आजकल
हाल के बरसों में मैंने अपने बहुत से कॉलम्स में, और दूसरी जगह लिखे, या कहे हुए में कुछ देशों को लेकर बार-बार विकसित लोकतंत्र लिखा है। अभी पिछले कुछ बरस से कनाडा में जो प्रधानमंत्री हैं जस्टिन ट्रूडो, उनकी तारीफ में भी कुछ लिखा है। लेकिन ये खूबियां इन लोकतंत्रों के बहुत ताजा इतिहास को देखते हुए गिनाई गई हैं। थोड़े से और पहले अगर जाएं तो इनका इतिहास इतना खराब भी रहा है कि उनके बारे में विकसित लोकतंत्र जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं हो सकता था। ऐसा ही एक मामला कनाडा को लेकर अभी सामने आया है जिसमें वहां के एक आवासीय विद्यालय के अहाते में 215 बच्चों की एक सामूहिक कब्र मिली है। ये बच्चे 1978 में बंद हुए एक ऐसे स्कूल के रहवासी थे जिसे वहां के मूल निवासियों के बच्चों को शहरी और सभ्य बनाने के नाम पर, शिक्षित बनाने के नाम पर वहां रखा गया था।
अब ऐसी सामूहिक कब्र देखकर कनाडा की सरकार हिल गई है, और वहां के प्रधानमंत्री ने यह लिखा है कि इसे देख कर उनका दिल टूट गया है। यह जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की सामूहिक कब्र एक साथ मौतों से जुड़ी हुई हो सकती है, और ये बच्चे अपने परिवारों से छीनकर, अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर लाकर, एक ईसाई और शहरी सभ्यता के पुर्जे बनाने के लिए रखे जाते थे, और अब कनाडा के मूल निवासी समुदाय भी बहुत बुरी तरह दुख में डूब गए हैं कि उनके बच्चों के साथ ऐसा किया गया। कनाडा का इतिहास बतलाता है कि 1863 से 1998 तक करीब डेढ़ लाख आदिवासी बच्चों को परिवारों से अलग रखा गया और इन्हीं स्कूलों में लाकर बसाया गया क्योंकि शहरी और ईसाई सत्ता अपनी संस्कृति, अपनी पढ़ाई और अपने तौर-तरीकों को ही सभ्य मानती थी, और आदिवासियों की मूल संस्कृति को असभ्य।
लोगों को याद होगा कि कुछ ऐसी ही किस्म का काम ऑस्ट्रेलिया में वहां की शहरी सरकारों और चर्च ने मिलकर किया था। ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों या जिन्हें मूल निवासी भी कहा जाता है, उनके बच्चों को चर्च और सरकार छीनकर ले आते थे, और उन्हें शहरी, ईसाई पढ़ाई में रखकर उन्हें इंसान बनाने का एहसान किया जाता था। अभी कुछ बरस पहले ऑस्ट्रेलिया की आज की सरकार को समझ आया कि उसके पुरखे इंसानियत के खिलाफ इतना बड़ा जुर्म कर रहे थे, तो उसने वहां के मूल निवासी समुदायों के लोगों को संसद में आमंत्रित किया और उन्हें सदन के बीच लाकर उनसे पूरे सदन ने माफी मांगी कि आस्ट्रेलिया की सरकार ने, और वहां के शहरी समुदाय ने, मूल निवासियों के साथ ऐसा किया था। ऑस्ट्रेलिया का इतिहास बताता है कि इन बच्चों को 1905 से लेकर 1967 तक उनके परिवारों से छीना जाता रहा।
इस तरह देखें तो कनाडा की यह ताजा घटना जो कि 1998 तक चल रही थी, और ऑस्ट्रेलिया की स्टोलन जनरेशन (चुराई गई पीढिय़ां) की घटना जो कि 1967 तक चल रही थी, ये हिंदुस्तान की आजादी के काफी बाद तक चलने वाली घटनाएं हैं और पश्चिमी देशों के इतिहास को देखें तो उनमें से कई में सबसे कमजोर तबकों पर जुल्म हिंदुस्तान में लोकतांत्रिक कानून बनने के बहुत बाद तक कानूनी रूप से जारी रहे। यह एक अलग बात है कि हाल के वर्षों में हिंदुस्तान में इस देश के सबसे कमजोर तबकों के साथ कुछ उसी किस्म का काम चल रहा है और दलित-आदिवासी, अल्पसंख्यक सडक़ों पर पीटे जा रहे हैं उनकी भीड़त्या हो रही है। हिंदुस्तान में जगह-जगह उन पर शहरी, संपन्न, सवर्ण, और सनातनी सांस्कृतिक मूल्यों को लादा जा रहा है, और पीट-पीटकर उन्हें मजबूर किया जा रहा है कि वे खान-पान से लेकर पहनावे तक उन पर थोपी जा रही बातों को मानें। लोकतांत्रिक हिंदुस्तान की 21वीं सदी के 21वें बरस में भी आज दलित को मूंछें रखने पर गुजरात में बुरी तरह पीटा जा रहा है, और मध्य प्रदेश में दलितों दूल्हे को अगर घोड़ी पर चढक़र निकलना है तो उसके लिए जब तक बड़ी पुलिस हिफाजत ना हो जाए तब तक वह मुमकिन नहीं हो पाता। इसलिए हिंदुस्तान के कुछ कागजी कानूनों को लेकर अब विकसित हो चुके पश्चिमी लोकतंत्रों के साथ हम तुलना करना नहीं चाहते।
मुझे याद है कि अपनी रिपोर्टिंग के दिनों की शुरुआत मैं मैंने अपने शहर के वनवासी कल्याण आश्रम के एक कन्या छात्रावास में उस वक्त की जनसंघ की बहुत बड़ी नेता विजयाराजे सिंधिया से मुलाकात की थी वहीं बात हुई थी, और वहीं मैंने उत्तर पूर्वी राज्यों से लाकर यहां रखी गई उन बच्चियों के साथ विजयाराजे सिंधिया की बहुत सी तस्वीरें भी खींची थी। वह दौर मेरे शुरुआती कामकाज का था और उस वक्त इतनी राजनीतिक समझ भी नहीं थी कि उत्तर-पूर्व से लाकर यहां पर कट्टर हिंदूवादी संस्कृति के संस्थान में इन बच्चियों को रखना, पढ़ाना, और इनमें एक अलग धार्मिक संस्कार विकसित करना बहुत मासूम काम नहीं था। इन बच्चियों को वहां पर उत्तर-पूर्व के उन राज्यों से लाकर रखा जा रहा था, जिन राज्यों में आदिवासियों के ईसाई हो जाने का खतरा संघ परिवार को लग रहा था। लेकिन बाद के वर्षों में धीरे-धीरे जब दुनिया के दूसरे देशों में शहरी और संगठित आधुनिक धर्मों द्वारा आदिवासियों के साथ किए जा रहे सुलूक के बारे में पढ़ा, तो धीरे-धीरे एक समझ विकसित हुई कि यह उन गरीब आदिवासी परिवारों पर कोई एहसान नहीं है। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की तरह एक पूरी पीढ़ी की चोरी है। यह उन्हें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से अलग करके उनके ईसाई होने के खतरे को घटाने की हरकत है। यह पूरा सिलसिला, दुनिया में सत्ता और धर्म की मिली-जुली साजिश, ऐसे ही चलते हैं।
मध्यप्रदेश के लोगों को यह अच्छी तरह याद होगा कि यह सिलसिला जनता पार्टी सरकार के वक्त आपातकाल के तुरंत बाद शुरू हुआ था जब वनवासी कल्याण आश्रम जैसे हिंदूवादी संगठन को उस वक्त के जनता पार्टी सरकार के, जनसंघ के मुख्यमंत्री की मेहरबानी हासिल थी। दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि जब राजा और पुरोहित एक हो जाते हैं, राज्य और चर्च एक हो जाते हैं, तो जनता को अपार जुल्मों से कोई नहीं बचा सकते। यह जुल्म जब धर्म का नाम लेकर, राज्य की सत्ता की ताकत का इस्तेमाल करके ढाए जाते हैं, तो उनका कोई अंत नहीं होता।
कुछ बरस पहले भारत सरकार की तरफ से देश के कुछ अखबारों के संपादकों को उत्तर पूर्व के दौरे पर ले जाया गया था और उस वक्त मिजोरम की राजधानी आइजोल में 3 दिन रहने का मौका मुझे भी मिला था। दिलचस्प यह था कि मैं उस वक्त मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के विधानसभा चुनाव की रिपोर्टिंग के लिए गुजरात में था। वहीं पर फोन से मिजोरम पहुंचने का न्योता मिला। जब हफ्ते भर एक शराबबंदी वाले राज्य के बाद शराबबंदी वाले दूसरे राज्य मिजोरम पहुंचा, तो बहुत से अखबारनवीसों ने हमदर्दी जताई थी।
