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आजकल : 21वीं सदी का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक काम यह हुआ
26-Jul-2020 12:58 PM
आजकल : 21वीं सदी का सबसे बड़ा  लोकतांत्रिक काम यह हुआ

नयादौरडॉटटीवी

बहुत से तबकों में एक-दूसरे के लिए कुछ उसी किस्म की हिकारत होती है जैसी एक खूबसूरत लडक़ी के  दो आशिकों के बीच एक-दूसरे के लिए रहती ही रहती है। प्रिंट मीडिया में पूरी जिंदगी गुजारने वाले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को नीची नजरों से देखते हैं कि यह भी कोई पत्रकारिता है? इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लोग इस गुरूर में ही गुब्बारा रहते हैं कि बड़े से बड़े नेता उन्हें देखते ही कपड़े ठीक करने लगते हैं, और मुंह से मास्क उतारकर तलाशने लगते हैं कि माईक कहां है, और कैमरा कहां है। टीवी स्टूडियो में कल के छोकरे बड़े-बड़े नेताओं को उनके पहले नाम से बुलाते देखे जाते हैं, और बुजुर्ग नेता भी मानो इस पर खुश ही रहते हैं कि वे जवान हो गए हैं। अब ऐसे में इलेक्ट्रॉनिक मीडियाके लोगों को भी यह हकीकत तो मालूम रहती है कि असली जर्नलिज्म क्या है, और वे क्या कर रहे हैं, इसलिए बाहर तो दिखावा चाहे जो भी हो, मन के भीतर तो वे भी प्रिंट मीडिया के पुराने अखबारनवीस को रकीब ही मानकर चलते हैं। अब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी कोई दो पीढ़ी पुरानी तकनीक हो गई है, और नया डिजिटल मीडिया इलेक्ट्रॉनिक के लिए एक और रकीब बन गया है। 

रकीबों की इस कतार का नजारा तब और दिलचस्प हो जाता है जब इन सबके मुकाबले सोशल मीडिया पर लगातार लिखने और बोलने वाले लोग छा जाते हैं। एक वक्त कोई साहित्यकार अपनी किताब छपने की राह तकते बूढ़े होने लगते थे, अब अपना ब्लॉग बनाकर वे दसियों हजार लोगों को अपना लिखा पढ़वा पा रहे हैं। हिन्दी के साहित्य का हाल तकरीबन पूरी जिंदगी यह रहा कि प्रकाशक साढ़े पांच सौ किताबें छापकर उसमें से पारिश्रमिक के रूप में पचास किताबें देकर हाथ झाड़ लेता था, और वे पांच सौ किताबें कई बरस तक धीरे-धीरे बिकती रहती थीं। लेखक खुद इन पचास किताबों को आसपास बांटकर, समीक्षकों को देकर कुछ और शोहरत पा लेता था, लेकिन वह हिन्दी के 99 फीसदी लेखकों का कुल हासिल रहता था। आज जो लोग ज्वलंत और समकालीन मुद्दों पर लिखते हैं, उनको कुछ घंटों के भीतर ही साढ़े पांच सौ से अधिक लोग पढ़ लेते हैं, कई दर्जन लोग उनको दुबारा पोस्ट कर देते हैं, और वहां पर कई हजार लोग और पढ़ लेते हैं। 

सोशल मीडिया ने देश के कुछ सबसे अच्छे ऐसे पत्रकार सामने ला दिए हैं जिनका पेशा कुछ और है, जो न कभी पेशेवर-पत्रकार रहे, न रहेंगे, लेकिन जो बहुत ही स्थापित और नामी-गिरामी अखबारी-स्तंभकार, और डिजिटल-ब्लॉगर के मुकाबले बेहतर लिख रहे हैं, अधिक जरूरी लिख रहे हैं, अधिक आजादी से लिख रहे हैं, और शायद अधिक अराजकता से भी। नतीजा यह हुआ है कि अखबारों से लेकर टीवी के स्टूडियो के कथावाचक सरीखे एंकरों तक, और पेशेवर डिजिटल-पत्रकारों तक पर एक अनकहा दबाव रहता है कि गैरपत्रकार लोग सोशल मीडिया जैसे जनमंच पर उनसे बेहतर तो नहीं लिख रहे हैं? और सच तो यह है कि बेहतर लिख ही रहे हैं। लोग आज जब एक मामूली सा सर्च इंटरनेट पर करते हैं, तो उसमें एक ही विषय पर जितने लोगों का लिखा हुआ एक पल में सामने आ जाता है, उससे तुलना बड़ी आसान भी हो जाती है। 

बड़ी शोहरत वाले स्तंभकारों के साथ यह दिक्कत भी हमेशा से रहते आई है कि उनके विचार और उनके तर्क प्रिडिक्टेबल रहते हैं जिनके बारे में पढऩे से पहले ही पूरा अंदाज लग जाता है। लेकिन सोशल मीडिया पर नया लिखने वाले लोग, स्तंभकारों की तरह कॉलम वाले अखबारों की पसंद-नापसंद, रीति-नीति की फिक्र करने पर मजबूर नहीं रहते, वे एक आजाद कलम रहते हैं, वे किसी भी कैद से परे रहते हैं। फिर यह भी है कि कल तक प्रिंट के जो दिग्गज अपने खुद के अखबार में, या उन अखबारों में जहां वे स्तंभकार रहते थे, वहां पाठकों की प्रतिक्रिया पर उनका काबू रहता था। बहुत अधिक कड़ी और कड़वी आलोचना शायद ही किसी अखबार में पाठकों के पत्र कॉलम में जगह पाती थी। लेकिन अब इंटरनेट पर, इंटरनेट पर तो लोग पल भर में आपकी धज्जियां उड़ाकर रख देते हैं, और आपका अगला-पिछला सब कुछ नंगा करके रख देते हैं। लिखने के पीछे अगर कोई बदनीयत रहती है, तो लोग कई बार तो उसके सुबूतों सहित नामी-गिरामी लोगों का भांडाफोड़ कर देते हैं कि यह चापलूसी, यह ठकुरसुहाती किसलिए की गई है। 

