संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कोरोना से जूझते हुए भी सरकारों को दूर तक की सोचने की भी जरूरत है
21-May-2021 5:23 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कोरोना से जूझते हुए भी सरकारों को दूर तक की सोचने की भी जरूरत है

आज हिंदुस्तान एक अभूतपूर्व संकट और खतरे से गुजर रहा है, और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक, और स्थानीय संस्थाओं तक को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना से बचाव, उसके इलाज, और इलाज कारगर न रहने पर मौत के बाद के इंतजाम के लिए सरकारों की क्षमता खत्म होते दिख रही है। अभी कोई भी सरकार लोगों की जिंदगियां बचाते हुए खर्च की सीमा की बात नहीं कर रही हैं, तमाम सरकारें वैक्सीन खरीदने या इलाज करने के इंतजाम में अपने-आपको झोंककर चल रही हैं। ऐसे में जब देश-प्रदेश की सरकारों का बजट पूरा ही चौपट हो चुका है, और अंधाधुंध खर्च किया जा रहा है, दूसरे मद का पैसा कोरोना के मद में खर्च किया जा रहा है, तब सरकारों को इस खर्च की जवाबदेही का भी एक इंतजाम करना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी कोरोना की कोई तीसरी लहर भी आना बताया जा रहा है, तो अगर ऐसी कोई नौबत आती है, तो आज सरकार के खर्च किए हुए इलाज के ढांचे का इतना रखरखाव और इंतजाम होना चाहिए कि वह आगे भी काम आ सके। आज इस देश और इसके प्रदेशों में यह भी समझ पड़ रहा है कि सरकारों की कमियां क्या हैं और उनकी खामियां क्या हैं। ऐसे में अगर कोई जिम्मेदार और समझदार सरकार रहे तो वह अपने ढांचे के बाहर के विशेषज्ञ जानकार नियुक्त करके इन कमियों और खामियों को दूर करने की कोशिश कर सकती हैं क्योंकि ऐसी कोई गारंटी तो है नहीं कि कोरोना का कोई और हमला नहीं होगा। हिंदुस्तान में आज तकरीबन तमाम राज्य सरकारों को कोरोना के मोर्चे पर ठोकर तो लगी है, लेकिन इस चोट से अगर सबक नहीं लिया जाएगा, तो ऐसे राज्य और इस देश की सरकारें अगली ठोकर के लिए अपने-आपको फिर पेश करती दिखेंगी।

आज देश भर में यह दिख रहा है कि अस्पताल के ढांचे, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के ढांचे, एंबुलेंस और शव वाहन के ढांचे, श्मशान और कब्रिस्तान के ढांचे में क्या क्या कमी है। यह एक मौका हो सकता है जब बिजली या गैस से चलने वाले श्मशान बनाए जा सकते हैं ताकि अगली बार लाशों की ऐसी कतार लगने पर लोगों को कई-कई दिन उन कतारों पर ना रहना पड़े। इसी तरह दवाइयों का ढांचा, वैक्सीन का ढांचा, ऐसा लचर साबित हुआ कि जीवन रक्षक दवाइयां न सिर्फ ब्लैक हो रही थीं, बल्कि उनको नकली बना-बनाकर भी उनकी कालाबाजारी की जा रही थी। हिंदुस्तान का इतना बड़ा दवा उद्योग और इतना बड़ा वैक्सीन उद्योग भी इसलिए आज वक्त की जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहा है कि देश की सरकार ने समय रहते खतरे का अंदाज नहीं लगाया था और उसकी तैयारी नहीं की थी, जबकि दुनिया की तमाम जिम्मेदार सरकारें साल भर पहले से इस तैयारी में लग चुकी थी। 

