संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुख्य न्यायाधीश ने लोकतंत्र की बुनियादी समझ आज क्यों दी है?
01-Jul-2021 4:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मुख्य न्यायाधीश ने लोकतंत्र की बुनियादी समझ आज क्यों दी है?

photo courtsey ANI

भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने कहा है कि चुनावों के जरिये सत्ता में बैठे हुए लोगों को बदल पाने का अधिकार, निरंकुश शासन से बचे रहने की गारंटी नहीं है।

रमन्ना ने 17वें पीडी देसाई मेमोरियल लेक्चर को संबोधित करते हुए कहा कि ‘लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए यह जरूरी है कि तर्कसंगत और अतर्कसंगत, दोनों तरह के विचारों को जगह दी जाये। दिन-ब-दिन होने वाली राजनीतिक चर्चाएं, आलोचनाएं और विरोधियों की आवाजें, एक अच्छी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं। इनका सम्मान किया जाना चाहिए।’ उन्होंने कहा कि लोकतंत्र की खूबसूरती इसी में है कि इस व्यवस्था में आम नागरिकों की भी एक भूमिका है। सरकार पर असहमति व विरोध की आवाज को दबाने और आलोचनाओं को बर्दाश्त नहीं किए जाने के लगने वाले आरोपों के बीच रमन्ना ने कानूनी विद्वान जूलियस स्टोन के कथन का जिक्र करते हुए कहा, ‘हर कुछ वर्षों में एक बार शासक को बदलने का अधिकार, अपने आप में तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी नहीं होनी चाहिए’। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि चुनाव, दिन-प्रतिदिन के राजनीतिक संवाद, आलोचना और विरोध की आवाज ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न अंग’ हैं। उन्होंने कहा, ‘यह हमेशा अच्छी तरह से माना गया है कि हर कुछ वर्षों में शासक को बदलने का अधिकार,  अपने आप में तानाशाही के खिलाफ सुरक्षा की गारंटी नहीं होना चाहिए... यह विचार कि आखिरकार लोग ही संप्रभु हैं, यह मानवीय गरिमा और स्वायत्तता के विचार में परिलक्षित होना चाहिए। तर्कसंगत और उचित सार्वजनिक संवाद को मानवीय गरिमा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में देखा जाना चाहिए और इसलिए यह ठीक से काम करने वाले लोकतंत्र के लिए जरूरी है।’

जस्टिस रमन्ना ने भारत के आज के लोकतंत्र के बारे में बहुत आसान शब्दों में बड़ी गंभीर बात कही है और इसलिए हम उनकी कही हुई बात को उसका एक हिस्सा ज्यों का त्यों ऊपर रखने के बाद अपनी बात शुरू कर रहे हैं। उन्होंने इस व्याख्यान में कानून के राज्य को लेकर कई पहलुओं पर बहुत कुछ कहा लेकिन हम उन सब पर कुछ टिप्पणी करने के बजाए इतने सीमित मुद्दे पर अपनी बात आगे बढ़ाना चाहते हैं। उनका कहा हुआ बहुत मायने रखता है कि लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए जरूरी है कि तर्कसंगत और तर्कहीन, इन दोनों तरह के विचारों को जगह दी जाए, आलोचना और विरोध की आवाज लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है इनका सम्मान किया जाना चाहिए। जाहिर तौर पर उनकी ये बातें हिंदुस्तान में आज असहमति के खिलाफ मौजूद एक असहिष्णुता को लेकर की गई हैं। यह बात क्योंकि एक व्याख्यान में उन्होंने कही है इसलिए इसे उनके किसी अदालती फैसले या अदालत की किसी टिप्पणी से जोडक़र नहीं देखा जा सकता। लेकिन यह बात तो साफ है कि अदालत के फैसले जज की अपनी सोच से प्रभावित रहते ही हैं और सुप्रीम कोर्ट क्योंकि मौजूदा संविधान और कानून की भी व्याख्या करता है और कई मौकों पर वह संविधान की कुछ धाराओं को असंवैधानिक भी करार देता है इसलिए सुप्रीम कोर्ट के जजों की निजी सोच किसी एक विवाद पर सिर्फ वही तक के फैसले तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह संविधान की एक व्यापक व्याख्या करती है और जिससे देश का लोकतंत्र भी एक दिशा पाता है। 

