संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संगठन अपने अस्तित्व को बचाने, बन जाते हैं गिरोह...
25-May-2021 5:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संगठन अपने अस्तित्व को बचाने, बन जाते हैं गिरोह...

अभी छत्तीसगढ़ में एक आईएएस अफसर ने लॉकडाउन लागू करवाने के दौरान एक बेकसूर राह चलते नौजवान को पीटा और पिटवाया, इसे लेकर जब बवाल बहुत अधिक हुआ तो इस राज्य के आईएएस अफसरों के संगठन ने इस अफसर को समझाईश दी, इसे उसे युवक का तोड़ा गया मोबाइल बदल कर देने और उसके परिवार से बात करने के लिए कहा। लेकिन अफसरों के इस बड़े एसोसिएशन के पास इसके आगे कुछ नहीं था। अपने सदस्य की इस आपराधिक हरकत पर एसोसिएशन चुप रहा, उसने उस आम नौजवान के कानूनी अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा। और महज एक समझाईश देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली। नतीजा यह निकला कि एक जुर्म अपने सहकर्मियों के एसोसिएशन में एक चुप्पी के रास्ते माफी पा गया। एसोसिएशन ने जुर्म पर चुप्पी ली।

लेकिन यह संगठन ऐसा अकेला संगठन नहीं है। हिंदुस्तान में कोई राजनीतिक दल हो, कोई धार्मिक संगठन हो, किसी जाति का कोई संगठन हो, या किसी भी दूसरे पेशे का कोई संगठन हो, उनका हाल तकरीबन इसी किस्म का रहता है। वे अपने सदस्य को बचाने का काम करते हैं, और उनका मकसद यहीं पर पूरा हो जाता है। व्यापारियों के संगठन अपने मेंबरों के नकली सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते, टैक्स चोरी पर कुछ नहीं कहते, मिलावटी सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते। पत्रकारों के संगठन अपने बीच के ब्लैकमेलर उजागर हो जाने के बाद भी उनके बारे में कुछ नहीं कहते, मीडिया के कारोबार के बेजा इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं कहते, लेकिन अपने किसी सदस्य के खिलाफ सरकार या किसी मुजरिम की तरफ से कोई कार्यवाही हो जाए, तो वे अपने सदस्य को बचाने के लिए लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही काम डॉक्टरों के संगठन करते हैं, ऐसा ही काम नर्सिंग होम एसोसिएशन करता है, और जहां कहीं कोई संगठन या संघ है, उसकी प्राथमिक बुनियादी और अकेली जिम्मेदारी अपने लोगों के हर सही और गलत काम को बचाना रह जाती है। नतीजा यह होता है कि किसी संगठन की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं रह जाती, पेशे के लिए कोई ईमानदारी नहीं रह जाती, और हर संगठन एक बाहुबली के अंदाज में काम करने लगता है, और आमतौर पर बेइंसाफी का मददगार हो जाता है।

सच तो यह है कि अगर लोग सही काम करें तो उन्हें किसी संगठन की ऐसी जरूरत भी नहीं रहती है। लेकिन जब काम गलत रहते हैं उस वक्त अपने इर्द-गिर्द अपने तबके के लोगों की भीड़ जुटा लेना एक किस्म की आत्मरक्षा है और इसकी बहुत ही खराब मिसालें हिंदुस्तान में जगह-जगह देखने मिलती हैं. जम्मू में एक छोटी सी खानाबदोश बच्ची के साथ एक मंदिर में पुजारी समेत आधा दर्जन से अधिक लोगों ने बार-बार सामूहिक बलात्कार किया, और उस दौरान वह बच्ची मर गई, उसे मार डाला, और जब यह पूरा मामला सबूतों सहित उजागर हो गया, तो जम्मू के हिंदुओं की फौज इन बलात्कारियों को बचाने के लिए तिरंगे झंडे लेकर जुलूस निकालने लगी। उस भीड़ की फिक्र यह थी कि एक गरीब मुस्लिम और खानाबदोश बच्ची के बलात्कार और कत्ल में ऐसा क्या है कि उसमें इतने हिंदुओं को सजा दिलाने की बात की जाए? इस बच्ची की तरफ से जो हिंदू महिला वकील केस लड़ रही थी उसे तरह-तरह से हिंसक धमकियां दी गई, उसके खिलाफ अनर्गल बातें की गई,  लेकिन वह डटी रही और पुजारी सहित तमाम बलात्कारियों को सजा हुई। बलात्कारियों के हिंदू होने की वजह से हिंदू एकजुट हो गए, और उन्होंने देश के तिरंगे झंडे की आड़ में बलात्कारियों को बचाने की कोशिश भी की। लोगों को याद होगा कि इन्हीं बलात्कारियों को बचाते हुए उस वक्त के जम्मू-कश्मीर मंत्रिमंडल के एक या दो हिंदू मंत्रियों को भी इस्तीफा देने की नौबत आई थी और वहां पर भाजपा भी इनको बचाने के लिए जुट गई थी। 

देश में जगह-जगह ऐसा देखने को मिलता है, कहीं पर जाति के आधार पर, कहीं धर्म के आधार पर मुजरिम को बचाने की कोशिश होती है। मुजरिमों से उनकी जाति और उनके धर्म के लोगों को इतनी मोहब्बत होती है कि बहुत से राजनीतिक दल अपने इलाके में दबदबा रखने वाले मुजरिमों को टिकट देते हैं, चुनाव लड़वाते हैं और संसद या विधानसभा में ले जाते हैं, मानो लाखों वोटरों की उस सीट पर उस पार्टी को कोई एक भी शरीफ ना दिख रहा हो। ऐसा ही काम कर्मचारी संगठन करते हैं जिनके बीच का कोई कामचोर या भ्रष्ट कर्मचारी कभी कोई नोटिस पा जाए, तो उस नोटिस के खिलाफ, सरकार या संस्था के खिलाफ, कर्मचारी संघ झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं। लेकिन क्या किसी ने कोई ऐसा कर्मचारी संघ देखा है जिसने अपने सदस्यों के गलत काम पर उन्हें नोटिस दिया हो कि उनकी संस्था का सदस्य रहते हुए इस तरह का काम बर्दाश्त नहीं किया जाएगा ?

