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तालिबान, रूस और चीन को भरोसे में ले रहा है पर भारत की उपेक्षा क्यों?
16-Jul-2021 8:47 AM
तालिबान, रूस और चीन को भरोसे में ले रहा है पर भारत की उपेक्षा क्यों?

WAKIL KOHSAR, 25 दिसंबर, 2015 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी काबुल में नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में. इस संसंद भवन का निर्माण भारत ने ही किया था. साथ में हैं अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी

-राघवेंद्र राव

अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी देशों की सेना अफ़ग़ानिस्तान से तेज़ी से लौट रही है और उसी रफ़्तार से तालिबान हर रोज़ नए इलाक़ों पर कब्ज़ा करता जा रहा है.

ऐसी हालत में भारत ख़ुद को एक अजीब स्थिति में पा रहा है. तालिबान को आधिकारिक तौर पर कभी मान्यता नहीं देने वाला भारत अब तालिबान को सत्ता पर काबिज़ होने की ओर बढ़ता देख रहा है.

शायद यही वजह है की भारत अपनी बरसों पुरानी नीति को छोड़कर तालिबान के साथ बैक-चैनल से वार्ता कर रहा है.

जून में जब भारत के विदेश मंत्रालय से पूछा गया कि क्या भारत सरकार तालिबान के साथ सीधी बातचीत कर रही है तो विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में "अलग-अलग स्टेकहोल्डरों" के संपर्क में है.

विदेश मंत्रालय ने तालिबान के साथ किसी वार्ता की पुष्टि नहीं की लेकिन उन रिपोर्टों से इनकार भी नहीं किया, जिनमें कहा गया था कि भारत तालिबान के कुछ गुटों के साथ बातचीत कर रहा है.

भारत के अब तक तालिबान के साथ सीधी बातचीत शुरू न करने की बड़ी वजह ये रही है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय मिशनों पर हुए हमलों में तालिबान को मददगार और ज़िम्मेदार मानता था.

भारत का तालिबान के साथ बात न करने का एक और बड़ा कारण ये भी रहा है कि ऐसा करने से अफ़ग़ान सरकार के साथ उसके रिश्तों में दिक्क़त आ सकती थी जो ऐतिहासिक रूप से काफ़ी मधुर रहे हैं.

हाल ही में भारत ने कंधार से अपने वाणिज्यिक दूतावास से अपने कर्मचारियों को वापस बुला लिया लेकिन साथ ही ये साफ़ किया कि कंधार में भारत के दूतावास को बंद नहीं किया गया है और कंधार के पास भीषण लड़ाई की वजह से एक "अस्थायी उपाय" के तौर पर ये क़दम उठाया गया है.

पिछले साल अप्रैल में भारत ने हेरात और जलालाबाद वाणिज्यिक दूतावास से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. हालांकि, इसकी वजह कोविड-19 महामारी को बताया गया था.

भारत के विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर ने हाल ही में मॉस्को में कहा कि हिंसा से अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति का समाधान नहीं निकाला जा सकता है और अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता पर जो भी काबिज़ हो, वो 'जायज़ तरीके' से होना चाहिए.

भारत का अफ़ग़ानिस्तान में क्या दांव पर
पिछले कई वर्षों में अफ़ग़ानिस्तान में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं और संस्थानों के पुनर्निर्माण में तीन अरब डॉलर से अधिक का निवेश कर चुका भारत इस बात से चिंतित है कि अगर तालिबान सत्ता हासिल कर लेता है तो इन निवेशों का क्या होगा.

भारत सरकार के अनुसार अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं. अफ़ग़ानिस्तान के संसद भवन का निर्माण भारत ने किया है और अफ़ग़ानिस्तान के साथ मिलकर भारत ने एक बड़ा बाँध भी बनाया है. शिक्षा और तकनीक के क्षेत्रों में भी भारत लगातार अफ़ग़ानिस्तान को मदद करता रहा है.

पिछले साल नवंबर में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक नई विकास पहल की घोषणा की, जिसके तहत वो काबुल को पानी की आपूर्ति के लिए एक बांध बनाएगा और आठ करोड़ डॉलर की लागत से 150 सामुदायिक परियोजनाओं का निर्माण करेगा.