आज उन्होंने जितनी महत्वपूर्ण बात कही है उसे देश की राजनीति में शामिल तमाम हिस्सेदारों को गंभीरता से सुनना और उस पर सोचना चाहिए। उन्होंने तर्कहीन बातों को भी लोकतंत्र में जगह देने की बात कही है और आलोचना और विरोध की आवाजों को भी अच्छी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा कहा है। दरअसल लोकतंत्र एक ऐसी लचीली व्यवस्था है जो कि कई मायनों में बहुत महंगी भी पड़ती है। एक तानाशाही शायद समय बचाने वाली व्यवस्था रहती है जिसमें सरकार और सरकारी एजेंसियों के हाथ अंधाधुंध अधिकार रहते हैं, अदालतों के अधिकार सीमित रहते हैं, फैसले बहुत तेजी से हो जाते हैं, गुनहगारों को या जिन्हें सरकार गुनाहगार मानती है उन्हें सजा बहुत तेजी से हो जाती है। यह पूरी तस्वीर हिंदुस्तान की इमरजेंसी जैसी है। लेकिन जैसे-जैसे तानाशाही लोकतंत्र की तरफ बढ़ती है, और लोकतंत्र परिपक्वता की तरह बढ़ता है, सारी व्यवस्था अधिक लचीली होने लगती है, और अधिक खर्चीली भी होने लगती है उसमें असहमति के लिए संदेह का लाभ बढ़ते चलता है और सत्ता को एक असहमति के साथ जीना सीखना पड़ता है। असहमति न शहरी नक्सल करार दी जा सकती और न ही उसे देशद्रोही करार दिया जा सकता। 

असहमति खुद सत्ता के हित में होती है, अगर सत्ता को तानाशाही मिजाज की मनमानी करने की हसरत रहे तो असहमति सत्ता को गलतियों से बचाती भी है। हम हिंदुस्तान के बहुत ताजा इतिहास को देखें और मोदी के प्रधानमंत्री बनने के ठीक पहले की यूपीए सरकार को देखें, तो यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल में वामपंथी दल सरकार के बाहर रहते हुए सरकार का समर्थन कर रहे थे। वे सत्ता में भागीदार नहीं थे लेकिन वे संसद में जरूरी गिनती जुटाने में एक जिम्मेदारी के भागीदार थे। सरकार पर वामपंथियों की नजरें थी और अगर यूपीए के पहले कार्यकाल को देखें तो उस कार्यकाल में कोई बड़े भ्रष्टाचार नहीं हो पाए थे, सरकार बड़ी ऐतिहासिक गलतियां नहीं कर पाई थी। लेकिन यूपीए के दूसरे कार्यकाल में जब वामपंथियों के बाहरी समर्थन की जरूरत नहीं रह गई थी, और सरकार वामपंथियों के प्रति जवाबदेही भी नहीं रह गई थी, उस वक्त उस सरकार ने ढेरों गलतियां की। मतलब यह कि असहमति और जवाबदेही इनसे किसी भी लोकतंत्र में सत्ता सही राह पर चलने को मजबूर होती है जो कि उसे नापसंद हो सकता है लेकिन लंबे वक्त को देखें तो यह खुद सत्ता के हित की बात रहती है। 

