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भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने कर्नाटक के एक जज को श्रद्धांजलि देने के कार्यक्रम में देश की न्याय व्यवस्था को लेकर फिक्र जाहिर की और कहा कि यह अंग्रेजों के दौर से चली आ रही व्यवस्था है, जिसके भारतीयकरण की जरूरत है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की समस्याओं पर अदालतों की वर्तमान कार्यशैली कहीं से भी फिट नहीं बैठती है। उन्होंने कहा कि गुलामी के समय की न्याय व्यवस्था चली आ रही है और अदालतों में अंग्रेजी में कानूनी कार्रवाई चलती है जिसे ग्रामीण या और लोग नहीं समझ पाते, इसलिए भी किसी केस पर उनके अधिक पैसे खर्च होते हैं। उनका कहना है कि न्यायपालिका का काम ऐसा होना चाहिए कि आम आदमी को कोर्ट और जज से किसी भी तरह का डर नहीं लगे।
जस्टिस एनवी रमना लगातार कई किस्म की सकारात्मक बातें कर रहे हैं, और अदालत में भी उनका रुख सरकार के हिमायती किसी जज का न होकर जनता के हित का दिखता है, और ऐसा साफ नजर आता है कि वह सरकार का चेहरा देखकर ठकुरसुहाती के अंदाज में बातें नहीं करते हैं। वे सरकार से कड़े सवाल करके जवाब-तलब करने में नहीं हिचकते हैं। इसलिए उनकी बातों को अधिक महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए क्योंकि पिछले कई वर्षों में सुप्रीम कोर्ट में ऐसा कम ही हुआ है कि मुख्य न्यायाधीश जनता के हितों के पक्षधर दिखे हैं, और सरकार को खुश करने की कोई नीयत उनकी नहीं दिखी है। लेकिन जिस जज को श्रद्धांजलि देने के लिए वे पहुंचे थे उस जज की कई खूबियों को भी उन्होंने गिनाया और हम उस बारे में भी आज इस कॉलम में लिखना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि जस्टिस मोहन एम शांतनगौदर एक ऐसे असाधारण जज थे, जो बहुत काबिल भी थे लेकिन वे दयालु थे और उदार थे। जस्टिस रमना ने बताया कि किस तरह उन दोनों ने किसी बेंच पर एक साथ रहते हुए कई महत्वपूर्ण मामलों में फैसले लिए थे, जिनमें मौत की सजा पाए हुए दोषियों के मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा भी शामिल रहा।
जस्टिस रमना की कही हुई इन बातों से परे भी भारत की न्यायपालिका में बहुत सारी चीजें हैं जिनमें सुधार की जरूरत है, और हो सकता है कि देश के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए वे इस मामले में दखल दे सकें, और चीजों को बेहतर बना सकें। चूँकि उन्होंने अंग्रेजों के समय की छोड़ी गई गुलामी के दिनों की परंपराओं को लेकर यह चर्चा की है, इसलिए यह याद रखना जरूरी है कि हिंदुस्तान के अधिकतर हिस्सों में साल के अधिकतर महीनों में गर्मी रहती है, और अदालतों के कमरे, खासकर छोटी अदालतों के, जिला अदालतों के कमरे, वकीलों के चैम्बर, अदालतों गलियारे, एयर कंडीशंड नहीं रहते हैं। ऐसे में वकीलों और जजों को काले कोट कर पहनकर काम करने के लिए कहना एक बड़ी ज्यादती रहती है। बहुत से गरीब वकील जिनके पास सिर्फ एक कोट रहता है वे अपने काले कोट पर पसीने के दाग लिए हुए काम करते हैं, क्योंकि वे रोज उसे धुलवा भी नहीं सकते।
