगे व इस ‘बीज बैंक’ के माध्यम से अन्य किसान भी मोटे अनाज उगा सकेंगे।
यह बदलाव एक स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ व प्रशासन के सहयोग से हुए जल-संरक्षण से आया है। सोना स्वयं भी इस संस्था से जुड़ी हैं। इसके साथ सोना ने गांव की सामूहिक भलाई के प्रयास जारी रखे हैं, पर दूसरी ओर पास में तेन्द्रा जैसी बस्तियां आज भी हैं जहां अधिकांश लोग प्रवासी मजदूर के रूप से बाहर गए हुए हैं।
तालबेहट ब्लाक के हनौता गांव में सहरिया आदिवासी व दलित परिवार प्राय: ऐसी स्थिति में वर्षों से रहते आए हैं जब पानी के अभाव में वे खेती नहीं कर पाते थे व प्रवासी मजदूर के रूप में इंदौर, दिल्ली, पंजाब आदि में भटकते रहते थे। ईंट भट्टों पर या जहां भी काम मिले, बहुत कम मजदूरी पर कार्य करने को मजबूर थे, पर अब इस मजबूरी पर रोक लगी है। रबी की फसल तो कई किसानों ने पहली बार ली है। हनौता में यह सार्थक बदलाव इस कारण आ सका, क्योंकि ‘परमार्थ’ संस्था ने यहां से आठ किलोमीटर दूर बेतवा नदी से एक भूमिगत पाईप लाइन द्वारा इस गांव के अनेक परिवारों को सिंचाई उपलब्ध करवाई।
शांति सहरिया के खेत में मूली, मटर, टमाटर, बहुत सी सब्जियां लगी हैं, अमरूद व नींबू के पेड़ भी हैं। अब शांति के परिवार को प्रवासी मजदूरी के लिए भटकना नहीं पड़ता। बबलू अहिरवार का केवल एक हाथ है, दूसरा हाथ दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हो गया था। उसके लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है कि गांव में उसकी खेती जम गई है व उसे प्रवासी मजदूरी के लिए नहीं जाना पड़ता।
ग्राम बंडा (बबीना प्रखंड, जिला झांसी) के किसान हीरालाल इन दिनों बहुत प्रसन्न हैं। वजह स्पष्ट है कि विविधता भरी बहुत सी फसलें, विशेषकर बागवानी की फसलें उन्होंने प्राप्त की हैं व उत्पादकता भी बढ़ी है। बैंगन, करेला, तुरई, लौकी, कद्दू, मिर्ची, भिंडी, लोभिया, मटर, आलू के बीच उन्होंने कुछ फूल भी उगाए हैं। उनके पड़ौसी किसान अजय भी ऐसे ही प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि अधिक नहीं तो उत्पादन कम-से-कम डेढ़ गुना तो बढ़ ही गया है।
वे व बंडा गांव के सात-आठ अन्य किसान अपनी उपलब्धि के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर खेती को श्रेय देते हैं। हीरालाल बताते हैं कि इससे पानी की बहुत बचत होती है तथा साथ में मिट्टी पर भी अनुकूल असर पड़ता है। मिट्टी व पानी का संरक्षण हो जाए व साथ में उत्पादकता बढ़ जाए तो लगता है कि सब कुछ अनुकूल ही हो रहा है।
यह सही है, पर इसमें एक पेंच भी है। इस खेती के लिए जो यंत्र, पाईप आदि चाहिए उनका खर्च अधिक है व प्रति एकड़ खेत लगभग एक लाख रुपए का निवेश मांग रहा है। हीरालाल व अजय के लिए यह इस कारण संभव हुआ क्योंकि उन्हें केन्द्र व राज्य सरकार से मिली-जुली 90 प्रतिशत तक की सबसिडी प्राप्त हुई। इस सबसिडी के कारण पांच एकड़ पर ड्रिप सिंचाई अपनाने पर हीरालाल को मात्र 25000 रुपए का खर्च ही करना पड़ा।
इन किसानों ने स्पष्ट बताया कि सबसिडी न मिलने पर वे इस तकनीक को नहीं अपना सकते थे। जिस समय उन्होंने यह तकनीक अपनाई थी, उस आरंभिक दौर में यह सबसिडी प्राप्त करना अपेक्षाकृत सरल भी था। तिस पर इस क्षेत्र में कृषि व संबंधित आजीविकाओं में सहायता पहुंचा रही स्वैच्छिक संस्था ‘परमार्थ’ ने भी सबसिडी और विभिन्न फसलों के बीज प्राप्त करने में भरपूर सहायता दी थी। इन दो कारणों से हीरालाल व अजय के लिए यह सफलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान था। इस आरंभिक सफलता को देखते हुए जब इस सबसिडी की मांग तेजी से बढऩे लगी, तो इसके नियम-कायदे अधिक सख्त बना दिए गए। अन्य किसानों के साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी बताया कि अब यह सबसिडी प्राप्त करना अधिक कठिन हो गया है। (सप्रेस)
श्री भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
मयूरेश कोण्णुर
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित होने के बाद से ही देश में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बहस चल रही है।
ये मंदिर वहीं बना है, जहाँ छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी।
अयोध्या मामले में सुनवाई के बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन को एक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए, जो वहाँ पर एक मंदिर का निर्माण कराएगी।
इसके साथ ही कोर्ट के आदेश पर उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए पाँच एकड़ की जमीन आबंटित की गई है।
अब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो गया है और सोमवार 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा भी कर दी है।
एक तरफ चर्चा इस बात की चल रही है कि कैसे लोकसभा चुनाव से पहले जान बूझ कर राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित की गई, वह भी तब, जब मंदिर का निर्माण अभी भी अधूरा है।
विपक्ष ने समारोह के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। यहाँ तक कि शंकराचार्यों ने भी इस कार्यक्रम में शामिल न होने का फैसला किया। उनके इस कदम से एक और हलचल पैदा हो गई।
वहीं, दूसरी ओर भाजपा, आरएसएस और उससे जुड़े दलों और संगठनों ने प्रत्येक घर में अक्षत वितरित कर और कलश यात्राएं निकाल कर पूरे देश में धार्मिक माहौल बनाया। देश के कोने-कोने में भगवा रंग से सराबोर धार्मिक माहौल नजर आ रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस शो का नेतृत्व कर रहे हैं। वह इतने बड़े पैमाने पर होने वाले किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने वाले पहले प्रधानमंत्री होंगे।
ऐसे में इस आयोजन में अंतर्निहित राजनीतिक उद्देश्य से कौन इनकार कर सकता है?
आज का अयोध्या कांड कभी भी केवल धार्मिक नहीं रहा। इसमें हमेशा से राजनीति शामिल रही है।
राम मंदिर आंदोलन न केवल हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद को मुख्यधारा में लेकर आया, बल्कि भारतीय राजनीति की प्रकृति को भी बदल दिया। मंदिर का मुद्दा जैसे ही राजनीति में आया, इसका असर हर अगले चुनाव पर पड़ा। ऐसा लगता है कि इसका असर इस बार के चुनाव पर भी पड़ेगा।
क्या अगले कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में मंदिर सबसे बड़ा मुद्दा होगा? भाजपा ने पिछले तीन दशक में इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ लिया है, तो क्या वह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार बहुमत लाएगी।
क्या भाजपा को फिर मंदिर का फायदा मिलेगा?
पिछले तीन दशक का राजनीतिक इतिहास बताता है कि राम मंदिर मुद्दे से बीजेपी को चुनाव में मिलने वाली सीटों के लिहाज से फायदा हुआ है। भाजपा का वोट बेस धीरे-धीरे बढ़ता गया है। भाजपा जो कभी दो सांसदों तक सीमित थी, उसने पहले लोकसभा में सौ के आंकड़े को छूआ और जल्द ही पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली।
चुनाव विश्लेषक और लोकनीति-सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदू वोटों के बीच सर्वेक्षणों के आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाते हैं। वो कहते हैं कि ज़्यादातर लोग धार्मिक आस्था रखते हैं। वो मंदिरों ने नियमित रूप से जाते हैं, उन लोगों ने भाजपा को वोट दिया। यह मतदान प्रतिशत में महत्वपूर्ण है।
संजय कुमार बताते हैं कि रोजाना मंदिर जाने वाले धार्मिक लोगों में से 51 फीसद ने 2019 में बीजेपी को वोट दिया। करीब इतना ही फीसद 2014 में भी था। लेकिन जो लोग बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं हैं और रोजाना मंदिर नहीं जाते, उनमें से 32 फीसदी ने बीजेपी को वोट दिया। इसका मतलब है कि धार्मिक लोगों का झुकाव बीजेपी की ओर है।
भाजपा 1980 के दशक में राम मंदिर मुद्दे के जोर पकडऩे के साथ ही इन मतदाताओं का समर्थन तेजी से हासिल करती आई है।
कुमार कहते हैं, 2014 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उस समय की ‘यूपीए’ सरकार के खिलाफ गुस्से, 2019 में पुलवामा-बालाकोट की घटनाओं के बाद बने माहौल के बाद भी मतदाताओं पर धार्मिक मुद्दों का प्रभाव कम नहीं हुआ है।
उनका मानना है कि इस बार के चुनाव में भी ऐसा ही होने की संभावना है। वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि 2024 का चुनाव हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जाएगा और राम मंदिर सबसे आगे रहेगा। मुझे यकीन है कि कम से कम उत्तर भारत के मतदाता राम मंदिर के निर्माण के लिए बीजेपी को वोट देंगे।’
राम मंदिर का मुद्दा धार्मिक या राजनीतिक?
बीजेपी के नेता लगातार कहते रहे हैं कि राम मंदिर का कार्यक्रम पूरी तरह से धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। इसके बाद भी जब जनता की भावनाएं इस पैमाने पर प्रभावित होंगी तो उसका असर उनकी राय पर भी दिखेगा।
महाराष्ट्र भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष माधव भंडारी कहते हैं, ‘जब इस तरह का कोई बड़ा आंदोलन होता है, जो देश के कोने-कोने में पहुंच जाता है, तो जनमत एक दिशा में जाने लगता है। इसका किसी न किसी तरह से प्रभाव पड़ेगा और आपको वह परिणाम जरूर नजर आएगा।’
अयोध्या में राम मंदिर बनाने और राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने का वादा कर भाजपा ने इस मुद्दे को सालों तक जि़ंदा रखा।
भाजपा भले ही मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के जरिए उन्हीं परिणामों को दोहराने का इरादा रखती है, इतिहास हमें यह भी बताता है कि कुछ धारणाएं, जैसी सतह पर दिखाई देती हैं, वो चुनाव क्षेत्र में बदल जाती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘यहां तक कि जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया था, तब भी हर जगह यह धारणा थी कि हिंदुत्व हर जगह हावी होगा और भाजपा हर जगह चुनाव जीतेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और कांशीराम एकसाथ आए और बीजेपी हार गई। वो बाद के कुछ चुनावों में भी सरकार नहीं बना सकी।’
लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘बीजेपी को जो बहुमत मिलने वाला था, राम मंदिर के प्रभाव से उसमें अधिकतम 10-20 सीटें बढ़ जाएंगी। ऐसा नहीं है कि राम मंदिर ही बीजेपी के दोबारा सत्ता में आने का एकमात्र कारण हो, अन्यथा यह मुश्किल होगा। आप एक ही प्रोडक्ट को बार-बार नहीं बेच सकते हैं। लोगों ने राम मंदिर के विचार को स्वीकार किया। यह अब तैयार है। इसका अनुमान सभी को पहले से ही था। इसलिए बीजेपी को इसका कोई खास फायदा नहीं मिलेगा। लेकिन राम मंदिर को लेकर बने भावनात्मक माहौल का वे फायदा जरूर उठाएंगे। यही राजनीति है।’
मंडल बनाम कमंडल, जाति बनाम धर्म
आम चुनाव से पहले जब अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा जोर पकड़ रहा है तो सवाल पूछा जा रहा है कि क्या हम एक बार फिर भारतीय राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के साक्षी बनेंगे।
जब 80 के दशक में राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ और 90 के दशक में और अधिक उग्र हो गया, तो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं। ओबीसी समुदाय को आरक्षण दिया गया।
इस कदम ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। चुनावी राजनीति में धर्म और जाति प्रमुख कारक हैं। असली सवाल यह है कि क्या इतिहास दोहराया जाएगा? क्या ‘मंडल’ को रोक पाएगा ‘कमंडल’?
कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ यही करने की कोशिश कर रहा है। राम मंदिर का मुद्दा सामने आते ही जाति जनगणना की मांग की गई। हालांकि, 1992-93 के बाद से 2024 तक समय और सामाजिक-राजनीतिक हालात काफी बदल गए हैं।
पहचान की राजनीति, समाज में धर्म और जाति की लड़ाई की प्रकृति बदल गई है। इसके अलावा, भाजपा की राजनीति अब ‘कमंडल’ तक सीमित नहीं है, बल्कि उसने ‘मंडल’ को भी जन्म दिया है। इसका अर्थ यह है कि वे पहले से ही सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख अखबार ‘जनमोर्चा’ के संपादक सुमन गुप्ता कहते हैं, ‘2014 तक, ओबीसी, विशेष रूप से उत्तर भारत में खुद को भाजपा से दूर कर रहे थे। उनका एक अलग राजनीतिक एजंडा था। मंडल था और कमंडल भी था। बेरोजगारी और अन्य मुद्दे थे। लेकिन उसके बाद से राजनीति पूरी तरह से बदल गई हैं। ‘मंडल’ के खिलाफ ‘कमंडल’ खड़ा करने की राजनीति बदल गई है। भाजपा अब अति पिछड़ों से जुड़ गई है, जो पहले मंडल का हिस्सा हुआ करता था।’
गुप्ता कहते हैं कि ऐसा बीजेपी की ओर से ग्रामीण इलाकों में गरीबों के लिए लाई गई कल्याण योजनाओं की वजह से हुआ है। ये योजनाएं उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए थीं। इससे ये वर्ग भी बीजेपी के करीब आ गया।
रामदत्त त्रिपाठी भी कहते हैं कि बीजेपी की राजनीति ‘धर्म प्लस कल्याण’ जैसी हो गई है।
लोकनीति सीएसडीएस के संजय कुमार का मानना है कि अगर विपक्षी दल राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे के प्रभाव को कम करने के लिए जाति जनगणना का मुद्दा लाते हैं, तो भी उसके बहुत प्रभावी होने की संभावना नहीं है।
वो कहते हैं, ‘एक तरह से जाति जनगणना के मुद्दे पर मंदिर का मुद्दा हावी हो जाएगा। भले ही विपक्ष जाति जनगणना की बात करता हो, लेकिन अब लोगों के लिए जाति से ज्यादा धर्म महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए जाति खतरे में है का नैरेटिव उतना प्रभावी नहीं है। लेकिन ‘हिंदू खतरे में है’ का नारा अधिक प्रभावी हो गया है। यह जाति की राजनीति से ज्यादा लोगों को लामबंद करेगा। इसलिए जाति जनगणना के लाइन पर लोगों को लामबंद करना मुश्किल लगता है।’
तो क्या ऐसे माहौल में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूर रहना समझदारी है या खतरनाक?
विपक्षी दलों की प्राण-प्रतिष्ठा
समारोह से दूरी
पिछले कुछ दिनों मंदिर के मुद्दे पर हुई राजनीतिक बहस में यह ऐसा सवाल था, जिस पर सबसे अधिक बहस हुई। पहले सवाल यह था कि अयोध्या में इस समारोह का निमंत्रण किसे मिलेगा। लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी नेताओं को न्योता दिया गया। हालांकि, सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे समेत लगभग सभी विपक्षी दलों ने समारोह से दूरी बनाए रखी। उन्होंने कहा कि वे बाद में अयोध्या जाएंगे।
इस निमंत्रण को स्वीकार करना या न करना विपक्ष के लिए आसान नहीं था। समारोह में शामिल होना बीजेपी की राजनीतिक साख को समर्थन देने जैसा माना जाएगा। इसमें भाग न लेने का मतलब कट्टर हिंदू मतदाताओं को नाराज़ करने का जोखिम उठाना हो सकता है।
विपक्ष के नेताओं ने कार्यक्रम के राजनीतीकरण का आरोप लगाते हुए अयोध्या जाने से परहेज किया। उन्होंने यह भी कहा कि वे आधे-अधूरे मंदिर के ढांचे को देखने की बजाय उसके पूरा होने के बाद मंदिर का दर्शन करेंगे।
इसका चुनाव के नतीजे पर कितना असर पड़ेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मतदाता राम मंदिर उद्घाटन समारोह को धार्मिक मानते हैं या राजनीतिक।
एक तरफ जहां राम मंदिर का जश्न चल रहा है, जो राष्ट्रीय राजनीति का मूड बदल सकता है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ निकाल रहे हैं। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि यात्रा का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण कहते हैं, ‘जिस तरह से कार्यक्रम हो रहा है, उसे देखते हुए क्या भाजपा के खिलाफ वोट करने वाले लोग अपना मन बदल लेंगे? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होगा।’
कांग्रेस को अयोध्या के धार्मिक आयोजन में शामिल न होने के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के रुख़ से राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाने के रवैये को एक समर्थन मिल गया है।
चव्हाण कहते हैं, ‘हिंदू धर्म में पूजनीय शंकराचार्य ने कहा है कि अयोध्या में जो कुछ भी हो रहा है वह ग़लत है। उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया हैं। अब मुझे बताएं-क्या शंकराचार्य भी हिंदू विरोधी हैं? क्या वे मुस्लिम समर्थक हैं? उन्होंने भाजपा की राम मंदिर राजनीति को उजागर किया है।’
क्या महंगाई और बेरोजगारी से
बड़ा मुद्दा है राम मंदिर?
जमीनी हकीकत भी यही है- देश के आम लोगों को जीवन में बुनियादी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
लेकिन मीडिया ने जो नैरेटिव गढ़ा है, उससे क्या आप विश्वास करेंगे कि मंदिर का मुद्दा राजनीति में प्रमुख हो गया है। यह तब है, जब बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है।
‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी दर 8 फीसदी से ज्यादा है। इसे पिछले कुछ दशकों में सबसे ज्यादा बताया जा रहा है।
वहीं दूसरी तरफ महंगाई है। महंगाई ने कई परिवारों के बजट पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। इनमें से अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग के हैं। क्या राम मंदिर के धार्मिक माहौल में आम आदमी के जीवन से जुड़े ये मुद्दे चुनाव पर कोई असर डालेंगे?