मगर इन निवेशों से कहीं ज़्यादा भारत की चिंता ये है कि तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में सत्ता हासिल कर लेने पर कहीं वो पाकिस्तान के ख़िलाफ़ अपनी सामरिक बढ़त न खो दे.

जो भी भारत, पाकिस्तान और तालिबान के रिश्तों से वाकिफ़ हैं और ये समझते हैं कि तालिबान के राज में जहाँ अफ़ग़ानिस्तान पर भारत की पकड़ कमज़ोर हो सकती है, वहीं पाकिस्तान का दबदबा कई गुना बढ़ सकता है.

पाकिस्तानी फ़ौज के प्रवक्ता मेजर जनरल बाबर इफ्तिखार हाल ही में कह चुके हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत का निवेश डूबता दिख रहा है. पाकिस्तान ये दावा करता रहा है कि भारत के अफ़ग़ानिस्तान में क़दम रखने का "असली मक़सद पाकिस्तान को नुक़सान पहुँचाना था."

प्रोफ़ेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के प्रमुख हैं.

बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि तालिबान के साथ भारत का जुड़ाव कुछ ऐसा है जो अब भी रहस्य में डूबा हुआ है. वे कहते हैं, "हम वास्तव में नहीं जानते कि क्या हो रहा है और तालिबान के साथ भारत किस हद तक जुड़ा है लेकिन यह भारत के लिए संवेदनशील मुद्दा है. तालिबान को खुले तौर पर गले लगाना मुश्किल हो सकता है लेकिन मुझे पूरा यक़ीन है कि बैकचैनल खोल दिए गए हैं और चर्चाएं चल रही हैं."

क्या अफ़ग़ानिस्तान के प्रति भारत के रुख़ में दूरदर्शिता की कमी रही है? इसके जवाब में पंत कहते हैं, "जब आप अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश में निवेश कर रहे हैं, और अपने संबंधों को सुरक्षित करने के इच्छुक नहीं हैं तो यह भी एक समस्या है क्योंकि आज बड़ा सवाल यह है कि आप अफ़ग़ानिस्तान में अपने निवेशों की रक्षा कैसे करते हैं."

पंत कहते हैं कि भारत का लक्ष्य अफ़ग़ानिस्तान में राजनीतिक समझौता देखना है और अगर तालिबान आज जीत भी जाता है, तो अफगानिस्तान अंततः एक अराजक स्थिति में पहुँच सकता है.

वे कहते हैं, "तालिबान की जीत पिछली बार की तरह निर्णायक नहीं होने वाली है. 1990 के दशक में वे 70 प्रतिशत अफ़ग़ानिस्तान पर शासन कर रहे थे लेकिन वो एक गृहयुद्ध था. इसी तरह इस बार भी आप वही चीजें होते हुए देखने वाले हैं. ऐसे में यह भारत के लिए परेशानी का सबब बनने वाला है."

जहाँ तालिबान रूस और चीन जैसे बड़े देशों की चिंताओं को लेकर उन्हें आश्वस्त कर रहा है वहीं भारत की चिंताओं को लेकर उसने कोई आश्वासन नहीं दिए हैं. इसका क्या मतलब निकला जाए?

पंत कहते हैं कि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि तालिबान अपने दोस्त पाकिस्तान को इनाम देगा. वे कहते हैं, "तालिबान का चीन को दोस्त कहना कोई हैरानी की बात नहीं है. भारत के लिए एक स्थिर और समृद्ध या लोकतांत्रिक अफ़ग़ानिस्तान का विचार ही अंतिम लक्ष्य रहा है. दूसरे देशों की उम्मीदें इससे काफ़ी कम रही हैं. ईरान के लिए मुख्य चिंता उनकी सीमा है, जहाँ से वे नहीं चाहते कि शरणार्थी ईरान में आएं."

