विचार / लेख
cartoonist alok nirantar
-कनक तिवारी
1857 के जनयुद्ध के वक्त बिहार की धरती से उपजे एक लोकगीत का मुखड़ा था ‘पहिल लड़ाई भई बक्सर में सिमरी के मैदाना।‘ जब जगदीशपुर के शासक अस्सी पार उम्र के कुंवरसिंह के हाथों में तलवार लेने से अंगरेजी सल्तनत को चुनौती देने नौजवानी उन्मत्त और शर्मसार हो रही थी। आज बक्सर शब्द गंगा नदी के किनारे कोरोना महामारी से मारे गए असंख्य, नामालूम, मजलूम और सरकारी हिंसा के शिकार लोगों की लाशों के हुजूम से कलंकित हो गया है। भारत आज तक के इतिहास के सबसे क्रूर, घृणित और राष्ट्रीय बदहाली के दौर में है। दूर दूर तक उम्मीद या ढाढस की रोशनी नज़र नहीं आ रही। कोविड-19 की महामारी ने केन्द्र और राज्य की सरकारों का जनता की निगाह में कचूमर निकाल दिया है। सरकारें जनता की सेवा की प्रतिनिधि संस्थाएं नहीं रह गई हैं। मंत्री, सांसद और विधायक आदि पांच सालाना लोकतांत्रिक चुनावी टेंडर के जरिए जीते हुए सत्ता के ठेकेदार बनकर काबिज होते हैं।
देश जब महामारी की चपेट में आया, तब सबसे पहले राहुल गांधी ने पिछली फरवरी में कहा था इसका सबसे बड़ा थपेड़ा आने वाला है। सत्ता में गाफिल केन्द्र और कई राज्य सरकारें सुनिश्चित करती रहीं कि उन्हें सबका मज़ाक उड़ाते खुद को महामानव बनाना है। जनता के गाढ़े परिश्रम के धन से अखबारों और टीवी चैनलों पर रोज प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की तस्वीर और आवाजें क्यों चिपकती हैं? महामारी में हिन्दू मुस्लिम फिरकापरस्ती का चरित्र नहीं होता। वह कई नेताओं के कारण देश के बड़े वर्ग के खून का नफरत ग्रुप बन गया है।
जवाहरलाल नेहरू ने अपनी देह भस्मि की मुट्ठी गंगा में और कुछ भारत के खेतों में बिखरा देने की वकालत की थी। आज यही बात हजारों लाखों लाशें कह रही हैं कि हम भी भारत के इतिहास का हिस्सा हैं। सरकारी झूठ बोलने की पक गई आदतें राष्ट्रीय अभिशाप में बदल रही हैं। नेताओं की अय्याशी का आलम है कि हजारों करोड़ खर्च कर नया संसद परिसर, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री निवास सहित संकुल बनेगा। मरते हुए देश के भविष्य में इसकी अब क्या जरूरत है? देश इतनी तेजी से तबाह नहीं होता यदि सुप्रीम कोर्ट में पिछले तीन जजों ने महान संसदीय संस्था की धींगामस्ती के बेखौफ अहंकार के खिलाफ न्यायिक आचरण किया होता।
फिज़ा में खबर यह भी है कि आगामी सितंबर माह तक शायद कोरोना की तीसरी लहर आ सकती है। वह बच्चों के लिए ज्यादा खतरनाक हो सकती है। देश का वर्तमान तो बरबाद हो ही रहा है। क्या उसके भविष्य को बचा पाने में सरकारें काबिल और सफल हो पाएंगी? केन्द्रीय मंत्री अपने संसदीय क्षेत्रों में नहीं जाकर संविधान को ठेंगा दिखाते पश्चिम बंगाल में दो तिहाई हुकूूूमत से जीती सरकार पर तोहमत लगाते रहे। लेकिन कोरोना पर एक शब्द नहीं कहे।