पत्रकार गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘यह (धार्मिक) उन्माद इस हद तक पैदा किया जाएगा कि लोग अन्य सभी मुद्दों को ज़रूरी न मानने के पक्ष में होंगे। जब नेता इस तरह के उन्माद में शामिल होंगे तो स्वाभाविक रूप से जो लोग सामाजिक क्रम में उनसे नीचे हैं, वे ये सवाल नहीं पूछेंगे। टकराव की कोई संभावना नहीं है। सच यह है कि उनके पास इसके खिलाफ सवाल उठाने का कोई मौका ही नहीं है।’ वहीं संजय कुमार कहते हैं कि लोग भले ही बेरोजगारी, महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बात कर रहे हों, लेकिन असल वोटिंग में इसका असर शायद नजर न आए। ये हकीकत है।
वो कहते हैं, ‘लोग पिछले दो साल से इन मुद्दों का सामना कर रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों के दौरान हमारे सर्वेक्षणों में यह देखा गया था कि बेरोजगारी, महंगाई बढ़ रही थी, लेकिन हमने देखा कि इन मुद्दों के बाद भी भाजपा फिर से सत्ता में आई।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बेरोजगारी और महंगाई से जुड़े मुद्दे थे, लेकिन लोगों ने फिर भी भाजपा को वोट दिया। लोग इन मुद्दों पर चिंता तो जताते हैं, लेकिन उन पर वोट नहीं करते हैं। वे दूसरे मुद्दों के लिए वोट देते हैं। वह मुद्दा है राष्ट्रवाद और हिंदुओं का एकीकरण।’
कई पर्यवेक्षकों के मुताबिक, बीजेपी राष्ट्रवाद के मुद्दे को मंदिर से जोडऩे में सफल रही है।
आने वाले चुनाव शायद ये तय करें कि राम मंदिर के निर्माण का भारतीय राजनीतिक पर कितना असर पड़ा है। (bbc.com)
पुष्य मित्र
तस्य चैवंप्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मन:।
सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद् वंशकर: सुत:।।
कल जब पूरा देश रामजन्मभूमि कही जाने वाली अयोध्या में हो रहे राममंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन में व्यस्त था, तब मैंने वाल्मिकी रचित रामायण पढऩा शुरू किया। मकसद सिफ$ इतना था कि जिस राम को सभी आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हैं, उनके जीवन को जानना और समझना कि उनके जीवन की कथा से हम क्या सीख सकते हैं। और गीताप्रेस वाली वाल्मिकी रामायण में रामकथा की जब शुरुआत हुई तो यह श्लोक मिला।
नीचे इस श्लोक का हिंदी में अर्थ बताया गया था-सभी धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ प्रभावशाली होने के बावजूद पुत्र के लिए चिंतित रहते थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई नहीं था।
आगे ऐसा ही एक श्लोक मिला, जिसमें लिखा था- वे सदा पुत्र के लिए विलाप करते रहते थे।
तो क्या तीन रानियों के पति दशरथ निस्संतान थे? सहज यह प्रश्न मेरे मन में उठा। अगले ही कुछ पन्नों में इसका उत्तर मिल गया। राजा दशरथ के सबसे करीबी मंत्री सुमंत ने उन्हें याद दिलाया कि राजा दशरथ की एक पुत्री थी शांता। जिसे उन्होंने अपने मित्र अंग नरेश रोमपाद को गोद दे दिया था। रोमपाद उनके साढ़ू भी थे, वे कौश्लया की बहन वर्षिणी के पति थे। वे निस्संतान थे, इसलिए दशरथ और कौशल्या ने अपनी पुत्री शांता को उन्हें गोद दे दिया था।
सहज ही शांता की कथा जानने की उत्कंठा मन में उठी। वाल्मिकी रामायण में इसका जिक्र नहीं था कि शांता का जन्म कैसे हुआ और वे कितने वर्ष तक दशरथ और कौशल्या के साथ रहीं। मगर दक्षिण के कुछ रामायणों में इसका जिक्र था कि शांता का जब जन्म हुआ तो कोशल के राज्य में भीषण अकाल था और यह अकाल लंबे समय तक रहा। राजा दशरथ को लगा कि उनकी इसी कन्या की वजह से अकाल पड़ा। इसलिए उन्होंने शांता को रोमपाद को गोद दे दिया।
शांता को एक विदुषी बालिका के रूप में वाल्मिकी रामायण में बताया गया है। वे वेदों की ज्ञाता थीं। मगर यह कथा भी वाल्मीकि रामायण में मिलती है कि जिस शांता को अकाल के भय से अयोध्या ने अंग देश भेज दिया था, उसी शांता ने अंग देश को अकाल से मुक्ति दिलाई। अंग देश में जब बारिश नहीं होने की वजह से सूखा पड़ा तो रोमपाद ने श्रृंगि ऋषि को अपने राज्य में आमंत्रित किया।
वाल्मीकि रामायण में श्रृंगि ऋषि को अंग देश में लाने की दिलचस्प कथा है। कभी स्त्रियों के संपर्क में नहीं आये ऋषि श्रृंगि को लाने के लिए उन्होंने वेश्याएं भेजीं। उन वेश्याओं के रूप से मोहित होकर श्रृंगि ऋषि अंग देश आये और वहां शांता को कहा गया कि वे उनसे विवाह कर लें। श्रृंगि ऋषि के अंग देश आने से वहां का सूखा खत्म हो गया।
यह तो राम की बड़ी बहन शांता की कहानी थी। इस कहानी को सुमंत दशरथ को बताते हैं और कहते हैं कि उनके जो दामाद हैं श्रृंगि ऋषि वे अगर अयोध्या आकर पुत्रेष्टि यज्ञ करायें तो उन्हें पुत्र(संतान नहीं पुत्र) की प्राप्ति हो सकती है।
यह जानकर जिस शांता को उन्होंने अपशकुनी मानकर राज्य से बाहर भेज दिया था, उसे उसके पति के साथ ससम्मान बुलाया और दोनों पति-पत्नी को पूरे सम्मान के साथ अयोध्या के राजमहल में रखा, तब तक, जब तक पुत्रष्टि यज्ञ न हो गया। फिर अच्छी विदाई देकर विदा भी किया। इसके बाद शांता अपने असल मायके कब आई इसका विवरण नहीं मिलता। राम के जन्म के वक्त, राम के विवाह के वक्त या फिर राम के राज्याभिषेक के वक्त ही आई हो। अगर किसी को पता हो तो जरूर बतायें। मुझे ऐसा कोई विवरण नहीं मिला।
बहरहाल कहानी आगे बढ़ती है। दशरथ पुत्र के लिए पहले अश्वमेध यज्ञ कराते हैं। फिर पुत्रेष्टि यज्ञ। इस कथा में अश्वमेध यज्ञ का पूरा विवरण है। पहले अश्व पूरी दुनिया में घूमता है। फिर जब लौट कर आता है तो ‘कौशल्या सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा करते हुए अश्व के निकट एक रात निवास करती हैं।’ फिर अश्व के गूदे को पकाया जाता है (जाहिर है अश्व की बलि के बाद) और फिर उसकी आहुति दी जाती है।
उसके बाद पुत्रेष्टि यज्ञ होता है। जिसमें एक देवपुरुष खीर की एक प्याली दशरथ को देते हैं और दशरथ उस खीर को अपनी रानियों को देते हैं। फिर रानियां गर्भवती हो जाती हैं।
पुत्र पाने के इस यज्ञ में पहले दशरथ अपना पूरा राज्य ऋषियों को बांट देते हैं, मगर ऋषि कहते हैं, हमें राजपाट से क्या लेना। आप हमें सामग्री दान करें। फिर दशरथ दस लाख गायें, दस करोड़ सोने की मुद्राएं और 40 करोड़ चांदी के सिक्के इन ब्राह्मणों को दान देते हैं। बेटे के लिए वे क्या नहीं करते हैं। यह वह कथा है जो राम के जन्म से जुड़ी है, वाल्मीकि रामायण के मुताबिक।
इस कथा ने मेरे मन में एक संशय जरूर उत्पन्न कर दिया। राम के जन्म की इस कथा से भारतीय समाज ने आखिर क्या सीखा होगा? यही न कि जीवन में पुत्र सबसे महत्वपूर्ण होता है। पुत्रियों का कोई अर्थ नहीं होता। उनका होना न होना बराबर है। हां, वे तभी महत्वपूर्ण हैं, जब उनसे अपना कोई मतलब सधता हो। मुझे लगता है कि भारतीय समाज में बेटे और बेटियों के बीच जो भेदभाव गहरे तक समाया है, उसमें राम के जन्म की इस कथा की बड़ी भूमिका रही होगी।
राम कथा को लेकर एक भाव हमेशा से मेरे मन में रही है। यह कहानी भारतीय समाज में पुरुषसत्ता या पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए रची गयी होगी। और यह कथा इस बात को सही साबित करती है। हालांकि मैं इसे आगे और पढ़ूंगा। मैं चाहूंगा कि राम के चरित में मुझे वैसा आदर्श मिल जाये, जो मुझे बुद्ध और गांधी जैसे नायकों में कई बार मिल जाता है। अगर मिला तो वह भी लिखूंगा। फिलहाल तो निराश ही हूं।
सुशीला सिंह, आदर्श राठौर
अगर आप रेल या सडक़ से लंबी यात्रा कर रहे हों या फिर कहीं घूमने गए हों और बीच सफर में भूख लग जाए तो पेट भरने के लिए दाल, चावल या रोटी जैसे विकल्पों की तुलना में आपको चिप्स, बिस्किट और कोल्ड ड्रिंक्स जैसे भरपूर विकल्प मिल जाएंगे।
कई बार हम यूं ही टाइम पास करने के लिए या फिर पेट भरा होने के बावजूद स्वाद की वजह से भी इन्हें खाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि खाने-पीने की पारंपरिक चीज़ों की जगह खाए जाने वाले ये स्वादिष्ट विकल्प ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड’ कहलाते हैं और इनका ज़्यादा इस्तेमाल सेहत के लिए हानिकारक होता है?
यही नहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि इन्हें कुछ इस तरह से तैयार किया जाता है ताकि इन्हें खाने में मजा आए और हम इनके आदी हो जाएं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 10 सालों में भारत में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के बाजार में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।
क्या होता है अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड
डॉक्टर अरुण गुप्ता बाल रोग विशेषज्ञ हैं और न्यूट्रिशन एडवोकेसी फॉर पब्लिस इंटरेस्ट (एनएपीआई) नाम के थिंक टैंक के संयोजक हैं।
वह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड का मतलब कुछ इस तरह बताते हैं, ‘सरल शब्दों में समझें तो अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड वह खाद्य सामग्री है, जिसे आप आमतौर पर अपने किचन में नहीं बना सकते। यह सामान्य खाने की तरह नहीं दिखती। जैसे कि पैकेट में आने वाले चिप्स, चॉकलेट, बिस्किट और बड़े पैमाने पर बनाए गए ब्रेड और बन वगैरह।’
वे कहते है, ‘हर समुदाय अपने स्वाद और पसंद के हिसाब से खाना तैयार करता है। इसे भी फूड प्रोसेसिंग यानी खाद्य प्रसंस्करण कहा जा सकता है। अगर हम दूध से दही बनाते हैं तो वो प्रोसेसिंग है। लेकिन अगर किसी बड़ी इंडस्ट्री में दूध से दही बनाया जाए और उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए रंग, फ्लेवर, चीनी या कॉर्न सिरप डाला जाए तो यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड होगा।’
वह कहते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में डाली जाने वाली ये चीज़ें उनकी पोषकता नहीं बढ़ातीं बल्कि उन्हें इसलिए डाला जाता है ताकि आप इन्हें खाते रहें, इनकी बिक्री होती रहे और ज्यादा मुनाफ़ा हो। ऐसे में इन्हें सिर्फ बड़े उद्योग ही तैयार कर सकते हैं।
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड को कॉस्मैटिक फूड भी कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड ऐसी सामग्री से बनाए जाते हैं जिन्हें औद्योगिक तकनीकों और प्रक्रियाओं से तैयार किया जाता है।
डब्लयूएचओ के अनुसार, अल्ट्रा प्रोसेस्ड चीजों के कुछ उदाहरण हैं-
कार्बोनेटेड कोल्ड ड्रिंक
मीठे, फैट वाले या नमकीन स्नैक्स, कैंडी
बड़े पैमाने पर तैयार ब्रेड, बिस्किट, पेस्ट्री, केक, फ्रूट योगर्ट
रेडी टू ईट मीट, चीज, पास्ता, पिज़्जा, फि़श, सॉसेज, बर्गर, हॉट डॉग
इन्स्टेंट सूप, इन्स्टेंट नूडल्स, बेबी फॉर्मूला
विशेषज्ञों के अनुसार इन सब चीजों में औद्योगिक प्रक्रिया के तहत चीनी, नमक, फैट्स (वसा) या इमल्सिफाई (दो अलग-अलग तरह के पदार्थों को मिलाना) करने वाले केमिकल और प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिन्हें हम अमूमन अपने किचन में इस्तेमाल नहीं करते।
प्रिजर्वेशन की शुरुआत
तुर्की में टमाटर सुखाते लोग। खाने पीने की कुछ चीजों से नमी निकालकर उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन में पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ। वी सुदर्शन राव बताते हैं कि जब सभ्यता की शुरुआत हुई तभी से प्रिजर्वेशन (संरक्षण) का इस्तेमाल होने लगा। इसका मुख्य काम भोजन को लंबे समय के इस्तेमाल के लिए बैक्टीरिया और फफूंद आदि से खराब होने से बचाना था।
वे बताते हैं, ‘हमारे पूर्वजों ने ये जाना कि अगर खाद्य पदार्थों से नमी को निकाल लिया जाए तो उसे प्रिज़र्व किया जा सकता है। इसलिए सबसे पहले खाद्य पदार्थों को धूप में सुखाने से शुरुआत हुई, क्योंकि उन्होंने जाना कि सूखे हुए खाद्य पदार्थों को लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है।’
हैदराबाद स्थित, इंडियन कॉउसिल फॉर मेडिकल रिसर्च में वैज्ञानिक रह चुके डॉ. वी सुदर्शन राव बताते हैं कि प्रिजर्वेशन के लिए नमक, शुगर का उपयोग होने लगा, जिन्हें आप प्रिज़र्वटिव कह सकते हैं। लेकिन अब नई तकनीक आने की वजह से प्रिजर्वेशन में कई बदलाव आए हैं।
इसी बात को समझाते हुए गुजरात के राजकोट में नगरपालिका निगम के स्वास्थ्य विभाग में डॉ. जयेश वकानी बताते हैं, ‘उदाहरण के तौर पर आप अचार लीजिए। उसमें अधिक नमक, शुगर, सिरका और सिट्रिक एसिड को इस्तेमाल किया जाता है, जो प्राकृतिक तौर पर प्रिजर्वटिव का काम काम करते हैं। अगर कृत्रिम प्रिजर्वेटिव इस्तेमाल करने होते हैं तो भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) के मानकों के अनुसार उन्हें इस्तेमाल करना होता है।’
प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल कॉस्मेटिक्स में भी
जानकार बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में होने वाले प्रिजर्वेटिव, जिनमें कई प्रकार के एंटीमाइक्रोबियल, एंटीऑक्सिडेंट, सॉर्बिक एसिड आदि शामिल हैं, उनका हर खाद्य सामग्री में इस्तेमाल नहीं हो सकता।
खाद्य पदार्थों में बैक्टीरिया को रोकने के लिए एंटीमाइक्रोबियल प्रिजर्वेटिव का उपयोग होता है। वहीं तेल में एंटीऑक्सिडेंट, जबकि सॉर्बिक एसिड प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल फफूंद से बचाने के लिए होता है।
प्रिज़र्वेटिव का इस्तेमाल केवल खाद्य सामग्रियों में ही नहीं होता, बल्कि कॉस्मेटिक्स जैसे क्रीम, शैम्पू, सनस्क्रीन में भी होता है, ताकि इन्हें लंबे समय तक उपयोग किया जा सके।
लेकिन क्या ये हानिकारक हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ। जयेश वकानी कहते हैं, ‘किसी भी पदार्थ या खाद्य सामग्री में प्रिजर्वेटिव का उपयोग सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखकर किया जाता है और जितनी मात्रा की जरूरत हो, केवल उतना होता है, क्योंकि ज्यादा इस्तेमाल का कोई फायदा नहीं होता।’
डॉ. वी सुदर्शन राव कहते हैं कि भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) खाद्य सामग्रियों में इस्तेमाल होने वाले प्रिजर्वेटिव की जाँच करता है और ये पाया गया है कि 60-70 साल तक लेने पर भी इनका शरीर को कोई नुकसान नहीं होता।
प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड
उपभोक्ताओं को जागरूक करने वाली संस्था ‘कंज़्यूमर वॉइस’ के सीईओ आशिम सान्याल कहते हैं कि खाने-पीने की चीजों को लंबे समय तक खराब होने से बचाने के अलावा टेस्ट बढ़ाने और रंग डालकर आकर्षक बनाने में भी प्रिजर्वेटिव को इस्तेमाल किया जाता है।
ये प्रिजर्वेटिव कृत्रिम होते हैं और सीमित मात्रा में ही डाले जाते हैं। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को खराब होने से बचाने के लिए जो तरीक़े अपनाए जाते हैं, उससे ये बेहद हानिकारक बन जाते हैं।
डॉक्टर आशिम सान्याल बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में प्रिजर्वेटिव के इस्तेमाल को अलग करके नहीं देखा जा सकता बल्कि इसे अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से जोडक़र देखा जाना चाहिए।
डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिजर्वटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।
भारत में प्रोसेस्ड फूड के कारोबार का सेक्टर 500 अरब डॉलर है।
आशिम सान्याल बताते हैं कि सब्जी, दाल आदि बनाना भी प्रोसेस्ड फूड कहलाता है लेकिन अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड वो होता है, जिसे टेक्निकल इनोवेशन के जरिए प्रयोगशाला में नए रूप में ढाला जाता है। इसमें शुगर, सैचुरेटेड फैट्स आदि के अलावा प्रिजर्वेटिव के मिश्रण बहुत ज़्यादा मात्रा में होते हैं।
उनके अनुसार, ‘डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिज़र्वेटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनमें प्रिज़र्वेटिव इसलिए डाले जाते हैं ताकि लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सके। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।’
आशिम सान्याल कहते हैं कि उदाहरण के तौर पर चिप्स, कोल्ड ड्रिंक या अन्य खाद्य पदार्थों की बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आदत पड़ जाती है और यही आदत डलवाने के लिए ऐसे पदार्थ डाले जाते है।
उनके अनुसार, ‘ये वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुका है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड बहुत सी बीमारियों की जड़ बन चुका है। हमने जब भी जाँच की तो पाया कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में प्रिजर्वेटिव और अन्य केमिकल की मात्रा काफी ज़्यादा होती है।’
डॉ. आशिम सान्याल कहते हैं, ‘अल्ट्रा प्रोसेसिंग में पोषक तत्व ख़त्म हो जाते हैं। इस खाने में कोई गुणवत्ता नहीं रहती। जैसे तंबाकू या सिगरेट की लत लगती है, वैसे ही ऐसे भोजन के भी एडिक्टव होने के कारण लत पड़ जाती है।’
विशेषज्ञों का कहना है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के साथ दिक्कत यह है कि हमें पता ही नहीं चलता कि इन्हे कितना ज़्यादा खाया जा रहा है।
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘खाना खाते वक्त हमारा दिमाग हमें सिग्नल देता है कि अब पेट भर गया। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को कुछ इस तरीक़े से तैयार किया जाता है कि आपको इन्हें खाने में मज़ा आए। जब आप इसे खा रहे होते हैं तो दिमाग से ऐसा सिग्नल नहीं आता कि पेट भर गया और आप इसे खाते चले जाते हैं।’
प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के नुकसान
डॉ. जयेश वकानी कहते हैं कि अगर कृत्रिम प्रिजर्वटिव का इस्तेमाल मानकों से ज़्यादा मात्रा और लंबे समय तक किया जाए तो शरीर में कैंसर भी बन सकता है।
डॉ अरुण गुप्ता भी कहते हैं कि कि कई बार खाद्य पदार्थों की शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए ऐसे प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिनसे नुक़सान हो सकता है।
वह कहते हैं, ‘इनमें प्रिज़र्वेटिव और कलरिंग एजेंट जैसे केमिकल होते हैं, जिनसे शरीर में एलर्जी हो सकती है या फिर शरीर की इम्युनिटी कमजोर हो जाती है। भले ही तुरंत पता न चले, लेकिन लंबे समय में ये ख़तरनाक साबित हो सकते हैं।’
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 125 देशों में भारत भूख के मामले में 111वें स्थान पर है और भूख से जूझ रही सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। जहां एक ओर देश कुपोषण की चुनौती झेल रहा है, वहीं मोटापे की बढ़ती समस्या का सामना भी कर रहा है। मोटापा बढ़ाने में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड भी भूमिका निभा रहे हैं।
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘कभी-कभार इन्हें खाया जा सकता है, लेकिन जब हम इनका इस्तेमाल अपने भोजन के दस फ़ीसदी से ज़्यादा करने लगते हैं, यानी कि 2000 कैलोरी में 200 कैलोरी से ज़्यादा अगर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से आ रही हों तो नुकसान की शुरुआत हो जाती है।’
वे कहते कि सबसे पहले तो वजन बढऩे लगता है, जो खुद में कई बीमारियों को आमंत्रण देता है। इससे डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, दिल और किडनी से जुड़ी बीमारियाँ और यहा तक कि कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।
डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘हालिया शोध ये भी इशारा करते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड इस्तेमाल करने से डिप्रेशन और एंग्ज़ाइटी भी हो सकती है। ऐसा क्यों है, इस पर अभी शोध चल रहे हैं।’
आमतौर पर ये देखा गया है कि हर उम्र और वर्ग के लोग अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाते हैं, लेकिन भारत के लिहाज से देखें तो बच्चों को ज़्यादा खतरा है, क्योंकि आमतौर पर बच्चों को मीठी चीजें पसंद होती हैं। वे चिप्स, कैंडी, चॉकलेट, पैक्ड जूस और कोल्ड ड्रिंक्स खाना पसंद करते हैं।
डॉक्टर अरुण गुप्ता बताते हैं कि वैसे तो इस संबंध में ज़्यादातर शोध वयस्कों पर हुए हैं, लेकिन 2017 में हुए एक शोध में पता चला था कि करीब पचास फीसदी बच्चों को अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड से नुक़सान हो रहा है और ये उन्हें मोटापे की ओर धकेल रहा है।
क्या है बचने का रास्ता?