इससे परे एक दूसरी चीज यह है कि निचली अदालतों में तो हमारे देखने की यह आम बात है कि जजों के ठीक सामने बैठे हुए उनके बाबू किसी तारीख को बढ़ाने के लिए या कोई भी रियायत ना चाहने वाले गवाह या वादी, प्रतिवादी किसी के भी आने पर वहां उसकी हाजिरी भी लगाने के लिए नगद रिश्वत लेते हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता कि उन जजों की नजर में यह न आता हो। ऐसे में यह मानने की कोई वजह नहीं है कि ऐसी रिश्वत में उन जजों का हिस्सा नहीं रहता। देश के मुख्य न्यायाधीश गरीब और ग्रामीण लोगों को अदालतों में होने वाली तकलीफ की बात करते हैं तो यह तो एक बहुत बड़ी तकलीफ है जो कि अधिकतर प्रदेशों की निचली अदालतों में खुलकर सामने दिखती है। ऐसा नगद रिश्वत का लेन-देन भी अगर कोई जज अपनी आंखों के सामने नहीं रोक पाते हैं, तो सुप्रीम कोर्ट को, और मुख्य न्यायाधीश को इस बारे में सोचना चाहिए।
अदालतों से दहशत की एक बड़ी वजह यह भी है कि कई वकील वादी, प्रतिवादी को बुरी तरह निचोड़ लेते हैं और अदालतों के बाबू तो उनकी हालत खराब कर ही देते हैं। निचली या ऊपर की हर किस्म की अदालतों में जजों के भ्रष्ट होने की आशंका बहुत से लोग समय-समय पर जाहिर करते आए हैं और लोगों को याद होगा कि किस तरह देश के कानून मंत्री रहे हुए शांति भूषण और उनके वकील बेटे प्रशांत भूषण ने एक वक्त सुप्रीम कोर्ट के आधा दर्जन से अधिक जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाया था। अदालत ने उन पर अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाया था, उन पर कई तरह से दबाव डाला गया था कि वे माफी मांगें, ताकि इस मामले को खत्म किया जा सके, और बाप-बेटे ने किसी भी माफी मांगने से इंकार कर दिया था। लेकिन उनकी बात का नैतिक दबाव इतना था कि शायद अदालत ने आज तक उस मामले का निपटारा ही नहीं किया है, और ऐसा सच आरोप लगाने वाले शांति भूषण और प्रशांत भूषण को सजा देने की हिम्मत शायद अदालत की नहीं पड़ी, और वह मामला अभी तक खड़ा हुआ है। अगर अदालतों में वकीलों से चर्चा की जाए, और अलग-अलग किस्म के अलग-अलग दर्जे के बहुत से वकीलों से चर्चा की जाए, तो यह साफ पता लग जाता है कि कितने जज रिश्वत नहीं लेते हैं। कुछ मौके ऐसे भी आए हैं जब किसी एक हाईकोर्ट के कई वकीलों से चर्चा करने पर यह भी सुनने मिला कि वहां एक भी जज के ईमानदार होने की उन्हें कोई खबर नहीं है। अब अगर देश के मुख्य न्यायाधीश अदालतों को जनता के प्रति दोस्ताना बनाना चाहते हैं, अदालतों की दहशत खत्म करना चाहते हैं, तो भ्रष्टाचार तो एक बहुत ही ठोस मुद्दा है जो कि एक जुर्म भी है, और सजा के लायक जुर्म है। इसलिए उन्हें सबसे पहले न्यायपालिका से भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एक अभियान चलाना चाहिए। हमारा ऐसा मानना है कि इसके लिए एक मौलिक सूझबूझ की जरूरत भी पड़ेगी क्योंकि यह इतना संगठित काम हो चुका है, इसकी जड़ें इतनी गहरी बैठ चुकी हैं, कि कोई एक मुख्य न्यायाधीश अपने कार्यकाल में इसे पूरी तरह से खत्म तो नहीं कर सकते, लेकिन किसी भी बात का समाधान उस दिन शुरू होता है जिस दिन उस समस्या के अस्तित्व को मान लिया जाए। इसलिए हम चाहते हैं कि देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के बारे में और अधिक खुलकर बोलें, और अधिक खुलकर चर्चा करें। न्यायपालिका और वकीलों के बीच में इस बात को लेकर एक विचार विमर्श शुरू हो कि भ्रष्टाचार को कैसे खत्म, या कम किया जा सकता है। उनकी इस बात से हम सहमत हैं कि अदालत के नाम से ही आम लोगों के मन में दहशत आ जाती है। जो मुजरिम हैं वहीं अदालत में सबसे अधिक आत्मविश्वास से और सबसे अधिक बेफिक्री से घूमते हैं।
