विचार / लेख

सोचना ही होगा कि रास्ता किधर है ?
10-May-2021 2:10 PM
सोचना ही होगा कि रास्ता किधर है ?

- रुचिर गर्ग 
कोरोना की तीसरी लहर के खतरों के बीच स्वास्थ्य से जुड़ी विश्व विख्यात पत्रिका लैंसेट ने एक स्वतंत्र वैश्विक स्वास्थ्य अनुसंधान केंद्र के हवाले से चेतावनी दी है कि पहली अगस्त तक भारत में कोरोना से मरने वालों की संख्या दस लाख तक पहुंच जाएगी !!
क्या हम इसके लिए तैयार हैं ?

आज मौत का आंकड़ा करीब 2 लाख 43 हजार के आसपास है तब देश में सिर्फ चिताएं और कब्रें नजर आ रही हैं.
आंकड़ा दस लाख पहुंचा तो ?

दुनिया के बड़े–बड़े अखबार , टीवी चैनल्स भारत के हाल पर चिंता  के साथ लिख रहे हैं ,खबरें दिखा रहे हैं पर लैंसेट स्वास्थ्य से जुड़ी विशेषज्ञ पत्रिका है इसलिए इसकी चिंताओं का महत्व अलग है. भारत में कोरोना के हाल पर दो दिन पहले ही प्रकाशित इस पत्रिका के संपादकीय की आज बड़ी चर्चा हो रही है.
इस पत्रिका ने भी कोरोना से निपटने में केंद्र की मोदी सरकार की नाकामियों पर तीखी टिप्पणी ही नहीं की हैं बल्कि कहा है कि मोदी सरकार संक्रमण को नियंत्रित करने की कोशिशों के बजाए ट्विटर पर अपनी आलोचनाओं को नियंत्रित करने में लगी रही.

लैंसेट ने भारत के टीकाकरण अभियान को असफल भी कहा है. इसकी वजह साफ है कि अभी तक टीके के दोनों डोज ले चुके नागरिकों की संख्या 3 फीसदी भी नहीं पहुंची है और सिंगल डोज वाले भी मुश्किल से दस फीसदी के आसपास हैं.

जब देश में टीके की जरूरत थी तो अंतरराष्ट्रीय नेता की छवि हासिल करने के लिए जितने टीके यहां लगे उससे ज्यादा अन्य देशों को भेजे गए. फाइजर की वैक्सीन को श्रीलंका ने हरी झंडी दे दी यहां अब जा कर इसके आने के आसार बन रहे हैं .तमाम विसंगतियां हैं जिनकी खूब चर्चा हो रही है.

लैंसेट ने अपने सुझावों में कहा है कि भारत में टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाने के साथ–साथ सिर्फ शहरी ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित गरीब और ग्रामीण तबके का, जो देश की आबादी का 60 फीसदी है, टीकाकरण जरूरी है. छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसी पहल की थी.अभी अदालती आदेश पर नए सिरे से टीकाकरण योजना बनाई गई. ये अलग चर्चा का विषय है.

इस पत्रिका के संपादकीय में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही गई है. संपादकीय कहता है कि कोरोना नियंत्रण के सरकारी प्रयास तभी सफल होंगे जब सरकार अपनी गलतियों को स्वीकार करेगी, पारदर्शिता के साथ एक जिम्मेदार नेतृत्व होगा और एक ऐसी जन स्वास्थ्य पहल होगी जिसके हृदय में विज्ञान होगा .वरना दस लाख मौतें हो गईं तो उस खुद बुलाई गई तबाही की जिम्मेदार मोदी सरकार होगी!

आंकड़े, चेतावनियां, आलोचनाएं और विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की धज्जियों से अलग चर्चा इस बात पर कि इस पत्रिका को यह लिखना पड़ा कि एक ऐसी जन स्वास्थ्य पहल हो जिसके हृदय में विज्ञान हो, क्यों ? 

क्योंकि दुनिया देख रही थी कि कोरोना को लेकर जितनी अवैज्ञानिकता हिंदुस्तान के ,खासतौर पर बीजेपी से जुड़े सत्ताधीश फैला रहे थे,उससे इस संक्रमण का कितना फैलाव हुआ और कितनी बड़ी तादाद में नागरिकों की जानें गईं ! 

क्योंकि दुनिया देख रही थी कि जब इस तबाही से निपटने की रणनीति बनानी थी तब वो नफरत और राष्ट्रवाद के उन्मादी नारों में गोते लगा रहे थे!
पहले घंटे,ताली ,थाली,मोमबत्ती, दीया,फिर यह कहना कि कुंभ में मां गंगा की कृपा से कोरोना नहीं फैलेगा , फिर प्रधानमंत्री का खुद ही बड़ी बड़ी चुनावी सभाएं करना और भीड़ देख कर खुश होना,कहीं से गोबर और गौ मूत्र से इलाज के दावे,एक व्यापारी बाबा के नुस्खे , कहीं से किसी और अवैज्ञानिक किस्म के इलाज को प्रोत्साहित करते मंत्री..!पूरा माहौल अवैज्ञानिकता से भरा था.

दरअसल आज जिस निकम्मेपन के लिए लोग मोदी सरकार को कोस रहे हैं वो अचानक कोरोना काल की ही उपज हो ऐसा नहीं है.