जानकार बताते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाने की आदत से बचना चाहिए।
आशिम सान्याल बताते हैं कि अगर आप एक हफ्ते में चार बार ऐसा भोजन या खाद्य पदार्थ खाते हैं तो धीरे-धीरे इसके सेवन में कमी लाएं।
साथ ही वे कहते हैं कि लोगों को फूड लेबल के बारे में जागरूक करने की भी जरूरत है। इसके अलावा, ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियों को भी सामग्रियों के फ्रंट पर प्रमुखता से जानकारी देनी चाहिए।
उनके अनुसार, ‘हम फ्रंट ऑफ पैक न्यूट्रिशनल लेबलिंग पर जोर दे रहे हैं, ताकि लेबल में सामने की ओर ये चीजें बताई जाएं कि इसमें शुगर ज़्यादा है, नमक ज़्यादा है या फैट ज़्यादा है। इन मुख्य चीजों पर ध्यान दिया जाएगा तो 80 फ़ीसदी समस्या पर रोक लग सकेगी। अभी ये सारी जानकारियाँ लेबल के पीछे लिखी होती हैं और इतनी छोटी होती हैं कि ग्राहकों का ध्यान ही नहीं जाता।’
आशिम सान्याल उदाहरण देते है कि लातिन अमेरिकी देशों ने फ्रंट लेबलिंग शुरू की है और इससे लोगों की खाने की आदत में बदलाव आया है, क्योंकि वे जागरूक हुए हैं। वहीं इस बात पर भी बहस होती है कि अगर लेबलिंग में जानकारी दी गई तो इससे ब्रिकी पर असर पड़ेगा। इसके जवाब में आशिम सान्याल कहते है कि सिगरेट और तंबाकू पर चेतावनी डाली गई है, क्या इससे ऐसे उत्पादों की ब्रिकी बंद हो गई?
वहीं, डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि इस मामले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है।
वह कहते हैं, ‘सरकार की जि़म्मेदारी सबसे बड़ी है। लोग क्या खा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए। इसके अलावा, मीडिया, समाज और संस्थाओं का भी फज़ऱ् है कि लोगों को इस बारे में जागरूक करें। फिर लोगों की अपनी मजऱ्ी है कि क्या करना है।’
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि जिस तरह से दो साल तक के शिशुओं के लिए बेबी फूड का विज्ञापन करने पर भारत में रोक लगाई गई है, उसी तरह ज़्यादा नमक, चीनी और फ़ैट वाली सामग्रियों को लेकर भ्रामक प्रचार पर भी रोक लगनी चाहिए।
वह कहते हैं, ‘लोगों को पता चलना चाहिए कि कौन सी चीज़ हानिकारक है। हो सकता है कि फिर भी लोग खाएं, लेकिन उन्हें पता होगा कि इन चीज़ों को कम खाना चाहिए।’
डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘ऐसी नीतियों से इंडस्ट्री को भी संदेश जाता है कि भले वे प्रोसेस्ड फूड बनाएं, मुनाफ़ा कमाएं, इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन मुनाफ़ा भी कमाना और लोगों की सेहत से खिलवाड़ भी करना, ये सही नहीं है।’ (bbc.com)
घनाराम साहू आचार्य
छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोक आस्था के अनुसार श्रीराम 14 वर्ष के वनवास काल में से 12 वर्ष सरगुजा से बस्तर तक बिताए थे । श्रीराम की माता कौशल्या ही छत्तीसगढ़ याने दक्षिण कोसल के राजा भानुमंत की बेटी भानुमति थी।
श्रीराम के प्रसंग को लेकर आज स्व डॉ मन्नूलाल यदु जी का स्मरण हो रहा है जिन्होंने श्री श्याम बैस, स्व डॉ हेमू यदु प्रभृति विद्वान रामभक्तों के साथ छत्तीसगढ़ में प्रचलित सभी जनश्रुतियों को संकलित और प्रकाशित कर अविस्मरणीय कार्य किया है।
श्री संगम राजिम धाम क्षेत्र में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार श्रीराम यहां दो बार आए थे । प्रथम बार वनवास काल में लोमस ऋषि आश्रम में चौमासा बिताए थे तब माता सीता ने संगम में बालू से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था । कहा जाता है कि उसी स्थान पर शिव जी का भव्य मंदिर कुलेश्वर/कोल्हेश्वर स्थापित है । दूसरी बार अयोध्या में राजतिलक होने के बाद अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छुड़ाने आए थे । प्रचलित कहानी के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का श्याम कर्ण घोड़ा की रक्षा के लिए शत्रुघ्न को तैनात किया गया था।
घोड़ा विचरण करते हुए महानदी के तट पर पहुंचा तब यहां के राजा राजीव लोचन /राजू लोचन ने उसे पकडक़र तपस्यारत कर्दम ऋषि आश्रम में बांध दिया था । घोड़ा को आश्रम में बंधा देख शत्रुघ्न की सेना ने ऋषि आश्रम में आक्रमण कर दिया । इससे ऋषि का ध्यान टूटा और क्रोधित होकर दिव्य शक्ति से शत्रुघ्न को सेना सहित भस्म कर दिया।
शत्रुघ्न के भस्म होने की सूचना अयोध्या पहुंची तब श्रीराम आए। राजा राजीव लोचन श्रीराम का शरणागत होकर अभयदान प्राप्त कर लिया। श्रीराम कर्दम ऋषि आश्रम जाकर ऋषि को प्रसन्न किए । ऋषि प्रसन्न होकर शत्रुघ्न को सेना सहित पुनर्जीवित कर दिए । श्रीराम अयोध्या लौटने के पूर्व राजा राजीव लोचन को आदेश दिए कि शिव जी और विष्णु जी के पवित्र संगम स्थली में उनका एक मंदिर का निर्माण करे और प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन सामूहिक भोज उत्सव का आयोजन करे। जो मंदिर बनेगा वह तुम्हारे नाम पर याने ‘राजीव लोचन मंदिर’ कहलाएगा। श्रीराम के आदेशानुसार राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण किया और प्रतिवर्ष महाभोज का आयोजन होने लगा जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी वर्ण और जाति के लोग महाप्रसाद प्राप्त करने लगे । इतिहासकार डॉ रमेंद्रनाथ मिश्र यह परंपरा मराठा काल तक जारी रही और पुरी (ओडिशा) में शांति स्थापित होने के बाद वहां स्थानांतरित हुई थी ।
क्षेत्र में प्रचलित कहानी के अनुसार सिरपुर के निकट तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था जहां माता सीता को निर्वासन काल में आश्रय मिला और यहीं कुश और लव का जन्म हुआ था । कुश और लव ने यहीं अश्वमेध यज्ञ के घोड़ा को पकडक़र श्रीराम से युद्ध किया था ।
यद्यपि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता इन कहानियों को खारिज करते हैं फिर भी लोकमानस में वनवासी श्रीराम की अविस्मरणीय छवि बसी हुई है । इसी तरह माता कौशल्या के जन्म स्थली के रूप में कोसला, केसला, कोसिर सहित चंदखुरी भी लोक मान्यता में स्थापित हो चुका है और सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ राम मय है ।
हर तरफ राम नाम के लहराते झंडे और सडक़ों पर जय श्रीराम के नारे, धनुष पकड़े प्रभु श्री राम की एलईडी तस्वीरें, मुख्य रास्तों पर बड़ी-बड़ी मूर्तियां, जगमग घाटों पर बजती रामधुन और सडक़ों पर बिछता तारकोल।
इस वक्त अयोध्या में हर तरफ राम और उनके नाम पर हो रहा निर्माण दिखाई देता है। राम मंदिर की तरफ जाने वाले हर रास्ते पर काम चल रहा है। कई किलोमीटर लंबे रामपथ को एक रंग में रंग दिया गया है।
22 जनवरी को राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है, जिसके लिए अयोध्या को सजाया संवारा जा रहा है।
इस तैयारी में उत्तर प्रदेश सरकार के 26 विभाग दिन-रात लगे हुए हैं।
नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट से बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद समाप्त हुआ और राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हुआ।
इस फैसले के बाद ये अनुमान तो था कि अयोध्या में प्रॉपर्टी के दाम बढ़ेंगे लेकिन इतने बेतहाशा बढ़ेंगे ये किसी ने नहीं सोचा था।
संपत्ति के दाम में कितना उछाल
नवंबर 2018 में उत्तर प्रदेश सरकार ने फैज़ाबाद जि़ले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया था। यहां सरकार ने साल 2017 के बाद से सर्किल रेट यानी सरकारी रेट नहीं बढ़ाया है।
यह एक स्टैंडर्ड रेट होता है, जिसे जि़ला प्रशासन तय करता है। इसी आधार पर खरीद-बिक्री होती है और व्यक्ति इस रेट के आधार पर सरकार को स्टांप ड्यूटी देता है। लेकिन पिछले चार सालों में अयोध्या में संपत्ति के दामों में दस गुणा से भी अधिक बढ़ोतरी हुई है।
अयोध्या के कारोबारी और प्रॉपर्टी डीलर राजीव कुमार गुप्ता कहते हैं, ‘अयोध्या में अब संपत्ति के रेट का कोई पैमाना नहीं रह गया है, क्योंकि ज्वार भाटा जब आता है तो नदी की कोई गति नहीं नाप सकता। इस वक्त प्रॉपर्टी में ज्वार भाटा चल रहा है। कोई भी संपत्ति किस रेट बिक जाए, कोई आश्चर्य नहीं होता।’
वे कहते हैं, ‘लखनऊ-गोरखपुर हाईवे से एक रास्ता नए घाट की तरफ जाता है, जहां से राम मंदिर पास में है। यहां पर 5 हजार वर्ग फीट की एक कमर्शियल प्रॉपर्टी की कीमत 2019 में 4500 रुपये वर्ग फीट यानी 2 करोड़ 25 लाख आंकी जा रही थी, 2020 में यह बढक़र 3 करोड़ और आज वह व्यक्ति उसे पांच करोड़ रुपये में भी बेचने को तैयार नहीं है।’
अयोध्या में रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह कहते हैं, ‘राम मंदिर के आसपास के इलाके को प्राधिकरण ने धार्मिक क्षेत्र घोषित किया है। यहां चार साल पहले जो जगह 2 हज़ार रुपये वर्ग फीट थी अब वह 15 हजार वर्ग फीट में भी नहीं मिल रही है।’
न सिर्फ राम मंदिर के आस पास बल्कि पूरे अयोध्या और उसके आस-पास के जिलों में भी संपत्ति के दाम तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
अमित सिंह कहते हैं, ‘मंदिर के 15-20 किलोमीटर की रेडियस में जो किसान खेती करते हैं, पहले वो बीघे में बात करते थे, कि हमारे पास इतना बीघा खेत है, फिर उन्होंने बोलना शुरू किया कि हमारे पास इतना बिस्वा (1361 वर्ग फीट) खेत है, फिर कहा कि हमारे पास इतनी वर्ग फीट जगह है। उन्होंने पिछले तीन-चार सालों में मानक ही बदल दिए हैं।’
वे कहते हैं, ‘दस साल में जो प्रॉपर्टी तीन सौ रुपये वर्ग फीट थी, आज उसी जगह की कीमत कम से कम पांच हजार रुपये वर्ग फीट है। दस गुणा से भी ज्यादा रेट बढ़ गए हैं।’
अब बदल गई है अयोध्या
प्रदेश की धार्मिक नगरी अयोध्या में विकास के लिए अयोध्या विकास प्राधिकरण ने जुलाई 2022 में एक मास्टर प्लान बनाया- ‘अयोध्या महायोजना 2031।’
इस मास्टर प्लान में अयोध्या विकास प्राधिकरण ने जिले की फिलहाल 133 वर्ग किलोमीटर ज़मीन को शामिल किया है। इसके मुताबिक ही अब ज़मीन की खरीद बिक्री हो सकती है।
रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह कहते हैं, ‘अगर हम रियल एस्टेट के तौर पर बात करें तो अयोध्या पहले दूसरे शहरों की तरह बहुत अनऑर्गेनाइज थी, लोग कहीं भी बिना नक्शा पास करवाकर घर बना लेते थे, लेकिन अब अयोध्या विकास प्राधिकरण के मास्टर प्लान के बाद ऐसा नहीं किया जा सकता। अब सब उसके हिसाब से करना होगा।’
अयोध्या के मास्टर प्लान को समझाते हुए अमित सिंह कहते हैं, ‘मास्टर प्लान में प्राधिकरण ने अलग-अलग रंगों से जमीन को चिन्हित किया है। राम मंदिर और उसके आस-पास के इलाके को धार्मिक स्थल के रूप में रखा गया है, इसके अलावा अब साफ कर दिया गया है कि अयोध्या का कौन सा हिस्सा आवासीय, व्यावसायिक और औद्योगिक होगा।’
वे कहते हैं, ‘जमीन के नज़रिए से अयोध्या एक तरफ तो नदी से बंधा हुआ है और दूसरी तरफ एक बड़ा हिस्सा केंट का है। इसके अलावा सरकार ने मंदिर के पास करीब तीन हजार एकड़ जमीन को ग्रीन बेल्ट घोषित किया है, जहां बिना इजाजत के ज़मीन में कोई बदअगर कोई व्यक्ति अयोध्या में जमीन खरीदना चाहता है, तो उसे इसी मास्टर प्लान के हिसाब से ही खरीद-बिक्री करनी होगी।
क्यों बढ़ रहे हैं संपत्ति के दाम
अयोध्या में जैसे ही राम जन्मभूमि पर राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ, वैसे ही बड़ी-बड़ी सरकारी योजनाएं अयोध्या में आने लगीं।
शहर के कारोबारी और व्यापार अधिकार मंच के संयोजक सुशील जायसवाल कहते हैं, ‘मंदिर का निर्माण शुरू होते ही सरकार ने रोड, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, अस्पताल, चौड़ी सडक़ों से लेकर सीवर लाइन तक तेजी से काम करना शुरू कर दिया।’
‘जिसके बाद लोगों का ध्यान एकदम से अयोध्या की तरफ गया और यहां जमीनों के दामों में अप्रत्याशित उछाल आया।’
शहर में होते तेज़ विकास ने जमीनों के दाम बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
इस वक्त अयोध्या में उत्तर प्रदेश सरकार के 26 विभाग करीब 30 हजार करोड़ के 187 प्रोजेक्ट्स को पूरा करने में लगे हुए हैं।
डिपार्टमेंट ऑफ अर्बन डेवलपमेंट फिलहाल सबसे ज्यादा 54, पब्लिक वक्र्स डिपार्टमेंट 35 और टूरिज्म विभाग के 24 प्रोजेक्ट्स अयोध्या में चल रहे हैं।
इसके अलावा अयोध्या में बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां भी निवेश कर रही हैं।
(बाकी पेज 8 पर)
रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित कहते हैं, ‘आवास विकास ने अयोध्या में करीब 1900 एकड़ ज़मीन मुआवज़ा देकर किसानों से ली है। इसके अलावा मुंबई से लोढ़ा ग्रुप, ताज ग्रुप, हैदराबाद ग्रुप, तिरुपति बालाजी ग्रुप होटलों और टाउनशिप में निवेश कर रहा है।’
मंदिर से करीब सात किलोमीटर मुंबई के लोढ़ा ग्रुप ने 25 एकड़ ज़मीन खरीदी है, जहां वह प्लॉटिंग कर रहा है।
इस टाउनशिप में एक वर्ग फीट की कीमत 15700 रुपये है। कंपनी शुरुआती प्लाट 1270 वर्ग फीट का ऑफर कर रही है, जिसकी कीमत करीब 1 करोड़ 80 लाख रुपये है।
न सिर्फ बड़े-बड़े रियल एस्टेट कारोबारी बल्कि धर्माचार्य भी अयोध्या में अपनी मौजूदगी चाहते हैं। पिछले कुछ समय में कई मठों ने यहां जगह ली है। इन्हीं में से एक है दक्षिण भारत का उत्तराधी मठ।
उत्तराधी मठ माधवा संप्रदाय से जुड़ा हुआ है। राम मंदिर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर उत्तराधी मठ ने कुछ समय पहले करीब 13 हज़ार वर्ग फीट जगह खरीदी है, जहां दिसंबर 2023 में काम शुरू हुआ। मठ के लिए इस जमीन पर कंस्ट्रक्शन का काम करने मुंबई के डेवलपर चिंतन ठक्कर का कहना है कि चार मंजिल का श्रद्धालुओं के लिए यात्री निवास बनाया जा रहा है, जिसमें मंदिर भी होगा और यहां यात्री निशुल्क रुक पाएंगे।
अयोध्या में कितनी रजिस्ट्री हुई
अयोध्या तहसील में पिछले तीस सालों से काम करने वाले दस्तावेज़ लेखक कृष्ण कुमार गुप्ता बताते हैं कि साल 2017 से सर्किल रेट नहीं बढ़े हैं।
वे कहते हैं कि राम मंदिर के आसपास के इलाके में संपत्ति का सर्किल रेट 1000 रुपये वर्ग फीट से लेकर 3 हजार रुपये वर्ग फीट तक है।
लेकिन इस संपत्ति की मार्केट वैल्यू, सर्किल रेट से पांच से दस गुणा ज्यादा है।
अयोध्या जि़ले के स्टांप एवं रजिस्ट्रेशन विभाग के मुताबिक राम मंदिर पर फैसला आने से पहले यानी 1 अप्रैल 2017 से 31 मार्च 2018 के बीच जि़ले में 13 हज़ार 542 रजिस्ट्री हुईं। यह संख्या साल 2021 में बढक़र 22 हज़ार 478, साल 2022 में 29 हज़ार हो गई है।
स्टांप एवं रजिस्ट्रेशन विभाग का यह डेटा बताता है कि कैसे पिछले पांच साल में अयोध्या जि़ले में संपत्ति की रजिस्ट्री में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा का उछाल आया है।
स्थानीय लोग नहीं खरीद पा रहे हैं प्रॉपर्टी
अयोध्या में काम करने वाले प्रॉपर्टी डीलर्स की मानें, तो शहर में 100 से ज्यादा बड़ी कंपनियों ने डेरा डाला हुआ है, जो खासकर होटल उद्योग और रियल एस्टेट से जुड़ी हुई हैं।
स्थानीय प्रॉपर्टी डीलर राजीव गुप्ता कहते हैं कि ये बड़ी कंपनियां किसी भी दाम में संपत्ति खरीद रही हैं और हर रो़ नए कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, जिसके चलते उनके हाथ में भी लैंड बैंक नहीं बचा है।
हाल ही में राम मंदिर निर्माण के चलते राज्य सरकार ने अयोध्या में सडक़ चौड़ीकरण का काम किया है, जिसके चलते सैकड़ों लोगों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचा है।
अयोध्या के रहने वाले अनुज सागर भी उन्हीं में से एक हैं। वे कहते हैं, ‘मेरी दुकान पहले काफी आगे तक थी, ओवर ब्रिज के कारण सरकार ने दुकान तोड़ दी और अब यह काफी छोटी हो गई है, जिसमें काम चलाना हमारे लिए बहुत मुश्किल था। हमने दूसरी जगह दुकान लेने की कोशिश की लेकिन नहीं मिली।’
वे कहते हैं, ‘बाहर से लोगों ने आकर यहां दाम बढ़ा दिए हैं। जिस दुकान का दाम 50 लाख रुपये था, अब वह दो करोड़ रुपये में भी नहीं मिल रही है। आखिर में हमने अपनी छोटी दुकान में संतुष्टि कर ली।’
ऐसी ही परेशानी का जिक्र व्यापार अधिकार मंच के संयोजक सुशील जायसवाल करते हैं। अपने दोस्त का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ‘शहरी क्षेत्र में पहले से जो छोटी बड़ी इंडस्ट्री चल रही हैं, उन्हें अब शिफ्ट करना पड़ रहा है। मेरे एक दोस्त की यहां सबसे पुरानी बिस्किट फैक्ट्री है। उन्हें सवा लाख वर्ग फीट जगह चाहिए। वो चार पांच महीने से तलाश कर रहे हैं, लेकिन नहीं मिल रही।’
वे कहते हैं, ‘बाहरी क्षेत्र में पहले एक बिस्वा (1361 वर्ग फीट) की कीमत एक लाख रुपये थी, अब वह बढक़र चार से आठ लाख रुपये बिस्वा हो गई है।’
संपत्ति बेचने का दुख
अयोध्या में जमीनों के बढ़ते दाम के बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अपनी संपत्ति बेचने का अब अफसोस है।
अयोध्या की रहने वाली काजल गुप्ता के पास राम मंदिर से छह किलोमीटर दूर 2 हज़ार वर्ग फीट की एक कमर्शियल प्रॉपर्टी थी, जिसे उन्होंने साल 2021 में 65 लाख में बेच दिया था।
वे बताती हैं, ‘हम लोगों ने सोचा नहीं था कि राम मंदिर बनने के बाद प्रॉपर्टी के दामों में इतना उछाल आएगा। हमने उस समय अपनी ज़मीन मार्केट रेट पर बेची थी, लेकिन 2 सालों में ही उसकी कीमत डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। आज हमें उस बात का पछतावा होता है कि हमें थोड़ा इंतजार करना चाहिए था।’
ये कहानी अयोध्या में सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है। रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह बताते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से छह महीने पहले हमारे एक जानकार व्यक्ति ने अपना प्लाट बेचकर लखनऊ में घर लिया। उस समय उन्हें उस प्लाट की कीमत करीब 80 लाख रुपये मिली।’
‘आज उसकी कीमत तीन करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। उन्होंने मुझे फोन कर कहा कि मुझसे बड़ी गलती हो गई, अब वो उस संपत्ति को खरीदने की स्थिति में नहीं हैं।’
फैसला आने के बाद संपत्ति के दामों में इतना उछाल आएगा, इसका अंदाजा प्रॉपर्टी का काम करने वाले लोगों ने भी नहीं लगाया था।
प्रॉपर्टी डीलर राजीव गुप्ता कहते हैं, ‘राम मंदिर पर फैसला आने से दस दिन पहले हमने एक छोटी सी कमर्शियल प्रॉपर्टी की डील 34 लाख में करवाई थी। यह प्रॉपर्टी राम मंदिर से 150 मीटर आगे है। उसी प्रॉपर्टी को हाल ही में फिर से 2 करोड़ 19 लाख रुपये में बेचा गया है।’
फिलहाल अयोध्या में स्थानीय प्रशासन के मुताबिक हर रोज करीब सात हजार लोग अस्थाई राम मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं, जो आने वाले समय में कई लाख हो सकते हैं।
ऐसे में धार्मिक नगरी अयोध्या में संपत्ति के दाम कहां तक पहुंच सकते हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। (bbc.com/hindi)
-इमरान कुरैशी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त पांच दक्षिणी राज्यों के मंदिरों में पूजा-पाठ और बैठकें कर रहे हैं, जिसे लेकर कई सवाल पूछे जा रहे हैं।
सबसे बड़ा सवाल इसमें यह है कि जब पूरा देश अयोध्या में राम मंदिर और वहां होने वाली प्राण प्रतिष्ठा की तरफ देख रहा है तो ऐसे समय में प्रधानमंत्री दक्षिण भारत में क्या कर रहे हैं?
