संपादकीय
दुनिया में लोग किसी के बारे में राय तय करते हुए उसके परिवार को बड़ा वजन देते हैं कि वे किस परिवार के हैं। अब ऐसे में आज की एक खबर दिल को थोड़ी सी तकलीफ देती है कि दक्षिण अफ्रीका में एक अदालत ने महात्मा गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी धोखाधड़ी के मामले में 7 साल की कैद सुनाई है। गांधी के किसी वंशज को किसी जुर्म में सजा सुनाई जाए, यह बात गांधी का सम्मान करने वाले लोगों को तकलीफ तो पहुंचाती है, लेकिन गांधी की आत्मा भी अपने बाद की तीसरी-चौथी पीढ़ी तक लोगों की नीयत और उनके कामकाज पर काबू तो नहीं रख सकती। फिर यह भी है कि गांधी का डीएनए होने से लोगों के ऊपर वैसे भी उम्मीदों का बहुत बोझ रहता है, जिन्हें ढोते हुए जीना मुश्किल रहता है, ऐसे में अगर वंशज थक-हारकर उसकी फिक्र करना छोड़ दें, गांधी की विरासत की साख की फिक्र करना छोड़ दें, और आम इंसान जिस तरह रहते हैं, उस तरह जीने लगें, तो उसमें भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। बहुत से लोग बड़ी ऊंची साख वाली विरासत से परे कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो यह बात साबित करते हैं कि डीएनए कुछ भी नहीं होता। लोग अपनी मर्जी से काम करते हैं, और देखने वाले उन्हें उनके पुरखों की साख से जोडक़र देखने की कोशिश करते हैं, जो कोशिश हर बार कोई नतीजा पेश नहीं कर पाती।
दुनिया के तमाम लोकतंत्रों में कानून तकरीबन सभी लोगों के लिए एक सरीखे रहते हैं। महात्मा गांधी बहुत महान थे लेकिन उनके नाम की कोई रियायत उनके वंशजों को उनके काम के लिए देना भी नाजायज और अलोकतांत्रिक होगा। खुद गांधी ऐसी किसी रियायत के खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। इसलिए लोगों को साख का वारिस मानना सिरे से ही गलत बात है। लोग दौलत के वारिस हो सकते हैं, डॉक्टर और वकील जैसे पेशे में आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप के पेशेवर कामकाज की वारिस भी हो सकती है, लेकिन साख की वारिस नहीं हो सकती। गांधी के बहुत से वंशज दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए हैं जहां पर गांधी का एक वकील से महात्मा बनने का सफर शुरू हुआ था, जब उन्हें एक ट्रेन सफर से लात मारकर उतार दिया गया था। उस देश में गांधी के कई वंशज उसी वक्त से अभी तक चले आ रहे हैं, और जैसा कि जाहिर है गांधी विरासत में कोई कारोबार तो छोड़ नहीं गए थे कि जिस पर वंशज जिंदा रह सकें, इसलिए वंशजों ने अपने-अपने हिसाब से सामाजिक काम किए, और कारोबारी काम भी।
साख की विरासत बड़ा मुश्किल काम है। देश के एक सबसे बड़े लोकतांत्रिक नेता जवाहरलाल नेहरू के नाती संजय गांधी जवाहर की पार्टी के ही सर्वेसर्वा थे, और जवाहर की बेटी के राजनीतिक वारिस भी थे। लेकिन इंदिरा गांधी का भावनात्मक दोहन करके संजय गांधी ने हिंदुस्तानी इतिहास की सबसे अधिक लोकतांत्रिक बात इमरजेंसी लागू करवाई थी, और फिर उस पूरे दौर में जो कुछ किया था, वह इंदिरा को अपने नाम पर कलंक लगा हो या ना लगा हो, वह कांग्रेस पार्टी और नेहरू के नाम पर बहुत बड़ा कलंक था क्योंकि परिवार तो नेहरू का ही गिना जाता था। और नतीजा यह निकला कि नेहरू के नाती की बददिमागी ने नेहरू की बेटी का राजनीतिक भविष्य चौपट कर दिया, इंदिरा गांधी पूरे देश में अपनी पार्टी और सरकार की संभावनाओं को खो बैठीं। संजय गांधी की मौत एक हवाई हादसे में हुई थी और उसका नतीजा यह निकला कि उनके बड़े भाई राजीव गांधी को पायलट की नौकरी छोडक़र राजनीति में आना पड़ा। अब यह कल्पना करना कुछ मुश्किल है कि अगर वह हवाई हादसा नहीं हुआ होता, तो आज कांग्रेस पार्टी का, और इस देश का क्या हुआ होता?
जिन लोगों को आपातकाल लगाने का फैसला याद है और आपातकाल की ज्यादतियां याद हैं, उस दौर में संजय गांधी के गिरोह की तानाशाही और मनमानी याद है, वे भी आसानी से यह कल्पना नहीं कर सकते कि अगर संजय गांधी एक हादसे के शिकार होकर भारतीय राजनीति से मिट न गए होते तो क्या हुआ होता? और यह बात सोचना जरूरी इसलिए है कि संजय के रहते-रहते भी इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में आ गई थीं। आपातकाल के बाद इंदिरा को शिकस्त देने वाली जनता पार्टी की सरकार कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी। और यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब कांग्रेस की यह वापसी हुई, उस वक्त संजय गांधी कांग्रेस के एक सबसे बड़े और सबसे ताकतवर नेता तो थे ही, वे इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस भी समझे जा रहे थे। लेकिन एक वारिस की हरकतें और करतूतें ऐसी थीं कि हादसे का शिकार होने वाले संजय गांधी को भी आज कांग्रेस पार्टी याद करने की हिम्मत नहीं करती। कांग्रेस के कार्यक्रमों में और बहुत से लोगों के लिए तो श्रद्धांजलि के कार्यक्रम हो जाते हैं, लेकिन हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देखते हैं कि नालियों के बीच में एक बहुत खराब जगह पर बिठा दी गई संजय गांधी की आधी प्रतिमा को खुद कांग्रेसी देखने नहीं जाते।
इसलिए साख की कोई ऐसी विरासत नहीं होती कि आने वाली पीढिय़ां उस साख की हकदार बनाई जा सकें, जिसे उनके पुरखों ने मेहनत से हासिल किया था। चुनावी राजनीति में जरूर कुछ लोग अपने पुरखों की साख दुहने की कोशिश कर लेते हैं, लेकिन पुरखों की साख किसी के जुर्म में रियायत पाने का सामान नहीं बन पाती, बल्कि समाज ऐसे लोगों की सजा तय करते हुए कुछ अधिक ही कडक़ बन जाता है कि इन्होंने पुरखों का नाम डुबा दिया। इसलिए गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी जालसाजी के लिए 7 वर्ष की कैद होना गांधी को हॅंसी का सामान नहीं बनाता। नाथूराम गोडसे के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनका बेटा देश का सबसे बड़ा हत्यारा बन जाएगा, अगर ऐसा एहसास रहता तो शायद वे औलाद पैदा करने से परहेज ही करते। इसलिए गांधी का नाम डुबाने वाले दिखते हुए उनके वंशज असल में उनका नाम नहीं डुबा रहे, अपना खुद का नाम डूबा रहे हैं। पुरखों का नाम तो बनाने और बिगडऩे से परे हो जाता है। तीसरी-चौथी पीढ़ी में किसी के किए हुए काम से ना तो पुरखों का नाम रोशन होता और ना पुरखों के नाम पर कालिख पुतती।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)