सामान्य ज्ञान
दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में तंजौर (तंजावूर) के मंदिर में उकेरी गई चित्रकला को तंजौर कलाकृतियों का नाम दिया गया। शैलीगत ढंग से यह माना जाता है कि यह 16वीं शताब्दी में नायक शासकों के शासन के दौरान उभर कर आई। 17वीं सदी में मराठा शासन में इस कला को नया प्रोत्साहन और संरक्षण प्राप्त हुआ। मराठा शासकों के समय तंजौर कला, वास्तुकला, शिक्षण, संगीत और प्रदर्शन कला के एक महान केंद्र के रूप में उभर कर आया।
स्थानीय तौर पर पालागई (लकड़ी का तख्त) और पदम (चित्र) का तात्पर्य लकड़ी के तख्तों पर चित्र बनाने की पद्धति से है जो इस क्षेत्र की विशेष शैली है। ऐसा माना जाता है कि पहले इस कला को दीवारों पर बनाया जाता था और फिर उसे ऐची चीज़ों पर बनाया जाने लगा जिसे आसानी से ले जाया जा सकता हो। इन चित्रों में दृश्य हिंदू धर्म की वैष्णव और शैव परंपरा से उत्पन्न हुए हैं। हालांकि इसमें अन्य धर्मों और धर्मनिरपेक्ष विषयों पर भी कई चित्र मिलते हैं। इन चित्रों में दरबार के दृश्य और संतों तथा शासकों के चित्र शामिल हैं।
तंजौर कलाकृतियों में असली सोने और चांदी का वर्क, बहुमूल्य मोती, शीशे और रत्नों विशेष रूप से सोने का बखूबी इस्तेमाल होता है। देवी-देवताओं की कलाकृतियों में लाल, हरे, नीले, काले और सफेद रंगों के इस्तेमाल के अलावा श्री कृष्ण के बाल रूप की कलाकृति में संगमरमर के साथ अक्सर गुलाबी जबकि भगवान विष्णु और उनके अवतारों के चित्रों में अक्सर हरे रंग की झलक दिखती है।