सुप्रीम कोर्ट को सरकारी जिम्मेदारी का आॅक्सीजन वितरण का काम करते और खाने कमाने की कमी से जूझते नागरिकों, श्रमिकों की सुरक्षा के लिए आगे आना पड़ रहा है। वाराणसी के सांसद के इलाके में तो देश के सबसे बड़े कलाकारों और उनके परिवार मौत के मुंह में चले गए। वहां अंतिम संस्कारों के लिए मणिकर्णिका घाट इतना विस्तृत हो गया है कि पूरा देश ही मौतों के सिलसिले में मणिकर्णिका घाट हो रहा है। तब भी टीवी चैनलों और अखबारों में मंत्रियों के मुस्कराते चेहरे कटाक्ष, व्यंग्य, आत्ममुग्धता, अहंकार और परत दर परत पुख्ता हो गए झूठ के ऐलान देखकर कोरोना उनसे गलबहियां करते जनता की जान लेते टर्रा रहा है। सरकार अट्टहास में कह रही है ‘कोरोना तुमको जीने नहीं देगा और हम जनता तुमको कोरोना से बचने नहीं देंगे।‘
मौत का भयानक कोलाहल चलते भी बंगाल के गवर्नर को कोरोना की चिन्ता दरकिनार करके संविधान के प्रावधानों के साथ खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट की संविधान पीठ सरकार से संतुष्टि के आकलन के समानान्तर अपनी जिद और जद में हैं कि महामारी पर तो चिंता नहीं है लेकिन बंगाल की सरकार को किस तरह ठिकाने लगाएं। देश के वाचाल अट्टहासी गृहमंत्री खामोश हैं। प्रधानमंत्री आत्ममुग्ध और भक्तपराश्रित हैं। मुख्यमंत्रीगण भी अपने हाथों अपनी पीठ ठोंकते रहते हैं। कोई अपनी सियासी फितरत से बाज नहीं आ रहा है। देश के स्वास्थ्य मंत्री कोरोना के बावजूद मुस्कराते हुए मटर छीलते, अफसरों के बनाए उत्तर को रिट्वीट करें। सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष छत्तीसगढ़ सरकार पर कटाक्ष करें कि नया रायपुर याने अटलनगर में नई इमारतें क्यों बन रही हैं। सेंट्रल विस्टा के मामले में लेकिन बगले झांकें।
केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डा0 हर्षवर्धन चुटकुलों के मूर्तिमान संस्करण हैं। कोरोना से मरते खपते लाखों भारतीयों को संदेश देते हैं कि डार्क चाॅकलेट खाने से कोरोना से मुकाबला किया जा सकता है। इन मंत्रियों को यह तक नहीं मालूम होता कि कुपोषण में भारत विश्व के चुनिंदा देशों में है। किसी राजकुमारी ने कहा था कि लोगों के पास खाने को रोटी नहीं है तो केक क्यों नहीं खाते। लगता है भारत में राजकुमारी का पुनर्जन्म हो गया है। उनकी ही विचारधारा के कई भक्त कोविड-19 से बचने गोबर में स्नान कर रहे हैं। पूजापाठ कर रहे हैं। इनमें कुछ मंत्री भी शामिल हैं।
कोविड-19 अपनी भयानक मुद्रा लेकर अब आंखों में फैल गया है। फंगस की बीमारी के कारण लोग मर रहे हैं। समझ नहीं पा रहे हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। कुछ ही दिनों में बारिश का मौसम आएगा। वैसे बेमौसम बरसात भी हो रही है। यमुना तो एक सूखती हुई धरती का नाम है। वह बरसात में ही नदी हो पाती है और फिर गंगा से मिलती है। तब उनके किनारे खड़े होकर शव फूलेंगे, फलेंगे, इतराएंगे, बहकेंगे। देश में वैसे भी अतिसार, मलेरिया, हैज़ा, बुखार, सर्दी खांसी की बीमारियां और लू वगैरह बरसात में होते ही रहते हैं। कोरोना उनके साथ मिलेगा तब कोढ़ में खाज जैसी स्थिति होगी। सरकारें अपनी नाकामी को छिपाने वैक्सीन की दूसरी डोज़ का समय बढ़ाकर दो से तीन माह तक कर रही हैं। पूरी पश्चिमी दुनिया में उसे तीन या चार सप्ताह में दे दिया जाता है। भारत अपनी सरकारों और नेताओं के कारण नर्क में रहने का मांसल अनुभव कर रहा है। वह भी तब तक जब तक कि कोरोना रहेगा। पता नहीं इस भारत का क्या भविष्य है। यह बीमारी तो हटेगी लेकिन तब भी भुखमरी, बेकारी, बेरोजगारी और शिक्षा के बरबाद हो जाने के साथ साथ हमारे नेता इस देश को कहां ले जाएंगे।