ये सतह पर आज तब नजर आ रहा है जब अस्पतालों में बिस्तर नहीं हैं ,जब ऑक्सीजन को तरसते लोग मर रहे हैं ,जब श्मशान से लेकर कब्रिस्तान तक शवों की लाइन लगी है ,जब इंजेक्शन नहीं हैं ,जब कोरोना के इलाज का पूरा तंत्र बेहिसाब मुनाफाखोरी ,कालाबाजारी और जमाखोरी की जकड़न में हो, जब पूरा सिस्टम विफल नजर आ रहा हो और हाहाकार मचा हो ! वरना तो इन्हीं लोगों ने इस संक्रमण के लिए तब्लीगी जमात को जिम्मेदार ठहराने से लेकर भारत में कोरोना के खत्म हो जाने तक का उद्घोष कर डाला था ! लेकिन हम तब हड़बड़ाए जब खतरा हमारी गली पर आ पहुंचा..जागे तो अभी भी शायद नहीं !

हम सरकार के निकम्मेपन पर तो जम कर चर्चा कर सकते हैं लेकिन क्या कभी यह सोचने का अवकाश मिलेगा कि इस हाल के हम खुद कितना जिम्मेदार हैं?

क्या आज कोई यह सवाल करता है कि गो कोरोना गो बोलने से तो कोरोना चला नहीं गया था,और ना उसे जाना ही था, फिर क्यों पूरे देश को ऐसे फूहड़, अवैज्ञानिक उन्माद में धकेला गया ? 

क्या आज कोई यह सवाल करता है कि जब देश को समय रहते एक सुविचारित राष्ट्रीय लॉक डाउन की जरूरत थी तब चार घंटे की नोटिस पर लॉक डाउन क्या विशेषज्ञ सलाह पर लगाया गया था? 

बहुत पढ़े लिखे तबके ने भी अपने आपको उस नशे में झोंक दिया था जो समझा रहा था कि मोदी है तो मुमकिन है !आज यह तबका भी लाशें देख कर विचलित तो है लेकिन इसे केंद्र सरकार की अपरिपक्वता और अदूरदर्शिता आज भी नजर नहीं आ रही है.

ये  तबका भी आज नहीं पूछता कि मोदी ही थे तो भरपूर क्षमता होने के बावजूद देश ऑक्सीजन से क्यों वंचित था, क्यों अस्पताल बिस्तरों से वंचित थे और क्यों राज्यों को घटिया वेंटीलेटर सप्लाई किए गए ? पूछना चाहिए ना कि जितनी ऊर्जा देश का घंटा बजवाने में लगाई उतनी ऊर्जा विशेषज्ञ सलाह से बेहतर रणनीति ,बेहतर योजना में क्यों नहीं लगाई ? 

पर हम तो अपनी उस विरासत को भाड़ में झोंकने निकल पड़े थे जो इस आधुनिक भारत के निर्माण की बुनियाद थी. जिसमें तर्क था ,विज्ञान था,योजना थी,आधुनिक दृष्टि थी. जिसने शिक्षा ,स्वास्थ्य ,अनुसंधान के बड़े बड़े केंद्र बनाए. 

हमने सोचा ही नहीं कि तर्क और विवेक आज के निजाम को सबसे बड़े दुश्मन क्यों लगते हैं ? और यह अचानक नहीं हुआ था. इसका परीक्षण उस दिन कर लिया गया था जब अचानक पूरे देश में गणेशजी की प्रतिमाएं दूध पीने लगी थीं!हम यह सोचते ही नहीं कि आम हिन्दुस्तानी अवैज्ञानिक रहे, अतार्किक रहे, अविवेकी रहे ये कौन चाहता है? और क्यों ?

जिन पंडित जवाहर लाल नेहरू को कोसने का कोई मौका बीजेपी आरएसएस के लोग नहीं छोड़ते, उनकी नीतियों से कोई असहमत हो सकता है ,उसमें बहस की गुंजाइश हो सकती है, लेकिन नेहरूजी ने योजना ,विज्ञान और तर्कशीलता की जिस बुनियाद पर आधुनिक हिंदुस्तान के निर्माण की राह बनाई उसकी कहानी हर हिंदुस्तानी को जाननी चाहिए.

दुर्भाग्य यह है कि मोदी सरकार ने एक एक कर के इस विरासत पर प्रहार किया और हम नासमझ बने रहे . योजना आयोग का नाम बदल देना भर मकसद नहीं था. आज इस संकट में बदले हुए नाम वाले नीति आयोग की क्या कोई भूमिका नजर आती है? हकीकत तो यह है कि इस पूरे संकट में सब से ज्यादा कोई किनारे था तो वो वैज्ञानिक और विशेषज्ञ ! दुर्भाग्य ही है कि दुनिया यह महसूस कर रही है कि आज भी इस देश के पास कोरोना से निपटने की कोई राष्ट्रीय योजना नहीं है,क्योंकि योजना के दुश्मन देश की सत्ता पर काबिज हैं.

आज के संकट में हमें बतौर नागरिक अपनी भूमिका को टटोलना ही होगा.

यह तय करना होगा कि राह किस तरफ है? कूपमंडूकता की तरफ या विज्ञान और अनुसंधान की तरफ ? हमें यह सोचना ही होगा कि आखिर लैंसेट जैसी पत्रिका को क्यों यह सीख देना पड़ी कि देश में एक ऐसी जनस्वास्थ्य पहल हो जिसके हृदय में विज्ञान हो.

इस संकट के सबक अगर आज भी नहीं सीखे गए तो कल न जाने कितनी लाशों के बोझ इस देश के कंधे पर होंगे.
अपनों की लाशों के बोझ से कंधे टूट जाते हैं ,देश भी ऐसा बोझ कैसे बर्दाश्त कर पाएगा ?

(रुचिर गर्ग एक भूतपूर्व पत्रकार हैं. अब वे कांग्रेस पार्टी में हैं, और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हैं. यह लेख उनके फेसबुक-पेज से)

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