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सुकमा के बीहड़ों में मिली हजार साल प्राचीन दर्जनों मूर्तियां
13-Jun-2021 4:00 PM
सुकमा के बीहड़ों में मिली हजार साल प्राचीन दर्जनों मूर्तियां

     संरक्षण के अभाव में मूर्तियों को नुकसान   

‘छत्तीसगढ़’ विशेष रिपोर्ट
अमन सिंह भदौरिया
दोरनापाल, 13 जून (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)।
यूं तो बस्तर को नक्सलवाद के तौर पर इन दिनों जाना जाता है, लेकिन बस्तर की अपनी एक पहचान सदियों पुरानी है और इस पहचान को साफ करने प्राचीन कालीन मूर्तियां संरक्षण के अभाव में खुद को खुद में ही सहेजे हुए हैं। सुकमा जिले के धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में लगभग 1000 साल प्राचीन मूर्तियां देखी गई है। 

इन मूर्तियों का इतिहास नागवंश काल से जोड़ा जा रहा है, जो सातवीं सदी से तेरहवीं सदी के बीच तक के शासक रहे हैं और बताया जा रहा है कि सैकड़ों मूर्तियां उन इलाकों में है, जो अविकसित के साथ-साथ नक्सलियों के प्रभाव क्षेत्र में आते हैं। छत्तीसगढ़ की टीम ने उन इलाकों का जायजा लिया और उन इलाकों में पड़ताल के दौरान 2 दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की मूर्तियां पाई, जिनके बारे में राजीव रंजन प्रसाद जो कि बस्तर के प्रसिद्ध लेखक के साथ-साथ बस्तर की इतिहास को करीब से जानने वाले जानकार हैं। उन के माध्यम से हर एक तस्वीर की पहचान कराई गई।

‘छत्तीसगढ़’ को उन इलाकों में प्राचीन मूर्तियों के होने की जानकारी मिली, जहां पहुंच पाना कठिन है, क्योंकि रास्ते भी दुर्गम हैं सुकमा जिला मुख्यालय से लगभग 58 किलोमीटर की दूरी पर यह सारी मूर्तियां आधा दर्जन गांव में ग्रामीणों द्वारा सहेज कर रखा गया है, इनमें ब्रह्मा विष्णु महेश प्राचीन कालीन गणेश की मूर्ति बेहद दुर्लभ और अद्भुत शिवलिंग सात सहेलियां कुंड विष्णु सरस्वती हनुमान भैरव भैरवी दुर्गा समेत तीन अन्य देवियों के मूर्ति उन इलाकों में देखे गए हैं। 

इस पूरे मामले पर ‘छत्तीसगढ़’ को कामाराम सरपंच कट्टम दारा ने बताया कि सदियों पुरानी मूर्तियों को संरक्षण के लिए हमारे पूर्वजों ने सौंपा था। इसकी स्थापना बस्तर राजा द्वारा की गई थी। फिलहाल संरक्षण के अभाव में मूर्तियों को नुकसान हो रहा है। हम जल्द ही प्रशासन को आवेदन कर इन मूर्तियों की घेराबंदी की मांग करेंगे, ताकि मूर्तियों को सुरक्षित रखा जा सके। 

इस मामले पर जिला पंचायत सीईओ नूतन कवर से ‘छत्तीसगढ़’ ने चर्चा की और पूरी स्थिति की जानकारी भी दी। जिस पर उन्होंने कहा कि मूर्तियों को नुकसान चिंता का विषय है ग्राम पंचायतों से इस मामले पर चर्चा की जाएगी और उनसे प्रस्ताव के आधार पर शासन की देवगुड़ी संरक्षण योजना के तहत उन जगहों पर मूर्तियों के संरक्षण के लिए निर्माण भी किया जाएगा।

7वीं सदी से 13 विन सदी तक जुड़ा इन मूर्तियों का इतिहास
बस्तर का इतिहास वारंगल से जुड़ा हुआ था। सातवीं सदी से तेरहवीं सदी के बीच वारंगल विरासत में नागौर नागवंश का शासन रहा है। जिस दौरान शिल्पकला को बेहद बढ़ावा मिला था। इस दौरान बस्तर के पास शान से मूर्तियों की कलाकारी का केंद्र बस्तर हुआ करता था और यहां हजारों ऐसी मूर्तियां हैं, जो आज भी जमीन के नीचे हैं और इनमें भी कई दुर्लभ और अद्भुत मूर्तियां जमीन के नीचे होने का दावा भी किया जाता है, लेकिन इलाका अविकसित और पुरातत्व विभाग की निष्क्रियता की वजह से खुदाई नहीं हो सकी। बताया जाता है कि नागवंश में पाषाण काल की पद्धति को बेहद महत्व दिया गया था और यही वजह है कि बस्तर में बड़ी संख्या में मूर्तियां पाई जा रही हैं। मूर्तियों का क्रमबद्ध जहां इंजरम में राम के आने के सुराग के तौर पर कई मूर्तियां रखी गई हैं। इसके साथ ही चिंतलनार के मुकरम में गणेश की मूर्तियां हैं। वही, दोरनापाल से लगभग 53 किलोमीटर की दूरी पर अचकट में शिवलिंग, विष्णु, गणेश, देवी कुंड, हनुमान, भैरव समेत 9 मूर्तियां देखी गई, वही कुछ मूर्तियां कामाराम में देखी गई। इसके अलावा कुन्देड़ चिमलिपेंटा किस्टाराम इलाके में भी मूर्तियां देखे गए हैं।

