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गूगल, फ़ेसबुक, ऐपल और अमेज़न की मनमानी होगी ख़त्म? लगाम लगाने की तैयारी में जुटा अमेरिका
13-Jun-2021 8:46 AM
गूगल, फ़ेसबुक, ऐपल और अमेज़न की मनमानी होगी ख़त्म? लगाम लगाने की तैयारी में जुटा अमेरिका

-ज़ुबैर अहमद

अमेरिकी संसद में डेमोक्रैट और रिपब्लिकन, दोनों राजनीतिक पार्टियों के सांसदों ने पाँच विधेयक पेश किए हैं. माना जा रहा है कि इन विधेयकों को मंज़ूरी मिलने पर बड़ी टेक कंपनियों की कथित मनमानी पर रोक लग सकेगी.

अमेज़न, गूगल, ऐपल और फ़ेसबुक जैसी कंपनियों की 16 महीने लंबी पड़ताल के बाद अमेरिकी संसद में पाँच विधेयकों का मसौदा पेश किया गया है.

ये पाँच विधेयक इन ग्लोबल टेक कंपनियों की ताक़त को सीमित करने के उद्देश्य से लाए गए हैं.

इन विधेयकों का ताल्लुक डेटा मैनेजमेंट, प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने और ख़ुद से छोटी कंपनियों को ख़रीदने से है.

विधेयक को तैयार करने वाली समिति में रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक, दोनों पार्टियों के सांसद शामिल हैं. अभी इन विधेयकों पर सहमति बनने और इनके कानून का रूप में लेने में काफ़ी समय लग सकता है.

मनमानी और जुर्माना
सोमवार को फ़्रांस ने गूगल पर बड़ा जुर्माना लगाया जिससे एक बार फिर टेक्नोलॉजी की वैश्विक कंपनियों की नीतियों पर सवाल उठने लगे हैं.

दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल होने वाले इंटरनेट सर्च इंजन गूगल के ख़िलाफ़ विश्व भर में सरकारें शिकंजा कसती जा रही हैं. फ़ेसबुक, ऐपल और अमेज़न को भी कई सरकारों के मुक़दमे या कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है.

पिछले साल अक्टूबर में अमेरिका के जस्टिस डिपार्टमेंट और इसके कुछ राज्यों ने गूगल के ख़िलाफ़ मोनोपोली या एकाधिकार जमाने का इल्ज़ाम लगाते हुए शिकायत दर्ज की. गूगल के ख़िलाफ़ 'एंटी ट्रस्ट' कानूनों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया है.

दिसंबर, 2020 में अमेरिका में 46 राज्यों सहित केंद्र सरकार ने एकाधिकार या प्रतिस्पर्धा-विरोधी तौर-तरीके अपनाने के लिए फेसबुक पर मुकदमा दायर किया था. फेसबुक को पहले भी अदालत में घसीटा गया है लेकिन यह इसके ख़िलाफ़ अब तक का सबसे गंभीर मुक़दमा माना जा रहा है.

गूगल के ख़िलाफ़ पिछले साल भारत में भी इसी तरह की शिकायत दर्ज की गई है. दो वकीलों की शिकायत पर भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआई) इस बात की जांच कर रहा है जिसमें दावा किया गया है कि गूगल ने स्मार्ट टेलीविजन ऑपरेटिंग सिस्टम में अपनी प्रमुख बाजार स्थिति का दुरुपयोग किया है.

इस साल फ़रवरी में ऑस्ट्रेलिया ने गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों को देश की मीडिया कंपनियों के कंटेंट का इस्तेमाल करने के बदले पैसे देने के लिए क़ानूनी तौर पर बाध्य किया.

