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विनोद कुमार शुक्ल के दर्द के बहाने कुछ चर्चा किताबों के कारोबार पर..
13-Mar-2022 4:05 PM
विनोद कुमार शुक्ल के दर्द के बहाने कुछ चर्चा किताबों के कारोबार पर..

हिन्दी के एक सबसे बड़े साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल अपनी रचनाओं से परे एक बार खबरों में हैं। पहले सोशल मीडिया पर एक अभिनेता-लेखक से बातचीत में उनकी कही यह तकलीफ सामने आई कि देश के दो बड़े प्रकाशन समूहों से उन्हें अविश्वसनीय रूप से कम रॉयल्टी मिल रही है। उनकी यह शिकायत भी सामने आई कि उनसे बिना पूछे इन दोनों प्रकाशकों ने उनकी किताबों के ई-बुक संस्करण छापे हैं। उन्होंने कहा कि वे इतने सालों से ठगे जा रहे हैं, और वे अब इन दोनों प्रकाशकों से स्वतंत्र होना चाहते हैं। उनके बताए गए जो आंकड़े सामने आए हैं उसके मुताबिक इन दोनों प्रकाशकों से उन्हें सालभर में कुल 14 हजार रूपए मिले हैं जबकि इन दोनों से उनकी पौन दर्जन किताबें छपी हैं जो कि हिन्दी की सबसे चर्चित किताबें रही हैं।

लेकिन सुबूतों के बिना यह कहना मुश्किल है कि प्रकाशकों की यह बात गलत है कि वे सीमित संख्या में ही किताबें प्रकाशित करते हैं जिन्हें लेखक कभी भी आकर जांच सकते हैं, और विनोद कुमार शुक्ल के साथ उन्होंने कोई बेईमानी नहीं की है, उन्हें पूरा हिसाब-किताब भेजा है, और उन्हें अनुबंध के मुताबिक भुगतान किया है। विनोद कुमार शुक्ल का कहना है कि प्रकाशक उन्हें कम रॉयल्टी देकर ठग रहे हैं, और नए संस्करणों की जानकारी भी उन्हें तब दी जाती है जब वे प्रकाशित होकर आ जाते हैं। इस विवाद पर कई और लोगों ने कई बातें कही हैं जो कि लेखक और प्रकाशक के बीच वैचारिक और कारोबारी मतभेद भी बताती हैं, और लेखकों का असंतुष्ट होना भी। इस कारोबार को जानने वाले लोगों का कहना है कि हिन्दी के लेखक को प्रकाशक की तरफ से अधिकतम दस फीसदी रॉयल्टी दी जाती है।

हिन्दी साहित्य की किताबों के कारोबार को अगर समझें तो लेखकों का बड़ा बुरा हाल सुनाई पड़ता है। कुछ दर्जन सबसे कामयाब लेखकों को अगर छोड़ दें, तो अधिकतर लेखक प्रकाशक को भुगतान करके कुछ सौ किताबें छपवाते हैं, और उन्हें 25-50 किताबें अपने करीबी लोगों में बांटने के लिए मिल जाती हैं, और बाकी किताबें प्रकाशक सरकारी या लाइब्रेरी खरीदी के अपने नेटवर्क में खपाने की कोशिश करते हैं। लेखक के संपर्क अगर अधिक होते हैं तो उनकी किताबों की कहीं-कहीं चर्चा हो जाती है, और इन दिनों सोशल मीडिया पर अपनी किताबों का अंधाधुंध प्रचार करके भी हिन्दी के सबसे अधिक चर्चित लेखक भी कुछ हजार किताबों की बिक्री में कामयाब होते हैं। लेकिन रॉयल्टी पाने वाले लेखकों में भी पांच-दस फीसदी रॉयल्टी का मतलब बड़ी छोटी रकम है, जो कि किसी भी लेखक के लिए गुजारे का सामान नहीं है।

यह किसी प्रकाशक ने किसी लेखक से कहा भी नहीं है कि उनकी जिंदगी किताबों की कमाई के भरोसे चल जाएगी, और लेखक भी दूसरों के तजुर्बे से यह बात जानते ही हैं। हम किसी एक लेखक के किसी एक प्रकाशक के साथ अनुबंध की शर्तों के पूरे न होने के बारे में यहां पर नहीं लिख रहे, हम व्यापक तौर पर इस कारोबार के बारे में लिख रहे हैं ताकि हम कारोबार से आगे बढक़र पाठक तक की बात कर सकें।

