आजकल
ब्रिटेन की सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी के एक सांसद नील पेरिश को एक संसदीय जांच का सामना करना पड़ रहा था जिसमें उनके खिलाफ दूसरी महिला सांसदों की यह शिकायत थी कि वे संसद की कार्रवाई के दौरान अपनी सीट पर बैठे हुए मोबाइल फोन पर पोर्नोग्राफी देख रहे थे। अब जब संसद की जांच आगे बढ़ रही थी, और उनसे अधिक बारीक सवाल-जवाब अधिक खुलासे से होने जा रहे थे, तो उन्होंने यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि उन्होंने एक क्षणिक पागलपन (मूमेंट ऑफ मैडनेस) में यह गलत काम किया था। और उन्होंने यह भी मंजूर किया कि एक बार ऐसा करने के बाद दूसरे बार फिर वैसा ही करना उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी गलती थी। उन्होंने कहा कि पहली बार तो यह एक हादसा था, लेकिन दूसरी बार यह अक्षम्य अपराध था।
65 बरस के इस निर्वाचित संसद सदस्य को पार्टी ने इन आरोपों के सामने आने के बाद निलंबित कर दिया था, और 12 बरस का उनका संसदीय जीवन खतरे में पड़ गया था। पार्टी ने उनके इस्तीफे का स्वागत किया है।
ब्रिटिश पार्लियामेंट तरह-तरह के विवादों का सामना कर रही है। अभी कुछ ही हफ्ते हुए हैं जब ब्रिटिश पुलिस ने अपनी जांच में यह पाया कि प्रधानमंत्री निवास पर पीएम बोरिस जॉनसन का जन्मदिन मनाते हुए उन्होंने खुद और उनके साथियों ने कोरोना-लॉकडाउन के प्रतिबंध तोड़े थे, और पुलिस ने इस पर इन सब पर जुर्माना भी लगाया है। इस मुद्दे को लेकर भी प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग की जा रही थी। इसके बाद वित्तमंत्री, भारतवंशीय ऋषि सुनाक पर यह आरोप लगा कि उनकी पत्नी गैरब्रिटिश नागरिक के रूप में अपनी कमाई दूसरे देशों में बताकर ब्रिटेन में टैक्स बचा रही है, और यह ब्रिटेन का नुकसान है। यह विवाद आगे बढ़ा तो उनकी पत्नी अक्षता मूर्ति ने बिना रियायत पूरा टैक्स खुद होकर पटाने की घोषणा की। उनकी यह ‘कानूनी’ टैक्स बचत पति ऋषि सुनाक के मंत्री दर्जे के लिए भी असुविधा की थी, और दूसरी तरफ भारत में सबसे अधिक साख वाले कारोबारी, उनके पिता नारायण मूर्ति के लिए भी अप्रिय थी जो कि किसी भी विवाद से परे रहते हैं। ऋषि सुनाक ने अपने खुद के अमरीकी रिश्तों को लेकर एक विवाद खड़ा होने पर उसकी जांच की मांग खुद होकर प्रधानमंत्री से की है।
एक दूसरा मामला जो अधिक विवादास्पद है वह संसद में विपक्ष की उपनेता एंजेला रेयनर को लेकर है जिन पर ऐसे आरोप लगाए गए हैं कि वे प्रधानमंत्री के भाषण के दौरान ठीक सामने दूसरी तरफ बैठे हुए अपने पैरों को एक के ऊपर एक चढ़ाते और हटाते हुए अपनी टांगों की तरफ प्रधानमंत्री का ध्यान खींचकर उन्हें विचलित करने की कोशिश ठीक उसी तरह करती हैं जिस तरह एक अमरीकी फिल्म बेसिक इंस्टिंक्ट में एक अभिनेत्री का विख्यात सीन है। इस बात को कई लोगों ने ब्रिटिश संसद में महिलाओं के लिए अपमानजनक भी माना, और जिस अखबार डेली मेल ने ऐसी रिपोर्ट छापी थी उसे संसद ने नोटिस भेजकर बयान देने बुलाया भी है। यह अलग बात है कि अखबार ने संसद के इस नोटिस पर जाने से इंकार कर दिया है, लेकिन ब्रिटिश संसद में महिला की टांगों के ऐसे कथित इस्तेमाल का एक विवाद खड़ा तो हुआ ही है।
