संपादकीय

'छत्तीसगढ़' का संपादकीय : अंग्रेजों की भाषा पढ़ने के लिए बेहतर इमारत क्यों ज़रूरी है?
25-Jun-2021 3:26 PM
'छत्तीसगढ़' का संपादकीय : अंग्रेजों की भाषा पढ़ने के लिए बेहतर इमारत क्यों ज़रूरी है?

छत्तीसगढ़ में सरकार सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए भी अंग्रेजी में पढ़ने का इंतजाम कर रही है और प्रदेश के हर जिले में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले जा रहे हैं। इनके लिए अलग से शिक्षक नियुक्त हो रहे हैं जिनके लिए इश्तहार हो चुके हैं। इनमें दाखिले के लिए बच्चों से आवेदन बुलाकर उसकी लॉटरी निकाली जाएगी और दाखिला होगा। इस बीच जमीन पर सरकारी स्कूलों को अंग्रेजी स्कूल बनाने का काम भी तेजी से चल रहा है, उनका ढांचा सुधारा जा रहा है, उनके अहाते में सब तरह के विकास कार्य हो रहे हैं, इमारतों का रंग रोगन हो रहा है, खुद सरकार की घोषणाओं को देखें तो वहां पर अच्छी लाइब्रेरी और अच्छी कंप्यूटर लैब भी बनने जा रही है। सरकार का यह कहना है कि जब भी कोई नई चीज बनती है तो वह नए पैमानों के आधार पर पहले से बेहतर बनती है, और फिर बाद में बाकी पुरानी चीजों को भी सुधारने का काम होता है। सरकारी अंग्रेजी स्कूलों को बेहतर ढांचागत सुविधाओं के साथ शुरू करने का एक यह तर्क भी सरकार दे रही है कि इन स्कूलों का मुकाबला निजी अंग्रेजी स्कूलों से होगा इसलिए बच्चों के परिवार उन्हें यहां तभी भेजेंगे जब यहां निजी स्कूलों से तुलना करने के लायक सहूलियतें होंगी।

यह देखकर अच्छा लग रहा है कि हर शहर में कुछ सरकारी स्कूलों का दर्जा ऊंचा हो रहा है और वे बाकी सरकारी स्कूलों के मुकाबले खासी अधिक सहूलियत वाली होने जा रही हैं क्योंकि वे अब अंग्रेजी स्कूल रहेंगी। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम लगातार अंग्रेजी को एक भाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए लिखते आए हैं, ना सिर्फ स्कूल कॉलेज में, बल्कि इनकी इमारतों में छुट्टी के दिन या शाम के घंटों में आम लोगों के लिए भी अंग्रेजी सीखने-सिखाने का सरकारी या सामाजिक इंतजाम करने की सलाह हम देते आए हैं। अब सरकार का इंतजाम साफ-साफ दो किस्म का हो रहा है एक तो अधिक सहूलियतों वाली अंग्रेजी स्कूल है, और दूसरा पहले से चली आ रही हिंदी स्कूल है जिनमें दिक्कतों की भरमार है, और जिनके सुधार के लिए जिन्हें बेहतर बनाने के लिए सरकार के बजट में कोई अधिक रकम भी नहीं दिख रही है। कुछ लोगों ने अंग्रेजी स्कूलों की शानदार इमारतों की तस्वीरें देखते ही सोशल मीडिया पर यह पोस्ट करना शुरू किया है कि हिंदी भाषा की बाकी सरकारी स्कूलों का बदहाल कैसा है। लोगों ने विधानसभा में राज्य सरकार के पेश किए हुए आंकड़े बतलाए हैं कि सैकड़ों स्कूलों में कोई अहाता नहीं है, और ना ही उन्हें बनाने के लिए सरकार ने बजट में कोई रकम रखी है। स्कूल की इमारतों को लेकर अभी जैसे ही सत्र चालू होगा, लगातार जगह-जगह से तस्वीरें आने लगेंगी कि कहां पानी गिर रहा है, कहां छप्पर टूटा हुआ है, और कहां पानी में डूबकर बच्चों को स्कूल की इमारत तक पहुंचना पड़ता है।

