आजकल
इंटरनेट पर कांग्रेस सांसद शशि थरूर का एक वीडियो मौजूद है जिसमें वे ब्रिटेन के एक सबसे बड़े विश्वविद्यालय में एक विषय पर वाद-विवाद करते दिख रहे हैं। उन्होंने ऑक्सपोर्ड विश्वविद्यालय के एक मशहूर वाद-विवाद में अपने इस तर्क को सामने रखा कि ब्रिटिश राज में किस तरह भारतीय अर्थव्यवस्था को चौपट किया। यह बहस 2015 में ऑक्सपोर्ड में हुई थी, जिसकी एक पुरानी गौरवशाली परंपरा है। लेकिन इस ब्रिटिश विश्वविद्यालय की बहस की इस गौरवशाली परंपरा वाला गौरव हिन्दुस्तान के ब्रिटिश राज में नहीं था, और अंग्रेजों ने सोच-समझकर भारत का औद्योगिकीकरण रोका और तबाह किया था ताकि भारत ब्रिटिश कारखानों के सामानों का मोहताज रहे। इस बहस के अपने तर्कों को आगे बढ़ाते हुए थरूर ने एक किताब भी लिखी जिसे अंग्रेजी राज की कटु आलोचना कहा जा सकता है।
लेकिन उस 2015 की बहस पर लिखना आज का मकसद नहीं है। अभी इसी पखवाड़े एक मेडिकल अध्ययन का नतीजा सामने रखा गया है जिसका मानना है कि आज के हिन्दुस्तानी, बांग्लादेशी, और पाकिस्तानी, डायबिटीज का अधिक खतरा रखते हैं, और इसका जिम्मेदार इस इलाके पर रहा ब्रिटिश राज है। इतिहास बताता है कि ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश राज के दौरान इन तीनों देशों के लोगों को इतने अधिक अकालों का सामना करना पड़ा कि लोगों के बदन भूख का शिकार हो-होकर डीएनए या जींस में ऐसा फेरबदल करते चले गए कि आने वाली पीढिय़ों को जब जो खाने मिला, उन्होंने खाना शुरू कर दिया कि पता नहीं कब खाना मिलना बंद हो जाए।
एक रिपोर्ट बतलाती है कि भारतीय उपमहाद्वीप ने ईस्ट इंडिया कंपनी और अंग्रेजी राज के शासन में 31 अकाल झेले, जिनमें से अकेले बंगाल के अकाल में 30 लाख लोग भूख से मारे गए थे। आज पश्चिम के एक बड़े विश्वविद्यालय के अध्ययन का नतीजा बतला रहा है कि दक्षिण एशिया के लोगों को डायबिटीज का खतरा बाकी दुनिया के मुकाबले 6 गुना अधिक है। यह अध्ययन बताता है कि भूख से मौत तक पहुंचते हुए ऐसे बदन अगली पीढ़ी तक जो जींस दे जाते हैं, वे जींस एक भूखे इंसान को बनाते हैं जो कि खाने को कुछ मिलते ही पेट भर लेने के चक्कर में रहते हैं। नतीजा यह होता है कि अमरीकियों के मुकाबले बहुत कम खाने वाले हिन्दुस्तानी भी बिना वजन अधिक हुए डायबिटीज के शिकार अधिक होते हैं। वैज्ञानिकों का यह निष्कर्ष है कि अविभाजित भारत के इन तीनों देशों की आबादी का बदन अपने भीतर चर्बी को बचाए रखता है, जमा करते रहता है कि जाने कब भूखे रहने की नौबत आ जाए, और उस वक्त यही चर्बी बदन को कुछ वक्त चलाने के काम आएगी, और इसी का एक नतीजा यह है कि लोग डायबिटीज के शिकार होते हैं।
हिन्दुस्तान के जो लोग आज भी अंग्रेजों की छोड़ी गई सामंती प्रथा को पोशाक और खानपान में, सामाजिक रीति-रिवाजों में ढो रहे हैं, उन्हें यह याद रखना चाहिए कि जिस गोरी नस्ल की छोड़ी गई ऐसी गंदगी का टोकरा वे सिर पर ढोते हैं, उस गोरी सरकार ने इन देशों की आबादी को पीढ़ी-दर-पीढ़ी तबाह करके छोड़ा है।
