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कनक तिवारी लिखते हैं - ओह रिटायर्ड माय लॉर्ड आप ही सब जगह?
07-Jun-2021 7:21 PM
कनक तिवारी लिखते हैं - ओह रिटायर्ड माय लॉर्ड  आप ही सब जगह?

-कनक तिवारी

अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इंसाफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।

संविधान ने अधिकारों और जिम्मेदारियों का अपनी समझ से बंटवारा किया है। एक धड़े को कानून, अधिनियम रचने का अधिकार देकर विधायिका कहा। उनकी शैक्षणिक योग्यता सिफर रखी। वे भी कानून बना सकते हैं जिन्हें तालीम में ककहरा भी नहीं मालूम हो। सांसदों, विधायकों के दीवानेआम के अधिकतम पंद्रह प्रतिशत से मंत्रिपरिषद का दीवानेखास बनता है। तिकड़मी लोग ही कैबिनेट में शामिल हो पाते हैं। संविधान और कानून की पोथियां पढऩे से ज्यादातर मंत्री बेपरवाह रहते हैं। सरदार पटेल की समझाईश के कारण अंगरेजपरस्ती की नौकरशाही लगभग जस की तस आ गई। अलबत्ता राष्ट्रपति और राज्यपाल के जरिए उसे मंत्रियों की मातहती में रखकर कई संवैधानिक जिम्मेदारियां भी दी जाती हैं। सत्ता की सुरंग में जब अंधेरा दिखाई देता है, तब ये नौकरशाह टॉर्च लेकर मंत्रियों को रास्ता दिखाते हैं। बीच-बीच में टॉर्च बुझाकर बगल हो जाते हैं। पता चलता है मंत्री जी पतित हो गए हैं।

जनता सताई जाती है। सत्ता की बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तब मुहावरे के बंदर की तरह रोटियां तोड़ तोडक़र तराजू वाला इंसाफ करना न्यायपालिका के जिम्मे होता है। इंसाफ की मशीनरी के मेकेनिकों को बरसों बाद इलहाम हुआ कि मु_ी में सत्ता ही जीवन का ऑक्सीजन सिलेन्डर है। उससे सुख की ऑक्सीजन भर लें। केन्द्रीय केबिनेट ने जजों के साथ गलबहियां कीं। संसद ने तय किया कि सत्ता के सेल की दूकान में बाटा का जूता घिस जाए तब बी. एस. सी. का बेच लें। शासन चलाना बिटिया के ब्याह जैसा बेगैरत काम नहीं है। अक्ल रखो और सत्ता के दामाद बनो। रिटायर होने की उम्र आए तो समधी भी बनो। तय हुआ कि ऐसे पद कायम किए जाएं जिनमें जनता को लगे कि सब ठीक-ठाक है। सिस्टम को भी लगे कि हमारी दूकान गुडविल में चल निकली। चरित्र भले सूख जाए लेकिन हथेली गीली रहे। जो धरती दिखे, वह असल में दलदल रहे। हाथ के पंजे ने यारी दोस्ती में कमल का फूल ले लिया। दोनों को लक्ष्मीजी प्रिय हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की सरोगेट कोख से उछलकर एक शब्द ‘मानव अधिकार’ दुनिया में चकरघिन्नी हो रहा है। जनता को खुशफहमी में भरमाते देश और प्रदेशों के स्तर पर ‘मानव अधिकार आयोग’ गठित हुए। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट जजों को ही पदेन अध्यक्ष बनाने नेता-जज गठजोड़ के कारण अधिनियम बने। सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट के रिटायर चीफ जस्टिस के लिए राष्ट्रीय और राज्य मानव अधिकार आयोग अध्यक्ष पद यथासंभव आरक्षित हो ही गए। पांच वर्षों तक रिटायर जज न्याय की मूर्ति लगते मानव अधिकार का बोनस बांटें। पुलिस अत्याचार पर अत्याचार करे। सरकारें नागरिकों की चटनी पीसें। मानव अधिकार आयोग अखबारों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में सुर्खरू होते कुछ कर धर नहीं पाते हैं। कागज पर छपे शेर बने अपने वेतन के लिए कभी-कभार दहाड़ते हैं। उनकी रिपोर्टें रद्दी की सरकारी टोकरी में इज्जतबख्श होती रहती हैं।