इसमें कोई हैरानी या बदनीयत की बात नहीं है कि जैसे ही नई सरकारी अंग्रेजी स्कूलों की अधिक चमकदार और शानदार इमारतों की तस्वीरें आईं वैसे ही लोगों को बाकी स्कूलों की बदहाली याद आने लगी। ऐसा होता ही है आजादी की सालगिरह के दिन ही यह अधिक याद पड़ता है कि देश में लोग किस-किस बात के लिए आज भी आजाद नहीं है। गांधी जयंती या गांधी पुण्यतिथि के दिन याद पड़ता है कि गांधी को आज किस तरह अप्रासंगिक बना दिया गया है और उनकी बात पर उनकी शुरू की हुई कांग्रेस पार्टी ही नहीं चल रही है। इसलिए जब एक तरफ प्रदेश के कुछ अफसर और सत्तारूढ़ पार्टी के कुछ नेता अंग्रेजी स्कूलों के लिए तैयार शानदार इमारतों की तस्वीरें पोस्ट कर रहे हैं तो उसी वक्त बहुत लोगों को हिंदी स्कूलों की याद आएगी ही आएगी।

राज्य सरकार के कई लोगों से पिछले कुछ महीनों में बात करके हमें जो समझ आया है, उसमें एक बात फिर भी समझ नहीं आई है कि अगर अंग्रेजी भाषा में कोई पढ़ाई होनी है, तो उसके लिए हिंदी भाषा की पढ़ाई वाली स्कूलों के मुकाबले बेहतर ढांचा क्यों जरूरी है? अगर सरकार का यह तर्क है कि अगर ढांचा बेहतर नहीं रहेगा तो लोग अपने बच्चों को सरकारी अंग्रेजी स्कूल में क्यों भेजेंगे? तो यह तो जाहिर है कि सरकारी अंग्रेजी स्कूल क्योंकि बिना फ़ीस बच्चों को पढ़ाएगी इसलिए मां बाप अपने बच्चों को वहां भेजना चाहेंगे, और जो संपन्न तबका निजी अंग्रेजी स्कूल का खर्च उठा सकता है, वह सरकारी अंग्रेजी स्कूलों के बाद भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजेगा। अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी हो सकती है और उनकी भर्ती करते समय उन्हें हिंदी भाषा के शिक्षकों के मुकाबले अधिक तनख्वाह देने की मजबूरी हो सकती है क्योंकि यह पूरी तरह से बाजार में डिमांड और सप्लाई की बात है। जब अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने वाले शिक्षकों की कमी है तो वे अधिक तनख्वाह की मांग रख सकते हैं और सरकार को उसे मानना पड़ सकता है। लेकिन स्वामी आत्मानंद के नाम पर शुरू किए जा रहे अंग्रेजी स्कूलों के लिए शान शौकत का दिखने वाला, और हो सकता है कि महज अधिक सहूलियत वाला, ऐसा ढांचा बनाने की क्या जरूरत है जो कि बाकी हिंदी स्कूलों को इस सरकार के बाकी कार्यकाल में भी नसीब नहीं हो सकता? सरकार के पास शिक्षा के बजट के लिए इतना पैसा नहीं दिख रहा है कि प्रदेश की सभी सरकारी हिंदी स्कूलों को इतना साधन-संपन्न बना दिया जाए, या उन पर इतना रंग-रोगन भी कर दिया जाए। ऐसे में अंग्रेजी भाषा पढ़ाने के लिए सरकार इस समाज में एक ऐसा विभाजन खड़ा कर रही है जो कि भाषा के आधार पर हो रहा है, और सरकारी खर्चे से हो रहा है। हमारे हिसाब से यह सामाजिक खाई न सिर्फ गलत है बल्कि गैरजरूरी भी है। बहुत सी ऐसी शिक्षण संस्थाएं रहती हैं जो कम साधन सुविधा में भी अपने बच्चों को बहुत अच्छा तैयार करती हैं। बिहार में लोगों को पढ़ाकर आईआईटी जैसे संस्थानों में दाखिले के लिए तैयार करने वाले आनंद कुमार की कहानी सबने देखी हुई है कि किस तरह बिना किसी सहूलियत के और केवल गरीब तबके के बच्चों को पढ़ाकर देश में सबसे अधिक संख्या में आईआईटी में दाखिला करवाने लायक उन्हें बनाते हैं। इसलिए इस बात में हमारा कोई भरोसा नहीं है कि अंग्रेजों की जुबान में पढ़ाई करवाने के लिए हिंदी के मुकाबले बेहतर इमारत की जरूरत है, अधिक सहूलियतों की जरूरत है, अधिक रंग-रोगन की जरूरत है। 

