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कोविडः खोयी हुई गंध को वापस पाने की कोशिश
15-May-2021 1:35 PM
कोविडः खोयी हुई गंध को वापस पाने की कोशिश

सूंघने की सामर्थ्य में कमी, कोविड-19 के सबसे आम लक्षणों में से एक है. कई लोग जो ठीक नहीं हो पाते हैं उन्हें मनोवैज्ञानिक नतीजे भुगतने होते हैं. लेकिन अब इस बारे में कुछ उम्मीद जगी है.

    डॉयचे वैले पर मरीना स्ट्रॉउस की रिपोर्ट 

बेल्जियम की निवासी ऐन-सोफी लेरक्विन ने पहले तो गौर नहीं किया लेकिन दो दिन बाद उन्हें अहसास हुआ कि उनकी जिंदगी में किसी खास चीज की कमी  हो गयी है. उनकी सुबह की कॉफी में भुनी हुई बीन्स की महक नहीं तैर रही होती थी, उनके साबुन में लवैंडर की खुशबू गायब थी और रेफ्रिजरेटर के ऊपर रखे गुलाब और तुलसी में उनकी मौलिक ताजगी का अभाव था. एक अजीब सी नीरसता पसरी हुई थी.

पिछले साल अक्टूबर में लेरक्विन जब कोविड-19 पॉजीटिव निकली थीं, तो उनके मुताबिक, उन्हें ऐसा महसूस किया कि वो अनंत काल से थकी हुई हैं. और अचानक उनकी सूंघने की शक्ति भी चली गयी. पूरी तरह से गायब. ब्रसेल्स में छह महीने बाद अपने अपार्टमेंट में उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया कि "कभी कभी मुझे लगता है कि मुझे कोई डिप्रेशन हो गया है.”

कुछ गंध तो लौट आयी लेकिन कई चीजों की गंध बिगड़ी हुई थी. इसे कहा जाता है, पेरोस्मिया, गंध को सही सही न पहचान पाने की अक्षमता. इससे उलट होता है एनोस्मिया जिसमें किसी चीज की गंध पता ही नहीं चलती. एक तरह की स्मेल ब्लाइंडनेस कह लीजिए.

जब गुलाब का इत्र सड़ने लगा
लेरक्विन को अपने आसपास की तमाम गंध से छुटकारा लेना पड़ा. कुछ महीनों पहले तक जो महक उन्हें लुभाती थी वो अब अजीब लगने लगी थी. उनके ब्वॉयफ्रेंड का कोलोन, उनकी लाल लिपस्टिक, उनकी सुगंधित कैंडलें और परफ्यूम का उनका कलेक्शन...सारी खुश्बुएं जाती रहीं. आकर्षक लगने वाली चीजें, जैसा कि वो बताती हैं, डायपर की तरह बदबू मारने लगी थीं. "इस्तेमाल किए हुए ठीकठाक से डायपर की तरह.” उनके एक पसंदीदा गुलाब परफ्यूम का यही हश्र हो चुका था.

अध्ययन भले ही अलग अलग हों कि कितने सारे लोग वास्तव में प्रभावित होते हैं लेकिन ये तय है कि सूंघने की क्षमता से जुड़ी दिक्कतें कोविड-19 के सबसे आम लक्षणों में से एक हैं. इस विकार के  कारणों के बारे में भी शोधकर्ताओं के बीच फिलहाल कोई रजामंदी नहीं है.

ब्रसेल्स के सेंट लुक यूनिवर्सिटी अस्पताल में केरोलिन हुआर्ट कान, नाक और गले की विशेषज्ञ हैं. लेरक्विन का इलाज वही कर रही हैं. अपनी मरीज की हालत के बारे में उनके दो मत हैं. अध्ययन बता चुके है कि वायरस नाक में घ्राण स्नायु के इर्दगिर्द कोशिकाओं को प्रभावित करता है. दूसरी हाइपोथेसिस ये है कि "वायरस घ्राण स्नायु पर ही हमला कर देता है.” इस तरह सार्स कोवि-2, मस्तिष्क और नाक के बीच मध्यस्थ की तरह काम करने वाले घ्राण खंड में ही सीधे घुस सकता है.

स्मृतियों से जोड़ने वाली गंध 
फ्रांस निवासी ज्यां-मिशेल मलार्ड इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि ऐन-सोफी लेरक्विन जैसे लोगों पर क्या गुजर रही है. पांच साल से ज्यादा हुए जब वो पीठ के बल गिर गए थे और उनके सिर के पिछले हिस्से मे चोट लग गयी थी. उसके बाद से उनकी सूंघने की शक्ति पूरी तरह चली गयी थी. सबसे ज्यादा मिस करते हैं वो अपने बेटों की और अपनी पत्नी की गंध. जिसे वो कुछ इस तरह बयान करते हैं, "जिंदा रहने का अहसास दिलाने वाली गंध.” इस नुकसान का अहसास उनकी उन तमाम स्मृतियों तक चला जाता है जिन्हें वो कुछ खास गंधों से जोड़ते हैं: उनकी दादी का लॉन्ड्री रूम जो उन्हें अपने स्कूली दिनों में ले जाता है. या अपने पिता के साथ बिताए दिन. वो कहते है कि वो इन तमाम अनुभवों से खुद को कटा हुआ महसूस करते हैं.