सुप्रीम कोर्ट के वकील और साइबर क़ानून के जानकार विराग गुप्ता बीबीसी से बातचीत में कहते हैं, "गूगल, ऐपल और फेसबुक जैसे टेक जाइंट्स ने अनेक ग्रुप कंपनियों से जमा किए गए भारी-भरकम डेटा के माध्यम से ई-कॉमर्स, मीडिया, विज्ञापन, रिटेल समेत अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों पर अपना एकाधिकार हासिल कर लिया है. अमेरिका में एफटीसी और ऑस्ट्रेलिया, यूरोप और भारत में संबंधित प्राधिकरणों की रिपोर्टों से इन कंपनियों के एकाधिकारवादी रवैये की पुष्टि होती है."

अमेरिका में रहने वाली टेक्नोलॉजी क्षेत्र की वकील मिशी चौधरी ने बीबीसी से कहा, "हमने बिग टेक कंपनियों को बिना किसी जांच के लंबे समय तक चलने देने के प्रतिस्पर्धा-विरोधी प्रभावों को देखा है. घटती प्राइवेसी, अधिक विज्ञापन, खराब प्रोडक्ट इसका परिणाम हैं."

भारत और अमेरिका दोनों देशों में सक्रिय मिशी चौधरी कहती हैं कि ऐपल के उपकरण और इकोसिस्टम भारी कीमत पर आते हैं और "गूगल और फेसबुक ने अपने यूजर्स को ही एक प्रोडक्ट बना दिया है."

इसी हफ़्ते फ्रांस ने गूगल पर करोड़ों का जुर्माना लगाया है जिसे गूगल ने स्वीकार कर लिया है. गूगल ने फ्रांस के एंटीट्रस्ट वॉचडॉग के साथ एक अभूतपूर्व समझौते के तहत व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली अपनी कुछ ऑनलाइन विज्ञापन सेवाओं में बदलाव करने पर सहमति व्यक्त की है.

प्राधिकरण ने कैलिफ़ोर्निया स्थित कंपनी पर 26 करोड़ डॉलर से अधिक का जुर्माना भी लगाया, जब एक जांच में पाया गया कि इसने ऑनलाइन जटिल विज्ञापन व्यवसाय में अपनी मार्केट शक्ति का दुरुपयोग किया, जहां बड़े प्रकाशक गूगल के मुताबिक चलने को मजबूर हो गए हैं.

मिशी चौधरी इस पर कहती हैं, "फ्रांसीसी अधिकारियों और गूगल के बीच समझौता इसके एक पहलू को उजागर करता है. गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों के लेन-देन की गोपनीयता, विज्ञापन की कीमतों, इन्वेंट्री और उनके पास जो डेटा है जिसका दूसरे मुक़ाबला नहीं कर सकते. निश्चित रूप से कई अन्य बातों की तरह यह एक गंभीर चिंता का विषय है".

इस साल गूगल को लगने वाला ये दूसरा झटका था. पहला झटका ऑस्ट्रेलिया ने फ़रवरी में दिया था जब उसने एक नया क़ानून पारित किया जिसके तहत गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों को इस बात के लिए बाध्य किया कि वो अपने प्लेटफार्म पर मीडिया कंपनियों का कंटेंट इस्तेमाल करने के लिए पैसे दें.

पहले तो फेसबुक ने ऑस्ट्रेलिया में न्यूज़ सेवा बंद कर दी और गूगल ने देश छोड़ने की धमकी दी लेकिन अंत में उन्हें क़ानून का पालन करने के लिए बाध्य होना पड़ा और दोनों ने ऑस्ट्रेलिया की मीडिया को पैसे देने पर अलग-अलग समझौते किए.

गूगल से पहले का सर्च सिस्टम
तीस साल पहले किसे मालूम था कि 'खोज' या 'सर्च' खरबों डॉलर का एक वैश्विक व्यापार बन जाएगा.

गूगल के वैश्विक व्यापार के आज के सच की उस समय भी भविष्यवाणी कोई नहीं कर सकता था जब लोग सुस्त रफ़्तार इंटरनेट पर 'नेटस्केप' और 'एओएल' जैसे ढीले-ढाले सर्च इंजन का इस्तेमाल कर रहे थे.

