संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अगला जन्म किसी सभ्य देश में मिले...
04-Jun-2021 2:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अगला जन्म किसी सभ्य देश में मिले...

हिंदुस्तानी सडक़ों पर देखें तो लोग जब तक किसी पुलिस वाले को ना देखें, तब तक सीट बेल्ट लगाना उन्हें जरूरी नहीं लगता, न ही हेलमेट लगाना। हेलमेट लगा भी लें तो उसके नीचे का बेल्ट लगाना लोगों को अपनी तौहीन लगती है। किसी हादसे की नौबत आने पर बिना बेल्ट लगा ऐसा सिर पर महज धरा गया हेलमेट सबसे पहले उडक़र दूर जाकर गिरेगा। जो लोग सीट बेल्ट वाली महंगी गाडिय़ां खरीदते हैं, और जिनकी गाडिय़ों में हादसे की हालत में बचाने के लिए एयरबैग्स भी लगे रहते हैं, वे भी अधिक दाम तो दे देते हैं, लेकिन यह सीट बेल्ट लगाने की जहमत यह जानकर भी नहीं उठाते कि अगर सीट बेल्ट नहीं लगाया तो शायद हादसे की हालत में एयर बैग भी नहीं खुलेगा। यह सिलसिला हिंदुस्तान में इतना आम है कि किसी को हेलमेट या सीटबेल्ट की याद दिलाई जाए तो वे हैरान होकर पूछते हैं कि क्या पुलिस यहां जांच करती है? यमराज की जांच की किसी को परवाह नहीं रहती, मौत की किसी को परवाह नहीं रहती, बस पुलिस से चालान ना हो जाए, बाकी तो सब ठीक है। जब लोग अपने खुद के शरीर के जिंदा रखने के लिए इस हद तक गैरजिम्मेदार हैं, तो उनसे यह उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात होगी कि वे दूसरों के अधिकारों का सम्मान करेंगे। नतीजा यह होता है कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदार बने रहते हैं, वे लगातार एक भड़ास में भी जीते हैं, और कई ऐसे मौके आते हैं जब उन्हें लगता है कि क्या सारी सार्वजनिक जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं की है ?

जिस तरह अभी कोरोना के मामले में हुआ कि दुनिया के कई देशों में लोगों को हाइजीन फटीक होने लगी, कि साफ-सफाई और सावधान रहने का सिलसिला कब तक चलेगा, और थककर लोग लापरवाह होने लगे, ठीक वैसा ही उन शहरों में होता है जहां सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट या शराब पीने पर कोई रोकने वाले नहीं रहते, बिना सीट बेल्ट और हेलमेट चलने वालों का चालान नहीं होता, और जहां पर नशा करके गाड़ी चलाने पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। चारों तरफ ऐसी अराजकता देख-देखकर नियम कायदे मानने वाले लोग भी थक जाते हैं और धीरे-धीरे वे भी गैर जिम्मेदार होने लगते हैं। यह सिलसिला कुछ वैसा ही रहता है जैसा कि बैठकों में हमेशा वक्त पर पहुंचने वालों को हमेशा ही देर तक लापरवाह और लेट-लतीफ लोगों का इंतजार करना पड़ता है, और धीरे-धीरे लोगों को लगता है कि बैठक में वक्त पर पहुंचना अपने-आपको तकलीफ देने के अलावा और कुछ नहीं है, और थके हुए पाबंद लोग धीरे धीरे खुद भी लेट पहुंचने लगते हैं।

आज चारों तरफ फैले हुए कोरोना की वजह से लोगों को संक्रामक रोग शब्द से बार-बार वास्ता पड़ रहा है। लेकिन अच्छी और बुरी दोनों किस्म की बातें और आदतें भी संक्रामक होती हैं, अच्छी बातों का संक्रमण बहुत कम और बहुत देर से होता है। नियम-कानून मानकर चलने वाले लोगों की देखा-देखी, जल्दी संक्रमण नहीं होता, दूसरी तरफ जो लोग नियमों को तोडक़र चलते हैं उनका संक्रमण जल्दी होता है। जिम्मेदार लोग अधिक वक्त तक असुविधा झेलते हुए जिम्मेदार नहीं रह पाते। इसलिए किसी भी सभ्य समाज को यह भी सोचना चाहिए कि उसके अराजक लोग ना सिर्फ दूसरों के लिए खतरा रहते हैं, ना सिर्फ दूसरों की जिंदगी को खराब करते हैं, बल्कि अपनी खराब आदतों का संक्रमण दूसरों तक फैलाने का एक खतरा भी रखते हैं और ऐसा संक्रमण फैलता ही है। यही वजह है कि बहुत से लोग यह मनाते हैं कि अगला जन्म किसी सभ्य देश में मिले। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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