हिंदुस्तान चम्मच से थाली बजाने, शंख बजाने, और दिया-मोमबत्ती जलाने के भरोसे इतनी तसल्ली से बैठा हुआ था कि जब कोरोना लौटकर आया तो मानो उसे कतार लगाकर बैठे हुए लोग मिले और उसे दो शिकारों के बीच दो कदम भी नहीं चलना पड़ा। हिंदुस्तान में महज सरकारों की बात नहीं है, सरकारों से परे भी आम जनता ने यह साबित किया है कि वह कोरोना के दौर के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, और बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं है। अब सरकार और समाज मिलकर किस तरह लोगों को सावधान और चौकन्ना कर सकते हैं यह भी एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि ऐसी सावधानी को बाजार में किसी रेट पर खरीदा नहीं जा सकता, इसे लोगों के बीच पैदा करना वेंटिलेटर खरीदने से अधिक मुश्किल काम है। यह साबित हुआ है कि लोगों ने जो लापरवाही दिखाई उसकी वजह से भी कोरोना को इस बार फैलने में मदद मिली और अगली बार फिर कोरोना या किसी दूसरे संक्रमण को फैलने में मदद मिलेगी। हिंदुस्तान और उसके प्रदेशों को ऐसे तीसरे और चौथे दौर के लिए भी तैयार रहना चाहिए और किसी दूसरे किस्म के संक्रमण के लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि वायरस का हमला दुनिया के लिए एक बेकाबू हमला साबित हुआ है।

इसके साथ-साथ यह भी देखने की जरूरत है कि ऐसी नौबत अगर अगली बार आएगी तो उसमें लोगों के कामकाज किस तरह से चलाए जा सकते हैं, किस तरह से डॉक्टरी नसीहत को मानते हुए भी लोग रोजी-रोटी चला सकते हैं। आज तो हिंदुस्तान के नेताओं और अफसरों ने यह साबित किया है कि उनकी जमीनी समझ कमजोर हो चुकी है। आज देश भर में कई प्रदेशों में जहां कारोबार को थोड़ा सा शुरू करने की इजाजत मिली है वहां पर बड़े कारोबार को छूट मिल गई है और छोटे कारोबार को बंद रखा गया है। छत्तीसगढ़ में ही तमाम शहरों में बड़े रेस्तरां और बड़े ब्रांड को तो खाना पैक करके बेचने या लोगों के घरों तक पहुंचाने की छूट दी गई है, लेकिन सडक़ किनारे ठेलों पर खाने के सामान बनाने और बेचने वालों को यह छूट नहीं दी गई है कि वे भी अपने सामान पैक कर के बेच सकें। यह समझने की जरूरत है कि बड़े ब्रांड और बड़े-बड़े रेस्तरां के लिए कारोबार जितना जरूरी है, उतना ही फुटपाथ के छोटे कारोबारियों के लिए भी है, दूसरी तरफ यह बात भी है कि बड़े ब्रांड के खरीदने वाले सीमित लोग रहते हैं, और अधिकतर आबादी छोटे फुटपाथी सामान ही खरीद सकती हैं। इस समाज के लिए भी हमको लगता है कि सरकार के बाहर के कुछ लोगों की जरूरत है क्योंकि सरकार ऐसी बारीकियों पर जा नहीं रही है और वह अंधाधुंध प्रतिबंध की अफसरी सलाह पर चलती है जिनकी नजरों में छोटे और गरीब कारोबारियों की कोई अधिक अहमियत नहीं है। किसी भी जगह के निर्वाचित नेताओं को भी ऐसे फर्क को समझना चाहिए क्योंकि वे तो गरीब वोटों की बहुतायत से ही जीत कर आते हैं, फुटपाथ के एक ठेले वाले के घर पर भी 4 वोट होते हैं और एक रेस्त्रां मालिक के घर पर भी 4 वोट ही होते हैं। 

कुल मिलाकर हम आज योजना बनाने से लेकर तैयारी तक की बहुत सी बातों के बारे में सरकारों का ध्यान खींचना चाहते हैं कि इस बार जैसी हड़बड़ी मची है और जैसी भगदड़ फैली है, ऐसी नौबत दोबारा ना आए। और आज सरकार का जो अंधाधुंध खर्च हुआ है, उसकी उत्पादकता सुनिश्चित की जाए और उसे लंबे समय तक संभाल कर रखने की तैयारी की जाए। आज पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था कारोबार और रोजगार को लेकर एक नई सोच और नई तैयारी की जरूरत है क्योंकि पिछले एक बरस में गरीब और मंझले लोगों का जो हाल हुआ है, वह दोबारा ना हो यह तमाम सरकारों की जिम्मेदारी है। इसके लिए रोजगार-कारोबार पर बिल्कुल मौलिक और नई सोच से तैयारी की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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