मलार्ड एक उत्साही कुक हैं और अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद ये एक ऐसी चीज है जिसे वो भरसक अपने से अलग नहीं होने देना चाहते. इन दिनों वे जो खाना पकाते हैं वो बेस्वाद होता है, क्योंकि नाक के भीतर स्थित करोड़ों घ्राण कोशिकाएं स्वाद का बोध कराती हैं. उन्हें मीठे और खट्टे स्वादों से काम चलाना पड़ता है. नॉरमंडी में अपने घर की रसोई में चमकदार नीली कैंडी से लबालब भरे कटोरे की ओर इशारा करते हुए वो कहते हैं कि अब यही उनका आनंद है.

गुस्से से निकला एक विचार
अपने साथ हुए हादसे के बाद मलार्ड के भीतर जो चीज सबसे ज्यादा घर कर गयी थी वो था गुस्सा, क्योंकि कोई उनकी मदद नहीं कर सकता था. एक के बाद एक डॉक्टरों के चक्कर काटने के बाद उनका गुस्सा, उदासी में बदलने लगा और उसी से उनके भीतर एक नया ख्याल पकने लगा. उनकी मुलाकात कुछ शोधकर्ताओं से हुई जिन्होंने उन्हें गंध एकाग्रता और गंध प्रशिक्षण के बारे में बताया. सूंघने की क्षमता में विकार से पीड़ित फ्रांस की पांच प्रतिशत आबादी के लिए ये उम्मीद की किरण थी, जिसमें मलार्ड भी एक थे.

मलार्ड ने कोशिश करने का फैसला किया और अपनी नाक का अभ्यास शुरू कर दिया. बल्कि यूं कहें कि वो अपनी नाक को फिर से ट्रेन करने लगे. कॉफी के बीज, गुलाब, नींबू, और यूकेलिप्टस. अपनी सुबह की कॉफी की चुस्कियां लेते हुए वो अब एक बहुत हल्की सी गंध को पहचान लेते हैं. वो समझते हैं कि इस अभ्यास के बावजूद वो किसी स्वस्थ व्यक्ति की तरह कभी नहीं सूंघ पाएंगे. उनकी चोट ने उनकी सूंघने की शक्ति को बहुत बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया था जिसमें सुधार की गुंजायश बहुत ही कम थी.

लेकिन इतना सब झेलने के बावजूद मलार्ड चुप नहीं बैठे. अपने जैसे पीड़ितों और खुश्बुओं से वंचित लोगों की मदद के लिए उन्होंने साढ़े तीन साल पहले एनोज्मी डॉट ओर्ग नाम से एक संगठन बनाया, ये बताने के लिए कि आखिर एक अच्छी गंध कितनी अहम और खूबसूरत चीज है. वो कहते है कि "खोने के बाद ही लोगों को उसकी अहमियत का पता चलता है.” लुभावनी खुशबुओं के अलावा, गंध का बोध न होने का अर्थ ये भी है कि वो अपनी देह की गंध को नहीं सूंघ सकते या धुंए जैसी किसी खतरे की गंध को.

नाक का अभ्यास
मलार्ड को उम्मीद है कि महामारी जल्द ही गुजर जाएगी. वो इस बात की तारीफ करते है कि महामारी में गंध और स्वाद के मामले में काफी तवज्जो दी जा रही है जिसे वो अपने और अपने जैसे और लोगों के लिए ईश्वर प्रदत की तरह देखते हैं. अतीत में उनकी बेचारगी और पीड़ा के प्रति किसी को दिलचस्पी नहीं रहती थी, उन्हें गंभीरता से लिया ही नहीं जाता था. आज, एक साल से ज्यादा हो गए वो हर रात और वीकेंड में भी कुछ घंटे अपने कंप्यूटर के सामने बैठते हैं और कोविड-19 से गंध का अहसास खो देने वाले लोगों को स्मेल ट्रेनिंग के लिए प्रेरित करने की कोशिश करते रहते हैं.

उधर ब्रसेल्स में ऐन-सोफी लेरक्विन भी अपने डॉक्टर के साथ मिलकर नाक का अभ्यास कर रही हैं. उनका कहना है कि अध्ययनों के मुताबिक लोगों को कुछ ही महीनों में सकारात्मक नतीजे मिल रहे हैं. लेरक्विन जैसे मरीज आंख बंद कर दिन में दो बार अलग अलग गंधों को सूंघते हैं. डॉक्टर हुआर्ट कहती हैं कि "ध्यान लगाना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि मस्तिष्क को वास्तव में उन गंधों की स्मृति को हरकत में ले आना होता है.” लेरक्विन के मामले में देखें तो उनके दिमाग को वाकई फिर से ये सीखना होगा कि गुलाब में गुलाब जैसी गंध आती है ना कि सीवेज जैसी.

इस तथ्य में भी एक और उम्मीद है कि घ्राण कोशिकाएं नियमित रूप से खुद को नया करती रहती हैं. फिर भी लेरक्विन को डर है कि वो दोबारा कभी सूंघ नहीं पाएंगी. लेकिन उन्हें इस बात की थोड़ी तसल्ली भी है कि कम से कम कुछ न कुछ सुधार तो होगा ही. (dw.com)
 

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