विचार / लेख
-अखिलेश प्रसाद
अभी-अभी पैरासिटामोल खरीदने एक दवा दुकान पर जाना हुआ। दुकान वाला इशारे से सभी को लाइन से आने बोल रहा था। हम अपनी बारी का इंतजार करते हुए आगे बढ़ रहे थे। मेरे आगे एक बुजुर्ग थे। कपड़े के नाम पर नीचे गमछा लपेटे थे और ऊपर एक उधड़ी हुई बनियान। चेहरे पर उदासी और लाचारी साफ झलक रही थी।
अपनी नम्बर आने पर दुकान वाले को उन्होंने दवाई मांगी। गमछे से पैसा निकाला और दे दिया। दुकानदार जब तक पैसा वापिस करता, वे बगल में खड़े हो गए।
अब हमारी बारी आ गई थी। हमने पैरासिटामोल 650 एमजी एक पत्ता मांगा। दुकानदार ने कहा भाई, खत्म हो गई। एक ही पत्ता था। अंकल को दे दिया।
मैं उदास होकर वहां से निकलने लगा, तभी बुजुर्ग ने कहा! मेरे पत्ते से आधा इनको दे दीजिए। हम बोले नहीं रहने दीजिए। हम कोई और दुकान से खरीद लेंगे और आपको ऐसे भी इसकी जरूरत है।
तभी बुजुर्ग बोले, बेटा एक ही रात में थोड़ी न सब टेबलेट खा लूंगा। सामने वाली फूटपाथ पर मेरी बूढ़ी पत्नी लेटी हुई है। उसको बुखार है। एक खाने से ही आज रात भर किसी तरह निकल जायेगा। तुम आधी ले लो, तुम्हारा भी काम हो जाएगा, आज के लिए।
दुकानदार ने कैंची से काटकर मुझे पांच टेबलेट पकड़ाया और बोला कि इतने पैसे आप इनको दे दीजिए। जैसे ही हम पॉकेट से पैसा निकालकर उनको देना चाहा, वे लेने से साफ इंकार कर दिए। बोले कि बेटा अब क्या हम तुमसे इतनी दवाई का पैसा लें। मेरा गला भर आया! मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा। सामने सडक़ पार करने पर एक झोपड़ी में वे बुजुर्ग घुस गए। जिसमें से कोई मद्धम रोशनी आ रही थी। मुझे हिम्मत नहीं हुआ कि मैं क्या बोलूं उनको और किस तरह से धन्यवाद दूं।
आज जब करोड़ों रुपये कमाने वाले और महल में रहने वाले नकली दवा का कारोबार में लगे हैं ऐसे वक्त में कोई इंसान अपने हिस्से का दवा मुझे दे गया।