प्रधानमंत्री ने दो हफ्ते के अंदर दो बार केरल का दौरा किया है। इस दौरान उन्होंने मंदिरों में पूजा-पाठ किया। इसके अलावा उन्होंने महिलाओं की सबसे बड़ी सभा में से एक को संबोधित किया और पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह समझाया कि वे केंद्रीय योजनाओं का लाभ लेने वाले लोगों के बीच ‘मोदी गारंटी’ का प्रचार किस तरह करें और उसे लोकप्रिय कैसे बनाएं।
उन्होंने केरल दौरे में गुरुवयूर और त्रिप्रयार श्री रामास्वामी मंदिर और आंध्र प्रदेश दौरे के समय लेपाक्षी मंदिर में पूजा-पाठ किया।
लेपाक्षी मंदिर को लेकर मान्यता है कि जब पौराणिक पक्षी जटायु पर रावण ने हमला किया था, तो वह यहां गिर गया था।
वीकेंड पर पीएम मोदी ने प्रभु श्री राम के पूर्वज माने जाने वाले श्री रंगनाथस्वामी के श्रीरंगम मंदिर में पूजा-अर्चना की। इसके बाद वे धनुषकोडी के श्री कोथंड्रामा स्वामी मंदिर और प्रभु श्रीराम के पैरों के निशान को समर्पित रामनाथस्वामी मंदिर और रामर पथम मंदिर में पूजा करेंगे।
इसके बाद वे अरिचल मुनाई जाएंगे, पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जहां राम सेतु बनाया गया था। पीएम मोदी उस जगह पर डुबकी भी लगाएंगे, जहां बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर का मिलन होता है।
सोमवार, 22 जनवरी को अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से 11 दिन पहले से पीएम मोदी उपवास रख रहे हैं।
उपवास रखने के बाद से पीएम मोदी जो कर रहे हैं, उस पर उनकी पार्टी, विपक्षी नेता और राजनीतिक पंडित बहुत बारीक नजर रख रहे हैं। राजनीतिक हलकों में इसे अलग-अलग नजरिए से देखा जा रहा है।
पीएम मोदी ने पहले ही 2024 का लोकसभा अभियान शुरू कर दिया है। जानकारों की राय है कि बीजेपी उत्तरी राज्यों में चुनाव परिणाम को लेकर आशंकित है। पार्टी के सामने कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें और तेलंगाना में चार सीटें बरकरार रखने की चुनौती है।
बीजेपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना की 17 सीटों में से चार पर जीत हासिल की थी। पार्टी, कर्नाटक और तेलंगाना के अलावा केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में अपना आधार मजबूत करना चाहती है।
बात अगर आंध्र प्रदेश की हो, तो यहां बीजेपी के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में एक प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाली बीजेपी को राज्य के दोनों मुख्य क्षेत्रीय दल अपने पक्ष में रखने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
पिछले दशक के अनुभव के आधार पर मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस सरकार और न ही उसके कट्टर प्रतिद्वंद्वी टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू, बीजेपी के सामने कोई मुश्किल खड़ी कर रहे हैं।
विंध्याचल पहाड़ पार करने की चुनौती
जिस तरीके से प्रधानमंत्री, केरल में अपने पसंदीदा उम्मीदवार और अभिनेता सुरेश गोपी की बेटी की शादी में शामिल हुए और प्रभु श्रीराम से जुड़े मंदिरों में पूजा-पाठ किया, उसे लेकर राजनीतिक विश्लेषक इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि बीजेपी दो बार की सत्ता विरोधी लहर को भेदने की कोशिश कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘हिंदी भाषी क्षेत्र में अयोध्या को लेकर जिस तरीके की लहर पैदा करने की उम्मीद वे लोग कर रहे हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि पार्टी और प्रधानमंत्री को यह अहसास हो गया है कि भावनात्मक रूप से विंध्याचल काफी ऊंचा पहाड़ है जिसे पार करना आसान नहीं हैं।’
कर्नाटक जैसे राज्य में बीजेपी, लिंगायतों, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अनुसूचित जाति के एक वर्ग को अपने साथ लेकर आगे बढऩे में सक्षम रही है।
बीजेपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना में चार सीटें जीतकर सभी को हैरान कर दिया था, लेकिन मई में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस के हाथों अपनी जमीन गंवा दी। इस चुनाव में बीजेपी को भारत राष्ट्र समिति (तेलंगाना राष्ट्र समिति) का मुख्य प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा था।
चलेगी ‘मोदी गारंटी’ ?
केरल के राजनीतिक विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘यह बहुत साफ है कि वे चाहते हैं कि दक्षिण भारत भी मोदी मैजिक और मोदी गारंटी से आकर्षित हो।’
‘केरल जैसे राज्य में एक सीट भी अगर बीजेपी को मिलती है, तो इसका मतलब है कि भाजपा अब भारत के इस हिस्से में अछूत नहीं है। यह एक हताशा से भरा कदम है, क्योंकि सबरीमाला जैसे मामले को लेकर भी पार्टी का लोगों के बीच कोई प्रभाव नहीं पड़ा।’ लेकिन चेन्नई में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुरेश कुमार, दक्षिणी राज्यों पर पीएम मोदी के फोकस को अलग नजरिए से देखते हैं।
वे कहते हैं, ‘उत्तर में यह साफ है कि इससे फायदा हुआ है। उन्हें राम मंदिर निर्माण के अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं है, लेकिन दक्षिण में कर्नाटक को छोडक़र राम मंदिर आंदोलन और दक्षिण के बीच कोई संबंध नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु जैसे अन्य राज्यों में इसे लेकर लोगों का बहुत कम जुड़ाव है।’
दक्षिण भारत में प्रभु श्रीराम को कैसे देखा जाता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस अभियान के कई अन्य पहलू भी हैं। इनमें सबसे अहम यह है कि प्रभु श्रीराम को उत्तरी राज्यों की तुलना में दक्षिण राज्यों में किस तरह देखा जाता है।
राजनीतिक विश्लेषक नागराज गली कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि भगवान राम, दक्षिण में भी पूजनीय हैं, लेकिन उन्हें देखने के तरीके में फर्क है।’
वे कहते हैं, ‘दक्षिण राज्यों में भगवान राम अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए जाने जाते हैं।’
नागराज, गोलकुंडा में कुतुब शाही राजवंश के अबुल हसन कुतुब शाह उर्फ ताना शाह की कहानी सुनाते हैं।
उनके एक रेवेन्यू इंस्पेक्टर भद्राचल रामदासु को 1662 ई। में भगवान राम के लिए एक मंदिर बनाने के लिए लोगों से धन इक_ा करने के लिए जेल में डाल दिया गया था।
कुछ सालों के बाद रामदासु को ताना शाह ने जेल से रिहा कर दिया, क्योंकि भगवान राम ने सपने में आकर उनसे कहा था कि रामदासु ने उनके (भगवान राम) के प्रति आस्था के कारण सार्वजनिक तौर पर धन जमा किया था। इस सपने के बाद ताना शाह ने रामदासु को तुरंत रिहा कर दिया और भद्राचलम राम मंदिर बनाने में उनकी मदद की।
नागराज कहते हैं, ‘तिरुपति के बालाजी मंदिर के मामले में भी मुस्लिम समुदाय के साथ ऐसा ही जुड़ाव है। उनकी तीसरी पत्नी एक मुस्लिम महिला थी।’ (बाकी पेज 8 पर)
बीजेपी का क्या है लक्ष्य?
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जातीय पहचान, धार्मिक पहचान को चैलेंज कर रही है।
नागराज कहते हैं, ‘यही कारण है कि भाजपा के लिए दक्षिण में बड़ी सफलता हासिल करना मुश्किल होगा, हालांकि हम इस संभावना से इनकार नहीं कर सकते कि इस बार तेलंगाना में भाजपा को फायदा होगा।’
वे कहते हैं, ‘मुकाबला सबसे ज्यादा कांग्रेस और भाजपा के बीच होने की संभावना है क्योंकि विधानसभा चुनावों में हार के बाद बीआरएस की स्थिति कमजोर हो रही है।’
सुरेश कुमार कहते हैं, ‘उनका लक्ष्य आगामी लोकसभा चुनाव नहीं हैं। उनकी नजर 2026 के विधानसभा चुनाव पर है, लेकिन हाल के हफ्ते में डीएमके ने जो कदम बढ़ाएं हैं उससे चीजें बदल गई हैं।’
वे कहते हैं, ‘अब वह ये कह रही है कि वो हिंदुओं और भगवान राम की पूजा के खिलाफ नहीं है। भाजपा का मकसद एडप्पादी पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली एआईएडीएमके के सपोर्ट बेस पर कब्जा करना है, जो राज्य में अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर पा रहे हैं।’ उनका कहना है, ‘अहम पहलू यह है कि भाजपा को टीटीवी दिनाकरन के साथ भी गठबंधन करने में कोई झिझक नहीं है, जो प्रवर्तन निदेशालय के मामलों का सामना कर रहे हैं।’
दलित इंटेलक्चुअल कलेक्टिव, चेन्नई के संयोजक प्रोफ़ेसर सी। लक्ष्मणन कहते हैं, ‘उनको (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) इस बात का भरोसा नहीं है कि अकेले यूपी चुनाव में बीजेपी को बहुत ज्यादा बढ़त बनाने में मदद करेगा। अयोध्या में राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भी बीजेपी और आरएसएस को और ज्यादा समर्थन की जरूरत पड़ेगी क्योंकि इस बार उन्हें एकजुट विपक्ष का सामना करना होगा। पिछले दो चुनावों में उनका इस तरह के विपक्ष से सामना नहीं हुआ था। प्रधानमंत्री धार्मिक आधार पर लोगों की गोलबंदी की पूरी कोशिश करेंगे।’
मोदी फैक्टर
पिछले दो हफ्तों में प्रधानमंत्री के केरल दौरा का फोकस त्रिशूर पर था। राजनीतिक विश्लेषक राधाकृष्णन कहते हैं, ‘यह एक बहुत ही योजनाबद्ध अभियान है। त्रिशूर (लोकसभा क्षेत्र) ईसाई समुदाय का गढ़ है। यहां पर भगवान राम का नाम लेने की जरूरत नहीं है। यह मोदी फैक्टर है, जो सोने पर सुहागे का काम करेगा।’
वे कहते हैं, ‘मोदी फैक्टर के जरिए अतिरिक्त धक्का देने की कोशिश की जा रही है। त्रिशूर में बीजेपी के लिए फायदा यह है कि इस्लामोफोबिक अभियान के कारण ईसाई समुदाय बंटा हुआ है। दूसरी तरफ हाल के सालों में मुसलमानों के समर्थन के कारण सीपीएम तेजी से बढ़ी है। बेशक हिंदू सीपीएम का समर्थन करते हैं। हालांकि भाजपा की सफलता से केरल में राजनीतिक समीकरण नहीं बदलेंगे।’
कर्नाटक में 2019 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को महज एक सीट पर समेट दिया और अपने चरम पर पहुंच गई। पार्टी एक बार फिर मोदी की अपील पर निर्भर रहेगी लेकिन डॉ. शास्त्री के अनुसार सीटों की मात्रा कुछ कारकों पर निर्भर करेगी।
वे कहते हैं कि इसके लिए चार कारण अहम हैं। वे बताते हैं, ‘यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस अपनी गारंटी पूरा किए जाने को कितनी अच्छी तरह से लोगों तक पहुंचा पाती है। महिला मतदाताओं की धारणा, मुफ्त बस यात्रा और परिवार की महिला मुखिया को पैसे मिलने से जुड़ी हुई है।’ उनका कहना हैं, ‘यह जरूरी है कि कांग्रेस कैसे एकजुट होकर प्रदर्शन करती है और भाजपा कैसे अपने आंतरिक विरोधाभासों को दूर करती है और क्या मोदी फैक्टर भाजपा की आंतरिक कलह को दूर कर सकता है।’
डॉ. शास्त्री सीएसडीएस-लोकनीति के साल 2014 लोकसभा चुनाव के अध्ययन का जिक्र करते हैं, जो विधानसभा चुनाव के एक साल बाद हुआ था।
वे कहते हैं, ‘हमने लोगों से पूछा कि वे सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली सरकार के बारे में क्या महसूस करते हैं? 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है। कई राज्यों में बीजेपी को वोट देने वालों में से कई अधिक प्रतिशत लोगों ने कहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो वे बीजेपी को वोट नहीं करते।’
उन्होंने कहा, ‘कर्नाटक में भाजपा को वोट देने वाले 10 में से 6 लोगों ने कहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो वे पार्टी को लेकर अपनी पसंद बदल देते।’
इस बार फिर विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव होना है, जिसे कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीता है। क्या इस बार चीजें बदलेंगी। यह भी एक बड़ा सवाल है। (bbc.com/hindi)
-तारन प्रकाश सिन्हा
करुणा सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी, जन अनुरागी, प्रकट भये श्रीकंता॥
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट चंदखुरी में माता कौशल्या मंदिर के अलावा और भी बहुत कुछ अद्भुत है, जिसकी चर्चा कभी कभार ही होती है। एक है फुटहा मंदिर। यानी टूटा-फूटा। खंडहर। अब भला नये जमाने के लोगों को इसमें रुचि क्योंकर होनी चाहिए! लेकिन जरा रुकिए, खंडहरों की खामोशियों को सुनिए, वे बोलती हैं। कथाएं सुनाती हैं।
तो चंदखुरी गांव के खूब भीतर की ओर वह फुटहा मंदिर है। बस्ती तो उसे निगल ही जाती, गर पुरातत्व के जानकारों ने वहां लक्ष्मण-रेखा न खींच रखी होती। बस्ती की बसाहट में गुम होता-होता बच रह गया, यह बताने के लिए कि जब तुलसीदास जी का रामचरित मानस नहीं था, तब भी छत्तीसगढ़ के जन-जन में राम बसा करते थे।
पुरातत्व के जानकार बताते हैं कि फुटहा मंदिर आठवीं शताब्दी का है, और तुलसीदास जी को तो यही कोई 500 बरस हुए। फुटहा मंदिर में राम कथा के प्रसंग उत्कीर्ण हैं। अर्थ यह हुआ कि तब लोग न केवल राम को जानते थे, बल्कि रामकथा भी जानते थे।
राम के नाम का चमत्कार यह कि वह एक बार उच्चारित होकर हजारों-हजार बार प्रतिध्वनित होता है। एक बार लिखा जाकर हजारों-हजार बार पढ़ा जाता है। एक बार पढ़ा जाकर हजारों-हजार बार मन के भीतर हिलोरें मारता है। उच्चारित और उद्घोषित होने के बाद राम का नाम सर्वव्याप्त हो जाता है। सुनने और पढऩे वालों के जीवन में चंदन और पानी हो जाता है।
तुलसीदास जी पहले वाल्मीकि ने रामायण संस्कृत में लिखी। राम का नाम रामायण में भला कहां समाता? उसने छलक छलक कर भाषाओं को पूरित किया। संस्कृत से उद्गमित होकर संस्कृति में प्रवाहित होने लगा। राम अयोध्या के राजा बन गये, लेकिन लोक ने उन्हें अपने निकट ही, वनों में बसाए रखा, अयोध्या लौटने न दिया।
राजा राम से ज्यादा वनवासी राम की छवि लोक में बसी रही। शबरी के जूठे बेरों का बड़े प्रेम से भोग लगाते राम, केंवट के आगे पार उतार देने का अनुनय करते राम, वनवासियों को हृदय से लगाते, आलिंगन करते राम।
डॉ. आर.के. पालीवाल
आज़ादी के बाद जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों में जन के प्रति दुष्प्रवृत्तियां निरंतर बढ़ी हैं। जन प्रतिनिधि जन सेवकों को अपना व्यक्तिगत गुलाम समझने लगे हैं और चाहते हैं कि नौकरशाही उनके इशारों पर नाचते हुए नियम कानून को धता बताकर वही काम करे जो वे चाहते हैं। दूसरी तरफ जन सेवक जनता को अपना गुलाम समझने लगे हैं और चाहते हैं कि जनता उनके हर आदेश को ईश्वर का आदेश समझकर चुपचाप अनुसरण करे।मध्य प्रदेश में हाल की दो घटनाओं ने इस मुद्दे पर मीडिया और लोगों का ध्यान खींचा है। पहली घटना में ड्राइवर हड़ताल के दौरान एक जिला कलेक्टर द्वारा आयोजित बैठक में सरेआम एक ड्राइवर को उसकी औकात बताने का वीडियो सामने आया था। इस कलेक्टर को सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुए तुरंत प्रभाव से जिले से हटा दिया था। इसके बावजूद नौकरशाही पर कोई असर नहीं हुआ और इस घटना के कुछ दिन बाद एक तहसीलदार एक किसान को चूजा कहती हुई दिखाई दी ।तहसीलदार और कलेक्टर क्रमश: तहसील और जिले में राज्य सरकार के प्रमुख प्रतिनिधि और शासन के प्रतीक होते हैं। जब आमजन के प्रति उनके व्यवहार इस तरह के होंगे तब उनके मातहत काम करने वाले जूनियर अफसर और कर्मचारी भी जनता से इसी तरह की बदसलूकी करते हैं।
गांव गांव में पटवारियों द्वारा किसानों और गरीबी रेखा से नीचे आने वाले नागरिकों के उत्पीडऩ और दुर्व्यवहार की शिकायतें भी आम हैं लेकिन वे मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाती क्योंकि अधिकांश पीडि़त ग्रामीण इन घटनाओं के वीडियो नहीं बना पाते और उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल नहीं कर पाते। इसी तरह ग्राम पंचायत के सचिवों की मनमानी की भी हर गांव में अनंत कहानियां सुनने को मिलती हैं। थानों और पुलिस एवम आर टी ओ आदि की चेकपोस्ट पर भी जनता को आए दिन ऐसी ही बदसलूकी और बदतमीजी का सामना करना पड़ता है। आम जनता से सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का अच्छा व्यवहार अपवाद सरीखा हो गया है।विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के प्रतिनिधियों, परिजनों और ओ एस डी आदि से यही अधिकारी और कर्मचारी बहुत इज्जत से पेश आते हैं और मंत्रियों के सामने तो दंडवत प्रणाम की मुद्रा में रहते हैं लेकिन जनता के साथ तरह तरह से दुर्व्यवहार करते हैं।
जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों का दुर्व्यवहार भ्रष्टाचार की अविरल गंगा के कारण भी बढ़ा है। इस मैली गंगा में ऊपर से नीचे तक काफी बडी संख्या में जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों के नग्न स्नान के कारण अधिकारियों और कर्मचारियों को विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही का कोई भय नहीं रहा क्योंकि उन्हें विश्वास है कि घूस और रसूख के दोहरे बल से वे जस के तस रहेंगे। हाल ही में मध्य प्रदेश के वन विभाग के एक जूनियर अधिकारी का भी एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वह अपनी घूसखोरी को सरेआम जायज ठहराते हुए कह रहा था कि वह अपनी पोस्टिंग के लिए मंत्री तक घूस देकर आया है इसलिए कोई उसका बाल बांका नहीं कर सकता। घूस देकर पोस्टिंग या मंत्री और मुख्यमंत्री की गुलामी की गारंटी देकर मलाईदार माने जाने वाले पदों पर नियुक्तियां हमारे समय का ऐसा कड़वा सच है जिसे कोई ईमानदार नागरिक नकार नहीं सकता। जो व्यक्ति शीर्ष पर बैठे आकाओं को घूस देकर या उनके उल्टे सीधे कामों को पूरा करने की गारंटी देकर किसी जिले, तहसील, थाने या पंचायत की कमान संभालेगा वह दी गई घूस की तुलना में कई गुना ज्यादा घूसखोरी करता है। ऐसे अधिकारी और कर्मचारी ज्यादा घूसखोरी करने के लिए भी आम जनता से बदसलूकी करते हैं क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी छोटी मोटी शिकायतों को ऊपर वाले ठंडे बस्ते में डाल देंगे। दो चार अफसरों के ट्रांसफर या सस्पेंड होने से हालात सुधरने की संभावना नहीं है। जब तक संविधान और कानून का राज नहीं होगा तब तक जमीनी स्थितियां बद से बदतर होती जाएंगी।
कश्यप किशोर मिश्र
सन उन्यासी की रामनवमी थी, असवनपार के इदरीश मियाँ के इक्के से, हम दोहरीघाट जा रहे थे, पटना चौराहे से आगे सरयू का पुल शुरू होता था, पुल के बीच पहुँच इदरीश मियाँ नें इक्का रोक दिया और अपनें कुर्ते से दो तीन सिक्के निकाले, एक दो पैसे का सिक्का हाथ में ले, सरजू मईया को देखते आँखें मूँद मन्नत माँगते कहा ‘हे रामजी, हमके हज करवा दो!’ और सिक्का सरजू मईया में उछाल दिया।
फिर एक सिक्का, एक पैसे का, मुझे देते हुए कहा, बाबू लो तूहहू चढ़ा दो, मेरे लिए वह एक पैसे का सिक्का, एक चॉकलेट था, जिसे पानी में मै खुद तो कभी नहीं फेंकता।
मैंने इक्के पर बैठे, अपनें बाबा की तरफ देखा, बाबा के चेहरे पर असमंजस के भाव थे, अर्थात उनकी निगाहों में मुझे सहमति नहीं दिखाई दी, सहमति नहीं अर्थात वर्जना ! हमनें बचपन से यही सीखा था, बाबा की बरज रही भाव मुद्रा से मैं एक पल को ठिठक गया, एक कारण हरेक सिक्के से जुड़ी हमारी चॉकलेट भी यकीनन रही होगी ।
बाबा नें पूछा ‘इसको सिक्का फेंकने को क्यों दे रहे हो, इदरीश ?’ इदरीश मियाँ नें कहा ‘मनेजर साहब, लईकन की माँगी मुराद पूरी हो जाती है, मन के सच्चे होते हैं, न ! हमारे मन में तो पाप भरा होता है।’ उस लडक़पन में भी, मेरा मन भींग गया, मैंने दुबारा बाबा की तरफ देखा भी नहीं और ‘हे सरजू मईया, हे राम जी बाबा को हज करवा दो’ कहते सिक्का उछाल दिया ।
फिर मैंने पाकिट टटोली, गाँव से चलते विदाई में खूब सारे सिक्के मिले थे, उनमें से एक सिक्का निकाला और ‘ई हमारी तरफ से है’‘कहते उसे भी सरयू में उछाल दिया । मैंने चोर नजरों से बाबा को देखा ‘बाबा के चेहरे पर खिलखिलाहट नाच रही थी।’
करीब दो बरस बाद, हम गाँव लौटे। सडक़ पर लेनें गगहा में केवल की बैलगाड़ी आई हुई थी, राह में ईदरीश मियाँ की चर्चा चली, केवल नें कहा ‘ऊ तो साल भर हुआ मर गए, घरवा भी बिला गया।’
बाबा नें पूछा ‘हज गए की, नहीं?’
