आजकल
छत्तीसगढ़ में अभी मुक्तिबोध पर एक और सरकारी कार्यक्रम हुआ, जिसमें देश के कई जाने-माने साहित्यकार भी पहुंचे। मुक्तिबोध पर दरअसल पिछले दिनों दो अलग-अलग कार्यक्रम हुए, एक कार्यक्रम एक सरकारी कॉलेज के छात्र-छात्राओं के बीच मुक्तिबोध के बेटे, दिवाकर मुक्तिबोध की यादों का था, जिसमें उन्होंने मुक्तिबोध के पारिवारिक जीवन से अपना पूरी जिंदगी का रूबरू वास्ता बखान किया। यह कार्यक्रम तो बिना किसी खर्च के कॉलेज की एक नियमित गतिविधि की तरह हुआ, और दिवाकर की यादों को सुनना एक यादगार मौका रहा होगा क्योंकि उन बातों को और तो कोई कह नहीं सकते थे। लेकिन दूसरा कार्यक्रम छत्तीसगढ़ की सरकारी संस्था, साहित्य परिषद के बैनर पर हुआ, और जाहिर है कि वह दो दिनों तक सरकारी खर्च पर ही चला होगा। इसलिए आज की यह बातचीत इसी आयोजन को लेकर है।
मैंने पिछले हफ्ते मुक्तिबोध प्रसंग के इस मौके पर एक छोटी सी बात फेसबुक पर लिखी थी कि वर्तमान का अतीत पर इस हद तक परजीवी हो जाना शायद मुक्तिबोध को न सुहाता। यह बात एक किस्म से मेरे एक पुराने और बड़े काबिल अखबारनवीस साथी ईश्वर सिंह दोस्त के लिए थी जो कि इस कार्यक्रम के दो आयोजकों में से एक थे। ईश्वर और मैंने एक अखबार में बरसों काम किया, और आज वे इस सरकार में छत्तीसगढ़ साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी हैं। इस किस्म में किसी भी सरकारी संस्थान के लिए वे वैचारिक रूप से बड़े काबिल भी हैं। उनका लिखा हुआ छापने में मुझे बड़ी खुशी भी होती है। लेकिन उनके आयोजनों से मेरी इस मायने में असहमति रहती है कि वे अतीत पर सवार रहते हैं। क्या 21वीं सदी के इस दूसरे दशक में साहित्यकारों और रचनाकारों के सामने बहस के लिए, सीखने के लिए, और विचारमंथन के लिए महज मुक्तिबोध या उस पीढ़ी के, उनके कुछ पहले के और उनके कुछ बाद के साहित्यकार काफी हैं?
साहित्य के इतिहास का अपना एक महत्व है। लेकिन किसी भी दूसरे इतिहास की तरह साहित्य का इतिहास भी एक सीमा तक ही वर्तमान का मददगार हो सकता है। मुक्तिबोध के पहले से भी, और साहित्यकारों के परे से भी कार्ल माक्र्स की सोच दुनिया के साहित्यकारों के काम आती रही है। लेकिन क्या आज के आयोजन माक्र्स की विचारधारा तक सीमित रहकर कुछ हासिल कर सकते हैं? साहित्य से परे देखें तो कुछ लोग विवेकानंद, कुछ लोग गांधी, और कुछ लोग नेहरू तक सिमटकर रह गए हैं, और घूम-फिरकर, जहाज के पंछी की तरह वे अपने उन्हीं पसंदीदा किरदारों पर लौटते हैं, क्योंकि उन्हें उनमें महारत हासिल है, और वहां पर उनका ज्ञान औरों से ऊपर है। लेकिन क्या आज की रचनाधर्मिता, और आज का साहित्य इतिहास पर एक परजीवी की तरह अंतहीन जिंदा रह सकता है? यह बात खासकर इसलिए जरूरी है कि आज का यह दौर जिसमें लोकतंत्र, तथाकथित इंसानियत, धर्मनिरपेक्षता, जातिवाद, आरक्षण, आर्थिक असमानता किस्म के सैकड़ों मुद्दे लोगों की जिंदगी पर हावी हैं। आदिवासी अपने जंगलों से खदेड़े जा रहे हैं, दलित, जनगणना के मकसद से हिंदुओं में गिने जा रहे हैं, बाकी वक्त उनकी नंगी पीठ पर चमड़े के हंटर सडक़ों पर बरसाए जा रहे हैं। जब एक महाशक्ति पड़ोसी देश पर हर इंसान को खत्म कर देने की नीयत से हमला किए हुए है, जब एक देश में महिलाओं के बुनियादी हक पूरी तरह छीन लिए गए हैं, जब हिंदुस्तान में एक हिंदू प्रोफेसर इंजीनियरिंग कॉलेज में एक मुस्लिम छात्र को आतंकी कसाब के नाम से बुलाता है, तब मुक्तिबोध कितनी मदद कर सकते हैं?
किसी निजी आयोजन से मेरी कोई उम्मीद नहीं है, लेकिन जब सरकारी खर्च पर कोई आयोजन होता है तो उसे इतिहास से उबरकर आज के कड़वे, कड़े, और खुरदुरे वर्तमान पर चलना चाहिए। लेखकों और साहित्यकारों को महज पुराने लेखन और साहित्य तक सीमित क्यों रहना चाहिए? उन्हें आज के आरक्षण के मुद्दे, आज के निजीकरण के मुद्दे, सांप्रदायिकता के खतरे, आर्थिक असमानता पर चर्चा क्यों नहीं करनी चाहिए? जब आज के साहित्यकार बीते कल के साहित्य और साहित्यकारों तक सीमित रह जाते हैं, तो उनका आज का साहित्य भी आज के जलते-सुलगते मुद्दों से कटा रह जाता है। ऐसे आयोजनों से बेहतर दलित लेखकों के वे आयोजन हैं जो कि आज के दलित मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। और दलितों का जिक्र महज एक मिसाल के तौर पर है, दुनिया के दूसरे देशों में दूसरे किस्म के तबके उनके हाशियों पर हैं, और उनके साहित्य पर चर्चा होती है। अंग्रेजी में शेक्सपियर पर चर्चा के बजाय काले लेखकों के आज के साहित्य पर चर्चा अधिक प्रासंगिक होगी।
लेकिन कुछ मिसालों को गिनाने का एक खतरा यह भी रहता है कि लोग बहुत सी दूसरी मिसालें गिना सकते हैं कि उनका नाम यहां पर क्यों नहीं लिया जा रहा है। आज इस पर यहां चर्चा का एक बड़ा छोटा सा मकसद यह है कि जनता के पैसों से जो आयोजन होते हैं, उन्हें इतिहास से जुड़े रहने के बजाय जनता के वर्तमान के मुद्दों से जुडऩा चाहिए। मुक्तिबोध की महानता इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, और लोगों को पढऩे के लिए हासिल भी है। कुछ वैसा ही पे्रमचंद और दूसरे महान लेखकों के साथ भी है। आज के साहित्य के आयोजनों को इतिहास से उबरने की जरूरत है, आज समाज में बेइंसाफी इस कदर सिर चढक़र बोल रही है कि लेखकों, रचनाकारों, और दीगर कलाकारों को इन मुद्दों से सीधे जुडऩे की जरूरत है। आज के साहित्य के आयोजन या तो आज के साहित्य पर केंद्रित हों, या आज के मुद्दों पर केंद्रित हों। बीते कल की जगह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है, आज के लेखक और साहित्यकार उस इतिहास की बड़ी गौरवशाली बहसों में आराम से गौरवान्वित हो सकते हैं, लेकिन वे इससे परे आज के जलते-सुलगते मुद्दों की आंच में अपने माद्दे को भी आंक सकते हैं कि क्या वे आज भी गौरव के लायक कुछ कर सकते हैं?
यह बात सिर्फ साहित्य के साथ नहीं है, अखबारनवीसी के आयोजन भी इस पेशे के इतिहास के गौरवगान से लदे रहते हैं। आज जब जरूरत आज की चुनौतियों पर चर्चा की है, आज निजीकरण और बाजार के हमले के बीच किस तरह अखबारनवीसी जिंदा भी रह सकती है, उस दौर में भी अगर लोग गणेश शंकर विद्यार्थी के गौरवगान तक सीमित रह जाएंगे, तो अपने ऐसे वंशजों पर विद्यार्थीजी को भी गर्व नहीं होगा।
साहित्य, खासकर हिंदी का आज का साहित्य अपनी ही हरकतों से अप्रासंगिक होते चल रहा है, उसे किताब कारोबार की फिक्र नहीं है, ग्राहक और पाठक की फिक्र नहीं है, समाज के आज के असल मुद्दों पर चर्चा की फिक्र नहीं है, वह महज साहित्य के इतिहास, और इतिहास के साहित्य पर चर्चा में मगन है। कम से कम सरकारी खर्च के आयोजनों को इससे उबरना चाहिए। साहित्य के निजी कार्यक्रम कितने बाजारू हो सकते हैं, इसकी फिक्र मेरा आज का मुद्दा नहीं है। आज के साहित्य की उड़ान के लिए मुक्तिबोध और पे्रमचंद एक रनवे हो सकते हैं, लेकिन वहां से उड़ान भरने के बाद आज के लोगों को खुले आसमान पर जाना होगा, तभी उसे उड़ान कहा जाएगा। विमान आसमान के मुकाबले रनवे पर अधिक महफूज महसूस कर सकते हैं, लेकिन विमान महज रनवे के लिए नहीं बने रहते हैं।
अभी कुछ दिन पहले एक क्रिप्टोकरेंसी एक्सचेंज डूब गया। उसकी वजह से दसियों हजार लोग भी डूब गए जिन्होंने उस एक्सचेंज के मार्फत पूंजीनिवेश किया था। यह लंबे समय से चले ही आ रहा था कि क्रिप्टोकरेंसी का कोई ठिकाना नहीं है कि वह कब डूब जाए, लेकिन फिर भी इस दुनिया में सपने पूरे करने के लिए तांत्रिक अंगूठी के खरीददार मौजूद हैं, सडक़ों पर लोग मदारी से तेल की शीशी खरीदने तैयार हैं, तो ऐसे में क्रिप्टोकरेंसी के खरीददार भी मौजूद हैं, और उसके मार्फत कारोबार करने वाले भी। जब दुनिया के कुछ सबसे बड़े कारोबारी किसी एक क्रिप्टोकरेंसी में पूंजीनिवेश की घोषणा करते हैं, तब बाकी लोगों का तो इस के झांसे में आ जाना तय है। और लोगों के पास इतना इफरात पैसा है कि चांद पर जमीन बेचने वाले लोगों से भी लोग कागज का एक टुकड़ा बड़े ऊंचे दामों पर खरीद रहे हैं, इसलिए क्रिप्टोकरेंसी आज धोखेबाजों और जालसाजों की पहली पसंद बन चुकी है।
अब ऐसे में कुछ हफ्ते पहले जब भारत के वीआईपी लोगों के लिए वॉट्सऐप पर बनाए गए एक क्रिप्टोकरेंसी पूंजीनिवेश सलाहकार ग्रुप में मुझे भी जोड़ा गया, तो इसका मजा लेने के लिए इन हफ्तों में मैं इस पर रोजाना चल रही बातचीत के सैकड़ों मैसेज देख रहा हूं। इसके ढेर सारे लोग, किसी एक गिरोह के मेंबरों की तरह लगातार यह पोस्ट कर रहे हैं कि उन्होंने कितने डॉलर लगाए, और एक दिन के भीतर उन्हें कितना मुनाफा हुआ। इसके बाद जालसाजों की टोली के बाकी लोग इस ग्रुप के विश्लेषक की तारीफ के कसीदे पढऩे लगते हैं कि एनालिस्ट ने उन्हें पिछले एक हफ्ते में कितने लाख रुपयों का फायदा करवा दिया है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कोई और लिखने लगते हैं कि उन्होंने अगले दिन की ट्रेडिंग के लिए और कितने लाख रुपयों का इंतजाम करके रखा है। लोग अपने हसरत की कार के मॉडल की चर्चा करते हैं, कोई वहां पर महल सा मकान खरीदने की बात करते हैं, और दिन में कुछ बार उन्हें किसी एक खाते में सैकड़ों अमरीकी डॉलर एक या दो मिनट के भीतर जमा करने को कहा जाता है, और लोग उस पर टूट पड़ते हैं। ऐसे डिपॉजिट के असली या नकली स्क्रीन शॉट इसी ग्रुप में पोस्ट किए जाते हैं, और कुछ देर में लोग अपने कमाए मुनाफे की चर्चा करने लगते हैं।
यह पूरा सिलसिला पहली नजर में ही धोखाधड़ी और जालसाजी का दिख रहा है, जिसमें बिटकॉइन नाम की क्रिप्टोकरेंसी में पूंजीनिवेश करके आनन-फानन मोटा मुनाफा कमाने का झांसा दिया जा रहा है, और हिंदुस्तान के बाहर के किसी देश से चलाया जा रहा है यह वॉट्सऐप ग्रुप झारखंड के जामताड़ा से अनपढ़ नौजवानों के चलाए साइबर-ठगी किस्म का है, फर्क बस इतना है कि इसमें बैंक एटीएम कार्ड बंद होने का झांसा नहीं दिया जा रहा बल्कि डॉलर से क्रिप्टोकरेंसी में पूंजीनिवेश करके हर दिन लाखों-करोड़ कमाने का झांसा दिया जा रहा है।
अब हिंदुस्तान तो ऐसा देश है जिसमें लोग जमीन में गढ़ा खजाने पाने की उम्मीद में किसी तांत्रिक के झांसे में आकर कभी अड़ोस-पड़ोस के बच्चों की बलि दे देते हैं, तो कभी अपने खुद के बच्चों की भी। ऐसे लोगों के पास अगर बैंक खाते के मार्फत किसी तरह के लेन-देन की समझ और सहूलियत हो, तो वे क्रिप्टोकरेंसी के ऐसे झांसे का शिकार बनने के लिए एक पैर पर खड़े रहेंगे। और वही हो भी रहा है। लोगों के सपने असीमित हैं, असल जिंदगी में आगे बढऩे की संभावनाएं सीमित हैं, इसलिए लोग लडक़ी फंसाने के लिए वशीकरण मंत्र से लेकर तांत्रिक अंगूठी तक पाने पर आमादा हैं। जिन लोगों को हिंदुस्तानी फौज में नौकरी मिली हुई है, वे लोग भी फेसबुक पर अपनी खूबसूरती के जलवे बिखेरती किसी हसीना के जाल में फंसकर फौज की खुफिया जानकारी उसे देने पर आमादा हैं, और बदले में उस हसीना को पाने की चाहत ठीक वैसे ही है जैसी किसी इस्लामी आतंकी की चाहत होती है कि मजहब के लिए शहीद होने पर उसे जन्नत में 72 हूरें नसीब होंगी।
अब ऐसी चाहतों वाले लोगों को धोखा खाने से बचा पाना मुमकिन नहीं है। जिसकी हसरतें अपनी हकीकत से कटी हुई होती हैं, जमीन पर जिनके पांव नहीं टिके होते हैं, उन्हें झांसा देना अधिक आसान होता है। चाहे शेयर बाजार में पूंजीनिवेश हो, चाहे क्रिप्टोकरेंसी के रास्ते लाखों रुपये रोज कमाने के सपने हों, चाहे पेटीएम के शेयर में पूंजीनिवेश करके कमाने की ताजा-ताजा फ्लॉप हो चुकी कोशिश हो, तमाम किस्म के धोखे लोगों को तभी होते हैं, जब उनके सपने अपनी जमीन को छोडक़र मजहज आसमान में ही उडऩे लगते हैं। रोजाना ही ऐसे कई एसएमएस आते हैं कि उन्हें रोज पांच से दस हजार रुपये कमाई के घर बैठे काम के लिए छांटा गया है। और जिन लोगों को लगता है कि उनके ठलहा बैठे इतिहास के बाद भी उन्हें लाख-पचास हजार रुपये महीने के लायक समझा गया है, तो फिर वे ठगे जाने के ही लायक होते हैं। लोगों को अपने सपनों पर काबू रखना आना चाहिए, जागी आंखों की अपनी हसरतों को भी बेकाबू नहीं होने देना चाहिए, वरना जालसाजी और ठगी से उन्हें किसी देश की सरकार या पुलिस नहीं बचा सकते।
करीब डेढ़ सौ बरस पुराने, दुनिया के सबसे मशहूर टेनिस टूर्नामेंट, विम्बलडन, का एक नियम अब जाकर बदला है जिसके बाद अगले बरस से महिला खिलाडिय़ों को अपनी टेनिस ड्रेस के भीतर रंगीन अंडरवियर पहनने की छूट मिलेगी। लंबे समय से महिला खिलाडिय़ों की यह मांग चली आ रही थी कि माहवारी के दौरान उनके दिमाग में लगातार यह तनाव रहता है कि खेलते हुए उनकी सफेद अंडरवियर पर खून के दाग न दिखने लगें। यह मामला उस ब्रिटेन का है जो कि पश्चिम में एक विकसित लोकतंत्र माना जाता है, और वहां पर पुरूषों के दबदबे वाले विम्बलडन में महिलाओं की इस बुनियादी जरूरत को समझने में, मानने में डेढ़ सौ बरस लगे हैं। यहां पर महिलाओं के मुकाबलों का इतिहास 1984 से चले आ रहा है, और यहां चैम्पियन बनने वाली महिलाएं किसी भी मायने में पुरूष खिलाडिय़ों से कम चर्चित नहीं रहती हैं, लेकिन महिलाओं की इस बुनियादी जरूरत को मानने का काम अब जाकर हो पाया है। जैसा कि टेनिस देखने वाले जानते हैं, महिलाओं का खेल का ड्रेस छोटा होता है, और उनकी अंडरवियर दिखती ही रहती है। ऐसे में इतनी भाग-दौड़ वाले खेल में महिलाओं को अगर अपनी बदन की जरूरत के लिए विम्बलडन संचालकों को बरसों तक समझाना पड़ा, तो यह महिलाओं के खिलाफ पुरूषप्रधान दबदबे का एक सुबूत छोड़ और कुछ नहीं है।
महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह पूरी ही दुनिया में अलग-अलग शक्लों में हमेशा ही रहा है। कहने के लिए अमरीका का लोकतंत्र हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के मुकाबले डेढ़ सौ से अधिक बरस पुरानी है, लेकिन जब गुलाम हिन्दुस्तान के राज्यों में एक-एक प्रदेश में महिलाओं को वोट देने का हक मिल रहा था, तकरीबन उसी समय अमरीका में भी महिलाओं को वोट देने का संवैधानिक हक दिया गया। हिन्दुस्तान के पहले चुनाव से ही यहां के दलितों को वोट देने का बराबरी का हक था, लेकिन अमरीका में लोकतंत्र के बाद करीब एक सदी लग गई जब काले मर्दों को वोट देने का हक मिला, और इसके बाद काली महिलाओं को वोट देने के हक में और एक सदी लग गई। भेदभाव का यह सिलसिला संविधान और कानून में हिन्दुस्तान में तो पहले दिन से खत्म था, लेकिन अमरीका जैसे लोकतंत्र में बराबरी का यह बुनियादी हक देने में सदियां लग गईं। अमरीका में लोकतंत्र आने के करीब दो सदी बाद काली महिलाओं का वोट डालना शुरू हो पाया।
अभी जब हिन्दुस्तान में अनारक्षित तबके के गरीब लोगों को आरक्षण देने पर सुप्रीम कोर्ट का बहुमत से सहमति का फैसला आया, उस वक्त यह बात भी उठी कि आरक्षण के पैमाने पूरी तरह से इंसाफ नहीं कर पाते हैं। जहां पर दलितों या आदिवासियों को आरक्षण हैं, वहां पर उनके बीच की एक चौड़ी और गहरी खाई को आरक्षण के नियम अनदेखा करते हैं। आरक्षित तबके के भीतर शहरी और ग्रामीण के बीच बड़ा फासला है, लडक़े और लडक़ी के बीच बड़ा फासला है, संपन्न और विपन्न के बीच तो बड़ा फासला है ही, लेकिन दलित और आदिवासी आरक्षण में इनमें से किसी समस्या का कोई समाधान नहीं है। महज जन्म के आधार पर सबको एक बराबरी से आरक्षण का हकदार मान लिया गया है। एक लडक़ी या महिला को उसके लडक़ी या महिला होने से जो नुकसान झेलना पड़ता है, उसका कोई इलाज आरक्षण में नहीं हैं।
हमने बात विम्बलडन से शुरू जरूर की है, लेकिन वहीं पर खत्म नहीं हो रही है। भारतीय संसद में महिला आरक्षण विधेयक दशकों से पड़ा हुआ है लेकिन बड़ी राजनीतिक पार्टियां उसे पास करना नहीं चाहतीं। जबकि इस देश में 1993 से एक संविधान संशोधन करके पंचायत स्तर तक महिला आरक्षण किया गया जो कि कामयाबी से काम कर रहा है। उसी वक्त संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण की बात कही गई, लेकिन आज तक यह कानून नहीं बन पाया। संसद और विधानसभाओं में गांव-गांव तक में महिला नेतृत्व को संभव मान लिया, और पंचायतों के पंच पदों पर भी महिला आरक्षण कर दिया, लेकिन संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण देने से भी पुरूषप्रधान व्यवस्था को तकलीफ हो रही है। विम्बलडन से हिन्दुस्तानी संसद तक, महिलाओं को उनके हक देने के मामलों में मर्दों की टालमटोल एक सरीखी है। आज हालत यह है कि न तो संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई महिलाओं को आरक्षण है, बल्कि राजनीतिक दल एक तिहाई महिलाओं को टिकट भी नहीं देते। उत्तरप्रदेश के जिस पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इक्का-दुक्का सीट छोड़ जीत की और कोई उम्मीद नहीं थी, वहीं पर प्रियंका गांधी ने लडक़ी का नारा लगाकर 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाओं को बनाया था। लेकिन उसके बाद पंजाब के चुनाव हुए, अभी हिमाचल के चुनाव हुए, गुजरात के हो रहे हैं, कहीं भी कांग्रेस पार्टी ने न तो 40 फीसदी महिलाओं को टिकट दी, न ही एक तिहाई सीटों पर महिलाओं को लड़वाया। अगर संसद में आरक्षण पास नहीं हो सका है, तब भी किसी पार्टी को तो कोई नहीं रोकते कि वे एक तिहाई महिला उम्मीदवार न बनाएं।
जिस ब्रिटेन को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, जो उन गिने-चुने देशों में से है जहां महिला प्रधानमंत्री रही हैं, वहां भी महिलाओं की चड्डी का रंग तय करने में पुरूषों को मजा आता है। पूरी दुनिया में महिलाओं की हक की लड़ाई तेज करने की जरूरत है, और हिन्दुस्तान में भी आए दिन यह जरूरत दिखती ही है। सोशल मीडिया की मेहरबानी से यह लड़ाई अब पहले के मुकाबले कुछ आसान हुई है, और लोगों को बराबरी के हक की बात उठाने का कोई मौका नहीं चूकना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को आरक्षण देने के केन्द्र सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने सही माना है, और पांच जजों की बेंच ने तीन के बहुमत से यह फैसला दिया है कि इस नए आरक्षण के लिए संसद द्वारा किया गया बदलाव और यह आरक्षण संवैधानिक रूप से सही है। दो जजों ने इसके खिलाफ राय रखी, और कहा कि यह संविधान के खिलाफ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने सोचने के लिए जो मुद्दे रखे गए थे, उनमें यह था कि क्या आरक्षण पूरी तरह से आर्थिक आधार पर दिया जा सकता है? दूसरा मुद्दा यह था कि क्या रा’य निजी शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण लागू कर सकते हैं अगर वे संस्थाएं सरकार से कोई अनुदान नहीं लेती हैं? और आखिरी मुद्दा यह था कि क्या आर्थिक आधार पर दिया गया आरक्षण इस आधार पर असंवैधानिक मानना चाहिए कि इससे दलित, आदिवासी, ओबीसी, और अन्य सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को शामिल नहीं किया गया है?