सितंबर 1998 में लैरी पेज और सर्गेई ब्रिन ने एक बहुत बड़े बाज़ार के सपने को साकार करने के लिए गूगल की शुरूआत की और कुछ सालों में गूगल के बिना इंटरनेट की कल्पना मुश्किल हो गई. इसके बाद गूगल ने सर्च से जुड़े हर क्षेत्र में पैर पसारे और कंपनी जल्दी ही भारी मुनाफ़ा कमाने लगी. उसने सर्च के कारोबार पर एकाधिकार कर लिया.

नवंबर 2006 में गूगल ने सबसे बड़ी वीडियो साइट यूट्यूब को ख़रीद लिया. कंपनी ने न सिर्फ़ विज्ञापन, मार्केटिंग, ट्रेवल, फूड, म्यूज़िक, मीडिया जैसे हर क्षेत्र में अपना पैर फैला लिए बल्कि ग्राहकों से मिलने वाले डेटा का इस्तेमाल अपने धंधे को चमकाने के लिए किया.

गूगल का व्यापार कैसे चलता है?
विशेषज्ञों के अनुसार गूगल का व्यापारिक मॉडल उन अरबों लोगों के व्यक्तिगत डेटा के आधार पर काम करता है जो ऑनलाइन सर्च कर रहे हैं, यूट्यूब वीडियो देख रहे हैं, डिजिटल मैप का इस्तेमाल कर रहे हैं, इसके वॉयस असिस्टेंट से बात कर रहे हैं या इसके फ़ोन सॉफ़्टवेयर का उपयोग कर रहे हैं.

ये डेटा उस विज्ञापन मशीन को चलाने में मदद करता है जिसने गूगल को एक दिग्गज कंपनी में बदल दिया है. यानी गूगल का डेटा एनालाइज़ करने वाला सिस्टम जानता है कि आपको किस तरह के विज्ञापन दिखाए जाने पर आपके सामान खरीदने की संभावना बढ़ जाएगी.

गूगल क्रोम आज 69 प्रतिशत मार्केट शेयर के साथ न सिर्फ़ सर्च बल्कि ब्राउज़र की दुनिया का बेताज बादशाह है, यानी जब आप सर्च नहीं भी कर रहे होते हैं तब भी जीमेल, क्रोम या किसी अन्य तरीके से गूगल के ही दायरे में होते हैं और आपका डेटा उसके पास जमा होता रहता है.

दूसरी तरफ़ माइक्रोसॉफ़्ट के इंटरनेट एक्स्प्लोरर का मार्केट शेयर अब 5 प्रतिशत तक सीमित हो गया है और माइक्रोसॉफ़्ट ने इसके अंतिम दिन की घोषणा कर दी है, अगले साल 15 जून के बाद एक्सप्लोरर बंद हो रहा है.

गूगल के कथित एकाधिकार का सफ़र
साल 1998 में अपनी स्थापना के बाद गूगल ने दर्जनों कंपनियों के अधिग्रहण किए हैं जिसके कारण ये अमरीकी सर्च मार्केट में 90% का भागीदार बन गया है.

अमेरिकी न्याय विभाग के मुकदमे में दिए गए तर्कों के आधार पर, ये ऐसे सौदे हैं जिन्होंने गूगल को दुनिया भर में ऐसा सर्च इंजन बना दिया है जिसका कोई प्रतिस्पर्धी ही नहीं है.

