आजकल
कांग्रेस पार्टी के एक बड़े नेता, भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री, और देश के एक कामयाब वकील पी.चिदम्बरम अभी जब एक मामले की सुनवाई में कलकत्ता हाईकोर्ट पहुंचे, तो उन्हें दर्जनों वकीलों के विरोध का सामना करना पड़ा। वे जिस मामले में वहां एक कंपनी की तरफ से अदालत में खड़े हुए थे, उस कंपनी के खिलाफ बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी ने यह मुकदमा किया हुआ है, और यह कंपनी इस मामले में बंगाल की तृणमूल सरकार के साथ एक कारोबार में है। इस तरह चिदम्बरम न सिर्फ एक कांग्रेस नेता के दायर किए मुकदमे के खिलाफ वकील थे, बल्कि वे एक किस्म से तृणमूल कांग्रेस के साथ सौदे में शामिल कंपनी के भी वकील थे, यानी तृणमूल कांग्रेस के भी हिमायती थे।
कलकत्ता हाईकोर्ट में जिन वकीलों ने चिदम्बरम का विरोध किया उनके खिलाफ नारे लगाए, और बदसलूकी करते हुए कहा कि वे चिदम्बरम पर थूकते हैं। अगर इस विरोध-प्रदर्शन का वीडियो देखें, तो उसमें एक जगह अदालत के अहाते से निकलते हुए चिदम्बरम अचानक अपने कपड़ों को देखते हुए दिखते हैं, यानी विरोध कर रहे किसी वकील ने उन पर थूका भी होगा। यह जाहिर है कि ऐसा विरोध-प्रदर्शन करने वाले वकील कांग्रेस से जुड़े हुए होंगे, और इसीलिए उन्हें कांग्रेस का केन्द्रीय मंत्री रहा हुआ एक वकील पार्टी के नेता की पिटीशन के खिलाफ लड़ते हुए खटका होगा, और यह विरोध हुआ।
अदालतों के बारे में यह माना जाता है कि सबसे बुरे मुजरिमों को भी वकील पाने का हक रहता है। कई मामलों मेें ऐसा होता है कि किसी बहुत छोटे बच्चे से बलात्कार और उसकी हत्या करने वाले मुजरिम के लिए खड़े होने के लिए वकील नहीं मिलते क्योंकि उस शहर के तमाम वकील तय कर लेते हैं कि कोई उसका बचाव नहीं करेंगे। ऐसे में दूसरे शहर से वकील लाए जाते हैं, और ऐसे वकीलों का कोई खास विरोध स्थानीय वकील नहीं करते। लेकिन एक मामला कुछ बरस पहले जम्मू का ऐसा आया था जिसमें एक मुस्लिम खानाबदोश बच्ची के साथ एक मंदिर में पुजारी से लेकर पुलिस तक बहुत से हिन्दुओं ने बलात्कार किया था, और उसे मार डाला था। जब इस मामले की सुनवाई हुई तो इस बच्ची की तरफ से खड़ी होने वाली एक हिन्दू महिला वकील का हिन्दू समाज ने जमकर विरोध किया था, और बहुत से वकीलों ने भी उसे धमकियां दी थीं, उसके खिलाफ प्रदर्शन हुए थे, क्योंकि प्रदर्शनकारियों को यह लग रहा था कि एक मुस्लिम खानाबदोश बच्ची से रेप, और उसके कत्ल के लिए इतने हिन्दुओं को सजा क्यों होनी चाहिए। लोगों को याद होगा कि इन प्रदर्शनकारियों में भाजपा के बड़े नेता भी शामिल थे, और देश का राष्ट्रीय झंडा लेकर जुलूस निकाले गए थे, जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं, और भारत माता की जय सहित कई किस्म के हिन्दू धार्मिक नारे भी लगाए गए थे।