दूसरे देशों की चर्चा करते हुए पंत कहते हैं, "रूस के लिए मसला मध्य एशिया की स्थिरता है क्योंकि रूस चाहता है कि अफ़ग़ानिस्तान से लगने वाले देशों की सीमाएं सुरक्षित रहें. चीन ने बड़े-बड़े दावे किए हैं और अफ़ग़ानिस्तान में निवेश की बात करता रहा है लेकिन धरातल पर कुछ नहीं हुआ. चीन के लिए इस समय सबसे महत्वपूर्ण फॉल्ट-लाइन शिनजियांग है और वे चाहते हैं कि उस सीमा को सुरक्षित किया जाए."

पंत कहते हैं कि तालिबान के लिए रूस को यह कहना आसान है कि वे मध्य एशिया में कोई ख़तरा पैदा होने नहीं देंगे. इसी तरह उनके लिए चीन को संतुष्ट करना आसान है. लेकिन भारत को यह भरोसा दिलाना कि तालिबान ने इरादे बदल दिए हैं या कि तालिबान बड़े पैमाने पर समस्याएँ पैदा नहीं कर रहा है, इसमें ज़मीनी स्तर पर काम करके दिखाना होगा जो तालिबान के लिए आसान नहीं है.

वे कहते हैं, "अगर हम ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं जहां भारत तालिबान के साथ काम कर रहा है, तो भारत कुछ खास चीज़ों को करने के लिए कुछ निश्चित समय सीमा की मांग करेगा. मुझे नहीं लगता कि तालिबान की इसमें दिलचस्पी होगी."

पंत यह भी कहते हैं कि चूंकि अफ़ग़ानिस्तान में भारत के प्रवेश का ज़रिया हमेशा वहां की सरकार ही रही है इसलिए तालिबान का उस देश में सत्ता में आ जाना भारत के लिए एक समस्या बनने वाला है.

क्या अफ़ग़ानिस्तान में भारत हाशिये पर पहुँच गया
राजनयिक अमर सिन्हा अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं. बीबीसी ने उनसे पूछा कि क्या आज भारत खुद को अफ़ग़ानिस्तान में हाशिये पर पाता है?

सिन्हा ने कहा कि वे ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं, "लोग तर्क दे सकते हैं कि यह एक झटका है लेकिन हमें यह याद रखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में जो हो रहा है वह भारत का युद्ध ही नहीं था."

सिन्हा के मुताबिक अमेरिकियों के साथ हुए समझौते ने तालिबान को वैधता दी और दूसरे देशों को उनसे बात करने के लिए प्रोत्साहित किया और अब तालिबान पिछले दरवाजे से सत्ता में आने की कोशिश कर रहा है. वे कहते हैं कि अमेरिकियों को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि उनके जाने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में क्या होता है.

सिन्हा कहते हैं, "ऐसा नहीं था कि भारत अफ़ग़ानिस्तान को चला रहा था या भारत सबसे ज़्यादा हताहत हुआ है" लेकिन भारत की चिंता अब यह है कि अगर एक कट्टरपंथी इस्लामी सरकार अफ़ग़ानों को मारकर या जनसंहार करके सत्ता में आती है तो क्या होगा.

हमने पूर्व राजदूत अमर सिन्हा से पूछा कि क्या भारत पिछले साल के दोहा समझौते के बाद तालिबान के प्रति अपनी नीति में कुछ बदलाव ला सकता था?

इसके जवाब में उन्होंने कहा, "अंतत: आप उन लोगों से बात करते हैं जिन तक आपकी पहुंच है. अब उनका मुख्य नेतृत्व पेशावर और क्वेटा में स्थित है. तालिबान के दोहा कार्यालय में वो लोग शामिल थे जो कभी अमेरिका की ग्वांतानामो जेल में रहे थे और जिन्हें दोहा में एक कोर बनाने के लिए रखा गया था लेकिन निर्णय लेने का काम क्वेटा में हो रहा था."

सिन्हा के मुताबिक तालिबान तक पहुंचना आसान नहीं था और चीन और रूस भी तालिबान से बात सिर्फ़ पाकिस्तान के सहयोग से कर पा रहे थे. वे कहते हैं कि तालिबान को शांति की उम्मीद में कई देशों की जो प्रारंभिक स्वीकृति मिली थी वो तालिबान के सरकार बनाने की स्थिति में पूर्ण राजनयिक मान्यता में तब्दील नहीं हो सकती है.

