संपादकीय
टेक्नोलॉजी किस तरह जिंदगी बदलती है इसे देखना हो तो इन दिनों हिंदुस्तान के छोटे-छोटे शहर-कस्बों तक पहुंच चुके बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा देखने चाहिए। लॉकडाउन में जब बाजार बंद थे और फेरी वालों को सभी इलाकों में जाकर सब्जी और दूसरे सामान बेचने की छूट थी, तो उस दौरान ऐसे बैटरी ऑटो रिक्शा सब्जियों और फलों से लदे हुए घर-घर पहुंचते थे और बिना किसी शोर के, बिना किसी धुएं के आना-जाना करते थे। डीजल से चलने वाले ऑटो रिक्शा इस बुरी तरह आवाज करते हैं कि उन पर चलने वाली सवारियां तो इस शोर से थक ही जाती हैं, उनके ड्राइवर तो सुनने की ताकत धीरे-धीरे खोने लगते हैं, क्योंकि उन्हें पूरे वक्त ऑटो के उसी शोर में रहना पड़ता है। अब अगर इन दोनों किस्म के ऑटो के खर्च का फर्क देखें तो बैटरी का ऑटो रिक्शा हर बरस बदली जाने वाली बैटरी और रोजाना बिजली से उसकी चार्जिंग के बाद भी हर दिन सौ रुपये में 80 किलोमीटर चल जाते हैं, मतलब करीब-करीब एक रुपए में एक किलोमीटर। धुआं गायब, शोर गायब, ऑटो रिक्शा पर चलने वाले लोग इंसान की तरह चैन से बैठ सकते हैं। जिन लोगों को अभी तक बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था समझ नहीं आई है, उन्हें कुछ ऑटो चालकों से इस बात को समझना चाहिए और चौराहे पर जब रुकना पड़ता है तब इस फर्क को महसूस करना चाहिए कि आसपास अगर डीजल से चलने वाले आधा दर्जन ऑटो हैं तो क्या हालत होती है, और अगर आधा दर्जन बैटरी वाले ऑटो हैं तो कितनी कम दिक्कत होती है।
टेक्नोलॉजी ने दुनिया में बर्बादी भी कम नहीं लाई है लेकिन यही टेक्नोलॉजी इस बर्बादी को घटाने की ताकत भी रखती है। दुनिया के विकसित देशों में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां रोजाना सैकड़ों किलोमीटर का सफर बैटरी से कर रही हैं, और बाकी देशों तक भी ऐसी गाडिय़ां पहुंच रही हैं। एक तरफ तो गाडिय़ों में बैटरी से चलने की टेक्नोलॉजी लगातार सुधर रही है और दूसरी तरफ बैटरी की क्षमता में सुधार भी लगातार किया जा रहा है। इससे जुड़ी हुई एक और बात बाकी है कि बैटरी को बिजली से चार्ज करने के बजाए सौर ऊर्जा से चार्ज करने की तकनीक भी विकसित होते चल रही है, और हो सकता है कि वह किसी दिन बिजली से चार्ज होने के बजाय सौर ऊर्जा से चार्ज होना अधिक सस्ता और आसान होने लगे। आज भी दुनिया के कई देशों में यह इंतजाम चल रहा है कि बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां चार्जिंग स्टेशन पर जाकर सीधे बैटरी या बदल लेती हैं, चार्ज करने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता। इस तरह यह नए सेंटर चार्जिंग स्टेशन के बजाय बैटरी बदलने के सेंटर बन गए हैं।
अब हिंदुस्तान में यह बात अधिक फैली तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि चुनिंदा शहरों से इसकी शुरुआत हो सके वहां जगह-जगह चार्जिंग स्टेशन लग सके, और बैटरी बदलने के सेंटर भी बदल सकें। जिस तरह गाडिय़ों में बैटरी डीजल और पेट्रोल के एक बेहतर रूप में सामने आई है उसी तरह जिंदगी के और बहुत से दायरों को भी देखने की जरूरत है कि वहां के परंपरागत सामानों से बेहतर और कम ऊर्जा खपत वाले दूसरे कौन से सामान आ सकते हैं जिन्हें बनाने में और इस्तेमाल करने में कार्बन फुटप्रिंट कम बढ़ता हो। जिस रफ्तार से इंसान ने धरती को बर्बाद करना शुरू किया, पहले तो ऐसी वैकल्पिक तकनीक से बर्बादी बढऩे की रफ्तार कम हो सकती है, और फिर धीरे-धीरे बर्बादी ही कम हो सकती है।
पर्यावरण दिवस तो निकल गया है लेकिन ऐसी तो कोई बात नहीं है कि उसके बाद पर्यावरण की फिक्र न की जाए, हम तो लॉकडाउन के इस पूरे दौर में आसपास जिस तरह बैटरी के ऑटो रिक्शा का चलन बढ़ते देख रहे हैं और गली मोहल्लों तक जाकर उनको बिक्री करते देख रहे हैं उसे इस मुद्दे पर लिखना सूझा और यह एक अलग बात है कि इससे पर्यावरण का बचाव होगा और ऐसी गाडिय़ां चलाने वाले लोग एक बेहतर जिंदगी भी पा सकेंगे। इसके साथ-साथ यह भी है कि डीजल-पेट्रोल का बैटरी-विकल्प आज भी सस्ता है और जैसे-जैसे बैटरी सस्ती होती जाएगी, वैसे-वैसे और सस्ता होते जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)