यह मामला थोड़ी सी कानूनी जटिलता का है, लेकिन इसे सामान्य समझबूझ से सरल तरीके से भी समझा जा सकता है। करीब 70 बरस पहले जब भारत का संविधान लागू हुआ, तो उसे बनाने वाले लोगों ने सिर्फ दो तबकों के लिए आरक्षण रखा था। उनका मानना था कि दलित और आदिवासी तबके भारतीय समाज में ऐतिहासिक रूप से उपेक्षित और कुचले हुए हैं, और उन्हें बाकी तबकों की बराबरी तक लाने के लिए कुछ समय तक आरक्षण का फायदा देने की जरूरत है। यह कुछ समय तय नहीं था, और इस पर आगे फैसला लेकर इसे बढ़ाया गया, क्योंकि हिन्दुस्तान की सामाजिक हकीकत यह थी कि दलित और आदिवासी तबके समाज की मूलधारा में न बर्दाश्त किए जा रहे थे, और न ही उन्हें बराबरी के अवसरों के लिए तैयार होने के साधन-सुविधा मिल रहे थे। ऐसे में इन तबकों के लिए आरक्षण आगे बढ़ाया गया, जो कि अब तक लागू है। इसके बाद 1990 के आसपास प्रधानमंत्री रहे वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत आने वाली जातियों के लिए आरक्षण लागू किया, जिसे ओबीसी के नाम से जाना जाता है। इन सबको लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर एक मामले में अदालत ने 1992 में एक वकील इंदिरा साहनी की लगाई पिटीशन पर एक ऐतिहासिक फैसले में ओबीसी आरक्षण को सही ठहराया, और साथ ही यह तय किया कि जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी होगी।
जानकार इस बात पर भी सवाल उठाते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी की यह सीमा किस तरह तय की? अगर यह जातियों पर आधारित है तो दलित, आदिवासी, और ओबीसी की कुल आबादी 50 फीसदी से खासी अधिक होती है। और अब तक जो जातियां रिजर्वेशन से बाहर हैं, अनारक्षित हैं, वे उनके लिए मौजूद अनारक्षित सीटों के मुकाबले बहुत कम आबादी हैं। एक मोटा अंदाज यह है कि अगड़ी कही जाने वाली जातियां आबादी का कुल 27 फीसदी हैं, और 70 फीसदी से अधिक आरक्षित आबादी के लिए कुल 50 फीसदी सीटें आरक्षित हैं। इसलिए आरक्षण आबादी के अनुपात में किसी को अधिक सीटें अगर देता है, तो वह अगड़ी जातियां हैं।
यहां पर 2011 की जनगणना के आंकड़ों को बताना ठीक रहेगा जिसके मुताबिक देश की हिन्दू आबादी में दलित करीब 22 फीसदी हैं, आदिवासी 9 फीसदी हैं, ओबीसी 42 फीसदी से अधिक हैं, और अगड़ी जातियां 27 फीसदी हैं। बौद्ध आबादी में करीब 90 फीसदी लोग दलित हैं, 7 फीसदी आदिवासी हैं, 1 फीसदी से कम ओबीसी हैं, और ढाई फीसदी के करीब अगड़ी जातियां हैं। जैन और पारसी आबादी में कोई दलित नहीं हैं। सिक्खों में दलित हिन्दुओं से करीब डेढ़ गुना, &0 फीसदी से अधिक हैं, ओबीसी 22 फीसदी से अधिक हैं, और अगड़े 46 फीसदी हैं।
अब इस बात पर आएं कि सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला अब तक अनारक्षित चली आ रही जिन सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी सीटें पढ़ाई और नौकरी में देने को सही ठहरा रहा है, वह क्या है? इसके तहत इन जातियों में से जिन परिवारों की सालाना आय 8 लाख रूपये से अधिक होगी, उन्हें आरक्षण के फायदे से बाहर कर दिया गया है। इसी तरह जिनके घर एक हजार वर्गफीट से अधिक जमीन पर बने होंगे, या जिनके पास पांच एकड़ से अधिक जमीन होगी, उन्हें भी इस आरक्षण का फायदा नहीं मिलेगा। मतलब यह है कि आर्थिक रूप से जो सक्षम हैं उन्हें इस फायदे से बाहर रखा गया है ताकि उन जातियों के कमजोर लोगों को मौका मिल सके। यह बात सुनने में बहुत ही सुहावनी लगती है, और केन्द्र सरकार अपने इस फैसले से अब तक की अनारक्षित जातियों का दिल जीतते दिखती है। जिन लोगों को आरक्षण से शिकायत रहती थी, और जो आरक्षित तबकों को सरकारी दामाद कहते थे, अब उनका भी रिश्ता सरकार के परिवार में हो गया है, और वे भी एक किस्म से सरकारी दामाद बन गए हैं। फर्क बस इतना ही है कि ओबीसी आरक्षण के मलाईदार तबके की तरह, इस सवर्ण आरक्षण में भी मलाईदार तबके को बाहर कर दिया गया है, जो कि सुनने में एक बहुत ही इंसाफपसंद बात लगती है, लेकिन इसकी हकीकत को समझने की जरूरत है।
देश के अलग-अलग कुछ आर्थिक सर्वेक्षणों के आंकड़ों को देखें तो इन सवर्ण जातियों की आबादी में इन तीन पैमानों पर खरे उतरने वाले लोग कुल 5 फीसदी या उससे कम हैं। मतलब यह कि 8 लाख से अधिक सालाना कमाई वाले परिवार, या हजार फीट जमीन पर मकान वाले परिवार, या पांच एकड़ जमीन वाले परिवार अनारक्षित आबादी में पांच फीसदी भी नहीं हैं। मतलब यह कि जो 10 फीसदी आरक्षण इस तबके के लिए रखा गया है, उसमें इनकी आबादी के 95 फीसदी लोग आरक्षण के हकदार हैं। इसका मतलब यह होगा कि सवर्ण आबादी के भीतर जो सचमुच ही सबसे कमजोर तबका नीचे के एक चौथाई हिस्से में होगा, वह अपने ही अधिक संपन्न तबके के मुकाबले कमजोर रहेगा, और उसके मौके बहुत सीमित रहेंगे। एक जानकार ने यह राय दी है कि जब किसी तबके के कुल 10 फीसदी लोगों को आरक्षण देना है, और उस तबके के 95 फीसदी लोग इस आरक्षण के मुकाबले के हकदार हो रहे हैं, तो इस तबके की मलाईदार तह को और मोटा बनाना था, और कमाई की सीमा को घटाना था, मकान की जमीन और खेत की सीमा को भी घटाना था, ताकि सचमुच के कमजोर लोग इस सीमित आरक्षण के मुकाबले में खड़े हो सकते। आज पौने 8 लाख रूपये सालाना कमाई वाले परिवार, 9 सौ वर्गफीट जमीन पर मकान या पौने 5 एकड़ खेत वाले परिवार भी इस मुकाबले में खड़े रहेंगे, तो फिर उनसे एक चौथाई आर्थिक क्षमता वाले लोग मुकाबले में कैसे और कहां टिकेंगे?
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम इसी जगह पर लगातार दलित और आदिवासी आरक्षण में भी ओबीसी आरक्षण की तरह की क्रीमी लेयर लागू करने की वकालत करते आए हैं। इन दोनों तबकों में जो लोग एक पीढ़ी में आरक्षण का फायदा पा चुके हैं, या फिर सांसद-विधायक जैसे राजनीतिक और संवैधानिक दर्जे में पहुंच चुके हैं, या फिर जिनकी आर्थिक क्षमता इतनी हो गई है कि उनके ब"ो सामान्य वर्ग से पढ़ाई और प्रतियोगी परीक्षाओं में मुकाबला कर सकते हैं, उन्हें आरक्षण के फायदों से बाहर करना चाहिए। हमने बार-बार यह लिखा है कि जिस सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक कमजोरी की वजह से इन तबकों को आरक्षण दिया गया है, वे दोनों ही पैमाने, दोनों ही तर्क बिना क्रीमी लेयर के खत्म हो जा रहे हैं, क्योंकि दलित-आदिवासी तबकों के ताकतवर हो चुके लोग ही अपने तबकों के आरक्षण पर हक के लिए मुकाबले में स्वाभाविक रूप से सबसे आगे रहते हैं। ऐसा कोई तर्क नहीं हो सकता कि ओबीसी आरक्षण के लिए मलाईदार तबका हक से हटाया जाए, लेकिन वह दलित और आदिवासियों में जारी रखा जाए।
आज हमारे उस पुराने तर्क पर अधिक बात करने का मौका नहीं है, लेकिन अनारक्षित वर्ग के लिए इस आर्थिक आधार पर आरक्षण को हम लागू होने के पहले ही नाकामयाब पा रहे हैं क्योंकि इसमें सचमुच के जरूरतमंद लोगों के साथ-साथ इन तबकों के तकरीबन तमाम और लोगों को भी शामिल कर लिया गया है। दस फीसदी आरक्षण के लिए सबसे कमजोर तकरीबन 25 फीसदी आबादी को रखा जाना चाहिए था, लेकिन आज इन जातियों के करीब 95 फीसदी लोग इस आरक्षण के हकदार बना दिए गए हैं, और सबसे संपन्न कुल 5 फीसदी से भी कम लोगों को आरक्षण से बाहर रखा गया है। कुछ लोगों का यह मानना है कि यह अनारक्षित जातियों को दिया जा रहा 10 फीसदी आरक्षण तो है, लेकिन यह अब तक उनके चले आ रहे करीब 50 फीसदी आरक्षण के भीतर का हिस्सा है, और इन 10 फीसदी सीटों पर से इनकी आबादी के कुल 5 फीसदी को अपात्र बनाया गया है, मतलब यह कि ऐसी तकरीबन तमाम आबादी के लिए उतनी की उतनी सीटें दो अलग-अलग पैकिंग में पेश कर दी गई हैं। अब तक अनारक्षित चले आ रहे तबके को इससे ऐसा कोई फायदा नहीं मिलने वाला है, जितना बड़ा हल्ला हो रहा है। करीब एक चौथाई ऐसी आबादी के लिए सीटें उतनी की उतनी हैं, सिर्फ इन सीटों में से 10 फीसदी के लिए इनकी आबादी के सबसे संपन्न 5 फीसदी हिस्से को अपात्र बना दिया गया है, और वे लोग भी बाकी अनारक्षित सीटों पर मुकाबले के पात्र रहेंगे ही।
आज बाजार में जिस तरह कंपनियां सामानों का दाम बढ़ाने के बजाय पहले पैकेट के बिस्किट घटाती हैं, या बोतल में शैम्पू और तेल घटाती हैं, और दाम बढऩे का दर्द महसूस नहीं होने देतीं। ठीक वैसा ही काम केन्द्र सरकार ने किया है, और सुप्रीम कोर्ट ने यह समझने का मौका खो दिया है कि इस तबके की ऊपर की करीब तीन चौथाई आबादी वाली इस क्रीमी लेयर को अपात्र बनाए बिना इस आरक्षण का कोई फायदा नीचे की एक चौथाई आबादी तक सीमित नहीं रह पाएगा। देश की जनता कुछ गिने-चुने शब्दों, जैसे, सवर्ण आरक्षण, सवर्ण-गरीब आरक्षण से अपनी धारणा बना रही है। और केन्द्र सरकार जनधारणा प्रबंधन में माहिर है, उसने किसी को कुछ नहीं दिया, और एक चौथाई से अधिक आबादी बेगानी शादी मेें दीवाने अब्दुल्ला की तरह नाच रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की कई बड़ी अदालतें हर कुछ दिनों में कोई न कोई ऐसा फैसला देती हैं कि जिससे लोगों की न्याय व्यवस्था, लोकतंत्र, और इंसानियत सभी पर से भरोसा उठने लगता है। अभी देश के सबसे बड़े महानगर, मुम्बई में मौजूद बॉम्बे हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच में एक फैसला दिया जिसमें एक महिला ने अपने पति और ससुराल वालों पर गंभीर आरोप लगाए थे, और अदालत ने इन आरोपों को खारिज कर दिया। दिलचस्प बात यह भी है कि इन दो जजों में से एक जस्टिस राजेश पाटिल थे, और दूसरी जज जस्टिस विभा कंकणवाडी थीं। इनके फैसले की एक बात अखबारी सुर्खी बनी है कि शादीशुदा महिला से घरेलू काम करवाना क्रूरता नहीं है, इसके साथ ही जजों ने यह भी कहा कि लड़कियों को घर का काम नहीं करना है, तो शादी के पहले बता देना चाहिए। इस मामले की बारीक जानकारी की अधिक चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है, लेकिन जजों की यह सोच चर्चा के लायक है कि अगर महिला घर के काम नहीं करना चाहती तो उसे शादी के पहले ही बता देना चाहिए जिससे कि पति-पत्नी शादी के बारे में दुबारा सोच सकें।
देश के अलग-अलग कई हाईकोर्ट इस तरह की सोच सामने रखते हैं जो कि पुरूषप्रधान समाज की महिला विरोधी संस्कृति से उपजी हुई है, और उसी को आगे बढ़ाने का काम भी करती है। आमतौर पर यह महिलाओं के खिलाफ एक हिंसक रूख रहता है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि इस देश मेें हाईकोर्ट के एक जज ऐसे भी हुए हैं, जो कि सतीप्रथा के समर्थक थे। जिस महाराष्ट्र के फैसले को लेकर आज यह लिखना हो रहा है, उसी महाराष्ट्र की नागपुर की हाईकोर्ट बेंच की एक महिला जज ने नाबालिग के देहशोषण के एक मामले में ऐसा भयानक फैसला दिया था कि हमने इसी जगह पर सुप्रीम कोर्ट से अपील की थी कि उसे दखल देकर इस फैसले पर रोक लगानी चाहिए, और इसे खारिज करना चाहिए। और हुआ भी वही। सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को कुछ दिनों के भीतर ही खारिज कर दिया, और कहा कि कानून का इस्तेमाल मुजरिम को कानून के जाल से बचाने के लिए नहीं किया जा सकता। जस्टिस पुष्पा गनेडीवाला ने एक जिला अदालत द्वारा एक बच्ची का देहशोषण करने वाले को दी गई तीन साल की कैद खारिज कर दी थी, और कहा था कि पॉक्सो एक्ट के तहत तभी सजा हो सकती है जब उस नाबालिग लडक़ी के सीने से आरोपी का चमड़ी से चमड़ी का संपर्क हुआ हो, अगर कपड़ों के ऊपर से उसने कोई शोषण किया है तो उस पर उसे सजा नहीं दी जा सकती। इस मामले के खिलाफ हमने जमकर लिखा था, और सुप्रीम कोर्ट ने आगे जाकर हाईकोर्ट जज के खिलाफ बड़ी कड़ी टिप्पणी की थी, और लिखा था कि जब कानून की नीयत एकदम साफ है तो अदालतों को उसके प्रावधानों को लेकर एक गफलत खड़ी नहीं करनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि जब देश के हाईकोर्ट जजों को ही प्राकृतिक न्याय, सामाजिक न्याय, और सामाजिक समानता का पाठ पढ़ाने की जरूरत है, तो उनसे निचली अदालतों के जजों को यह सोच देना तो और मुश्किल काम है। और उससे भी अधिक मुश्किल काम इस देश की पुलिस में लैंगिक समानता की भावना पैदा करना है। आज भी हिन्दुस्तान में पुलिस में शिकायत लेकर जाने वाली महिला या लडक़ी के चाल-चलन पर शक करने से ही पुलिस की जांच शुरू होती है। और पुलिस के छोटे-बड़े अधिकारी-कर्मचारी अपने इस लैंगिक-पूर्वाग्रह को छुपाने की भी कोई कोशिश नहीं करते, और शिकायतकर्ता के वकील भी, अगर वह महिला वकील है तो भी, अपनी ही मुवक्किल के चाल-चलन, उसकी नीयत पर शक करते हुए ही उसका मुकदमा लड़ते हैं, उनकी अधिक आस्था अपनी ही मुवक्किल पर नहीं रहती।
सुप्रीम कोर्ट को यह चाहिए कि वह अपने और हाईकोर्ट के जजों को यह समझाने की कोशिश करे कि दुनिया आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच चुकी है और अब तो दुनिया के सबसे दकियानूसी देशों में भी यह बात लोगों को समझ में आ रही है कि महिलाओं को बराबरी का हक न देने से देश तरक्की नहीं कर सकता। और आर्थिक तरक्की से परे एक सामाजिक तरक्की की बात भी रहती है जिसके बिना महिलाओं को उनके बुनियादी मानवाधिकार भी नहीं मिल पाते, पुरूषों की बराबरी के अधिकार मिलना तो दूर की बात रही। ऐसे माहौल में जब हाईकोर्ट के जज अपने मर्दाना-पूर्वाग्रहों से संक्रमित फैसले देते हैं, तो वे समाज को भी पत्थरयुग की तरफ धकेलने का काम करते हैं। जजों के गैरजरूरी शब्द समाज के बहुत से लोगों के लिए एक मिसाल बन जाते हैं, और अदालत से बाहर भी महिलाओं को पीटने के लिए काम आते हैं।
यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। जिन हाईकोर्ट जजों के मन में लैंगिक समानता की बात नहीं है, उन्हें खारिज किया जाना चाहिए, उन्हें हटाना चाहिए। यह सोच भयानक दकियानूसी है कि अगर महिला को घरेलू काम नहीं करना है तो उसे शादी के पहले यह बताना चाहिए। इस बात को पुरूषों पर लागू किया जाए तो उसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि पुरूषों को अगर महिलाओं को घरेलू नौकर बनाकर ले जाना है, तो उन्हें पहले महिलाओं से यह हलफनामा मांगना चाहिए कि वे बंधुआ मजदूर की तरह काम करेंगी। आज जब महिलाएं बड़ी संख्या में घर के बाहर भी काम करती हैं, उस वक्त लौटकर घर पर काम आमतौर पर उन्हें ही करना होता है। देश की किस अदालत के किसी जज ने ऐसी बात कही है कि कामकाजी महिला के घर लौटने पर पुरूष काम में बराबरी से हाथ बंटाए। महिलाओं के हक की बात करते इस पुरूष प्रधान समाज, और इसकी अदालतों की भी घिघ्घी बंध जाती है। अदालतों को ऐसा रूख, और उनकी ऐसी अवांछित बातें धिक्कारी जानी चाहिए, और इस देश में महिलाओं की बराबरी पर जिन लोगों को भरोसा है, उन लोगों को खुलकर इसके खिलाफ लिखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की इंदौर बेंच का एक फैसला लोगों को विचलित कर रहा है जिसमें चार बरस की बच्ची से बलात्कार करने वाले एक आदमी की सजा को उम्रकैद से घटाकर 20 बरस कर दिया गया है, और इसके पीछे हाईकोर्ट के दो जजों ने यह तर्क दिया है कि यह बलात्कारी इतना दयालु था कि उसने बलात्कार के बाद इस बच्ची को मार नहीं डाला। अब सोशल मीडिया पर लोग जजों के इस फैसले के खिलाफ लिख रहे हैं, और खासकर फैसले की जुबान में दयालु (अंग्रेजी में लिखा गया है काइंड) शब्द के इस्तेमाल ने लोगों को बहुत आहत किया है। जजों के इस फैसले के पीछे उनके अपने कानूनी और तकनीकी तर्क हो सकते हैं, हो सकता है कि न्याय के पैमानों पर सजा घटाना जायज भी हो, लेकिन फैसले की यह भाषा लोगों की भावनाओं को सचमुच ही चोट पहुंचाने वाली है, और इससे साबित होता है कि सच को बहुत क्रूर तरीके से लिखा जाना जायज नहीं होता। इस एक शब्द दयालु को नहीं लिखा जाता, सिर्फ यह लिख दिया जाता कि चूंकि उसने इस बच्ची को जिंदा छोड़ दिया था, इसलिए वह अधिकतम सजा में कुछ कटौती का हकदार माना जा रहा है, तो भी ठीक रहता। यह खतरा तो उस वक्त से दिख रहा था जबसे बच्चों के साथ बलात्कार के मामलों में फांसी की सजा की चर्चा शुरू हुई थी, और जानकार-समझदार लोग यह मानकर चल रहे थे कि जब मौत की ही सजा मिलनी है तो बलात्कारी बलात्कार के शिकार बच्चों को मार भी डालेंगे क्योंकि मारने की सजा भी फांसी होगी, और बलात्कार की सजा भी। इसलिए अब जब अदालत नया कानून तो नहीं गढ़ सकती, फांसी की सजा के प्रावधान को भी नहीं हटा सकती, तो वह अधिकतम सजा की जगह उससे कुछ कम सजा तो कर सकती है, और इस अदालत ने किया वही है, सिर्फ एक विशेषण ने जजों को आलोचना के कटघरे में खड़ा कर दिया है।
जुबान की ऐसी धार, या बोलने के अंदाज की गैरजरूरी तल्खी बहुत से लोगों की अच्छी और भली नीयत को भी चौपट कर देती है। कुछ लोग दूसरों का काम करते हैं, अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं, या उससे भी आगे बढक़र करते हैं, लेकिन यह करते हुए वे इतनी कड़वी जुबान चलाते हैं कि जिनका काम होता है, वे भी कोसते हुए लौटते हैं। यह बात शब्दों को लेकर भी होती है, और बोलने के तरीके को लेकर भी। इसीलिए बहुत से लोग यह कहते हैं कि जुबान दुधारी तलवार सरीखी रहती है, वह ऑपरेशन के औजार की तरह इलाज भी कर सकती है, और किसी तलवार की तरह जख्म भी कर सकती है, इसलिए किसी भी धारदार चीज का इस्तेमाल सम्हलकर ही किया जाना चाहिए।
लोगों की भाषा में दो तरह की बातें रहती हैं, एक तो तथ्य रहते हैं, और दूसरे विशेषण। जिम्मेदार लोग तथ्यों को तो खींच-तानकर फिर भी सही लिख देते हैं, लेकिन विशेषण इस्तेमाल करते हुए लोगों के पूर्वाग्रह हावी हो जाते हैं, और उनकी नीयत राज करने लगती है। नतीजा यह होता है कि किसी बात को पूरी तरह सच लिखते हुए भी कुछ लोग उसके साथ जो विशेषण लिखते हैं, वे सच पर एक धुंध बनकर छा जाते हैं, और उसकी विश्वसनीयता को घटा देते हैं। इसलिए विशेषणों का इस्तेमाल सोच-समझकर ही किया जाना चाहिए। भाषा की बारीकियों से भी सारे लोग वाकिफ नहीं रहते हैं, जो लोग किसी भाषा से कमाते-खाते हैं, वैसे अखबारनवीस या लेखक भी विशेषणों के इस्तेमाल में कई बार चूक कर जाते हैं, और तथ्यों को लिखने को लेकर उनकी पूरी ईमानदारी भी शक के दायरे में आ जाती है।
दरअसल किसी भी भाषा में विशेषण एक नाजुक चीज रहते हैं, और एक ही किस्म की खूबी या खामी के लिए अलग-अलग अनुपात वाले बहुत से विशेषण रहते हैं, जिनके बीच बारीकी से फर्क कर पाना या तो भाषा की जानकारी से मुश्किल हो जाता है, या फिर लोगों के पूर्वाग्रह उन्हें गलत विशेषण छांटने की तरफ ले जाते हैं। यह बात खासकर अखबारनवीसी या दूसरे किस्म के विश्लेषणों में अधिक नाजुक हो जाती है क्योंकि कई जगहों पर सिर्फ तथ्यों से ही सही तस्वीर बन सकती है, और उनके साथ विशेषणों का कम से कम इस्तेमाल करके बात पूरी करना एक मुश्किल काम होता है। अखबारों, और अब उनसे अधिक गैरजिम्मेदार दूसरे किस्म के, मीडिया कहे जाने वाले, समाचार-माध्यमों में जहां-जहां रिपोर्ट लिखने या विश्लेषण करने वाले अपने तथ्यों को लेकर कमजोर रहते हैं, वहां पर वे तथ्यों की जगह विशेषणों से काम चलाने की कोशिश करते हैं। यह बात लिखने या बोलने की विश्वसनीयता को गड्ढे में ले जाती है, लेकिन लिखने-बोलने वालों का काम आसान कर देती है। तथ्यों को ढूंढने में लंबा समय लग सकता है, उनका विश्लेषण बड़ा मुश्किल हो सकता है, लेकिन अपने मन की बात को विशेषणों से सजाकर पेश कर देना सबसे ही आसान होता है। इसलिए अखबारी लिखने में जहां कहीं विशेषण दिखें, उसे कमजोरी भी मानना चाहिए, और पूर्वाग्रह से लदी हुई नीयत भी।
हिन्दुस्तान में हिन्दी या हिन्दुस्तानी लिखने वालों को प्रेमचंद की जुबान से यह समझना चाहिए कि किस्से-कहानियों में भी विशेषणों को कितनी बारीकी से और कितने संतुलन से इस्तेमाल किया जा सकता है। उनका लिखा हुआ तो अधिकतर कहानियों और उपन्यासों की शक्ल में है लेकिन वहां भी मुद्दे की जरूरत से परे जाकर, संतुलन और आपा खोकर प्रेमचंद विशेषणों का इस्तेमाल नहीं करते। अखबारनवीसों में से बहुतों को इस तरह का आपा सीखने के लिए उन्हें पढऩा चाहिए। और फिर आज के वक्त में लिखने का एकाधिकार महज अखबारनवीसों, और उनकी दूसरे किस्म की नस्लों का नहीं रह गया है, बल्कि सोशल मीडिया पर हर कोई लिखने लगे हैं, हर मुद्दे पर लिखने लगे हैं, इसलिए लिखना जिनका पेशा नहीं है, उन्हें भी बारीकी और संतुलन को सीखना चाहिए। और जहां से हमने आज की बात शुरू की थी, वहां पर लौटें तो हाईकोर्ट के जज भी एक विशेषण, दयालु से बचकर, अपने आपको आलोचना से बचा भी सकते थे, और बड़ी आसानी से सजा में कटौती का यह फैसला दे भी सकते थे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
स्पेन के एक बड़े अखबार ने अभी भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी की एक रिपोर्ट छापी, और इसकी सजावट में उसने ग्राफ पेपर पर एक संपेरे को बनाया जिसके बीन की आवाज सुनकर मानो आर्थिक विकास सांप की तरह ऊपर उठते जा रहा है। इस रचनात्मक सजावटी चित्र पर भारत के बहुत से लोगों ने घोर आपत्ति की है, और सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ लिखा है कि भारतीय विकास को संपेरे के सांप की तरह दिखाना भारत का अपमान है, और इसका विरोध किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ प्रीतीश नंदी जैसे एक समझदार और उदार भूतपूर्व पत्रकार ने ऐसी आलोचना की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा है कि कोई किसी का तब तक अपमान नहीं कर सकते जब तक कि लोग खुद ही अपमानित होने पर उतारू न हों। उन्होंने लिखा कि संपेरा दुनिया में जादू का एक बड़ा पुराना प्रतीक है, और स्पेन का यह अखबार भारत के विकास को जादुई मान रहा है। प्रीतीश नंदी ने यह सलाह दी कि आहत होने वाले लोगों के हिन्दुस्तानी झुंड को और बड़ा न किया जाए क्योंकि यह वैसे भी बहुत बड़ा हो चुका है।
हैरानी की बात यह है कि हिन्दुस्तान के बड़े-बड़े नेताओं ने, केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार के लोगों ने इस कार्टून या सजावटी चित्र का जमकर बुरा माना है। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान के लोगों का एक बड़ा तबका किसी भी पश्चिमी बात का बुरा मानने के लिए एक पैर पर खड़े किसी बाबा की तरह उतारू रहता है, और वेलेंटाइन डे पर एक चुंबन से भी उसे भारत की सांस्कृतिक विरासत तबाह होते दिखने लगती है। अब हिन्दुस्तान का पश्चिमी दुनिया से पहला संपर्क होने के भी सैकड़ों बरस पहले हिन्दुस्तान के खजुराहो जैसे मंदिरों की दीवारों पर दर्जनों किस्म से संभोग की जो मूर्तियां बनाई गई थीं, और जो आज भी शानदार तरीके से बची हुई हैं, वे मानो इस देश की विरासत ही नहीं हैं। पश्चिम का एक चुंबन, इस देश के इतिहास को कंपकंपा देता है। जिस देश की दीवारें हस्तमैथुन से लिंग के टेढ़े हो जाने के इलाज का दावा करने वाले फर्जी डॉक्टरों के इश्तहारों से भरी हुई हैं, वह देश एक फिल्म में एक किरदार करने वाली अभिनेत्री स्वरा भास्कर की एक उंगली की कल्पना करके कांप जाता है। देश का लिंग हस्तमैथुन से टेढ़ा है, लेकिन ऐसे करोड़ों मर्दों वाला देश एक अभिनेत्री की न दिखने वाली उंगली से कांप उठता है!
