संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिलाओं के मुद्दों पर उनको जुबान का ऐसा हक तो इसके पहले कभी हासिल न था !
30-May-2021 4:06 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : महिलाओं के मुद्दों पर उनको जुबान का ऐसा हक तो इसके पहले कभी हासिल न था !

जब लिखने को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा ना सूझे तो महिलाओं के मुद्दों पर एक नजर डालने से एक से अधिक महत्वपूर्ण बातें लिखने लायक सामने आ जाती हैं। सोशल मीडिया पर बहुत सी ऐसी महिलाएं सक्रिय रहती हैं, जो उनकी जिंदगी के असल मुद्दों पर लिखती हैं, और मर्दों की भीड़ उन्हें खुलकर गालियां देने में जुटी रहती हैं। औरतों के खिलाफ गालियां बनाना आसान भी रहता है। उनके बदन के कुछ हिस्सों के नाम लेकर, मर्दों की कुछ अधूरी हसरतों को मिला दिया जाए, तो महिलाओं को देने के लिए गालियां ही गालियां बन जाती हैं। सोशल मीडिया पर महिलाओं के हक की, या किसी भी गंभीर मुद्दे पर समझदारी की, जरा सी बात करने वाली महिला को भी उसके बदन के ढंके हुए अंगों के लिए हजार-हजार गालियां आसानी से मिल जाती हैं। कुछ महिलाएं डरकर और/या थककर सोशल मीडिया पर लिखना छोड़ देती हैं और कुछ महिलाएं उन पर फेंके गए इन पत्थरों को चबूतरे की तरह जमाकर, उन पर खड़े रहकर, और जोरों से बोलती हैं। कुल मिलाकर सोशल मीडिया ने जिस तरह दुनिया के हर कमजोर तबके को बोलने का मौका दिया है, एक नई जुबान दी है, एक नया लोकतांत्रिक हक दिया है, उसी तरह का हक महिलाओं को भी यहां पर मिला है और वे बहुत से नए पहलुओं पर लिख रही हैं जिनके बारे में आदमियों ने शायद कभी सोचा नहीं होगा। मर्दों में जो लोग अपने को औरत-मर्द की बराबरी के बड़े हिमायती मानते हैं, उन्हें भी महिलाओं की लिखी बातों को पढक़र कई बार एक नई सोच का पता लगता है जिसे कि उन्होंने कभी खुद होकर सोचा नहीं था।

ऐसा ही मुद्दा अभी सामने आया कि किसी एक आदमी को किडनी की जरूरत पड़ी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि अब मौजूदा किडनी और अधिक साथ नहीं देगी, और ट्रांसप्लांट तो करना ही पड़ेगा, अगर और जिंदा रहना है। जैसा कि आमतौर पर होता है, आदमी लौटकर घर पहुंचा, और बीवी को तैयार करने लगा कि वह उसे किडनी दे। यह बात बोलने की भी जरूरत नहीं रहती है क्योंकि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी महिला अपने सुहाग के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, और अपने पति को जिंदा रखने के लिए महिलाएं जाने क्या-क्या करती हैं। और पति को जिंदा रखने की बात ही नहीं है, पति की जिंदगी में बने रहने के लिए भी बहुत सी महिलाएं पूरी-पूरी जिंदगी को एक बोझ की तरह ढोते चलती हैं, और कभी उफ नहीं करतीं। लेकिन यह महिला जानती थी कि उसके पति की जिंदगी में और भी बहुत सी महिलाएं हैं, और ऐसे नाजुक मौके पर जब वह लौटकर सिर्फ बीवी का मोहताज रह गया है, क्योंकि बाहर की कोई प्रेमिका तो किडनी देने से रही, तो इस महिला ने भी अकेले जाकर डॉक्टर से मिलकर यह साफ कर दिया कि वह किडनी देना नहीं चाहती है। डॉक्टर भी मददगार निकला और उसने जांच में ही कुछ इस तरह की जटिलता बता दी कि इस महिला की किडनी काम नहीं आएगी। यह कहानी सच भी हो सकती है और किसी की गढ़ी हुई भी हो सकती है, लेकिन सच तो यह है कि असल जिंदगी में ऐसे मामलों की गुंजाइश कम नहीं है। 