अब अगर चिदम्बरम के मुद्दे पर लौटें, तो देश के राजनीतिक दलों में ऊंचे ओहदों पर रहने वाले और सत्तासुख भोगने वाले बहुत से ऐसे वकील रहते हैं जिनके लड़े गए मुकदमे उनकी पार्टी के लिए असुविधा का सामान बनते हैं। कई मामलों में जहां देश मेें धार्मिक और साम्प्रदायिक भावनाओं का ध्रुवीकरण चलते रहता है, उनमें कांग्रेस के कुछ बड़े नेता-वकील जब अल्पसंख्यक तबकों के वकील बनते हैं, तो भी वकालत का उनका यह फैसला उनकी पार्टी के खिलाफ प्रचार में इस्तेमाल किया जाता है, यह साबित किया जाता है कि यह पार्टी बहुसंख्यक समाज के खिलाफ है। ऐसे बहुत से मामले पिछले बरसों में सुप्रीम कोर्ट में आए हैं जिनमें कांग्रेस से जुड़े हुए वकीलों ने गैरहिन्दुओं से जुड़े हुए मामले लड़े, और उन्हें लेकर कांग्रेस को हिन्दूविरोधी साबित करने की कोशिश हुई।
लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी के बाद जब जनता पार्टी बनी, और उसमें दूसरे कई विपक्षी दलों के साथ-साथ जनसंघ का भी विलय हुआ था। इसके बाद जनता पार्टी की सरकार बनी, और वह चल रही थी कि पार्टी के भीतर यह मुद्दा उठा कि जिन लोगों की प्रतिबद्धता या संबद्धता आरएसएस के साथ है, वे लोग जनता पार्टी छोड़ दें। ऐसे में जनसंघ के नेताओं ने यह तय किया कि आरएसएस कोई राजनीतिक संगठन नहीं है कि इसे दोहरी सदस्यता माना जाए, और ऐसी बंदिश मानने से उन्होंने इंकार कर दिया। इसके बाद ये नेता जनता पार्टी से बाहर हुए, और वह सरकार कार्यकाल के बीच ही गिर गई।
हम यहां पर किसी राजनीतिक या गैरराजनीतिक संगठन की सदस्यता, या उसके प्रति प्रतिबद्धता को लेकर दोहरी सदस्यता वाली बात तो नहीं कह रहे हैं, लेकिन इतना जरूर सोच रहे हैं कि पार्टी के बड़े नेता रहे वकीलों को क्या अपने पेशे के अदालती मामले छांटते हुए पार्टी के सार्वजनिक हित, उसकी सोच, और उसके दीर्घकालीन फायदों के बारे में भी सोचना चाहिए? कुछ लोग इसे पेशे की व्यक्तिगत आजादी मानेंगे, और इसे छीनने की बात कहने पर पार्टी को ही छोड़ देने को बेहतर कहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे कि जनसंघ के नेताओं ने जनता पार्टी छोड़ दी थी। सैद्धांतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता का जब किसी पेशे से टकराव हो, तो लोगों को क्या तय करना चाहिए? अभी तक किसी राजनीतिक दल की ऐसी आचार संहिता सामने नहीं आई है जिसमें अपने सदस्य वकीलों के लिए ऐसी कोई सलाह लिखी गई हो, लेकिन क्या पार्टी के हित में बड़े वकील कुछ मामलों को छोड़ सकते हैं? कुछ किस्म के मामलों से परहेज कर सकते हैं? जो वकील जिंदा रहने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वे तो किसी भी किस्म का मामला लडऩे के लिए आजाद होने चाहिए, लेकिन चिदम्बरम, कपिल सिब्बल, रविशंकर, जैसे करोड़पति वकीलों पर क्या वैचारिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता देने जैसी बात पार्टी लागू कर सकती है, या वे खुद इसे मान सकते हैं?
इस बारे में कोई बात सुझाना आज यहां का मकसद नहीं है, लेकिन इस चर्चा को छेडऩा मकसद जरूर है क्योंकि इससे लोगों के बीच इस बारे में बात होगी। मुम्बई की कोई एक्ट्रेस कैसे कपड़े पहन रही है, या नहीं पहन रही है, उस पर बहस के बजाय इस मुद्दे पर बहस होना बेहतर होगा। लोगों को पेशे की अपनी आजादी, और अपने संगठन के प्रति वैचारिक प्रतिबद्धता के बीच खींचतान होने पर क्या करना चाहिए, इस पर लोगों को सोच-विचार जरूर करना चाहिए।