हिन्दुस्तान की आबादी का एक हिस्सा बुरा माने बिना अगला खाना नहीं खा पाता। उसे हर बात बहुसंख्यक आबादी के धर्म पर हमला लगती है, इस बहुसंख्यक आबादी के भीतर वर्णव्यवस्था के तहत राज करने वाली ब्राम्हणवादी, सवर्ण सोच पर हमला लगती है। कुल मिलाकर देश की आबादी में मनुवादी व्यवस्था के तहत सबसे ऊपर स्थापित एक बहुत छोटे से तबके की आज की राजनीतिक-सहूलियत की सोच को ही पूरे देश के सभी धर्मों के, सभी जातियों के लोगों की आम सोच बनाने की हिंसक-जिद हिन्दुस्तान के आज के वर्तमान पर बुरी तरह हावी है। कुछ देर के लिए इस बात की कल्पना की जाए कि यह कार्टून या रेखांकन स्पेन के अखबार में छपने के बजाय हिन्दुस्तान के किसी हिन्दू (द हिन्दू नहीं) अखबार में छपा होता तो इसे री-ट्वीट करने के लिए इस सदी की सबसे सक्रिय ट्वीट-आर्मी जुट गई होती। उस वक्त यह राष्ट्रवादी राष्ट्रगौरव करार दिया जाता। लेकिन पश्चिम का हाथ लगते ही यह कार्टून ठीक उसी तरह अछूत हो गया है जिस तरह किसी शूद्र का हाथ लगते ही आज भी कुछ करोड़ लोगों की रसोई अशुद्ध हो जाती है।
हिन्दुस्तान से पश्चिम में जाकर काम करके, कामयाब होकर, वहां बसे हुए उन करोड़ों लोगों से भी हिन्दुस्तान के दकियानूसी लोगों को सबक लेना चाहिए कि पश्चिम में सब कुछ बुरा नहीं है। उस पश्चिम में कम से कम यह बर्दाश्त तो है कि दुनिया भर के अलग-अलग महाद्वीपों से वहां पहुंचने वाले अलग-अलग रंगों और चेहरे-मोहरे वाले लोगों को वहां बराबरी से बर्दाश्त करके आगे बढऩे का मौका दिया जाता है, और यही वजह है कि गोरों के देश में सबसे बड़ी कई अमरीकी कंपनियों के मुखिया हिन्दुस्तानी नस्ल के हैं। जब भारतवंशी ऋषि सुनक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की एक मजबूत संभावना सामने थी, और ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी ने ऋषि सुनक को पूरा मौका दिया था, उस वक्त उनकी पार्टी के गोरे-संकीर्णतावादी लोगों ने भी यह बात नहीं कही थी कि कल का काला गुलाम आज अगर उनका प्रधानमंत्री बन जाएगा तो वे सिर मुंडा लेंगे, फर्श पर सोने लगेंगे, और चना खाकर गुजारा कर लेंगे। यह बर्दाश्त ही बहुत से देशों को उनकी संभावना के आसमान तक ले जाती है। अफ्रीका से दो पीढ़ी पहले गए हुए लोगों की औलाद बराक ओबामा की शक्ल में दो-दो बार अमरीका की राष्ट्रपति बनती है, ब्रिटिश प्रधानमंत्री की कुर्सी के करीब पहुंचती है, और पश्चिमी कारोबार पर राज भी करती है। ऐसे पश्चिम के एक कार्टून से जिन हिन्दुस्तानियों का आत्मविश्वास डोलने लगता है, जिनकी इज्जत संपेरे की इस बीन से जख्मी हो जाती है, क्या ऐसा समाज सचमुच ही उन संभावनाओं को छू सकता है, जिनका कि वह हकदार होना चाहिए था? दरअसल राष्ट्रवादी निष्ठा का प्रदर्शन इस कदर बददिमाग और बेदिमाग हो गया है कि वह राह चलते निशाना लगाने को निशाने ढूंढते चलता है। उसे वेलेंटाइन डे के बाद और क्रिसमस-न्यू ईयर के पहले और कुछ नहीं मिला, तो उसने यह कार्टून ढूंढ लिया। किसी चिडिय़ाघर में बंद जानवर की तरह दो वक्त खाना देने की जरूरत हर राष्ट्रवाद को रहती है। हालांकि हिंसक राष्ट्रवाद के सिलसिले में मासूम जानवरों की मिसाल देना उन जानवरों की बड़ी तौहीन है, फिर भी हम दो वक्त खाना देने की मिसाल के तौर पर उनका जिक्र कर रहे हैं। राष्ट्रवाद को अगर नफरत और हमले के लिए हर दिन कुछ न कुछ पेश न किया जाए, तो राष्ट्रवाद धीमी मौत मरने लगता है। इसलिए हिन्दुस्तान के पश्चिम-विरोध पर जिंदा रहने वाले राष्ट्रवादियों ने और कुछ नहीं मिला तो एक मासूम कार्टून को छांटकर धनुष-बाण, त्रिशूल और भालों के सामने पेश कर दिया है।
एक बात तय है कि ऐसी हरकतों से हिन्दुस्तान यह 21वीं सदी खत्म होने तक 19वीं सदी में जरूर पहुंच जाएगा जब यह देश पति खोने वाली महिलाओं को सती बनाकर फख्र हासिल करता था। जिस देश की समसामयिक समझ पाखंड लाद-लादकर इतनी दबा दी जाती है कि वह समझ के इस्तेमाल के मौकों पर भी सिर नहीं उठा पाती, उस देश का कोई भविष्य नहीं होता, कम से कम लोकतांत्रिक मूल्यों के पैमानों पर। और इन पैमानों पर आज की राष्ट्रवादी असहिष्णुता पूरी तरह खोटी साबित हो रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड (आईएमएफ) ने अगले बरस दुनिया में मंदी के खतरे की आशंका गिनाई है। इसकी मुखिया क्रिस्टालिना जॉर्जिवा ने कहा है कि 2026 तक दुनिया की अर्थव्यवस्था में रिकॉर्ड गिरावट आ सकती है। उन्होंने अभी एक विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में कहा कि दुनिया की अर्थव्यवस्था सुधरने के बजाय बुरी तरह से बिगड़ती नजर आ रही है, और यह व्यापक अनिश्चितता की ओर बढ़ रही है। उन्होंने कहा कि आईएमएफ के अनुमान लगातार नीचे जा रहे हैं, और आने वाले हालात इससे बहुत अधिक बुरे हो सकते हैं। आईएमएफ ने कोरोना महामारी, रूस-यूक्रेन युद्ध, और मौसम के प्रलयकारी बदलाव जैसी बातों को इस नौबत के लिए जिम्मेदार ठहराया है। और यह भी कहा है कि बहुत बढ़ी हुई महंगाई के मुकाबले मजदूरी और तनख्वाह में बहुत मामूली बढ़ोत्तरी हुई है जिससे लोगों का जीना मुश्किल हुआ है। अगले हफ्ते आईएमएफ और वल्र्ड बैंक की सालाना बैठक होगी जिसमें दुनिया भर के देशों के वित्तमंत्री पहुंचेंगे, और ताजा हालात पर चर्चा करेंगे।
हिन्दुस्तान में अभी लगातार कई बातें देखी जा रही हैं, जिनमें से कुछ बातें तो विदेशी हालात से जुड़ी हुई हैं जिन पर हिन्दुस्तान का काबू बहुत कम है। इनसे हिन्दुस्तान का कहीं पर नुकसान हुआ है, तो कहीं पर फायदा भी हुआ है। पेट्रोलियम और दूसरी कुछ चीजों के दाम बढ़े हैं, लेकिन चीन जैसे दुनिया के मेन्युफेक्चरिंग केन्द्र ने कोरोना लॉकडाउन की वजह से जो नुकसान झेला है, उसका एक फायदा भी हिन्दुस्तान में हो रहा है। दुनिया के बहुत से देश जो चीन में सामान बनवाते हैं, उन्होंने पिछले दो बरसों में चीन का लॉकडाउन देखते हुए अब चाइना प्लस वन की एक नई नीति अपनाई है जिसमें चीन के अलावा किसी और एक देश में भी वे अपनी उत्पादन ईकाई बना रहे हैं। इसका एक फायदा अभी-अभी एप्पल कंपनी के फोन के हिन्दुस्तान में उत्पादन की घोषणा की शक्ल में देखने मिला है। और भी कई कंपनियों की भारत आने की तैयारी चल रही है। ऐसी कुछ बातों से भारत की अर्थव्यवस्था का फायदा भी हो सकता है, लेकिन आईएमएफ सतह के नीचे की इस हकीकत पर कुछ नहीं बोल रहा है कि अलग-अलग आय वर्ग के लोगों पर इस मंदी का कैसा असर पड़ रहा है। हिन्दुस्तान के एक सबसे बड़े उद्योगपति गौतम अडानी दुनिया के तीसरे-चौथे नंबर के रईस बन गए हैं, लेकिन देश की गरीब आबादी की बदहाली बढ़ गई है। एक वामपंथी लेखक ने अभी दो दिन पहले ही लिखा है कि देश में गरीबी और असमानता बहुत बुरी तरह बढ़ रहे हैं। 2014 में भारत में डॉलर-अरबपति 109 थे, जो कि 2022 में अब तक 221 हो गए हैं। 30 अगस्त के एक दिन में गौतम अडानी ने 42 हजार करोड़ रूपया कमाया, और दुनिया में एक अविश्वसनीय सा रिकॉर्ड बनाया है। उन्होंने आगे लिखा है कि जब सारे बाजार, कारखाने, काम-धंधे बंद थे, करोड़ों भारतीय कामगार हजारों किलोमीटर पदयात्रा करके गांव लौट रहे थे, तब मुकेश अंबानी हर घंटे 90 करोड़ और गौतम अडानी हर घंटे 120 करोड़ रूपये कमा रहे थे।
दरअसल आईएमएफ या विश्व बैंक के आंकड़े किसी देश को एक ईकाई मानकर निकाले जाते हैं, और सकल राष्ट्रीय उत्पादन जैसी परिभाषाओं में गरीब की अलग से जगह नहीं रहती है। ऐसे में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को देश की आर्थिक स्थिति मजबूत साबित करना आसान हो जाता है क्योंकि अडानी-अंबानी, और आम जनता को मिलाकर जो औसत निकलता है, वह गरीब की बदहाली को कुछ कम करके दिखाता है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसी अर्थव्यवस्था के आंकड़े भी आज आईएमएफ को सहमा रहे हैं कि एक मंदी आने वाली है, जो बहुत भयानक हो सकती है। अब यह मंदी जाहिर है कि गरीब लोगों पर अधिक बुरा वार करेगी। रूस और यूक्रेन के बीच चल रही जंग के धीमे पडऩे का कोई आसार नहीं दिख रहा है, अमरीका और योरप के देश नाटो गठबंधन के तहत इस जंग को जारी रखने, और इसके चलते हुए रूस को कमजोर करने की अपनी व्यापक रणनीति पर काम कर रहे हैं जहां नाटो देशों का महज खर्च हो रहा है, और यूक्रेन के लोगों की शहादत। हम अभी इस युद्ध की बारीकियों में जाना नहीं चाहते, लेकिन एक बात तय है कि इस युद्ध के परमाणु युद्ध की तरफ बढऩे के खतरे दिख रहे हैं, युद्ध में मंदी के आसार नहीं दिख रहे।
लेकिन इससे परे दुनिया पर मंडराते हुए एक दूसरे खतरे को देखने की जरूरत है। पाकिस्तान का एक बड़ा हिस्सा इन दिनों एक अनहोनी किस्म की बाढ़ में डूबा हुआ है। वहां इतनी बड़ी बर्बादी हो गई है, और करोड़ों की आबादी खुले आसमानतले बच गई है। ऐसी बाढ़ वहां किसी ने कभी देखी-सुनी नहीं थी जिसके पानी को अभी उतरने में महीनों लग सकते हैं। और दुनिया के विकसित और संपन्न देशों की दिलचस्पी पाकिस्तान की मदद में नहीं है क्योंकि मदद की उनकी क्षमता यूक्रेन जा रही है। दुनिया के सामने यह एक खुला रहस्य है कि पाकिस्तान की यह बाढ़ मौसम में आए उस भयानक बदलाव की वजह से है जिसके सबसे बड़े जिम्मेदार सबसे विकसित देश हैं। पाकिस्तान खुद अपनी गरीबी की वजह से दुनिया में सबसे कम प्रदूषण करने वाले देशों में से है, और विकसित देशों के प्रदूषण की वजह से मौसम में बदलाव की मार पाकिस्तान पर पड़ी है। दुनिया में ऐसा जगह-जगह हो रहा है, और होते चलेगा। योरप के कुछ संपन्न और विकसित देशों में इस बरस जैसी बाढ़ आई है वैसी बाढ़ लोगों ने कभी देखी-सुनी नहीं थी। लेकिन दुनिया के गरीब देश सूखा, बाढ़, टिड्डियों के हमले जैसी प्राकृतिक विपदाएं झेल रहे हैं, और इनसे उबरने की हालत में नहीं हैं। दुनिया में मौसम में बदलाव के जिम्मेदार देश किस तरह इस बदलाव के शिकार देशों की मदद करें, इसका कोई तरीका दुनिया ने अभी तक सोचा भी नहीं है। इसलिए दुनिया की अर्थव्यवस्था को लेकर जो भी हिसाब लगाया जाए, उसमें सबसे गरीब देशों या अलग-अलग देशों के सबसे गरीब लोगों को लेकर लगाए गए अनुमान अलग से समझने की जरूरत है।
हिन्दुस्तान में अभी-अभी ऑनलाईन बिक्री करने वाली कंपनियों ने सस्ते में सामान बेचने का मुकाबला किया था। किसी एक कंपनी ने एक दिन में, एक बड़ी मोबाइल कंपनी के एक हजार करोड़ रूपये के मोबाइल फोन बेचे थे। इन आंकड़ों से यह नहीं लग सकता कि हिन्दुस्तान में कोई गरीबी चल रही है। लेकिन हिन्दुस्तान के जो लोग इस तरह की खरीदी कर रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि आने वाले बरस, और एक से अधिक बरस, आज के हालात से बहुत अधिक खराब हो सकते हैं, और उस वक्त आज की खर्चीली आदतें अफसोस और मलाल बनकर रह जाएंगी। अधिकतर लोगों को अपने खर्च में बड़ी कटौती करनी चाहिए, किफायत बरतनी चाहिए, और आने वाली अधिक बुरे वक्त की आशंका ध्यान में रखते हुए बचत करनी चाहिए। बहुत से लोगों ने हिन्दुस्तान में भी कोरोना-लॉकडाउन के दो बरसों का नुकसान झेला है, और उससे अब तक उबर नहीं पाए हैं। आने वाला वक्त कई किस्म की प्राकृतिक, या मानवनिर्मित मुसीबतें लेकर आ सकता है, या दुनिया की गिरती हुई अर्थव्यवस्था ही एक बड़ी मुसीबत साबित हो सकती है। इसलिए लोगों को कम खर्च में जीने की आदत डालनी चाहिए, कमाई बढ़ाने की आदत डालनी चाहिए, नए हुनर सीखने चाहिए, और नए-नए काम भी ढूंढने चाहिए क्योंकि एक नौकरी गई तो दूसरा कोई रोजगार हाथ में रहना चाहिए। आज हिन्दुस्तान की आबादी का एक बड़ा हिस्सा धर्म और धर्म की राजनीति में डूबे हुए दिख रहा है। लोग सडक़ों पर धर्मोन्माद को ही जिंदगी का खास मकसद मानकर हंगामा करते दिख रहे हैं। जब देश धार्मिक भक्तिभाव में इस तरह डूब गया है, तब आम जनता की अर्थव्यवस्था सुधारना आसान नहीं है। अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए ऐसे बहुत से पहलुओं को एक साथ देखने की जरूरत है।
सार्वजनिक जीवन में एक चूक, या एक गलत काम लोगों को आसमान से धरती पर पटक सकते हैं, नायक को खलनायक बना सकते हैं, और ऐसा ही कुछ अशोक गहलोत के साथ हुआ। राजस्थान के मुख्यमंत्री इतने ताकतवर माने जा रहे थे, उनका लंबा तजुर्बा और सोनिया परिवार के प्रति उनकी बेदाग वफादारी ने उन्हें चौथाई सदी बाद पहले गैरगांधी कांग्रेसाध्यक्ष के लायक बनाया था। सोनिया परिवार ने अपने तीन लोगों से बाहर जाकर गहलोत को पार्टी अध्यक्ष बनाना तय किया था, और उन्हें एक किस्म से इस जिम्मेदारी के लिए बाकी किसी भी कांग्रेस नेता के मुकाबले अधिक सही पाया था। इस बात की मुनादी उनकी तरफ से भी हो गई थी, लेकिन अगले ही दिन वे कांग्रेस के बहुत से लोगों के बीच नायक से खलनायक बन गए।
जो लोग कांग्रेस के घटनाक्रम बारीकी से पढ़ रहे हैं उन्हें तो कुछ बताने की जरूरत नहीं है, लेकिन बाकी लोगों के लिए यह समझ जरूरी है कि गहलोत ने पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर हामी भर दी थी, इसकी घोषणा कर दी थी, और कुछ हफ्ते बाद नतीजे घोषित होने पर वे काम भी सम्हाल चुके होते। इस बीच जाने किस हड़बड़ी के चलते दिल्ली में कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप ने यह महसूस किया कि गहलोत के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उनकी जगह राजस्थान में एक नया मुख्यमंत्री लगेगा, और इसके पहले कि गहलोत अध्यक्ष चुनाव का फॉर्म भी भर पाते, दिल्ली से कांग्रेस पर्यवेक्षक जयपुर पहुंचकर विधायकों की बैठक बुलाकर अगला मुख्यमंत्री तय करने बैठे थे। लीडरशिप की इस रफ्तार ने न सिर्फ राजस्थान कांग्रेस के विधायकों को हक्का-बक्का किया, बल्कि कांग्रेस परे के देश भर के राजनीतिक विश्लेषक भी यह सोचते रह गए कि बिजली की इस रफ्तार से नया मुख्यमंत्री तय करने की जरूरत क्या थी? राजस्थान के अधिकतर कांग्रेस विधायक गहलोत समर्थक दिख रहे हैं, और उनके बीच मुख्यमंत्री के करवाए हुए, या उनकी मौन सहमति से एक बगावत हुई, और कांग्रेस हाईकमान को उसके मौजूदा कार्यकाल के आखिरी महीने में उसकी औकात दिखा दी गई। कांग्रेस के निष्ठावान सोनिया-समर्थकों को यह शब्द कुछ अधिक कड़वा लग सकता है, लेकिन जयपुर में हुआ यही, कांग्रेस हाईकमान के भेजे हुए पर्यवेक्षक दुकान खोलकर बैठे रहे, और पार्टी विधायकों ने वहां पांव भी रखने से मना कर दिया। जब 90 फीसदी विधायक अनुशासनहीन करार दे दिए गए, तो फिर तौहीन तो हाईकमान की ही हुई क्योंकि सोनिया गांधी इनका कुछ बिगाडऩे की हालत में नहीं हैं।
अब यहां पर एक बुनियादी सवाल उठाना जरूरी है। कांग्रेस में नए अध्यक्ष चुने जाने की यह सारी मशक्कत पार्टी में एक लोकतंत्र को जिंदा दिखाने के लिए की जा रही है। और हो सकता है कि इससे पार्टी जिंदा भी हो जाए। अब सवाल यह उठता है कि एक अनमने अशोक गहलोत को अगर पार्टी अध्यक्ष बनाने के लिए इतना जरूरी समझती है कि खाली बैठे हुए दर्जनों बड़े नेताओं को छोडक़र एक मुख्यमंत्री को अध्यक्ष बनाया जा रहा है, तो गहलोत का महत्व इसी बात से साफ हो जाता है। यह महत्व उनकी काबिलीयत की वजह से भी हो सकता है, और उनके सबसे अधिक उपयुक्त होने की वजह से भी। अब अगर गहलोत को हटना ही था, तो जाहिर है कि उनकी जगह कोई और मुख्यमंत्री बनता, या गहलोत ही दोनों कुर्सियों पर काबिज रहते जैसी कि उनकी नीयत दिख रही थी, या कम से कम उनका बयान वैसा दिख रहा था। अब अगर पार्टी ने यह तय ही कर लिया था कि गहलोत के नामांकन भरने के पहले ही राजस्थान में उनका वारिस छांट लिया जाए, और इसके लिए फायर ब्रिगेड की रफ्तार से पर्यवेक्षक जयपुर पहुंच गए थे, तो फिर वहां जो हुआ, उसमें अलोकतांत्रिक क्या था? कोई भी मुख्यमंत्री किस तरह चुने जाने चाहिए? विधायकों का बहुमत जिसके साथ हो वही पार्टी विधायक दल के अध्यक्ष हो सकते हैं, और जयपुर में जाहिर तौर पर बहुमत से भी खासे अधिक लोग गहलोत के साथ दिख रहे थे। अब अगर कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए एक चुनाव करवाने का यह दौर अगर ढकोसला नहीं है, तो फिर ऐसा ही चुनाव राजस्थान विधायक दल के भीतर अगले मुख्यमंत्री के लिए भी होना था। और बहस के लिए कुछ देर के लिए यह भी मान लें कि विधायकों की बगावत गहलोत ने ही करवाई थी, तो भी वे विधायकों की पसंद ही साबित हो रहे थे। ऐसे में जिस लोकतांत्रिक चुनाव का दिखावा दिल्ली में हो रहा है, वैसा ही लोकतांत्रिक चुनाव जयपुर में क्या बुरा था?
लोगों की नजरों में गहलोत पल भर में खलनायक बन गए हैं क्योंकि उन्होंने कांग्रेस हाईकमान से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इतना बड़ा तोहफा मिलने के बाद भी राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर से अपनी नीयत नहीं हटाई थी। लेकिन क्या यह देश और कांग्रेस पार्टी कांग्रेस संगठन के चुनाव देखना चाहते हैं, या कि एक मनोनयन देखना चाहते हैं? अगर गहलोत अध्यक्ष बन रहे थे, तो उसके एवज में उनसे राजस्थान सीएम की कुर्सी पर दिल्ली की मर्जी का राज्याभिषेक करवाने की उम्मीद क्यों की जा रही थी? जब पार्टी में लोकतंत्र ही लाना है, तो राजस्थान में तो खुला लोकतंत्र आ रहा था, और 90 फीसदी विधायक सचिन पायलट के खिलाफ दिख रहे थे। यह भी याद रखने की जरूरत है कि दो बरस पहले सचिन पायलट ने अपनी ही पार्टी के खिलाफ जाकर, राजस्थान में अपनी ही सरकार के खिलाफ जाकर डेढ़-दो दर्जन विधायकों को लेकर सरकार गिराने की पूरी कोशिश की थी, और जब वह कोशिश नाकाम कर दी गई, तो उसके बाद क्या आज राजस्थान के कांग्रेस विधायकों का यह भी हक नहीं बनता कि वे पार्टी को तोडऩे, सरकार पलटाने की कोशिश करने वाले को मुख्यमंत्री बनाने का विरोध करते? इसमें अलोकतांत्रिक क्या था? यह तो सबसे ही लोकतांत्रिक बात थी कि विधायक दल ने उनके बीच के सबसे बड़े बागी, सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाने वाले नेता को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश को खारिज कर दिया। इसके पीछे गहलोत थे, या नहीं थे, क्या यह बात सचमुच ही मायने रखती है? पार्टी के 90 फीसदी विधायक सशरीर पायलट के खिलाफ एकजुट होकर खड़े थे, और क्या कांग्रेस हाईकमान के लिए यह एक नैतिक और जायज बात थी कि वह अपने आखिरी हफ्तों में एक ऐसे अवांछित नेता को राजस्थान पर थोप दे जिसने सरकार के खिलाफ सबसे बड़ी साजिश की थी, पार्टी को फजीहत में डाला था, और जिसके खिलाफ राजस्थान के पार्टी विधायक एकजुट हैं?
गहलोत से भला ऐसी कैसी पारिवारिक वफादारी की उम्मीद लोकतांत्रिक हो सकती है जिस परिवार के सीधे कब्जे से बाहर पार्टी को ले जाने की कवायद चल रही है? या तो सोनिया परिवार पार्टी पर काबिज रहे, या किसी दूसरे को पार्टी अध्यक्ष बनकर पार्टी को बचाने की कोशिश करने का एक मौका दे। जिसे पार्टी अध्यक्ष बनाने की नीयत चल रही है, उसी की मर्जी, उसी की राजनीति, उसी के समर्थकों और पार्टी विधायकों के बहुमत के खिलाफ जाकर राजस्थान में कांग्रेस की आज की लीडरशिप जिस तरह से सत्ता पलट करवाने की कोशिश कर रही थी, वह एक बहुत ही अलोकतांत्रिक फैसला था। जो लोग गहलोत को नाशुक्रा और सोनिया के प्रति धोखेबाज साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, वे इस बात को अनदेखा कर रहे हैं कि ऐसा शुक्रगुजार और वफादार होना कोई लोकतांत्रिक बात नहीं होती कि पार्टी विधायकों की मर्जी के खिलाफ गहलोत राजस्थान में पायलट को मुख्यमंत्री बनाने देते। उनकी अपनी मर्जी तो पायलट के खिलाफ रही ही होगी, विधायकों का बहुमत भी उनके साथ था।
गहलोत ने पार्टी से पुराने रिश्तों के चलते हुए, और शायद मुख्यमंत्री बने रहने के लिए सोनिया गांधी से मुलाकात के बाद सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्होंने सोनिया से माफी मांग ली है कि पार्टी की मर्जी का प्रस्ताव पास नहीं करवा पाए। उनकी इस माफी को कांग्रेस लीडरशिप की इज्जत बच जाने का सुबूत भी करार दिया जा रहा है। लेकिन यह पूरा सिलसिला पूरी तरह से अलोकतांत्रिक है, और इस पूरे गहलोत-प्रकरण में कांग्रेस हाईकमान की बददिमागी का एक बड़ा सुबूत है जिसने मानो यह भी तय कर लिया था कि गहलोत को क्या बना दिए जाने के बाद उनसे कौन सा त्याग पा लेना पार्टी का हक है। देश के कुल दो राज्यों तक सिमट चुकी कांग्रेस पार्टी के हाईकमान को पार्टी का अस्तित्व पूरी तरह खत्म हो जाने के पहले तक और कितनी बददिमागी दिखाने की जरूरत है?
औरतों के साथ भेदभाव हिन्दुस्तान में कुछ अधिक सर चढक़र बोलता है, लेकिन जिस पश्चिम से अधिक संवेदनशील होने, और बराबरी के अधिकार देने की उम्मीद की जाती है, वहां भी महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के मामले सिर चढक़र बोलते दिखते हैं। जिंदगी के अलग-अलग बहुत से दायरों में महिलाओं के खिलाफ समाज की सोच दिखाई पड़ती है, लेकिन अभी कला की एक इतिहासकार ने एक किताब लिखी है जो पिछले कुछ सौ बरसों का सिर्फ महिला चित्रकारों का इतिहास बताती है, क्योंकि चित्रकला के इतिहास मेें महिलाओं की जगह पुरूषों के वजनतले बुरी तरह दबी हुई है।
इस बारे में अभी कुछ लोगों ने लिखना शुरू किया है, और ऑस्ट्रेलिया की नेशनल गैलरी पर किया गया एक अध्ययन बताता है कि वहां कलाकृतियों के संग्रह में सिर्फ एक चौथाई कलाकृतियां ही महिलाओं की बनाई हुई हैं। लेकिन यह फिर भी बाकी दुनिया के मुकाबले बेहतर है जहां पर कलादीर्घाओं में प्रदर्शित प्रमुख कलाकृतियों में से 90 फीसदी पुरूषों की बनाई हुई हैं। अभी प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि किसी महिला कलाकार की बनाई हुई दुनिया की अब तक सबसे महंगी बिकी पेंटिंग, दुनिया की सौ सबसे महंगी पेंटिंग्स में भी नहीं हैं। जाहिर है कि किसी महिला कलाकार का नाम जुड़ जाने से ही उसका महत्व कम होने लगता है, और इसकी एक वजह शायद यह भी है कि दुनिया में कलाकृतियां खरीदने वाले तकरीबन तमाम लोग मर्द ही हैं।
तो अब एक यह बहस चल रही है कि क्या किसी महिला कलाकार, और किसी पुरूष कलाकार की बनाई हुई पेंटिंग्स में ऐसा बुनियादी फर्क रहता है कि वे कला के पैमानों पर कमजोर रहती हैं?