अब जिस ब्रिटिश संसद की तर्ज पर हिन्दुस्तानी संसद काम करती है, वहां के निर्वाचित सदन की सीटों के रंग की सीटें हिन्दुस्तानी निर्वाचित सदन, लोकसभा में है, और ब्रिटिश मनोनीत सदन की सीटों के रंग की सीटें हिन्दुस्तानी उच्च सदन, राज्यसभा में है। जहां बड़ी छोटी-छोटी सी बातों की नकल की गई है, वहां पर एक बात का बड़ा फर्क है। प्रधानमंत्री निवास पर वहां पर उस वक्त काम कर रहे लोगों के बीच केक कटना भी पुलिस जांच का मुद्दा हो गया, और प्रधानमंत्री सहित उनके सहकर्मियों पर जुर्माना ठोंका गया। क्या हिन्दुस्तान में कोई प्रधानमंत्री, या किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के बारे में यह कल्पना भी की जा सकती है, कि उनकी कोई मामूली सी जांच भी ऐसी शिकायतों पर हो सकती है? आमतौर पर तो हिन्दुस्तान में पुलिस से यही उम्मीद की जाती है कि पीएम हाऊस से लेकर सीएम हाऊस तक अगर किसी लाश को ठिकाने लगाना हो तो वफादार पुलिस उसमें हाथ बंटाएगी। भारत में ही एक प्रदेश की विधानसभा में ढेर से विधायक पोर्नो देखते मिले थे, और सब अपनी जगह पर कायम हैं। यह तो संसद में सवाल पूछने को लेकर रिश्वत लेते हुए लोग स्टिंग ऑपरेशन के कैमरों पर कैद थे, इसलिए कुछ सांसदों की सदस्यता गई, वरना भारतीय संसद और विधानसभाओं में किसी सदस्य के खिलाफ कोई कार्रवाई होते किसी को याद नहीं। और यह भी कि नैतिक आधार पर इस्तीफे वाली परंपरा को हिन्दुस्तानी लोग ब्रिटिश संसद से लाए जरूर थे, लेकिन बाद के दशकों में हिन्दुस्तानी संसदीय व्यवस्था ने ऐसी परंपरा को देशद्रोही करार देकर देश निकाला दे दिया था।
आज जब दुनिया के सभ्य लोकतंत्रों में नैतिकता के पैमाने बढ़ते जा रहे हैं, उन पर अमल बढ़ते जा रहा है, तब भारतीय राजनीति नैतिकता से पूरी तरह आजाद हो चुकी है। लोकतंत्र की इस नाजायज औलाद से तकरीबन तमाम पार्टियों और तकरीबन तमाम सदनों ने छुटकारा पा लिया है, किसी ने इसे पास के घूरे पर फेंक दिया है, किसी ने इसे करीब के गटर में डाल दिया है। यह सिलसिला भारतीय संसदीय राजनीति को स्तरहीन और घटिया बनाते चल रहा है। और जहां तक घटियापन का सवाल है, उसमें हमेशा ही और नीचे गिरने की गुंजाइश रहती है, और वह गिरना अभी जारी है।
ब्रिटिश संसद के इन ताजा विवादों को देखें, तो वे अपने आपमें खराब हैं, लेकिन संसदीय व्यवस्था और राजनैतिक नैतिकता का हाल यह है कि वे इनमें से किसी भी मुद्दे को दबा-छुपाकर नहीं रख रहे हैं, बल्कि उनसे जूझ रहे हैं, उन्हें मंजूर कर रहे हैं, और सुधार की कोशिश कर रहे हैं। जब तक इंसान रहेंगे, तब तक गलतियां और गलत काम दोनों ही होते रहेंगे, इंसान के बेहतर बनने का सुबूत यही होता है कि वे किस तरह अपनी गलतियों और गलत कामों से उबरते हैं। हिन्दुस्तानी लोग अपने-अपने प्रदेशों और पूरे देश के विधायकों और सांसदों से जुड़े हुए विवाद याद करके देखें कि उन पर उन नेताओं, और उनकी पार्टियों का क्या रूख रहा। किसी देश का संसदीय विकास 20 हजार करोड़ के नए संसद परिसर से नहीं होता है, बल्कि संसदीय परंपराओं के अधिक गरिमामय होने, और अधिक लोकतांत्रिक होने से होता है। बहस के बजाय बहुमत के ध्वनिमत की गूंज को संभालने के लिए 20 हजार करोड़ की छत कुछ महंगी नहीं है?
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