भारत की न्यायपालिका को लेकर एक बात जिसे सीधे-सीधे सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बिना किसी नीतिगत फैसले के एक मामूली आदेश से ही सुधार सकते हैं। आज भारत की बड़ी अदालतों में जजों के लिए योर ऑनर, या मी लॉर्ड जैसे सामंती शब्दों का इस्तेमाल चल रहा है जो कि अंग्रेजों के समय से शुरू हुआ है। या सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है और एक इंसान और दूसरे इंसान के बीच में दर्जे का इतना बड़ा फासला खड़ा कर देता है कि नीचे खड़े हुए लोग दहशत में आ ही जाते हैं। इसलिए अदालत की भाषा से ये अलोकतांत्रिक शब्द पूरी तरह से खत्म करना चाहिए। देश के मुख्य न्यायाधीश को यह भी देखना चाहिए कि अभी कुछ बरस पहले प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति बनने पर राष्ट्रपति के लिए संबोधन में महामहिम शब्द का इस्तेमाल खत्म करवा दिया था, जो कि पूरी तरह से अंग्रेजी राज के सामंतवाद का एक प्रतीक था। इसके बाद देश के बहुत से राज भवनों में भी राज्यपाल के लिए महामहिम शब्द का इस्तेमाल बंद हुआ, और अगर कहीं चल रहा होगा तो उसकी जानकारी अभी हमको नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में जजों के काले लबादे, जजों के लिए अलग किस्म के राजसी पोशाक वाले चपरासी, इन सब का सिलसिला खत्म करना चाहिए। जजों को अधिक से अधिक इंसान की तरह रहना चाहिए ताकि बाकी इंसान उनसे दहशत ना खाएं।
इस सिलसिले में हमको एक शानदार मिसाल याद पड़ती है जो कि हिंदुस्तान के जजों को थोड़ा सा आहत भी कर सकती है। लेकिन जब कभी हम सुधार की बात करेंगे तो कुछ ना कुछ लोग तो आहत होंगे ही। अमेरिका के एक राज्य रोड आइलैंड में प्रोविडेंस नाम की जगह पर एक म्युनिसिपल कोर्ट के एक जज हैं जिनका नाम फ्रैंक कैप्रियो है। दिलचस्प बात यह है यह स्थानीय अदालत मोटे तौर पर ट्रैफिक के चालान का निपटारा करती है, और यहां तक वही लोग आते हैं जो लोग ट्रैफिक पुलिस, या स्थानीय पार्किंग अधिकारियों के किए गए चालान का जुर्माना जमा नहीं करते हैं, और इस अदालत तक पहुंचते हैं। अब इस छोटी सी अदालत के बारे में हमको जानकारी ऐसे मिली कि इस अदालत की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण अमेरिका में होता है और भारत के लोगों के लिए यह बात अकल्पनीय हो सकती है कि एक स्थानीय म्युनिसिपल कोर्ट के ट्रैफिक मामलों के निपटारे को देखने के लिए अमेरिका में करोड़ों लोग अलग-अलग टीवी चैनलों पर इसका प्रसारण देखते हैं। अमेरिका के सैकड़ों टीवी चैनल अपने-अपने इलाके में इस अदालत की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण करते हैं और वहां के किसी भी दूसरे लोकप्रिय टीवी प्रोग्राम के मुकाबले फ्रैंक कैप्रियो के निपटारे को देखने वाले दर्शक कम नहीं हैं।