गूगल के कुछ सौदों पर एक नज़र

  • 2005 में एंड्रॉइड को केवल 50 मिलियन डॉलर में खरीदा. ये डिजिटल जगत का सबसे अहम और सबसे सस्ता सौदा माना जाता है. ये गूगल के लिए गेम चेंजर साबित हुआ. आज दुनिया के हर 10 मोबाइल फ़ोन में से 7 एंड्राइड फ़ोन हैं, जिनमें गूगल सर्च इंजन है पहले से लगा हुआ है.
  • 2007 में 3.1 अरब डॉलर में 'डबल क्लिक' का अधिग्रहण किया, जिससे डिजिटल विज्ञापन जगत में इसका तेज़ी से विस्तार हुआ. उस समय गूगल याहू से 10 गुना छोटा था.
  • 2010 में गूगल ने आईटीए सॉफ्टवेयर को 700 मिलियन डॉलर में खरीद लिया, जिससे ट्रैवल सर्च और बुकिंग में ये एक बड़ा प्लेयर बन गया. इससे पहले उसके प्रतिद्वंदी आईटीए सर्च इंजन पर निर्भर करते थे.
  • 2013 में गूगल ने चीनी ऐप वेज़ को 1.1 अरब डॉलर में खरीदकर मैप में अपने प्रतिद्वंद्वियों के व्यवसाय को एक बड़ा झटका दिया, वेज़ की लोकप्रियता का ये हाल है कि गगूल ने इसे आज भी एक अलग सॉफ्टवेयर की तरह स्थापित रखा है और ये गूगल मैप से बेहतर माना जाता है.

गूगल का तर्क
गूगल को एंड्रॉइड ऑपरेटिंग सिस्टम के अधिग्रहण ने इसके विस्तार और उसकी मोनोपोली बनाने में जितनी मदद की है उतनी किसी और खरीदारी ने नहीं की. आज एंड्रॉइड फ़ोन सर्च से केवल गूगल को ही फायदा है इसीलिए अमेरिकी प्रशासन ने इसके ख़िलाफ़ मोनोपोली ट्रेड करने का आरोप लगाया है.

गूगल इस इल्ज़ाम से इनकार करता है. इसका कहना है, ''लोग गूगल का इस्तेमाल अपनी मर्ज़ी से करते हैं. कोई उन्हें मजबूर नहीं करता और ऐसा भी नहीं है कि उनके पास कोई विकल्प नहीं है."

कपंनी ने कहा कि उसके ख़िलाफ़ मुक़दमों और तर्कों में खोट है.

वकील विराग गुप्ता विराग गुप्ता ने गोविंदाचार्य की ओर से दायर याचिका में इस मामले पर बहस की है. उसी मुकदमे की वजह से पहली बार अगस्त 2013 में कंपनी को भारत में शिकायत अधिकारी नियुक्त करने के लिए विवश होना पड़ा था.

गुप्ता कहते हैं, "इन कंपनियों का यह कहना कि वे फ्री-सर्विस देते हैं इसलिए कोई एकाधिकार नहीं है, यह बात पूरी तरह से गलत और बेबुनियाद है. जिस तरीके से सरकार इनकम टैक्स पर डायरेक्ट टैक्स और जीएसटी से इनडायरेक्ट टैक्स वसूलती है, उसी तरीके से बड़ी टेक कंपनियां करोड़ों ग्राहकों से उनकी जानकारी के बगैर पैसे कमा रही हैं. इन कंपनियों के अनूठे व्यापारिक मॉडल से पूरी दुनिया के 300 करोड़ से ज्यादा यूजर्स प्रोडक्ट बनकर डेटा के अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में रोज़ाना नीलाम हो रहे हैं".

मगर अमेरिकन इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक रिसर्च के लिए लिखते हुए आर्ट कार्डेन तर्क देते हैं कि गूगल ने कोई मोनोपोली नहीं बना रखी है.