राजाओं ने अपनी मान्यताओं के आधार पर प्रतिमाएं निर्मित की 
बस्तर के प्रसिद्ध लेखक और बस्तर को करीब से ऐतिहासिक तौर पर जानने वाले राजीव रंजन प्रसाद बताते हैं  कि बस्तर की ऐतिहासिक विरासत को ठीक से समझना होगा। यहां नल शासकों का शासन था, नाग शासकों का शासन था। समुद्रगुप्त ने यहां आक्रमण कर अपना प्रभाव छोड़ा। काकतीय चालुक्यों का भी यहां शासन था। साथ ही समानांतर महान आदिवासी संस्कृति महापाषाण काल से आज तक अपनी विरासत समेटे हुए हैं। अलग-अलग शासन समय में राजाओं ने अपनी धार्मिक मान्यताओं ने अपने अपने तरह की प्रतिमाएं निर्मित की, जो बस्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में देखी जा रही हैं।

बस्तर में इतिहास को प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर काल क्रम में जमा पाना कठिन है, क्योंकि कभी भी किसी भी स्थल की समुचित एवं वैज्ञानिक ढंग से खुदाई ही नहीं हुई है केशकाल में गढ़ धनोरा के पास कुछ टीले अवश्य उत्खनन किए गए, लेकिन उसके बाद से आज तक किसी ने जमीन के भीतर झांकने की कोशिश तक नहीं की। जरूरत है इन मूर्तियों के संरक्षण की क्योंकि इतिहास को बचाना भविष्य को बचाने के बराबर है। 

सदियों पुरानी मूर्तियों को अब संरक्षण की आवश्यकता
गौरतलब है कि जो मूर्तियां बस्तर के सुकमा के बीहड़ों में जब खत स्थिति में देखी जा रही है, कई मूर्तियां आधी मिट्टी में दबी हुई है, तो कई मूर्तियां जिनके आधे अवशेष अब गायब हो चुके हैं, और कुछ मूर्तियों की तो पहचान भी नहीं की जा सकती, क्योंकि उनके कई अवशेष दूर दूर तक देखे नहीं जा रहे। 

जिम्मेदारों को उनके संरक्षण की बेहद आवश्यकता है क्योंकि बस्तर का इतिहास इन मूर्तियों से जुड़ा हुआ है। विडंबना है कि पुरातत्व विभाग और संग्रहालय से अधिक अपने इतिहास (मूर्तियों) का अपने मंदिरों देव गुडिय़ों और पंचायतों में संरक्षण किया है, लेकिन उनकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है। 

प्रसिद्ध लेखक राजीव रंजन प्रसाद कहते हैं कि 1970 के दशक में बस्तर के अलग-अलग इलाकों से ट्रकों में भर-भर के मूर्तियों की चोरी की जानकारी अखबारों के माध्यम से सामने निकल कर आती थी। जब इन मूर्तियों की पड़ताल की गई, तो यह मूर्तियां छत्तीसगढ़ या मध्य प्रदेश के किसी भी संग्रहालय में इसकी जानकारी नहीं है, तो यह विचारणीय है कि आखिर वह मूर्तियां कहां गई, क्योंकि मूर्तियों की चोरी की बात पर उम्र दराज बुजुर्ग कहते हैं कि अविश्वास की बात ही नहीं उठती।

पूरे मामले पर जिला पंचायत अध्यक्ष हरीश देवासी ने 'छत्तीसगढ़Ó को बताया कि वर्तमान में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बस्तर की संस्कृति और देवी देवताओं के संरक्षण के लिए देव गुड़ी योजना पर गंभीर हैं। हमारे द्वारा उन क्षेत्रों को चिन्हित किया जाएगा जहां प्राचीन मूर्तियां हैं और जल्द से जल्द उन्हें संरक्षित करने के लिए निर्माण कार्यों की स्वीकृति भी करवाई जाएगी प्राचीन मूर्तियों और देवी-देवताओं के संरक्षण की जिम्मेदारी हम सब की है।

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