इसी बात को देखने के लिए अभी एक प्रयोग किया गया जिसमें कला की समझ रखने वाले लोगों को एक ही किस्म की शैली वाली ऐसी पेंटिंग्स दिखाई गईं जिनके पीछे महिला और पुरूष दोनों ही कलाकारों का हाथ था। चित्रकारों के नाम छुपा दिए गए थे, और महज पेंटिंग देखकर लोगों को अपनी पसंद तय करनी थी। आधे से अधिक लोगों ने महिला चित्रकारों की बनाई गई पेंटिंग्स पसंद कीं। लेकिन जब इन्हीं लोगों के सामने प्रमुख कलाकारों की जानी-मानी और चर्चित पेंटिंग्स रखी गईं, तो उन्होंने पुरूष कलाकारों की बनाई पेंटिंग्स पसंद कीं, शायद इसलिए कि उन कलाकारों के नाम उन्हें मालूम थे। लेकिन फिर ऐसा क्या हो जाता है कि जब असल जिंदगी की सरकारी और प्रमुख कलादीर्घाओं में कलाकृतियों को रखने की बारी आती है तो वहां पुरूषों का एकाधिकार दिखता है? क्या ऐसा इसलिए होता है कि संग्रहालयों और कलादीर्घाओं का इंतजाम मोटेतौर पर पुरूषों के हाथ रहता है, मीडिया से लेकर कलाकृतियों के खरीददारों तक, नीलामघरों तक पुरूषों का तकरीबन एकाधिकार रहता है। क्या सचमुच ही पुरूषों का एकाधिकार उनके मातहत आने वाले दायरों में दूसरे पुरूषों को बढ़ावा देता है? और क्या इस तरह पुरूषप्रधान समाज और भी अधिक पुरूषप्रधान होते चलता है?
हम इसे पश्चिम से बहुत दूर हिन्दुस्तान में, और कला से बहुत दूर राजनीति और सार्वजनिक जीवन से जोडक़र देखें तो शहरों के वार्डों से लेकर गांवों की पंचायतों तक महिलाओं के आरक्षण के बाद भी उनके ओहदों को उनके मर्द ही दुहते दिखते हैं। अभी कुछ हफ्ते पहले ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के म्युनिसिपल कमिश्नर ने महिला पार्षदों की जगह उनके पतियों से बात करने से मना कर दिया था जो कि एक आम बात रहते आई है। गांव-गांव में आरक्षण की वजह से पंच और सरपंच बनीं महिलाओं का काम उनके पति देखते हैं, और उनका एक औपचारिक नामकरण भी पंच-पति, और सरपंच-पति हो चुका है। देश के कई प्रदेशों में तो ये पति कागजात पर सील लगाकर दस्तखत भी करते हैं। जिस तरह आज हिन्दुस्तान में यह हाल हो गया है कि वोटर विधायक चुनने के लिए किसी भी निशान पर वोट डाले, चुना हुआ विधायक तो कमल पर ही वोट डालेगा। ठीक उसी तरह लोग भले आरक्षण की वजह से महिला को चुनें, काम तो उनका पति ही करेगा। ऐसे लोगों को हिकारत की नजर से देखने वाले कुछ लोग पंच-पति को पाप, और सरपंच-पति को सांप कहकर भी बुलाते हैं।
यह भेदभाव अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोहरत पाने वाली महिलाओं के साथ भी होता है। क्रिकेट में महिला टीम को पुरूषों के मुकाबले बहुत कम मेहनताना मिलता है, फिल्मों में महिला कलाकार को पुरूषों के मुकाबले बड़ी कम फीस मिलती है। अभी कुछ हफ्ते पहले ही न्यूजीलैंड ने अपने पुरूष और महिला क्रिकेट खिलाडिय़ों के लिए बराबर मेहनताना घोषित किया है। हिन्दुस्तान जैसे देश में पुरूष खिलाडिय़ों को बहुत अधिक फायदे हैं।
कला को लेकर अभी एक किताब भी ऐसी आई है जो पिछली कुछ सदियों में महिला कलाकारों के महत्व को बताने वाली है क्योंकि पुरूषों के साथ जोडक़र जब उन्हें देखा जाता है तो वहां उनकी कोई जगह ही नहीं बनती। जिंदगी के दूसरे दायरों में भी इस भेदभाव को समझने की जरूरत है।
अभी कुछ दिन पहले दुनिया की सबसे महान टेनिस खिलाड़ी सेरेना विलियम्स ने जब सन्यास लेने की घोषणा की तो वह एक ऐसा इतिहास रच चुकी थी जिसे पार पाना अगर नामुमकिन नहीं होगा, तो बहुत ही मुश्किल जरूर होगा। करीब तीन दशक लंबे टेनिस कॅरियर में सेरेना ने करीब दो दर्जन विश्व टाइटिल जीते, और ओलंपिक में भी कई मैडल जीते। एक वक्त था जब उसने दुनिया के एक सबसे बड़े मुकाबले में जीत हासिल की, लेकिन बैठे हुए दर्शक न सिर्फ उसकी खिल्ली उड़ाते हुए आवाजें कस रहे थे, बल्कि उसकी जीत पर भी किसी ने खुशी जाहिर नहीं की क्योंकि अमरीका के काले अफ्रीकी समुदाय की थी। टेनिस का इतिहास जानने वाले लोग अमरीका के काले समुदाय के वंचित अधिकारों वाले बच्चों की सीमाएं जानते हैं, और उस समुदाय से निकलकर जब सेरेना विलियम्स आसमान तक पहुंचीं, तो लोग देखते ही रह गए।
सेरेना विलियम्स ने टेनिस कोर्ट पर जीत की आतिशबाजी तो दिखाई ही, उसके अलावा वह अमरीका में अधिकारों से वंचित तबकों के हक के लिए लगातार लडऩे वाली रही। नतीजा यह हुआ कि खेल की उसकी शोहरत का फायदा उन तमाम सामाजिक मुद्दों को भी मिला जिन मुद्दों से वे जुड़ी रहीं। इनमें रंगभेद के खिलाफ लड़ाई, काले समुदाय के हक की लड़ाई, एलजीबीटी समुदाय के बराबरी के हक के लिए लड़ाई जैसा लंबा इतिहास सेरेना विलियम्स का रहा। वह न सिर्फ टेनिस के इतिहास की सबसे कामयाब और सबसे बड़ी खिलाड़ी रही, बल्कि वह दुनिया के महान एथलीट में से भी एक दर्ज हुई है। खेल से परे की अपनी सामाजिक जागरूकता की वजह से वह और महान हुई। आज दुनिया भर में यह माना जाता है कि सेरेना विलियम्स और उनकी बड़ी बहन वीनस विलियम्स ने जितने खिताब जीते हैं, खेल से परे जितनी कामयाबी पाई है, उससे अमरीका के अश्वेत और अफ्रीकी समाज की पूरी पीढ़ी को ही आगे बढऩे का एक अभूतपूर्व और बेमिसाल हौसला मिला। ये दोनों बहनें जिस किस्म की मिसाल बनकर अमरीका के वंचितों के लिए खड़ी रहीं, उसकी वजह से जिंदगी के अलग-अलग बहुत से दायरों में लोगों को आगे बढऩे का रास्ता सूझा, सामाजिक शोषण और गैरबराबरी से लडऩे की हिम्मत मिली।
अब सेरेना विलियम्स के बारे में आज के इस पूरे कॉलम को खत्म करने का कोई इरादा नहीं है। यह सिर्फ चर्चा शुरू करने के लिए है कि किस तरह किसी एक समुदाय के किसी महान व्यक्ति से उस समुदाय के और अनगिनत लोगों को आगे बढऩे का रास्ता मिलता है। अब इसके साथ जब हम हिन्दुस्तान को जोडक़र देखते हैं, तो अनगिनत प्रदेशों और अनगिनत पार्टियों के बड़े-बड़े नेता जो कि अपने धर्म या समुदाय के लोगों के नेता होने का दंभ पालते हैं, वे अपने लोगों और अपनी बिरादरी के सामने किस तरह की मिसाल हैं? आज बड़ी-बड़ी पार्टियों के लोग धर्म और जाति की राजनीति करते हुए नफरत और हिंसा की मिसाल पेश करते हैं, उन्हीं को बढ़ाते हैं। अगर इन नेताओं को कोई अपनी प्रेरणा माने, तो वे लोग इसी नफरती-हिंसा को बढ़ाते चलेंगे। जिस ओबीसी समाज के एक सबसे बड़े नेता लालू यादव साम्प्रदायिकता के खिलाफ अपनी पहल की वजह से वामपंथियों तक को मंजूर रहते आए हैं, उनकी अपनी मिसाल एक परले दर्जे के भ्रष्ट, अराजक, और घोर कुनबापरस्त की है। देश के इतने बड़े प्रदेश बिहार की इतनी बड़ी सत्तारूढ़ पार्टी के लालू यादव को अपने कुनबे से परे कोई नहीं सूझा, भ्रष्टाचार तो वे अगली पीढ़ी को भी दे गए, तो उनकी मिसाल से बिहारी लोगों या ओबीसी के लोगों को क्या मिलेगा? कमोबेश ऐसा ही हाल पड़ोस के उत्तरप्रदेश के मुलायम सिंह यादव के कुनबे का है, इनकी राजनीति कुनबे तक सीमित है, और समाजवाद इनके लिए एक नारा है। सारा चाल-चलन समाजवाद के खिलाफ है। अब ओबीसी का यह दूसरा सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार अपने समुदाय के लिए कोई भी सकारात्मक प्रेरणा नहीं है। इसी उत्तरप्रदेश की मायावती को देखें, तो बहुजन समाज पार्टी के बैनरतले वे देश की सबसे बड़ी दलित महिला नेता बनीं, और बिना किसी राजनीतिक विरासत के, वे अपने दम पर उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं। लेकिन खुद के महिमामंडन में वे दैत्याकार प्रतिमाएं बनवाकर, हजारों करोड़ के भ्रष्टाचार में फंसकर राजनीति से बाहर सरीखी हो गई हैं, और उनकी अगर कोई मिसाल दलित तबके के सामने है, तो वह यही है कि किसी को इतना आत्ममुग्ध, और इतना भ्रष्ट नहीं होना चाहिए कि वे अपने से परे कोई पार्टी ही न बना सकें, और केन्द्रीय जांच एजेंसियों की वजह से मुंह सिलकर, घर बैठकर, सोच-समझकर चुनाव हारने को मजबूर हों। मायावती के भ्रष्टाचार और उनकी आत्ममुग्धता ने इस देश से दलित राजनीति की संभावनाओं को खत्म कर दिया, और उनकी वजह से सबसे बड़ा नुकसान अगर किसी का हुआ है तो वह दलित समुदाय का हुआ है।
एक तरफ सेरेना विलियम्स और उनकी बहन वीनस विलियम्स अमरीका में रंगभेद के शिकार अफ्रीकी-अमरीकी समुदाय के लोगों के लिए इतिहास की एक सबसे बड़ी प्रेरणा बनकर सामने आई हैं, खुद का तो जो भला उन्होंने किया, वह तो किया ही, लेकिन उन्होंने तमाम अश्वेत बच्चों, किशोरों, और नौजवानों में हौसला भर दिया। दुनिया में कहीं भी किसी बिरादरी के लोग जब भला काम करते हैं, तो वे अपने बाकी लोगों को भी भले काम की तरफ मोड़ते हैं, और देश-दुनिया के दूसरे लोगों को भी। गांधी ने दुनिया के सामने जो सकारात्मक और क्रांतिकारी अहिंसक सोच रखी, जिस नैतिक ताकत से वे दुनिया की सबसे बड़ी सरकार के मुकाबले खड़े रहे, उसने पूरी दुनिया में गांधी को एक ऐसी जगह दिलाई कि हिन्दुस्तान के बाकी लोगों को भी उस नाम से हौसला मिलता है। हिन्दुस्तान के भीतर जो लोग गांधी के हत्यारे गोडसे की पूजा करते हैं, उन्हें भी हिन्दुस्तान के बाहर जाने पर पूजा करने के लिए सिर्फ गांधी की ही प्रतिमा मिलती है, गोडसे की एक तस्वीर भी नहीं मिलती। हिन्दुस्तान में गांधी को गोली मारने वाली सोच के वारिस भी जब दुनिया में कहीं जाते हैं, तो उन्हें गांधी के देश का होने की वजह से ही इज्जत मिलती है।
आज हर धर्म, जाति, प्रांतीयता के लोगों को यह सोचना चाहिए कि उनके बीच के आदर्श कैसे हैं? आम लोगों को अपने वर्ग के खास लोगों के बारे में यह इसलिए सोचना चाहिए कि उन्हीं खास लोगों से बाकी तमाम आम लोगों की पहचान बनती है। लालू पर राजनीति से परे के भी ओबीसी लोगों को पहले सवाल उठाने थे, और इसी तरह मुलायम कुनबे से भी यादवों को पहले सवाल करने थे, मायावती से अगर दलित खुले सवाल करते, तो वे अपने आपको इस हद तक बर्बाद नहीं कर पातीं, और आज हमलावर-हिन्दुत्व के नाम पर जो हिन्दू नेता नफरत और हिंसा फैला रहे हैं, उनसे पहले सवाल हिन्दू समाज के लोगों को ही करने चाहिए, दाऊद इब्राहिम सरीखों से मुम्बई और महाराष्ट्र की मस्जिदों में हर शुक्रवार जुटने वाले मुस्लिमों को ही सवाल करने थे। अगर अपने बीच के चर्चित लोगों को कोई समाज पटरी पर रख सकता है, तो ही उस समाज को इन चर्चित लोगों से कोई इज्जत हासिल होती है, वरना ये कलंक बने रहते हैं, ठीक उस तरह जिस तरह तकरीबन तमाम जर्मन लोग आज हिटलर के नाम से शर्मिंदा हैं, और कोई हिटलर के इतिहास पर चर्चा भी करना नहीं चाहते।
रंगभेद के शिकार अफ्रीकी-अमरीकी समुदाय से निकलकर आसमान के सबसे रौशन सितारे बनने वाली विलियम्स-बहनों की मिसाल ही वर्गहित की सबसे बड़ी मिसालों में से एक है। हिन्दुस्तान में सबसे ताकतवर अफसरों के दो संगठन, आईएएस एसोसिएशन, और आईपीएस एसोसिएशन अपने बीच के सबसे परले दर्जे के भ्रष्ट अफसरों के मामले उजागर हो जाने पर भी उनके खिलाफ मुंह खोलते भी नहीं दिखते हैं, और इससे इन तबकों का भविष्य भी तय होता है कि उनके सदस्य कैसे रहेंगे।
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देश के विख्यात तिरूपति मंदिर को लेकर कई बार यह आलोचना सामने आती है कि मंदिर ट्रस्ट अलग-अलग दाम की टिकटें बेचकर भक्तों और दर्शनार्थियों को अलग-अलग तेजी से दर्शन करवाता है। इसके अलावा कई किस्म की पूजा के लिए और भी महंगी टिकटें रहती हैं, और फिर देश-प्रदेश की सरकार या देश के कारोबार के अडानी-अंबानी जब मंदिर पहुंचते हैं तो तमाम लोगों को रोककर मंदिर के ट्रस्टी इनकी खातिर करके इन्हें देव-दर्शन के लिए ले जाते हैं, इनके लिए अलग सब इंतजाम किया जाता है, और दिन-दिन भर से कतार में लगे हुए लोगों को और देर तक रूकना पड़ता है। इस मंदिर की टिकटों की व्यवस्था कुछ अधिक विवादास्पद है, वरना देश के हर तीर्थस्थान में नेताओं और अफसरों, बड़े कारोबारियों और नामी-गिरामी लोगों के लिए देश के एक सबसे बेशर्म शब्द, वीआईपी, नाम से दर्शन का अलग इंतजाम रहता है।
ऐसे में अभी तमिलनाडु के एक उपभोक्ता कोर्ट ने तिरूपति देव स्थानन ट्रस्ट को एक भक्त को भुगतान लेने के बाद 14 बरस इंतजार करवाने के बाद भी उसकी चाही गई वस्त्रलंकारा सेवा का मौका न देने पर 50 लाख का मुआवजा देने का हुक्म दिया है। इस मंदिर ट्रस्ट के खिलाफ उपभोक्ता कोर्ट में यह पहला ही मुकदमा था, और यह ट्रस्ट के खिलाफ गया। एक भक्त ने 2006 में मंदिर ट्रस्ट को 12,250 रूपये देकर 2020 में देवता की वस्त्रलंकारा सेवा की बुकिंग की थी। कोरोना लॉकडाउन की वजह से वह दिन आकर चले गया, और मंदिर भुगतान के एवज में भक्त को पूजा में रहने का मौका नहीं दिला पाया। अब कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला दिया है कि या तो मंदिर एक साल के भीतर उसे इस पूजा में शामिल करने का मौका दे, या फिर उसे 50 लाख मुआवजा दे। तिरूपति मंदिर ट्रस्ट को साल में तीन हजार करोड़ रूपये तक दान और टिकटों से मिलते हैं। इसमें से हजार करोड़ रूपये तो नगद चढ़ावे से आता है। मंदिर प्रसाद भी बेचता है, दर्शन भी बेचता है, और वहां जाने वाले लोग जानते होंगे कि और क्या-क्या चीजें बिकती हैं।
मंदिर में दर्शनों को बेचना किसी भी तरह से गलत नहीं है। जिसके पास अधिक पैसा है, उसे भगवान तक जाने का रास्ता जल्दी मिलना चाहिए, गरीबों को चाहिए कि जिस तरह सडक़ों पर से किसी तथाकथित वीआईपी के आने-जाने पर उन्हें किनारे होकर काफिले को रास्ता देना पड़ता है, ठीक वैसा ही रास्ता ट्रस्टियों के घेरे में पहुंचने वाले तथाकथित बड़े लोगों के लिए उसे देना ही चाहिए। कोई अगर यह सोचे कि भगवान के घर में गरीब और अमीर के बीच भेदभाव ठीक नहीं है, तो यह बुनियादी बात समझ लेना चाहिए कि धर्म तो बनाया ही इस हिसाब से गया है कि वह ताकतवर लोगों की सेवा करे, और गरीबों को मानसिक गुलामी में कैद रखकर उन्हें ताकतवरों की सेवा के लिए तैयार रखे। बात महज तिरूपति के मंदिर की नहीं है, धर्म का सारा मिजाज ही राजा या सेठ की गुलामी करने का है, और गरीबों को लाकर उनका गुलाम बनाने का है। धर्मों के बड़े-बड़े प्रवचन होते हैं, टीवी के आस्था वाले चैनलों पर बहुत से धर्मप्रचारक घंटे-घंटे भर बकवास करते हैं, और वे यही सिखाते हैं कि इस जन्म में मिल रही तकलीफें पिछले जन्म के उनके पाप का नतीजा है, और इस जन्म में बिना लालच किए, बिना स्वार्थ के, बिना किसी वासना के मालिक का भगवान मानकर सेवा करें, तो अगला जन्म सुख से भरा हुआ होगा। कुछ धर्मों में राजा को ईश्वर का दर्जा दिया गया है ताकि लोगों को राजा की तमाम ज्यादतियों को भी ईश्वर की दी हुई सजा मानकर बर्दाश्त करने की ताकत दी जा सके।
अगर अफीम के नशे की तरह धर्म का नशा लोगों को करवाया हुआ न रहे, तो राजा से लेकर मालिक तक की ज्यादतियों के खिलाफ बहुत से लोग खड़े हो सकते हैं, और संगठित हो सकते हैं। इसी खतरे को खत्म करने के लिए धर्म और ईश्वर की धारणा का आविष्कार किया गया, और जो कि दुनिया में सबसे कामयाब आविष्कार माने जाने वाले चक्के से भी अधिक कामयाब है, और इसमें दुनिया में शोषण का और अधिक बड़ा, और फौलादी चक्का चला रखा है जिसके नीचे हजारों बरस से सबसे गरीब, सबसे कमजोर, महिलाएं कुचले जा रहे हैं, और उन्हें दर्द का अहसास भी नहीं होता है क्योंकि उन्हें पाप और पुण्य की धारणा में जकडक़र रखा गया है, उन्हें बार-बार यह समझाया जाता है कि उन्होंने पिछले जन्म में पाप किए होंगे जिसका नतीजा उन्हें इस जन्म में मिल रहा है, और इसके लिए उन्हें न तो राजा को कोसना चाहिए, और न ही मालिक को। धर्म की यह धारणा दुनिया भर से लोगों को उनके धर्मस्थानों की तरफ ले जाती है, और दुनिया से सामाजिक इंसाफ को खत्म करने में तमाम धर्म अलग-अलग रंगों के लबादे पहनकर एक सा काम करते हैं।
अफ्रीका के जंगलों में बसे हुए लोगों की अपनी कबीलाई आस्थाएं थीं जो कि किसी भी आधुनिक और संगठित धर्म से बिल्कुल अलग थीं। लेकिन जब बाद में ईसाई वहां पहुंचे, तब का एक लतीफा बनाया गया है कि जब पादरी वहां पहुंचा, तो लोगों के पास जमीनें थीं, और पादरी के हाथ में बाइबिल थी। कुछ बरसों के बाद पादरी और चर्च के पास जमीनें थीं, और लोगों के हाथ बाइबिल थी। आज दुनिया भर में धार्मिक संस्थानों के पास जितनी रकम है, जितना खजाना है, उससे दुनिया की गरीबी दूर हो सकती है। लेकिन गरीबों को ही झांसा दे-देकर उनके गिने-चुने कौर में से आस्था नाम का जो जीएसटी वसूल कर लिया जाता है, उससे धर्मगुरू आलीशान महलों में रहते हैं, भक्तों से बलात्कार करते हैं, वोटरों को गुलाम बनाने का संगठित माफिया चलाते हैं, और लोकतंत्र के सभी हांकने वालों को हांकते हैं।
हालत यह है कि हिन्दुस्तान में आज भी हिन्दू धर्म के भीतर यह बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है कि किस मंदिर में दलितों को दाखिला है, और किसमें नहीं। यह भी मुद्दा बना हुआ है कि दलितों और महिलाओं को कब पुजारी बनने मिलेगा, और कब उनमें से किसी को शंकराचार्य बनाया जा सकेगा। धर्म के खड़ाऊ तले कुचले जाने वाले दलितों और महिलाओं से धर्म का मोह नहीं छूट रहा है। यह धर्म नाम की साजिश की सबसे बड़ी कामयाबी है कि वह जिन लोगों को लात मार-मारकर कुचलता है, वे लोग उसके पांव पडऩे के लिए उतावले रहते हैं। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं के बीच बहुत से सुधारवादी आंदोलन हुए हैं, लेकिन उन आंदोलनकारियों को धीरे-धीरे फिर धर्म और भगवान जैसा दर्जा दे दिया गया है। कबीर ने आज से सैकड़ों बरस पहले बिना किसी कानूनी हिफाजत के धर्म के आडंबरों के खिलाफ कड़ी मुहिम चलाई थी, वे दुनिया के धार्मिक इतिहास के सबसे बड़े सुधारवादी व्यक्ति थे, लेकिन आज उनकी नसीहतों को ताक पर धरकर, उन्हें ही भगवान बनाकर उन्हीं आडंबरों में उनकी उपासना को जकड़ दिया गया है, जिसके खिलाफ वे अपनी पूरी जिंदगी लड़ते रहे।
अभी तिरूपति के मामले में उपभोक्ता कोर्ट के फैसले से यह बात खुलकर साबित हुई है कि मंदिर और भक्त का रिश्ता यहां पर आकर दुकानदार और ग्राहक का रिश्ता हो गया है। अब लोगों को अपने-अपने धर्म के भीतर के इंतजाम को इस कसौटी पर कसना चाहिए कि उनका ईश्वर किस तबके पर मेहरबानी करता है, किसके साथ खड़े रहता है, किसे बेसहारा छोड़ देता है। जिन लोगों को पाप और पुण्य की धारणा में बांधकर स्वर्ग और नर्क पर भरोसा दिलाया जाता है, उनके बारे में किसी समझदार ने यह लिखा था कि मरकर स्वर्ग-नर्क जाकर कोई लौटे नहीं, और जीते-जी स्वर्ग-नर्क दिखता नहीं, तो फिर इसके बारे में जानकारी कहां से मिली है? इस झांसे को जो नहीं समझेंगे, वे अफीम चाटे हुए गुलामों से बेहतर नहीं रहेंगे, और अपने परिवार पर बलात्कार को ईश्वर की कृपा भी मानकर चलेंगे।
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7 सितंबर को राहुल गांधी की अगुवाई में कन्याकुमारी से कश्मीर तक के लिए भारत जोड़ो पदयात्रा शुरू होने जा रही है। यह डेढ़ सौ दिनों में कश्मीर पहुंचकर खत्म होगी। कांग्रेस पार्टी इसे शुरू तो कर रही है, लेकिन उसने दूसरे राजनीतिक दलों और जनसंगठनों को भी इसमें शामिल होने का न्यौता भेजा है, और यह यात्रा कांग्रेस का झंडा लेकर नहीं, देश का झंडा लेकर चलेगी। इसका नारा, ‘मिले कदम, जुड़े वतन’ रखा गया है, और 3570 किलोमीटर की यह यात्रा बारह राज्यों और दो केन्द्रशासित प्रदेशों से होकर गुजरेगी। कांग्रेस का कहना है कि यह देश में आर्थिक असमानता, सामाजिक ध्रुवीकरण, राजनीतिक तनाव के खिलाफ लोगों को आपस में जोडऩे की एक कोशिश है।
अभी यह साफ तो नहीं है कि राहुल गांधी पूरे 150 दिन इसमें पैदल चलेंगे, या बीच-बीच में संसद सत्र में जाकर लौटेंगे, या चुनाव प्रचार में जाकर वापिस आएंगे। लेकिन इसे महत्वपूर्ण इस हिसाब से माना जा रहा है कि इतनी लंबी पदयात्रा आसान भी नहीं रहेगी, और रोज का यह मुश्किल पैदल सफर अधिक लोगों के बस की बात भी नहीं होगी। बीबीसी की एक रिपोर्ट में इस यात्रा का जिक्र करते हुए 1983 की चन्द्रशेखर की पदयात्रा का जिक्र किया गया है, और 1930 की महात्मा गांधी की दांडीयात्रा का भी। चन्द्रशेखर ने भी 1983 में इसे कन्याकुमारी से शुरू किया था, और वे राजघाट तक आए थे, लेकिन उन्होंने करीब इतने ही दिनों में एक दूसरे रास्ते से करीब 4200 किलोमीटर का सफर किया था। चन्द्रशेखर ने उसे भारत यात्रा कहा था, और वे पूरे करीब छह महीने इसमें रोज पैदल चले।
गांधी का दांडी मार्च 239 मील (385 किलोमीटर) का था, और इसे उन्होंने 24 दिनों में पूरा किया था। यह पदयात्रा अंग्रेजों की नमक नीति के खिलाफ थी, और नमक बनाने पर टैक्स देने का विरोध करने के लिए गांधी ने अपने 78 साथियों के साथ यह कड़ा सफर किया था।
अभी की राहुल गांधी की यात्रा की रिपोर्ट तो आती रहेगी, लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने के साथ-साथ मैं यह भी याद कर रहा हूं कि किस तरह एक दांडी मार्च का हिस्सेदार मंै भी रहा हूं।
यह 2011 की बात है, कुछ ही महीने पहले मैं राजघाट से फिलीस्तीन के गाजा तक सडक़ के रास्ते से गए एक शांति कारवां का हिस्सेदार था। वहां से लौटे अधिक समय नहीं हुआ था कि इंटरनेट पर यह पढऩे मिला कि अमरीका के कैलिफोर्निया में कुछ भारतवंशी लोग दांडी मार्च-2 आयोजित कर रहे हैं जिसमें गांधीवादी मूल्यों को लेकर लोग गांधी के दांडी मार्च की तरह 240 मील पैदल चलेंगे। चूंकि अमरीका व्यस्त जगह है, लोगों के पास समय कुछ कम रहता है, इसलिए इन भारतवंशीय लोगों ने इसे पन्द्रह दिनों में समेट लिया था, और रोज 28-29 किलोमीटर पैदल चलना तय किया गया था।
मैंने अमरीका में बसे अपने छत्तीसगढ़ के एक दोस्त वेंकटेश शुक्ला के मार्फत उसी राज्य कैलिफोर्निया के इन आयोजकों से संपर्क किया, और वे यह जानकर हैरान हुए कि हिन्दुस्तान से कोई अखबारनवीस इस पदयात्रा में शामिल होने के लिए वहां आना चाहता है। जिन आयोजकों से मेरी बात हुई, उन्होंने पूरी ताकत से मेरा हौसला पस्त करने की कोशिश की, कि उनके पास न तो मेरी टिकट के लिए कोई बजट होगा, और न ही वे मेरे रहने-खाने का कोई सलीके का इंतजाम कर सकेंगे। उन्होंने कहा कि वे लोग तो अलग-अलग जगहों पर अपने स्थानीय समर्थकों और साथियों के घरों पर ठहरेंगे, सोने के लिए फर्श होगी, खाने के लिए मामूली खाना, और रोज चलने से कोई रियायत नहीं होगी।
मेरा महीने भर से अधिक का फिलीस्तीन का कुछ दिक्कतों वाला सफर हाल ही में हुआ था, और हौसला बुलंद था। दो दिन के भीतर वहां रवाना होना था, और मेरे पासपोर्ट पर कुछ वक्त पहले एक अमरीकी विश्वविद्यालय के न्यौते पर वहां बोलने जाने की वजह से वीजा भी लगा हुआ था।
दो दिनों में ही मैं अमरीका के कैलिफोर्निया के लॉस एंजिल्स में था, जहां इमिग्रेशन अफसर मुझसे पूछ रहा था कि मैं वहां किस मकसद से आया हूं। एक वजह यह भी रही होगी कि मेरे पासपोर्ट पर पाकिस्तान, ईरान, टर्की, सीरिया, लेबनान, इजिप्ट, और फिलीस्तीन जैसे वीजा लगे हुए थे। जब उसे अमरीका आने का मकसद बताया कि यहां 240 मील पैदल चलकर हिन्दुस्तानी समुदाय के लोगों से मिलना है, और उन्हें सहमत करना है कि वे हिन्दुस्तान में फैले भयानक भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां के अपने सांसदों और विधायकों को लिखें, तो वह अफसर चक्कर खा गया। उसे समझ नहीं आया कि हिन्दुस्तान के भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिए वहां से कोई अमरीका पैदल चलने क्यों आया है?