केवल नें भारी मन से बताया ‘कहाँ कर पाए, रिरिक रिरिक के मर गए, रहा होगा कोई पाप, जो जनम भर की उनकी साध, साध ही रही।’
मैंने देखा, बाबा सहित मेरे पूरे परिवार की कोरे गीली थीं । यह याद करते हमेशा ही मेरा मन भी भींग जाता है, जी करता है, वो पल फिर लौट आए और अपनें पाकिट के सारे सिक्के सरजू मईया में उछाल दूँ और पूरे मन से, पूरी साध से कहूँ ‘रामजी, ईदरीश बाबा को हज करवा दो ।’
दिलीप कुमार शर्मा
मणिपुर में बीते 48 घंटों में अलग-अलग जगह पर हुई हिंसा में पांच नागरिकों समेत दो सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई है।
इसमें से एक मामला विष्णुपुर जि़ले का है। यहां संदिग्ध हथियारबंद चरमपंथियों ने गुरुवार शाम एक पिता-पुत्र समेत चार लोगों की हत्या कर दी।
मरने वाले लोगों की पहचान थियाम सोमेन सिंह,ओइनम बामोइजाओ सिंह, उनके बेटे ओइनम मनितोम्बा सिंह और निंगथौजम नबादीप मैतेई के रूप में की गई है।
वहीं बुधवार रात इंफाल पश्चिम जि़ले के कांगचुप में हमलावरों ने एक मैतेई बहुल गांव के ग्राम रक्षक की हत्या कर दी। बुधवार को ही संदिग्ध चरमपंथियों ने टैंगनोपल जि़ले में म्यांमार सीमा से सटे मोरेह शहर में सुरक्षाबलों पर हमला किया था। इसमें पुलिस के दो जवानों की मौत हो गई थी।
हिंसा की इन अलग-अलग घटनाओं में मारे गए सभी लोग मैतेई समुदाय के थे। इसके बाद राजधानी इंफाल से लेकर बिष्णुपुर जैसे मैतेई बहुल इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए है।
मणिपुर में 3 मई से रह-रहकर हो रही हिंसा के बीच पिछले कुछ दिनों से शांति का माहौल बना हुआ था। लेकिन बुधवार को मोरेह शहर से फिर शुरू हुई हिंसा ने राज्य में भय और दहशत का माहौल पैदा कर दिया है।
मणिपुर में चरमराई कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इस ताज़ा हिंसा के पीछे क्या वजह है? क्यों पिछले आठ महीनों से यहां हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है?
मोरेह में कैसे भडक़ी हिंसा
पिछले 8 महीनों में मणिपुर के जिन शहरी इलाकों में व्यापक स्तर पर हिंसा हुई, उसमें सीमावर्ती मोरेह शहर भी एक है।
कुकी जनजाति बहुल इस शहर में हिंसा के दौरान मैतेई लोगों के अधिकतर घरों को जला दिया गया था। इस समय मोरेह में एक भी मैतेई परिवार नहीं है।
मोरेह में असम राइफल्स और बीएसएफ के साथ मणिपुर पुलिस कमांडो की तैनाती को लेकर विरोध होता रहा है। वहां कुकी जनजाति के लोग मणिपुर पुलिस कमांडो को इलाके से हटाने की मांग करते आ रहे हैं। उनका कहना है कि मणिपुर पुलिस कमांडो में मैतेई समुदाय के जवान हैं, जिसके कारण वे लोग सुरक्षित महसूस नहीं करते। उनका यह भी आरोप है कि पुलिस कमांडो के साथ कुछ मैतेई हमलावर भी इलाके में आ गए हैं।
कुकी जनजाति के प्रमुख संगठन कुकी इंग्पी के वरिष्ठ नेता थांगमिलन किपजेन की मानें तो इस लड़ाई को रोकने के लिए भारत सरकार का हस्तक्षेप ज़रूरी है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘राज्य में तुलनात्मक शांति थी। क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जी ने कहा था कि पहाड़ी इलाकों की कानून-व्यवस्था वे खुद देखेंगे और घाटी वाले इलाकों को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह संभालेंगे। लिहाज़ा अब तक राज्य पुलिस के कमांडो पहाड़ी इलाके में नहीं आ रहे थे। अब हिंसा इसलिए बढ़ गई कि मणिपुर सरकार मैतेई समुदाय के पुलिस कमांडो को हेलीकॉप्टर के जरिए मोरेह भेज रही है। राज्य सरकार को शांति कायम करने के लिए इन कमांडो को वापस बुलाने की ज़रूरत है।’
कुछ कुकी संगठनों ने मोरेह शहर से मणिपुर पुलिस कमांडो को हटाने की मांग पर कई बार विरोध प्रदर्शन भी किया है।
पिछले साल अक्टूबर महीने में मोरेह में सब डिविजनल पुलिस अधिकारी (एसडीपीओ) चिंगथम आनंद कुमार की संदिग्ध चरमपंथियों ने हत्या कर दी थी जिसके बाद से इलाके में संघर्ष बढ़ता गया।
गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
मणिपुर पुलिस की स्पेशल कमांडो टीम ने सोमवार की शाम एक मुठभेड़ के बाद दो संदिग्ध लोगों को पकड़ा था। पुलिस का दावा है कि ये दोनों लोग मोरेह शहर के एसडीपीओ रहे आनंद कुमार की हत्या में शामिल हैं।
पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ़्तार किया। ये दोनों लोग कुकी-ज़ो जनजाति से जुड़े थे। ऐसे में कुकी लोगों, ख़ासकर इस समुदाय की महिलाओं ने दोनों की रिहाई के लिए मोरेह थाने के सामने प्रदर्शन किया।
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए बल का प्रयोग किया। इसमें कई महिलाएं घायल हो गईं। इसके अगले दिन ही हथियारबंद संदिग्ध चरमपंथियों ने मोरेह शहर के तीन अलग-अलग जगहों पर हमला कर दो पुलिस कमांडो की जान ले ली।
मणिपुर में कुकी चरमपंथियों की ओर से ताज़ा हमले किए जाने के सवाल पर किपजेन कहते हैं, ‘म्यांमार में अभी संघर्ष चल रहा है। लिहाज़ा इस समय वहां कई चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं। मणिपुर का बॉर्डर सील नहीं है, इसलिए यहां मूवमेंट होता रहता है। लेकिन मोरेह में सुरक्षाबलों पर हुए हमले में विदेशी चरमपंथियों का हाथ नहीं है।’
सुरक्षा सलाहकार के इस्तीफे की मांग और उनका जवाब
राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे कुछ संगठनों ने मणिपुर में राज्य और केंद्रीय बलों की एकीकृत कमान के अध्यक्ष कुलदीप सिंह के इस्तीफे की मांग की है।
राज्य में मैतेई महिलाओं के सबसे ताकतवर संगठन मीरा पैबी ने भी यही मांग उठाई है।
जबकि मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह का कहना है कि सुरक्षाबलों के जवान असम राइफल्स के साथ मिलकर हमला करने वाले चरमपंथियों का मुकाबला कर रहे हैं।
सुरक्षाबलों पर हुए हमले पर गुरुवार शाम इंफाल में कुलदीप सिंह ने कहा, ‘म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरेह शहर में बुधवार को पुलिसकर्मियों पर हुए हमले से पहले एक खुफिया रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि विद्रोही गुटों के साथ ‘बर्मा से आए सैनिक’ सुरक्षाबलों पर हमला कर सकते हैं।’
उन्होंने कहा कि कुकी समूहों से मिली धमकी के बाद खुफिया जानकारी इक_ा की गई थी कि मोरेह में तैनात मणिपुर पुलिस कमांडो को निशाना बनाया जाएगा। क्योंकि कूकी इंग्पी और नागरिक समाज संगठन के कई लोग मोरेह में सुरक्षित स्थानों पर आ रहे थे और वे कह रहे थे कि पुलिस के कमांडो को वहां से हटा दिया जाए।
लेकिन उस घटना में विदेशी हमलावरों की संलिप्तता के संबंध में अभी भी कोई सबूत नहीं है।
मैतेई समाज के हितों के लिए बनी कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ मणिपुर इंटीग्रिटी अर्थात कोकोमी के वरिष्ठ नेता किरेन कुमार मानते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार मणिपुर में स्थिति संभालने में सफल नहीं हो रहे हैं।
वो कहते है, ‘सरकार कुकी आतंकियों को नियंत्रित नहीं कर पा रही है। कुकी बॉर्डर टाउन मोरेह पर कब्जा करना चाहता है। म्यांमार के विद्रोही इन कुकी आतंकियों के साथ मिलकर आरपीजी विस्फोटक से हमला कर रहे हैं। किसी भी जातीय हिंसा में आरपीजी चलाने की बात किसी ने नहीं सुनी होगी।’
राज्य में शांति स्थापित करने के सवाल पर मैतेई नेता किरेन कुमार कहते हैं, ‘प्रदेश में शांति केवल भारत सरकार के हस्तक्षेप से ही कायम हो सकती है। हिंसा को शुरू हुए आठ महीने से ज्यादा हो चुके हैं। बीरेन सरकार पूरी तरह फेल हो गई है। लोगों की हत्या की जा रही है। घरों को जलाया जा रहा है लेकिन किसी को मणिपुर की चिंता नहीं है।’
सुरक्षा इंतज़ामों में बदलाव
राज्य में सामने आई हिंसा की इन ताज़ा घटनाओं के बाद नए सिरे से सुरक्षा इंतज़ाम किए गए हैं। क्योंकि पहले चरमपंथी इस तरह के हमले दूर-दराज़ के इलाकों से कर रहे थे।
लेकिन हाल ही में पुलिस के कमांडो पर पास से आकर हमला किया गया है। लिहाज़ा सीमावर्ती इलाकों में असम राइफल्स, बीएसएफ और पुलिस कमांडो के जवानों ने हमलावरों को खोजने के लिए व्यापक अभियान शुरू किया है।
इस बीच राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से सैन्य और मेडिकल संबंधी मदद के साथ-साथ इमरजेंसी सिचुएशन में इस्तेमाल किया जाने वाला विशेष हेलिकॉप्टर मांगा। केंद्र सरकार ने ये हेलिकॉप्टर उपलब्ध भी करा दिया है।
मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह ने बताया, ‘मोरेह में बीएसएफ की एक कंपनी, सेना की दो टुकडिय़ां और चार कैस्पर वाहनों सहित अतिरिक्त बल तैनात किया गया है। इसके अलावा केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक हेलीकॉप्टर को भी इलाके में उतारा गया है।’
मणिपुर में पिछले 8 महीनों से जारी हिंसा पर नजऱ रख रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फनजौबाम कहते हैं, ‘पहाड़ी इलाकों के लिए अलग प्रशासन की मांग की जा रही है जिसका मैतेई समुदाय विरोध कर रहा है। बीते कुछ दिन बिना हिंसा के बीतने के बाद चरमपंथियों ने सरकार का ध्यान खींचने के लिए फिर से हमला करना शुरू कर दिया है।’
‘लोकसभा चुनाव नज़दीक है। चरमपंथियों को लगता है कि इस तरह से वे अपनी मांगें मनवा सकते हैं। अगर केंद्र सरकार अलग प्रशासन देने जैसा कोई फैसला लेती है तो मणिपुर के साथ नागालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में भी लड़ाइयां शुरू हो जाएंगी।’ (bbc.com)
शंभूनाथ
सनातन धर्म के नाम पर प्राचीन भारत में कभी कोई एक सर्वमान्य धार्मिक आस्था नहीं रही है, कोई एक सुनिर्धारित रीतिरिवाज और जीवन शैली नहीं रही है। यह संयोग नहीं है कि महाभारत के अलावा सनातन का उल्लेख बौद्धों के ग्रंथ ‘महावग्ग’ में भी है। ‘सनातन’ का अर्थ सामान्यत: ‘शाश्वत सत्य’ है। रामानुजाचार्य ने कहा था, ‘इसका न कोई आदि है और न अंत’। फिर भी खुद उन्होंने कई प्राचीन विचारों और परंपराओं पर सवाल खड़े किए। सैकड़ों साल के धार्मिक विकास को देखते हुए कहा जा सकता है कि सनातन धर्म से हिंदू धर्म बहुत व्यापक है।
महाभारत के संवाद में कई जगहों पर सदाचरण के संदर्भ में कहा गया है, ‘यह धर्म है’। यह कथन भी है, ‘कौरवों ने सनातन धर्म का ध्वंस कर दिया’। फिर भी वैदिक साहित्य और महाभारत दोनों जगहों पर प्रधानता धर्म की व्याख्या की है। बृहदारण्यक उपनिषद में है, ‘यह जो धर्म है, वह सत्य ही है। धर्म बोलने वाले के लिए कहते हैं कि सत्य बोलता है।’ (1.4.14)। खुद वैदिक दर्शनों ने ‘सनातन’ और ‘अंध परंपरा’ को चुनौती दी थी।
यदि महाभारत महाकाव्य के अनुसार सनातन धर्म का कोई समेकित स्वरूप निर्धारित किया जाए तो हम पाते हैं कि सनातन के तीन प्रमुख अंग हैं- ‘वर्णाश्रम व्यवस्था’, ‘स्त्री की पुरुष-अधीनता’ और ‘भाग्यवाद’। अगर ये सनातन के मुख्य आधार हैं तो ये हिंदू धर्म के लिए बड़ी समस्याएं हैं।
‘गीता’ में एक जगह कुलधर्म के क्षय को सनातन धर्म के क्षय के रूप में देखा गया है। दूसरी जगह अर्जुन कृष्ण के विश्वस्वरूप को सनातन धर्म का रक्षक बताते हैं (14.27)। हिंदू धर्म में कृष्ण के अलावा कई अन्य बड़े देवता हैं, जैसे- सूर्य, शिव, राम (विष्णु के एक अन्य अवतार), गणेश और दुर्गा। इसका अर्थ है, ‘सनातन’ विविधतापूर्ण है।
एक समय की खास धार्मिक व्यवस्था से असहमति व्यक्त करते हुए गौतम बुद्ध ने ‘सनातन’ के समानांतर ‘अनित्य’ का प्रतिपादन किया था, ताकि ‘वर्ण व्यवस्था’ जैसी चीजों को चुनौती दी जा सके। अनित्य का अर्थ है कुछ भी नित्य या शाश्वत नहीं है। इसलिए वर्ण व्यवस्था भी शाश्वत नहीं है। बौद्ध धर्म के तीन प्रमुख तत्वों में एक है अनित्यता। कहा गया है, ‘सब्बे संखारा अनिक्का (अनित्य), सब्बे संखारा दुक्खा, सब्बे धम्मा अनात्ता (अनात्मवाद)।’ बौद्ध धर्म ‘शाश्वत’ की जगह ‘परिवर्तन’ की बात करता है। बुद्ध भारतीय संस्कृति के बाहर नहीं हैं।
सनातन यदि कुछ है तो वह बहुवचनात्मक और सृजनात्मक है
सनातन के बारे में प्रधान तथ्य यह है कि उसका एक रूप नहीं है। वह बहुवचनात्मक है, क्योंकि हिंदू धर्म बहुकेंद्रिक है। दूसरी बात, अथर्ववेद में कहा गया है, सनातन हमेशा पुनर्नवा होता रहता है (10.8.23), अर्थात सनातन स्थिर मामला नहीं है। सनातन की पुनर्नवता का अर्थ पुरानी चीजों का ही नया-नया रूप लेना नहीं है, उन पुरानी चीजों का बदलना भी है।
हिंदू धर्म को सनातन की एकरूपता में सीमित करने की संगठित कोशिशें 19वीं सदी के नवजागरण, सुधारवादी आंदोलनों और आगे चलकर गांधी के उदारवाद के विरोध में हुई थीं। 1886 में ‘सनानत धर्म सभा’ बनी, जो धार्मिक सुधार आंदोलन के विरोध में थी।
कर्मणा वर्ण व्यवस्था काफी पहले जन्मना वर्ण व्यवस्था में बदल चुकी थी। यदि ‘सनातन’ जैसा कुछ है, तो पुरोहित वर्गों द्वारा कर्मणा वर्ण व्यवस्था क्यों नहीं बनी रहने दी गई? वर्ण व्यवस्था विघटित होकर इतनी जाति–बिरादरियों में क्यों बदल गई? देखा जा सकता है कि 19वीं सदी में सनातन धर्म सभाएं दलितों और स्त्रियों को पुरानी दशा में ही रखना चाहती थीं। इसी तरह मुसलमानों के वहाबी और देवबंद आंदोलन भी मजहबी सुधारों के विरोध में थे और कट्टरताओं के बीच होड़ थी।
कट्टरवादी धार्मिक संगठन अंग्रेजी राज के समर्थन में किस तरह थे, यह काशी के एक संगठन भारत धर्म महामंडल की एक पुस्तिका ‘भारत धर्म महामंडल रहस्य’ (1910) से जाना जा सकता है, ‘परम दयालु परमेश्वर की कृपा से आर्य प्रजा को इस प्रकार की नीतिज्ञ और उदार गवर्नमेंट मिली है कि ऐसी उन्नति और प्रजारक्षक गवर्नमेंट विदेशियों के हित के लिए पृथ्वी भर में और कहीं देखने में नहीं आती।’ कुछ सदियों से प्रचारित किए गए सनातन की एक अन्य बड़ी सीमा ‘आर्यावर्तत’ को अर्थात उत्तर भारत को भारत समझने की है, जबकि भारत एक बड़ा देश है।
उपनिवेशवाद से गुजरे देशों में भेदभाव-भरी पिछड़ी मानसिकता अस्वाभाविक नहीं है। उपनिवेशवाद जिस देश में गया, उस देश में लोगों के विश्वासों को सामान्यत: कठोर बना देने का उसने हर संभव प्रयास किया। अंग्रेजों ने अपना यह लक्ष्य सबको आधुनिक जीवन शैली में प्रवृत्त करते हुए पूरा किया। जीवन शैली आधुनिक, पर जीवन दृष्टि रूढि़वादी! आधुनिक शिक्षा भी पुरानी निर्बुद्धिपरक मानसिकता को बदल नहीं पाई। राजा राममोहन राय, विद्यासागर, रामकृष्ण परमहंस, फुले, रानाडे, दयानंद सरस्वती, विवेकानंद आदि के सुधार आंदोलन और शिक्षण-कार्यक्रम बहुत प्रभावी नहीं हो सके, हालांकि ये उदारवाद के कुछ दबाव बनाने में सफल हुए।
यदि सनातन का अर्थ नैरंतर्य है तो प्राचीन धार्मिक परंपराएं, जिन्हेें ‘सनातन’ कहा जाता है हमेशा सुधार, परिवर्तन और ‘उच्चतर’ की खोज से गुजरी हैं -यह स्वीकार करना चाहिए। उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि ॠग्वेद में ‘वस्तुओं’ और ‘सुखों’ की कामना प्रधान है, जबकि उपनिषदों में इससे भिन्न ‘आत्मज्ञान’ की प्रधानता है। अपर, वसवण्णा, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, कबीर, सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों ने शाश्वत में सुधार किया। उन्होंने सामान्यत: जाति भेदभाव, कर्मकांड और भाग्यवाद को नहीं माना।
सैकड़ों साल से भारत में ‘सनातन’ इतना विविधतापूर्ण और परिवर्तनशील रहा है कि अंतत: कुछ भी सनातन नहीं रह गया है। आज हम एक बदले वातावरण में हैं। इसका उच्च मूल्यबोध से संबंध नहीं बचा है। वर्तमान धार्मिक दौर में लोभ और भय ज्यादा छाया है। खुद ईश्वर असुरक्षित है। जिन हिंदुओं में धर्म बचा है, वे बहुत अकेलेपन का अनुभव करते हैं। ऐसे शांतिप्रिय लोग हर हिंसक झुंड और शोर के बाहर हैं!