अब इस जज की कार्रवाई देखें तो वे सबसे पहले वहां पहुंचने वाले, चालान पाए हुए लोगों की बेचैनी, घबराहट, और उनके डर को खत्म करते हैं। उनसे दोस्ताना लहजे में बात करते हैं, उनका नाम पूछते हैं, उनका काम पूछते हैं, उनके साथ आए हुए बच्चों या बड़ों से उनका रिश्ता समझते हैं, और अक्सर ही साथ आए हुए बच्चों को ऊपर जज के स्टेज पर बुलाकर उनसे दोस्ती करते हैं, उनको पूरा मामला समझाकर उनसे राय लेते कि उनके परिवार के व्यक्ति से कितना जुर्माना लिया जाए या जुर्माना न लेकर क्या उसे छोड़ दिया जाए? वे उन हालात को समझते हैं जिनमें किसी से ट्रैफिक नियमों के खिलाफ गाड़ी चलाना हो गया है, या गलत जगह पर गाड़ी पार्क करना हो गया है। उनकी वजह को समझकर, उनके काम को समझकर समाज में उनके योगदान को समझकर, या उन पर परिवार के असाधारण बोझ को जानकर वे कई मामलों में जुर्माने से माफी दे देते हैं, और लोगों को हंसी-खुशी वापस रवाना कर देते हैं। कई मामलों में जहां उनको जुर्माना जरूरी लगता है लेकिन यह समझ आता है कि चालान पाने वाले लोग जुर्माना पटाने की हालत में ही नहीं है, वे बेरोजगार हैं, या उन पर बच्चों का और बीमारों का बहुत बोझ है, तो वे दुनिया भर से उनके पास पहुंचने वाले मदद के दान का इस्तेमाल करते हैं, और दानदाता का नाम पढ़ कर उनके भेजे गए चेक से वह जुर्माना जमा करवाते हुए, गरीब या बेबस लोगों को जुर्माने से बरी कर देते हैं, और भेज देते हैं।
जज फ्रैंक कैप्रियो के अदालती वीडियो 2017 में डेढ़ करोड़ लोगों ने देखे थे 2020 में वह बढक़र तीन करोड़ हो गए और यूट्यूब पर उनके वीडियो 4।30 करोड़ से ज्यादा लोग देख चुके हैं, और आगे बढ़ा चुके हैं। उनकी हंसमुख शक्ल में जज की कुर्सी पर बैठा हुआ एक ऐसा इंसान लोगों को दिखता है, जो किसी के किए हुए मामूली ट्रैफिक गलत काम को देखने के साथ-साथ उनकी स्थितियों को समझता है, परिस्थितियों को समझता है, उनकी बेबसी-मजबूरी को समझते हुए उसका बहुत ही मानवीय आधार पर निपटारा करता है। मैंने खुद ने पिछले कुछ महीनों में उनके सैकड़ों ऐसे प्रसारण देखे हैं जो कि फेसबुक पर भी मौजूद हैं, और यूट्यूब पर भी। इनको देख कर लगता है कि एक अदालत में भी कितनी इंसानियत हो सकती है, और अदालत में कटघरे में खड़े किए गए लोगों को भी किस तरह से इंसान समझा जा सकता है, और उनके दुख-दर्द में हाथ बंटाया जा सकता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश या भारत के दूसरे जजों को इस प्रसारण को देखने की सलाह उन्हें अपना अपमान भी लग सकता है, लेकिन हर जज दिन में कुछ मिनट तो कम से कम टीवी पर कुछ ना कुछ देखते होंगे, तो इसे एक फिल्मी कहानी मानकर ही देख लें, इसे हमारी नसीहत मानकर ना देखें, इसे अपने ऊपर कोई नैतिक दबाव मानकर न देखें, और इसे देखने के बाद अगर उन्हें ठीक लगे तो वे सोचें कि जिस बात को आज भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा है, क्या उस बात के साथ अमेरिका की छोटी सी म्युनिसिपल अदालत का कोई तालमेल उन्हें दिखता है?
पिछले कई महीनों से मैं इस कॉलम में इस अदालत के बारे में लिखना चाह रहा था, और इसे भारत की न्यायपालिका के लिए एक मिसाल बनाकर भी सामने रखना चाह रहा था। वह लिखना हो नहीं पाया था लेकिन अभी जिस तरह से भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपनी भावना सामने रखी है, और हमारा ऐसा मानना है कि देश के मुख्य न्यायाधीश की भावना अदालत के फैसलों को काफी दूर तक प्रभावित भी कर सकती है, इसलिए देखें कि क्या अमेरिका की एक म्युनिसिपल कोर्ट का एक जज जो कि अमेरिका से बाहर भी करोड़ों लोगों का दिल जीत चुका है, क्या वह भारत की न्यायपालिका को भी सोचने का कुछ सामान दे सकता है?