संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : स्थाई रूप से मंत्रमुग्ध प्रशंसकों को छोडक़र बाकी देश का हाल
03-Jul-2021 3:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : स्थाई रूप से मंत्रमुग्ध प्रशंसकों को छोडक़र बाकी देश का हाल

हिंदुस्तान में आज बहुत से लोगों को पेट्रोल और डीजल के सौ रुपये पार कर जाने की दिक्कत ही सबसे बड़ी लग रही है। कुछ और लोग हैं जिन्हें गैस सिलेंडर के कुछ साल पहले के दाम और आज के दाम में फर्क के साथ-साथ यूपीए सरकार के वक्त भाजपा नेताओं द्वारा सडक़ों पर किए गए प्रदर्शन की तस्वीरें और वीडियो याद पड़ रहे हैं। आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस वक्त के वे वीडियो भी चारों तरफ घूम रहे हैं जिनमें वे डॉलर के दाम बढऩे और पेट्रोल, डीजल, गैस के दामों में मामूली इजाफा होने को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर तीखे हमले कर रहे थे। आज इन तमाम चीजों के दाम आसमान पर हैं. पेट्रोल, डीजल, गैस, और डॉलर के दाम तो आसमान पर हैं, तेल और दाल जैसी बुनियादी जरूरत की दूसरी चीजें भी अंधाधुंध महंगी हो चुकी हैं। देश के हालात कितने खराब हैं इसका अंदाज लगाना हो तो एक प्रमुख हिंदी अखबार में साथ में छपी हुई दो सुर्खियों को देखने की जरूरत है जिसमें अकेले मध्यप्रदेश में प्रोविडेंट फंड के 12 लाख खातों से इस वित्तीय वर्ष में जून के महीने तक 35 सौ करोड़ रुपए निकालने के आंकड़े हैं। इसका मतलब यह है कि हर खाते से औसतन 29 हजार रुपियों से अधिक निकाले गए हैं। यह लगता है कि कोरोना के इलाज और बढ़ती महंगाई की वजह से लोगों को यह करना पड़ा। दूसरी खबर यह बतलाती है कि किस तरह पिछले 2 महीने में एमपी में ही लोगों ने करीब डेढ़ टन सोना गिरवी रखा और 700 करोड़ों रुपए का कज़ऱ् लिया है, सोने पर लोन देने वाली निजी कंपनियां भी बहुत आक्रामक तरीके से तरीके से इश्तहार देकर ग्राहक जुटाती हैं, और सरकारी और निजी बैंक भी सोने पर लोन देने लगे हैं।

अब सवाल यह उठता है कि जिन लोगों ने पीएफ से रकम निकाली वे संगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं और उनके प्रोविडेंट फंड से निकाली गई रकम आंखों में दिख रही है। लेकिन जो लोग असंगठित क्षेत्र के कर्मचारी हैं, जिनका पीएफ जमा नहीं होता है, जो छोटे कारोबारी हैं, जो लॉकडाउन और कोरोना के पूरे दौर में सडक़ पर आ गए हैं, और जो सडक़ किनारे फुटपाथ पर कारोबार करते थे वह मानो एक तरीके से खिसककर नालियों में जा चुके हैं। इन सबकी दिक्कत यह रही कि इनकी कमाई का जरिया रोजाना होने वाली कमाई थी जो कि महीनों तक बंद रही, और इनकी खपत रोजाना की रही जिसमें परिवार का खानपान रहा, बिजली और किराया रहा, और परिवार की दूसरी रोजाना की जरूरतें रहीं। इनमें से कोई जरूरत खत्म नहीं हुई, बंद नहीं हुई, थमी नहीं, बस कमाई थम गई, और ऐसा भी नहीं कि वह कमाई बाजार खुलने के बाद बकाया भी हो जाए और बीते नुकसान की भरपाई कर ले।  