उन बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए जो ऐसी रंग-बिरंगी इमारतों के सामने से होकर अपनी हिंदी स्कूल आएंगे-जाएंगे जहां उन्हें बहुत सी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा। यह सिलसिला एक भाषा की गैरजरूरी दहशत में आ जाने का है कि अंग्रेजी के लिए अधिक सहूलियत की जरूरत होती है। सरकार को अपने पैसे से इस किस्म का फर्क नहीं करना चाहिए। और कुछ लोग यह तर्क भी दे रहे हैं कि जिस वक्त केंद्र सरकार ने नवोदय स्कूल शुरू किए थे, वे भी ऐसी ही आलोचना के शिकार हुए थे कि वे कुलीन टापू होकर रह जाएंगे। हम ऐसी किसी तुलना को पूरी तरह से गलत मानते हैं क्योंकि नवोदय की सोच एक बिल्कुल अलग सोच थी, वह शहरी और ग्रामीण बच्चों को एक साथ रखकर पढ़ाने की थी, वह अलग-अलग जाति और धर्म के बच्चों को एक साथ रहकर पढ़ाने की थी, और वह देश के अलग-अलग प्रदेशों के बीच बच्चों की अदला-बदली से एक अलग किस्म का राष्ट्रीय एकीकरण करने वाली सोच थी जो कि अपने मकसद में बहुत ही कामयाब भी हुई है। छत्तीसगढ़ में अंग्रेजी के लिए बन रही या बन चुकी सुंदर दिख रही स्कूलों से हमें कोई शिकायत नहीं है लेकिन इस बात का अफसोस जरूर है कि प्रदेश की 99 फ़ीसदी बाकी सरकारी हिंदी स्कूलें शायद ही कभी ऐसी सहूलियत में पा सकें। हिंदी भाषा एक गरीब क़िस्म का दर्जा पाकर रह जा रही है, और अंग्रेजी का आतंक ऐसा दिख रहा है कि उस भाषा में पढ़ाने के लिए बेहतर ढाँचा जरूरी लग रहा है। इसलिए सरकार को अंग्रेजी स्कूल भी उसी किस्म के ढांचे में शुरू करना था ताकि हिंदी बच्चों को हीनभावना का शिकार ना होना पड़े कि वे हिंदी में पढ़ रहे हैं इसलिए वह घिसी-पिटी पुरानी इमारत के टूटे-फूटे फर्नीचर पर बैठकर दिक्कतों में पढ़ रहे हैं और चुनिंदा बच्चे अंग्रेजी पढ़ रहे हैं, तो वे सूट-बूट में बेहतर इमारत में बेहतर फर्नीचर पर बैठकर पढेंगे। किसी भी भाषा में पढ़ाने के लिए किसी बेहतर ढांचे की जरूरत नहीं होती सिवाय उस भाषा के शिक्षकों के और उस भाषा की किताबों के। छत्तीसगढ़ सरकार हमारे हिसाब से एक निहायत गैरजरूरी दबाव में आ गई है और उसने खुद ही मान लिया है कि अंग्रेजी भाषा में पढ़ने वालों का हक, हिंदी भाषा में पढ़ने वालों से कुछ अधिक होना चाहिए। सरकारी खर्च पर गिने-चुने बच्चे एक ग़ैरज़रूरी आत्मगौरव में जिएँ, और बाक़ी तमाम बच्चे उन्हें देखकर हीनभावना में रहें, यह अच्छी बात नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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