वो कहते हैं, "सबसे पहले, गूगल सर्च या डिजिटल विज्ञापन स्पेस, या वेब ब्राउज़िंग या वर्ड प्रोसेसिंग, या किसी अन्य क्षेत्र में गूगल व्यापार करने वाली अकेली कंपनी नहीं है. मैंने कल ही अपने गूगल क्रोम ब्राउज़र सिस्टम में आसानी से अपने डिफ़ॉल्ट सर्च इंजन को गूगल से 'डकडकगो' सर्च इंजन में बदल दिया. केवल कुछ बटन क्लिक करने पड़े. मैं चंद मिनट में अपने फ़ोन या कंप्यूटर से क्रोम डिलीट करके सफ़ारी, ओपेरा, फ़ायरफ़ॉक्स या ब्रेव सर्च इंजन को डिफ़ॉल्ट सर्च इंजन बना सकता हूँ, गूगल हमें रोक नहीं सकता.''

कार्डेन कहते हैं, ''मैं गूगल प्रोडक्ट्स इसलिए इस्तेमाल करता हूँ क्योंकि इनसे मुझे मुफ़्त में सुविधा और गुणवत्ता हासिल होती है.''

उनका तर्क है कि गूगल को मार्केट में बढ़त बनाए रखने के लिए नई चीज़ें करनी पड़ती हैं, इनोवेशन करते रहना पड़ता है, वरना गूगल का हाल भी इंटरनेट एक्स्प्लोरर की तरह होगा."

ऐपल और गूगल दोनों ही अपने ऐप स्टोर से इन-ऐप खरीदारी के लिए 30% तक शुल्क लेते हैं, दोनों कंपनियों का दावा है कि यूजर्स को सुरक्षा प्रदान करने के बदले शुल्क उचित है.

अमेरिकी सीनेट न्यायपालिका समिति के एंटी ट्रस्ट पैनल का कहना है कि ऐपल के ऐप स्टोर और गूगल के गूगल प्ले प्रतिस्पर्धा-विरोधी हैं. पैनल के मुताबिक़ दोनों स्टोर "उन ऐप्स को बाहर कर देते हैं या दबाते हैं जो उनके साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं". गूगल प्ले और ऐप स्टोर से दुनिया भर में अधिकांश ऐप्स डाउनलोड किए जाते हैं.

डेवलपर्स का दावा है कि प्रतिस्पर्धा की कमी के कारण ऐपल और गूगल जबरन वसूली कर सकते हैं, ऐसे भी दावे किए गए थे कि ऐपल ने अपने ऐप स्टोर का उपयोग प्रतिद्वंद्वियों को पछाड़ने के लिए किया था.

मिशी चौधरी कहती हैं कि उन्हें दूसरे देशों का नहीं पता लेकिन "कम से कम अमेरिका में हमने देखा है कि जब दम घुटने वाले एकाधिकार को विभिन्न कंपनियों में विभाजित किया जाता है, तो परिणाम अक्सर अधिक बेहतर होता है जो यूजर्स के लिए अच्छा होता है."

फेसबुक ने ट्रंप के अकाउंट को दो साल के लिए निलंबित कर दिया है. पिछले दिसंबर में उनके शासनकाल में 46 राज्यों सहित उनकी सरकार ने एकाधिकार या प्रतिस्पर्धा-विरोधी तरीके अपनाने के आरोप में फेसबुक पर मुकदमा दायर किया था.

वर्तमान मुक़दमे में फेसबुक पर एक गंभीर आरोप लगाया गया-फेसबुक अवैध रूप से एक खरीदो और दफनाओ (बाइ एंड बरी) की रणनीति को लागू करके उस एकाधिकार शक्ति को बनाए रखता है जो प्रतिस्पर्धा की संभावना को खत्म करता है, यूजर्स और विज्ञापन देने वालों, दोनों को नुकसान पहुंचाता है.

फेसबुक कॉम्पिटिशन को कैसे मारता है उसकी एक मिसाल इसके सीईओ मार्क ज़ुकेरबर्ग के 2012 के एक आधिकारिक ईमेल से मिलता है जो अब सार्वजनिक है.

