आजकल
स्पेन के एक बड़े अखबार ने अभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी की एक रिपोर्ट छापी, और इसकी सजावट में उसने ग्राफ पेपर पर एक संपेरे को बनाया जिसके बीन की आवाज सुनकर मानो आर्थिक विकास सांप की तरह ऊपर उठते जा रहा है। इस रचनात्मक सजावटी चित्र पर भारत के बहुत से लोगों ने घोर आपत्ति की है, और सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लिखा है कि भारतीय विकास को संपेरे के सांप की तरह दिखाना भारत का अपमान है, और इसका विरोध किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ प्रीतीश नंदी जैसे एक समझदार और उदार भूतपूर्व पत्रकार ने ऐसी आलोचना की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा है कि कोई किसी का तब तक अपमान नहीं कर सकते जब तक कि लोग खुद ही अपमानित होने पर उतारू न हों। उन्होंने लिखा कि संपेरा दुनिया में जादू का एक बड़ा पुराना प्रतीक है, और स्पेन का यह अखबार भारत के विकास को जादुई मान रहा है। प्रीतीश नंदी ने यह सलाह दी कि आहत होने वाले लोगों के हिन्दुस्तानी झुंड को और बड़ा न किया जाए क्योंकि यह वैसे भी बहुत बड़ा हो चुका है।
हैरानी की बात यह है कि हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े नेताओं ने, केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के लोगों ने इस कार्टून या सजावटी चित्र का जमकर बुरा माना है। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान के लोगों का एक बड़ा तबका किसी भी पश्चिमी बात का बुरा मानने के लिए एक पैर पर खड़े किसी बाबा की तरह उतारू रहता है, और वेलेंटाइन डे पर एक चुंबन से भी उसे भारत की सांस्कृतिक विरासत तबाह होते दिखने लगती है। अब हिन्दुस्तान का पश्चिमी दुनिया से पहला संपर्क होने के भी सैकड़ों बरस पहले हिन्दुस्तान के खजुराहो जैसे मंदिरों की दीवारों पर दर्जनों किस्म से संभोग की जो मूर्तियां बनाई गई थीं, और जो आज भी शानदार तरीके से बची हुई हैं, वे मानो इस देश की विरासत ही नहीं हैं। पश्चिम का एक चुंबन, इस देश के इतिहास को कंपकंपा देता है। जिस देश की दीवारें हस्तमैथुन से लिंग के टेढ़े हो जाने के इलाज का दावा करने वाले फर्जी डॉक्टरों के इश्तहारों से भरी हुई हैं, वह देश एक फिल्म में एक किरदार करने वाली अभिनेत्री स्वरा भास्कर की एक उंगली की कल्पना करके कांप जाता है। देश का लिंग हस्तमैथुन से टेढ़ा है, लेकिन ऐसे करोड़ों मर्दों वाला देश एक अभिनेत्री की न दिखने वाली उंगली से कांप उठता है!
हिन्दुस्तान की आबादी का एक हिस्सा बुरा माने बिना अगला खाना नहीं खा पाता। उसे हर बात बहुसंख्यक आबादी के धर्म पर हमला लगती है, इस बहुसंख्यक आबादी के भीतर वर्णव्यवस्था के तहत राज करने वाली ब्राम्हणवादी, सवर्ण सोच पर हमला लगती है। कुल मिलाकर देश की आबादी में मनुवादी व्यवस्था के तहत सबसे ऊपर स्थापित एक बहुत छोटे से तबके की आज की राजनीतिक-सहूलियत की सोच को ही पूरे देश के सभी धर्मों के, सभी जातियों के लोगों की आम सोच बनाने की हिंसक-जिद हिन्दुस्तान के आज के वर्तमान पर बुरी तरह हावी है। कुछ देर के लिए इस बात की कल्पना की जाए कि यह कार्टून या रेखांकन स्पेन के अखबार में छपने के बजाय हिन्दुस्तान के किसी हिन्दू (द हिन्दू नहीं) अखबार में छपा होता तो इसे री-ट्वीट करने के लिए इस सदी की सबसे सक्रिय ट्वीट-आर्मी जुट गई होती। उस वक्त यह राष्ट्रवादी राष्ट्रगौरव करार दिया जाता। लेकिन पश्चिम का हाथ लगते ही यह कार्टून ठीक उसी तरह अछूत हो गया है जिस तरह किसी शूद्र का हाथ लगते ही आज भी कुछ करोड़ लोगों की रसोई अशुद्ध हो जाती है।
