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औजार भी किस तरह नस्लभेदी, और साम्प्रदायिक हो सकते हैं!
27-Feb-2022 12:50 PM
औजार भी किस तरह नस्लभेदी, और साम्प्रदायिक हो सकते हैं!

पिछले कुछ बरसों से दुनिया में एक प्रयोग चल रहा है, और उस पर बहस भी चल रही है। पुलिस के कामकाज को आसान और असरदार बनाने के लिए एक ऐसा कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर तैयार किया गया है जिसमें खतरे में पड़े हुए, या खतरनाक लोगों की जानकारी डाली जाती है। इसके अलावा शहरों की उन जगहों की शिनाख्त भी की जाती है जहां पर जुर्म होने का खतरा अधिक है, और उन जगहों को भी शहरी नक्शे पर दर्ज किया जाता है। फिर ऐसी जगहों और ऐसे लोगों के बारे में और अधिक जानकारी जुटाई जाती है, और कम्प्यूटर अपना अंदाज बताता है कि किन लोगों के आसपास, किन जगहों पर जुर्म होने की आशंका अधिक है। इनमें जुर्म करने वाले लोग भी हो सकते हैं, और जुर्म का शिकार होने वाले लोग भी। पिछले करीब दस बरस से अमरीका में इस किस्म का प्रयोग चल रहा है, और इसे वहां की पुलिस काम का भी पा रही है। लेकिन पुलिस से परे के कुछ जानकार विशेषज्ञ इस कार्यक्रम के खतरे भी देखते हैं। इसके तहत जिन लोगों को खतरनाक या खतरे में पाया जाता है, उनसे पुलिस सौ किस्म के सवाल करती है। और ये सवाल उनकी शुरुआती जिंदगी में इस हद तक चले जाते हैं कि अगर उनके मां-बाप का तलाक हुआ था, तो उस वक्त वे किस उम्र के थे।

यह बात एक सामाजिक हकीकत हो सकती है कि विभाजित परिवारों के बच्चों की जिंदगी में खतरे कुछ अधिक हो सकते हैं, और हो सकता है कि पुलिस के रिकॉर्ड यह साबित करने वाले हों कि ऐसे बच्चे समाज के लिए दूसरे बच्चों के मुकाबले कुछ अधिक खतरा ला सकते हैं। लेकिन ऐसी जानकारी जब कानून लागू करने वाली एजेंसियों के हाथ रहेगी तो उनका इस्तेमाल करने वाले लोगों के मन में एक मजबूत पूर्वाग्रह बन जाने का खतरा रहेगा कि कुछ रंगों के लोग, कुछ धर्मों के लोग, कुछ जातियों के लोग, कुछ विभाजित परिवारों के लोग पुलिस की खुर्दबीनी निगाह के नीचे रहेंगे। और ऐसा करने पर यह हो सकता है कि उनके कानून तोडऩे के मामले पुलिस की नजरों में तुरंत आ जाएं, और वे आसानी से मुजरिम साबित किए जा सकें क्योंकि उन पर पहले से नजर रखी जा रही थी, और उनके खिलाफ सुबूत आसानी से जुटे हुए हैं। लेकिन अगर कानून लागू करने वाली एजेंसियां कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर पर आधारित इस किस्म के सामाजिक पूर्वाग्रह से भरी रहेंगी, तो वे एक सामाजिक हिंसा का सबब भी बनी रहेंगी।

लोगों को याद होगा कि अमरीका में हर बरस एक से अधिक ऐसे भयानक चर्चित मामले आंदोलन की बुनियाद बनते हैं जिनमें गोरों के नजरिए से काम करने वाली पुलिस कालों पर हिंसा करती है, उन्हें कुचलती है, उनके हक छीनती है। ऐसी हिंसा के खिलाफ समय-समय पर अमरीकी राष्ट्रपतियों ने भी अफसोस जाहिर किया है। अब अपराध की भविष्यवाणी करने वाली ऐसी प्रिडिक्टिव पुलिसिंग के कम्प्यूटर प्रोग्राम को अगर भारत पर लागू करके देखें, तो यहां तो आज बहुत से प्रदेश ऐसे हैं जो मुस्लिम अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों को लेकर वैसे भी एक हिंसक पुलिस बना चुके हैं। कई राज्यों में पुलिस घोर साम्प्रदायिक हो चुकी है, और सत्ता ने भी जब धार्मिक आधार पर जमकर भेदभाव चला रखा है, तो सत्ता के हाथों नकेल वाली पुलिस के लिए यह आम बात ही है कि वह सत्ता के तलुए सहलाने के लिए उसके राजनीतिक एजेंडे को लागू करे। आज अगर जुर्म करने का खतरा अधिक रखने वाले लोगों की एक लिस्ट पुलिस के हाथ रहेगी तो यह जाहिर है कि वह उसमें से पसंदीदा लोगों को पकडऩे और जेल भेजने के आसान काम में लगी रहेगी। जिस अमरीका को लेकर आज की यह चर्चा शुरू की गई है उस अमरीका का हाल यह है कि वहां के एक बड़े शहर में 2013 में जब यह लिस्ट बनाई गई थी तो उसमें खतरनाक या खतरे में पांच सौ लोगों से कम के नाम थे, और आज दस बरस के भीतर ही ये नाम बढक़र चार लाख से अधिक हो चुके हैं। मतलब यह कि खतरे में, या खतरनाक लोगों का एक ऐसा डेटाबेस पुलिस के हाथ तैयार है जिसे वह अपने नस्लभेदी, रंगभेदी नजरिए के साथ मनमाने तरीके से इस्तेमाल कर सकती है।