इसमें उन्होंने लिखा था, "हाल में मैं एक व्यावसायिक प्रश्न पर ग़ौर कर रहा हूँ कि हमें इंस्टाग्राम और पाथ जैसी मोबाइल ऐप कंपनियों को हासिल करने के लिए कितना भुगतान करना चाहिए जो हमारे अपने साथ प्रतिस्पर्धी नेटवर्क बना रहे हैं, व्यापार अभी शुरूआती दौर में है लेकिन

उनका नेटवर्क स्थापित है. ब्रैंड पहले से ही स्थापित हैं और अगर वे बड़े पैमाने पर विकसित होते हैं तो वे हमारे लिए बहुत नुकसानदेह हो सकता है."

फेसबुक ने इंस्टाग्राम को एक अरब डॉलर में खरीद लिया और दो साल बाद वॉट्सऐप को 19 अरब डॉलर में खरीद लिया. मुक़दमे में अमेरिका के 46 राज्य मांग कर रहे हैं कि अदालत वॉट्सॅऐप और इंस्टाग्राम की ख़रीद को रद्द कर दे.

अगर अदालत इस आकलन से सहमत होती है, तो फेसबुक को अपने तरीकों में सुधार करना होगा. संभवत: वॉट्सऐप और इंस्टाग्राम को बेचना होगा. साथ ही भविष्य में और कंपनियाँ खरीदना मुश्किल होगा.

हालाँकि मिशी चौधरी के अनुसार भारत में नागरिकों की प्राइवेसी की सुरक्षा के लिए पर्याप्त डेटा प्रोटेक्शन क़ानून नहीं हैं. वो कहती हैं, ''भारत सरकार के पास अधिकार हैं, लेकिन हमने शायद ही कभी उन्हें यूजर्स के हित में इस्तेमाल किया गया हो."

वकील विराग गुप्ता कहते हैं, "भारत में भी फेसबुक और टि्वटर जैसी कंपनियां सरकार की नहीं सुनतीं. कंटेंट मॉडरेशन के बारे में इन कंपनियों के नियमों में पारदर्शिता न होने के साथ एकरूपता का भी अभाव है, जिससे इंटरमीडियरी की कानूनी छूट पर भी बड़ी बहस शुरू हो गयी है.''

वो कहते हैं, "भारत में पहली बार 2011 में इन कंपनियों के लिए आईटी इंटरमीडिएरी नियम बनाए गए थे, जिनका क्रियान्वयन 2013 में गोविंदाचार्य मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश के बाद शुरू हुआ. नए नियमों में कई तरह का घालमेल करने से जटिलता बढ़ गई है, जिसकी वजह से इनके क्रियान्वयन में आगे चलकर कठिनाई के साथ कई तरह के न्यायिक विवाद भी सामने आ सकते हैं."

विराग गुप्ता कहते हैं, "इन नियमों के दो प्रमुख उद्देश्य हैं. पहला भारत के कानून के तहत इन कंपनियों की जवाबदेही जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा और आपत्तिजनक कंटेंट पर तुरंत कार्रवाई हो. दूसरा, भारत में इन कंपनियों का फिजिकल इस्टैब्लिशमेंट और औपचारिक कानूनी ऑफिस हो जिससे कि इन कंपनियों से भारत में खरबों रुपए की टैक्स वसूली हो सके."

हालांकि इन कंपनियों के लिए भारत एक विशाल मार्केट है इसलिए ये भारत में टिके रहने के लिए कुछ समझौता करेंगी.

मिशा चौधरी कहती हैं, "मैं व्यवसायों की तरफ़ से नहीं बोल सकती लेकिन सरकार के साथ समझौता करने के लिए उन्हें कुछ कम्प्रोमाइज़ करना पड़ सकता है".

रिलायंस जियो में निवेश करके फेसबुक और गूगल की रणनीति साफ़ ज़ाहिर है कि इन टेक कंपनियों ने भारत में लंबे समय तक रहने के बारे में सोच रखा है. (bbc.com)

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