हिन्दुस्तान से पश्चिम में जाकर काम करके, कामयाब होकर, वहां बसे हुए उन करोड़ों लोगों से भी हिन्दुस्तान के दकियानूसी लोगों को सबक लेना चाहिए कि पश्चिम में सब कुछ बुरा नहीं है। उस पश्चिम में कम से कम यह बर्दाश्त तो है कि दुनिया भर के अलग-अलग महाद्वीपों से वहां पहुंचने वाले अलग-अलग रंगों और चेहरे-मोहरे वाले लोगों को वहां बराबरी से बर्दाश्त करके आगे बढऩे का मौका दिया जाता है, और यही वजह है कि गोरों के देश में सबसे बड़ी कई अमरीकी कंपनियों के मुखिया हिन्दुस्तानी नस्ल के हैं। जब भारतवंशी ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की एक मजबूत संभावना सामने थी, और ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी ने ऋषि सुनक को पूरा मौका दिया था, उस वक्त उनकी पार्टी के गोरे-संकीर्णतावादी लोगों ने भी यह बात नहीं कही थी कि कल का काला गुलाम आज अगर उनका प्रधानमंत्री बन जाएगा तो वे सिर मुंडा लेंगे, फर्श पर सोने लगेंगे, और चना खाकर गुजारा कर लेंगे। यह बर्दाश्त ही बहुत से देशों को उनकी संभावना के आसमान तक ले जाती है। अफ्रीका से दो पीढ़ी पहले गए हुए लोगों की औलाद बराक ओबामा की शक्ल में दो-दो बार अमरीका की राष्ट्रपति बनती है, ब्रिटिश प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचती है, और पश्चिमी कारोबार पर राज भी करती है। ऐसे पश्चिम के एक कार्टून से जिन हिन्दुस्तानियों का आत्मविश्वास डोलने लगता है, जिनकी इज्जत संपेरे की इस बीन से जख्मी हो जाती है, क्या ऐसा समाज सचमुच ही उन संभावनाओं को छू सकता है, जिनका कि वह हकदार होना चाहिए था? दरअसल राष्ट्रवादी निष्ठा का प्रदर्शन इस कदर बददिमाग और बेदिमाग हो गया है कि वह राह चलते निशाना लगाने को निशाने ढूंढते चलता है। उसे वेलेंटाइन डे के बाद और क्रिसमस-न्यू ईयर के पहले और कुछ नहीं मिला, तो उसने यह कार्टून ढूंढ लिया। किसी चिडिय़ाघर में बंद जानवर की तरह दो वक्त खाना देने की जरूरत हर राष्ट्रवाद को रहती है। हालांकि हिंसक राष्ट्रवाद के सिलसिले में मासूम जानवरों की मिसाल देना उन जानवरों की बड़ी तौहीन है, फिर भी हम दो वक्त खाना देने की मिसाल के तौर पर उनका जिक्र कर रहे हैं। राष्ट्रवाद को अगर नफरत और हमले के लिए हर दिन कुछ न कुछ पेश न किया जाए, तो राष्ट्रवाद धीमी मौत मरने लगता है। इसलिए हिन्दुस्तान के पश्चिम-विरोध पर जिंदा रहने वाले राष्ट्रवादियों ने और कुछ नहीं मिला तो एक मासूम कार्टून को छांटकर धनुष-बाण, त्रिशूल और भालों के सामने पेश कर दिया है।
एक बात तय है कि ऐसी हरकतों से हिन्दुस्तान यह 21वीं सदी खत्म होने तक 19वीं सदी में जरूर पहुंच जाएगा जब यह देश पति खोने वाली महिलाओं को सती बनाकर फख्र हासिल करता था। जिस देश की समसामयिक समझ पाखंड लाद-लादकर इतनी दबा दी जाती है कि वह समझ के इस्तेमाल के मौकों पर भी सिर नहीं उठा पाती, उस देश का कोई भविष्य नहीं होता, कम से कम लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमानों पर। और इन पैमानों पर आज की राष्ट्रवादी असहिष्णुता पूरी तरह खोटी साबित हो रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)