जिस तरह मनमोहन सिंह सरकार का दूसरा कार्यकाल भ्रष्टाचार से भरा रहा उस सरकार को जनता ने ऐतिहासिक स्तर तक खारिज कर दिया, उसे देखकर भी लोगों को सीखना चाहिए। लेकिन होता यह है कि जब कोई पार्टी और नेता सत्ता पर रहते हैं तो उन्हें असहमति को उसी तरह कुचलना सुहाता है जिस तरह पकड़ी गई अवैध शराब की बोतलों को जमीन पर बिछाकर किसी रोड रोलर से उन्हें चूर-चूर कर दिया जाता है। सत्ता के मन को पढऩा अगर मुमकिन हो तो वह असहमति पर ऐसा ही रोड रोलर चलाना चाहती है। लेकिन भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कल अपने इतने लंबे व्याख्यान में जो कहा है उस पर सबको गौर करना चाहिए, उन्होंने कोई रहस्यमय रॉकेट साइंस की बात नहीं कही है, उन्होंने लोकतंत्र की ऐसी बुनियादी बात कही है जिसकी समझ तो सबको है लेकिन जिसे समझना सत्तारूढ़ शायद ही कोई चाहते हैं। लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा है, 5 बरस में वोट डालने के बीच में भी लोगों की अहमियत रहती है, हम भी इस बात को अलग-अलग शब्दों में लगातार लिखते आए हैं और सोशल मीडिया पर भी इस बात को लिखते आए हैं कि हिंदुस्तान में हर 5 बरस में वोट देने के हक को लोकतंत्र करार देने का झांसा दिया जाता है, या लोग खुद ही उस झांसे में पड़े रहते हैं। जस्टिस रमन्ना एक जिम्मेदारी के ओहदे पर बैठे हैं इसलिए उन्होंने इतने हमलावर तेवर में बात नहीं कही है, लेकिन कुल मिलाकर बात इसी तरह की है कि हिंदुस्तान के लोकतंत्र में लोगों की असहमति लोकतंत्र के अपने विकास के लिए उसकी सेहत के लिए जरूरी है। 

लोकतंत्र संसद की बहस से परे का होता है, संसद की बहस भी लोकतंत्र का महज एक छोटा हिस्सा होती है, एक बड़ी बहस संसद सत्रों के बाहर, संसद में पार्टियों की गिरोहबंदी से परे, एक आजाद बहस होती है, और वह बहस हिंदुस्तान के आज के हाल को देखें तो वह संसद की नामौजूद बहस के मुकाबले तो बहुत अधिक अहमियत रखती है। संसद की बहस तो अब, स्मृतियां ही शेष हैं, किस्म की याद पड़ती है। जिस देश में लाखों लोगों की मौजूदगी वाली एक-एक चुनावी सभा सेहत पर खतरा न मानी जाती हो और जिस देश में एक-एक दिन में दसियों लाख लोगों का कुंभ स्नान भी देश की सेहत पर खतरा ना माना जाता हो, वहां पर हजार से कम सांसदों के दो अलग-अलग सदनों में बैठकर देश की बात करने को सेहत पर ऐसा खतरा मान लिया गया है कि आज किसी को यह याद भी नहीं होगा कि संसद का पिछला सत्र कब हुआ था। इसलिए हम भारतीय लोकतंत्र में संसद के आसरे जीना नहीं चाहते, संसद तो सत्ता के नियंत्रण में काम करने वाली एक ऐसी संस्था है जिसके उठने-बैठने को सत्ता तय करती है, इसलिए वहां से कोई अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। जो सडक़ों पर बहस होती है, और संसद के बाहर जो बहस होती है, वही इस देश में लोकतंत्र को जिंदा रहने का थोड़ा बहुत सुबूत रह गई है। इसलिए लोगों को अपने इस वक्त का इस्तेमाल करना चाहिए और तर्कसंगत हो या कि तर्कहीन हो, लोगों की बातों को सुनना चाहिए उन्हें बर्दाश्त करना चाहिए, और एक-दूसरे को अपने तर्कों से सहमत करना चाहिए ना कि लोगों की असहमति की वजह से उनकी भीड़त्या करने के।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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