संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गाँधी ने सचेत किया उसके बाद ही हुई है दुनिया की इतनी बड़ी तबाही जो कभी नहीं सुधरेगी !
28-May-2021 5:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गाँधी ने सचेत किया उसके बाद ही हुई है दुनिया की इतनी बड़ी तबाही जो कभी नहीं सुधरेगी !

एक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय संगठन की लिविंग प्लेनेट-2020 रिपोर्ट में यह कहा गया था कि दुनिया में 68 फीसदी जैव विविधता पिछले महज 50 वर्षों में खत्म हुई है। दुनिया ने ऐसी बर्बादी इतिहास में इसके पहले कभी नहीं देखी थी। जो जैव विविधता खत्म हुई है उसमें से 70 फीसदी, जमीन को खेती के लायक बनाने के चक्कर में हुई है, जहां से दूसरे पेड़-पौधे, वनस्पति, और जीव-जंतु खत्म दिए गए। जंगलों की पेड़ों वाली जमीनों को खेत बनाने के लिए जिस तरह से पेड़ गिराए गए उससे यह नुकसान हुआ है। और इस नुकसान में से 19 लाख वर्ग किलोमीटर जंगली और अविकसित भूमि ऐसी है जिसे वर्ष 2000 के बाद ही खेती की जमीन में तब्दील किया गया है। जैव विविधता को इंसान जिस रफ्तार से खत्म कर रहे हैं वह भयानक है। विश्व वन्य कोष ने लिविंग प्लैनेट-2020 रिपोर्ट में यह लिखा था कि 1970 से 2016 के बीच 68 फीसदी स्तनधारी, जानवर, पंछी, मछलियां, पौधे, और कीड़े मकोड़े खत्म हो चुके हैं। इंसान जिस रफ्तार से कुदरत को खत्म करने पर आमादा है, और उसमें कामयाब भी है, वह अभूतपूर्व है। इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती का जो हिस्सा बर्फ से लदा हुआ नहीं है, उसके 75 फीसदी हिस्से में तब्दीली लाई जा चुकी है, और अधिकतर समंदर बुरी तरह से प्रदूषित किए जा चुके हैं, धरती की 85 फीसदी से अधिक गीली जमीन खत्म की जा चुकी है। और जिस रफ्तार से इंसान खाने और ईंधन की अपनी जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं, उससे कुदरत पर पडऩे वाला तनाव अंधाधुंध बढ़ चुका है।

इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए जरूरी लग रहा है कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से ऐसी खबर है कि वहां के जंगलों में 20-25 साल पुराने पेड़ों में रसायन के ऐसे इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं जिनसे उन पेड़ों से मिलने वाले गोंद में बढ़ोत्तरी हो जाए। कुछ नस्लों के पेड़ों में गोंद पैदा होता है और उन इलाकों के आदिवासी उन्हें इक_ा करके, बेचकर कुछ कमाई करते आए हैं। लेकिन परंपरागत आदिवासी समुदाय ने कभी पेड़ों को ऐसा नुकसान नहीं पहुंचाया था, जैसा कि अभी शहरी कारोबारियों के झांसे में आकर वे भी कर रहे हैं। एक रिपोर्ट में अभी यह पता लगा है कि मध्यप्रदेश के जंगलों में एक समय 18 प्रजाति के पेड़ों से गोंद मिलता था जो अब घटकर कुल 7 प्रजाति के पेड़ों तक रह गया है क्योंकि बाकी प्रजातियों में रसायनों के इंजेक्शन लगा-लगा कर उन्हें दुहकर उन्हें खत्म कर दिया गया है और उन पेड़ों से अब कुछ नहीं मिलता। 

लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि किस तरह डेयरी के जानवरों में, गाय और भैंसों में, हार्मोन के इंजेक्शन लगाकर उनका दूध बढ़ाया जाता है। और इस दूध के चक्कर में गांव-गांव के अनपढ़ मवेशी पालक भी इनका इस्तेमाल सीख लेते हैं, और यह हार्मोन दूध के साथ लोगों के पेट तक भी पहुंच रहा है, उन्हें बर्बाद कर रहा है। मध्यप्रदेश की अभी की रिपोर्ट बताती है कि इस तरह के गोंद से लोगों को किस किस्म का नुकसान पहुंच रहा है क्योंकि रसायनों के इंजेक्शनों से गोंद तो दो-तीन गुना अधिक मिलने लगता है, लेकिन उस गोंद का इस्तेमाल गर्भवती महिलाओं के लड्डू में करने पर वह इसका नुकसान झेलती हैं। खेती में फसलों से लेकर सब्जियों तक लगातार जिस किस्म से कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा है, फसल बढ़ाने वाली दूसरी दवाइयों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, वह अपने आप में भयानक है, और वह पंजाब जैसे राज्य में कुछ इलाकों में कैंसर में कई गुना बढ़ोत्तरी की शक्ल में सामने आ भी चुका है। बहुत सी ऐसी रिपोर्ट आई हैं जिनमें पंजाब के एक इलाके से राजस्थान के किसी कैंसर अस्पताल में जाने वाले मरीजों की भीड़ की वजह से उस ट्रेन को ही कैंसर एक्सप्रेस कहा जाने लगा है।

अगर धरती के और मानव जाति के इतिहास को देखें तो हाल ही में बहुत चर्चा में आई कुछ बड़ी जानकार किताबें बतलाती हैं कि किस तरह पिछले 100 बरस में ही धरती की इतनी अधिक तबाही की गई है जितनी कि उसके पहले के 5-10 लाख बरस में भी नहीं हुई थी। और दुनिया की सरकारें आज इस पर बात भी करना नहीं चाहतीं, खासकर जो सबसे ताकतवर, सबसे विकसित, सबसे संपन्न, और सबसे अधिक भौतिक संसाधनों वाले देश हैं, वह तो इस बारे में बिल्कुल भी बात करना नहीं चाहते। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तो पेरिस क्लाइमेट समिट से अमेरिका को बाहर ही कर दिया था। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति ने थोड़ा सा नरम रुख दिखाया है लेकिन सवाल यह उठता है कि दुनिया में सामानों की प्रति व्यक्ति खपत में जो अमरीका सबसे अधिक आगे है, क्या उस देश में कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति खपत को घटाकर एक गांधीवादी किफायत की बात भी कर सकता है? कैसी अजीब बात है कि गांधी को गांधी और महात्मा बने हुए अभी कोई सौ-डेढ़ सौ बरस ही हुए हैं। और इन्हीं सौ-डेढ़ सौ बरसों में गांधी की किफायत की, कमखर्च की, सादगी की, और स्थानीय तकनीक, ग्रामीण रोजगार, कुटीर उद्योग जैसी तमाम नसीहतों को अनसुना करके दुनिया जिस रफ्तार से शहरीकरण और चीजों की खपत की तरफ बढ़ी है उसने धरती को इस हद तक तबाह किया है। सच तो यह है कि गांधी ने जब से किफायत की बात शुरू की है उसके बाद की तबाही ही सबसे बड़ी तबाही है, गांधी को अनसुना करना ही तबाही की शुरुआत रही। अभी तक गांधी को सालाना जलसों में तो याद किया जाता है, लेकिन इन सालाना जलसों से परे गांधीवाद की कोई जगह नहीं रह गई है। 

सरकारें और समाज, व्यक्ति और परिवार, इनमें से किसी में भी अपनी खपत को कम करने की कोई चाह नहीं है, खपत को कम करने की बात के लिए कोई बर्दाश्त भी नहीं है। लोग ऐसी हड़बड़ी में हैं कि जरा सी कमाई बढ़ाने के लिए वे धरती के उन पेड़ों को खत्म कर दे रहे हैं, जिन पेड़ों ने इंसानों को जिंदा रखा हुआ है। और अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान तक, और हिंदुस्तान के प्रदेशों तक, अधिकतर सरकारों का हाल यह है कि उन्हें 5 साल के या 4 साल के अपने कार्यकाल से अधिक की कोई फिक्र नहीं है, उन्हें अगर यह लगता है कि जैव विविधता, धरती, पर्यावरण, या कुदरत की तबाही से अगले चुनाव के पहले कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है तो भला उन्हें इसकी फिक्र क्यों करना? दूध का जहर अब पेड़ों तक चले गया, गोंद के साथ वह गर्भवती महिलाओं तक आ रहा है, और जैव विविधता इस रफ्तार से खत्म हो रही है कि वह धरती पर दोबारा लौटने वाली नहीं है। लोगों को अपने बच्चों को तरह-तरह के कीट पतंग भी दिखा देना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि उनके बड़े होने तक वे नस्लें खत्म ही हो जाएं और महज तस्वीरों में रह जाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news