खैर, आयोजकों का मकसद बड़ा साफ था, वे हिन्दुस्तान में उस वक्त चल रहे अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल वगैरह के जनलोकपाल आंदोलन के समर्थन में यह पदयात्रा कर रहे थे। मैं अपनी व्यक्तिगत सोच के मुताबिक अन्ना-केजरीवाल के मुद्दे पर बिना किसी निष्कर्ष के था, और इस दांडी मार्च-2 में शामिल होने के पीछे गांधी का नाम, और गांधी की तस्वीर वाली टी-शर्ट मेरे लिए अधिक मायने रखती थी, और उस वक्त मैं अन्ना-केजरीवाल का आलोचक भी नहीं था, क्योंकि वह आंदोलन शुरू ही हुआ था।
इसके मुख्य आयोजकों में से कुछ तो वहां पर महीनों से रोज इतना चलने के लिए काफी हद तक तैयारी भी कर रहे थे, लेकिन मैं हिन्दुस्तान से जब वहां गया, तो मेरी दिन में एक किलोमीटर भी चलने की आदत नहीं थी। वहां पर पहले ही दिन से हर दिन 28-29 किलोमीटर चलना शुरू हुआ, पहली ही शाम तक पैरों के दोनों तलुवे फफोलों से भर गए, और अगली सुबह तो चलने की हालत भी नहीं थी। फिर भी लोगों को मुंह तो दिखाना ही था, इसलिए मलहम पट्टी करके, दर्द से लंगड़ाते हुए, उस वक्त के करीब सौ किलो के बदन को ढोते हुए, और उसके ऊपर करीब 12 किलो की कैमरा किट लादकर चलते हुए हर दिन एक से अधिक बार लगता था कि बस आज शाम इससे बिदा होकर लौट जाना है।
लेकिन पदयात्रा का एक अलग नशा होता है। साथ के लोग एक-दूसरे के लिए चुनौती भी बन जाते हैं। जख्म दुरूस्त होने के पहले ही नए जख्म बन जा रहे थे, और कुछ दिन तो ऐसे थे जब पूरे-पूरे दिन बर्फीला पानी बरसते रहा, और जूतों में भरा बर्फीला पानी दर्द के एहसास को बहुत हद तक दूर करने वाला भी था। हर सुबह हम किसी नये शहर में पहले से घोषित जगह से चलना शुरू करते थे, रास्ते में कहीं किसी पार्किंग, कहीं बगीचे, कहीं किसी धर्मस्थान पर लोगों से मिलना तय रहता था। हिन्दुस्तानी समुदाय के लोग कुछ खाना ले आते थे, अलग-अलग शहर के वालंटियर हमारा सामान लिए किसी गाड़ी में चलते थे, अलग-अलग घरों में रात में अमूमन फर्श पर चादर बिछाकर सो जाते थे, और सुबह-सुबह फिर निकल पड़ते थे।
अमरीका में हिन्दुस्तान की तरह की पदयात्रा मुमकिन नहीं थी क्योंकि वहां एक शहर से दूसरे शहर के बीच के हाईवे पर पैदल चलने की मनाही है, और 240 मील पूरा करने के लिए हम शहरों के भीतर गूगल-मैप से नापी गई दूरी तय करते थे ताकि कोई कमी न रह जाए। मेरे आयोजक दोस्त लगातार जनलोकपाल की बात करते थे, और हिन्दुस्तान में भ्रष्टाचार को खत्म करने के सपने देखते थे। दिलचस्प बात यह थी कि गांधी की तस्वीरों वाले टी-शर्ट, गांधी के बैनर लेकर चलने से अमरीका के भारतवंशियों के दो समुदाय इस दांडी मार्च के खिलाफ हर शहर पहुंचकर प्रदर्शन करते थे। इनमें से एक सिक्खों का संगठन था जिसका यह मानना था कि गांधी ही विभाजन के जिम्मेदार थे जिसकी वजह से लाखों लोग मारे गए थे, और वे गांधी का विरोध करने पूरे एक पखवाड़े सभी घोषित जगहों पर पहुंचकर प्रदर्शन करते रहे। दूसरा संगठन दलितों का था जो कि गांधी को दलित-विरोधी करार देता था, और वे लोग भी अपने झंडे-बैनर लेकर दांडी मार्च-2 के खिलाफ लगे रहते थे। वे गांधी को एक मनुवादी नस्लभेदी मानते थे।
मेरी दिलचस्पी अमरीकी सडक़ों पर एक पखवाड़े फोटोग्राफी की थी, लोगों से मिलने-जुलने की थी, और दांडी यात्रा जैसे ऐतिहासिक पैदल-सफर को दुहराने की थी। नतीजा यह हुआ कि हर दिन हौसला छोडऩे के बाद भी आत्मसम्मान उसे छोडऩे नहीं देता था, और मैं एक और दिन पैदल चल लेने की हिम्मत जुटाते चलता था। अमरीका की सैन डिएगो नाम की जगह से अमरीका के एक महान नेता डॉ. मार्टिन लूथर किंग की स्मृति में यह पदयात्रा शुरू हुई थी, और सान फ्रांसिस्को में 15 दिन बाद गांधी प्रतिमा पर खत्म हुई थी। जिन छह लोगों ने बिना रूके 240 मील पूरे किए थे, उनमें से मैं भी एक था। अब इस कॉलम की जगह पर उस पदयात्रा की और यादें लिखने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन राहुल गांधी की होने जा रही इस पदयात्रा के मौके पर 11 बरस पहले की वह पदयात्रा याद आ गई, बस इतना ही।
हिन्दी में बहुत पहले, आज से चालीस बरस पहले, एक पत्रिका अपने एक कॉलम के लिए हम लोगों को बड़ा खींचती थी। कहने के लिए युवा वर्ग के लिए छपने वाली इस पत्रिका में ‘मैं क्या करूं?’ नाम का एक कॉलम छपता था जिसमें लोग अपनी नौजवानी की दिक्कतों या उलझनों का जवाब चाहते थे। उस वक्त के हिसाब से उस कॉलम के सवाल भी कुछ अधिक हिम्मती रहते थे, और शायद जवाब भी। खैर, उस वक्त वैसा एक ही कॉलम हिन्दी में था, इसलिए उसे पढऩे का इंतजार रहता था। बाद में अंग्रेजी पढऩे के साथ-साथ समझ आया कि अंग्रेजी के पत्र-पत्रिकाओं में तो वैसे कॉलम का चलन आम हैं, और जिनकी कोई उलझन नहीं रहती है, वे भी वैसे कॉलमों को पढ़ते हैं। दूसरों की जिंदगी की निजी दिक्कतों को सुनना, और फिर उसे सुलझाने का सुझाव भी पढऩा, बहुत से लोगों के लिए बहुत दिलचस्पी का होता है। हालांकि कुछ परामर्शदाता ऐसे भी हैं जो कि ऐसा कॉलम लिखने के खिलाफ रहते हैं कि जिन लोगों की जिंदगी में ऐसी कोई समस्या या उलझन नहीं रहती है, वे भी उससे अपने आपको जोड़ लेते हैं, और अपने लिए वैसी कोई काल्पनिक समस्या सच मान बैठते हैं। फिलहाल अंग्रेजी में ऐसे कॉलम धड़ल्ले से चलते हैं, और इनमें संबंधों की जटिलताओं पर परामर्श से लेकर लोगों की सेक्स-जिंदगी की दिक्कतों पर सुझाव तक रहते हैं।
अभी पिछले कुछ हफ्तों से मैंने अपने फेसबुक पेज पर रिलेशनशिप-टिप नाम का एक सिलसिला शुरू किया है जिसमें गिने-चुने बीस-पच्चीस शब्दों में कोई एक ऐसी सलाह रहती है जिसके बारे में लोगों को सोचना चाहिए। यह किसी मनोवैज्ञानिक-परामर्शदाता विशेषज्ञता से उपजी हुई सलाह नहीं रहती है, लेकिन यह आम जिंदगी में खुद के जिए हुए, और दूसरों से सुने हुए से बनी धारणाएं हैं जो कि मैं दूसरों के सोचने-विचारने के लिए सामने रख देता हूं। लेकिन इससे किसी की उलझन सुलझे या न सुलझे, खुद मेरे लिए इससे अभूतपूर्व उलझनें पैदा हो रही हैं, क्योंकि आसपास के कई तरह के लोग लिखी गई एक-एक बात को मेरे उनसे रिश्तों पर कही गई बात मान ले रहे हैं, या उनके किसी और से रिश्ते के बारे में कही गई बात!
अब बात व्यक्तिगत रूप से कुछ खतरे की हो जाती है, कई संबंध और कई दोस्तियां खोने का खतरा खड़ा हो जाता है, कई लोगों से बातचीत में तनाव की नौबत आ जाती है, कुछ लोगों ने इसे साफ-साफ उनकी बेइज्जती मान लिया है, और कुछ ने यह संदेश भी भेजा कि उन्हें बेईमान-धोखेबाज लिखते हुए मुझे कोई शर्म नहीं आई? एक दोस्त ने फेसबुक पर ही यह लिखा कि उसे यह हैरानी है कि मेरे परिवार ने अब तक मुझे घर से निकालकर बाहर फेंका क्यों नहीं है? जितने मुंह, उतनी बातें।
अब बिना किसी खास उलझन के जब इस तरह की सुलझन लिखने का शौक चर्राया है, तो कुछ खतरे तो होना जायज ही था। और फिर यह किसी के पूछे गए सवाल के जवाब में लिखने के बजाय, मसीहाई अंदाज में दी गई नसीहत अधिक थी, तो मसीहा को सलीब पर तो ठुकना ही था, और वही हो भी रहा है।
दरअसल संबंधों को लेकर हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों के बीच बहुत खुली बातचीत का सिलसिला कम रहता है। लोग निजता खत्म हो जाने के डर से आसपास के लोगों से भी बहुत खुलासे से बहुत सी बातें नहीं करते। इसके अलावा सेक्स और प्रेमसंबंधों जैसे मुद्दे अभी भी अधिकतर लोगों के लिए वर्जित-विषय जैसे हैं, और उन पर भी बहुत चर्चा नहीं होती है। बहुत से प्रेमी-जोड़े भी ऐसे रहते हैं, जो आपस में जो करते भी हैं, जो जीते भी हैं, उस पर वे खुलकर चर्चा नहीं करते। यहां तक कि बात तो दो लोगों के बीच की है, लेकिन असल जिंदगी में दो लोग हमेशा ही दो नहीं रहते, और बहुत से लोगों की जिंदगी में एक तीसरे किसी के आने से कम या अधिक वक्त के लिए यह एक त्रिकोण बन जाता है, और उससे कैसे निपटना है इसका अंदाज बहुत से लोगों को नहीं रहता। वे लोग तो फिर भी खुशकिस्मत रहते हैं जिनके पास कोई राजदार ऐसी दिक्कत और परेशानी की बात करने के लिए रहते हैं, लेकिन वे भी अपनी जिंदगी के पूर्वाग्रहों पर टिकी हुई सलाह ही दे पाते हैं, उनकी सलाह भी किसी पेशेवर परामर्शदाता जैसी नहीं रहती है, और अक्सर ही वह काम की होने के बजाय बर्बाद करने वाली अधिक रहती है। लोगों को ऐसी किसी सलाह के लिए किसी से बात करते समय यह भी सोचना चाहिए कि हर शुभचिंतक अच्छे सलाहकार हों, यह जरूरी तो नहीं।
ऐसे में मुझे सूझा कि किसी एक व्यक्ति के निजी संबंधों से परे, किसी के भी किसी भी तरह के संबंधों को लेकर क्या सावधानी की ऐसी कोई बातें लिखी जा सकती हैं जो कि लोगों को समय रहते सोचने का मौका दे, सोचने पर मजबूर करे, और यह किसी सलाह या इलाज की तरह न होकर, एक रिमाइंडर की तरह रहे, और लोगों को याद दिलाए कि मुझे याद रखना। अपनी खुद की उम्र का खासा बड़ा हिस्सा गुजारने के बाद मेरे पास खुद के लिए ऐसी किसी चेकलिस्ट की जरूरत कम है, लेकिन ऐसी चेकलिस्ट बनाने के लिए तजुर्बा बड़ा लंबा है कि लोगों को संबंधों के बारे में क्या-क्या सोच लेना चाहिए।
इन बातों की चर्चा कई लोगों के मुंह में बड़ा कड़वा स्वाद छोड़ जा रही है, क्योंकि सावधानियां किसी को नहीं सुहातीं। अगर किसी से घर-दफ्तर में आग बुझाने के सामान तैयार रखने को कहा जाए, तो लोग आमतौर पर ऐसा समझ लेते हैं कि ऐसे सलाहकार उनके बुरे की ही बात सोचते हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि अगर किसी बुरी नौबत से सचमुच ही बचना है, तो वक्त रहते उसके बारे में सोचकर, उसकी कल्पना करके, उस हिसाब से तैयारी करके रखना होता है। जीवन बीमा तभी तक कराया जा सकता है, जब तक जीवन रहता है, जिसका कोई फायदा मरने के बाद बाकी परिवार को मिलता है, उसे मरने के बाद नहीं किया जा सकता। इसलिए आपसी रिश्तों में तनाव आ जाने के बाद उन तनावों की कल्पना का कोई फायदा नहीं रह जाता, तब तो वह कल्पना नहीं हकीकत हो चुकी रहती है। इसलिए संबंधों को लेकर आत्ममंथन, आत्मविश्लेषण, और मूल्यांकन जैसे काम बिगाड़ आने के पहले ही काम के रहते हैं, सब कुछ बिगड़ जाने के बाद कुछ भी बच जाना मुमकिन नहीं रहता।
इसलिए लोगों को अपने संबंधों के अपने अच्छे दिनों के चलते हुए ही बुरे दिनों की आशंका किए बिना, वैसी किसी नौबत के आने पर क्या करना चाहिए इस बारे में सोच जरूर लेना चाहिए। अब इस बात को एक मिसाल के साथ समझा जाए तो वह यह है कि आज हिन्दुस्तान में हर दिन पुलिस के पास दर्जनों या सैकड़ों ऐसी शिकायतें पहुंचती हैं कि किसी ने उनकी अंतरंग तस्वीरें, या नग्न या अश्लील वीडियो वायरल कर दिए हैं। इनमें से अधिकतर मामलों में ये वीडियो और ये तस्वीरें लोगों की खुद ही अपने साथी को दी हुई रहती हैं, और रिश्ते खराब हो जाने पर इनका नाजायज इस्तेमाल होने लगता है। अंग्रेजी में इसके लिए रिवेंज-पोर्न शब्द खासे अरसे से चल रहा है, इसका हिन्दी तरजुमा बदले का सेक्स-वीडियो जैसा कुछ हो सकता है। अब जब सब कुछ अच्छा चलते रहता है, उस वक्त लोगों को यह सूझ भी नहीं सकता कि भर्ती के अपने उस वक्त के सबसे प्यारे इंसान के साथ शेयर की गई इन निजी चीजों का कोई बेजा इस्तेमाल भी कभी हो सकता है, लेकिन सच तो यह है कि इनमें से बहुत सी चीजें किसी तीसरे-चौथे तक पहुंचती हैं, और कुछ चीजें सोशल मीडिया पर भी चली जाती हैं। अब अगर मेरी सुझाई गई बातों से लोगों को अपनी तस्वीरें और वीडियो साझा करते वक्त एक बार फिर सोचना सूझता है, तो इससे उनका भला ही हो सकता है।
मेरी सुझाई हुई हर बात यहां लिखने के लिए आज की इस जगह से कई गुना अधिक जगह लग सकती है, और लोगों को यह अटपटा भी लग सकता है कि एक उम्रदराज अखबारनवीस छिछोरेपन की लगतीं इन बातों को क्यों लिख रहा है, फिर यह भी है कि मुफ्त में दी गई सलाह की कोई इज्जत तो होती नहीं है, फिर भी जैसे बिना किसी मांग के भी कोई पेड़ फल, पत्ते, फूल देते रहते हैं, उसी तरह मैं अपने को सूझी गई बातें साझा करते रहता हूं। किसी के काम आए तो ठीक, और काम न आए, तो ये बातें मेरी डायरी सरीखी दर्ज होती चल रही हैं।
सोशल मीडिया पिछले चार दिनों से उफान पर है। खासकर खुलकर लिखने वाली महिलाओं का एक तबका ऐसा है जो फिल्म अभिनेता रणवीर सिंह की नग्न तस्वीरों को पोस्ट करके अपनी खुली सोच को सामने रख रहा है, और यह साबित भी कर रहा है कि महिलाओं की नग्न तस्वीरों को देखना जिस तरह पुरूषों ने अपना अधिकार बना रखा है, तो उसी तरह किसी पुरूष की आकर्षक और नग्न देह को देखना महिलाओं का हक भी है। ये तस्वीरें रणवीर सिंह ने सोच-समझकर खिंचवाई हैं, और कई तस्वीरों में उनके बदन पर महज पांव में पायजेब की तरह बंधा एक काला धागा भर है। कुछ आजादखयाल महिलाएं इसे महिलाओं का नयन सुख का अधिकार मानते हुए इससे भी बेहतर, मतलब इससे भी अधिक दुस्साहसी, तस्वीरों की उम्मीद कर रही हैं। एक पुरूष अभिनेता की नग्न तस्वीरों ने महिलाओं के समान अधिकार और आजादी के मुद्दे को हवा दे दी है, जिसे देखना बड़ा दिलचस्प है।
यह कोई एकदम ही पहला मौका नहीं है जब किसी हिन्दुस्तानी मर्द की ऐसी पूरी तरह से नग्न तस्वीर मीडिया में आई हो। लोगों को याद होगा कि कुछ दशक पहले एक मॉडल मिलिंद सोमन और एक प्रमुख मॉडल मधु सप्रे के बीच जूते के एक ब्रांड के इश्तहार के लिए एक फोटो खींची गई थी जिसमें ये दोनों मॉडल बिना कपड़ों के खड़े लिपटे हुए थे, और इनके बदन पर सिर्फ एक अजगर लिपटा हुआ था। दोनों ने बस जूते पहन रखे थे, और किसी जूते का उससे अधिक दमदार इश्तहार हो नहीं सकता था। मिलिंद सोमन की कई दूसरी नग्न तस्वीरें इस इश्तहार से परे भी सामने आई थीं, और चौथाई सदी पहले इन तस्वीरों ने बड़ी खलबली भी मचाई थी।
अब हिन्दुस्तान के बिल्कुल ही ताजा और राजनीतिक सांस्कृतिक-पैमानों को छोड़ दें, तो नग्नता भारतीय संस्कृति में कोई नई बात नहीं है। सैकड़ों बरस पहले इस देश में जो मंदिर बने हैं, उनके भीतर और उनके बाहर देवी-देवताओं से लेकर दूसरे लोगों तक की नग्न प्रतिमाओं का बड़ा लंबा इतिहास है। खजुराहो जैसे मंदिर देश भर में बिखरे हुए हैं जहां पर संभोगरत लोगों की प्रतिमाएं सिर चढक़र बोलती हैं। कृष्ण की अनगिनत कहानियों में बिना कपड़ों के गोपियां पानी में खड़ी हैं, और कृष्ण कपड़ों सहित पेड़ पर चढ़े हुए उसका मजा ले रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी की ताजा और हमलावर शुद्धतावादी सनातनी संस्कृति के फतवों को छोड़ दें, तो हिन्दुस्तान के हिन्दुओं में भी नग्नता को कभी बुरा नहीं माना गया है। यहां पर कई धर्मों के सन्यासियों का बिना कपड़ों के रहना पूरी तरह सामाजिक मान्यताप्राप्त है। कुंभ के मेले मेें तो नागा साधुओं की तस्वीरें लेने के लिए दुनिया भर से विदेशी फोटोग्राफरों की फौज हर बार आती ही है, लेकिन ऐसे कैमरों और नाटकीयता से दूर जैन धर्म के कुछ सन्यासियों के बीच बिना कपड़ों पूरी तरह नग्न रहना भी प्रचलित है, और समाज उसके साथ आसानी से, आस्था सहित जी लेता है, इसे लेकर कभी कोई बवाल खड़ा नहीं होता। बल्कि अनजाने नागा साधुओं की गोद में भी आम हिन्दुस्तानी लोग अपने बच्चों को देकर उनका आशीर्वाद दिलवाते हैं, और किसी को इसमें कुछ अटपटा नहीं लगता। लेकिन सदियों से चली आ रही ऐसी हिन्दू और हिन्दुस्तानी संस्कृति को आज के हिंसक और हमलावर धार्मिक और सांस्कृतिक फतवों को झेलना पड़ रहा है, और आज की नग्नता इन नवशुद्धतावादी पैमानों पर ही आंकी जा रही है।
यह तो गनीमत है कि अभी की ये ताजा तस्वीरें रणवीर सिंह की हैं, अगर ये शाहरूख खान या सलमान खान की होतीं, तो इन्हें भारतीय संस्कृति पर हमला करार देकर इनको देश भर में दसियों हजार जगहों पर जलाया जाता, और इन्हें भारतीय संस्कृति का गद्दार करार दिया जाता। लेकिन यह देह एक गैरमुस्लिम की है, इस नाते यह नग्नता उतना बड़ा जुर्म नहीं है।
सोशल मीडिया लोगों की बर्दाश्त को तौलने का एक बड़ा अच्छा जरिया भी हो गया है। बदनीयत से भाड़े पर हमले करने वाले, या प्रचार करने वाले लोगों की शिनाख्त आसान रहती है, लेकिन उनसे परे के जो लोग रहते हैं, उनकी प्रतिक्रियाओं से यह समझ आता है कि नाजुक मुद्दों पर लोग क्या सोच रहे हैं, पिछली पीढ़ी से अलग, या उसके मुकाबले क्या सोच रहे हैं, और इस बर्दाश्त को और कितनी दूर तक खींचा जा सकता है। यह बात हम सिर्फ नग्नता के बारे में नहीं कह रहे, जिंदगी के किसी भी पहलू को लेकर कह रहे हैं। जिस वक्त इस देश में गणेश के दूध पीने का पाखंड प्रचारित हुआ था, उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था, वरना दूध भी फैलता, और दूध फट भी जाता। पाखंड के खिलाफ भी लिखने वाले लोग रहते, और जो दोनों सिरों के बीच अनिश्चय में फंसे लोग रहते, उन्हें भी दोनों किस्म की बातें पढऩे मिली होतीं, और उनसे वे अपना दिमाग बना पाते।
रणवीर सिंह की नग्न तस्वीरों ने महिलाओं के एक बड़े तबके को इस निराशा से उबरने में मदद की होगी कि महिलाओं की नग्न तस्वीरों को देख-देखकर मर्द मजा लेते हैं। यह बराबरी का कुछ हिसाब चुकता करने का मौका भी है, और साथ ही इस बात का भी मौका है कि औसत हिन्दुस्तानी मर्द जो कि सबसे खूबसूरत मॉडल्स के बदन देख-देखकर अपनी बीवियों को नीची नजर से देखते हैं, आज उन्हें रणवीर सिंह के बदन के मुकाबले अपने बदन को भी तौलने का मौका मिला होगा कि उनका बदन भी नीची नजरों से देखने लायक ही है, और वह तो शायद बिना कपड़ों के किसी कैमरे के सामने पेश करने लायक भी नहीं है। इसलिए चार-छह तस्वीरों का यह सैलाब सबके सोचने का सामान है, औरत और मर्द के बराबरी के हक के दावे का भी, और अपने-अपने बदन का ख्याल रखने का भी।
