संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केंद्र-राज्य संबंध बिगड़ते-बिगड़ते, केंद्र-राज्य संघर्ष
16-May-2021 4:50 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केंद्र-राज्य संबंध बिगड़ते-बिगड़ते, केंद्र-राज्य संघर्ष

edit photo ANI ke soujanya se

पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और सत्ता पर आने की महत्वाकांक्षी भाजपा के बीच हिंसक टकराव चल रहे थे। दस बरस से मुख्यमंत्री चली आ रहीं ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ जनता के बीच स्वाभाविक रूप से पनपने वाले असंतोष की शिकार भी हो सकती थीं, और सत्ता से बाहर जा सकती थीं, और ऐसी ही उम्मीद में भाजपा ने वहां पर सरकार बनाने के दावे भी किए थे। इन दावों के बीच वहां चुनाव के पहले से लगातार जो हिंसा चल रही थी वह चुनाव के बाद भी जारी रही। अब इस हिंसा के लिए कौन सा राजनीतिक दल कितना जिम्मेदार था, राज्य की सरकार कितनी जिम्मेदार थी, उस वक्त चुनाव आचार संहिता लागू थी, और राज्य का सारा प्रशासन चुनाव आयोग के हाथों में था, इसलिए यह एक धुंधली तस्वीर है कि उस वक्त हालात काबू में करने में कौन नाकामयाब रहे, और कौन सी पार्टी कितनी हिंसक रही। राज्यपाल ने जाहिर तौर पर ममता बनर्जी की सरकार की खासी आलोचना की और भाजपा पर हुए लोगों के हमले पर फिक्र जाहिर की। वे केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। एक असामान्य बात मतगणना के बाद इस हिंसा के सिलसिले में यह हुई कि कोलकाता हाईकोर्ट ने खुद होकर हिंसा की सुनवाई शुरू की और पहले ही दिन से एक संविधान पीठ इसके लिए गठित कर दी। उसके सामने राज्य सरकार ने जब अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसके बाद अदालत ने उसमें और कुछ करने जैसा शायद नहीं पाया है। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की एक जरूरत इसलिए हो रही है कि केंद्र सरकार ने यह तय किया  है कि पश्चिम बंगाल के सभी 77 भाजपा विधायकों को केंद्रीय पैरामिलिट्री द्वारा सुरक्षा दी जाएगी। इन सबके साथ सीआईएसएफ की कमांडो यूनिट लगाई जाएगी और इस फैसले से यह जाहिर होता है कि राज्य के भाजपा विधायकों से कहीं अधिक केंद्र की भाजपा अगुवाई वाली मोदी सरकार का अविश्वास पश्चिम बंगाल सरकार पर है कि वह भाजपा विधायकों की सुरक्षा या तो कर नहीं पाएगी या उसकी ऐसी नीयत नहीं है। यह नौबत इस मायने में खराब है कि यह केंद्र और एक राज्य के संबंध में तनातनी का एक नया स्तर बताती है। आमतौर पर ऐसा कहीं भी देखा नहीं गया है कि केंद्र सरकार किसी एक राज्य की किसी एक पार्टी के सारे विधायकों को केंद्रीय सुरक्षा बल की सुरक्षा देना तय करे। शायद यह भारत के केंद्र-राज्य संबंधों में पहली ऐसी घटना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के आलोचक इस मुद्दे को केंद्र और राज्य की तनातनी का एक बहुत बुरा पतन बतला रहे हैं और उनका मानना है कि केंद्र सरकार को कुछ और पहल करनी चाहिए थी, राज्य के ऊपर इतना अधिक अविश्वास ठीक नहीं है और भारत जैसे संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य के संबंध इतने खराब होना ठीक नहीं है और जैसा कि किन्हीं भी दो पक्षों के बीच होता है, संबंधों में सुधार की अधिक जिम्मेदारी बड़े की होती है, जो कि इस मामले में केंद्र सरकार की होनी चाहिए थी। लेकिन एक दूसरा सवाल यह उठता है कि बंगाल में अगर लगातार हिंसा चल रही थी जिसमें भाजपा के लोगों पर अधिक हमले हुए उनकी अधिक मौतें हुई तो ऐसी नौबत में इन निर्वाचित विधायकों या दूसरे भाजपा नेताओं की सुरक्षा अधिक जरूरी है। फिर अगर राज्य सरकार पर केंद्र का भरोसा नहीं रह गया है तो केंद्र को यह अधिकार है कि वह ऐसे नेताओं की हिफाजत करवाएं। यह एक अलग बात है कि आगे इससे कई किस्म के टकराव की नौबत का खतरा बने रहेगा। लेकिन हम संबंधों में किसी टकराव के चलते हुए लोगों की जिंदगी खतरे में डालने के खिलाफ हैं, और जिस तरह भी हो सके लोगों की हिफाजत करनी चाहिए, और संबंधों में सुधार के लिए तो बंद कमरों में बाद में भी बातचीत हो सकती है। जो लोग मोदी के आलोचक हैं, और जिन्हें लग रहा है कि  ममता सरकार के हक कुचले जा रहे हैं,  उनकी याददाश्त को थोड़ा सा ताजा करना बेहतर होगा। जब ममता बनर्जी केंद्र में एनडीए सरकार के तहत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की रेल मंत्री थी तो उस पूरे दौर में जब भी बंगाल आती थीं, वे वाममोर्चा सरकार की पुलिस की हिफाजत नहीं लेती थीं, और वे आरपीएफ के जवानों के घेरे में चलती थी। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स को पूरे देश में काम करने का एक विशेष अधिकार इसलिए दिया गया है कि रेलवे संपत्ति की चोरी या लूट होने पर उसके लिए राज्य कि पुलिस पर निर्भर रहने की जरूरत ना हो और आरपीएफ खुद भी जाकर कार्रवाई कर सके। पूरे देश में यही एक फ़ोर्स ऐसी है जो किसी भी राज्य में किसी भी जगह जाकर कार्रवाई कर सकती है और इसलिए ममता बनर्जी ने वाममोर्चा सरकार के राज्य में भी इसी फोर्स की हिफाजत पर भरोसा किया था. जबकि यह फ़ोर्स संपत्ति की सुरक्षा के लिए बनी थी और इसे वीआईपी सुरक्षा की कोई ट्रेनिंग नहीं थी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है इस बारे में जरा सी और तलाश की जाए तो बड़ी दिलचस्प खबरें निकलती हैं।

