विचार / लेख
(फोटो पिछले बरस लंगड़े की पेटियां भरते असगर अली)
-अशोक पांडेय
बीसवीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश फौजियों के बीच एक शब्द लोकप्रिय हुआ-टॉमी एटकिन्स। किसी भी औसत, बेचेहरा और मामूली लगने वाले सिपाही को इस नाम से पुकारा जाता था। पहला विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद अमरीका के फ्लोरिडा में उगने वाली आम की एक प्रजाति को टॉमी एटकिन्स का नाम दिया गया। लंबी शेल्फ लाइफ के चलते इस साधारण प्रजाति का ऐसा प्रसार-प्रचार हुआ कि आज अमेरिका, कनाडा और इंग्लैण्ड में खाए जाने वाले आमों का कुल 80 फीसदी टॉमी एटकिन्स होता है।
कितनी उबाऊ बात है!
अपने यहाँ सफेदा है, चुस्की है, दशहरी है, कलमी है, चौसा है। कितनी तरह के तो आम हैं और ऊपर बताये गए नामों की तुलना में कैसे और भी उनके दिलफरेब नाम - मधुदूत, मल्लिका, कामांग, तोतापरी, कोकिलवास, जरदालू, कामवल्लभा। अनुमान है भारत में ग्यारह सौ से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। गौतम बुद्ध के चमत्कारों से लेकर श्रीलंका में पत्तिनिहेला की लोकगाथाओं तक और ज्योतिषशास्त्र की गणनाओं से लेकर वात्स्यायन के कामसूत्र तक आम का जिक्र मिलता है। पत्तिनिहेला के मुताबिक़ तो सुन्दर स्त्रियों की उत्पत्ति आम के फल के भीतर से हुई थी। कालिदास के यहाँ तो बिना आम और उसके बौरों के आधी उपमाएं पूरी नहीं होतीं। फिर पता नहीं क्या हुआ हजारों सालों की समृद्ध विरासत के बावजूद हिन्दी साहित्य की मुख्यधारा से आम गायब है।
आम को असल मोहब्बत आधुनिक उर्दू शायरों ने की। मिर्जा गालिब का आम-प्रेम और आम न खाने वालों की गधे से बराबरी करने वाला वह किस्सा सबने सुना है। बताते हैं गर्मियों के उरूज पर मिर्जा गालिब की खस्ताहाल हवेली का सहन दारू की खाली बोतलों और आम की गुठलियों से भर जाया करता।
सबसे पहली बात तो यह कि आम के साथ सामूहिकता और यारी-दोस्ती हमेशा जोड़ कर देखी जाती रही। जिनके घर आम होते थे वे दूसरों के घर आम भेजते थे। फिर ये दूसरे वाले पहले के घर वापस आम भिजवाते। पहले के यहाँ दशहरी का बाग था दूसरों के यहाँ चौसे का। शहरों के बीच की दूरियां मायने नहीं रखती थीं। किस्सा है अकबर इलाहाबादी ने अल्लामा इकबाल के लिए आम भिजवाये। वह भी अपने नगर से साढ़े नौ सौ किलोमीटर दूर लाहौर। उस जमाने में सडक़ के रास्ते थे और आने-जाने के साधन बहुत कम। आम सलामत पहुंचे तो चचा ने शेर लिखा -
असर ये तेरे अन्फासे मसीहाई का है अकबर,
इलाहाबाद से लंगड़ा चला लाहौर तक पहुंचा
यानी तूने आमों के ऊपर अपनी मसीहाई का ऐसा मंतर फूंका कि माल बिना खराब हुए आराम से ठिकाने पर पहुँच गया। यही अकबर अपने एक दोस्त से किस बेशर्मी से आम मांग भी लेते थे-
नामा न कोई यार का पैग़ाम भेजिए
इस फ़स्ल में जो भेजिए बस आम भेजिए
ऐसा जरूर हो कि उन्हें रख के खा सकूॅं
पुख़्ता अगरचे बीस तो दस खाम भेजिए
मालूम ही है आप को बंदे का ऐडरेस
सीधे इलाहाबाद मिरे नाम भेजिए
शायरों के बीच आम की इतनी विविधताओं के बीच जिस नाम ने खूब नाम हासिल किया वह था लंगड़ा। ऐसा इसलिए हुआ कि इस शब्द के दो मायने निकलते हैं। तभी तो सागर खय्यामी ने कहा-
आम तेरी ये खुश-नसीबी है
वर्ना लंगड़ों पे कौन मरता है
भारतीय इतिहास में तैमूर लंग को उसके पैरों के दोष के कारण अधिक, अपने कारनामों के लिए कम ख्याति मिली। कहते हैं उसने नाम के चलते इस स्वादिष्ट आम का अपने महल में प्रवेश बंद करवा रखा था। शायरी ने इसे यूँ दर्ज किया-
तैमूर ने कस्दन कभी लंगड़ा न मंगाया
लंगड़े के कभी सामने लंगड़ा नहीं आया
आमों का मौसम आता है तो दो किताबें अपने आप अलमारी से आप मेरे सिरहाने पहुँच जाती हैं - एलेन सूसर की ‘द ग्रेट मैंगो बुक’ और एडम गॉलनर की ‘द फ्रूट हन्टर्स’। इस मौसम में मेरे बेहद करीबी और फलों के कारोबारी असगर अली कोई तीन माह तक मुझे एक से बढक़र एक तमाम तरह के आम चखाते हैं। आजकल सफेदा आ रहा है, दो एक हफ्ते में कलमी आ जाएगा। दशहरी, लंगड़ा, चौसा वगैरह से होता हुआ यह क्रम तोतापरी, बम्बइया और मल्लिका तक चलेगा।
लखनऊ से हर साल मलीहाबादी दशहरी की पेटी लेकर आने वाले मेरे अजीज बड़े भाई विनोद सौनकिया अक्सर एक मच्छर-विरोधी शेर सुनाते हैं -
उठाएं लुत्फ वो बरसात में मसहरी के
जिन्होंने आम खिलाये हमें दशहरी के
खुद अपने लिए कोई आदमी इससे बड़ी दुआ क्या करेगा!