फिर लौटकर हिन्दुस्तान की बात पर आएं तो यह समझने की जरूरत है कि यहां नागरिकों की जितने किस्म की जानकारी सरकार रोजाना ही इकट्ठा कर रही है, उससे लोगों की जिंदगी की निजता भी खत्म हो रही है, और वे एक सुनियोजित साजिश का खतरा भी अधिक झेल रहे हैं। इसे इस तरह समझें कि आज किसी जुर्म में पकड़े गए किसी इंसान के आधार कार्ड से पल भर में यह जानकारी निकाली जा सकती है कि उसके परिवार के बाकी लोगों के आधार कार्ड नंबर क्या हैं। इनके अलावा उन नंबरों से इन लोगों के फोन नंबर, एटीएम नंबर, गाड़ी के नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस को भी निकाला जा सकता है, और मुजरिम के परिवार के और लोगों को भी खतरनाक मानते हुए उनकी निगरानी की जा सकती है। मतलब यह होगा कि एक मुजरिम के परिवार के बेकसूर लोग भी पुलिस की गैरजरूरी और नाजायज निगरानी के घेरे में रहेंगे, और उनसे कोई गलती होने पर भी उसे गलत काम साबित करने की सहूलियत पुलिस के पास रहेगी, और ऐसे लोग दूसरे नागरिकों के मुकाबले कानूनी एजेंसी का खतरा अधिक झेलेंगे। जब सत्ता एक बड़े और व्यापक पूर्वाग्रह के साथ आज भी काम करते दिख रही है, तो नागरिकों की ऐसी प्रोफाइलिंग लोकतंत्र को पूरी तरह से खत्म कर देने का हथियार रहेगी। आज जो आधार कार्ड और दूसरे शिनाख्त-कागजात सरकार एक औजार की तरह पेश कर रही है, वे आज ही हथियार भी बनाए जा चुके हैं, और सरकारें उन्हें नापसंद लोगों के खिलाफ इस हथियार का इस्तेमाल कर सकती हैं, और कर रही हैं। इसे एक दूसरी बात से भी जोडक़र देखा जा सकता है कि पेगासस जैसे खुफिया घुसपैठिया साइबर-हथियार का इस्तेमाल पूरी आबादी के खिलाफ तो नहीं हो सकता इसलिए किन लोगों के खिलाफ इसे इस्तेमाल करना है वह लिस्ट तैयार करने में सरकार अपने बाकी पूर्वाग्रही जानकारी के साथ-साथ ऐसी प्रोफाइलिंग का इस्तेमाल कर सकती है।

टेक्नालॉजी तो बहुत सारी बातों को मुमकिन कर रही है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि उसका इस्तेमाल कब उसे औजार से हथियार बना देता है, उसका अंदाज लगाए बिना, उसका अध्ययन किए बिना उसका इस्तेमाल शुरू ही नहीं करना चाहिए। लोगों को यह मिसाल भूलनी नहीं चाहिए कि अमरीकी वैज्ञानिकों ने हाइड्रोजन बम बनाने का एक औजार बनाया था, लेकिन उसे जापान के हिरोशिमा-नागासाकी के लोगों पर गिराना है यह फैसला तो अमरीकी सरकार ने उसे एक हथियार बनाकर लिया था। कुछ ऐसा ही हाल पेगासस से लेकर आधार कार्ड तक बहुत सी तकनीक का है, जिसे आतंकियों को पकडऩे से लेकर सरकारी काम की सहूलियत तक के नाम पर बनाया गया, लेकिन जो आज हथियार ही हथियार बनकर रह गई हैं। इसलिए जुर्म और मुजरिम की भविष्यवाणी करने वाले पुलिस के कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर या प्रोग्राम के खतरों को समझने की जरूरत अधिक है क्योंकि इससे इतनी अधिक निजी जानकारी कुछ उंगलियों पर आ जाती है, जिनमें से कुछ उंगलियां समाज के कुछ धर्मों, कुछ रंगों, कुछ जातियों का गला घोंटने के लिए बेताब रहती हैं। तकनीक के अंधाधुंध विकास को जायज ठहराने के बहुत से तरीके हो सकते हैं, लेकिन समाज वैज्ञानिकों को इनके खतरे सामने रखना चाहिए, और लोकतंत्रों में अदालतों को सरकार के तर्कों से परे भी कुछ समझने के लिए तैयार रहना चाहिए। हिन्दुस्तान में तो संसद भी सरकार से पेगासस पर एक शब्द नहीं उगलवा पाई थी, यह तो सुप्रीम कोर्ट ही था जिसने हिन्दुस्तानी सरकार द्वारा अपने ही नागरिकों के खिलाफ इस घुसपैठिया फौजी सॉफ्टवेयर के हमले के आरोपों की जांच करवाना शुरू किया है। पुलिस की प्रोफाइलिंग के खतरे कम नहीं हैं, इस बात को लोगों को समझना चाहिए, और यह एक नए किस्म का टेक्नालॉजी आधारित रंगभेद रहेगा, या हिन्दुस्तान जैसे संदर्भ में यह एक नवसाम्प्रदायिकता रहेगी।

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