संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश का इस वक्त फिजूलखर्ची करना एक जुर्म से कम नहीं..
17-May-2021 5:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश का इस वक्त फिजूलखर्ची करना एक जुर्म से कम नहीं..

आज हिंदुस्तान में कोरोना के खतरे को लेकर केंद्र सरकार की जितने किस्म की आलोचना हो रही है उसमें एक बात ऐसी भी जुड़ गई है जिसका कोरोना वायरस से कोई लेना-देना नहीं है। दिल्ली में 22 हजार करोड़ से जो नया संसद भवन, नया प्रधानमंत्री निवास, और कुछ नए दफ्तरों का परिसर, सेंट्रल विस्ता नाम से बनाया जा रहा है, उसे लोग गैर जरूरी भी मान रहे हैं और यह भी मान रहे हैं कि कई ऐतिहासिक पुरानी इमारतों को तोडक़र इसे बनाना नाजायज है। लेकिन जैसा कि लोकतंत्र में हर आलोचना और विरोध की एक सीमा है, विरोध करने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट तक जाकर जनहित याचिका हार चुके हैं और देश की सबसे बड़ी अदालत ने यह आखिरी फैसला दिया है कि सरकार को ऐसा करने का हक है और वह उसे नहीं रोक सकती। सरकार को हक तो बहुत किस्म का रहता है लेकिन लोकतंत्र हकों के साथ-साथ जिम्मेदारियों का भी नाम रहता है, इसलिए आज जब केंद्र सरकार कोरोना के टीकों का खर्च खुद उठाने के बजाय उसे राज्य सरकारों पर डाल रही है तो लोगों के मन में यह बात आ रही है कि 22 हजार करोड़ की फिजूलखर्ची करते हुए यह सरकार किस मुंह से राज्यों को खर्च उठाने के लिए कह रही है, जो पिछले एक बरस से लॉकडाउन और कोरोना की वजह से वैसे ही बदहाली से गुजर रहे हैं। दूसरी बात यह भी चल रही है कि जब दुनिया भर के देशों से भारत सरकार मदद की उम्मीद कर रही है, और दर्जनों देशों से आ रही मदद को मंजूर भी कर रही है, तो ऐसे वक्त क्या उसे यह शोभा देता है कि वह इतनी बड़ी रकम एक ऐसे काम पर खर्च करे जिसके बिना 70 बरस से देश चल रहा था, और संसद की जिस इमारत के अगले 75 वर्ष तक न बिगडऩे की तकनीकी उम्मीद जताई जा रही थी। 

इसी सिलसिले में छत्तीसगढ़ सरकार ने नया रायपुर नाम की राज्य की राजधानी में मुख्यमंत्री निवास और नए विधानसभा भवन जैसे कई निर्माण कार्य रोक दिए हैं और शायद 1000 करोड़ रुपए की लागत के काम फिलहाल टाल दिए हैं। यह करना ठीक इसलिए भी रहा कि कोरोना और लॉकडाउन के नुकसान की भरपाई कब तक हो सकेगी, किस कीमत पर हो सकेगी, कब तक लोगों की जिंदगी की रफ्तार पटरी पर लौट सकेगी, आज इनमें से किसी बात का कोई ठिकाना नहीं है। सरकार की टैक्स वसूली भी खतरे में है और आम जनता की जिंदगी तो बहुत ही तकलीफ देह हो ही चुकी है। ऐसे में नेताओं को और बड़े लोगों को कोई भी फिजूलखर्ची नहीं करनी चाहिए, और जो विधानसभा आज छत्तीसगढ़ में 20 बरस से बिना किसी दिक्कत के चल रही है, उसे सैकड़ों करोड़ की लागत से नई बनाने का भी कोई मतलब ऐसे माहौल में नहीं है, जब लोगों के पास खाने को नहीं बच रहा है, और मुफ्त के राशन से वे जिंदा हैं।

