संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोगों में कामयाबी के सेहरे के लिए सर तय करने की समझ खत्म हो गयी है
20-May-2021 5:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : लोगों में कामयाबी के सेहरे के लिए सर तय करने की समझ खत्म हो गयी है

आज दुनिया के एक सबसे कामयाब और लोकप्रिय लेखक युवाल नोआह हरारी को सुनना भी उतना ही दिलचस्प रहता है, जितना कि उनकी किसी किताब को पढऩा। अभी एक अमेरिकी प्रकाशन फाइनेंशियल टाइम्स को एक ऑनलाइन इंटरव्यू में उन्होंने एक दिलचस्प बात कही कि 2020 के बरस को राजनीति या देशों की सरकारों की नाकामयाबी की शक्ल में देखा जाएगा और वैज्ञानिकों की कामयाबी की शक्ल में। उन्होंने कोरोना के इस दौर से जुड़े हुए बहुत से सवालों के जवाब दिए, लेकिन उसमें जो एक बात हमें यहां पर आगे बढ़ाने लायक लगती है वह यह है कि वैज्ञानिकों ने पिछले एक बरस में निराश नहीं किया है और सरकारों ने निराश ही निराश किया है, कुछ ने कम, कुछ ने अधिक। कुछ ने महज अपनी सरहदों के भीतर निराश किया है तो कुछ ने दुनिया की अपनी सामूहिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर निराश किया है। 

आज दिक्कत यह हो गई है कि इस नौबत में वैज्ञानिक कामयाबी, सरकारी नाकामयाबी के साथ चलते हुए जब इलाज और टीके लिए हुए लोगों तक पहुंच रही है तो वह एक दूसरे की साख का भुगतान भी कर रही हैं। सरकारों के नेता हैं जो कि वैज्ञानिकों की कामयाबी और उनकी साख को भुनाने में लगे हुए हैं, और कुछ ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं कि मानो  टीके बनाने में उनका भी योगदान रहा है। दूसरी तरफ सरकारों ने, और खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में सरकारों ने जिस तरह की नाकामयाबी साबित की है, उनकी खराब साख  का असर भी वैक्सीन की साख पर पड़ते दिखता है। आमतौर पर वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की सलाह पर आंख मूंदकर वैक्सीन या दवा लेने वाले लोग भी आज उनसे बिदक रहे हैं। इन बातों को कहने वाले नेताओं की लोगों के बीच में जो खराब तस्वीर है, वह विज्ञान की विश्वसनीयता के आडे भी आ रही है। यह साल एक बहुत ही अनोखा और अटपटा साल है जब दो बिल्कुल ही अलग-अलग तबकों के लोग एक दूसरे की साख को बढ़ा या घटा रहे हैं। और लोगों का हाल यह है कि वे भारत जैसे लोकतंत्र के बीच इस बात पर भी  असमंजस में चल रहे हैं कि आज की उनकी दिक्कतें, आज उनके ऊपर मंडराता हुआ खतरा, केंद्र सरकार का लाया हुआ है या राज्य सरकारों का, और क्या निजी अस्पताल उन्हें अधिक लूट रहे हैं, या सरकारों ने उन्हें सडक़ों पर छोड़ दिया है, खुद इलाज करवाने, मरने, और खुद जलने, या बह जाने के लिए? इसलिए यह एक बहुत ही मिली-जुली साख का बाजार बन गया है, यहां किसी एक की साख से दूसरों की साख जुड़ गई है।

लोगों के बीच चीजों को अलग-अलग करके देखने की क्षमता बड़ी सीमित रहती है। लोग जब किसी सांसद से बात करते हैं तो भी वे उससे उसके इलाके में पडऩे वाले किसी विधानसभा क्षेत्र की छोटी-छोटी दिक्कतों की बात करते हैं, और अगर सांसद से बात करने की अधिक आजादी मिल गई तो वे अपने वार्ड के पार्षद के जिम्मेदारी की बातें भी सांसद से करने लगते हैं कि कहां पर काम ठीक नहीं हो रहा है और कहां पर नाली में कचरा फंसा हुआ है। लोगों के बीच इस बात की बारीक समझ आज खत्म हो गई है कि सांसद और विधायक और पार्षद की जिम्मेदारियां अलग-अलग बंटी हुई रहती हैं, और हर जिम्मेदारी को कहीं न कहीं जाकर रोकना पड़ता है, वरना तो फिर इस देश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। लेकिन जनता का राजनीतिक शिक्षण सोच समझकर कमजोर किया गया है और हिंदुस्तान जैसे देश में पिछले वर्षों में हमने देखा है कि उसकी लोकतांत्रिक समझ को मानो एक हथोड़ा मार-मारकर टीन के एक डिब्बे की तरह चपटा कर दिया गया है कि वह किसी काम की ना रह जाए। उसकी वैज्ञानिक समझ को पीट-पीटकर चपटा कर दिया गया है कि वह भी कहीं राह का रोड़ा ना बने। नतीजा यह होता है कि बिना लोकतांत्रिक समझ और बिना विज्ञान वैज्ञानिक समझ के लोग बातों का विश्लेषण नहीं कर पाते, और वे किसी रॉकेट के अंतरिक्ष में जाने की वाहवाही किसी नेता को देने लगते हैं, और कोई दूसरे नेता आकर वैक्सीन विकसित करने की वाहवाही खुद अपने सीने पर तमगे की तरह टांग लेते हैं। 

जब लोगों की राजनीति की समझ बूझ कमजोर हो जाती है, तो लोकतंत्र इसी तरह कमजोर होता है। लोगों को 5 वर्ष तो दूर 5 बरस पुरानी बातें भी याद नहीं रहती और जब टीवी के स्क्रीन पर झांसा देने की तस्वीरें आती हैं, तो लोगों को यह भी याद नहीं रह जाता कि 5 दिन पहले उन्होंने इससे ठीक अलग कौन सी चीजें देखी थीं। कमजोर याददाश्त झांसा देने के लिए एक सहूलियत की बात रहती है, वरना बैंक के खातों को लेकर आने वाले फर्जी टेलीफोन से लोग आज भी ठगी के शिकार नहीं होते, जबकि वे तकरीबन हर दिन ऐसी ठगी की खबरें पढ़ते हैं। लोगों की याददाश्त बहुत ही कम रहती है, लोगों को यह भी याद नहीं रह गया है कि आज उनके बच्चों को चेचक का खतरा अगर नहीं है तो वह किसी नेता की वजह से कम नहीं हुआ है, वह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है, अगर आज उनके बच्चों को पोलियो का खतरा नहीं है तो यह किसी सरकार की वजह से कम नहीं हुआ है यह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है या तकरीबन खत्म हुआ है। और अगर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एक बम को गिरा कर लाखों जिंदगियों को खत्म किया गया था, तो उस तकनीक को तो वैज्ञानिकों ने बनाया था लेकिन उसको बम बनाकर उसे इंसानों पर गिराने का फैसला नेताओं का था। इसलिए लोकतंत्र में जब जनता की समझ कम रह जाती है तो वह वैज्ञानिक कामयाबी की वाहवाही सरकार या नेता को दे देते हैं और सरकार की खामी और कमजोरी की नाकामयाबी की तोहमत डॉक्टरों या वैज्ञानिकों को दे देते हैं। ऐसे में समाज के जिम्मेदार तबके की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जहां कहीं मौका सोशल मीडिया पर या असल जिंदगी में लोगों को सिखाने और समझाने का काम करें, उन्हें हकीकत बताएं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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