केन्द्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने अदालतों और देश की न्याय व्यवस्था से अपील की है कि आजादी की 75वीं सालगिरह, 15 अगस्त 2022 पर अधिक से अधिक विचाराधीन कैदियों को रिहा करने की कोशिश की जाए। उन्होंने कल जयपुर में 18वीं अखिल भारतीय कानूनी सेवा अथॉरिटी के आयोजन में न्याय व्यवस्था से यह अपील की। उन्होंने कहा कि देश के हर जिले में विचाराधीन कैदियों के मामलों पर विचार करने के लिए जिला जज की अगुवाई में रिव्यू कमेटी हैं, और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों को दिलचस्पी लेकर इस काम को आगे बढ़ाना चाहिए, और अधिक से अधिक लोगों को रिहा करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि जो लोग पैसे वाले हैं, वे काबिल वकीलों की सेवाएं ले सकते हैं। अगर वकील एक-एक पेशी का दस-पन्द्रह लाख रूपए तक लेते हैं तो आम लोग यह खर्च कैसे उठा सकते हैं? उन्होंने कहा कि अदालतें सिर्फ ताकतवर लोगों के लिए नहीं हो सकतीं, और उनके दरवाजे सभी के लिए खुले रहने चाहिए।
इसी कार्यक्रम में मंत्री की बातों के जवाब में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने कहा कि देश में अदालती मामलों के बढऩे की मुख्य वजह अदालती कुर्सियों का खाली रहना है। उन्होंने कहा कि आज कि जजों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं, और अदालती ढांचे में साधन-सुविधा की कमी भी है, इस वजह से भी सुनवाई और फैसलों में वक्त लगता है, और मामले बढक़र करोड़ों में पहुंच गए हैं। उन्होंने कहा कि आज जजों के मंजूर पद भी दस लाख आबादी पर बीस जजों के हैं, जो कि बहुत ही नाकाफी हैं। जब तक जिला अदालतों का ढांचा मजबूत नहीं होगा, न्याय व्यवस्था की बुनियाद मजबूत नहीं होगी।
कानून मंत्री और मुख्य न्यायाधीश की मंच और माइक से औपचारिक बातों की एक सीमा रहती है, और उनसे बहुत सी सच्चाईयों पर बोलने की उम्मीद नहीं की जा सकती। जो लोग भारत की न्याय व्यवस्था से जूझते हैं, वे जानते हैं कि न्याय व्यवस्था का एक हिस्सा, जांच और मुकदमा चलाने वाली एजेंसियों का भ्रष्टाचार भी अदालती बोझ बढऩे की एक बड़ी वजह है। पुलिस से लेकर दूसरी जांच एजेंसियों तक के काम में भारी भ्रष्टाचार रहता है, और इससे गुजरते हुए भी जब कोई मामला अदालत तक पहुंचता है, तो न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार कोई अनसुनी या अनोखी बात नहीं है। लोगों को याद होगा कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के भ्रष्ट होने का आरोप लगाने वाले देश के दो सबसे बड़े वकीलों, शांतिभूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण पर अदालत की अवमानना का मुकदमा भी चलाया गया था, और पिता-पुत्र ने कोई माफी मांगने से इंकार भी कर दिया था। फिर भ्रष्टाचार सिर्फ आर्थिक भ्रष्टाचार हो यह भी जरूरी नहीं है, हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के जजों के बीच एक और किस्म का भ्रष्टाचार बड़ा आम है, उनके रिटायर होने के बाद पुनर्वास की उनकी महत्वाकांक्षा। आज देश-प्रदेश में सैकड़ों ऐसी कुर्सियां तय की गई हैं जिन पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों को ही तैनात किया जा सकता है। इन ओहदों पर इन भूतपूर्व जजों को अगले कई बरस के लिए बंगला, गाड़ी, मोटा वेतन, इन सबकी सहूलियत रहती है, और बहुत से जजों की नजरें इन पर टिकी रहती हैं। मानवीय स्वभाव को देखते हुए यह मानने की कोई वजह नहीं है कि सरकारों से ऐसे तोहफे की उम्मीद करने वाले जजों में से कुछ जज अपने आखिरी बरसों में ऐसे फैसले देते होंगे जो कि सरकार को खुश करने वाले रहते होंगे। हमने नौकरी के आखिरी महीनों में ऐसे फैसले देने वाले जज देखे हैं जो कि उसके तुरंत बाद किसी राजभवन में राज्यपाल होकर चले गए, या राज्यसभा चले गए।
जब तक हितों के टकराव का यह मामला निपटाया नहीं जाएगा, तब तक इंसाफ नाम के सिलसिले पर सरकारी असर का खतरा टलेगा नहीं। अदालतें अपने फैसलों में कई मामलों में हितों के टकराव का मुद्दा उठाती हैं, लेकिन खुद जजों के रिटायर होने के बाद उनकी मंजूर की जाने वाली कुर्सियों को लेकर हितों के टकराव की बात कभी नहीं उठती। हमने तो इसी जगह पर कुछ महीने पहले यह सुझाव भी दिया था कि कोई हाईकोर्ट जज जिन राज्यों में काम कर चुके हैं, उन राज्यों में उन्हें रिटायरमेंट के बाद कोई ओहदा नहीं मिलना चाहिए, ताकि वे अपने आखिरी बरसों में सरकार को खुश करने के खतरे से बच सकें। इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर रिटायर्ड जजों के लिए तय की गई कुर्सियों को भी घटाना चाहिए, और उनके रिटायर होने के बाद कुछ बरस तक उनके किसी भी ओहदे पर जाने पर रोक लगानी चाहिए। यह मामला केन्द्रीय कानून मंत्री और मुख्य न्यायाधीश की कही बातों से अलग है, लेकिन जब देश की न्याय व्यवस्था पर असर रखने वाले ये दो सबसे बड़े लोग बात कर रहे हैं, तो उन्हें जजों के हितों के टकराव, और अदालती भ्रष्टाचार की बात याद दिलाना भी जरूरी है क्योंकि इस पर इन दोनों ने इस कार्यक्रम में कुछ नहीं कहा।
दरअसल सरकार में बैठे लोगों को भी यह बात सुहाती है कि वे जजों को रिटायर होने के बाद कुछ देने का अधिकार अपने पास रखें। जाहिर है कि लोग लेन-देन की मानवीय व्यवस्था को समझते हैं, और आज एक हाथ दिया, कल दूसरे हाथ लिया की व्यवहारिकता को भी जानते हैं। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। आज हिन्दुस्तान में आम लोगों का विश्वास न्याय व्यवस्था पर से पूरी तरह उठ चुका है। अदालत से इंसाफ पाने के बजाय अगर उनके पास मुम्बई के किसी माफिया के घर जाकर वहां से इंसाफ पाने का कोई विकल्प हो, तो शायद बहुत से लोग उसे बेहतर समझेंगे। आज हिन्दुस्तान की अदालतों में प्रक्रिया ही पनिशमेंट हो गई है। फैसला चाहे जो हो, मुकदमे के चलते हुए लोग बरसों तक जो यातना झेलते हैं, वह फैसले के बाद की संभावित सजा से अधिक हो जाती है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। भारत की न्याय प्रणाली में सुधार के लिए सरकार और अदालत को सामाजिक कार्यकर्ताओं और दूसरे लोगों को शामिल करना चाहिए, वरना सरकार और अदालत एक-दूसरे की बातों तक सीमित रह जाएंगे।
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के इस्तीफे की खबर आने के बाद वहां की राजनीतिक परंपरा के मुताबिक सत्तारूढ़ पार्टी अपने भीतर उसका विकल्प ढूंढना शुरू कर रही है। और इसके लिए पार्टी के भीतर के नेता अपना दावा पेश कर सकते हैं, जिनमें से अधिक समर्थन वाले दो लोगों को छांटा जाएगा, और फिर उनके भीतर मुकाबला होगा। एक भारतवंशी कंजरवेटिव सांसद ऋषि सुनक ने वित्तमंत्री के पद से इस्तीफा दिया था, और अब उन्होंने यह दावा किया है कि वे अगला प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं ताकि विश्वास बहाल किया जा सके, अर्थव्यवस्था का पुनर्निर्माण किया जा सके, और देश को फिर से जोड़ा जा सके। ऋषि सुनक के दादा-दादी पंजाब से काम करने ब्रिटेन आए थे, और फिर उन्हीं के परिवार का यह लडक़ा पढऩे अमरीका गया, और लौटकर सांसद बना, ब्रिटेन का वित्तमंत्री बना, और अब प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल है।
इस नाम पर खुशियां मनाते हुए हिन्दुस्तानियों को याद दिलाते हुए सोशल मीडिया पर किसी ने लिखा है कि आज हिन्दुस्तानियों का दिल बाग-बाग हो रहा है, लेकिन जब सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने का आसार दिख रहा था, तो उसके खिलाफ सिर मुंडाकर जमीन पर सोने के लिए हिन्दुस्तानी राजनेता तैयार थे। उल्लेखनीय है कि सोनिया गांधी की पार्टी को संसदीय बहुमत मिलने के बाद उनके प्रधानमंत्री बनने पर कोई रोक नहीं बची गई थी, और इसके खिलाफ सुषमा स्वराज ने लोकसभा में कहा था कि अगर वे प्रधानमंत्री बनती हैं तो मैं इस राष्ट्रीय शर्म में भागीदार नहीं बनूंगी, सिर मुंडवा लूंगी, सफेद साड़ी पहनूंगी, जमीन पर सोऊंगी, और सूखे चने खाऊंगी। खैर, सोनिया गांधी ने सुषमा स्वराज के लिए दिक्कतें खड़ी नहीं की थीं, और प्रधानमंत्री बनने से खुद ही इंकार कर दिया था। लेकिन हिन्दुस्तानियों को विदेशी मूल की भारतीय बन चुकी बहू को भी मंजूर करने में खासी दिक्कत होती है, लेकिन बिना किसी भारतीय योगदान के अमरीकी उपराष्ट्रपति बनने वाली कमला हैरिस के मूल पर उन्हें गर्व होता है।
हिन्दुस्तान भी गजब के पाखंडों से भरा हुआ देश है। जब तक कोई नए कारोबारी हिन्दुस्तान में काम करना चाहते हैं, यहां की सरकारें अपने भ्रष्टाचार से उनका खून तक निचोड़ लेना चाहती हैं। फिर जब वे दुनिया के कामयाब देशों में जाकर अपनी काबिलीयत से शोहरत और कामयाबी पा लेते हैं, तब भारत सरकार वहां जाकर उन्हें पूंजीनिवेश का न्यौता देती हैं। लेकिन जब तक वे, या वैसे लोग सीधे हिन्दुस्तान में काम शुरू करते हैं, तो सरकारी अड़ंगा उन्हें दो कदम भी आगे बढऩे से रोकता है। जब किसी तरह का विदेशी ठप्पा उनकी कामयाबी पर लग जाता है, तो वे भारतवंशी मान लिए जाते हैं, और भारत उन पर गौरव करने लगता है। अंग्रेजों के समय की गुलामी की सोच अब तक खत्म नहीं हुई है, और जब कोई गोरी सील किसी देसी कामयाबी पर लग जाती है, तो वह देसी प्यारा हो जाता है। इसलिए आज ऋषि सुनक हिन्दुस्तानियों की आंखों का तारा बना हुआ है, और उसके नाम से हिन्दुस्तानी राष्ट्रवाद के फतवे ट्वीट हो रहे हैं कि प्रधानमंत्री बनकर भारत से वहां गया सारा सामान वापिस भिजवाना, फिर ब्रिटेन को तोडक़र अंग्रेजी राज का बदला निकालना।
हिन्दुस्तान के अधिकतर लोगों को यह फर्क करने की फिक्र नहीं रहती कि परदेस में किसी भारतवंशी की कामयाबी में कितना बड़ा योगदान भारत का रहा है, और कितना उस देश का रहा है जहां पर वह सरकार रहने के बावजूद कामयाब हो सका है। भारत में सरकार रहने के बावजूद कामयाब हो पाना उससे कई गुना अधिक मुश्किल रहता है, और अधिकतर लोग संभावनाओं की ऐसी धरती पर जाकर काम करना बेहतर समझते हैं जहां पर सरकारें न कामकाज को काबू करती हैं, और न ही लोगों की कामयाबी की राह पर रोड़ा रहती हैं। हिन्दुस्तान की एक दिक्कत यह हो गई है कि बिना अपने किसी योगदान के भी वह इतना गौरव पा लेता है, उसमें इतना डूब जाता है कि उसे अपने खुद के खड़े गौरव को पाने लायक कोई काम करने की जरूरत लगती नहीं है। आमतौर पर हिन्दुस्तानी एक काल्पनिक इतिहास की कहानी गढक़र उसके गौरव के वारिस बनकर सिर ताने घूमते हैं, और प्लास्टिक सर्जरी से लेकर हर किस्म के विज्ञान का पेटेंट अपने ही दस्तखत से खुद ही को देकर खुश रहते हैं। बिना किसी नशे के इस हद तक, इस तरह खुश रहने वाला शायद ही और कोई समाज होगा। अब इस काल्पनिक इतिहास से परे आज का खरा कामयाब वर्तमान अगर दुनिया में कहीं भी है, और उससे कोई भारतवंशी जुड़ा हुआ है, तो वह तुरंत भारत की वजह से कामयाब करार दे दिया जाता है, और उसका अभिनंदन करने के लिए समारोहों के आयोजन के शौकीन लोग घूमने लगते हैं, जिनमें भारत की सरकार भी शामिल रहती है।
भारती मूल की कोई लडक़ी, भारत के किसी भी योगदान के बिना अगर किसी और देश से अंतरिक्ष की यात्रा पर जाती है, तो भी वह भारत के लिए उत्तेजक गौरव की बात हो जाती है, और फिर मानो वही गौरव हमारे लिए पर्याप्त कामयाबी हो जाता है, अपनी खुद की और कोई असल कामयाबी जरूरी नहीं रह जाती। कल्पना चावला अंतरिक्ष में चली जाए, और फिर हिन्दुस्तानी पीढ़ी झंडे-डंडे लेकर साम्प्रदायिक तनाव में डूबी रहे, तो भी देश किसी काल्पनिक इतिहास के गौरव में मदमस्त डूबा रहता है, और आज के साम्प्रदायिक वर्तमान के गौरव में भी। ऋषि सुनक को लेकर भारत के लोगों की ऐसी उत्तेजक, गर्वभरी उम्मीदें अंग्रेज अगर सुन लेंगे, तो उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं ही खत्म हो जाएंगी कि भला ऐसे भारतवंशी को प्रधानमंत्री क्यों बनाया जाए जो ब्रिटिश संग्रहालयों को खाली करके सारी कलाकृतियां हिन्दुस्तान भेज देगा, और ब्रिटेन को तोडक़र भारत पर अंग्रेजी राज का बदला निकालेगा।
हिन्दुस्तानियों के गौरव की अनुभूति गजब है, और हिन्दुस्तानी समाज की सामूहिक चेतना के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की बड़ी जरूरत है।
धर्म का पहला हमला सोचने-समझने की शक्ति पर होता है। और इसके साथ-साथ ही लोगों की सामान्य समझबूझ जवाब दे जाती है, विश्लेषण करने की ताकत खत्म हो जाती है, और दिमाग पर जोर डालने वाली तमाम चीजें खत्म हो जाती हैं। दरअसल धर्म के बाद इनमें से किसी की भी कोई जरूरत भी नहीं रहती। धर्म जिस आस्था की तरफ लोगों धकेलता है, उस राह पर तो सोचने की ताकत एक बड़ा रोड़ा ही हो सकती है। इसलिए धर्म असरदार तभी होता है जब उसे मानने वाले लोग दिमाग के किसी भी तरह के इस्तेमाल के खिलाफ खड़े हो जाएं।
अभी नाइजीरिया से खबर है कि वहां एक चर्च के कब्जे से पुलिस ने 77 लोगों को छुड़ाया है। इनमें 54 बालिग थे, और 23 बच्चे, जिन्हें सम्मोहित करके चर्च के तहखाने में कैद करके रख लिया गया था, और वहां का पादरी उन्हें भरोसा दिलाते जा रहा था कि यीशु मसीह लौटकर आने वाले हैं। ये सारे लोग आस्थावान और धर्मालु ईसाई थे, और चर्च जाने वाले, ईश्वर को मानने वाले लोगों के लिए इससे बड़ा और कौन सा मोह हो सकता है कि ईश्वर आने वाले हैं, किसी भी पल आने वाले हैं, और उन्हें इंतजार करना चाहिए। जब चर्च में कैद और सम्मोहित ऐसे बच्चों में से कुछ के मां-बाप ने पुलिस में शिकायत की तो पुलिस ने वहां पहुंचकर बलपूर्वक इन लोगों को छुड़ाया। इनमें से कई बच्चे तो जनवरी से ही चर्च में आए हुए थे, और तब से यीशु मसीह का रास्ता देख रहे थे। बहुत से बच्चों ने स्कूल की पढ़ाई छोड़ दी थी, और इस चर्च के तहखाने में कैद रहकर वे इंतजार कर रहे थे कि पादरी कब यीशु मसीह को लेकर आएंगे। पढ़ाई-लिखाई में बड़े होनहार बच्चे भी पढऩा छोड़ चुके थे, और वे यीशु मसीह से मुलाकात को पढ़ाई से अधिक महत्वपूर्ण मान रहे थे। पहले उन्हें अप्रैल के महीने में इस आगमन की बात कहकर जनवरी से रोककर रखा गया था, और जब अप्रैल निकल गया तो अगली तारीख सितंबर की दी गई थी।
यह पूरा सिलसिला बिना हिंसा के भी भयानक है, क्योंकि यह ईश्वर या उसके एजेंट, किसी पादरी की बात को आंख मूंदकर मान लेने की एक गुलाम मानसिकता पैदा कर चुका है। इक्कीसवीं सदी के बाइसवें बरस में जब विज्ञान अपनी अपार ताकत साबित कर चुका है, जब दुनिया के विकसित देशों में धर्म का नाम का पाखंड किनारे होते चल रहा है क्योंकि लोग नास्तिक होते जा रहे हैं, ऐसे में एक पिछड़े हुए गरीब देश में चर्च का पादरी पौन सौ लोगों को महीनों तक गुलाम बना सकता है कि ईश्वर आने वाले हैं, तो इसकी जगह कोई हिंसक पादरी किसी दूसरे धर्म वाले का गला भी काटने को कह सकता है। अभी हिन्दुस्तान इसी पर उबल रहा है कि मोहम्मद पैगंबर के अपमान की हिमायत करने वाले एक हिन्दू दर्जी का गला दो मुस्लिमों ने इसी बात के लिए काट दिया। एक दूसरा मामला भी इसी किस्म का हुआ बताया जाता है, जिसकी जांच चल रही है। हिन्दुस्तान में 140 करोड़ से अधिक गले हैं, और गिनती में कम से कम उतने ही चाकू या दूसरे औजार भी होंगे। अगर ईश्वर के नाम पर लोगों को उकसाकर और भडक़ाकर इस हद तक आग लगाई जा सकती है कि लोग एक-दूसरे के गले काटने को तैयार हो जाएं, तो यह इंसानी साजिश और धर्म की धारणा, इन दोनों का मिलाजुला करिश्मा है जो कि किसी भी देश या समाज को खत्म करने की ताकत रखता है।
जिन घटनाओं से यह अच्छी तरह साबित हो जाना था कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, धर्मान्ध लोग उन घटनाओं के वैसे पहलुओं को अनदेखा करते चलते हैं, और धर्मान्धता को बढ़ाने वाले पहलुओं को बढ़ाते चलते हैं। आज हिन्दुस्तान में धर्म का सामाजिक योगदान सिर्फ नफरत फैलाने वाले एक हथियार जितना रह गया है, और धर्म से जुड़े हुए जिस ईश्वर की महिमा गाई जाती है, वह ईश्वर अपने नाम के हिंसक और नफरती इस्तेमाल का मानो मजा लेते बैठा है। आज की तमाम घटनाएं यह साबित करती हैं कि अगर ईश्वर का कोई अस्तित्व हुआ होता, तो वह या तो पूरी ताकत से नफरती-हिंसक लोगों पर टूट पड़ता, या फिर अपनी लाचारी में खुदकुशी कर लेता। लेकिन इनमें से कुछ भी होते नहीं दिख रहा है, हत्या भी ईश्वर के अनुयायी कर रहे हैं, और आत्महत्या भी वे ही लोग कर रहे हैं।