क्योंकि हिंदुस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा असंगठित कर्मचारियों का है जिनके बारे में सरकारी आंकड़े कुछ भी नहीं बता पाते, और गरीब मजदूरों का है जिनके बारे में सरकार के आंकड़े महज मनरेगा जैसी सरकारी रोजगार योजनाओं में दिए गए काम की जानकारी रखते हैं, इनके अलावा गरीबों की हालत या मध्यमवर्गीय असंगठित लोगों की हालत का पता लगाने का सरकार के पास कोई जरिया नहीं है। नतीजा यह है कि सरकार का जनधारणा प्रबंधन लोगों को जितना खुशहाल बता सकता है, बता रहा है, और महत्वहीन बातों को लेकर एक-दूसरे को बधाई दे रहा है, देश के प्रधानमंत्री को बधाई दे रहा है, और इस हद तक बधाई दे रहा है कि अब लोग सोशल मीडिया पर यह मजाक बनाने लगे हैं कि कल बारिश हुई और आज धूप निकली इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हार्दिक बधाई। देश के इस हाल को समझने की जरूरत है जब मामूली खाते-पीते लोग पीएफ के पैसे निकालकर इलाज करा रहे हैं, या खा पी रहे हैं, और जो हिंदुस्तान सोना खरीदने के लिए बावला रहता है वह हिंदुस्तान सोने के गहने गिरवी रखकर सैकड़ों करोड़ रुपए कर्ज लेकर भारी ब्याज चुकाने के लिए तैयार है. जिंदगी चलाने के लिए उसके लिए यह जरूरी हो गया है, और अखबार की रिपोर्ट कहती है कि सबसे अधिक मंगलसूत्र गिरवी रखे गए हैं।  जो लोग हिंदुस्तानी संस्कृति को जानते हैं, और अधिकतर हिंदुस्तानी या हिंदू महिलाओं की पसंद और प्राथमिकता को जानते हैं, उन्हें मालूम है कि मंगलसूत्र पहनने वाला पहला गहना होता है, और उतारने वाला आखिरी गहना। अब अगर इसे भी इतनी बड़ी संख्या में गिरवी रखा गया है तो तो यह परिवार को जिंदा रखने के लिए सुहाग के प्रतीक को गिरवी रखने का काम है जो कि कोई भी महिला या परिवार बहुत आसानी से नहीं करते।

देश में आज आर्थिक स्थिति इस कदर खराब है कि उसका अंदाज लगाना बड़ा मुश्किल है। लोग करोड़ों की संख्या में रोजगार खो बैठे हैं कारोबार बंद हो रहे हैं, बाजार में जहां सामान है वहां ग्राहक नहीं है, घरों में जहां जरूरत है वहां खरीदने की ताकत नहीं है। इस देश का क्या होगा, यहां के लोगों का क्या होगा, इसका कोई अंदाज किसी को लग नहीं रहा है। महज वही लोग आज के इस वक्त को भी खुशहाल मानकर चल रहे हैं जो हर हाल में देश की मौजूदा लीडरशिप से खुश रहने की कसम खाए हुए हैं। वे खुद तो एक मंत्रमुग्ध दौर से गुजर रहे हैं, लेकिन आबादी के ऐसे हिस्से से परे, और लोग खुश नहीं हैं, और उन्हें भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है, और बिजली की भी जरूरत पड़ती है, पेट्रोल और गैस की जरूरत भी पड़ती है, लेकिन किसी चीज तक उनकी पहुंच नहीं रह गई है। यह पूरा सिलसिला जितना सोचे उतना अधिक निराश करता है, कि यह कहां जाकर थमेगा? अगर थमेगा तो कब थमेगा, और उस वक्त तक कितने लोग किस हाल में बचेंगे, यह कुछ भी पता लगाना या कुछ भी सोच पाना बड़ा ही मुश्किल है। आज ऐसे लोगों की दिमागी हालत से बस रश्क हो सकता है जो लोग ऐसे में भी खुशी मुमकिन मानकर चल रहे हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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