आजकल
उत्तरप्रदेश की एक मस्जिद को लेकर यह ऐतिहासिक विवाद चल रहा है कि क्या एक मंदिर को तोडक़र इसे बनाया गया है? देश की कई अदालतें इस सवाल के अलग-अलग पहलुओं से जूझ रही हैं, और देश के कुछ अलग-अलग कानून एक-दूसरे के सामने खड़े किए जा रहे हैं कि किस कानून के मुताबिक क्या होना चाहिए। हिन्दू और मुस्लिम दो तबके अदालत में एक-दूसरे के सामने खड़े हैं, और अदालत का सिलसिला कुछ पहलुओं पर शक से घिरा हुआ है, और इसी के चलते अदालत को अपनी मातहत अदालत का तैनात किया गया एक जांच कमिश्नर हटाना भी पड़ा है। लेकिन यह एक जटिल मामला है जिस पर यहां लिखने के बजाय किसी लेख में उसके साथ अधिक इंसाफ हो सकता है। यहां आज इस कानूनी विवाद पर लोगों की लिखी जा रही बातों पर लिखने की नीयत है।
जब मस्जिद में जांच के दौरान अदालत से तैनात एक हिन्दू जांच कमिश्नर वकील ने अदालत को रिपोर्ट देने के बजाय यह सार्वजनिक बवाल खड़ा करना शुरू किया कि मस्जिद में पानी की एक टंकी में शिवलिंग मिला है, तो इस पर देश भर से लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना शुरू किया। टीवी समाचार चैनलों को रोजी-रोटी मिली, और वे भी स्टूडियो में एक-दूसरे से पहले साम्प्रदायिक दंगा करवाने के गलाकाट मुकाबले में उतर पड़े। सोशल मीडिया पर लिखने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के एक प्रोफेसर रतनलाल भी थे, जिनके खिलाफ हिन्दू धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की पुलिस रिपोर्ट की गई, जुर्म दर्ज हुआ, और आनन-फानन उनकी गिरफ्तारी भी हो गई। खबरों से पता लगा कि रतनलाल एक दलित हैं, और उनकी पोस्ट पर विवाद होने के बाद उन्होंने जोर देकर यह कहा कि उन्होंने बहुत जिम्मेदारी के साथ लिखा था।
जैसा कि जाहिर है शिवलिंग से हिन्दू धर्मालुओं की भावनाएं जुड़ी हुई हैं, और शिवलिंग एक प्रतीक के रूप में किसी दूसरे धर्म की भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम भी नहीं करता। इसलिए मस्जिद में मिला हुआ पत्थर शिवलिंग है या नहीं, यह अदालत के तय करने की बात है, उस पत्थर को शिवलिंग कहकर किसी दूसरे धर्म पर चोट पहुंचाने का काम नहीं हो रहा था। किसी जगह पर किसी एक धर्म के दावे का झगड़ा था, जो कि अभी निचली अदालत में है, और 25-50 बरस बाद वह हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत से तय हो सकता है, लेकिन तब तक उस पत्थर को लेकर कोई झगड़ा नहीं था। वह पत्थर भी किसी का नुकसान नहीं कर रहा था। वह सैकड़ों बरस से उसी जगह पर पानी में डूबे हुए था, वहां से नमाज पढऩे के पहले लोग हाथ और चेहरा धोने को पानी लेते थे, और अगर बहस के लिए यह मान लें कि वह शिवलिंग ही है, तो भी सैकड़ों बरस के लाखों नमाजियों के हाथ लगते हुए भी उस शिवलिंग को कोई दिक्कत नहीं थी।
ऐसे में सोशल मीडिया पर प्रोफेसर रतनलाल के अलावा भी हजारों लोगों ने साम्प्रदायिकता का विरोध करने के लिए शिवलिंग का विरोध करना शुरू कर दिया, या अधिक बेहतर यह कहना होगा कि उन्होंने उस पत्थर के शिवलिंग न होने के दावे करने शुरू कर दिए, और ऐसा करते हुए लोग तरह-तरह से शिवलिंग के अपमान पर चले गए। यह अपमान उस पत्थर को शिवलिंग मानकर उसकी उत्तेजना फैलाने की साजिश का होता, तो भी ठीक होता। इस मामले में पहली नजर में दिखता है कि अदालत के तैनात जिस जांच कमिश्नर को रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में अदालत को ही देनी थी, उसने एक घोर हिन्दुत्ववादी की तरह हमलावर अंदाज में एक पत्थर के शिवलिंग होने का दावा करते हुए मीडिया में बयानबाजी शुरू कर दी, और उसके तौर-तरीकों से, और उसके दावों से बिना सुबूत सहमत होते हुए निचली अदालत ने मुस्लिमों के नमाज पढऩे के पहले वुजू करने, हाथ धोने की उस जगह को सील कर दिया। अब यह मौका एक छोटी अदालत के जज, और अदालत के जांच-कमिश्नर वकील को लेकर कुछ लिखने का था, और लोगों ने शिवलिंग का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया। अभी तो यह तय भी नहीं हुआ था कि वहां मिला वह पत्थर सचमुच ही शिवलिंग है, लेकिन एक धार्मिक प्रतीक शिवलिंग को लेकर इतनी ओछी और अश्लील बातें लिखी जाने लगीं, कि मानो शिवलिंग खुद ही त्रिशूल लेकर हिंसा कर रहा हो।
