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दौलतमंद-ताकतवर मुजरिम सस्ते में क्यों छोड़े जाते हैं?
15-May-2022 5:02 PM
दौलतमंद-ताकतवर मुजरिम सस्ते में क्यों छोड़े जाते हैं?

पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली तीन जजों की एक बेंच ने मध्यप्रदेश के एक एबीवीपी पदाधिकारी को हाईकोर्ट से मिली जमानत रद्द कर दी, और हफ्ते भर में सरेंडर करने के लिए कहा। जबलपुर में एक छात्रा से बलात्कार के आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता को जब हाईकोर्ट से जमानत मिली थी, तो शहर में ‘भैय्या इज बैक’ के बैनर-होर्डिंग लगाए गए थे। इस पर बलात्कार-पीडि़ता छात्रा की ओर से जमानत रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी, तो वहां पर मुख्य न्यायाधीश ने इस पर भारी नाराजगी के साथ आरोपी के वकील से कहा था कि क्या आप जश्न मना रहे हैं? अदालत ने यह माना था कि बैनरों पर जिस तरह का महिमामंडन किया गया है, और जैसे नारे लिखे गए हैं, उससे समाज में अभियुक्त की ताकत का अंदाज लगता है। इससे शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कम से कम दस साल  की सजा वाले इस अपराध में इस तरह के बेशर्म बर्ताव ने शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा किया है, इससे निष्पक्ष सुनवाई की संभावना खत्म होती है, और गवाहों को प्रभावित करने की संभावना पैदा होती है।

अदालत का यह एक शानदार रूख है जो कि देश में अंधाधुंध ताकत रखने वाले मुजरिमों का बेशर्म हौसला घटाता है, और कमजोर तबके के पीडि़तों के मन में एक उम्मीद जगाता है। इस अखबार में हम लगातार इस बारे में लिखते हैं कि जब मुजरिम किसी बड़े ओहदे पर बैठा हुआ हो, सामाजिक या राजनीतिक ताकत वाला हो, उसके पास बहुत सी दौलत हो, तो उसके जुर्म पर अधिक बड़ी सजा का इंतजाम होना चाहिए। फिर अगर ऐसे ताकतवर मुजरिम के जुर्म के शिकार कमजोर लोग हों, गरीब या महिलाएं हों, प्रकृति या जानवर हों, तो भी उनके लिए ऐसी जुर्म की आम सजा के मुकाबले अधिक कड़ी सजा का इंतजाम रहना चाहिए। यह बात समझने की जरूरत है कि कानून की नजर में सबको एक बराबर देखने और रखने की गलती खत्म की जानी चाहिए। कानून को मुजरिम की ताकत को घटाने का काम भी करना चाहिए, और समाज से गैरबराबरी को हटाने का काम भी करना चाहिए। हमने पहले इसी जगह यह लिखा है कि अगर ताकतवर और संपन्न तबके के किसी मुजरिम से किसी गरीब को नुकसान होता है, तो कानून को इस तरह बदलना चाहिए कि बाकी सजा के साथ-साथ उसकी संपन्नता का एक हिस्सा भी गरीब को मिले। मिसाल के तौर पर अगर कोई अरबपति या करोड़पति किसी गरीब लडक़ी से बलात्कार करे, तो जब वह साबित हो जाए, तब उसकी दौलत का एक हिस्सा, एक बड़ा हिस्सा उस लडक़ी को मिलना चाहिए। भारत के कानून में ऐसे फेरबदल की जरूरत है। आज किसी जुर्म के लिए किसी गरीब को जितनी सजा होती है, किसी अरबपति को भी उतनी ही सजा होती है, जबकि पैसे वाले के पास पुलिस और गवाह को खरीदकर, सुबूत और जज को खरीदकर बच निकलने की बड़ी गुंजाइश रहती है, और बड़ी दौलत शायद ही कभी सजा पाने देती है।

अब हिन्दुस्तान की संसद से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह संपन्न तबके के खिलाफ इस तरह का कोई कानून बनाएगी। इसकी पहली वजह तो यह है कि पिछले दशकों में संसद और विधानसभाओं में घोषित रूप से करोड़पति लोगों का अनुपात बढ़ते-बढ़ते अब आसमान पर पहुंच गया है। अब संसद में एक तबका तो अरबपति सांसदों का भी है, और ऐसा ताकतवर तबका, या कि देश की ताकतवर नौकरशाही ऐसा कानून बनने नहीं देगी जो कि उनके वर्गहितों के खिलाफ रहेगा। किसी नौकरशाह को उसके बलात्कार पर अधिक कड़ी सजा हो, अधिक बड़ा जुर्माना देना पड़े, ऐसे कानून को बनाने की पहल वह नौकरशाही क्यों करेगी? संपन्नता के साथ यह एक बड़ी दिक्कत रहती है कि वह अपने आपमें एक वर्ग का बाहुबल बन जाती है, और कमजोर तबकों के खिलाफ सामंती मिजाज से जुल्म तेज करने लगती है।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट में कभी-कभी ऐसे मुख्य न्यायाधीश भी आते हैं जो कि संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारी को अपने बुढ़ापे के इंतजाम से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। रिटायर होने के बाद बरसों तक सहूलियतों को जारी रखने का लालच जिन्हें नहीं रहता है, वैसे ही जज सरकार की मर्जी के खिलाफ भी कोई फैसले दे पाते हैं। ऐसे ही किसी जज को इस किस्म के मुद्दे को उठाना चाहिए कि एक गरीब और एक अमीर, एक कमजोर और एक ताकतवर को किसी जुर्म पर एक सरीखी सजा कैसे दी जा सकती है? और यह भी कि जुर्म करने वाले संपन्न की दौलत का एक बड़ा हिस्सा जुर्म के शिकार को क्यों न दिया जाए?

भारत जैसे गैरबराबरी वाले समाज में वैसे भी किसी ताकतवर या संपन्न के कटघरे तक पहुंचने की संभावना बहुत कम रहती है। ऐसे में जब बिना किसी शक के अदालत ऐसे किसी को सजा के लायक पाए, तो उसकी संपन्नता की सारी हेकड़ी भी निकाल देनी चाहिए, और उसकी दौलत की ताकत का बेहतर इस्तेमाल पीडि़त परिवार या समाज के लिए होना चाहिए। कानून की नजर में बराबरी ऐसी ही सोच से साबित हो सकती है, न कि हर किसी को एक बराबर सजा देने से कोई बराबरी साबित होगी। दौलत को दी गई सजा से मुजरिम का बाकी परिवार भी प्रभावित होगा, और संपन्नता की बददिमागी को घटाने के लिए यह जरूरी भी है।

देश में एक ऐसी संसद की जरूरत है जो कि अलग-अलग किस्म के जुर्म पर संपन्न मुजरिम की दौलत का एक अनुपात जुर्माने के रूप में जब्त और वसूल करने का कानून बना सके। बलात्कार साबित होने पर कैद के साथ-साथ एक चौथाई दौलत बलात्कार की शिकार को मिले, या हत्यारा साबित होने पर संपन्न की आधी दौलत पीडि़त परिवार को मिले, तो ही कोई इंसाफ हो सकेगा।

इंसाफ की देवी को आंखों पर पट्टी बंधी हुई दिखाया जाता है, लेकिन कानून को इतना अंधा भी नहीं होना चाहिए कि वह संपन्नता की बददिमागी को सजा देने की न सोच पाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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