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औरतों की जुबान में भी मर्द-अंग बहादुरी के, और औरत-अंग कायरता के प्रतीक कहाते हैं
09-Apr-2023 3:56 PM
औरतों की जुबान में भी मर्द-अंग बहादुरी के,  और औरत-अंग कायरता के प्रतीक कहाते हैं

पश्चिम में बसी हुई एक भारतवंशी महिला ने अभी पिछले कुछ दिनों में राजनीतिक चेतना बताने वाले कई ट्वीट किए हैं। उनमें से कुछ कट्टरपंथ और धर्मान्ध ताकतों के खिलाफ कड़ा हमला भी रहा। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ ने केरल के एक टीवी चैनल पर केन्द्र सरकार की लगाई गई रोक को हटाते हुए अपने फैसले में यह लिखा कि समाज के जिम्मेदार कामकाज के लिए स्वतंत्र प्रेस बहुत जरूरी है। यह प्रेस की जिम्मेदारी है कि वह सत्ता को सच बताते रहे। फैसले में और भी बहुत कुछ लिखा है, लेकिन आज की यहां की चर्चा का मकसद इस महिला द्वारा इस फैसले की खबर के साथ किया गया एक ट्वीट है। उसने अंग्रेजी में जो लिखा है वह आदमी और औरत के लिए अंग्रेजी जुबान में इस्तेमाल होने वाली बोलचाल की जुबान है जिसे कुछ लोग अश्लील भी मान सकते हैं। इसकी चर्चा किए बिना और कोई रास्ता नहीं है कि उस पर कोई बात कर सकें, इसलिए इन शब्दों को यहां पर दुहराना जरूरी है। 

अंग्रेजी में अक्सर मर्दानगी का जिक्र करने के लिए कहा जाता है- हैव बॉल्स। इसका सीधा-सीधा मतलब पुरूषों के अंडकोष से होता है जो कि सिर्फ पुरूषों के ही पास होते हैं, महिलाओं के पास नहीं होते। ऐसे में जब किसी को हिम्मत दिखाने के लिए उकसाते हुए जब कहा जाता है- हैव बॉल्स, तो उसका मतलब होता है कि मर्द की तरह बर्ताव करो। इसी तरह अंग्रेजी के स्कूल-कॉलेज से लेकर अंग्रेजी बोलने वाले समाज तक मर्दानगी की एक और जुबान चलती है जिसमें शर्मीले, या डरने वाले लडक़ों को चुनौतियां मिलती रहती हैं, डोंट बी अप पुसी। इसका सीधा-सीधा मतलब महिला के गुप्तांग से होता है। इसे एक कायर होने के प्रतीक की तरह बोला जाता है कि लड़कियों की तरह मत डरो, औरतों की तरह बर्ताव मत करो। अब सोशल मीडिया पर सामाजिक चेतना की बात लिखने वाली एक बड़ी पढ़ी-लिखी महिला जब यह लिखती है कि सीजेआई चन्द्रचूड़ हैज बॉल्स, नाऊ ओनली इफ मीडिया विल स्टॉप बीइंग पुसी, डैट वुड बी मैग्नीफिसेंट, तो बिना अश्लीलता के इसका मतलब यह है कि जस्टिस चन्द्रचूड़ ने तो मर्दानगी दिखा दी है, अब यह मीडिया की बारी है कि वह जनानी होना बंद करे। 

मर्द को औरत के मुकाबले बेहतर बताना, बहादुरी का प्रतीक बताना, और औरत को कायर बताना, कमजोर बताना बहुत नई बात नहीं है। यह चलते ही रहता है। जो लोग खासे पढ़े-लिखे हैं, और राजनीतिक चेतना से संपन्न भी हैं, और औरत-मर्द की बराबरी की बात भी समझते हैं, करते हैं, वे भी लगातार बोलने और लिखने में ऐसी चूक करते हैं, ऐसी लापरवाही दिखाते हैं। ऐसा इसलिए भी होता है कि पीढिय़ों से सुनी हुई, और सदियों की पढ़ी हुई जुबान यही सिखाती है कि औरत कमजोर है, और मर्द बहादुर है। नतीजा यह होता है कि समाज के सबसे जिम्मेदार लोग भी इन प्रतीकों का ज्यों का त्यों इस्तेमाल करने लगते हैं।

जिस सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर यह ट्वीट हुआ, और जिसे लेकर यह बात की जा रही है, उसी सुप्रीम कोर्ट की एक दूसरी बेंच ने नफरती भाषणों के मामले की सुनवाई करते हुए कहा- सरकार नपुंसक (इम्पोटेंट) है, सरकार शक्तिहीन है, यह समय पर कार्रवाई नहीं करती है। अगर इसे चुप ही रहना है तो ऐसी सरकार की जरूरत क्यों है? सुप्रीम कोर्ट में बहुत से अच्छे प्रगतिशील फैसले और आदेश देने वाली जस्टिस के.एम.जोसेफ और बी.वी.नागरत्ना की बेंच यह सुनवाई कर रही थी। बगल में एक महिला जज के रहते हुए भी जस्टिस जोसेफ की भाषा में सरकार को इम्पोटेंट कहा गया जिसका शाब्दिक अर्थ नामर्द, नपुंसक, पुंसत्वहीन होता है, हालांकि इसका एक दूसरा शाब्दिक अर्थ शक्तिहीन, बेअसर भी होता है। लेकिन चूंकि इस वाक्य में जज ने इम्पोटेंट के साथ-साथ सरकार को पावरलेस भी लिखा है, इसलिए इम्पोटेंट के मतलब को शक्तिहीन मानने की कोई वजह नहीं है। 