इसी तरह एक दूसरी नौबत बहुत सारे मामलों में सामने आती है जिनमें हिंदुस्तान से लेकर पश्चिम के बड़े-बड़े देशों के आधुनिक परिवार भी एक सरीखे दिखते हैं। जब किसी आदमी पर बलात्कार या किसी के देह शोषण का आरोप लगता है, या कि बिल क्लिंटन की तरह, अपनी एक मातहत प्रशिक्षणार्थी के शोषण का आरोप लगता है तो ऐसे तमाम मामलों में ऐसे लोगों की बीवियां सार्वजनिक जगहों पर, अदालत के भीतर और अदालत की सीढिय़ों पर, उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी दिखती हैं, क्योंकि ऐसे नाजुक मौके पर अगर वे अपने बदचलन पति का साथ छोड़ें तो वह पल भर में डूब ही जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान की दुखी-हारी बीवियों से लेकर, अमेरिका और ब्रिटेन की बीवियां तक अधिकतर मामलों में अपने बलात्कारी पति के साथ खड़े रहकर उसे संदेह का कुछ लाभ दिलाने की कोशिश करती हैं। एक बार अदालती मामला पूरा हो जाये, तो फिर चाहे उसे छोड़ दें, लेकिन मुसीबत के बीच नहीं छोड़तीं। 

सोशल मीडिया ने महिलाओं को बोलने और सोचने का जो हक दिया है वह अभूतपूर्व है। इसके पहले तक महिला आंदोलनों के कुछ सार्वजनिक मंचों पर ही कुछ प्रमुख महिलाओं को यह मौका मिलता था और कुछ पत्रिकाओं में लिखने की क्षमता रखने वाली अच्छी लेखिकाओं को अपनी बात कहने का मौका मिलता था। लेकिन आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से ना तो भाषा पर किसी काबू की जरूरत है, न ही नामी-गिरामी होने की जरूरत है, और बहुत आम महिलाएं भी अपनी जिंदगी के कुछ बहुत जटिल मुद्दों पर खुलकर लिख रही हैं, जिन पर खुलकर चर्चा हो रही है, और उन महिलाओं को खुलकर, जमकर गालियां दी जा रही हैं। हमारा तो यह मानना है कि ऐसी गालियां देने वाले उन महिलाओं का कोई अपमान नहीं कर पाते हैं, बल्कि वे अपने-आपके चाल-चलन का, अपने संस्कारों का, भंडाफोड़ करते हैं, और खुद अपने-आपको बेइज्जत करके लोगों के बीच उजागर कर देते हैं। यह पूरा सिलसिला समाज के भीतर महिलाओं को बोलने का हक मिलने का एक बिल्कुल ही अभूतपूर्व नजारा है जो कि अभी 10.15 बरस पहले तक कहीं नजर नहीं आता था। 

आज इससे एक दूसरा फायदा भी हो रहा है। आदमियों में से वे लोग जो कि सचमुच ही महिलाओं के मुद्दों को समझने के लिए एक खुला दिल-दिमाग रखते हैं, उनके सामने भी महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे इतनी बारीकी से खुलकर सामने आ रहे हैं, उन मुद्दों पर इतने किस्म के लोगों की प्रतिक्रिया भी पढऩे मिल रही है, बहस इतनी आगे भी बढ़ रही है कि  सोचने को तैयार लोगों को सोचने का बहुत सा सामान भी मिल रहा है। इसके पहले तक महिलाओं के मुद्दे महिलाओं की पत्रिकाओं तक सीमित थे जिनमें आदमियों की दिलचस्पी लिखे और छपे शब्दों में नहीं रहती थी, महिलाओं की उघड़ी तस्वीरों में रहती थी। आज धीरे-धीरे आदमियों का एक तबका ऐसा बढ़ भी रहा है जो महिलाओं के मुद्दों को, उनकी देह में अपनी दिलचस्पी के अलावा, सोच के स्तर पर भी समझने की कोशिश कर रहा है। सोशल मीडिया को बहुत किस्म की गंदगी के लिए और बुरे असर के लिए रात-दिन कोसा जाता है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह कायम है कि इस सोशल मीडिया ने ही समाज के सबसे कमजोर तबकों को एक जुबान दी है, और उनकी बातों को दूसरों की नजरों के सामने रखने का एक मौका भी जुटा कर दिया है। सोशल मीडिया पर जो लोग हैं उन्हें महज त्योहारों की शुभकामनाएं और जन्मदिन की बधाई तक फंसकर नहीं रहना चाहिए, और अपने से असहमत लोगों की बात भी देखना चाहिए, जिसके बिना कोई भी विचारधारा न विकसित हो सकती न जिंदा रह सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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