सामान्य ज्ञान
रासलीला उत्तर प्रदेश में प्रचलित लोकनाट्य का एक प्रमुख अंग है। इसका आरंभ सोलहवीं शती में वल्लभाचार्य तथा हितहरिवंश आदि ने की। उसका नेतृत्व रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण को दिया था।
भक्तिकाल में इसमें राधा-कृष्ण की प्रेम-क्रीड़ाओं का प्रदर्शन होता था, जिनमें आध्यात्मिकता की प्रधानता रहती थी। इनका मूलाधार सूरदास तथा अष्टछाप के कवियों के पद और भजन होते थे। उनमें संगीत और काव्य का रस तथा आनन्द, दोनों रहता था। लीलाओं में जनता धर्मोपदेश तथा मनोरंजन साथ-साथ पाती थी, इनके पात्रों—कृष्ण, राधा, गोपियों— के संवादों में गंभीरता का अभाव और प्रेमालाप का आधिक्य रहता था, कार्य की न्यूनता और संवादों का बाहुल्य होता था। इन लीलाओं में रंगमंच भी होता था, किन्तु वह स्थिर और साधारण कोटि का होता था। प्राय: रासलीला करने वाले किसी मन्दिर में अथवा किसी पवित्र स्थान या ऊंचे चबूतरे पर इसका निर्माण कर लेते थे। देखने वालों की संख्या अधिक होती थी। रास करने वालों की मण्डलियां भी होती थीं, जो पूना, पंजाब और पूर्वी बंगाल तक घूमा करती थीं। किन्तु उन्नीसवीं शती में रीति-कविता के प्रभाव से रास-लीलाओं की धार्मिकता, रस और संगीत को धक्का लगा। अत: उनमें न तो रस का प्रवाह रहा और न संगीत की शास्त्रीयता। उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन रह गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘श्रीचन्द्रावली नाटिका’ पर रासलीला का प्रभाव है और आधुनिक काल में वियोगी हरि की ‘छद्म-योगिनी नाटिका’ भी रासलीला से प्रभावित है। आज भी उत्तर प्रदेश के पश्चिमी जिलों— फर्रुखाबाद, मैनपुरी, इटावा— विशेषतया मथुरा-वृन्दावन, आगरा की रासलीलाएं प्रसिद्ध है। ये प्राय: कार्ति्तक-अगहन, वैशाख और सावन में हुआ करती हंै।