अब सुप्रीम कोर्ट भी अगर अपने फैसलों में बेअसर, शक्तिहीन जैसी कमजोरियों के लिए इम्पोटेंट शब्द का इस्तेमाल करेगा, जिसका एक व्यापक इस्तेमाल नामर्द और नपुंसक बखान करने के लिए होता है, तो फिर भाषा कैसे औरत-मर्द की बराबरी रख पाएगी? मैंने भाषा के कई जानकारों से इस शब्द के बारे में पूछा, उनमें से हर किसी का कहना था कि इम्पोटेंट शब्द अलग से कमजोर या बेअसर के लिए इस्तेमाल होता है, लेकिन जब औरत या मर्द के संदर्भ में इस शब्द के मतलब देखे जाते हैं, तो यह सिर्फ मर्द के लिए उपयोग होता है, औरत के लिए नहीं। अब जिस शब्द को सीधे-सीधे एक मर्द की सेक्स न कर पाने वाली कमजोरी से जोडक़र ही इस्तेमाल किया जाता है, अगर वही शब्द अदालत सरकार या राज्य के लिए इस्तेमाल करेगी, तो उसका एक मतलब यह भी निकलता है कि राज्य या सरकार भी एक मर्द है। 

और यह साफ-साफ दिखता भी है कि बड़े लोगों की कही गई भाषा से छोटे लोगों के सामने एक मिसाल खड़ी हो जाती है। जब सुप्रीम कोर्ट जज किसी सरकार को नामर्द कहेंगे, तो फिर वे तमाम महिलाएं अपने आप कमजोर साबित होने लगेंगीं जो कि मर्द नहीं हैं। भाषा जब कभी बनी, उसके पीछे लैंगिक-राजनीति रही। इस जेंडर पॉलिटिक्स का शिकार संविधान की ऊंची जगहों पर बैठे लोगों को तो बिल्कुल ही नहीं होना चाहिए। जब उनकी भाषा इस तरह महिला-विरोधी हो जाती है, तो कोई हैरानी नहीं है कि खुद महिलाओं की भाषा महिला-विरोधी होने लगती है। वे भी पुरूषों के अंडकोष को ताकत का प्रतीक मानने लगती हैं, और महिलाओं के जननांग को कमजोरी का। और घरों की बोलचाल की भाषा में भी किसी रोते हुए लडक़े को चुप कराने यह कहा जाने लगता है कि अरे, लडक़ी की तरह रो रहे हो। मानो कि लडक़ी का काम रोना ही होता है, और वह रोने से अधिक कुछ नहीं कर सकती। 

भाषा की राजनीति तमाम कमजोर तबकों के खिलाफ रहती है, उसमें गरीब के लिए हिकारत रहती है, महिलाओं के खिलाफ तो वह हमेशा ही रहती है, उसमें दलितों और आदिवासियों के लिए गंदी गालियां रहती हैं, बीमार और बूढ़ों के लिए नफरत के शब्द रहते हैं। इसलिए भाषा की मरम्मत हमेशा ही चलती रहनी चाहिए। जब किसी शब्द के दो मतलब निकलते हों, तो कहने वाले का मकसद चाहे जो मतलब हो, उसके दूसरे मतलब को भी ध्यान में रखना चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि कोई फैसला लिखते हुए या कोई टिप्पणी करते हुए लोग अपने कहे शब्दों के मुमकिन कई मतलब में से किसी एक खास मतलब का अलग से जिक्र तो करते नहीं हैं।
 
छत्तीसगढ़ की विधानसभा में जिस दरवाजे से विधायक सदन में प्रवेश करते हैं, वहां पर पुराने वक्त का संस्कृत का कोई वाक्य लिखा है जिसमें पुरूषार्थ शब्द है। इस बारे में निजी मुलाकात में बहस करने पर उस वक्त के विधानसभा अध्यक्ष ने इस शब्द का बचाव किया था कि यह सिर्फ पुरूषों से जुड़ा हुआ नहीं है, यह तो वीरता के लिए इस्तेमाल होने वाला एक आम शब्द है जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं। इसी तरह भाषा में, मिसालों में, और व्यवहार में, सभी जगह बहादुरी के हर जिक्र में सिर्फ मर्दों के शब्दों का इस्तेमाल दिखता है, और जाहिर है कि यह औरत को दूसरे दर्जे का नागरिक बताने की एक कोशिश रही है। इक्कीसवीं सदी में भाषा को इस लैंगिक-पूर्वाग्रह से ऊपर उठना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जजों को भी इम्पोटेंट जैसे शब्दों से तब तक परहेज करना चाहिए जब तक कि वह तलाक जैसे किसी मामले में चिकित्सा विज्ञान के सर्टिफिकेट में लिखा गया इम्पोटेंट जैसा शब्द न हो जो कि सेक्स करने के काबिल नहीं माना गया हो। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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