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खलनायक बना दिए गए गहलोत ने भला क्या अलोकतांत्रिक किया था?
02-Oct-2022 2:58 PM
खलनायक बना दिए गए गहलोत ने भला क्या अलोकतांत्रिक किया था?

सार्वजनिक जीवन में एक चूक, या एक गलत काम लोगों को आसमान से धरती पर पटक सकते हैं, नायक को खलनायक बना सकते हैं, और ऐसा ही कुछ अशोक गहलोत के साथ हुआ। राजस्थान के मुख्यमंत्री इतने ताकतवर माने जा रहे थे, उनका लंबा तजुर्बा और सोनिया परिवार के प्रति उनकी बेदाग वफादारी ने उन्हें चौथाई सदी बाद पहले गैरगांधी कांग्रेसाध्यक्ष के लायक बनाया था। सोनिया परिवार ने अपने तीन लोगों से बाहर जाकर गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाना तय किया था, और उन्हें एक किस्म से इस जिम्मेदारी के लिए बाकी किसी भी कांग्रेस नेता के मुकाबले अधिक सही पाया था। इस बात की मुनादी उनकी तरफ से भी हो गई थी, लेकिन अगले ही दिन वे कांग्रेस के बहुत से लोगों के बीच नायक से खलनायक बन गए।

जो लोग कांग्रेस के घटनाक्रम बारीकी से पढ़ रहे हैं उन्हें तो कुछ बताने की जरूरत नहीं है, लेकिन बाकी लोगों के लिए यह समझ जरूरी है कि गहलोत ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर हामी भर दी थी, इसकी घोषणा कर दी थी, और कुछ हफ्ते बाद नतीजे घोषित होने पर वे काम भी सम्हाल चुके होते। इस बीच जाने किस हड़बड़ी के चलते दिल्ली में कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप ने यह महसूस किया कि गहलोत के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उनकी जगह राजस्थान में एक नया मुख्यमंत्री लगेगा, और इसके पहले कि गहलोत अध्यक्ष चुनाव का फॉर्म भी भर पाते, दिल्ली से कांग्रेस पर्यवेक्षक जयपुर पहुंचकर विधायकों की बैठक बुलाकर अगला मुख्यमंत्री तय करने बैठे थे। लीडरशिप की इस रफ्तार ने न सिर्फ राजस्थान कांग्रेस के विधायकों  को हक्का-बक्का किया, बल्कि कांग्रेस परे के देश भर के राजनीतिक विश्लेषक भी यह सोचते रह गए कि बिजली की इस रफ्तार से नया मुख्यमंत्री तय करने की जरूरत क्या थी? राजस्थान के अधिकतर कांग्रेस विधायक गहलोत समर्थक दिख रहे हैं, और उनके बीच मुख्यमंत्री के करवाए हुए, या उनकी मौन सहमति से एक बगावत हुई, और कांग्रेस हाईकमान को उसके मौजूदा कार्यकाल के आखिरी महीने में उसकी औकात दिखा दी गई। कांग्रेस के निष्ठावान सोनिया-समर्थकों को यह शब्द कुछ अधिक कड़वा लग सकता है, लेकिन जयपुर में हुआ यही, कांग्रेस हाईकमान के भेजे हुए पर्यवेक्षक दुकान खोलकर बैठे रहे, और पार्टी विधायकों ने वहां पांव भी रखने से मना कर दिया। जब 90 फीसदी विधायक अनुशासनहीन करार दे दिए गए, तो फिर तौहीन तो हाईकमान की ही हुई क्योंकि सोनिया गांधी इनका कुछ बिगाडऩे की हालत में नहीं हैं।

अब यहां पर एक बुनियादी सवाल उठाना जरूरी है। कांग्रेस में नए अध्यक्ष चुने जाने की यह सारी मशक्कत पार्टी में एक लोकतंत्र को जिंदा दिखाने के लिए की जा रही है। और हो सकता है कि इससे पार्टी जिंदा भी हो जाए। अब सवाल यह उठता है कि एक अनमने अशोक गहलोत को अगर पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए इतना जरूरी समझती है कि खाली बैठे हुए दर्जनों बड़े नेताओं को छोडक़र एक मुख्यमंत्री को अध्यक्ष बनाया जा रहा है, तो गहलोत का महत्व इसी बात से साफ हो जाता है। यह महत्व उनकी काबिलीयत की वजह से भी हो सकता है, और उनके सबसे अधिक उपयुक्त होने की वजह से भी। अब अगर गहलोत को हटना ही था, तो जाहिर है कि उनकी जगह कोई और मुख्यमंत्री बनता, या गहलोत ही दोनों कुर्सियों पर काबिज रहते जैसी कि उनकी नीयत दिख रही थी, या कम से कम उनका बयान वैसा दिख रहा था। अब अगर पार्टी ने यह तय ही कर लिया था कि गहलोत के नामांकन भरने के पहले ही राजस्थान में उनका वारिस छांट लिया जाए, और इसके लिए फायर ब्रिगेड की रफ्तार से पर्यवेक्षक जयपुर पहुंच गए थे, तो फिर वहां जो हुआ, उसमें अलोकतांत्रिक क्या था? कोई भी मुख्यमंत्री किस तरह चुने जाने चाहिए? विधायकों का बहुमत जिसके साथ हो वही पार्टी विधायक दल के अध्यक्ष हो सकते हैं, और जयपुर में जाहिर तौर पर बहुमत से भी खासे अधिक लोग गहलोत के साथ दिख रहे थे। अब अगर कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए एक चुनाव करवाने का यह दौर अगर ढकोसला नहीं है, तो फिर ऐसा ही चुनाव राजस्थान विधायक दल के भीतर अगले मुख्यमंत्री के लिए भी होना था। और बहस के लिए कुछ देर के लिए यह भी मान लें कि विधायकों की बगावत गहलोत ने ही करवाई थी, तो भी वे विधायकों की पसंद ही साबित हो रहे थे। ऐसे में जिस लोकतांत्रिक चुनाव का दिखावा दिल्ली में हो रहा है, वैसा ही लोकतांत्रिक चुनाव जयपुर में क्या बुरा था?