धर्म के पाखंड और ईश्वर के काल्पनिक होने के जितने सुबूत अभी सामने आ रहे हैं, वे फौलादी चट्टान सरीखे मजबूत हैं। अगर धर्म का यही हिंसक सिलसिला कुछ और वक्त जारी रहा, तो हो सकता है कि योरप के विकसित देशों की तरह हिन्दुस्तान जैसे देश में भी लोग धर्म से थक जाएं, और उससे उबर भी जाएं। लोग कहते हैं कि बुरी चीजों का घड़ा जब तक पूरा भरता नहीं है तब तक फूटता नहीं है। आज धार्मिक हिंसा का मामला कुछ ऐसा ही हो रहा है। लोगों को एक-दूसरे के गले काटने की हद तक उकसाने और भडक़ाने वाली धार्मिक साजिशें बहुत से लोगों को यह सोचने पर मजबूर करेंगी कि अगर ईश्वर कहीं होता तो ऐसे लोगों के सिरों पर अपना डंडा क्यों नहीं तोड़ता? आज यह धर्म ही तो है जिसने राजस्थान में शंभूलाल रैगर नाम के एक हमलावर और हिंसक हिन्दू को यह हौसला दिया था कि वह एक मुसलमान मजदूर को जिंदा जलाकर मारे, और इसका वीडियो बनाकर, मुस्लिम को जलाकर मारने का दावा करे, और रैगर के धर्म वाले उसके समर्थन में जुलूस निकालें, अदालत पर धर्म का झंडा फहराएं। पांच बरस पहले के रैगर के ऐसे वीडियो ने अभी इसी हफ्ते उसी राजस्थान में दो मुस्लिमों को उकसाया, और उन्होंने जाकर एक हिन्दू का गला काट दिया क्योंकि उसने मोहम्मद पैगंबर की बेइज्जती के समर्थन में पोस्ट किया था। शंभूलाल रैगर ने तो जिस मुस्लिम मजदूर को जलाकर मारा था, और उसका वीडियो बनाया था, उसने तो किसी ईश्वर का अपमान भी नहीं किया था, उसका जुर्म तो महज मुस्लिम होना था। और ऐसे हत्यारे रैगर के साथ राजस्थान में दसियों हजार हिन्दू खड़े हो गए थे, जिसका इस धरती पर योगदान सिर्फ एक मुस्लिम को जिंदा जलाकर मारना था।
धर्म लोगों को हद से अधिक हिंसक होने का हौसला देता है, उनसे तरह-तरह की हिंसा करवाता है, वह जम्मू में एक मुस्लिम खानाबदोश छोटी सी बच्ची से मंदिर में पुजारी से लेकर पुलिस तक आधा दर्जन हिन्दुओं के किए बलात्कार का शिकार बनाता है, वह ओडिशा में ईसाई धर्मप्रचारक ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जला देने का हौसला देता है, और यह धर्म अपने मानने वालों को यह हौसला भी देता है कि ओडिशा से लेकर गुजरात तक ऐसी धार्मिक हत्याएं करने वाले लोगों का सार्वजनिक अभिनंदन भी करें। आज धर्म दुनिया का सबसे हिंसक हथियार बन चुका है, और जिस तरह आज अमरीका में आम लोग हथियारों से थोक में होने वाली हत्याओं को देखकर थक रहे हैं, हो सकता है कि दुनिया में समझदार लोगों का एक तबका धर्म के इस खूनी और जानलेवा रह गए असर से थके, और इससे दूर हो। फिर भी अगर किसी दिन धर्म में गिनती के लोग भी बच जाएंगे, तो उस दिन यह मान लेना ठीक होगा कि धरती पर गिनती में उतने संभावित कातिल बच गए हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जिस अफगानिस्तान में तालिबान के आने के बाद अमरीकी और पश्चिमी मदद बंद हो जाने से लोग भुखमरी के करीब पहुंच रहे हैं, वहीं पर बड़ा बुरा भूकंप आया, और हजार के करीब लोग अपने कच्चे मकानों के मलबे में ही दबकर मर गए। तालिबान-सरकार के पास न अस्पताल हैं, न इलाज है, और न ही मकानों का मलबा उठाने के लिए मशीनें हैं कि लोगों को बचाया जा सके। दूसरी तरफ रूस और यूक्रेन के बीच जो जंग चल रही है, उसके चलते यूक्रेन के अनाज भंडार वहां से निकाले नहीं जा रहे हैं, और नतीजा यह है कि दुनिया के कई देशों तक पहुंचने वाला यह अनाज बर्बाद होने जा रहा है, और खाने के बिना दसियों लाख लोग भुखमरी की कगार पर हैं। ये तमाम गरीब अफ्रीकी देश हैं, जहां की आबादी मुस्लिम और ईसाई है, धर्मालु है, ठीक उसी तरह की है जिस तरह की अफगानिस्तान में गरीब मुस्लिम हैं।
अब दुनिया की आज की इस पूरी तस्वीर को देखें तो लगता है कि जहां अधिक गरीबी और अधिक भुखमरी है, वहीं पर और अधिक मुसीबतें भी आ रही हैं। इस हाल को देखकर उन नास्तिकों के सोचने का तो कुछ नहीं है जो कि ईश्वर को नहीं मानते। लेकिन जो लोग ईश्वर को मानते हैं उनको यह सोचना चाहिए कि सबसे बदहाल लोगों पर मुसीबतों के और पहाड़ गिराना ईश्वर का कौन सा तरीका है? जिस ईश्वर को सर्वत्र, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कहा जाता है, उसकी शक्ति तब कहां चली जाती है जब जम्मू के एक मंदिर में पुलिस से लेकर पुजारी तक, आधा दर्जन लोग एक गरीब खानाबदोश बच्ची से मंदिर में सामूहिक बलात्कार करते हैं, और उसे मार डालते हैं। उस वक्त कण-कण में मौजूद ईश्वर कहां रहता है? उस बच्ची से जिस जगह बारी-बारी से बलात्कार हो रहा था, उस जगह पर भी तो हर कण में ईश्वर के रहने की गारंटी धर्मालु लोग मानते हैं। वे यह भी मानते हैं कि उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। तो फिर उस बच्ची की देह बलात्कार के दौरान कैसे हिली होगी? कैसे बलात्कारियों के शरीर के कुछ हिस्से उस ईश्वर की मर्जी के बिना बलात्कार के लायक तैयार हो जाते हैं? नास्तिक को तो इनमें से किसी सवाल का जवाब ढूंढने की जरूरत नहीं है, क्योंकि उसे धर्म और ईश्वर के पूरे पाखंड की अच्छी तरह खबर है, लेकिन आस्थावानों को अपने ईश्वर से अगली प्रार्थना के दौरान ये सवाल जरूर पूछने चाहिए।
दरअसल धर्म ने आस्थावानों को सभी तरह की पाप की धारणा से मुक्त हो लेने की पूरी सहूलियत जुटाकर दी है। तथाकथित ईश्वर के एजेंट और दलाल तरह-तरह की तरकीबें निकालकर रखते हैं कि किस तरह के जुर्म और उससे लगने वाले पाप से मुक्ति पाई जा सकती है। कुछ धर्मों में थोड़ा-बहुत जुर्माना रखा गया है कि किसी पंडित-पुरोहित को कुछ खिलाकर, कुछ दान देकर, कुछ और भूखों को अन्न देकर किस तरह पापमुक्ति हो सकती है। ऐसे मुक्त लोग एक नए उत्साह के साथ, एक नई ताकत के साथ फिर बलात्कार करने के लिए धरती में घूमना शुरू कर देते हैं, और धर्म उनके लिए वियाग्रा सरीखा रहता है जो कि उनकी उत्तेजना बढ़ाते रहता है। जुर्म और पाप से असली सजा मिलने का डर अगर किसी को रहता, तो उनका बदन उत्तेजित ही नहीं हो पाता। लेकिन धर्म से सहूलियतें बहुत रहती हैं, और ऐसी एक सहूलियत लोगों को बलात्कार के लिए तैयार होने में मदद करती है। एक बूढ़ा पुजारी भी अपने ही मंदिर में दूसरे धर्म की गरीब बच्ची से सामूहिक बलात्कार को न सिर्फ तैयार हो जाता है, बल्कि अपने बाद और लोगों को भी न्यौता दे-देकर बुलाता है, इसका मतलब है कि उसे ईश्वर की ताकत के बारे में सही-सही अंदाज है, क्योंकि मंदिर में मौजूद प्रतिमाओं के इतने करीब ऐसा काम भी ईश्वर को दिखेगा नहीं, वह कुछ करेगा नहीं, और वह दरअसल है ही नहीं, इसका पूरा भरोसा बलात्कारी पुजारी को रहा होगा, तभी एक गरीब बच्ची को देखकर भी उसका बूढ़ा बदन उत्तेजना से तैयार हो गया होगा।
सोशल मीडिया पर कल से कुछ वीडियो तैर रहे हैं जिनमें तीन-चार बरस की एक मुस्लिम बच्ची और उसी उम्र के एक बच्चे को गंदी गालियां देते हुए कोई जाहिर तौर पर हिन्दू लगने वाला नौजवान उनके मुंह से अल्लाह के नाम गंदी गालियां निकलवाना चाह रहा है, और इस पूरे सिलसिले का वीडियो भी बनाया गया है, जो कि फैलाया गया होगा। और ये वीडियो इंस्टाग्राम पर एक अकाऊंट में पोस्ट भी किए गए हैं जो कि पोस्ट करने वाले की शिनाख्त भी बताते हैं, और उनका यह हौसला भी कि वे तीन-चार बरस के बच्चों को किस किस्म की गंदी गालियां देकर उनसे अल्लाह को गंदी गालियां दिलवाना चाह रहे हैं। अब धर्म ऐसा ही होता है। अपने धर्म और अपने ईश्वर का नाम दूसरे धर्म के लोगों से लिवाने के लिए लोग बुरी तरह हिंसा करते भी आए दिन किसी न किसी वीडियो में दिखते हैं। इसी तरह वे दूसरे धर्म के ईश्वर के नाम गालियां देते हुए, और गालियां दिलवाने के लिए हिंसा करते हुए भी दिखते हैं। अब ऐसे धर्मों के ईश्वर अगर कहीं पर हैं, तो वे धार्मिक फिल्मों या धार्मिक सीरियल की तरह अपने ऐसे हिंसक भक्तों के हाथ-पैर क्यों नहीं तोड़ते? जब कभी आस्थावान लोग अपने ईश्वर से अगली बार मोबाइल फोन पर, या किसी प्रार्थना के दौरान बात करें, तो उन्हें इस बारे में भी पूछना चाहिए।
जिन लोगों को भी धर्म को लेकर कोई गलतफहमी है, वे जान लें कि दुनिया के सबसे बड़े हिंसक जुर्मों के दौरान ईश्वर तो अपनी हकीकत के मुताबिक बेअसर रहा, लेकिन उनके एजेंट और दलाल धर्मगुरुओं ने भी न हिटलर के सामने मुंह खोला, और न यहूदियों के सामने। कोई धर्म अपने लोगों को बमबारी से नहीं रोक पाया, जंग से नहीं रोक पाया, सामूहिक जनसंहार से नहीं रोक पाया। धर्म और ईश्वर की यही हकीकत है। कैमरा थामे हुए नौजवान तीन-चार बरस के बच्चों से उनके ईश्वर को गंदी गालियां दिलवाने का वीडियो बनाकर पोस्ट कर रहे हैं। इनको अपने ईश्वर की हकीकत भी मालूम है, और अपने देश की आस्थावान और धर्मालु सरकार की हकीकत भी। उन्हें मालूम है कि तीन-चार बरस के किस धर्म के बच्चों से उनके ईश्वर के लिए गंदी गालियां दिलवाना महफूज काम है, जिससे न ईश्वर खफा होगा, न सरकार खफा होगी।
आज का यह लिखना उन लोगों पर असर डालने के लिए नहीं है जो कि अपने ईश्वर के नाम पर सबसे भयानक किस्म के जुर्म कर रहे हैं, उन्हें तो अच्छी तरह मालूम है कि ऐसा कोई ईश्वर है नहीं, और ऐसे जुर्म की कोई सजा भी नहीं मिलेगी। यह लिखना उन लोगों से सवाल है जो कि ईश्वर को सचमुच मानते हैं, उसे सच का जानते हैं, और फिर भी जो ऐसे हिंसक जुर्म को भी अटपटा नहीं पाते।
टेक्नालॉजी ने दुनिया से निजता छीन ली है। अब बहुत कम प्राइवेट रह गया है, और प्राइवेसी शब्द सिर्फ शब्द के रूप में ही मायने रखता है, बाकी कोई प्राइवेसी रह नहीं गई। जो लोग मोबाइल फोन, इंटरनेट, कम्प्यूटर, और दूसरे तरह के हार्डवेयर-सॉफ्टवेयर इस्तेमाल करते हैं, वे कदम-कदम पर अपने पदचिन्ह छोड़ते जाते हैं, जिनकी मदद से सरकारी एजेंसियां तो उन तक पहुंचती ही हैं, अब हत्यारे और जीवनसाथी भी लोगों पर नजर रखने में इन सबका इस्तेमाल करने लगे हैं।
अभी अमरीका से यह खबर आई कि एप्पल कंपनी के एक सबसे छोटे सामान, एयरटैग से एक महिला ने अपने प्रेमी का पीछा कर लिया, उसे एक दूसरी महिला के साथ रंगे हाथों पकड़ लिया, और फिर प्रेमी को उसने अपनी कार के नीचे कुचलकर मार डाला। यह एयरटैग एक छोटी सी की-रिंग सरीखा होता है जिसे किसी सामान के साथ जोडक़र रखा जा सकता है, और बाद में वह सामान न मिलने पर अपने एप्पल फोन के मार्फत उस एयरटैग तक पहुंचा जा सकता है। इस महिला ने अपनी प्रेमी की कार में ऐसा एक एयरटैग रख दिया था, और फिर अपने फोन पर उसकी लोकेशन देखते हुए वह उस शराबखाने तक पहुंच गई जहां प्रेमी एक दूसरी महिला के साथ था।
यह काम तो बाजार में कानूनी रूप से मिलने वाले छोटे से मासूम, की-रिंग या बैग तलाशने के उपकरण की तरह मौजूद है, जिसे बनाने वालों ने इसके मार्फत कत्ल की कल्पना शायद नहीं की होगी। लेकिन आज महज कुछ हजार रूपयों के ऐसे एयरटैग का इस्तेमाल करके दुनिया में कहीं भी लोग अपने भागीदारों, जीवनसाथियों, या प्रेमियों पर नजर रख सकते हैं। दो दिन पहले की इस खबर और उसके बाद आज उस पर लिखी गई इस बात के बाद सभी लोगों को कुछ अधिक सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि एक जूठा सेब भी आज जासूसी कर रहा है।
यह खतरा कत्ल तक तो अभी पहुंचा है, लेकिन पिछले कुछ महीनों से एप्पल पर निजता भंग करने का उपकरण बनाने की तोहमतें लग ही रही थीं। जो लोग किसी के साथ कोई जुर्म करना चाहते हैं वे लोग भी किसी के सामान में, या गाड़ी में एयरटैग डालकर उन पर निगरानी रख रहे हैं। अब ऐसी जासूसी कर रहे एयरटैग को पकडऩे के लिए इंटरनेट पर ट्रैकर डिटेक्ट नाम का एप्लीकेशन आ गया है, और मुफ्त का यह एप्लीकेशन डाउनलोड करके लोग यह पता लगा सकते हैं कि उनके अगल-बगल में ऐसे कोई एयरटैग काम कर रहे हैं क्या जो कि अपने मालिक से कुछ देर से अलग हैं। इसके बाद ऐसे एयरटैग का बीपर शुरू करके उस तक अपना हाथ भी पहुंचाया जा सकता है, और उसकी बैटरी निकालकर फेंककर उसे बंद भी किया जा सकता है। इससे लोग अपनी की जा रही जासूसी को बंद कर सकते हैं।
अब सवाल यह है कि यह तो बात एक पूरी तरह से कानूनी उपकरण की हुई है जो कि बड़ी आसानी से दुकानों में उपलब्ध है, या ऑनलाईन ऑर्डर करके किसी आईफोन की तरह ही खरीदा जा सकता है। लेकिन गैरकानूनी तौर पर बिकने वाली ऐसी बहुत सी अघोषित चीजें बाजार में हैं जिनसे लोग दूसरों पर नजर रख सकते हैं। अभी दुनिया भर से आने वाली रिपोर्ट बताती हैं कि जब बड़ी-बड़ी कंपनियों को अपने कर्मचारियों से घरों से ही काम करवाना पड़ा, तो उन्होंने कम्प्यूटर और ऑनलाईन पर उनके कंपनी के काम पर नजर रखने के लिए दुनिया के ऑनलाईन जासूसों का सहारा लिया, और यह निगरानी रखी कि लोग किस जगह से काम कर रहे हैं, कितने घंटे काम कर रहे हैं, और ऑफिस के काम के अलावा क्या-क्या कर रहे हैं। ऐसी निगरानी रखने वाली, और अपने को साइबर-सुरक्षा कंपनी बताने वाली एजेंसियों ने इसी दौरान अपना कारोबार बहुत बढ़ा लिया है।
लेकिन कंपनियों से परे, जैसा कि अमरीका के इस ताजा कत्ल में हुआ है, लोग अपने करीबी लोगों के मोबाइल फोन से भी उन पर तरह-तरह की नजर रख सकते हैं। कुछ पल के लिए किसी से उनका फोन मांगकर गूगल मैप की हिस्ट्री देखकर यह जाना जा सकता है कि पिछले दिनों में वे किस वक्त कहां-कहां गए हैं। लोगों के फोन और लैपटॉप पर दर्ज वाईफाई पासवर्ड देखकर भी वे जगहें तलाशी जा सकती हैं जहां वह वाईफाई काम करता है। किसी के फोन पर लोकेशन शेयर करने में कुछ पल ही लगते हैं, और उसके बाद आप बैठकर अपने फोन पर दूसरों की लोकेशन देख सकते हैं।
जुर्म के ये तरीके जानना और समझना इसलिए जरूरी नहीं है कि जुर्म कैसे किया जाए। इन तरीकों से वाकिफ लोग ऐसे जुर्म के शिकार होने से भी बच सकते हैं, और अनजान रहकर वे ऐसे जाल में फंस सकते हैं। ट्रैकिंग डिवाइसों का यह सिलसिला एप्पल ने शुरू नहीं किया है, बरसों पहले से जापान में बच्चों के स्कूल बैग में ट्रैकिंग डिवाइस लगाने का काम चल रहा है ताकि मां-बाप अपने फोन पर देख सकें कि किसी वक्त पर उनके बच्चे कहां हैं। अब तो एप्पल की मामूली सी घड़ी ऐसी आ गई है जिसे पहनने वाले अगर अचानक कहीं गिर जाएं, तो पहले से तय किए हुए नंबरों पर उनके गिरने का एसएमएस चले जाए, और शायद लोकेशन भी।
बहुत से उपकरण लोगों की जिंदगियों को बचाने वाले हैं, लेकिन बहुत से उपकरण निगरानी रखने वाले, और जुर्म में मददगार भी हैं। टेक्नालॉजी अच्छी नीयत से बनाई जाती है, लेकिन वह आगे जाकर किन हाथों में पहुंचेगी, इसकी नियति तय नहीं की जा सकती है। आत्मरक्षा के नाम पर खरीदी गईं बंदूकें अमरीका में आज सामूहिक हत्याओं के काम आ रही हैं। इसलिए कारोबारी भागीदार हो, या पारिवारिक जीवनसाथी, प्रेमी हो या सरकार हो, सबसे सावधान रहने की जरूरत है क्योंकि जिनकी पहुंच आपकी गाड़ी, आपके घर-दफ्तर तक और आपके फोन-कम्प्यूटर तक है, वे आप पर नजर रखने की सबसे अधिक ताकत भी रखते हैं। जब तक आप फोन, इंटरनेट, और उपकरणों से परे हैं, तब तक आप बेफिक्र रह सकते हैं, लेकिन उसके बाद टेक्नालॉजी के साथ बढ़ाया हुआ आपका हर कदम आपको अधिक खतरे में डालने वाला रहता है।
जैसा कि किसी भी चौकन्नी सरकार को समझ आना चाहिए था, हिन्दुस्तान में कल शुक्रवार को, जुमे की नमाज के बाद कई शहरों में पथराव हुआ क्योंकि दो भाजपा प्रवक्ताओं ने टीवी की बहसों पर जिस तरह से मोहम्मद पैगंबर के खिलाफ ओछी और गैरजरूरी बातें कहीं, उनका विरोध तो होना ही था। हालांकि इन बातों को कहे हुए काफी दिन हो गए, और उसके बाद एक जुम्मा हो भी चुका था, लेकिन इस बार मुस्लिम देशों के दबाव में भारत सरकार कुछ सुनने के लिए तैयार हुई थी, और उसी दबाव के चलते देश के भीतर के मुस्लिमों को भी ऐसा लगा कि उन्हें भी कुछ कहने का हक है। नतीजा यह हुआ कि पिछले जुम्मे जो नहीं हो पाया था, वह इस जुम्मे हुआ, और लोगों की प्रतिक्रिया पत्थरों की शक्ल में सामने आई। कई प्रदेशों और दर्जन भर शहरों में मस्जिद से निकलते लोगों ने पत्थर चलाए, यह कोई अभूतपूर्व हिंसा तो नहीं थी, लेकिन इसने लोगों से लड़ाई का एक लोकतांत्रिक औजार छीन लिया, और इन्हें भाजपा प्रवक्ताओं के मुकाबले का हिंसक और हमलावर साबित कर दिया।
एक किसी समझदार ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि देश की राजनीतिक ताकतों ने जो पिच तैयार की, जाहिल मुस्लिम उस पिच पर खुशी-खुशी बल्लेबाजी करने लगे। मोहम्मद पैगंबर की इज्जत के नाम पर वे पत्थर चलाकर अपने आपको उन लोगों से भी अलग-थलग कर चुके हैं जो कि अभी कल सुबह तक उनके हिमायती थे, और उनकी तरफदारी कर रहे थे। जो मजहबी जख्मों को लेकर मुस्लिमों का साथ दे रहे थे, उनके हमदर्द थे, वे भी आज अलग-थलग हो चुके हैं कि पत्थरबाजों का किस तरह साथ दें? और जिन लोगों ने मुस्लिमों के इस तबके को पत्थर चलाने के लिए उकसाया है, और एक हिसाब से बेबस किया है, वे बहुत खुश हैं कि अब भाजपा प्रवक्ताओं के खिलाफ कोई तर्क बाकी नहीं रह गया। पत्थरों के बाद जो रही-सही कसर थी, वह उन फतवों ने दूर कर दी जिन्होंने भाजपा प्रवक्ता को चौराहे पर फांसी देने को कहा, उसका सिर काटने को कहा, उसकी जीभ काटने पर एक करोड़ रूपये का ईनाम रखा। इन सारी बातों के बाद अब मुस्लिम भावनाओं की हिफाजत में, तरफदारी में कुछ कहने की जुबान नहीं रह गई, और आम लोगों की जुबान में हिसाब चुकता हो गया।
जिस तरह भारत सरकार ने इस्लामिक दुनिया के सामने यह साबित करने की कोशिश की है कि मोहम्मद पैगंबर पर ओछी बात कहने वाले भाजपा प्रवक्ता हिन्दुस्तान में फ्रिंज इलेमेंट है, उसी तरह मुस्लिम समाज के एक तबके ने, या उसके फ्रिंज इलेमेंट ने बाजी उनके हाथ से छीन ली है जो कि अमन के लिए खेली जा रही थी। अब फ्रिंज इलेमेंट शब्द को लेकर सोशल मीडिया पर जितने तरह की व्याख्या चल रही है वह अपने आपमें अद्भुत है। कोई इसका मतलब तुच्छ लोग बता रहे हैं, तो कुछ दूसरे लोग इसे शरारती या छिछोरा बता रहे हैं। इसका शाब्दिक अर्थ बहुत आसान शायद नहीं है, लेकिन सरकार इसे मूलधारा से अलग के महत्वहीन लोग साबित करते दिख रही थी, और सरकार क्या सोचती है, और क्या साबित करते दिखती है, इसका विरोधाभास इस एक मामले से बढक़र और भला किस मामले में दिख सकता था?
