विचार / लेख
-ज्योति गोयल
भारत में आज नारी 18 वर्ष की आयु के बाद ही बालिग अर्थात विवाह योग्य मानी जाती है। परंतु मशहूर अमेरिकन इतिहासकार कैथरीन मायो (्यड्डह्लद्धद्गह्म्द्बठ्ठद्ग रूड्ड4श) ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘मदर इंडिया’ (जो 1927 में छपी थी) में स्पष्ट लिखा है कि भारत का रूढि़वादी हिन्दू वर्ग नारी के लिए 12 वर्ष की विवाह/सहवास आयु पर ही अडिग था।
1860 में तो यह आयु 10 वर्ष थी। इसके 30 साल बाद 1891 में अंग्रेजी हुकूमत ने काफी विरोध के बाद यह आयु 12 वर्ष कर दी। धार्मिक ब्राह्मणों ने 34 साल तक इसमें कोई परिवर्तन नहीं होने दिया। इसके बाद 1922 में तब की केंद्रीय विधान सभा में 13 वर्ष का बिल लाया गया। परंतु धर्म के ठेकेदारों के भारी विरोध के कारण वह बिल पास ही नहीं हुआ।
1924 में हरीसिंह गौड़ ने बिल पेश किया। वे सहवास की आयु 14 वर्ष चाहते थे। इस बिल का सबसे ज्यादा विरोध पंडित मदन मोहन मालवीय ने किया, जिसके लिए ‘चाँद’ पत्रिका ने उन पर लानत भेजी थी। अंत में सिलेक्ट कमेटी ने 13 वर्ष पर सहमति दी और इस तरह 34 वर्ष बाद 1925 में 13 वर्ष की सहवास आयु का बिल पास हुआ।
6 से 12 वर्ष की उम्र की बच्ची सेक्स का विरोध नहीं कर सकती थी। उस स्थिति में तो और भी नहीं, जब उसके दिमाग में यह ठूंस दिया जाता था कि पति ही उसका भगवान और मालिक है। जरा सोचिये! ऐसी बच्चियों के साथ सेक्स करने के बाद उनकी शारीरिक हालत क्या होती थी? इसका रोंगटे खड़े कर देने वाला वर्णन Katherine Mayo ने अपनी किताब ‘Mother India’ में किया है कि किस तरह बच्चियों की जांघ की हड्डियां खिसक जाती थी, मांस लटक जाता था और कुछ तो अपाहिज तक हो जाती थीं।
6 और 7 वर्ष की पत्नियों में कई तो विवाह के तीन दिन बाद ही तड़प-तड़प कर मर जाती थीं। स्त्रियों के लिए इतनी महान थी हमारी मनुवादी संस्कृति। अगर भारत में अंग्रेज नहीं आते तो भारतीय नारी कभी भी उस नारकीय जीवन से बाहर आ ही नहीं सकती थी।
संविधान बनने से पहले स्त्रियों का कोई अधिकार नहीं था। मनुस्मृति के अनुसार बचपन में पिता के अंडर, जवानी में पति की दासी और बुढ़ापे में बेटे की कृपा पर निर्भर रहती थी।