संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पर्यावरण बर्बादी की तोहमत बढ़ती आबादी पर लगाने वालों के खुद सोचने की बात
05-Jun-2021 4:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : पर्यावरण बर्बादी की तोहमत बढ़ती आबादी पर लगाने वालों के खुद सोचने की बात

आज पर्यावरण दिवस पर पूरे देश में जगह-जगह पर्यावरण को बचाने की चर्चा की जाएगी। पर्यावरण को बचाने की यह सोच बुनियादी रूप से गलत बात है क्योंकि बचाना तो इंसानों को खुद को है, पर्यावरण का क्या है। इंसान खत्म हो जाएंगे तो हजार-दो हजार साल में पर्यावरण अपने-आप बेहतर हो जाएगा। इंसानों को धरती को बचाने के लिए पर्यावरण नहीं बचाना है, उनको अपने-आपको बचाने के लिए पर्यावरण बचाना है, वरना धरती बचे रहेगी, इंसान ही चल बसेंगे। आज पर्यावरण के साथ दिक्कत सबसे बड़ी यह हो गई है कि इसे बचाने की तकरीबन पूरी ही जिम्मेदारी सरकारों ने अपने पर ओढ़ ली है। सरकारें अपने देश के कारोबार पर काबू तय करती हैं या ढील तय करती हैं, और जिस तरह के भ्रष्टाचार से नेता सत्ता पर आते हैं, उससे जाहिर है कि उनका काम महज ढील तय करना रहता है, किसी तरह का काबू उनकी प्राथमिकता में नहीं रहता। और यह बात हम अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान की सरकार तक जगह-जगह देख रहे हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अलग हिंदुस्तान में जिस तरह ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया है, तो वैसी जगह पर ऐसे ही लोगों को भेजा जाता है जो कि ढील की बात कर सकें।

खैर ऐसे माहौल में आज पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है और तमाम बड़े लोग इस मौके पर कई जगहों पर कुछ बोलेंगे और क्योंकि कोरोना की दहशत अभी जारी ही है इसलिए अधिक लोग वेबीनार पर बयान देंगे कि पर्यावरण को बचाना कितना जरूरी है और उसके तुरंत बाद से अपने बड़े-बड़े काफिले इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे, बड़े-बड़े बंगले, बड़े-बड़े दफ्तर, और उनमें लगे हुए अनगिनत एयर कंडीशनर। धरती पर अगर इंसानों को अपने-आपको बचाना है तो उसका अकेला जरिया अब यह रह गया है कि सरकारों से परे लोग अपने ऐसे समूह तैयार करें जो कि हर लोकतांत्रिक औजार और हथियार का इस्तेमाल करके सरकारों और अदालतों को बेबस करें कि वे धरती को बर्बाद करने की कारोबारी कोशिशों को, सरकारी कोशिशों को खत्म करें।

आज इस मौके पर यह भी याद करने की जरूरत है कि जिन लोगों को धरती की बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ लगती है और यह लगता है कि यह आबादी पर्यावरण को बर्बाद करके ही छोड़ेगी, उन लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आबादी का सबसे गरीब हिस्सा वह है जो कि गिनती में तो ज्यादा है, लेकिन जिसकी प्रति व्यक्ति खपत सबसे ही कम है। हिंदुस्तान में भी सबसे गरीब की प्रति व्यक्ति अनाज की खपत, बिजली की खपत, पेट्रोलियम की खपत, या कांक्रीट की खपत सबसे ही कम है। वह सबसे ही कम प्लास्टिक का कचरा पैदा करते हैं, और वह जितना खाते हैं खर्च करते हैं, उससे कहीं अधिक वे अपने बदन की ऊर्जा से धरती पर काम करते हैं। आज अगर मजदूरों की, ठेले और रिक्शे वालों की, किसी भी किस्म का मेहनत का रोजगार करने वालों की दिन भर की ऊर्जा को देखें, तो यह बात साफ है कि वे जितनी चीजों का इस्तेमाल करते हैं उससे अधिक ऊर्जा के लायक काम रोज करते हैं। इसलिए आज के दिन लोगों को अपनी इस गलतफहमी को दूर कर लेना चाहिए कि धरती पर बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ है। एक हजार सबसे गरीब लोग मिलकर जितनी खपत नहीं करते हैं, उससे कहीं अधिक खपत 10 रईस लोग करते हैं। इसलिए यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि पर्यावरण की बर्बादी का बढ़ती आबादी से कोई रिश्ता है। दूसरी बात यह यह कि बढ़ती हुई आबादी मेहनत और मजदूरी की संभावनाएं लेकर पैदा होती है। इन संभावनाओं को खत्म करने के लिए सरकार और कारोबार मिलकर जितने किस्म का मशीनीकरण कर रही हैं, उस मशीनीकरण से पर्यावरण की अधिक बर्बादी हो रही है, न कि बढ़ती हुई आबादी की वजह से।

दूसरी बात जो हिंदुस्तान के आम शहरों से देखने मिल रही है कि सफाई के नाम पर स्थानीय म्युनिसिपल जिस अंधाधुंध रफ्तार से खर्च करती हैं, और अपने नागरिकों को खुश रखने के लिए उन्हें मनमाना कचरा पैदा करने देती हैं, और उन पर सफाई का कोई जिम्मा नहीं डालती, यह शहरी पर्यावरण की बर्बादी का एक बड़ा कारण है. दक्षिण भारत के कुछ एक छोटे शहरों ने यह मिसाल कायम की है कि किस तरह म्युनिसिपल सफाई पर एक धेला भी खर्च किए बिना, लोगों को जिम्मेदार बनाकर कचरे से कमाई कर सकती हैं। लेकिन जब स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचित नेता वोटरों की चापलूसी में लगे रहते हैं तो वे उन्हें किसी तरह की जिम्मेदारी सिखाने का कड़वा काम नहीं करते। जिन स्थानीय संस्थाओं को नागरिकों को सिखाना चाहिए कि वे अपने घर पर ही कचरे को किस तरह से अलग करें ताकि बाद में उसकी छंटाई में खर्च ना हो और वह कचरा काम आ सके। म्युनिसिपल खर्च बढ़ाकर, गाडिय़ां बढ़ाकर, कर्मचारी बढ़ाकर अपनी शान दिखाने में लगे रहती हैं। हिंदुस्तान में लोग दूसरे प्रदेशों से सीखना तो दूर रहा। अपने प्रदेश से भी नहीं सीखते। छत्तीसगढ़ में ही अंबिकापुर में एक कलेक्टर और म्युनिसिपल कमिश्नर ने जिस तरह महिलाओं से समूह बनाकर कचरे को छंटवाकर उसकी बिक्री से कमाई शुरू करवाई थी, उसमें कमाई महत्वपूर्ण नहीं थी, कचरे की रीसाइकिलिंग महत्वपूर्ण थी, लेकिन इस राज्य के बाकी शहरों ने इससे भी कुछ नहीं सीखा। 

दुनिया भर में कारखानों को तो पर्यावरण तबाह करने के लिए कोसा ही जाता है, लेकिन सम्पन्न शहरी लोग जऱा खुद भी आइना देख लें इसलिए इन पहलुओं पर हम लिख रहे हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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