आजकल
औरतों के साथ भेदभाव हिन्दुस्तान में कुछ अधिक सर चढक़र बोलता है, लेकिन जिस पश्चिम से अधिक संवेदनशील होने, और बराबरी के अधिकार देने की उम्मीद की जाती है, वहां भी महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के मामले सिर चढक़र बोलते दिखते हैं। जिंदगी के अलग-अलग बहुत से दायरों में महिलाओं के खिलाफ समाज की सोच दिखाई पड़ती है, लेकिन अभी कला की एक इतिहासकार ने एक किताब लिखी है जो पिछले कुछ सौ बरसों का सिर्फ महिला चित्रकारों का इतिहास बताती है, क्योंकि चित्रकला के इतिहास मेें महिलाओं की जगह पुरूषों के वजनतले बुरी तरह दबी हुई है।
इस बारे में अभी कुछ लोगों ने लिखना शुरू किया है, और ऑस्ट्रेलिया की नेशनल गैलरी पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि वहां कलाकृतियों के संग्रह में सिर्फ एक चौथाई कलाकृतियां ही महिलाओं की बनाई हुई हैं। लेकिन यह फिर भी बाकी दुनिया के मुकाबले बेहतर है जहां पर कलादीर्घाओं में प्रदर्शित प्रमुख कलाकृतियों में से 90 फीसदी पुरूषों की बनाई हुई हैं। अभी प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी महिला कलाकार की बनाई हुई दुनिया की अब तक सबसे महंगी बिकी पेंटिंग, दुनिया की सौ सबसे महंगी पेंटिंग्स में भी नहीं हैं। जाहिर है कि किसी महिला कलाकार का नाम जुड़ जाने से ही उसका महत्व कम होने लगता है, और इसकी एक वजह शायद यह भी है कि दुनिया में कलाकृतियां खरीदने वाले तकरीबन तमाम लोग मर्द ही हैं।
तो अब एक यह बहस चल रही है कि क्या किसी महिला कलाकार, और किसी पुरूष कलाकार की बनाई हुई पेंटिंग्स में ऐसा बुनियादी फर्क रहता है कि वे कला के पैमानों पर कमजोर रहती हैं?
इसी बात को देखने के लिए अभी एक प्रयोग किया गया जिसमें कला की समझ रखने वाले लोगों को एक ही किस्म की शैली वाली ऐसी पेंटिंग्स दिखाई गईं जिनके पीछे महिला और पुरूष दोनों ही कलाकारों का हाथ था। चित्रकारों के नाम छुपा दिए गए थे, और महज पेंटिंग देखकर लोगों को अपनी पसंद तय करनी थी। आधे से अधिक लोगों ने महिला चित्रकारों की बनाई गई पेंटिंग्स पसंद कीं। लेकिन जब इन्हीं लोगों के सामने प्रमुख कलाकारों की जानी-मानी और चर्चित पेंटिंग्स रखी गईं, तो उन्होंने पुरूष कलाकारों की बनाई पेंटिंग्स पसंद कीं, शायद इसलिए कि उन कलाकारों के नाम उन्हें मालूम थे। लेकिन फिर ऐसा क्या हो जाता है कि जब असल जिंदगी की सरकारी और प्रमुख कलादीर्घाओं में कलाकृतियों को रखने की बारी आती है तो वहां पुरूषों का एकाधिकार दिखता है? क्या ऐसा इसलिए होता है कि संग्रहालयों और कलादीर्घाओं का इंतजाम मोटेतौर पर पुरूषों के हाथ रहता है, मीडिया से लेकर कलाकृतियों के खरीददारों तक, नीलामघरों तक पुरूषों का तकरीबन एकाधिकार रहता है। क्या सचमुच ही पुरूषों का एकाधिकार उनके मातहत आने वाले दायरों में दूसरे पुरूषों को बढ़ावा देता है? और क्या इस तरह पुरूषप्रधान समाज और भी अधिक पुरूषप्रधान होते चलता है?
हम इसे पश्चिम से बहुत दूर हिन्दुस्तान में, और कला से बहुत दूर राजनीति और सार्वजनिक जीवन से जोडक़र देखें तो शहरों के वार्डों से लेकर गांवों की पंचायतों तक महिलाओं के आरक्षण के बाद भी उनके ओहदों को उनके मर्द ही दुहते दिखते हैं। अभी कुछ हफ्ते पहले ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के म्युनिसिपल कमिश्नर ने महिला पार्षदों की जगह उनके पतियों से बात करने से मना कर दिया था जो कि एक आम बात रहते आई है। गांव-गांव में आरक्षण की वजह से पंच और सरपंच बनीं महिलाओं का काम उनके पति देखते हैं, और उनका एक औपचारिक नामकरण भी पंच-पति, और सरपंच-पति हो चुका है। देश के कई प्रदेशों में तो ये पति कागजात पर सील लगाकर दस्तखत भी करते हैं। जिस तरह आज हिन्दुस्तान में यह हाल हो गया है कि वोटर विधायक चुनने के लिए किसी भी निशान पर वोट डाले, चुना हुआ विधायक तो कमल पर ही वोट डालेगा। ठीक उसी तरह लोग भले आरक्षण की वजह से महिला को चुनें, काम तो उनका पति ही करेगा। ऐसे लोगों को हिकारत की नजर से देखने वाले कुछ लोग पंच-पति को पाप, और सरपंच-पति को सांप कहकर भी बुलाते हैं।
यह भेदभाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोहरत पाने वाली महिलाओं के साथ भी होता है। क्रिकेट में महिला टीम को पुरूषों के मुकाबले बहुत कम मेहनताना मिलता है, फिल्मों में महिला कलाकार को पुरूषों के मुकाबले बड़ी कम फीस मिलती है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही न्यूजीलैंड ने अपने पुरूष और महिला क्रिकेट खिलाडिय़ों के लिए बराबर मेहनताना घोषित किया है। हिन्दुस्तान जैसे देश में पुरूष खिलाडिय़ों को बहुत अधिक फायदे हैं।
कला को लेकर अभी एक किताब भी ऐसी आई है जो पिछली कुछ सदियों में महिला कलाकारों के महत्व को बताने वाली है क्योंकि पुरूषों के साथ जोडक़र जब उन्हें देखा जाता है तो वहां उनकी कोई जगह ही नहीं बनती। जिंदगी के दूसरे दायरों में भी इस भेदभाव को समझने की जरूरत है।