भारतीय साहित्य की परंपरा में लक्षित किया जा सकता है कि विभिन्न युगों में सनातन कई सृजनात्मक बदलावों से गुजरता आया है। रामकथा ही सृजनात्मक बदलाव से नहीं गुजरती, महाभारत भी गुजरता है। महाभारत के कृष्ण से जयदेव, चैतन्य और सूरदास-मीरा के कृष्ण भिन्न हैं। वे लालित्य से भरे हैं। गौर करने की चीज है, सूर-मीरा के कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र की जगह बांसुरी सुशोभित है!
साहित्य ही नहीं, सैकड़ों साल के अजंता-एलोरा जैसे स्थापत्य, चित्र और मूर्ति कलाओं में नई-नई कल्पनाएं हैं। सनातनता को सृजनात्मकता ने बार-बार बंधनों से मुक्त किया है और ज्ञान के नए द्वार खोले हैं। सनातनता और सृजनात्मकता के द्वंद्वात्मक संबंध को देखना चाहिए। सनातन का कुछ विद्वान अर्थ निकालते हैं, ‘अतीत में जो भी था वह सब शाश्वत है’। यह अतीत का वर्तमान पर आक्रमण है, यह अतीत का मानव भविष्य पर आक्रमण है।
सनातनता को समझने के लिए अपने ज्ञान के दरवाजे को खुला रखना जरूरी है। इसका साहित्य की आधुनिक परंपराओं और हाशिये की आवाजों के नकार के लिए उपयोग घातक है। सनातनता ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति, सुधार और सृजनात्मकता से विच्छिन्न होकर कूपमंडूकता में बदल जाती है। वैदिक युवा नचिकेता की शिक्षा है, जिज्ञासा के द्वार हमेशा खुले रखें, जड़ताओं पर प्रश्न उठाते रहें!
‘वागर्थ’ जनवरी 2024 का संपादकीय, अंश
पीने का साफ़ पानी इंसान की बुनियादी ज़रूरतों में से एक है.
जब कभी हम यात्रा कर रहे हों या ऐसी जगह हो, जहाँ साफ़ पानी न मिल पाए, वहां हमारी कोशिश रहती है कि बोलतबंद पानी मिल जाए.
हम यह मानते हैं कि इस पानी में गंदगी नहीं होंगी. लेकिन इस पानी के अंदर माइक्रोप्लास्टिक यानी प्लास्टिक के असंख्य महीन कण हो सकते हैं.
बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी और रटगर यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोतलबंद पानी में पहले के अनुमानों की तुलना में 100 गुना ज़्यादा माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं.
उन्होंने पाया कि एक लीटर पानी में क़रीब ढाई लाख नैनोप्लास्टिक कण हो सकते हैं.
इन शोधकर्ताओं ने पानी के तीन ब्रैंड की बोतलों की पड़ताल की तो उन्हें एक लीटर में एक लाख दस हज़ार से चार लाख नैनोप्लास्टिक कण मिले.
वैज्ञानिकों के मुताबिक़, पानी में ज़्यादातर प्लास्टिक कण उसी बोतल से घुले थे.
भारत में भी माइक्रोप्लास्टिक का प्रदूषण
अगर आप अपने आसपास नज़र दौड़ाएंगे तो आपको प्लास्टिक की कई सारी चीज़ें नज़र आएंगी.
ऐसी ही चीज़ों के बारीक़ टुकड़े जब बहुत छोटे आकार में टूट जाते हैं तो उन्हें माइक्रोप्लास्टिक कहा जाता है.
आमतौर पर पाँच मिलीमीटर से छोटे टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक कहलाते हैं. कुछ टुकड़े इससे भी छोटे होते हैं, जिन्हें नैनो स्केल में ही मापा जा सकता है. उन्हें नैनो प्लास्टिक कहा जाता है.
ये दोनों ही तरह के आसानी से नज़र नहीं आते. मगर ये दुनिया के लगभग हर हिस्से में मौजूद हैं. फिर चाहे वह नदियों का पानी हो, समंदर की तलहटी हो, या फिर अंटार्कटिक में जमी बर्फ़.
आईआईटी पटना के एक शोध में बारिश के पानी में भी माइक्रोप्लास्टिक कण मिले थे.
इसी तरह एक अन्य शोध में पाया गया कि भारत में ताज़ा पानी की नदियों और झीलों तक में माइक्रोप्लास्टिक मिल रहा है. इनमें फ़ाइबर, छोटे टुकड़े और फ़ोम शामिल हैं.
इस शोध के मुताबिक़, फ़ैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी और शहरी इलाक़ों से निकलने वाले प्लास्टिक वेस्ट जैसे कई कारणों से ये हालात बने हैं.
क्या हैं माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरे
एक समस्या तो यह है कि पीने के पानी तक में माइक्रोप्लास्टिक हो सकते हैं. लेकिन दूसरी समस्या यह भी है कि अभी तक पक्के तौर पर नहीं मालूम कि इंसान के शरीर पर माइक्रोप्लास्टिक का क्या असर होता है.
साल 2019 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक रिव्यू किया था और समझने की कोशिश की थी कि माइक्रोप्लास्टिक अगर इंसानों के शरीर के अंदर चले जाएं तो क्या ख़तरे हो सकते हैं.
लेकिन सीमित शोधों के कारण डब्ल्यूएचओ किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका. फिर भी उसने अपील की थी कि प्लास्टिक के प्रदूषण को कम किया जाना चाहिए.
दिल्ली के पुष्पांजलि मेडिकल सेंटर के वरिष्ठ चिकित्सक मनीष सिंह ने बीबीसी सहयोगी आदर्श राठौर को बताया कि माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी ज़्यादा जानकारी नहीं है, इसलिए इस विषय पर और सावधान रहने की ज़रूरत है.
उन्होंने कहा, “माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को लेकर अभी सीमित शोध सामने आए हैं. कुछ शोध ऐसे भी हैं कि ये हमारे एंडोक्राइन ग्रंथियों (हारमोन पैदा करने वाली ग्रंथियों) के काम में समस्या पैदा करती हैं. हो सकता है भविष्य में पता चले कि माइक्रोप्लास्टिक बहुत गंभीर नुक़सान कर सकते हैं, इसलिए अभी से सजग रहने की ज़रूरत है.”
हर जगह माइक्रोप्लास्टिक
माइक्रो प्लास्टिक पानी के अलावा यह उस ज़मीन में भी बहुतायत में पाए जाने लगे हैं, जहाँ खेती होती है.
अमेरिका में साल 2022 में एक पड़ताल की गई थी. इसके मुताबिक़, सीवर की जिस गाद को वहां फसलों के लिए खाद के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, उसमें माइक्रोप्लास्टिक होने के कारण 80 हज़ार वर्ग किलोमीटर खेती योग्य ज़मीन दूषित हो गई थी.
इस गाद में माइक्रोप्लास्टिक्स के अलावा, कुछ ऐसे केमिकल भी थे, जो कभी विघटित नहीं होते यानी उसी अवस्था में बने रहते हैं.
वहीं, ब्रिटेन में कार्डिफ़ यूनिवर्सिटी ने पाया था कि यूरोप में हर साल खेती वाली ज़मीन में खरबों माइक्रोप्लास्टिक कण मिल रहे हैं जो हर निवाले के साथ लोगों के शरीर के अंदर पहुंच रहे हैं.
बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि कुछ पौधे ऐसे हैं, जिनमें बाक़ियों की तुलना में माइक्रोप्लास्टिक ज्यादा होता है.
दरअसल, कुछ शोध बताते हैं कि जड़ों वाली सब्ज़ियों में माइक्रोप्लास्टिक ज़्यादा पाए जाते हैं. यानी पत्ते वाली सब्जियों में कम माइक्रोप्लास्टिक होंगे, जबकि मूली और गाजर जैसी सब्ज़ियों में ज्यादा.
माइक्रोप्लास्टिक से कैसे बचा जाए?
डॉक्टर मनीष सिंह बताते हैं कि समस्या यह भी है कि भारत में अधिकतर जगह कचरे के निपटान की सही व्यवस्था नहीं है. इसी कारण माइक्रोप्लास्टिक नदियों और खेती वाली ज़मीन तक पहुंच रहा है.
उन्होंने कहा, “खाने-पीने की असंख्य चीज़ें प्लास्टिक में पैक होती हैं. फिर समस्या ये है कि लोग घरों में प्लेट और चॉपिंग बोर्ड तक प्लास्टिक के इस्तेमाल करते हैं. इस सबसे बचना चाहिए. लेकिन सरकार को भी इस विषय पर ध्यान देना चाहिए.”
प्लास्टिक और संबंधित उत्पादों का इस्तेमाल कम करने के लिए भारत सरकार ने एक जुलाई 2022 से सिंगल यूज़ यानी एक बार इस्तेमाल किए जा सकने वाले प्लास्टिक पर रोक लगा दी थी.
सिंगल यूज़ प्लास्टिक के उत्पादन, आयात, भंडारण और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. दुनिया के कई देश पहले ही ऐसा क़दम उठा चुके थे.
लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि बायोडीग्रेडेबल विकल्प को समस्या को और गंभीर कर रहे हैं. ब्रिटेन की प्लाइमाउथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने पाया कि जिन बैगों में बायोडीग्रेडेबल लिखा होता है, उन्हें विघटित होने में भी कई साल लग सकते हैं.
यही नहीं, वे भी छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाते हैं और प्रदूषण फैलाते हैं.
माइक्रोप्लास्टिक खाने-पीने की चीज़ों में न मिले, इसके लिए शीशे की बोतलें इस्तेमाल करने की भी सलाह दी जाती है.
लेकिन, बीबीसी फ़्यूचर के लिए इसाबेल गेरेटसेन लिखती हैं कि भले ही ग्लास की बोतलें कई बार रीसाइकल की जा सकती हों लेकन शीशा बनाने के लिए सिलिका (रेत) का इस्तेमाल होता है. ऐसे में इसकी प्रक्रिया में भी पर्यावरण को नुक़सान पहुंचता है.
और फिर समस्या सिर्फ़ माइक्रोप्लास्टिक की ही नहीं, माइक्रोफ़ाइबर की भी है. पानी, समुद्री नमक और बीयर में भी माइक्रोफ़ाइबर पाए गए हैं और इनका बड़ा हिस्सा कपड़ों से आता है.
कैसे कम किया जा सकता है प्रदूषण
बीबीसी फ़्यूचर पर प्रकाशित लेख के अनुसार, माइक्रोप्लास्टिक के ख़तरों को कम करने की दिशा में एक उम्मीद जगी है.
शोधकर्ताओं ने ऐसे फंगस (फफूंद) और बैक्टीरिया की पहचान की है, जो प्लास्टिक को विघटित करने में मदद करते हैं.
इसी तरह, बीटल (गुबरैले) की एक क़िस्म का लारवा पॉलीस्टीरीन (एक तरह का प्लास्टिक) को विघटित कर सकता है.
इसके अलावा, पानी को ख़ास तरह के फ़िल्टरों और केमिकल ट्रीटमेंट से भी शुद्ध किया जा सकता है.
लेकिन डॉ. मनीष सिंह का कहना है कि इन उपायों से बेहतर है कि एक ओर तो सरकार प्लास्टिक का इस्तेमाल घटाने पर नीतियां बनाए और दूसरी ओर लोग भी अपने स्तर पर प्लास्टिक पर निर्भरता कम करें.