जब वाममोर्चा के 33 वर्षों की सरकार को हराकर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने एक असाधारण फैसला लिया था। उन्होंने अपनी यानी मुख्यमंत्री की सारी सुरक्षा व्यवस्था रेल मंत्री के दिनों की तरह आरपीएफ के ही हवाले रखी और यह बंगाल पुलिस की एक बहुत बड़ी बेइज्जती हुई थी कि उसकी अपनी मुख्यमंत्री अपनी हिफाजत के लिए उस पर भरोसा नहीं कर रही है. यह फैसला भी असाधारण था, देश के किसी मुख्यमंत्री ने ऐसा कभी नहीं किया था। ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल के 103 दिन के बाद जाकर आरपीएफ को वापस भेजा था और राज्य की पुलिस को मुख्यमंत्री की हिफाजत का जिम्मा लौटाया था। यह सिलसिला बहुत खराब था और यह एक मुख्यमंत्री का अपनी ही पुलिस पर अविश्वास का एक असाधारण सुबूत था। इसमें कहीं भी केंद्र और राज्य संबंधों की तनातनी नहीं थी, इसमें राज्य के मुख्यमंत्री और उसकी अपनी पुलिस के बीच की तनातनी थी. उस वक्त कुछ लोगों का यह भी कहना था कि 103 दिन के बाद ममता बनर्जी ने अनमने ढंग से आरपीएफ को लौटाया था क्योंकि आरपीएफ ने उन्हें लंबा चौड़ा बिल दे दिया था।

अब सवाल यह उठता है कि बंगाल में ऐसी तनातनी की एक परंपरा ममता बनर्जी ने ही शुरू की, मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं किया, इसलिए आज जब केंद्र सरकार भाजपा के विधायकों की हिफाजत को लेकर बंगाल की पुलिस पर भरोसा नहीं कर रही है तो ममता बनर्जी केंद्र राज्य संबंधों का कोई बड़ा हवाला देने का नैतिक अधिकार भी नहीं रखतीं। लेकिन एक दूसरा बड़ा सवाल जो यहां खड़ा होता है वह यह है कि चुनाव निकल जाने के बाद अगले 5 बरस तक इस राज्य में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की जरूरत है, राज्य इन दोनों की ही जिम्मेदारी है, और ऐसी तनातनी से इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान होगा। यह केंद्र के लिए भी अशोभनीय नौबत है कि एक  राज्य के साथ उसके संबंध इतने खराब हो गए हैं कि बातचीत के भी संबंध नहीं बचे. अभी यह बात साफ नहीं है कि केंद्र सरकार ने भाजपा विधायकों की हिफाजत को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई चर्चा की थी या नहीं, या उसने खुद ही यह तय कर लिया कि उसके विधायकों की सुरक्षा केंद्रीय सुरक्षा बल करेंगे। जो भी हो यह नौबत इस नाते खराब है कि आज भी भारत में न्यायपालिका भी है, और राज्यपाल नाम की संस्था भी है जो कि केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पर्याप्त सक्रिय हैं, ममता के पर्याप्त आलोचक हैं, और वे भाजपा विधायकों के पर्याप्त हमदर्द भी हैं। इन सबके रहते हुए केंद्र सरकार का सुरक्षा का यह एकतरफा फैसला दिल्ली के बंगाल से रिश्तों  के खराब होने का एक बिल्कुल ही नया स्तर है, जो कि निराशा की बात है। अब इसके बाद केंद्र और बंगाल की तनातनी, मोदी-शाह और ममता की तनातनी और किस निचले स्तर पर जा सकती है? इसके बाद क्या दिल्ली पश्चिम बंगाल में अपना राजदूत तैनात करेगी?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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