इसलिए आज मीडिया के अपने पारदर्शी हो जाने से, और सोशल मीडिया के आ जाने से साहित्यकारों से लेकर पत्रकारों तक पर एक इतना बड़ा लोकतांत्रिक दबाव पड़ा है जिसकी कोई कल्पना दो दशक पहले तक किसी ने की नहीं थी। सोशल मीडिया में आकर लोकतंत्र को जवाबदेह बनाने का एक बड़ा काम किया है, और लोकतंत्र का स्वघोषित चौथा पाया होने का दावा करने वाले प्रेस और मीडिया को भी। अब मीडिया के किसी झूठ को उजागर करने के लिए लोगों को उसी मीडिया के एक सबसे तिरस्कृत कोने के आखिर में जगह पाने का संघर्ष नहीं करना पड़ता। अब लोग खुद लिखकर पोस्ट कर सकते हैं, हजार रूपए में अपनी वेबसाईट बना सकते हैं, और झूठ को झूठ, सच का भी जीना हराम कर सकते हैं। 

टेक्नालॉजी की लाई हुई इस क्रांति ने लोकतंत्र को चाहे अराजक ही क्यों न बना दिया हो, उसने लोकतंत्र को जिंदा भी कर दिया है। एक शहर के दो-तीन अखबार गिरोहबंदी करके किसी बड़े विज्ञापनदाता के बड़े से बड़े जुर्म को अनदेखा करने का आसान सा काम कर लेते थे, लेकिन अब किसी बात को उस तरह दबा पाना नामुमकिन हो गया है। अगर मीडिया का बड़ा हिस्सा उसे दबा भी देता है, तो फेसबुक या ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर आम लोग, जिन्हें स्थापित मीडिया दो कौड़ी का कहते आया है, वे लोग भी बड़े इश्तहारों की तस्वीर, और बड़े जुर्म पर चुप्पी को जोडक़र पोस्ट करने लगते हैं, और इसका कोई कानूनी असर चाहे न हो, तथाकथित बड़े मीडिया का तौलिया पल भर में चौराहे पर उतर जाता है। 

सोशल मीडिया ने स्थापित और मेनस्ट्रीम कहे जाने वाले मुख्य धारा के मीडिया की सत्ता और राजनीति के साथ गिरोहबंदी भी कमजोर कर दी है। अब जब सत्ता और राजनीति को यह लगता है कि कुछ अखबारों और कुछ चैनलों को मैनेज कर लेने से ही बात नहीं बनेगी, और रायता तो सोशल मीडिया पर बिखर ही जाएगा, तो फिर मूलधारा के संगठित मीडिया का वजन भी घट गया, और लोकतंत्र को एक सांस लेने की मोहलत मिल गई। 

सोशल मीडिया अपने अराजक और गैरकानूनी तेवरों की वजह से इतना बदनाम हो गया है कि उससे कुछ अच्छा भी होता है, यह मानने से भी बहुत से लोग इंकार कर देंगे। लेकिन हकीकत यह है कि मुम्बई में दाऊद भी रहता था, और भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिक भी कामयाबी हासिल करते थे। कुछ वैसा ही हाल सोशल मीडिया का भी है। इस पर बुरे लोग भी हैं जो कि रात-दिन नफरत फैलाकर, हिंसा फैलाकर लोकतंत्र को खत्म करने में लगे हुए हैं, और दूसरी तरफ भले लोग भी हैं जिनके दबाव में सरकारों को  बिकते हुए पल भर को झिझक तो होती ही है, और आगे-पीछे जाकर उनका भांडा भी फूटता है। चिडिय़ा के चहकने की तरह नाम और तस्वीर वाले ट्विटर का मिजाज उस कौंए की तरह है जो चीख-चीखकर कुछ उजागर करने के लिए जाना जाता है। जिस फेसबुक के बिना आज दुनिया के मुखर लोगों का काम चलता नहीं है, वह फेसबुक लोगों के फेस पर पहने गए नकाब और मुखौटे उतार देने की सबसे बड़ी जगह बन गई है। यह सिलसिला साबित करता है कि अपनी सारी अराजकता के बावजूद सोशल मीडिया ने जो दो सबसे बड़े काम किए हैं, उनमें से एक तो यह कि मेनस्ट्रीम मीडिया में खरीदी गई चुप्पी का असर खत्म कर दिया है, दूसरा यह किया है कि तमाम तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया पर एक अनकहा दबाव पैदा कर दिया है कि उसकी चुप्पी का भांडाफोड़ एक अकेला चना भी कर सकता है। 

सच कहें तो 21वीं सदी में सबसे बड़ा लोकतांत्रिक काम स्थापित मीडिया का एकाधिकार टूटना, और सोशल मीडिया का इतनी बड़ी जगह पा जाना हुआ है। आज हिन्दुस्तान जैसे देश में भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा होते जा रहा है जिसकी पहली सूचना का जरिया स्थापित मीडिया न होकर सोशल मीडिया हो गया है, और जिसके विचारों को प्रभावित करने का काम स्थापित मीडिया से कहीं आगे बढक़र सोशल मीडिया कर रहा है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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