यह मौका अदालत के जांच कमिश्नर और जज के पक्षपात या पूर्वाग्रह, उनके न्यायविरोधी रवैये को साबित करने का था, हिन्दुस्तानी मीडिया ने जिस तरह एक हिन्दुत्ववादी वकील के उछाले हुए शिवलिंग शब्द को लपककर पूरे देश में साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता फैलाना शुरू किया, मीडिया के उस रूख के बारे में लोगों को बात करनी थी, लेकिन यह पूरी बहस इस बात पर आकर सिमट गई कि कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष लोग किस तरह शिवलिंग का मजाक उड़ा रहे हैं, हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रहे हैं।
मेरी तरह के परले दर्जे के नास्तिक, और धर्मनिरपेक्ष को भी धार्मिक प्रतीक का गंदी जुबान और गंदी मिसाल के साथ मखौल उड़ाना न सिर्फ नाजायज लगा बल्कि यह देश में साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ मजबूत करना भी लगा। जिस वक्त देश की बहस को असल मुद्दों से भटकाकर भावनाओं में उलझाने की राष्ट्रीय स्तर की साजिशें लगातार चल रही हैं, उसी वक्त अगर देश के असली या कथित धर्मनिरपेक्ष लोग भी अनर्गल, अवांछित, और नाजायज बकवास करके देश की बहस को गैरमुद्दों में उलझाने का काम करेंगे, तो यह धर्मनिरपेक्षता नहीं है, यह साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में उसी तरह खेलना है, जिस तरह देश के कई टीवी स्टूडियो खेल रहे हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अगर पूरी तरह से नाजायज बातों को जायज ठहराने की कोशिश होगी, तो उससे अभिव्यक्ति की जरूरी और जायज स्वतंत्रता की शिकस्त होगी। जब यह देश अपने आजाद इतिहास के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है, जब उसके सामने असली और गंभीर चुनौतियां जानलेवा दर्जे की हो चुकी हैं, तो यह वक्त अपनी गैरजिम्मेदार और फूहड़ बातों से दुश्मन के हाथ मजबूत करने का नहीं है। जिन लोगों को यह लगता है कि वे शिवलिंग का मखौल उड़ाकर मुसलमानों के हाथ मजबूत कर सकते हैं, उनसे अधिक गैरजिम्मेदार आज कोई नहीं होंगे क्योंकि इससे हिन्दू लोगों में से सबसे अधिक हिंसक और साम्प्रदायिक लोगों के हाथ मजबूत होने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा। जो लोग हिन्दुस्तान में सभी धर्मों को बराबरी दिलाना चाहते हैं, कुचले जा रहे धर्म को बचाना चाहते हैं, उनमें से कुछ लोग अगर धर्मान्ध-साम्प्रदायिक लोगों के हाथ अपने बयानों के हथियार थमा रहे हैं, तो यह धर्मनिरपेक्षता का काम नहीं है, यह साम्प्रदायिकता का काम है।
किसी व्यक्ति के धर्म, उसकी जाति, उसके वर्ग की वजह से उसकी सार्वजनिक बातों को रियायत नहीं दी जा सकती, खासकर ऐसे व्यक्ति को जिनकी पढ़ाई-लिखाई और समझदारी में कोई कमी नहीं है। ऐसे लोग अगर किसी एक गंभीर और व्यापक सोच के चलते हुए भी किसी धर्म के प्रतीक का मखौल उड़ाना जायज समझते हैं, तो वे लोग हिन्दुस्तान में आज असल मुद्दों पर बहस को बंद करवाने का काम कर रहे हैं, और ऐसे नुकसानदेह लोगों को बढ़ावा देकर देश में साम्प्रदायिक ताकतों को और मजबूत नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)