खाने पीने की वस्तुओं में मिलावट और जहरखुरानी की बेईमानियां, मुनाफाखोरी, कालाबाजारी, जमाखोरी व्यापारी वर्ग करता ही है। उपभोक्ता संरक्षण आयोग बनाकर रिटायर्ड जजों को वहां भी अध्यक्षी वाला बुढ़ऊ के ब्याह का एकाधिकार है। 62 वर्ष की आयु में रिटायर होने पर पांच वर्षों या सत्तर वर्षों तक माय लॉर्ड की आधी अधूरी ठसक समुद्र के उतरते भाटा की तरह होती है। ठेकेदारों और सरकारों के बीच खराब सडक़ों, टूटते पुल, भरभराती इमारतों, मिलावटी सीमेंट वगैरह के सैकड़ों हजारों करोड़ के विवाद सरफुड़ौव्वल करते हैं। देश, प्रदेश और अंतरराष्ट्रीय स्तर तक विवादों को हल करने रेफरी का काम रिटायर्ड जजों को ही अमूमन सौंपा जाता है। मनमोहन सिंह सरकार ने ऊर्जा क्षेत्र को निजी इजारेदारों का बहिश्त बना दिया। बिना लाइसेंस के भी बिजली कारखाना बनाने के नाम पर, देश का कोयला सार्वजनिक क्षेत्र और निजी कारोबारियों के बीच गरीब की लुगाई बन गया। शोषण निजी क्षेत्र ने ज्यादा किया। कोयले की दलाली में मंत्रियों के हाथ काले होकर कोलगेट स्कैम हुआ। धांधली ढूंढने जांच आयोग बने, एजेंसियां बनीं। बिजली अधिनियम में प्रदेश और केन्द्र के स्तर पर शक्तियों को नियंत्रित करने कमीशन बने। उनमें भी रिटायर्ड हाईकोर्ट जजों को ही बिजली की स्विच पर हाथ रखना होगा। भले ही जीवन भर फ्यूज सुधारना तो दूर बलब बदलना भी नहीं आता रहा हो।

आगजनी, बमबारी, नक्सल आतंक, देश पार आतंक, पुलिसिया गोलीकांड, खाद्य वितरण घोटाला, बलात्कार, राजनीतिक हत्याएं, विदेशी खातों की जांच को लेकर धड़ाधड़ आयोग बनाए जाने का शगल है। सत्ता में ‘डेटिंग’ और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ के नये रोमांस भी हो रहे हैं। ऊंची अदालतों के जजों की दांईं आंख रिटायर होते ही शुभ संकेत देती है। सरकारपरस्तों को कुछ न कुछ वजीफा या पक्षपाती फैसलों के रिटर्न गिफ्ट का मिलना होता है। जांच आयोगों में जांच तो वर्षों तक लटकाई जाती है। ठसक के दौरे होते हैं। बुढ़ापा और भत्ता दोनों पकते हैं। इंसाफ की मृगतृष्णा झिलमिलाती है। जनता की याददाश्त तो गंगा में लाशें पटने पर भी धूमिल होने लगती है। कुल मिलाकर मंत्री-जज भाई भाई। जैसे हिन्दी चीनी भाई भाई।

बेताल विक्रमादित्य से पूछता है। इंजीनियरिंग ठेका विवादों के लिए गैर आलिमफाजिल जज के बदले बड़े रिटायर्ड इंजीनियर या प्रोफेसर मध्यस्थ क्यों नहीं बनाए जा सकते? डॉक्टरों, अस्पतालों, दवा कम्पनियों की धांधलगर्दी पकडऩे रिटायर्ड डॉक्टर या प्रोफेसर जांच क्यों नहीं कर सकते? मानव अधिकार आयोगों के लिए समाज के प्रमुख, प्रखर और ईमानदार नागरिकों पर भरोसा क्यों नहीं किया जाता? रिटायर्ड हाईकोर्ट जज तो पेट्रोल पंप और गैस एजेंसियों के आवंटन की समितियों के अध्यक्ष बने घपलों में डूबे पाए गए थे। प्रधानमंत्री वाजपेयी ने उन समितियों को भंग कर दिया। निजी व्यावसायिक कॉलेज छात्रों से कितनी फीस लें। उसे कमेटी तय करे। उसके अध्यक्ष हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज ही होंगे। किसी कानून में नहीं है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंधा बांटे रेवड़ी का मुहावरा गिफ्ट कर दिया था क्या?

अन्य किसी नौकरी या सेवा के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए पदों के आरक्षण का कोई डबल पेंशन जैसा कानून नहीं है। रिटायर्ड जजों के लिए कई अधिनियमों में पांच वर्षों का अतिरक्त कामकाजी इंतजाम है। कई पदों के लिए अन्य बौद्धिक क्षेत्रों से ज्यादा काबिल अधिकारी मिल सकते हैं। यह गलतफहमी अब भी है कि जज अन्य अधिकारियों के मुकाबले ज्यादा इन्साफपसन्द और निष्पक्ष होते हैं।

मौजूदा हालात की अदालतों के आचरण की सामाजिक ऑडिट की जरूरत है। विश्वविद्यालयों के कुलपति, राज्यपाल, राज्यसभा, प्रेस काउंसिल, मुख्यमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, राजदूत, गोलीकांड जांच, दंगों की रिपोर्ट, तेंदूपत्ता घोटाला, गुलाबी चना घोटाला, आपातकालीन अत्याचार, सेना-पुलिस विवाद, आदिवासी-नक्सलवादी संहार, उपभोक्ता आयोग, औद्योगिक न्यायालय, अल्पसंख्यक-आयोग जाने कितने ठनगन हैं जिन्हें रिटायर्ड जजों के लिए जबरिया चारागाह बना दिया गया है। बाकी सरकारी सेवकों या नागरिकों के लिए इस तरह बुढ़ापे में वसन्त का मौसम नहीं खिल पाता है।

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