लेकिन इस मामले पर भी हम आज बात को खत्म करना नहीं चाहते हैं। आज की दूसरी खबर यह है कि दुनिया की डबलरोटी की टोकरी कही जाने वाला यूक्रेन आज रूसी हमले के बाद एक जंग में फंसकर अनाज बाहर भेजने का अपना कारोबार खो बैठा है, और बाजार में अनाज की कीमतें कई गुना बढ़ चुकी हैं। गेहूं और मक्का जैसे अनाज यूक्रेन और रूस से ही सबसे अधिक निर्यात होते हैं, और आज वहां से कारोबार बंद हो चुका है। इसका जो असर यूक्रेन पर पडऩा है वह तो अलग है, लेकिन दुनिया से बहुत से भूखे देशों में यूक्रेन से आया हुआ अनाज जाता था, जो कि आज अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को भी नहीं मिल रहा है। नतीजा यह है कि अफ्रीका के गरीब और भूखे, कुपोषण के शिकार देशों में अंतरराष्ट्रीय मदद से दिया जाने वाला अनाज भूखों तक आधा दिया जा रहा है। जो पहले से कुपोषण के शिकार थे, उन्हें मिलने वाला अनाज अब आधा हो गया है, और आगे जाकर यह कितना मिल पाएगा इसका कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि रूस को कमजोर करने की नीयत से पश्चिमी देश यूक्रेन को किस हद तक हथियार देते रहेंगे इसका कोई ठिकाना नहीं है, और इन हथियारों के चलते यूक्रेन कब तक रूस के सामने डटा रहेगा, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। नतीजा यह है कि जब तक रूस के हमले के सामने यूक्रेन को डटाए रखा जा सकता है, तब तक पश्चिम अपनी जेब खाली करके भी रूस को कमजोर करना जारी रखेंगे, फिर चाहे इसके लिए यूक्रेन के आखिरी नागरिक का खून भी बह जाए।
यह बड़ी अजीब बात है कि दुनिया में भूख और रंग का इतना गहरा रिश्ता दिखता है। अफ्रीका के जो देश सबसे अधिक काले लोगों के हैं, वे भूख और कुपोषण के सबसे बुरे शिकार भी हैं। हिन्दुस्तान में भी अगर देखें तो अधिक गरीब लोग अधिक काले रंगों के हैं। अब दुनिया के और मानव जाति के इतिहास के अधिक जानकार लोग शायद इस बात को बेहतर जानते हों कि इंसानों के बदन के रंग का उनकी गरीबी से क्या इस तरह का कोई रिश्ता सचमुच ही है, या फिर आज हमें ही सदियों से अकाल के शिकार चले आ रहे देशों के काले लोगों को देख-देखकर यह बात सूझ रही है?
ये बातें टुकड़ा-टुकड़ा हैं, लेकिन जब कभी दुनिया का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें इन्हें जोडक़र शायद ही लिखा जाएगा, जंग को लेकर मौतों के आंकड़े अलग लिखे जाएंगे, और भूख से, कुपोषण से मौतों के आंकड़े अलग लिखे जाएंगे। लेकिन अविभाजित हिन्दुस्तान पर विदेशी हमलों की वजह से, और विदेशी हुकूमत के मातहत जीते हुए जिस तरह दसियों लाख लोग भूख से मरे, और उनके बाद दसियों करोड़ लोग पुरखों की उस भूख के चलते डायबिटीज के शिकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी होते चल रहे हैं, उसका रिश्ता कम ही लोग कायम करेंगे। आज यूक्रेन या रूस से अनाज बाहर न निकलने की वजह से यमन, इथोपिया जैसे बहुत से देशों में अनाज की सप्लाई बहुत बुरी तरह गिरी है, और इसी अनुपात में वहां पर इंसानों की सांसें भी गिरेंगी। जंग से मौतों के साथ इन मौतों को भी जोडक़र देखने की जरूरत है, और जंग की लागत गिनते हुए भुखमरी से मौतों की इन इंसानी जिंदगियों की कीमत भी जोडऩा चाहिए।