हिन्दी के बड़े से बड़े लेखक-प्रकाशक की किताबें शायद 30-35 फीसदी कमीशन पर दुकानदार बेचते आए हैं। वह भी तब जब किताबें बिक जाएं। किताब में पहला पूंजीनिवेश वक्त और प्रतिभा का लेखक का होता है, और उसके बाद प्रकाशक का। अच्छे प्रकाशक किताब का संपादन करते हैं, गलतियां सुधारते हैं, लेखक से अनुबंध करके किताब की छपाई करते हैं, मीडिया में किताब के बारे में छपवाने की कोशिश करते हैं, कहीं पुस्तक मेले में या किसी और जगह किताबों का प्रमोशन करते हैं, और दुकानदारों या पुस्तकालयों को उधार में मोटे कमीशन पर किताबें पहुंचाते हैं। यह कारोबार कुछ कच्चा कारोबार है। किसी भी जगह किताबें मौसम या दीमक की शिकार हो सकती हैं, डिलिवरी के दौरान खराब हो सकती हैं, किसी मामले-मुकदमे में फंस सकती हैं, या प्रतिबंधित हो सकती हैं। इन सबका बोझ भी कुल मिलाकर प्रकाशक पर ही पड़ता है। हो सकता है कि इससे परे भी प्रकाशक पर कुछ और बोझ होते हों, और लेखक पर भी कुछ और बोझ होते हों।

अब हम एक पाठक के नजरिए से इस कारोबार को देखें तो लगता है कि प्रकाशक-मुद्रक के स्तर पर सौ रूपए में तैयार होने वाली किताब दुकान के स्तर पर तीन सौ से छह सौ रूपए में जब बिकती है, तो उसके खरीददार कम ही रह जाते हैं। हिन्दी के आम पाठकों की साहित्यिक चेतना और उसके साहित्यिक सरोकार शायद ऐसे नहीं रहते कि जिंदगी के दूसरे खर्चों को कम करके कुछ किताबें खरीदी जाएं। यही वजह है कि हिन्दी के सबसे चर्चित लेखकों में से एक विनोद कुमार शुक्ल की किताबें भी सैकड़ों में ही बिकती हैं, और उनकी सालाना कमाई पन्द्रह हजार रूपए भी नहीं हो पाती है। साहित्य के बजाय राजनीतिक और विवादास्पद मुद्दों पर लिखने वाले हिन्दी लेखकों की कमाई इसके मुकाबले कुछ या कई गुना अधिक हो सकती है, लेकिन वह भी किसी के गुजारे के लिए काफी नहीं हो सकती।

अब सवाल यह है कि जिस लेखन-प्रकाशन कारोबार का सारा दारोमदार एक खरीददार-पाठक पर टिका होता है, वही अगर दो-चार हजार तक भी नहीं पहुंचता, तो यह एक बड़ा नाजुक कारोबार है, फल या सब्जी के धंधे जैसा, या उससे भी अधिक नाजुक। इतने सीमित खरीददारों के भरोसे लेखक भी क्या कर ले, और प्रकाशक भी क्या कर ले? और इन दोनों के बीच की खींचतान जिस छोटी सी कमाई पर टिकी है, वह अपने आपमें बड़ी सीमित और छोटी है। अगर उसमें बेईमानी हो रही है, लेखक का शोषण हो रहा है, तो वह रूपयों की शक्ल में एक छोटा शोषण है।

जब इस देश की आबादी का तकरीबन आधा हिस्सा हिन्दी बोलने वाला माना जाता है, पचास करोड़ से अधिक लोग हिन्दीभाषी हैं, तो उनके बीच हिन्दी साहित्य की किताब हजार-दो हजार भी न बिक पाना कई सवाल खड़े करता है। पहला सवाल तो यही है कि क्या लोग हिन्दी साहित्य खरीदना नहीं चाहते, या फिर वह उनकी पहुंच से दूर है? एक सवाल यह भी है कि क्या हिन्दी साहित्य की किताबों की लागत, और उनकी कीमत का अनुपात सही है? क्या किताबों के दाम काफी कम हो जाने से उनके पाठक-ग्राहक बढ़ सकते हैं? मेरा यह मानना है कि हिन्दी साहित्य की किताबों के दाम इतने अधिक रखे जाते हैं कि लोगों ने धीरे-धीरे उन्हें अपनी सीमा से बाहर मान लिया, और खरीदना बंद कर दिया, शायद धीरे-धीरे पढऩा भी बंद कर दिया। क्या किताबों को सस्ता छापकर, कम कमीशन के रास्ते बेचकर, उनकी अधिक संख्या में बिक्री हो सकती है? यह एक सवाल मुझे बार-बार सताता है कि क्या लेखक प्रकाशकों के चले आ रहे ढर्रे से परे भी कुछ कर सकते हैं ताकि उनकी किताबें कम दाम पर बिकें, और ग्राहक-पाठक बढ़ें?

हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं की किताबों को लेकर सस्ते प्रकाशन के कुछ प्रयोग हुए भी हैं, और जब-जब किताबें कम दाम पर लोगों को मिलती हैं, वे अधिक संख्या में खरीदते हैं, अधिक लोग खरीदते हैं, और अधिक पढ़ते भी हैं। अधिक दाम और सीमित संख्या किसी कारोबार के लिए तो अधिक माकूल हो सकते हैं, लेकिन क्या यह सचमुच ही लेखक के हित में है कि उसका लिखा बस कुछ हजार लोगों तक पहुंचकर सीमित रह जाए?

अब सवाल यह भी है कि प्रकाशक का किताबों की बिक्री का एक नेटवर्क होता है, और वह नेटवर्क किसी एक किताब के लिए खड़ा नहीं किया जा सकता, उसके लिए कई किताबों के प्रकाशक ही कामयाब हो सकते हैं। ऐसे में लेखक अपनी किताब खुद प्रकाशित करे, और उसे बेचे यह भी मुमकिन नहीं लगता। लेकिन प्रकाशकों को खुद अपने हित में भी बहुत कम दाम और कमाई वाली किताबें छापनी चाहिए, ताकि ग्राहक बढ़ सकें, पाठक बढ़ सकें। जब तक ग्राहक-पाठक की यह बुनियाद चौड़ी नहीं होगी, यह कारोबार एक खंभे पर खड़े हुए बड़े से होर्डिंग जैसा रहेगा जिसे वक्त की आंधी कभी भी गिरा देगी।

आज विनोद कुमार शुक्ल की तकलीफ की खबरों से यह लिखने का मौका मिला है, और मेरी यह साफ-साफ सोच है कि समझदार लेखक-प्रकाशक को अखबारी कागज जैसे सस्ते कागज पर, बिना पु_े वाले कवर में किताब छापनी चाहिए, उसे कम कमीशन पर इंटरनेट पर बेचना चाहिए, और अधिक पाठकों को ग्राहक बनाने की कोशिश करनी चाहिए। महंगी छपाई, महंगी जिल्द से किसी के लिखे हुए की इज्जत नहीं बढ़ती, उसे कितने अधिक लोग पढ़ते हैं, लिखे हुए कि कितने अधिक लोग तारीफ करते हैं, उससे लेखक की इज्जत बढ़ती है। महंगी छपाई और महंगी जिल्द प्रकाशन के कारोबार का एक हिस्सा है, वह लेखन का हिस्सा नहीं है। लेखक को अपनी सीमित किताबें दिखने में खूब अच्छी पाने का लोभ छोडऩा चाहिए। ऐसा सुना है कि इंटरनेट पर अमेजान कुल सत्रह फीसदी कमीशन पर लेखक-प्रकाशक के पते से किताब उठाता है, और देश भर में कहीं भी डिलीवर करता है। इसमें भुगतान भी चार-छह दिनों के भीतर ही हो जाता है। मतलब यह कि यह किताब दुकानों को दिए जाने वाले कमीशन से आधा ही है।

लेखकों को अपने स्तर पर यह सोचना चाहिए कि परंपरागत प्रकाशकों का कोई विकल्प हो सकता है क्या, जो कि उनका (लेखकों का) अधिक भला कर सके? प्रकाशकों को भी सीमित ग्राहकों को महंगी किताब बेचने से परे के विकल्प सोचने चाहिए कि पढऩे की आदत बनाए रखने के मुताबिक कम दाम पर किताबें बेची जाएं, ताकि वे अधिक संख्या में बिकें, और प्रकाशन का कारोबार अधिक संख्या में लोगों पर टिका रहे, अधिक भरोसे का रहे।

किताब को छापने और बेचने का मेरा एक अलग तजुर्बा रहा है जो कि बताता है कि आज के बाजार की हिन्दी साहित्य की अधिकतर किताबें एक चौथाई बाजार भाव पर आ सकती हैं, अगर लेखक-प्रकाशक गैरजरूरी महंगी क्वालिटी के चक्कर में न पड़ें। पूरी दुनिया में आज हर कारोबार सीमित कमाई और असीमित ग्राहकों के मामूली समझ वाले फॉर्मूले पर काम कर रहा है, और जमे हुए प्रकाशक अगर ऐसा करना नहीं चाहते तो कुछ जनसंगठनों को भी इस धंधे में उतरना चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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