आजकल

पत्रकारिता, कैमराकारिता, और वेबकारिता
06-Mar-2022 1:43 PM
पत्रकारिता, कैमराकारिता, और वेबकारिता

न सिर्फ हिन्दुस्तान में बल्कि पूरी दुनिया में इन दिनों मीडिया को लेकर एक असमंजस बना हुआ है कि किसे मीडिया गिना जाए, और किसे नहीं। जो लोग अखबारों के वक्त के पुराने बुजुर्ग सोच के लोग हैं, वे आज के इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया को लेकर अक्सर उसे नीची नजरों से देखते हैं कि यह कोई पत्रकारिता नहीं है। बात सही भी है, पत्रकारिता शब्द पत्र से बना हुआ है जिसका मतलब समाचार पत्र होता था। एक समाचार पत्र को तैयार करने में धातू के बने हुए टाईप, एक-एक अक्षर, और एक-एक मात्रा को जोडक़र एक-एक वाक्य ढाला जाता था, और बड़ी मुश्किल से एक पेज तैयार हो पाता था। आज मोबाइल फोन या कम्प्यूटर पर बोलकर घंटे भर में उतना टाईप किया जा सकता है, और पल भर में उसे किसी वेबसाईट पर पोस्ट किया जा सकता है। छपे हुए शब्दों को मिटाना मुमकिन नहीं था, और इसलिए लिखने और छपने के बीच खासी फिक्र की जाती थी, बड़ी सावधानी बरती जाती थी। आज अगर कोई गलत बात भी पोस्ट हो जाती है तो उसे पल भर में, कम से कम आम लोगों के लिए तो, मिटाया जा सकता है, उसे बदला जा सकता है।

यह दौर छपे हुए शब्द और बिना छपाई महज इंटरनेट पर पोस्ट किए गए शब्द के बीच मुकाबले का दौर है, और ऐसे में एक परंपरागत विश्वसनीयता, और टेक्नालॉजी की सहूलियत से हासिल लापरवाही के मुकाबले का दौर भी है। सरकारें अधिक से अधिक लोगों को खुश करने के लिए हर उस वेबसाईट को मीडिया मानने पर आमादा हैं जिन्हें घर बैठे कोई भी दो-चार हजार रूपए की लागत से शुरू कर सकते हैं, और उसके बाद उस पर लिखने या पोस्ट करने वाली किसी भी बात के लिए वे तब तक किसी के लिए जवाबदेह नहीं रहते जब तक कि कोई उनके खिलाफ पुलिस या अदालत तक न जाए, या कि सरकार उनमें से किसी को अपने निशाने पर न लें। यह सिलसिला कुछ अटपटा इसलिए है कि अभी हाल में चल रहे चुनावों के बीच भी कम से कम एक राज्य में ऐसी वेबसाईटों को मीडिया मानने को लेकर एक बड़ी पार्टी ने कई किस्म के वायदे भी किए हैं, और दूसरे कई राज्यों में बिना किसी पत्रकारिता के चलने वाली वेबसाईटों को भी मीडिया का दर्जा देने का काम किया गया है। एक समाचार वेबसाईट बनाना, और उस पर राशिफल-भविष्यफल से लेकर अश्लील वीडियो तक पोस्ट करके हिट जुटाना सरकारों की तकनीकी परिभाषा में एक कामयाब मीडिया हो गया है, और पत्रकारिता के जो परंपरागत नीति-सिद्धांत अखबारों के वक्त, अखबारों के मामले में इस्तेमाल होते थे, वे कूड़ेदान में चले गए हैं।

यह सरकारों और राजनीतिक दलों की अधिक से अधिक लोगों को खुश करने की कोशिश का नतीजा है कि आज घर बैठे, कुछ हजार रूपयों में हर कोई मीडिया बन सकते हैं, और उसके बाद वे मीडिया के लिए तय की गई सरकारी सहूलियतों से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी की परिभाषा का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इसे लेकर पहले भी इसी जगह पर हमने कई बार लिखा है कि कम से कम अखबारों को तो मीडिया नाम की इस वटवृक्ष सरीखी विशाल छतरी के बाहर आ जाना चाहिए, और जो लोग अपने आपको मीडिया कहना या कहलाना चाहते हैं उन्हें उनके हाल और उनकी मर्जी पर छोड़ देना चाहिए।

एक वक्त महज प्रेस शब्द इस्तेमाल होता था क्योंकि अखबार प्रेस में छपा करते थे। बाद में धीरे-धीरे जब मीडिया के नाम पर टीवी और दूसरे किस्म के माध्यम जुड़े, तो प्रेस शब्द पता नहीं कब मीडिया बन गया। आज इस शब्द का जितना बेजा इस्तेमाल हो रहा है, और कहीं मीडिया अपनी आत्मा बेचने की तोहमत पा रहा है, तो कहीं गिरोहबंदी करके किसी नेता या सरकार को बढ़ाने की, तो ऐसे में पुरानी फैशन के उस प्रेस को अपने अलग अस्तित्व के बारे में सोचना चाहिए और लौटकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करनी चाहिए।

ऐसा इसलिए भी है क्योंकि अलग-अलग टेक्नालॉजी की वजह से अलग-अलग किस्म के समाचार या विचार-माध्यम के तौर-तरीके अलग-अलग तय होते हैं। और पुराने अंदाज के छपने वाले अखबारों के तौर-तरीके कभी भी सिर्फ वेबसाईटों पर चलने वाले मीडिया की तरह नहीं हो सकते। बुरे से बुरे और छोटे से छोटे अखबार को भी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ती थी, और यह मेहनत उनके मिजाज और चरित्र में एक गंभीरता लाती थी। वह पूरा सिलसिला आज के मीडिया नाम के विकराल दायरे में खो गया है। और यही वजह है कि अखबारों को अखबार बनकर रहना चाहिए, अपने आपको वापिस प्रेस की परिभाषा के भीतर सीमित रखना चाहिए। सरकारें अपनी मर्जी से जैसा चाहें वैसा करें, लेकिन अखबारों को अपने नीति-सिद्धांतों की उस पुरानी परंपरा पर लौटना चाहिए, क्योंकि उसके बिना न उनकी कोई इज्जत है, और न ही उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई दावा करने का कोई हक है।

जैसा कि दुनिया में अधिकतर कीमती चीजों के साथ होता है, मोती समंदर की गहराई में मिलते हैं, सतह पर तैरते हुए नहीं, हीरों की तलाश करनी पड़ती है, सोना गहरी खदानों में मिलता है, समझ लंबे तजुर्बे से हासिल होती है, मजबूत इमारती लकड़ी देने वाले पेड़ को तैयार होने में सौ-पचास बरस लगते हैं, ठीक वैसे ही अच्छे सामाजिक सरोकार वाले इज्जतदार माध्यम बनने में अखबारों को सौ-पचास बरस तो लगे ही थे। बड़ी मुश्किल से हासिल इज्जत और महत्व का वह दर्जा, और सामाजिक सरोकार की वह भूमिका आसानी से नहीं खोनी चाहिए, और पत्रकारिता को आज की कैमराकारिता, या वेबकारिता से अलग अपने तौर-तरीके तय करना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news