संपादकीय
एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी के लिए फोटोग्राफर की हैसियत से काम करने वाले एक हिंदुस्तानी नौजवान दानिश सिद्दीकी की मौत दिल हिला देने वाली है। वे पिछले कुछ वर्षों से लगातार कई देशों में मुश्किल हालातों के बीच जाकर संवेदनशील फोटोग्राफी करने के लिए मशहूर हो चुके थे, और उन्होंने कई देशों में तरह तरह के संकटों की फोटोग्राफी की थी। हाल ही में उनका नाम खबरों में जमकर आया था जब उन्होंने भारत के कई श्मशान घाटों पर कदम-कदम पर जल रही चिताओं की तस्वीरें लीं, और ड्रोन कैमरे से भी तस्वीरें लेकर श्मशान का हाल लोगों के सामने रखा। जिन लोगों को ऐसे हालात में भी किसी सरकार की आलोचना करना ठीक नहीं लगता है, उन लोगों ने इस फोटोग्राफर को ही कोसा था कि यह पूरी दुनिया में हिंदुस्तान को बदनाम करने का काम कर रहा है। इसमें कोई नई बात नहीं है, मीडिया पर ऐसी तोहमतें लगती ही रहती हैं, और जिस वक्त मीडिया केवल एक आईने की तरह लोगों के सामने खड़ा हो जाता है, और उन्हें सच का चेहरा दिखाने लगता है, तो भी अपना वैसा चेहरा देखने से दहशत में आने वाले लोग उस आईने को तोडऩे के लिए पत्थर चलाते ही हैं। इसलिए दानिश सिद्दीकी को सोशल मीडिया पर गद्दार कहा गया देश को बदनाम करने वाला कहा गया और अभी जब अफगानिस्तान में अफगानी फौजी और तालिबान लड़ाकों के बीच चल रहे संघर्ष की फोटोग्राफी करते हुए उनकी मौत हुई, इस पर हिंदुस्तान में नफरतजीवियों ने भारी खुशी जाहिर की। सोशल मीडिया पर जमकर उनके खिलाफ लिखा गया और माना गया कि एक देशद्रोही को, एक गद्दार को ऐसी ही मौत मिलनी चाहिए थी। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी के लिए फोटोग्राफर की हैसियत से काम करने वाले एक हिंदुस्तानी नौजवान दानिश सिद्दीकी की मौत दिल हिला देने वाली है।
जिस देश में नफरतजीवी इतने मुखर होने के साथ-साथ गिनती में अधिक भी होने लगते हैं, उस देश में लोकतंत्र गड्ढे में जाने लगता है। किसी भी लोकतंत्र में सच को जानने और मानने वाले लोग गिनती में ज्यादा रहते हुए भी मुंह कम खोलते हैं, लेकिन जो लोग सच को जानकर भी झूठ को बढ़ावा देना चाहते हैं, ऐसे नफरतजीवी लोग खूब जमकर एक हो जाते हैं, और नफरत पूरी दुनिया में फेविकोल के मजबूत जोड़ से कहीं अधिक मजबूत जोड़ की तरह काम आता है। हिंदुस्तान में आज सरकार की आलोचना को नफरत का सामना करना पड़ रहा है, नफरत का शिकार होना पड़ रहा है। लोग लोकतंत्र की इस बुनियादी बात को भूल चुके हैं कि सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपने कामों के लिए और अपनी नाकामी के लिए भी लोगों की आलोचना को झेले, उससे सबक ले, और अपने आप को बेहतर बनाएं। यह सिलसिला जहां टूटता है वहां पर सरकार और अधिक नाकाम होना शुरू हो जाती है। हिंदुस्तान में कुछ महीने पहले कोरोना से होने वाली मौतों से श्मशानों पर, और कब्रिस्तान पर बढऩे वाली भीड़ की तस्वीरें देखने के लिए बड़े हौसले की जरूरत थी। लेकिन इन तस्वीरों का सामने आना भी जरूरी था। जब तक आज के हालात की हकीकत लोगों की नजरों के सामने ना आए उन्हें अपने घरों में महफूज बैठे हुए कुछ भी खराब नहीं दिखता है, खुद का पेट भरा रहे तो मुल्क में भूख भी नहीं दिखती है, खुद के घर में जनरेटर से रोशनी होती रहे, तो मोहल्ले का पावरकट भी नहीं दिखता है। इसलिए मीडिया की तो यह जिम्मेदारी ही है कि चाहे कितना ही कड़ा और कड़वा दिखे, सच को लोगों के सामने रखना है, और दानिश सिद्दीकी ने यही काम किया था।
यह काम हिंदुस्तान में पहली बार नहीं हुआ, एमपी में कांग्रेस के राज में अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और भोपाल गैस त्रासदी हुई तो पूरे देश के, और दुनिया के फोटोग्राफर भोपाल पहुंचे, और भोपाल की ऐतिहासिक तस्वीरें दर्ज की। वह तो पूरी त्रासदी ही सरकारी लापरवाही से उपजे भोपाल गैस कांड का नतीजा थी, और उस मौके पर सरकार की आलोचना कम नहीं हुई थी, लेकिन क्योंकि उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था और सोशल मीडिया पर पेशेवर अंदाज में पीछा करने के लिए लोग छोड़े नहीं गए थे, इसलिए किसी ने भोपाल पहुंचे फोटोग्राफरों की कोई आलोचना नहीं की थी। इसके अलावा भी बहुत से ऐसे मौके थे, 1984 का सिख विरोधी दंगा था, 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, और 2002 के गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे थे, इन सबकी तस्वीरें सामने आई थीं, लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था, और लोगों के पीछे अपने भाड़े के लोगों को छोडऩे की सहूलियत नहीं थी। अब एक कामयाब और समर्पित पेशेवर प्रेस फोटोग्राफर की ऐसी मौत पर भी लोग जश्न मना रहे हैं और खुशियां मना रहे हैं, और उसकी जिंदगी को कोस रहे हैं। इससे दानिश सिद्दीकी के पत्रकारिता में योगदान को कोई चोट नहीं पहुंचाई जा सकती, लेकिन लोग इस बात का सबूत सामने जरूर रख रहे हैं कि वे इंसान की शक्ल में दिख जरूर रहे हैं, उनके भीतर हैवान पूरी तरह से काबिज है।
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