लोगों की नजरों में गहलोत पल भर में खलनायक बन गए हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस हाईकमान से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इतना बड़ा तोहफा मिलने के बाद भी राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर से अपनी नीयत नहीं हटाई थी। लेकिन क्या यह देश और कांग्रेस पार्टी कांग्रेस संगठन के चुनाव देखना चाहते हैं, या कि एक मनोनयन देखना चाहते हैं? अगर गहलोत अध्यक्ष बन रहे थे, तो उसके एवज में उनसे राजस्थान सीएम की कुर्सी पर दिल्ली की मर्जी का राज्याभिषेक करवाने की उम्मीद क्यों की जा रही थी? जब पार्टी में लोकतंत्र ही लाना है, तो राजस्थान में तो खुला लोकतंत्र आ रहा था, और 90 फीसदी विधायक सचिन पायलट के खिलाफ दिख रहे थे। यह भी याद रखने की जरूरत है कि दो बरस पहले सचिन पायलट ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ जाकर, राजस्थान में अपनी ही सरकार के खिलाफ जाकर डेढ़-दो दर्जन विधायकों को लेकर सरकार गिराने की पूरी कोशिश की थी, और जब वह कोशिश नाकाम कर दी गई, तो उसके बाद क्या आज राजस्थान के कांग्रेस विधायकों का यह भी हक नहीं बनता कि वे पार्टी को तोडऩे, सरकार पलटाने की कोशिश करने वाले को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध करते? इसमें अलोकतांत्रिक क्या था? यह तो सबसे ही लोकतांत्रिक बात थी कि विधायक दल ने उनके बीच के सबसे बड़े बागी, सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाने वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश को खारिज कर दिया। इसके पीछे गहलोत थे, या नहीं थे, क्या यह बात सचमुच ही मायने रखती है? पार्टी के 90 फीसदी विधायक सशरीर पायलट के खिलाफ एकजुट होकर खड़े थे, और क्या कांग्रेस हाईकमान के लिए यह एक नैतिक और जायज बात थी कि वह अपने आखिरी हफ्तों में एक ऐसे अवांछित नेता को राजस्थान पर थोप दे जिसने सरकार के खिलाफ सबसे बड़ी साजिश की थी, पार्टी को फजीहत में डाला था, और जिसके खिलाफ राजस्थान के पार्टी विधायक एकजुट हैं?

गहलोत से भला ऐसी कैसी पारिवारिक वफादारी की उम्मीद लोकतांत्रिक हो सकती है जिस परिवार के सीधे कब्जे से बाहर पार्टी को ले जाने की कवायद चल रही है? या तो सोनिया परिवार पार्टी पर काबिज रहे, या किसी दूसरे को पार्टी अध्यक्ष बनकर पार्टी को बचाने की कोशिश करने का एक मौका दे। जिसे पार्टी अध्यक्ष बनाने की नीयत चल रही है, उसी की मर्जी, उसी की राजनीति, उसी के समर्थकों और पार्टी विधायकों के बहुमत के खिलाफ जाकर राजस्थान में कांग्रेस की आज की लीडरशिप जिस तरह से सत्ता पलट करवाने की कोशिश कर रही थी, वह एक बहुत ही अलोकतांत्रिक फैसला था। जो लोग गहलोत को नाशुक्रा और सोनिया के प्रति धोखेबाज साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, वे इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि ऐसा शुक्रगुजार और वफादार होना कोई लोकतांत्रिक बात नहीं होती कि पार्टी विधायकों की मर्जी के खिलाफ गहलोत राजस्थान में पायलट को मुख्यमंत्री बनाने देते। उनकी अपनी मर्जी तो पायलट के खिलाफ रही ही होगी, विधायकों का बहुमत भी उनके साथ था।

गहलोत ने पार्टी से पुराने रिश्तों के चलते हुए, और शायद मुख्यमंत्री बने रहने के लिए सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्होंने सोनिया से माफी मांग ली है कि पार्टी की मर्जी का प्रस्ताव पास नहीं करवा पाए। उनकी इस माफी को कांग्रेस लीडरशिप की इज्जत बच जाने का सुबूत भी करार दिया जा रहा है। लेकिन यह पूरा सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है, और इस पूरे गहलोत-प्रकरण में कांग्रेस हाईकमान की बददिमागी का एक बड़ा सुबूत है जिसने मानो यह भी तय कर लिया था कि गहलोत को क्या बना दिए जाने के बाद उनसे कौन सा त्याग पा लेना पार्टी का हक है। देश के कुल दो राज्यों तक सिमट चुकी कांग्रेस पार्टी के हाईकमान को पार्टी का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो जाने के पहले तक और कितनी बददिमागी दिखाने की जरूरत है?

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