संपादकीय
श्याम बेनेगल की उनकी अपनी शैली से हटकर बनाई गई एक फिल्म ‘कलयुग’ जिनको याद हो, उन्हें हर मौत के बाद जुटने वाले कुनबे का नजारा याद होगा, जब आपस में एक दूसरे के खून के प्यासे लोग भी सफेद कपड़े पहनकर गम में शरीक होने के लिए पहुंच जाते हैं। फिल्म में कुछ दिनों बाद एक और किसी की मौत होती है, और एक-दूसरे पर शक करते हुए भी लोग अंतिम संस्कार में पहुंच जाते हैं, या उसके बाद की श्रद्धांजलि के लिए। आज भी आमतौर पर यह देखने मिलता है कि जो संपन्न तबका है वह गमी के मौके पर जाने के लिए सफेद रंग के कपड़े पहन लेता है, फिर चाहे वह कपड़े बहुत फैशनेबल ही क्यों ना हों। कपड़ों का सफेद होना जरूरी माना जाता है। यही वजह है कि अभी फिल्म अभिनेत्री मंदिरा बेदी के पति की कम उम्र में ही दिल के दौरे से मौत हो गई, मंदिरा ने अपनी रोज की घरेलू पोशाक जींस और सफेद टीशर्ट में ही पति के अंतिम संस्कार किए, और इस बात को लेकर सोशल मीडिया पर लोग उन पर बरस पड़े। हिंदुस्तानी लोगों की सोच पति को खोने वाली महिला को सफेद साड़ी में देखने की है, और उनकी वह हसरत मंदिरा बेदी से पूरी नहीं हो पाई। उनकी एक और हसरत पूरी नहीं हो पाई होगी कि पति को खोने वाली महिला को फर्श पर या दरी पर बैठकर आने-जाने वाले लोगों की श्रद्धांजलि लेनी चाहिए, और श्मशान जाकर अंतिम संस्कार करने का काम मर्दों को करने देना चाहिए। मंदिरा ने जब अपने गुजरे हुए पति का अंतिम संस्कार खुद किया, तो उससे भी हिंदुस्तानी मर्दानगी को खासी ठेस लगी होगी, क्योंकि मर्दों के एकाधिकार वाला यह मामला अगर महिलाएं करने लगें, तो यह चलन तो धीरे-धीरे महिलाओं को पुरुषों की बराबरी पर ले आएगा।
लेकिन सोशल मीडिया पर जिन लोगों को कमीनगी की आदत पड़ी हुई है, उन लोगों ने इस बात को लेकर बखेड़ा खड़ा किया कि अंतिम संस्कार के इस मौके पर मंदिरा बेदी ने जींस और टीशर्ट पहन रखा था। हालाँकि हिंदू और हिंदुस्तानी रिवाजों के मुताबिक मंदिरा के आधे कपड़े तो सफेद रंग के थे, जो कि हिंदुओं की विधवा महिला के लिए तय की गयी पोशाक के हिसाब से ठीक रंग था, लेकिन हिंदुओं की भावनाओं को इस बात को लेकर ठेस लगी कि सफेद रंग की साड़ी के बजाय मंदिरा सफ़ेद टी शर्ट और जींस में क्यों थीं। उन्हें यह भी ठेस लगी होगी कि मंदिरा ने अर्थी को कंधा क्यों लगाया, उन्हें इस बात से भी दहशत हुई होगी कि शव के आगे-आगे अग्नि लेकर मंदिरा खुद चल रही थी। फिर उन्हें यह भी खड़ा होगा कि एक महिला विद्युत शवदाह गृह में आखिरी पल तक अपने पति के शव के साथ बनी हुई थी। अगर तमाम महिलाएं ऐसा करने लगे तो मर्दों के एकाधिकार का क्या होगा? इसी बात को लेकर लोग मंदिरा बेदी पर टूट पड़े हैं, और उनके खिलाफ जो मन में आए वह लिख रहे हैं।
हम इस अभिनेत्री के बारे में इस जगह पर लिखने की और कोई वजह नहीं सोच सकते थे. आज हिंदुस्तान के हजारों लोगों ने जिस तरह उनके खिलाफ जहर उगला है उसकी वजह से इस मौत और अंतिम संस्कार की खबर को पढ़ते हुए मंदिरा के बारे में यह भी पता लगा कि 10 बरस का अपना एक बेटा होते हुए पिछले बरस उन्होंने 4 बरस की एक बच्ची को गोद भी लिया था। और इस परिवार के सोशल मीडिया अकाउंट उस बच्ची के साथ पूरे परिवार की तस्वीरों से भरे हुए हैं कि वे उस बच्ची के साथ कितने खुश हैं और वह बच्ची उनके साथ कितनी खुश है। हिंदुस्तान के जिस समाज के लोग पति को खोने वाली और विधवा कहलाने वाली एक महिला को साड़ी में ना देखकर जिस तरह जख्मी हो गए हैं, उन्हें अपने बारे में सोचना चाहिए कि अपने परिवार में 10 बरस का बेटा होने के बाद क्या वे बाहर की किसी एक बच्ची को गोद लेने की हिम्मत रखते हैं? और क्या गमी के मौके पर एक सफेद साड़ी पहन लेना क्या एक किसी बच्ची को अपनाने के मुकाबले अधिक बहादुरी का और अधिक इंसानियत का काम है?
हिंदुस्तान के लोगों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो खूबियों वाले इंसान की छवि से बिल्कुल अलग रहते हैं, हालाँकि हम इंसान को महज खूबियों वाला नहीं मानते और हैवानियत कही जाने वाली हरकतों को हम इंसानियत के बाहर का नहीं मानते। इसलिए हमारे लिए तो कमीनगी दिखाने वाले लोग इंसान ही हैं, उनके भीतर की ये घटिया हरकतें इंसानियत ही है। उनके भीतर से ऐसी हिंसा करवाने के लिए बाहर से कोई हैवान नहीं आता है, उनके भीतर का ही एक हिस्सा ऐसा काम करवाता है, जिसे वे अपने से परे बाहर का कुछ और दिखाना चाहते हैं। एक परिवार जिसमें कम उम्र में अकेली होने वाली महिला के दुख तकलीफ को समझने के बजाय जिनको उसकी जींस खटक रही है, उन्हें अपने परिवार को इंसानियत के इस पैमाने पर आंकना चाहिए कि क्या वे बाहर की किसी बच्ची को अपनाकर अपने परिवार में खुश रख सकते हैं? या फिर भी किसी हिंदू महिला के माथे का सिंदूर पोंछकर, गले का मंगलसूत्र तोडक़र, हाथों की चूडिय़ां चूर-चूर करके ही खुश होंगे? मंदिरा बेदी ने जिस तरह से अनजाने-अनचाहे ही सही, हिंदुस्तानियों की इस कमीनगी पर चोट की है, वह बहुत अच्छी बात हुई है। श्याम बेनेगल की फिल्म ‘कलयुग’ में मन में जहर लिए हुए लोग झक सफेद कपड़े पहनकर विरोधी के अंतिम संस्कार में भी पहुंचे जाते थे, उस दर्जे की इंसानियत के बजाय इस दर्जे की इंसानियत बेहतर है जो दिखावे और नाटक के लिए सफेद साड़ी पहनने के बजाय अपनी आम जींस में है, और अपने पति की आखरी झलक तक उसके साथ है।