वे कहते हैं, "तालिबान यह भी जानते हैं कि उनका हिंसा से सत्ता हथियाना पूरी तरह से नाजायज़ होगा. उनकी न तो घरेलू और न ही अंतरराष्ट्रीय मान्यता होगी. तो अब हम जो देख रहे हैं वह उनकी शर्तों पर अंतिम वार्ता के लिए अपने फायदे बढ़ाने का उनका प्रयास हो सकता है."

सिन्हा का मानना है कि तालिबान शासन ईरानी मॉडल की ओर बढ़ सकता है जहां मौलवियों की एक बड़ी भूमिका होती है. वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि उन्होंने किसी सरकार में सिर्फ मंत्री या उप मंत्री बनने के लिए यह लड़ाई लड़ी है. वे पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं."

तो अफ़गानिस्तान पर भारत की विदेश नीति क्या होनी चाहिए? सिन्हा के मुताबिक ये इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा हालात से क्या परिणाम निकलता है और वहां बनने वाली सरकार का स्वरूप क्या होगा.

वे कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि तालिबान के सरकार में शामिल होने से भारत को कोई वैचारिक कठिनाई है. भारत के पास विदेश नीति के कई विकल्प हैं, लेकिन ज़ाहिर है कि इसमें भारत का युद्ध क्षेत्र में उतरना शामिल नहीं है."

आने वाले वक़्त पर नज़र
आने वाले कुछ महीनों में ये साफ हो जायेगा कि अफ़ग़ानिस्तान के हालात किस दिशा में मुड़ते हैं. ऐसे में भारत भी अफ़ग़ानिस्तान के राजनीतिक घटनाक्रम पर पैनी नज़र बनाए रखना चाहेगा.

हर्ष पंत कहते हैं कि अगर तालिबान को सत्ता हासिल होती है तो भारत उनके साथ संबंध स्थापित करने वाले देशों में पहला नहीं होगा. वे कहते हैं, "भारत का नज़रिया ये होगा कि हम एक कदम पीछे हटें और कहें कि हम इस सरकार को तुरंत मान्यता नहीं देंगे और देखेंगे कि क्या होता है. बहुत सारे देश भी यही करने जा रहे हैं. अगर कोई राजनीतिक समझौता होना है तो भारत की भूमिका अधिक संवेदनशील है."

अगले कुछ महीने अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं और बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में वास्तव में होता क्या है.

पंत कहते हैं, "मुझे लगता है कि तालिबान यह स्पष्ट कर रहे हैं कि उन्हें राजनीतिक समझौते की परवाह नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि वे जीत गए हैं. मुद्दा यह है कि क्या तालिबान की वैचारिक प्रतिबद्धता उनकी व्यावहारिक प्रवृत्ति पर हावी होगी?"

पंत कहते हैं, "अगर वे व्यावहारिक हैं तो तालिबान को इस क्षेत्र के कुछ देशों तक हाथ बढ़ाना होगा. यही व्यावहारिकता भारत के प्रति उनकी सोच में झलक रही है. जब अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठा तो पाकिस्तान ने इसे कश्मीर से जोड़ा लेकिन तालिबान ने कहा कि उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि भारत कश्मीर में क्या करता है."

पंत का कहना है कि तालिबान ने बार-बार ये दिखाने की कोशिश की है कि वे बदल रहे हैं लेकिन भारत के दृष्टिकोण से बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि अफ़ग़ानिस्तान में सरकार कैसे बनती है.

वे कहते हैं, "ज़्यादातर लोग इस बात से सहमत हैं कि यह तालिबान के प्रभुत्व वाली सरकार होगी और यह देखा जाना बाकी है कि इसमें और कौन शामिल होगा. विदेश मंत्री जयशंकर ने वैधता की बात की है. भारत वैधता की बात की ज़मीन तैयार कर रहा है. अगर एक मध्यकालीन शैली की तालिबान सरकार बनती है तो मुझे नहीं लगता कि भारत उसे मान्यता देगा."

दूसरी तरफ अमर सिन्हा कहते हैं कि वे इस धारणा से सहमत नहीं हैं कि तालिबान सत्ता में आएगा "क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में कड़े मुकाबले की तैयारियाँ चल रही हैं". (bbc.com)

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