हिंदुस्तान में बहुत से कर्मचारी संघ राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, उनकी प्रतिबद्धता और अधिक रहती है और अपनी पार्टी की सरकार रहने पर वह मुंह बंद करके बैठे रहते हैं। सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलते, ठीक उसी तरह जिस तरह कि वे अपने सदस्य के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। अब सवाल यह है कि किसी तबके के लोग अपने तबके के दूसरे लोगों के गलत कामों पर भी अगर मुंह नहीं खोलेंगे, महज उन्हें बचाने का काम करेंगे, तो फिर ऐसे तबकों की कोई इज्जत क्यों की जाए चाहे वे आईएएस अफसरों के संगठन हों, चाहे पत्रकारों के संगठन हों, या फिर डॉक्टरों के संगठन हों ? और तो और कड़वी हकीकत यह है कि इस देश में अपने लोगों के जुर्म को अनदेखा करने वाले संगठनों से मीडिया के लोग भी यह सवाल नहीं करते कि वे इसे अनदेखा कैसे कर सकते हैं? और क्या किसी संगठन की जिम्मेदारी सिर्फ अपने सदस्य को बचाना है या कि अपने सदस्य से देश को भी बचाना है? 

आज देश भर में बहुत से संगठन ऐसे हैं जिनके लोग दवाइयों की कालाबाजारी करते अभी पकड़ाए हैं, नकली दवाइयां बनाकर बेचते हुए पकड़ाए हैं, लेकिन उनकी जाति के संगठनों ने, उनके धर्म के संगठनों ने, उनके कारोबार के संगठनों ने, उनके खिलाफ कुछ नहीं किया, बल्कि उन्हें बचाने के लिए आगे आए। ऐसा लगता है कि देश के अधिकतर संगठन समाज के प्रति जवाबदेह संस्था के बजाय एक गिरोह की तरह काम करते हैं जो कि अपने सदस्य के हर गलत काम को हिफाजत देकर अपने अस्तित्व को बचा कर रखते हैं, ताकि बाकी सदस्यों को यह पता रहे कि उनकी मुसीबत के वक्त उनका संगठन सही-गलत को नहीं तौलेगा बल्कि उनके साथ खड़ा रहेगा। यह सिलसिला बहुत ही खराब है और समाज के भीतर न सिर्फ लोगों की व्यक्तिगत जवाबदेही को लेकर सवाल होने चाहिए, बल्कि संस्थाओं और संगठनों की जवाबदेही को लेकर भी सवाल होने चाहिए। वरना एक मुजरिम अकेले जितना ताकतवर हो सकता है, एक संगठन के सदस्य के रूप में वह उससे बहुत अधिक ताकतवर होता है। जिस दिन देश के सबसे बड़े मुजरिमों को धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर बचाने का काम होने लगता है, उस दिन इंसाफ के जिंदा रहने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती क्योंकि संगठनों की ताकत अपने सदस्य मुजरिमों की ताकत के साथ मिलकर किसी को भी कुचलने का बाहुबल रखती हैं, इस सिलसिले के खिलाफ सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। 

इस मुद्दे पर लिखने की आज जरूरत इसलिए लग रही है कि पिछले कई हफ़्तों से देश का एक सबसे बड़ा पाखंडी, बाबा कहलाने वाला रामदेव, जिस तरह से देश में विज्ञान के खिलाफ अविश्वास फैलाने में लगा हुआ है, जिस तरह चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक पद्धति पर लोगों का विश्वास खत्म करने में लगा हुआ है, और उसके खिलाफ कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं, जबकि वह आयुर्वेद की साख चौपट कर रहा है। यह रामदेव ना तो आयुर्वेदिक डॉक्टर है, ना आयुर्वेद का ज्ञाता है, वह केवल एक कारोबारी-कारखानेदार है और आयुर्वेद का नाम लेकर, उग्र राष्ट्रवाद भडक़ाकर, देशभक्ति का फतवा देकर, लोगों को खतरे में धकेल रहा है। इस महामारी के बीच में लोगों को महामारी से मरने के लिए तैयार कर रहा है, और उसके खिलाफ न तो कोई योग वाले संगठन कुछ बोल रहे, न आयुर्वेद चिकित्सक उसके खिलाफ कुछ बोल रहे, और न ही वह भाजपा-शासित केंद्र सरकार कुछ बोल रही जिसे इस रामदेव से हर चुनाव के वक्त समर्थन मिलता ही है। ऐसा हिन्दू क्या महामारी एक्ट के तहत जुर्म करने के बाद भी बचाने के लायक है कि वह हिन्दू है? अरे उसके झांसे में बिना वैक्सीन, बिना एलोपैथिक दवाओं के जो लोग मरेंगे, उनमें अधिकतर बचने लायक हिन्दू ही होंगे जो झांसे में मारे जायेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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