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि पिछले एक-डेढ़ बरस में ही हमने लगातार इस बारे में लिखा है कि सरकारों को इस दौर में बहुत ही किफायत बरतनी चाहिए क्योंकि मौजूदा मुसीबत कब तक जारी रहेगी और देश को, प्रदेश को किस बदहाली में ले जाकर छोड़ेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है। इसके अलावा भी हर देश-प्रदेश को इस बात के लिए तैयार रहना चाहिए कि कई किस्म की प्राकृतिक एवं मानव निर्मित विपदा उसके सामने आ सकती हैं और उससे उबर पाना हर बार आसान या मुमकिन नहीं रहेगा।

 अविभाजित मध्यप्रदेश के समय की बात अगर लोगों को याद हो तो भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली गैस लीक हुई थी जिसमें हजारों लोग मारे गए थे और लाखों लोगों की सेहत उनकी बाकी पूरी जिंदगी के लिए बर्बाद हो गई थी वे जिंदा लाश की तरह रह गए थे। वह पूरा का पूरा खर्च आर्थिक रूप से भी प्रदेश या केंद्र सरकार के ऊपर बहुत भारी पड़ा था, और जो सरकारें कर्ज लेकर अपना बजट बनाती हैं, वह जाहिर हैं कि ऐसी किसी मुसीबत के लिए तैयार भी नहीं रहतीं। अभी कुछ बरस पहले उत्तराखंड में जिस तरह से बाढ़ आई और जिस तरह से केदारनाथ जैसे बड़े तीर्थ स्थानों से लेकर हरिद्वार तक के कई हिस्से बर्बाद हुए, हजारों लोगों से अधिक की मौत हुई, और सरकारी और निजी संपत्ति सबकी बहुत तबाही हुई, तो क्या वे राज्य या केंद्र सरकार ऐसी किसी नौबत के लिए तैयार थे? कर्ज लेकर घी पीना बहुत समझदारी की बात नहीं है, ना सिर्फ सरकारों के लिए, बल्कि निजी कारोबारियों के लिए भी, और निजी परिवारों के लिए भी। कर्ज लेकर फिजूलखर्ची बर्बाद करके छोड़ती है। आज हमारा ख्याल है कि एक डेढ़ बरस से अभी जारी मुसीबत पूरे देश को, खासकर उसके मजदूर तबके को, उसके मध्यमवर्ग को, तबाही की कगार पर ले जाकर छोड़ रही है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को तमाम फिजूलखर्ची छोडक़र सिर्फ यह देखना चाहिए कि अपनी पूरी आर्थिक क्षमता से वे अपने मजदूरों और मध्यम वर्ग के लोगों के जिंदा रहने का जरिया किस तरह जुटा कर दे सकती हैं। 

दुनिया के अलग-अलग देशों ने अपनी अर्थव्यवस्था के मुताबिक व्यापार को भी मदद की है, उद्योगों को भी मदद की है, और मजदूरों को तो सीधी मदद की है। लेकिन फिर भी जो असंगठित क्षेत्र के निजी क्षेत्र के नौकरीपेशा लोग हैं, वे हिंदुस्तान में करोड़ों की संख्या में नौकरी खो बैठे हैं, और उन्हें कोई दूसरी नौकरी मिलने के जल्द आसार भी नहीं दिखते। ऐसे में सरकारों को ऐसी तरकीबें सोचना चाहिए कि अर्थव्यवस्था, कारोबार, और उद्योग धंधे फिर से चल सकें ताकि वहां पर काम कर रहे लोग फिर नौकरी पा सकें या मजदूरी कर सकें। ऐसे माहौल में जब दुनिया भर से मदद पाकर हिंदुस्तान अपने मरते हुए लोगों को ऑक्सीजन दे पा रहा है, इंजेक्शन और दवा दे पा रहा है, ऐसे माहौल में सरकार का अपने ऊपर खर्च करना अपने शौक के लिए खर्च करना अपनी अधिक सहूलियतों के लिए खर्च करना एक आपराधिक गैरजिम्मेदारी के अलावा कुछ नहीं गिना जाएगा। केंद्र सरकार से लेकर स्थानीय म्युनिसिपलों तक तमाम लोगों को खर्च को रोकना चाहिए और इस रकम को उत्पादक इस्तेमाल के लिए बचा कर रखना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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