संपादकीय
हिंदुस्तान के अदालती फैसलों में भी कोरोना सी लहर आते रहती हैं। पिछले कुछ हफ्तों से अदालतें एक बार फिर उम्मीदें जगा रही हैं कि वे सरकार की हामी भरने वाली संस्था ना होकर जनता और संविधान की भी फिक्र करने वाली जिम्मेदार अदालतें हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने कल 3 छात्र-छात्राओं को आतंकी आरोपों के मामले में जमानत देते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि सरकार की नजर में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच फर्क करने वाली लकीर कुछ धुंधली हो गई है। दिल्ली हाईकोर्ट ने इन गिरफ्तार लोगों को जमानत देते हुए केंद्र सरकार के यूएपीए कानून की आलोचना करते हुए कहा कि इसमें आतंकवाद और आतंक शब्द की परिभाषा कहीं पर नहीं दी गई है।
अदालत ने कहा कि यूएपीए में आतंकवादी काम की परिभाषा अस्पष्ट है और आतंकवादी काम का इस्तेमाल किसी भी आपराधिक काम के लिए नहीं किया जा सकता, खासकर ऐसे कामों के लिए जिनकी परिभाषा पहले से अन्य कानूनों में तय है। अदालत ने सरकार को सावधानी बरतने की नसीहत देते हुए कहा कि ऐसा न करने पर इस बेहद घृणित अपराध की गंभीरता खत्म हो जाएगी। पिछले साल दिल्ली में पिंजरातोड़ नाम के एक सामाजिक आंदोलन के कार्यकर्ता और जेएनयू-जामिया के तीन छात्र-छात्राओं को दिल्ली पुलिस ने दिल्ली दंगे की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया था और वे लंबे समय से जेल में चले आ रहे थे। अब अदालत ने इन्हें जमानत देते हुए जो बातें कही हैं, उनमें यह भी है की असहमति को दबाने के लिए सरकार के जहन में विरोध के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधि के बीच का फर्क धुंधला हो गया है, और अगर इस रवैया को बढ़ावा मिलता है तो यह लोकतंत्र के लिए दुखद दिन होगा।
देश के मीडिया का एक हिस्सा, और देश के बहुत से सामाजिक विचारक, कई राजनीतिक दल लगातार नौजवान छात्र-छात्राओं के ऐसे गंभीर कानून के तहत गिरफ्तारी के खिलाफ बोलते और लिखते चले आ रहे थे। लेकिन केंद्र सरकार के मातहत दिल्ली पुलिस ने इस तरह की बहुत सी गिरफ्तारियां की और उनमें देश के सबसे कड़े एक कानून को लागू करके इनकी जमानत अब तक नहीं होने दी थी। जब किसी बेकसूर सामाजिक कार्यकर्ता पर आतंकवादी होने का आरोप लगाया जाता है या उस पर देशद्रोह या राजद्रोह के आरोप लगा दिए जाते हैं या फिर उन पर सांप्रदायिकता फैलाने की बात कही जाती है और उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी जाती है, तो इसका असल मकसद देश में ऐसे बाकी जागरूक लोगों का हौसला पस्त करना होता है। कुछ गिने-चुने लोगों को ऐसे कड़े कानूनों के तहत गिरफ्तार करके जेल में लंबे समय तक रखकर, मुकदमों को आगे न बढ़ाकर सरकारें लोकतांत्रिक आंदोलनों को खत्म करती हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के इस आदेश और उसकी इस टिप्पणी को देखते हुए देश में बाकी जगहों पर भी इस किस्म की कार्रवाई के बारे में दोबारा सोचना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता, मजदूर अधिकारों के लिए अदालतों में लडऩे वाली एक प्रमुख वकील सुधा भारद्वाज को भी महाराष्ट्र में गिरफ्तार हुए हजार दिन हो रहे हैं और वे भी अब तक बिना जमानत जेल में हैं। लोकतंत्र में सामाजिक कार्यकर्ताओं को अदालती फैसलों के भी पहले इस तरह की सजा देना सरकार के हाथ में है। ऐसे मामलों का जब अदालती निपटारा होगा, तब जाकर यह पता लगेगा कि उनके खिलाफ चलाए गए मुकदमे में कुछ दम था या नहीं। और उसके बाद भी देश की सबसे बड़ी अदालत तक पहुंचने में फिर बरसों लग जाते हैं। लेकिन इस बीच ऐसे आंदोलनकारियों की जिंदगी तबाह करना सरकार के हाथ में रहता है और यह काम देशभर में जगह-जगह चल रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
देश में ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों को भी खत्म करना चाहिए जो अंग्रेजों ने हिंदुस्तानियों पर राज करने के लिए एक बदनीयत से बनाए थे, और जो एक गुलाम देश के लायक थे. हिंदुस्तान के आजाद होने के बाद पौन सदी गुजर रही है और अब तक हिंदुस्तानी कानून अगर अंग्रेजों का पखाना ढोकर चल रहा है तो उसमें फेरबदल की जरूरत है. लेकिन दिक्कत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार ने कई कानूनों को और अधिक कड़ा किया है जिससे लोकतांत्रिक आंदोलनों की, असहमति की गुंजाइश और कम हो गई है। इसके अलावा ऐसे कानूनों के तहत नाजायज कार्रवाई के मामले लगातार बढ़ रहे हैं और अदालतों से इनका निपटारा होने तक एक पूरी पीढ़ी के हौसले खत्म करने का सरकारी मकसद तो पूरा हो ही जाता है। अब यह समझ में नहीं आता है कि सरकार की ऐसी कार्यवाही के खिलाफ अदालतों से कैसे जल्दी इंसाफ मिल सके और कैसे ऐसी मिसाल कायम हो सके जो बाद में दूसरे मामलों में भी इस्तेमाल हो?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)