वह कहते हैं, “जैसे कि जूट या कपड़े के थैले इस्तेमाल करें. कपड़े खरीदते समय भी सिंथेटिक फ़ाइबर के कपड़ों के बजाय कॉटन के कपड़ों को तरजीह दें. प्लास्टिक के कचरे का सही से निपटारा करें. हमारी कोशिश होनी चाहिए कि प्लास्टिक से बनी चीज़ों का इस्तेमाल कम करें.” (bbc.com)
डेनमार्क के लोग अब भारत समेत दूसरे देशों से बच्चे गोद नहीं ले पाएंगे. बच्चे गोद लेने के लिए काम करने वाली देश की एकमात्र एजेंसी ने कहा है कि अनियमितताओं के चलते उसने कामकाज बंद कर दिया है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार का लिखा-
डेनमार्क इंटरनेशनल अडॉप्शन एजेंसी (ष्ठढ्ढ्र) अपना कामकाज बंद कर रही है। लोगों को दूसरे देशों से बच्चे गोद लेने में मदद करने वाली इस एजेंसी ने अनियमितताओं के आरोपों के बाद काम बंद करने का फैसला किया है। सिलसिलेवार तरीके से एजेंसी की गतिविधियां बंद कर दी जाएंगी।
एक बयान में डीआईए ने कहा कि वह ‘सिलसिलेवार तरीके से अपनी गतिविधियां समेटना शुरू कर रही है।’ इससे पहले डेनमार्क के सामाजिक मामलों के मंत्रालय ने उन छह देशों से बच्चे गोद लेने पर रोक का ऐलान किया, जिनके साथ डीआईए काम कर रही थी। यह छह देश थे: चेक रिपब्लिक, भारत, फिलीपींस, दक्षिण अफ्रीका, ताइवान और थाईलैंड।
मेडागास्कर में डीआईए का कामकाज पिछले साल ही बंद हो गया था क्योंकि वहां फ्रॉड के आरोप लगे थे। अब एजेंसी ने कहा है कि उसके पास काम बंद करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। अपने बयान में उसने कहा, ‘डेनमार्क में जो मौजूदा हालात हैं, उनमें विदेशों से बच्चे गोद लेने का काम डीआईए जैसी गैरसरकारी संस्था नहीं कर सकती।’
नॉर्वे में भी रोक
डेनमार्क की संस्था के मुताबिक फिलहाल उसके पास 36 मामले हैं। लेकिन अब इन मामलों का क्या होगा, यह जानकारी नहीं दी गई है। 2010 के बाद डेनमार्क में विदेशों से बच्चों के गोद लेने के मामले में 10 गुना से ज्यादा की कमी आई है। 2010 में वहां 418 बच्चे गोद लिए गए थे।
दिसंबर में नॉर्वे ने भी फिलीपींस, ताइवान और थाईलैंड से बच्चे गोद लेने पर रोक लगा दी थी, जब मीडिया में अवैध रूप से बच्चे गोद लिए जाने की खबरें आई थीं।
इन खबरों पर कार्रवाई करते हुए नॉर्वे के डायरोक्टोरेट फॉर चिल्ड्रन, यूथ ऐंड फैमिली अफेयर्स ने दिसंबर में इन देशों से बच्चे गोद लेने पर रोक का ऐलान किया था। इस साल की शुरुआत से दक्षिण कोरिया से बच्चे गोद लेने पर भी रोक लगा दी गई है।
डायरेक्टोरेट ने दो साल के लिए विदेशों से बच्चे गोद लेने पर पूरी तरह से रोक लगाने की सिफारिश की है जब तक कि आरोपों की जांच पूरी नहीं हो जाती। हालांकि सरकार ने उसकी सिफारिश नहीं मानी है और जांच को जल्द से जल्द खत्म करने को कहा है।
कहां-कहां है बच्चे गोद लेने की सुविधा
हाल ही में वल्र्ड पॉप्युलेशन रिव्यू नामक संस्था ने 20 उन देशों की सूची जारी की थी जहां से बच्चे गोद लेना सबसे आसान है। इसमें पहले नंबर पर प्रार्थी के अपने देश का नाम रखा गया था। डब्ल्यूपीआर के मुताबिक अपने देश में बच्चा गोद लेना सबसे आसान होता है।
उसने अमेरिका की मिसाल देते हुए कहा, ‘देश के फॉस्टर केयर सिस्टम में बेशक बहुत सी खामियां हैं और बच्चा गोद लेने में बहुत वक्त लग सकता है। यहां तक कि कई साल का इंतजार करना पड़ सकता है। लेकिन तब भी खर्च बहुत कम होगा और आपको बच्चे के परिवार व स्वास्थ्य के बारे में कहीं ज्यादा जानकारी मिल पाएगी। साथ ही, बच्चे की तस्करी की संभावना लगभग ना के बराबर होगी।’
जिन देशों से बच्चा गोद लेना सबसे आसान बताया गया है, उनमें कजाखस्तान, भारत, हैती, चीन, थाईलैंड, कोलंबिया, मलावी, ताइवान, साउथ कोरिया, बहामास, यूक्रेन, फिलीपींस, बुल्गारिया, हांग कांग, युगांडा, होंडुरास, घाना, ब्रूंडी और इथियोपिया का नाम है।
भारत के बारे में संस्था ने कहा, ‘वहां जाने की जरूरत नहीं है और बहुत से ऐसे अनाथ बच्चे हैं जिन्हें परिवारों की जरूरत है। इनमें शिशुओं से लेकर बड़ी उम्र के बच्चे और विशेष जरूरत वाले बच्चे शामिल हैं।’
हाल के सालों में भारत में बच्चे कम गोद लिए जा रहे हैं। 2022 के आंकड़ों के मुताबिक भारत में करीब तीन करोड़ बेसहारा बच्चे थे जिनमें से सालाना तीन से चार हजार बच्चे ही गोद लिए जाते हैं। भारत में बच्चा गोद लेने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। जुलाई 2022 तक 16,000 से ज्यादा भारतीय परिवार बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया पूरी होने का इंतजार कर रहे थे। (dw.com)
-स्मिता
लगता है आजकल मेरा रानीवास किसी पौराणिक नगरी में हो गया है। शाम 4 बजते ही पास के मंदिर के लाउडस्पीकर में पुजारी का पूजा पाठ , स्तुति अपने पूरे दमखम से सुनाई देने लगता है।
33 करोड़ देवी देवताओं में से 0.00000000001 प्रतिशत नाम की जयकार लगाना, आसपास जमा होने वाली भीड़ के आधार पर उसकी स्मृति तय करती है।
रात होते होते मेरे पड़ोसी के घर से किसी फिल्मी धुन में स्मार्ट तरीके से पिरोई गई धार्मिक शब्दावली के भजन हवा में लहराने लगती है।
लोकप्रिय गानों का उपयोग कर बाजार कैसे लोगो की धार्मिक भावनाओं को उद्वेलित कर सकता है, मैं यही पर फंस जाती हूं।
तब तक पड़ोसी का समूचा परिवार कैलाश पर्वत जाकर कैलाशपति की चरण वंदना कर चुका होता है उनके मानसिक तरंगों की गति 5 जी से भी अधिक स्पीड से चलती है।
देवों के देव के एक तथाकथित एजेंट की सरस वाणी हमारे ऑफिस में भी उनके भक्तजन अपने मोबाइल में गाहे बगाहे बजा देते है।
मुझ पापी के कान में भी उनके अद्भुत आख्यान सुनाई देते है । पुण्य कमाने की लालसा में गौर करती हूं तो अहिल्या का इंद्र के गौतम ऋषि के छद्म रूप के साथ संसर्ग की कहानी का प्रसंग चल रहा होता है।
कथावाचक इतने भाव-विभोर होकर रसमय तरीके से व्याख्यान दे रहे थे मानो उनकी आत्मा इंद्र के शरीर में प्रवेश कर गई हो।
इतने ज्ञान की बातें सुनकर मेरी वैतरणी पार होने ही वाली थी कि अचानक खबर पर नजर चले जाती है , कि बागेश्वर धाम की कलश यात्रा गुढिय़ारी में निकल पड़ी है। उनके मुखमंडल के तेज से मेरी आंखे चौंधियाने लगी है। अब उनके चरणों तक पहुंच कैसे पाऊं।
इतने पुण्यप्रताप आत्मा इतने शक्तिमान हैं कि उनके ओजस्वी वचन सुनकर जनता अमीर गरीबी की खाई , 75त्न प्रतिशत के संसाधन 1त्न के पास, बेरोजगारी, बढ़ते अपराध, जोशीमठ, आदिवासियों के प्रति हिंसा, पर्यावरण असंतुलन सब भूलकर भक्तिरस में सराबोर है।
बहुतों के स्टेटस में कलश लेकर चलने की होड़ लगी हुई है, मुझसे एक प्राणी 22 तारीख के लिए 5000 प्रसाद वितरण करने के नाम पर चंदा मांगते है। मैं मांडवाली करके 1000 में तय करती हूं। विशिष्टता बोध के लिए इतनी रकम काफी थी।
सब ओर तैयारी चल रही है दवाई दुकान वाले झंडा बेच रहे है नाश्ते वाले सुबह 5 बजे उठकर पोहा बनाने की तैयारी कर रहे हैं। कबीर के राम से इतर, राम बाजार है, राम अहंकार है, राम विशिष्ट होने का बोध है।
और मैं तुच्छ प्राणी क्रेडिट डेबिट, एटीएम आहरण, ऋण और डिपॉजिट का टारगेट, बोनस का भुगतान के बीच रखे दो भागवत कथा के कार्ड और एक अखंड रामायण के निमंत्रण के बीच अनिर्णय की स्थिति में बैठी हूं।
असमंजस में हलक सूख गया है, भृत्य को पानी के लिए आवाज लगाती हूं तो पता चलता है कि वह एकादशी उद्यापन के लिए जल्दी घर चली गई है।
कबीर ने कहा था-
सकल हंस में राम बिराजे ,
राम बिना कोई धाम नहीं।
-जियार गोल
ईरान के इस्लामिक रिवॉल्युशनरी गार्ड कोर यानी आईआरजीसी ने हाल के वर्षों में क्षेत्रीय ताकतों के बीच अपनी स्थिति मजबूत की है।
आईआरजीसी खुलेआम कहता है कि मध्य पूर्व में अमेरिकी बेस, तेल अवीव और हाफिया में इसराइली बेस सभी उसकी मिसाइलों की जद में हैं।
सोमवार की रात ईरान की रिवॉल्युशनरी गार्ड ने इराक़ के अर्द्ध-स्वायत्त कुर्दिस्तान की राजधानी इरबिल में 11 बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं।
कुर्दिस्तान प्रशासन का कहना है कि इन हमलों में कम से कम चार आम लोगों की मौत हुई है और छह जख्मी हुए हैं।
कुर्दिस्तान इलाक़े के प्रधानमंत्री मसरूर बरज़ानी ने इन हमलों को कुर्दिश लोगों के खिलाफ अपराध बताया है।
आईआरजीसी की कऱीबी फार्स न्यूज एजेंसी ने दावा किया है कि इन हमलों में इसराइल की खुफिया सर्विस मोसाद से जुड़े तीन ठिकानों को नष्ट किया गया है।
इराक की कुर्दिस्तान सरकार ने अपनी ज़मीन पर विदेशी एजेंटों की मौजूदगी से इनकार किया है। हालांकि इस मामले में इसराइल ने अब तक कुछ भी नहीं कहा है।
एक साथ तीन देशों पर हमला
आईआरजीसी ने जाने-माने कुर्दिश करोड़पति कारोबारी पेश्राव डिज़ायी को उनके आवास पर हमला कर मार दिया है। ईरान ने यह दिखाया है कि वह टारगेट कर हमला करने में सफल है।
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले के बाद डिजायी ने फाल्कन ग्रुप और एम्पायर वल्र्ड नाम की दो कंपनियां बनाई थीं। समाचार एजेंसी रॉयटर्स का कहना है कि पेश्राव डिजायी कुर्दिस्तान के प्रधानमंत्री बरजानी परिवार के करीबी थे।
पेश्राव डिजायी के घर पर चार मिसाइलें दागी गईं। स्थानीय मीडिया की खबरों के अनुसार, इस हमले में डिजायी की 11 महीने की बेटी की भी मौत हो गई है।
फाल्कन ग्रुप का दखल सुरक्षा, कंस्ट्रक्शन, तेल और गैस सेक्टर में है। इराक में फाल्कन ग्रुप का सिक्योरिटी डिविजन अमेरिकी और कई पश्चिमी प्रतिनिधियों के साथ कंपनियों को मदद पहुँचाता रहा है।
आईआरजीसी ने इन हमलों से संदेश देने की कोशिश की है कि वह न केवल नागरिक सुविधाओं को निशाना बना सकता है बल्कि इरबिल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के कऱीब सैन्य ठिकानों को भी टारगेट कर सकता है।
इरबिल एयरपोर्ट से अमेरिकी नेतृत्व वाला गठबंधन का बेस कुछ मिल की दूरी पर है।
इराक में हमला क्यों?
इराक में अभी अमेरिका के 2500 सैनिक हैं। इनमें से कुछ सैनिक इरबिल में भी हैं। ये सैनिक इस्लामिक स्टेट ग्रुप के खिलाफ अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन के हिस्सा रहे हैं।
अमेरिका का कहना है कि उनके सैनिक स्थानीय लोगों की मदद के लिए हैं ताकि आईएस का फिर से उभार को रोका जा सके। आईएस का इन इलाक़ों में एक वक्त में काफी दबदबा था।
हालांकि इन हमलों को ईरान के घरेलू मकसदों के आईने में भी देखा जा रहा है। सीरिया में इसराइली हमले के जवाब के तौर पर देखा जा रहा है।
सीरिया की राजधानी दमिश्क के बाहरी इलाकों में 25 दिसंबर को आईआरजीसी के एक सीनियर कमांडर को मार दिया गया था। ऐसा माना जा रहा कि ईरानी कमांडर की मौत इसराइली हमले में हुई थी।
15 जनवरी को आईआरजीसी ने उत्तर-पश्चिम सीरिया के इदलिब प्रांत में भी बैलिस्टिक मिसाइल से हमला किया। कहा जा रहा है कि ईरान ने इन हमलों के जरिए आईएस और अन्य आतंकवादी समूहों को निशाना बनाया है।
इदलिब करीब 30 लाख विस्थापित सीरियाई नागरिकों का इलाका है, जिन्होंने 2011 में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के खिलाफ विद्रोह का समर्थन किया था।
ईरान बशर अल-असद का समर्थन करता है। ईरान शिया मुस्लिम बहुल देश है और बशर अल-असद सुन्नी बहुल सीरिया के शिया प्रधानमंत्री हैं।
ईरान का संदेश
पश्चिमी मुल्कों ने बशर अल-असद को सत्ता से हटाने की पूरी कोशिश की लेकिन ईरान और रूस की मदद से असद अब भी सत्ता में हैं।
इदलिब में इस्लामिक ग्रुप हयात तहरीर अल-शर्म की मौजूदगी काफी मजबूत है और साथ में आईएस के अलावा अल-कायदा का भी प्रभाव है।
आईआरजीसी ने कहा है कि इदलिब में मिसाइल हमला तीन जनवरी को दक्षिणी ईरान के कर्मन में आत्मघाती हमले के जवाब में था।
कर्मन में आईआरजीसी के कमांडर क़ासिम सुलेमानी को श्रद्धांजलि देने बड़ी संख्या में भीड़ जुटी थी, तभी आत्मघाती हमला हुआ था।
आईआरजीसी ने कहा है कि इदलिब में उसने हमले में कैस्टल बस्टर मिसाइल का इस्तेमाल किया है जो 1450 किलोमीटर की दूरी तक जा सकती है।
आईआरजीसी ने कहा है कि उसने मिसाइल हमला दक्षिणी ईरान के खुजेस्तान से किया है।
हालांकि आईआरजीसी इदलिब में मिसाइल हमला पश्चिमी अजरबैजान प्रांत से भी कर सकता है, जो इदलिब के ज्यादा करीब है।
लेकिन ईरान ने जिस मिसाइल को जिस जगह से छोड़ा वो दुनिया को दिखाने की कोशिश थी कि उसकी पहुँच इसराइल के कई इलाकों तक है।
ईरान ने इराक और सीरिया के बाद पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में भी एक चरमपंथी संगठन के ठिकाने पर मिसाइल और ड्रोन से हमला किया है।
पाकिस्तान ने कहा है कि इस हमले में दो बच्चों की मौत हुई है और तीन जख्मी हुए हैं। पाकिस्तान ने इस हमले को अपनी संप्रभुता का उल्लंघन बताया है और गंभीर नतीजे की चेतावनी दी है। ईरान इससे पहले भी पाकिस्तान में घुसकर हमला कर चुका है। (bbc.com/hindi/)
प्रमोद भार्गव
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चुनाव परिणाम आने और 163 विधानसभा सीटें जीतने के बाद कहते रहे हैं कि मुझे लोकसभा की 29 सीटें जीतकर प्रधानमंत्री मोदी के गले में माला डालनी है, इसलिए मैं दिल्ली किसी पद की मांग के लिए बिना बुलाए नहीं जाऊंगा। हम जानते हैं कि वे दिल्ली गए भी नहीं थे। संभव है पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने इसे शिवराज का अंहकार माना हो और इसे ठंडा करने के लिए, उनकी बजाय मोहन यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया हो? लेकिन अब पुष्ट सूत्रों से ऐसी खबरें आ रहीं है कि शिवराज को छिंदवाड़ा लोकसभा सीट का प्रत्याशी बनाया जा सकता है। जिससे मध्यप्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों पर भाजपा के काबिज होने की संभावना बढ़ जाए। फिलहाल यहां से पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के पुत्र नकुलनाथ सांसद हैं। कांग्रेस के पास मध्यप्रदेश में एकमात्र यही अविजित सीट रह गई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस में आने से पहले गुना-शिवपुरी सीट भी कांग्रेस के खाते में शामिल हो जाती थी। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में सिंधिया अपने की नुमाइंदे भाजपा प्रत्याशी केपी यादव से पराजित हो गए थे। इस पराजय से सिंधिया इतने आहत हुए कि भाजपा के शरणम् गच्छामि हो गए। अब वे केंद्रीय मंत्री होने के साथ भाजपा के ताकतवर नेताओं में गिने जाते हैं।
हालांकि कमलनाथ या नकुलनाथ से छिंदवाड़ा सीट छीनना आसान नहीं है। क्योंकि इस जिले की सातों विधानसभा सीटों पर 2023 के विधानचुनाव में कांग्रेस ने परचम फहराया हुआ है। इसके पहले 2018 में भी कमलनाथ के प्रभाव के चलते सभी सातों सीटों पर विजय हासिल की थी। छिंदवाड़ा में कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवार विवेक बंटी साहू को लगभग 37 हजार वोटों से करारी शिकस्त दी है। इसी तरह अमरवाड़ा से गोंडवाना छोड़ कर आई मोनिका शाह बट्टी को कांग्रेस प्रत्याशी और कांग्रेस से ही दो बार विधायक रहे कमलेश शाह ने लगभग 25 हजार मतों से हराकर तीसरी बार जीत का इतिहास रच दिया है। जुन्नारदेव से कांग्रेस के सुनील उईके ने भाजपा के नत्थन शाह कवडेती को करीब 3 हजार मतों से शिकस्त दी है। परासिया विधानसभा सीट से कांग्रेस के सोहन वाल्मिक ने भाजपा उम्मीदवार ज्योति डेहरिया को 1700 से ज्यादा वोटों से पराजय का स्वाद चखा दिया है। सोंसर में कांग्रेस उम्मीदवार विजय चैरे ने भाजपा के नाना मोहोड़ को करीब 11 हजार मतों से पराजय का मुख दिखाया है। इसी तरह पांढुर्णा में कांग्रेस प्रत्याशी नीलेश उईके ने भाजपा प्रत्याषी प्रकाश उईके को 10 हजार से भी अधिक वोटों से करारी शिकस्त दी है। चैरई में कांग्रेस के सुजीत चैधरी ने भाजपा प्रत्याशी लखन वर्मा को करीब 8 हजार वोटों से पराजित किया है। साफ है, भाजपा की लहर छिंदवाड़ा जिले में कोई सेंध नहीं लगा पाई। जबकि छिंदवाड़ा में भाजपा की जीत के लिए शिवराज सिंह चौहान ने पांढुर्णा को जिला भी बना दिया था। इस जिले के निर्माण के बाद मध्यप्रदेश में कुल जिलों की संख्या 55 हो गई है।
छिंदवाड़ा जिले का चुनाव परिणाम सामने आने के बाद से भाजपा के चुनावी रणनीतिकार इस कोशिश में लग गए हैं कि क्यों न यहां से षिवराज सिंह को मैदान में उतार दिया जाए। यदि कांग्रेस छिंदवाड़ा के वर्तमान सांसद नकुलनाथ को ही फिर से मैदान में उतारती है, तो शिवराज की जीत आसान हो सकती है। क्योंकि नकुलनाथ इस सीट से अत्यंत मामूली अंतर 37,536 मतों से बमुश्किल जीत पाए थे। दरअसल कमलनाथ के 2018 में मुख्यमंत्री बनने के बाद यह सीट उनके बेटे के हिस्से में आई हुई है। यहां से भाजपा ने नत्थन षाह को मैदान में उतारा था। अब नत्थन शाह विधानसभा का चुनाव भी हार गए हैं। छिंदवाड़ा लोकसभा सीट की यह खासियत रही है कि आजादी के बाद से लगातार यह सीट कांग्रेस जीतती रही हैं। इसलिए भाजपा शिवराज को दांव पर लगाना चाहती हैं।
शिवराज को दांव पर लगाने के कई मायने निकाले जा रहे हैं, एक तो यह कि यदि वाईदवे शिवराज जीत जाते हैं तो प्रदेश की सभी 29 सीटों पर भाजपा अपना परचम फहराने में सफल हो सकती है ? हालांकि कमलनाथ के प्रभाव के चलते सीट जीतना शिवराज को आसान नहीं होगा। ऐसे में यदि शिवराज के मुकाबले में स्वयं कमलनाथ छिंदवाड़ा से लोकसभा उम्मीदवार बन जाते हैं तो शिवराज की जीत और कठिन हो जाएगी। बहरहाल, यदि शिवराज हार जाते हैं तो उनकी बोलती और हेंकड़ी दोनों ही बंद हो जाएंगे। क्योंकि आज कल शिवराज तो शिवराज उनके पुत्र कार्तिकेय भी कुछ ज्यादा ही बोलने लगे हैं। हाल ही में कार्तिकेय का एक बड़ा बयान आया है। सीहोर में 12 जनवरी को कार्तिकेय ने भेंरूदा के कोसमी में विकसित भारत संकल्प यात्रा के दौरान जनता को संबोधित करते हुए कहा कि यदि आपसे किए गए वादे निभाने के लिए अगर अपनी सरकार से भी लडऩा पड़े तो कार्तिकेय चौहान तैयार है। हालांकि मैं नेता नहीं हूं, मेरा राजनीति में आने की कोई मंशा भी नहीं है। लेकिन यहां पापा शिवराज नहीं मैं आपसे वोट मांगने आया था। अतएव सरकार ने वादे पूरे नहीं किए तो मुझे सरकार से भी लडऩा पड़ा तो इस लड़ाई में कार्तिकेय पीछे नहीं हटेगा।
शिवराज और उनके पुत्र के प्रदेश सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले बयान अब सरकार समेत भाजपा नेतृत्व को भी खटकने लगे हैं। इसलिए भाजपा संगठन और संघ चाहता है कि शिवराज को छिंदवाड़ा से लोकसभा का उम्मीदवार बना दिया जाए। ऐसा होने पर भाजपा के लिए शिवराज की जीत हों या हार दोनों ही स्थितियां अनुकूल रहेंगी। शिवराज यदि जीतते है तो प्रदेष की सभी सीटों पर भाजपा का कब्जा हो जाएगा और यदि शिवराज हारते हैं तो उनकी गति दोई गए पांडे, हलुआ मिले न मांडे।
ममता सिंह