खैर, आज यह वक्त हिन्दुस्तान के मुस्लिमों को यह याद दिलाने का है कि जब हिन्दू समाज के भी बहुत से लोग मुस्लिमों से इस देश में चल रही ज्यादती के खिलाफ लगातार बोल और लिख रहे हैं, तो फिर ऐसे हिमायती लोगों की कोशिशों पर पत्थर चलाना ठीक नहीं है। पत्थर चलाने से सरकार का मकसद ही पूरा होता है, और उसके बाद उसके किए हुए जुल्म भी जायज साबित करना मुश्किल नहीं रह जाता। जुम्मे की नमाज से निकलने के तुरंत बाद जगह-जगह चलाए गए पत्थरों से न इस्लाम की इज्जत बढ़ी है, न मुस्लिमों की। इनसे बिल्कुल अलग उन तमाम लोगों की इज्जत मटियामेट हुई है जो कि मुस्लिमों पर ढहाए जा रहे जुल्म के खिलाफ खड़े हुए हैं, खुद मुस्लिम न होते हुए भी। आज हिन्दुस्तान के मुस्लिमों को यह बात समझने की जरूरत है कि उनकी खुद की आवाज तो इस हद तक बेमायना हो चुकी है कि टीवी के पर्दों पर मोहम्मद पैगंबर के खिलाफ कही गई बातों को भी सरकार ने बुरा नहीं माना था। यह तो बुरा हो तेल के कुओं के मालिक उन देशों का जिन्होंने भारत सरकार से जमकर विरोध किया, अभूतपूर्व विरोध किया, और तब अचानक सरकार को यह पता लगा कि सत्तारूढ़ पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता तुच्छ और शरारती लोग हैं, फ्रिंज इलेमेंट हैं। इसलिए इस देश के मुस्लिमों को पत्थरों का सहारा लेने के पहले यह याद रखना चाहिए कि दुनिया के मुस्लिम देश उनके पत्थरों का बचाव करने के लिए नहीं आएंगे, वे मोहम्मद पैगंबर के सम्मान के लिए तो सामने आए थे, हिन्दुस्तानी मुस्लिम लोगों को भी बचाने के लिए आगे आना उनकी कोई प्राथमिकता नहीं रहेगी। हिन्दुस्तानी मुस्लिमों को यह भी समझ लेना चाहिए कि दुनिया के मुस्लिम और इस्लामिक देश चीन के भीतर मुस्लिमों के मानवाधिकार हनन और उनके साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ मुंह भी नहीं खोलते हैं। इसलिए मोहम्मद पैगंबर के सम्मान से परे किसी और मुद्दे पर मुस्लिम देश हिन्दुस्तानी मुस्लिमों के साथ नहीं रहेंगे। ऐसे में आज भारत सरकार शतरंज की बिसात पर घोड़े की तरह ढाई घर पीछे आई हुई तो दिख रही है, लेकिन देश में चलने वाले हर पत्थर पर यहां के मुस्लिमों को कितने मामले-मुकदमे झेलने पड़ेंगे, इसे भी याद रखने की जरूरत है।
आज हिन्दुस्तानी मुस्लिम पत्थर उठाकर उन्हीं साजिशों के बनाए गए किरदार निभा रहे हैं, जो कि मुस्लिमों को खलनायक दिखाना चाहते हैं। हम इस देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता और सद्भावना के हिमायती हैं, इसलिए इस नाजुक मौके पर भी मुसलमानों के लिए सलाह की एक बात कह रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय दबाव की वजह से भारत में आज सरकार ने अपनी पार्टी के जिन गलत कामों को चूक भी मंजूर कर लिया है, उस नौबत को जारी रहने देना चाहिए, पत्थर उठाकर उस जुर्म का हिसाब चुकता नहीं करना चाहिए।
भारत सरकार की विज्ञापनों पर नजर रखने वाली संस्था, एडवरटाइजिंग स्टैंडड्र्स कौंसिल ऑफ इंडिया (एएससीआई) ने अभी एक बॉडी स्प्रे के इश्तहार को बहुत ही आपत्तिजनक मानकर उस पर रोक लगाई है। सरकार ने ट्विटर और यू-ट्यूब से भी कहा है कि इस विज्ञापन को अपने प्लेटफॉर्म से हटाए। इसकी खबरें आते ही लोगों ने इंटरनेट पर इसे ढूंढना शुरू किया, और पाया कि महिला से बलात्कार की तरफ इशारा करने वाला यह इश्तहार बहुत सोच-समझकर बनाया गया है, और इसका वीडियो हैरान करता है कि सामानों की कौन सी कंपनी, और कौन सी विज्ञापन एजेंसी इस दर्जे का घटिया और हिंसक काम कर सकती हैं? लेकिन जाहिर है कि ऐसा विज्ञापन बना है, एक अभियान की तरह एक से अधिक वीडियो इसके बनाए गए हैं, और देश के जिम्मेदार लोग इसे धिक्कार रहे हैं।
ये विज्ञापन किसी एक लडक़ी के साथ गैंगरेप की तरफ इशारा करते हुए लडक़ों की टोली पर बनाया गया है, और जो बतलाता है कि 21वीं सदी के 22वें बरस में भी हिन्दुस्तान में बाजार बलात्कार को बेचने का सामान मान रहा है, और पूरी बेशर्मी और हिंसा से यह काम कर रहा है।
वैसे तो पूरी दुनिया में इश्तहारों के बाजार में यह चलन रहा है कि उन्हें तरह-तरह से विवादास्पद बनाकर, खबरों में लाकर, बदनामी की भी कीमत पर उनका फायदा उठाया जाए। बाजार में यह आम सोच रहती है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ? इंटरनेट पर ढूंढें तो प्रतिबंधित विज्ञापनों का अम्बार लगा हुआ है। और ये भी ऐसे देशों से हैं जहां पर सार्वजनिक जीवन के सांस्कृतिक मूल्य कई पैमानों पर हिन्दुस्तान के मुकाबले अधिक उदार हैं। वहां पर बदन का उघड़ा होना, शब्दों में कुछ अश्लीलता होना, इन सबको अधिक बर्दाश्त किया जाता है। इसके बावजूद इस बर्दाश्त को पार करके बनने वाले अधिक नग्न और अधिक अश्लील इश्तहारों पर अलग-अलग देशों में रोक लगती है, और फिर ऐसे प्रतिबंधित विज्ञापनों का एक अलग तबका रहता है जो कि इंटरनेट पर जगह पाता है, और लोग इनका मजा लेते हैं।
दरअसल यह पूरा सिलसिला शुरू इसी से होता है कि लोग बलात्कार पर भी लतीफों का मजा लेते हैं। लोग महिला, उसके बदन, उसके मिजाज से जुड़ी हुई हर बात पर मजा लेते हैं। लोगों की सोच ऐसी है कि मर्द तो मर्द, औरत भी जब गालियां देने का हौसला रखती हैं, तो मां-बहन की ही गालियां देती हैं। मतलब यह कि औरत बाजार से लेकर समाज तक लगातार निशाने पर रहती है, और मर्द तो तकरीबन तमाम ही इसका मजा लेते हैं। पौराणिक कहानियों में द्रोपदी के अपमान से लेकर कई दूसरे किस्म की ऐसी घटनाओं का जिक्र रहता है, और हिन्दुस्तान के संसदीय इतिहास में तमिलनाडु विधानसभा में जयललिता की साड़ी भी खींची गई थी। ऐसे समाज में एक बॉडी स्प्रे बेचने के लिए अगर औरत के साथ गैंगरेप, और रेप के मुकाबले को लतीफे की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, तो वह गैरकानूनी चाहे जो हो, सजा के लायक चाहे क्यों न हो, वह अधिकतर लोगों को मजा देने वाला तो रहता है। और ऐसे ही मजे पर भरोसा करते हुए यह इश्तहार बना है, और यह गैरजरूरी सामान बेचा जा रहा है।
सोशल मीडिया की मेहरबानी से ऐसी हिंसा तुरंत ही नजरों में आती है, और उसका विरोध शुरू हो जाता है। सत्तारूढ़ पार्टियों को अगर इन पर प्रतिबंध लगाने से कोई सीधा नुकसान नहीं होता, तो उनकी सरकारें भी जल्द जाग जाती हैं, और अपने आपको औरतों का हिमायती साबित करते हुए इन पर तेजी से रोक लगाती हैं। इस ताजा इश्तहार-अभियान के साथ यही हुआ है, और आनन-फानन सरकार को कार्रवाई करनी पड़ी है, दिल्ली के महिला आयोग ने भी एक नोटिस जारी किया है, और सार्वजनिक जीवन के बहुत से प्रमुख लोगों ने खुलकर इसके खिलाफ लिखा है। लेकिन हो सकता है कि इस कंपनी और इसकी विज्ञापन कंपनी को इस अंत का अंदाज रहा होगा, और उन्होंने सोच-समझकर ब्रांड को चर्चा में लाने के लिए यह काम किया होगा।
अब सोशल मीडिया के तमाम चौकन्नेपन के बावजूद इस बात का कोई अंदाज नहीं है कि ऐसे सामान, ऐसी कंपनी, और ऐसी विज्ञापन कंपनी के बहिष्कार के फतवे का कोई असर होगा या नहीं? अगर कोई समाज जागरूक हैै तो वह ऐसे कारोबारी लोगों का जीना हराम कर सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी समाज अगर जागरूक होता, तो आज हिन्दुस्तान ऐसा क्यों होता? इसलिए यह मानने का भी हौसला नहीं होता कि यह समाज जो नफरत के खतरों के प्रति जागरूक नहीं है, वह बलात्कार के लतीफों के खिलाफ जागरूक हो सकेगा। फिर भी सोशल मीडिया की मेहरबानी से आज लोगों के सामने यह एक मौका है कि वे ऐसा अभियान छेड़ सकते हैं, और देख सकते हैं कि इसे कहां तक ले जाया जा सकता है। आखिर दुनिया के इतिहास का हर बड़ा आंदोलन कभी तो किसी एक इंसान से ही शुरू हुआ होगा, और बाद में लोग उससे जुड़ते चले गए होंगे।
बलात्कार का मजा लेने वाले, उसके लतीफों को गढऩे और फैलाने वाले लोगों को अपने परिवार को इन इश्तहारों में रखकर देखना चाहिए कि क्या वे अपनी मां-बहन-बेटी को इस जगह रखकर असल जिंदगी में इतना ही मजा लेंगे जितना कि वे इस इश्तहार को बनाकर या इसे देखकर पा रहे हैं? सरकार को महिला के खिलाफ ऐसा हिंसक नजरिया रखने वाले ऐसे अश्लील विज्ञापनों के खिलाफ जुर्म भी दर्ज करना चाहिए, और सजा दिलवाने की कोशिश करनी चाहिए।
एक तरफ दुनिया आर्थिक संकट, मंदी, बेरोजगारी, महंगाई, और भुखमरी से गुजर रही है, दूसरी तरफ ऑक्सफेम नाम की संस्था की नई रिपोर्ट बतलाती है कि कोरोना और लॉकडाउन के इस दौर में दुनिया में हर तीस घंटे में एक अरबपति बना है, और दस लाख लोग गरीब हो गए हैं। दुनिया के कामकाज पर खतरा टलने का नाम नहीं ले रहा है, कोरोना ने लोगों का काम छीना, परिवार पर आर्थिक बोझ डाला, और देश-प्रदेश की सरकारों की कमर टूट गई। इलाज और टीकाकरण पर अंधाधुंध खर्च हुआ, और टैक्स की कमाई मारी गई। इससे दुनिया उबर नहीं पाई थी कि रूस यूक्रेन पर टूट पड़ा, और दुनिया की आर्थिक बदहाली की आग में मानो रूसी पेट्रोल पड़ गया। इसी के समानांतर चीन में कोरोना-लॉकडाउन इतना भयानक रहा कि करोड़ों की आबादी वाला शंघाई शहर पूरा का पूरा महीनों से सील किया हुआ है, और इस शहर में दुनिया का सबसे बड़ा बंदरगाह है, और जहाज लंगर डाले खड़े हैं। चीन से पुर्जे और कच्चा माल न निकल पाने की वजह से दुनिया भर में सामान बनना धीमा हो गया है, और यह नौबत कब सुधरेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है।
ऐसे में स्विटजरलैंड में अभी वल्र्ड इकॉनामिक फोरम की बैठक के दौरान बाहर ऑक्सफेम की रिपोर्ट पेश हुई जिसने बताया कि पिछले दो सालों में दुनिया में 573 नए अरबपति बने हैं। मतलब यह कि महामारी हो, या भुखमरी, कुछ लोगों की कमर टूटती है, और कुछ लोगों का बाहुबल बढ़ता है। हर मुसीबत दुनिया के कुछ लोगों के लिए मौका लेकर आती है, और उनको भारी मुनाफा देकर जाती है। हिन्दुस्तान में इन बरसों में करोड़ों लोगों का रोजगार गया, लेकिन सरकार के पसंदीदा समझे जाने वाले देश के दो सबसे बड़े उद्योगपतियों की दौलत एक-दूसरे से मुकाबला करते हुए, जंगली हिरण की तरह छलांग लगाते हुए आगे बढ़ रही है, और वह फीसदी में नहीं, गुना में बढ़ रही है।
किसी भी तरह की मुसीबत दुनिया में गैरबराबरी को बढ़ाने का काम करती है। गरीबी और अमीरी के बीच का फासला बढऩा एक बात रही, दूसरी बात यह भी रही कि दुनिया के जिस देश में मुसीबत जितनी बड़ी रही, वहां पर लोकतंत्र के भीतर भी राजा और प्रजा कहे जाने वाले दो तबकों के बीच फासला उतना ही बढ़ गया। दुनिया के कई देशों में महामारी और लॉकडाउन के इस दौर को देखने पर पता चलता है कि वहां के शासकों के मिजाज और कामकाज में तानाशाही बढ़ गई, और लोगों के बुनियादी अधिकार घट गए। जब महामारी जैसी मुसीबत रहती है, तो फिर लोग अपने से परे किसी और के किसी हक की परवाह भी नहीं करते, फिर चाहे वह बुनियादी लोकतांत्रिक हक हों, या कि समाज के व्यापक मानवाधिकार हों। लोगों को, लोकतांत्रिक देशों के बहुसंख्यक लोगों को मुसीबत के वक्त देश में ऐसे शासक पसंद आते हैं जो कि कड़़े फैसले बिना किसी दुविधा के ले लेते हैं, फिर चाहे वे फैसले गलत, बुरे, और नुकसानदेह ही क्यों न हों। जब देश मुसीबत से गुजरते रहता है, तो लोग मुसीबत अपने दरवाजे तक पहुंचने से रोकने के लिए शासक को और अधिक ताकत देकर उस पर जिम्मा डाल देना चाहते हैं। इसलिए दुनिया के कई देशों में पिछले दो बरसों में शासक अधिक तानाशाह हुए हैं। इस तरह देखें तो परेशानी और मुसीबत के इस दौर में एक तरफ गरीबी और अमीरी का फासला बढ़ा है, दूसरी तरफ लोकतांत्रिक देशों के शासन में तानाशाह तौर-तरीके भी बढ़े हैं।
लोगों को याद होगा कि कारोबार को लेकर हमेशा से एक बात चलन में रही है कि पैसा पैसे को खींचता है। जब किसी नए कारोबार, या मुसीबत से पैदा हुए नए कारोबार की गुंजाइश निकलती है, तो रातोंरात पूंजीनिवेश करने की गुंजाइश रखने वाले कारोबारी को ही शुरूआती फायदा मिलता है। मुकाबले में दूसरे कारोबारी जब तक पूंजी का इंतजाम करते हैं, तब तक धनसंपन्न कारोबारी उस संभावना पर एकाधिकार सा जमा चुके रहते हैं। यह भी एक बड़ी वजह है कि पिछले दो सालों में 573 नए अरबपति पैदा हुए हैं। ये वे लोग रहे होंगे जो पहले से कारोबार में थे, और जिनके पास रातोंरात अपने कारोबार को बढ़ाने की ताकत रही होगी, और वे दो बरस के इस दौर में करोड़पति से अरबपति हो गए।
लेकिन पूंजी की इस अंतरिक्ष यात्रा के बीच यह एक विसंगति दुनिया के सामने है कि आज बहुत से देशों में लोगों के पास खाने को नहीं रह गया है, और अंतरराष्ट्रीय समाजसेवी संस्थाओं के पास उन्हें देने के लिए अनाज नहीं रह गया है। आज दुनिया के कुछ देशों में अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अपनी मदद को हर किसी को बांटने के बजाय सीमित आबादी को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त अनाज दे रही हैं, ताकि तमाम लोगों के मरने के बजाय कम से कम कुछ लोग तो बच जाएं, और बाकी लोगों के बारे में उन्होंने मान लिया है कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। लोगों को याद होगा कि पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त एक अमरीकी फोटोग्राफर ने एक अफ्रीकी बच्चे की फोटो ली थी, जो जमीन पर से कुछ उठाकर खाते हुए जिंदगी के आखिरी दिन या घंटे गुजार रहा था, और उसके ठीक पीछे एक गिद्ध आकर इंतजार करते बैठ गया था। बाद में इस तस्वीर को लेकर बड़ा बवाल हुआ था, और फोटोग्राफर की किसी और वजह से की गई आत्महत्या इसी तस्वीर से उपजे मानसिक अवसाद से जोड़ी गई थी।
आज भी दुनिया में लोगों के बीच अनाज बांटते हुए काम करते अंतरराष्ट्रीय संगठनों के लोगों के बीच ऐसी ही दिमागी हालत पैदा होते जा रही है क्योंकि उन्हें आबादी के एक हिस्से को अनाज देना बंद कर देना पड़ रहा है, ताकि जिंदा रहने की थोड़ी संभावना वाले दूसरे हिस्से को जिंदा रखा जा सके।
आज जब दुनिया को यह भी समझ नहीं आ रहा है कि उसका सबसे बुरा वक्त अभी आ चुका है, या अगले कई महीनों तक इससे बुरा वक्त आते रहेगा, तब अगर दुनिया की कुछ कंपनियों के शेयरों के दाम लगातार बढ़ते चल रहे हैं, कुछ कारोबारी अरबपति हो रहे हैं, कुछ अरबपति से खरबपति हो रहे हैं, तो इसका श्रेय दुनिया पर आई हुई मुसीबत को जाता है जो कि ऐसी अभूतपूर्व और विकराल संभावनाएं खड़ी कर रही हैं। जलती लाशों के बदन पर रोटी सेंकने के इस कारोबार में बहुत नया कुछ भी नहीं है, सिवाय इस बार के उसके बढ़ते विकराल आकार के! (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश की एक मस्जिद को लेकर यह ऐतिहासिक विवाद चल रहा है कि क्या एक मंदिर को तोडक़र इसे बनाया गया है? देश की कई अदालतें इस सवाल के अलग-अलग पहलुओं से जूझ रही हैं, और देश के कुछ अलग-अलग कानून एक-दूसरे के सामने खड़े किए जा रहे हैं कि किस कानून के मुताबिक क्या होना चाहिए। हिन्दू और मुस्लिम दो तबके अदालत में एक-दूसरे के सामने खड़े हैं, और अदालत का सिलसिला कुछ पहलुओं पर शक से घिरा हुआ है, और इसी के चलते अदालत को अपनी मातहत अदालत का तैनात किया गया एक जांच कमिश्नर हटाना भी पड़ा है। लेकिन यह एक जटिल मामला है जिस पर यहां लिखने के बजाय किसी लेख में उसके साथ अधिक इंसाफ हो सकता है। यहां आज इस कानूनी विवाद पर लोगों की लिखी जा रही बातों पर लिखने की नीयत है।
जब मस्जिद में जांच के दौरान अदालत से तैनात एक हिन्दू जांच कमिश्नर वकील ने अदालत को रिपोर्ट देने के बजाय यह सार्वजनिक बवाल खड़ा करना शुरू किया कि मस्जिद में पानी की एक टंकी में शिवलिंग मिला है, तो इस पर देश भर से लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखना शुरू किया। टीवी समाचार चैनलों को रोजी-रोटी मिली, और वे भी स्टूडियो में एक-दूसरे से पहले साम्प्रदायिक दंगा करवाने के गलाकाट मुकाबले में उतर पड़े। सोशल मीडिया पर लिखने वालों में दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के एक प्रोफेसर रतनलाल भी थे, जिनके खिलाफ हिन्दू धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने की पुलिस रिपोर्ट की गई, जुर्म दर्ज हुआ, और आनन-फानन उनकी गिरफ्तारी भी हो गई। खबरों से पता लगा कि रतनलाल एक दलित हैं, और उनकी पोस्ट पर विवाद होने के बाद उन्होंने जोर देकर यह कहा कि उन्होंने बहुत जिम्मेदारी के साथ लिखा था।
जैसा कि जाहिर है शिवलिंग से हिन्दू धर्मालुओं की भावनाएं जुड़ी हुई हैं, और शिवलिंग एक प्रतीक के रूप में किसी दूसरे धर्म की भावनाओं को चोट पहुंचाने का काम भी नहीं करता। इसलिए मस्जिद में मिला हुआ पत्थर शिवलिंग है या नहीं, यह अदालत के तय करने की बात है, उस पत्थर को शिवलिंग कहकर किसी दूसरे धर्म पर चोट पहुंचाने का काम नहीं हो रहा था। किसी जगह पर किसी एक धर्म के दावे का झगड़ा था, जो कि अभी निचली अदालत में है, और 25-50 बरस बाद वह हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत से तय हो सकता है, लेकिन तब तक उस पत्थर को लेकर कोई झगड़ा नहीं था। वह पत्थर भी किसी का नुकसान नहीं कर रहा था। वह सैकड़ों बरस से उसी जगह पर पानी में डूबे हुए था, वहां से नमाज पढऩे के पहले लोग हाथ और चेहरा धोने को पानी लेते थे, और अगर बहस के लिए यह मान लें कि वह शिवलिंग ही है, तो भी सैकड़ों बरस के लाखों नमाजियों के हाथ लगते हुए भी उस शिवलिंग को कोई दिक्कत नहीं थी।
ऐसे में सोशल मीडिया पर प्रोफेसर रतनलाल के अलावा भी हजारों लोगों ने साम्प्रदायिकता का विरोध करने के लिए शिवलिंग का विरोध करना शुरू कर दिया, या अधिक बेहतर यह कहना होगा कि उन्होंने उस पत्थर के शिवलिंग न होने के दावे करने शुरू कर दिए, और ऐसा करते हुए लोग तरह-तरह से शिवलिंग के अपमान पर चले गए। यह अपमान उस पत्थर को शिवलिंग मानकर उसकी उत्तेजना फैलाने की साजिश का होता, तो भी ठीक होता। इस मामले में पहली नजर में दिखता है कि अदालत के तैनात जिस जांच कमिश्नर को रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में अदालत को ही देनी थी, उसने एक घोर हिन्दुत्ववादी की तरह हमलावर अंदाज में एक पत्थर के शिवलिंग होने का दावा करते हुए मीडिया में बयानबाजी शुरू कर दी, और उसके तौर-तरीकों से, और उसके दावों से बिना सुबूत सहमत होते हुए निचली अदालत ने मुस्लिमों के नमाज पढऩे के पहले वुजू करने, हाथ धोने की उस जगह को सील कर दिया। अब यह मौका एक छोटी अदालत के जज, और अदालत के जांच-कमिश्नर वकील को लेकर कुछ लिखने का था, और लोगों ने शिवलिंग का मखौल उड़ाना शुरू कर दिया। अभी तो यह तय भी नहीं हुआ था कि वहां मिला वह पत्थर सचमुच ही शिवलिंग है, लेकिन एक धार्मिक प्रतीक शिवलिंग को लेकर इतनी ओछी और अश्लील बातें लिखी जाने लगीं, कि मानो शिवलिंग खुद ही त्रिशूल लेकर हिंसा कर रहा हो।
यह मौका अदालत के जांच कमिश्नर और जज के पक्षपात या पूर्वाग्रह, उनके न्यायविरोधी रवैये को साबित करने का था, हिन्दुस्तानी मीडिया ने जिस तरह एक हिन्दुत्ववादी वकील के उछाले हुए शिवलिंग शब्द को लपककर पूरे देश में साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता फैलाना शुरू किया, मीडिया के उस रूख के बारे में लोगों को बात करनी थी, लेकिन यह पूरी बहस इस बात पर आकर सिमट गई कि कुछ कथित धर्मनिरपेक्ष लोग किस तरह शिवलिंग का मजाक उड़ा रहे हैं, हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचा रहे हैं।
मेरी तरह के परले दर्जे के नास्तिक, और धर्मनिरपेक्ष को भी धार्मिक प्रतीक का गंदी जुबान और गंदी मिसाल के साथ मखौल उड़ाना न सिर्फ नाजायज लगा बल्कि यह देश में साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ मजबूत करना भी लगा। जिस वक्त देश की बहस को असल मुद्दों से भटकाकर भावनाओं में उलझाने की राष्ट्रीय स्तर की साजिशें लगातार चल रही हैं, उसी वक्त अगर देश के असली या कथित धर्मनिरपेक्ष लोग भी अनर्गल, अवांछित, और नाजायज बकवास करके देश की बहस को गैरमुद्दों में उलझाने का काम करेंगे, तो यह धर्मनिरपेक्षता नहीं है, यह साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में उसी तरह खेलना है, जिस तरह देश के कई टीवी स्टूडियो खेल रहे हैं। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अगर पूरी तरह से नाजायज बातों को जायज ठहराने की कोशिश होगी, तो उससे अभिव्यक्ति की जरूरी और जायज स्वतंत्रता की शिकस्त होगी। जब यह देश अपने आजाद इतिहास के सबसे खतरनाक दौर से गुजर रहा है, जब उसके सामने असली और गंभीर चुनौतियां जानलेवा दर्जे की हो चुकी हैं, तो यह वक्त अपनी गैरजिम्मेदार और फूहड़ बातों से दुश्मन के हाथ मजबूत करने का नहीं है। जिन लोगों को यह लगता है कि वे शिवलिंग का मखौल उड़ाकर मुसलमानों के हाथ मजबूत कर सकते हैं, उनसे अधिक गैरजिम्मेदार आज कोई नहीं होंगे क्योंकि इससे हिन्दू लोगों में से सबसे अधिक हिंसक और साम्प्रदायिक लोगों के हाथ मजबूत होने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा। जो लोग हिन्दुस्तान में सभी धर्मों को बराबरी दिलाना चाहते हैं, कुचले जा रहे धर्म को बचाना चाहते हैं, उनमें से कुछ लोग अगर धर्मान्ध-साम्प्रदायिक लोगों के हाथ अपने बयानों के हथियार थमा रहे हैं, तो यह धर्मनिरपेक्षता का काम नहीं है, यह साम्प्रदायिकता का काम है।
किसी व्यक्ति के धर्म, उसकी जाति, उसके वर्ग की वजह से उसकी सार्वजनिक बातों को रियायत नहीं दी जा सकती, खासकर ऐसे व्यक्ति को जिनकी पढ़ाई-लिखाई और समझदारी में कोई कमी नहीं है। ऐसे लोग अगर किसी एक गंभीर और व्यापक सोच के चलते हुए भी किसी धर्म के प्रतीक का मखौल उड़ाना जायज समझते हैं, तो वे लोग हिन्दुस्तान में आज असल मुद्दों पर बहस को बंद करवाने का काम कर रहे हैं, और ऐसे नुकसानदेह लोगों को बढ़ावा देकर देश में साम्प्रदायिक ताकतों को और मजबूत नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश वाली तीन जजों की एक बेंच ने मध्यप्रदेश के एक एबीवीपी पदाधिकारी को हाईकोर्ट से मिली जमानत रद्द कर दी, और हफ्ते भर में सरेंडर करने के लिए कहा। जबलपुर में एक छात्रा से बलात्कार के आरोपी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता को जब हाईकोर्ट से जमानत मिली थी, तो शहर में ‘भैय्या इज बैक’ के बैनर-होर्डिंग लगाए गए थे। इस पर बलात्कार-पीडि़ता छात्रा की ओर से जमानत रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई गई थी, तो वहां पर मुख्य न्यायाधीश ने इस पर भारी नाराजगी के साथ आरोपी के वकील से कहा था कि क्या आप जश्न मना रहे हैं? अदालत ने यह माना था कि बैनरों पर जिस तरह का महिमामंडन किया गया है, और जैसे नारे लिखे गए हैं, उससे समाज में अभियुक्त की ताकत का अंदाज लगता है। इससे शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कम से कम दस साल की सजा वाले इस अपराध में इस तरह के बेशर्म बर्ताव ने शिकायतकर्ता के मन में डर पैदा किया है, इससे निष्पक्ष सुनवाई की संभावना खत्म होती है, और गवाहों को प्रभावित करने की संभावना पैदा होती है।
अदालत का यह एक शानदार रूख है जो कि देश में अंधाधुंध ताकत रखने वाले मुजरिमों का बेशर्म हौसला घटाता है, और कमजोर तबके के पीडि़तों के मन में एक उम्मीद जगाता है। इस अखबार में हम लगातार इस बारे में लिखते हैं कि जब मुजरिम किसी बड़े ओहदे पर बैठा हुआ हो, सामाजिक या राजनीतिक ताकत वाला हो, उसके पास बहुत सी दौलत हो, तो उसके जुर्म पर अधिक बड़ी सजा का इंतजाम होना चाहिए। फिर अगर ऐसे ताकतवर मुजरिम के जुर्म के शिकार कमजोर लोग हों, गरीब या महिलाएं हों, प्रकृति या जानवर हों, तो भी उनके लिए ऐसी जुर्म की आम सजा के मुकाबले अधिक कड़ी सजा का इंतजाम रहना चाहिए। यह बात समझने की जरूरत है कि कानून की नजर में सबको एक बराबर देखने और रखने की गलती खत्म की जानी चाहिए। कानून को मुजरिम की ताकत को घटाने का काम भी करना चाहिए, और समाज से गैरबराबरी को हटाने का काम भी करना चाहिए। हमने पहले इसी जगह यह लिखा है कि अगर ताकतवर और संपन्न तबके के किसी मुजरिम से किसी गरीब को नुकसान होता है, तो कानून को इस तरह बदलना चाहिए कि बाकी सजा के साथ-साथ उसकी संपन्नता का एक हिस्सा भी गरीब को मिले। मिसाल के तौर पर अगर कोई अरबपति या करोड़पति किसी गरीब लडक़ी से बलात्कार करे, तो जब वह साबित हो जाए, तब उसकी दौलत का एक हिस्सा, एक बड़ा हिस्सा उस लडक़ी को मिलना चाहिए। भारत के कानून में ऐसे फेरबदल की जरूरत है। आज किसी जुर्म के लिए किसी गरीब को जितनी सजा होती है, किसी अरबपति को भी उतनी ही सजा होती है, जबकि पैसे वाले के पास पुलिस और गवाह को खरीदकर, सुबूत और जज को खरीदकर बच निकलने की बड़ी गुंजाइश रहती है, और बड़ी दौलत शायद ही कभी सजा पाने देती है।
अब हिन्दुस्तान की संसद से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह संपन्न तबके के खिलाफ इस तरह का कोई कानून बनाएगी। इसकी पहली वजह तो यह है कि पिछले दशकों में संसद और विधानसभाओं में घोषित रूप से करोड़पति लोगों का अनुपात बढ़ते-बढ़ते अब आसमान पर पहुंच गया है। अब संसद में एक तबका तो अरबपति सांसदों का भी है, और ऐसा ताकतवर तबका, या कि देश की ताकतवर नौकरशाही ऐसा कानून बनने नहीं देगी जो कि उनके वर्गहितों के खिलाफ रहेगा। किसी नौकरशाह को उसके बलात्कार पर अधिक कड़ी सजा हो, अधिक बड़ा जुर्माना देना पड़े, ऐसे कानून को बनाने की पहल वह नौकरशाही क्यों करेगी? संपन्नता के साथ यह एक बड़ी दिक्कत रहती है कि वह अपने आपमें एक वर्ग का बाहुबल बन जाती है, और कमजोर तबकों के खिलाफ सामंती मिजाज से जुल्म तेज करने लगती है।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में कभी-कभी ऐसे मुख्य न्यायाधीश भी आते हैं जो कि संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारी को अपने बुढ़ापे के इंतजाम से अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। रिटायर होने के बाद बरसों तक सहूलियतों को जारी रखने का लालच जिन्हें नहीं रहता है, वैसे ही जज सरकार की मर्जी के खिलाफ भी कोई फैसले दे पाते हैं। ऐसे ही किसी जज को इस किस्म के मुद्दे को उठाना चाहिए कि एक गरीब और एक अमीर, एक कमजोर और एक ताकतवर को किसी जुर्म पर एक सरीखी सजा कैसे दी जा सकती है? और यह भी कि जुर्म करने वाले संपन्न की दौलत का एक बड़ा हिस्सा जुर्म के शिकार को क्यों न दिया जाए?
भारत जैसे गैरबराबरी वाले समाज में वैसे भी किसी ताकतवर या संपन्न के कटघरे तक पहुंचने की संभावना बहुत कम रहती है। ऐसे में जब बिना किसी शक के अदालत ऐसे किसी को सजा के लायक पाए, तो उसकी संपन्नता की सारी हेकड़ी भी निकाल देनी चाहिए, और उसकी दौलत की ताकत का बेहतर इस्तेमाल पीडि़त परिवार या समाज के लिए होना चाहिए। कानून की नजर में बराबरी ऐसी ही सोच से साबित हो सकती है, न कि हर किसी को एक बराबर सजा देने से कोई बराबरी साबित होगी। दौलत को दी गई सजा से मुजरिम का बाकी परिवार भी प्रभावित होगा, और संपन्नता की बददिमागी को घटाने के लिए यह जरूरी भी है।
देश में एक ऐसी संसद की जरूरत है जो कि अलग-अलग किस्म के जुर्म पर संपन्न मुजरिम की दौलत का एक अनुपात जुर्माने के रूप में जब्त और वसूल करने का कानून बना सके। बलात्कार साबित होने पर कैद के साथ-साथ एक चौथाई दौलत बलात्कार की शिकार को मिले, या हत्यारा साबित होने पर संपन्न की आधी दौलत पीडि़त परिवार को मिले, तो ही कोई इंसाफ हो सकेगा।
इंसाफ की देवी को आंखों पर पट्टी बंधी हुई दिखाया जाता है, लेकिन कानून को इतना अंधा भी नहीं होना चाहिए कि वह संपन्नता की बददिमागी को सजा देने की न सोच पाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)