मिजोरम एक छोटा सा राज्य था और इन 3 दिनों में, दो या तीन बार तो मुख्यमंत्री ने ही डिनर पर बुला लिया था। मुख्यमंत्री से औपचारिक बातचीत भी हुई थी जिनमें पता लगा था कि यंग मिजो एसोसिएशन नाम का एक संगठन उस राज्य में बहुत सक्रिय है. वह लोगों को नशा करने से रोकता है, नशे के कारोबार को रोकता है, फिर भी कोई नशे में मिले तो उसे चौराहे पर खंभे से बांधकर पीटता है। कोई व्यक्ति अपनी बीवी को पीटे तो इस संगठन के लोग जाकर उसे पीटते हैं, और राज्य में नैतिकता के पैमानों का एक ढांचा लागू करते हैं। जब मुख्यमंत्री से पूछा गया था कि क्या इन्हें कोई कानूनी रियायत मिली हुई है तो उन्हें इस व्यवस्था में कोई जटिलता नहीं दिखी, कोई कानूनी दिक्कत नहीं दिखी कि एक धार्मिक संगठन प्रदेश के लोगों में बुराई को खत्म कर रहा है, तो उसे क्यों रोका जाए।
उन्होंने बहुत से शब्दों में इस बात को दोहराया था कि सरकार तो इस संगठन का साथ देती है। मिजोरम शायद 87 फ़ीसदी से अधिक ईसाई राज्य है, और वहां चर्च का बहुत बड़ा असर है। देशभर से इकट्ठा संपादकों के स्वागत में जो सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किए गए, उसमें भी दोनों-तीनों दिन चर्च में गाए जाने वाले गाने भी शामिल थे। वहां की संस्कृति ही उस तरह की थी और ईसाई धर्म मानो वहां का राजधर्म हो गया था। उस प्रदेश में रहने वालों को इस राजधर्म और लोकतंत्र में कोई टकराव भी दिखना बंद हो गया था।
हालत यह थी कि जब पत्रकारों को दोपहर के भोजन की योजना दिखाने के लिए ले जाया गया तो मैंने यह सुझाया कि स्कूली बच्चों के साथ ही पत्रकार खा लेंगे उनके लिए अलग से किसी रेस्ट हाउस में खाना रखने की क्या जरूरत है? लेकिन जब स्कूल पहुंचे तो समझ पड़ा कि मेरी राय न मानना बेहतर रहा। उस स्कूल में दोपहर के भोजन में बच्चों के लिए दो तरह के खाने का इंतजाम था एक सूअर के गोश्त के साथ चावल, और एक बीफ के साथ चावल। बीफ लिखना इसलिए जरूरी है कि इसमें गोवंश के साथ-साथ भैंस का गोश्त भी आ जाता है। वहां पर यह पूछने पर कि अगर कोई शाकाहारी हो तो उस बच्चे के लिए खाने को क्या है, किसी स्थानीय अफसर के पास कोई जवाब नहीं था क्योंकि वहां शाकाहार किस्म की कोई चीज चलन में नहीं थी। वहां पहुंचे अखबार वालों में से बहुत से लोग शाकाहारी थे और यह अच्छा ही हुआ कि खाने का इंतजाम कहीं और था जहां पर गोश्त के अलावा शाकाहारी खाना भी था।
उत्तर पूर्व के इन दो मामलों का जिक्र करने की वजह यह है कि धर्म और राज्य मिलकर कितने खतरनाक हो सकते हैं इसकी मिसाल देखने के लिए ऑस्ट्रेलिया और कनाडा ही जाने की जरूरत नहीं है हिंदुस्तान में ही इसे वनवासी कल्याण आश्रम के शबरी आश्रमों में देखा जा सकता है, या कि मिजोरम जैसे ईसाई बहुल राज्य में देखा जा सकता है जहां पर चर्चा और राज्य में कोई फर्क ही नहीं है, और दोनों एक ही साथ मिलकर काम करते हैं। ऑस्ट्रेलिया और कनाडा की संसद और सरकारें तो आदिवासियों के बच्चों को उनसे दूर लाने के लिए माफी मांग चुकी हैं, मांग रही हैं, हिंदुस्तान में यह चोरी जारी है !