अक्सर किसी तेज़ तर्रार सुंदर मुंदर बेसिक के टीचर से मिलने पर लोग कहते हैं अरे आप इस नौकरी के लायक नहीं, यहां कहां फंस गए! आपको तो अधिकारी बनना चाहिए था या कम से कम इंटर या डिग्री कॉलेज में होना चाहिए था(यूं तो नब्बे प्रतिशत बेसिक वाले इसी कुंठा में जीते हैं कि कहां तो उन्हें बनना अधिकारी था पर बन गए मास्टर) सो बेसिक वाला मास्टर बेचारा आधा तीतर आधा बटेर बनकर नौकरी करता है मतलब उसका शरीर तो बेसिक में रहता है पर उसकी आत्मा लोक सेवा आयोग के गेट पर धरना दिए रहती।
यही खैरख्वाह लोग इंटर कॉलेज वाले को डिग्री कॉलेज भेजते फिरते और जो डिग्री कॉलेज में हो उसे यूनिवर्सिटी ..और तो और यूनिवर्सिटी वाले को यह लोग विदेश की यूनिवर्सिटी के सपने दिखाते फिरते।
फिर भाई लोग लोअर वाले को पीसीएस..पीसीएस को आईएएस लायक बताते हैं (आईएएस को किस लायक बताते मुझे नहीं मालूम क्योंकि हमारी तरफ़ सबसे बड़ी और शान की नौकरी यही मानी जाती है) मने जो जहां है वहां खुश न रहे, मन न लगाए इसका पूरा इंतजाम यह शुभचिंतक लोग किए रहते हैं वह भी तब जबकि हमारे यहां हर किसी को यह मुगालता रहता कि वह जिस काबिल था उसके हिसाब से नौकरी (या छोकरी/छोकरा)नहीं मिली/मिला।
इन लोगों का बस चले तो चींटी को हाथी की जगह लेने और मछली को उडऩे, चिडिय़ा को पानी में रहने का मशवरा दे चुके होते।
भाई जो जहां है वहीं पर क्यों नहीं अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता? ऐसे लोग जब मुझसे कहते हैं कि तुम गलत जगह फंसी हो, तुम इससे बेहतर डिजर्व करती थी तो मेरा जवाब होता है कि आप बिल्कुल फिक्र न करें मैं ठीक उसी जगह पर हूं जहां मुझे होना था और मुझे हमेशा हमेशा के लिए बिना कुंठा, बिना अफसोस के यहीं रहना है।
‘मुझे जैसे ही पता चला कि मैं कैंसर की शिकार हो चुकी हूँ तो मेरा दिमाग कुछ सेकंड के लिए सुन्न हो गया। लेकिन फिर मैंने अगले ही पल तय कर लिया कि मुझे जितना जल्दी हो इस जानलेवा बीमारी से छुटकारा पाना है।’’
यह कहना है दिल्ली से सटे गाजियाबाद इलाके में रहने वाली अनीता शर्मा का।
वो बताती हैं कि जब उन्हें पता चला कि उन्हें स्तन या ब्रेस्ट कैंसर हो चुका है तो थोड़ा सदमा लगा। उनके मुताबिक, ‘मेरे परिवार का हाल तो और भी खराब था।’
उनके अनुसार, ‘फिर मैंने ठान लिया कि इससे हार नहीं मानने वाली हूँ। एक हफ्ते बाद ही मैंने अपना ऑपरेशन कराया और कभी भी इस ख्याल को ख़ुद को हावी नहीं होने दिया कि मैं किसी गंभीर बीमारी से पीडि़त हूँ।’’
अनीता का ऑपरेशन साल 2013 में हुआ था। वे अब एक सामान्य जीवन जी रही हैं। वो लोगों को सकारात्मक सोच बनाए रखने के लिए प्रेरित भी कर रही हैं।
वे न केवल ख़ुद नियमित तौर पर कसरत करती हैं बल्कि लोगों को योग और मेडिटेशन सिखाती भी हैं।
योग और मेडिटेशन का महत्व
ये अनीता शर्मा की इच्छाशक्ति ही थी जिसने उन्हें कभी कमजोर नहीं पडऩे दिया। वे जानती थीं कि उनकी बीमारी चुनौतीपूर्ण है लेकिन अपने विश्वास के ज़रिए ही वह उससे सहजता से निपटने में सफल रहीं।
जानकार मानते हैं कि अगर आप ख़ुद पर विश्वास रखें तो शारीरिक और मानसिक रूप से मज़बूत बन सकते हैं।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए मिसिसिपी स्टेट यूनिवर्सिटी के एक्सरसाइज फिजियोलॉजी विभाग से जुड़े डॉ. जचारी एम गिलेन कहते हैं कि आत्मविश्वास ख़ुद को प्रेरित करने में मदद करता है और इसका सकारात्मक असर होता है।
डॉ. जचारी एम गिलेन, बीबीसी रील्स से बातचीत में कहते हैं, ‘इससे एपिनेफ्राइन, एड्रिनालिन और नोराएड्रिनालिन हार्मोन के स्तर में भारी इजाफा होता है, जो ताक़त का अहसास बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।’’
डॉ. गिलेन के मुताबिक, ‘अगर पूरे आत्मविश्वास के साथ करसत करें तो मांसपेशियों की ताक़त काफी ज्यादा बढ़ाई जा सकती है। एथलीटों की ताकत का असली राज़ यही है।’
वह कहते हैं, ‘मांसपेशियां जितनी बड़ी होती हैं, शरीर उतना ही मज़बूत और ताकतवर होता है। जो एथलीट ज़्यादा ताकतवर होते हैं, उनकी मांसपेशियों का आकार उतना ही बड़ा होता है।’
सकारात्मक सोच और खुद पर विश्वास क्यों जरूरी
डॉ. जचारी एम गिलेन के मुताबिक, ‘मांसपेशियां शरीर की जरूरतों के हिसाब से अपनी भूमिका निर्धारित करने में सक्षम होती है। आम आदमी भले ही किसी एथलीट जितना शानदार प्रदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन वह ताक़तवर हो सकता है और अपने प्रदर्शन में लगातार सुधार ला सकता है। वहीं, सकारात्मक सोच आपको अपने लक्ष्य की तरफ एकाग्र करने में भी मददगार साबित होती है।’
जैसा, अनीता शर्मा के मामले में साफ़ नजऱ आता है। इलाज के दौरान उनका दाहिना हाथ ही खऱाब हो गया था।
अनीता ने बीबीसी के सहयोगी आर द्विवेदी को बताया कि कीमो के दौरान ग़लत ढंग से दवा चढऩे के कारण उनका हाथ अचानक सूज गया और फिर तीन उंगलियों ने काम करना बंद कर दिया।
अनीता बताती हैं कि पहले तो उन्हें लगा था कि इस हाथ से कोई काम ही नहीं कर पाएंगी। लेकिन उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी और धीरे-धीरे इन उंगलियां को चलाती रहीं। अब चाहे आटा गूंथना हो या फिर कोई वजन वाली चीज उठाना, इन उंगलियों के टेढ़े होने के बावजूद उन्हें रोजमर्रा के कामों में कोई दिक्कत नहीं होती।
ख़ुद को कभी असहाय महसूस न करें
अनीता का मानना है कि इंसान को किसी भी हालत में ख़ुद को असहाय नहीं मानना चाहिए और ख़ुद पर भरोसा होना ही सबसे बड़ी ताक़त है। यही वजह है कि ऑपरेशन के बाद भी उन्हें एकदम निढाल होकर बिस्तर पर पड़े रहना पसंद नहीं था।
अनीता को जुलाई 2013 में पता चला कि उन्हें ब्रेस्ट कैंसर है और एक हफ़्ते बाद ही उन्होंने ऑपरेशन करा लिया। ऑपरेशन के अगले दिन से ही वह वॉशरूम तक जाने में भी किसी की मदद नहीं लेती थीं।
वे सकारात्मक सोच पर जोर देती हैं।
उनका कहना है कि कसरत शरीर को मज़बूत बनाती है और सकारात्मक सोच से मानसिक दृढ़ता बढ़ती है और उसके आगे हर कठिनाई या चुनौती छोटी नजऱ आने लगती है।
मनोरोग में भी कारगर है कसरत
विशेषज्ञों की मानें तो मनोरोग की समस्या अगर ज्यादा गंभीर न हो तो योग और व्यायाम की मदद से भी इस पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है।
देहरादून स्थित राजकीय दून मेडिकल कॉलेज में वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. जेएस बिष्ट ने बीबीसी के सहयोगी आर द्विवेदी से कहा, ‘फिजिकल फिटनेस आपकी मांसपेशियां मजबूत करके शारीरिक क्षमता को तो बढ़ाती ही है, यह मानसिक स्वास्थ्य के लिहाज से भी बहुत अहम साबित होती है।’
डॉ. बिष्ट कहते हैं, ‘घबराहट, डिप्रेशन, एंजाइटी जैसी मानसिक समस्याओं से उबरने में नियमित एक्सरसाइज से बेहतर कुछ नहीं हो सकता है।’
डॉ. जेएस बिष्ट का कहना है कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को अलग करके नहीं देखा जा सकता और इसमें आत्मविश्वास भी अहम भूमिका निभाती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा में भी दोनों को एक-दूसरे का पूरक माना गया है।
वे बताते हैं कि तमाम मनोचिकित्सक अपने मरीज़ों को दवाओं के साथ नियमित व्यायाम की सलाह देते हैं क्योंकि शारीरिक तौर पर सक्रिय रहने वाले लोगों के लिए मानसिक चुनौतियों से उबरना ज्यादा आसान साबित होता है।
वे कहते हैं चाहे व्यक्ति किसी भी उम्र का हो, उन्हें कसरत ज़रूर करनी चाहिए क्योंकि इसके तमाम फायदे हैं।
करसत करने से मांसपेशियां मजबूत होती है और उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है।
नियमित तौर पर जॉगिंग, एरोबिक, रस्सीकूद जैसी गतिविधियां फायदेमंद होती हैं।
बैडमिंटन, टेबिल टेनिस जैसे खेलों में हाथ आजमाने से भी शारीरिक क्षमता बढ़ती है
अगर ज्यादा कुछ संभव न हो तो ब्रिस्क वॉकिंग को आजमाया जा सकता है।
बढ़ती उम्र में याददाश्त दुरुस्त रखने में बेहद कारगर है हल्की-फुल्की कसरत
जचारी एम गिलेन कहते हैं, आत्मविश्वास हो तो कसरत के सहारे आप अपनी मांसपेशियों को मजबूत कर एथलीट जैसी ताकत हासिल कर सकते हैं। लेकिन अति-आत्मविश्वास से बचना भी बहुत जरूरी है।
वे कहते हैं कि अभ्यास के दौरान अपनी मांसपेशियों की आवाज की कतई अनसुनी न करें, जितना आराम से संभव हो, उतनी ही कसरत करें और भार उठाने में कतई जल्दबाजी न दिखाएं। किसी दिन कम तो किसी दिन अधिक भार उठाने की कोशिश करें। इससे मांसपेशियां आसानी से शरीर की जरूरतों के हिसाब से ढल जाएंगी। साथ ही वे कसरत के बाद तुरंत प्रोटीन लेने की सलाह देते हैं।
डॉ. रविन्द्र के.बह्मे
नीति निर्माण में साक्ष्य मायने रखता है। लेकिन जीवंत अनुभव भी ऐसा ही है। और उस युवा लडक़ी का अनुभव क्या कहेगा जिसने अपने पिता को कैंसर के कारण खो दिया है? कैंसर सिर्फ एक व्यक्ति को नहीं बल्कि पूरे परिवार को प्रभावित करता है। इसका परिवारों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है, और आने वाली पीढिय़ाँ पीडि़त होती हैं। कई मामलों में पाया गया कि कैंसर का इलाज परिवार को दिवालिया बना देता है, संसाधन सूख जाते हैं, भविष्य खतरे में पड़ जाता है। इसलिए, जीवन बचाने के लिए नीति स्तर पर हस्तक्षेप और बदलाव की सख्त जरूरत हो जाती है।
सितंबर 2022 में, स्वास्थ्य पर संसद की स्थायी समिति ने कैंसर देखभाल योजना और प्रबंधन पर एक समयबद्ध, प्रासंगिक और व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें उसने भारत में कैंसर के कारणों का विस्तृत अध्ययन किया और आवश्यक नीतिगत बदलावों के लिए सिफारिशें कीं। रिपोर्ट में तंबाकू के सेवन से होने वाले कैंसर पर विशेष जोर दिया गया है। समिति ने चिंता जताते हुए कहा कि भारत में, ‘तंबाकू के कारण होने वाले मुंह के कैंसर के कारण सबसे ज्यादा लोगों की जान जाती है, इसके बाद फेफड़े, ग्रासनली और पेट का कैंसर होता है।’ इसमें यह भी कहा गया कि तम्बाकू का उपयोग कैंसर से जुड़े सबसे प्रमुख जोखिम कारकों में से एक है। विशेष रूप से, भारत के उत्तर पूर्व क्षेत्रों के लिए, रिपोर्ट में कहा गया है कि तम्बाकू कैंसर का प्रमुख कारण है, पुरुषों में कैंसर के सभी मामलों में 50-60त्न और महिलाओं में 20-30त्न मामले होते हैं।
राज्यसभा में प्रस्तुत कैंसर संबंधी जवाब में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में कैंसर के मामलों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई (2019- 27113 मामले) जो बढक़र (2022-29253) हो गए।
इन चिंताजनक टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए, समिति ने सरकार को तम्बाकू की खपत को हतोत्साहित करने की सिफारिश की है, विशेष रूप से इस तथ्य के कारण तम्बाकू पर कर बढ़ाकर कि तम्बाकू की कीमतें भारत में सबसे कम हैं।भारत में तम्बाकू की कीमतें सस्ती रखने से इसकी आबादी पर भारी लागत आती है। भारत में तंबाकू की खपत का स्वास्थ्य और आर्थिक बोझ 2017 में 1.77 लाख करोड़ रुपये या भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.04त्न होने का अनुमान लगाया गया था।कैंसर के अलावा, तंबाकू का उपयोग कई एनसीडी से जुड़ा है, जिससे हर साल लगभग 13.5 लाख मौतें होती हैं।हालाँकि, भावनात्मक आघात और वित्तीय संकट के कारण वास्तविक जीवन पर प्रभाव बहुत अधिक और गणना से परे होगाढ्ढ
यह दिखाने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि तंबाकू उत्पादों पर कर बढ़ाना इसकी खपत को कम करने के सबसे प्रभावी तरीकों में से एक है। शोध से पता चलता है कि सिगरेट की कीमत में 10त्न की वृद्धि से भारत जैसे निम्न और मध्यम आय वाले देशों में धूम्रपान को 8त्न तक कम किया जा सकता है और बीड़ी की खुदरा कीमत में समान 10त्न की वृद्धि से इसकी खपत 9त्न तक कम हो सकती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने तंबाकू उत्पादों के खुदरा मूल्य पर न्यूनतम 75त्न कर लगाने की सिफारिश की है और दुनिया भर के 40 देशों ने 75त्न या उससे अधिक कर लगाया है, जिसमें श्रीलंका (77त्न) और थाईलैंड (78.6) शामिल हैं। हमारे क्षेत्र में त्न)। इसकी तुलना में, भारत में सबसे अधिक धूम्रपान किए जाने वाले उत्पाद बीड़ी पर कर की दर केवल 22त्न है। यदि भारत को 2025 तक तंबाकू की खपत में 30त्न की कमी का लक्ष्य हासिल करना है, जो उसने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में निर्धारित किया है, तो अब कार्रवाई करने और तंबाकू करों को बढ़ाने का समय आ गया है।
इस स्तर पर, यह बताना प्रासंगिक है कि किसी भी कराधान नीति के कई उद्देश्य हो सकते हैं। जबकि कराधान सरकार के लिए देश के स्वास्थ्य और विकास एजेंडे में निवेश करने के लिए राजस्व का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, यह एक महत्वपूर्ण प्रोत्साहन या हतोत्साहित करने वाला उपाय भी हो सकता है। जब भारत सरकार ने बीड़ी और धुआं रहित तंबाकू सहित सभी तंबाकू उत्पादों को जीएसटी के उच्चतम 28त्न कर स्लैब में डालने का फैसला किया, तो इसने एक स्पष्ट संदेश दिया कि तंबाकू एक पाप उत्पाद है और इसकी खपत को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। जीएसटी-पूर्व युग (2017 से पहले) में तम्बाकू की खपत को कम करने के लिए कई महत्वपूर्ण उपाय किए गए, जिनमें केंद्र सरकार द्वारा उत्पाद शुल्क करों में क्रमिक और लगातार वृद्धि और राज्य सरकारों द्वारा पूर्ववर्ती मूल्य वर्धित कर (वैट) शामिल थे। सरकार के अपने वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण के अनुसार, इन निरंतर प्रयासों के कारण 2010 और 2017 के बीच तंबाकू उपभोक्ताओं में 81 लाख की कमी आई।
जीएसटी के बाद, तंबाकू उत्पादों के करों या कीमतों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है।दरअसल, सरकार के आंकड़ों से पता चलता है कि तंबाकू उत्पाद अधिक किफायती हो गए हैं क्योंकि उनकी कीमतें अन्य आवश्यक वस्तुओं की तरह उसी दर से नहीं बढ़ी हैं।इससे क्या संदेश जाता है?पोषण पर खर्च करना अब कैंसर पैदा करने वाले उत्पादों पर खर्च करने से महंगा है।
प्रोफेसर एंड हेडएस ओएस इन इकोनॉमिक्स
पंडित रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी, रायपुर
आभा शुक्ला
तुलसीदास ने कई ऐसी बातें लिखीं जिनसे समाज पथभ्रष्ट हुआ। खासकर जो उन्होंने हम महिलाओं के बारे में लिखा उसके लिए मेरी निजी खुन्नस है। तुलसीदास से आपको उनमें आस्था है तो रखिए,पर अगर अब के समय वो होते तो मैने उनके खिलाफ मुकदमा दायर कर रखा होता इसमें भी कोई दो राय नहीं।
ढोल,गंवार,शूद्र,पशु, नारी सकल ताडऩा के अधिकारी पर आप उनका बचाव ये कहकर कर लेते हैं कि यहां ताडऩा का वो अर्थ नहीं है। मंै इस चौपाई को छोड़ ही देती हूं, बाकी को देख लीजिए।
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना, अंध बधिर क्रोधी अति दीना
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना, नारि पाव जमपुर दुख नाना,
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा, कायँ बचन मन पति पद प्रेमा, भावार्थ- वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दु:ख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है।
आप बताइए ये कोई न्याय है। वृद्ध और रोगी का एक बात ठीक है पर मूर्ख, अंधा, घरेलू हिंसा करने वाला व्यक्ति अगर पति है तो उसके चरणों से भी प्रेम करना स्त्री का धर्म है वाह ये था तुलसी का सामाजिक न्याय अगर देवी होना ये है तो फिर दासी होना क्या है ?
और देखिए आगे-
नारि सुभाऊ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।
अब बताइए हम कैसे डाइजेस्ट कर लें इन बातों को आपकी आस्था है तो मुझे इससे आपत्ति नहीं पर मेरा बैर है तुलसी से और वो हमेशा रहेगा मेरी नजर वो घोर स्त्री विरोधी व्यक्ति थे। आप कहां-कहां उनका बचाव करेंगे ताडऩ का अर्थ बदल कर नहीं कर पाएंगे। बेहतर है गलती मान कर सरेंडर कर दीजिए और महाकाव्य में बदलाव करने का सोचिए बाकी लकीर के फकीर तो आप हैं ही।
कृष्ण कल्पित
किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकां आई
मैं घर में सबसे छोटा था मिरे हिस्से में मां आई!
एक जीती-जागती मां की तुलना किसी जड़ दूकान से करने वाले उर्दू के मशहूर शाइर मुनव्वर राना नहीं रहे। वे एक अरसे से बीमार थे और कल हृदयाघात से लखनऊ के एक अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। वे इकहत्तर वर्ष के थे।
मुनव्वर राना की एक और प्रसिद्ध रचना है- मुहाजिरनामा। इस तवील नज़्म में वे अपनी मां को सोना और अपनी अहलिया यानी पत्नी को पीतल बता रहे हैं-
हमारी अहलिया तो आ गई मां छूट गई आखिर
के हम पीतल उठा लाए सोना छोड़ आए हैं!
दरअसल शाइरी की दूकानों पर मुनव्वर राना से पहले माशूक ही अलहदा-अलहदा अंदाज में बिका करते थे। मुनव्वर राना शायद गजल के पहले दूकानदार थे, जिन्होंने गजल की दूकान में मां को या उसकी भावनाओं को बेचना शुरू किया। इससे पहले सलीम जावेद इस मां को, मेरे पास मां है कहकर, बाजार में ला चुके थे और सिनेमा में बेच चुके थे।
मुनव्वर राना राहत इंदौरी की तरह मुशाइरों के मकबूल और कामयाब शाइर थे । मुनव्वर राना, राहत इंदौरी के साथ नवाज देवबंदी ने मुशाइरों की शाइरी को पूरी तरह बदल दिया । इन तीनों ने मिलकर मुशाइरों से तरन्नुम और शाइरी से तगजज़ुल को देश निकाला दे दिया और एक नई तरह की सडक़ की शाइरी का ईजाद किया, जो पिछले तीन दशकों से भारतीय भीड़ों को पागल बनाती रही।
मुनव्वर राना अपनी शायरी में गांव लाए, आंगन, छप्पर, दुपट्टा, अमरूद के पेड़ और मां को लेकर आए । अदब की दुनिया में इस शाइरी का क्या मोल है, पता नहीं लेकिन उनकी शाइरी जनता में और सुनने वालों में बेहद लोकप्रिय थी ।
इब्ने बतूता ने भारत के बारे में शताब्दियों पूर्व जो किताब लिखी थी उसमें वे एक दिलचस्प बात कहते हैं कि भारत के लोगों की एक विचित्र आदत है कि ये बात-बात में तालियां बजाते रहते हैं। तुक या काफिया मिलते ही ये ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजाते हैं। आजकल के मुशाइरे और कथित कवि सम्मेलन जब सुनता हूं तो मुझे इब्नबतूता की बात याद आती है। वे बिना अर्थ समझे सिर्फ तुक मिलने पर तालियां बजाने लगते हैं ।
गांव-देहात के इतने सारे बिंबों के साथ मुनव्वर राना की गज़़लों को आसानी से आप ग्रामीण शाइरी कह सकते हैं। मुनव्वर राना मुशाइरों के सबसे लोकप्रिय और महंगे शाइरों में से एक थे । विचारों से वे कई बार कठमुल्ला लगते थे। वे पहले कोलकाता में और इन-दिनों लखनऊ में गजल ट्रांसपोर्ट नाम की कम्पनी भी चलाते थे। यही कारण रहा होगा कि मुनव्वर राना अपनी गजलों के काफिये भी ट्रक के टायरों की तरह बदलते थे, जो बहुत खडख़ड़ाहट और शोर करते हैं ।
उर्दू के एक लोकप्रिय शाइर मुनव्वर राना को हिन्दी के एक कवि की तरफ से खिराजे अकीदत और विनम्र श्रद्धांजलि !
वह कबूतर क्या उड़ा छप्पर अकेला हो गया
मां के आंखें मूंदते ही घर अकेला हो गया!